Maharaja Kehri Singh

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Maharaja Kehri Singh

Maharaja Kehri Singh (महाराजा केहरी सिंह, भरतपुर) was the ruler of princely state of Bharatpur (1769-1771). He ascended to throne on the death of his father Maharaja Ratan Singh. He was a minor and the family feud arose as to decide who should be the guardian of the young ruler. But his rule proved to be short lived as he passed away in 1771.

महाराज केहरीसिंह

ठाकुर देशराज लिखते हैं कि यह रतनसिंहजी के सुपुत्र थे। जिस समय उनके पिता का स्वर्गवास हुआ, उस समय वे केवल दो वर्ष के थे। दानशाह नामक एक सरदार को महाराज के शासन-कार्य में सहकारी नियुक्त किया गया। किन्तु उससे महारानी किशोरी असन्तुष्ट थीं, इसलिए उसे निकालकर कुंवर नवलसिंह जी को महाराज का सहकारी नियुक्त किया गया। यह महाराज जवाहरसिंह के भाई थे। महारानी किशोरी और उनका मनमुटाव आरम्भ से ही था। फिर भी महारानी किशोरी चाहती थीं कि राज-काज भली प्रकार चले। इसलिए एक दिन उन्होंने इन्हें कुम्हेर में इसलिए बुलाया कि वैमनस्य की पहली बातें भूला दी जाएं। किन्तु नवलसिंह जी को कुम्हेर जाने पर कुछ सन्देह मालूम हुआ। उन्हें बताया गया कि आपको यहां धोखे से बुलाया गया है। वह चुपचाप वहां से चल दिए और पांच हजार सैनिक लेकर कुम्हेर पर चढा़ई कर दी। राव रणजीतसिंह भी इस चिन्ता में थे कि भरतपुर पर उनका अधिकार जमे। इस समय को लड़ाई के लिए उपयुक्त समझा और नवलसिंह के मुकाबले पर आ डटे। उन्होंने सिख और मराठों की बीस हजार सेना किराए पर


1.कहना यह चाहिए कि भारत के राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक उत्कर्ष का विकास काफी समय के लिए अवरुद्ध हो गया- संपादक


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-660


मंगा ली। इस बार विजय कुंवर नवलसिंह की ही हुई। यह घरेलू युद्ध बराबर चार महीने चला था।

रणजीतसिंहजी को अपनी हार से दुःख हुआ था इसलिए वे चुप न बैठे। फिर उन्होंने मराठों का बुलाया। इस बार मराठा एक लाख सेना लेकर चढ़ आये। नवलसिंह ने बीस-पच्चीस हजार नागे कर मराठों का मुकाबला किया। अऊ नामक स्थान पर युद्ध हुआ। लगातार पांच दिन तक युद्ध होता रहा। विजय का कोई उपाय न देखकर नवलसिंह ने मराठों को सत्तर लाख रुपये देकर अपने देश को वापस चले जाने पर तैयार कर लिया। इस सन्धि के अनुसार यमुना के पूर्ववर्ती देश भी मराठों को देने पड़े। लौटते हुए मराठों से राव रणजीतसिंह ने रूपवास में भेंट करके - “आप तो हमें राज दिलाने आये थे, अब कहां जा रहे हैं?” मराठों ने कहा - “हम आपको राज्य तो दिलाना चाहते हैं।” इस पर उनका मान बिगाड़ने के लिए रणजीतसिंह ने कहा - “भरतपुर तो हमारा है ही, आप क्या दिलाएंगे?” वास्तव में उनके हृदय को एकदम इतनी हानि होते देखकर दुःख हुआ था। वे अपने भाई नवलसिंह के पास गोवर्धन पहुंचे, क्योंकि इस समय नवलसिंह गोवर्धन में ही थे।

भरतपुर के राज-परिवार को इस तरह घरेलू झगड़ों और शाही युद्धों में फंसा हुआ देखकर माचेड़ी के राव प्रतापसिंह ने जो कि किसी समय भरतपुर में शरणागत रहा था, भरतपुर के अधीनस्थ अलवर, बहादुरपुर, देहरा, मिदौली, वानसूर, बहरोर, बरौद, रामपुर, हरसौरा, हाजीपुर, नारायनपुर, थानागाजी और गढ़ी मासूर पर अधिकार कर लिया। अलवर को प्रतापसिंह ने युद्ध द्वारा और बहादुरी के साथ प्राप्त नहीं किया, किन्तु अलवर के किलेदारों को लालच देकर अपनी ओर मिलाया था। उन लोगों की कई महीने की तनख्वाहें चढ़ी हुई थीं।1 राजधानी भरतपुर में आन्तरिक कलह छिड़ा हुआ था। प्रताप सिंह एक स्वतंत्र राजा बन गया और अलवर का किला भरतपुर के हाथ से कतई निकल गया। यह घटना सन् 1775 से 1782 के बीच की है।

इससे भी पहले नजफखां ने आगरे पर 1773 ई. में आक्रमण किया। दुर्ग के जाट सिपाहियों ने डटकर युद्ध किया, किन्तु नजफखां सवाया पड़ा। नजफखां जब रुहेलखण्ड की ओर गया तो कुंवर नवलसिंह ने बदला चुकाने के लिए उसकी राजधानी देहली पर चढ़ाई की। दस हजार सवारों से ही सिकन्दराबाद को विजय कर लिया। किन्तु अपने सरदारों के षड़यंत्र के कारण वापस लौट आए। आगरा जाटों के ही अधिकार में रहा। दूसरी बार नवलसिंह ने समरू की सेना लेकर देहली पर फिर चढ़ाई की। किन्तु उस समय नजफखां रुहेलखण्ड से लौट आया था।


1. राजपूताना गजेटियर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-661


थोड़े ही दिनों बाद नजफखां ने धोखे से बरसाने और डीग पर चढ़ाई कर दी। लगातार चौदह महीने तक नवलसिंह ने उससे युद्ध किया। विवश होकर उन्हें डीग छोड़नी पड़ी। इन्हीं दिनों सम्वत् 1833 वि. में नवलसिंह की मृत्यु हो गई। नवलसिंहजी साहित्यिक पुरुष थे। उनके पास शोभाराम नाम का कवि रहता था। उसने ‘नवल रसनिधि’ नामक काव्य पुस्तक लिखी है।

नवलसिंह की मृत्यु के पश्चात् राव रणजीतसिंह महाराज केहरीसिंह के मंत्री नियुक्त हुए। दानशाह ने इनको थोड़े दिन भी आनंद से मंत्रित्व न करने दिया। वह रुहेलों को चढ़ा लाया। अचानक रात्रि में रुहेलों ने रणजीतसिंह की सेना पर छापा मारकर बहुत नुकसान पहुंचाया। दानशाह ने कुम्हेर के किलेदार को भी बहकाना चाहा। किन्तु वह दानशाह की बातों में नहीं आया। राव रणजीतसिंह को इसी वर्ष डीग पर अधिकार करके नजफखां से भी लड़ना पड़ा।

संवत् 1834 वि. में जबकि महाराज केहरीसिंह केवल बारह वर्ष के थे उनके शीतला (चेचक) निकल आई और इसी संक्रामक रोग में उनका स्वर्गवास हो गया। नवलसिंह ने केहरीसिंह के राज्य की रक्षा के लिए घर और बाहर के सभी लोगों से युद्ध किए थे। किन्तु केहरीसिंह राज का सुखोपभोग करने का समय आने से पहले ही इस संसार से चल बसे। इस समय यह प्रश्न खड़ा हुआ कि जाट-राज्य का अधीश्वर किसे बनाया जाए?

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