Modinomics aur Krishi Sankat

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

मोदीनोमिक्स और कृषि संकट

मोदी सरकार ने अर्थव्यवस्था का 'टपकन सिद्धांत' ( Trickle Down Theory ) स्वीकार कर रखा है। यह सिद्धान्त आर्थिक नीतियों को लागू करने में सुपर धनाढ्य लोगों ( super rich ) व कॉरपोरेट घरानों को तरज़ीह देता है। टपकन सिद्धांत यह कहता है कि समाज के शीर्ष पर बैठे अर्थात धनपतियों को टैक्स एवं अन्य रियायतें देकर आर्थिक लाभ पहुंचाया जाए तो आर्थिक विकास का लाभ ऊपर से छनकर टपकते-टपकते समाज में निचले पायदान पर बैठे गरीब लोगों तक पहुंच जाएगा।

टपकन सिद्धांत (Trickle Down Theory ) का मतलब है कि उद्योगपतियों/ कॉरपोरेट घरानों/ अमीर तबक़े को राष्ट्रीय विकास के नाम पर सरकारी नीतियों के अंतर्गत प्राकृतिक संसाधनों के दोहन करने एवं रियायतें दी जाएंगी तो वे कारखाने स्थापित करेंगे और इसका फ़ायदा नीचे टपकते-टपकते ग़रीब तबक़े तक पहुंच जाएगा। इसलिए ग़रीब तबक़े के विकास की सीधी योजना नहीं बनाकर उद्योग-कारखानों को सस्ता कर्ज उपलब्ध करवाना, उनको करों में भारी रियायतें देना आदि अमीरों की हितसाधक नीतियों को अपनाया जा रहा है। 

टपकन सिद्धांत की पैरोकार मोदी सरकार कॉरपोरेट घरानों को संपदा सृजक ( wealth creators ) का मान-सम्मान देते हुए उन्हें राष्ट्रीय परिसंपत्तियां व प्राकृतिक संसाधन लुटाए जा रही है और यह सब आत्मनिर्भर भारत और गरीबों के हित का नाम लेकर किया जा रहा है। इसके दुष्परिणाम हमारे सामने हैं। कई राज्यों व खासतौर से आदिवासी इलाकों में कॉरपोरेट घरानों को सरकार जल-जंगल-जमीन-ज़ायदाद कौड़ियों कर भाव या निःशुल्क लुटा रही है। ये सब विकास और ग़रीबों के कल्याण के नाम पर किया जा रहा है। सरकार से उपकृत कॉरपोरेट घरानों ने देश के मीडिया हाउसेज को खरीदकर रातदिन सरकार की वाहवाही कर अहसान चुका रहे हैं ।

देशी कॉरपोरेट घरानों के कारखानों में बनी चीजों को बढ़ावा देने के लिए मोदी जी 'वोकल फ़ॉर लोकल' होने की रट रात-दिन लगाए हुए हैं। उनके लिए लोकल का मतलब सिर्फ कॉरपोरेट्स के कंपनी प्रोडक्ट्स से है।  एक बार भी उन्होंने यह नहीं कहा है कि गाँवों और छोटे शहरों के कुटीर उद्योगों में बनी और दस्तकारों द्वारा घरेलू स्तर बनाई गई चीजों को खरीदने को प्राथमिकता दी जाए। लोकल के लिए वोकल होने का असली अर्थ तो यह है। 

कोविड-19 विश्वमारी से उत्पन्न संकट के दौरान कुटीर उद्योगों के ध्वस्त होने से आपदा में अवसर झपटते हुए कॉरपोरेट्स ने खूब कमाई की है। कार बनाने वाली कंपनियों ने रातों- रात तथाकथित वेंटीलेटर और किट्स बनाकर सरकार को बेचकर अंधाधुंध कमाई की है। एक तरफ 'आत्मनिर्भर भारत' और 'वोकल फ़ॉर लोकल' की डुगडुगी बजाई जाती है और दूसरी तरफ रक्षा और नागरिक उड्डयन क्षेत्रों में 100 फीसदी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की अनुमति दी गई है। यह दोगलापन नहीं है तो क्या है?

कृषि संकट

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के निर्देश पर भारत में लागू की गई नई आर्थिक नीति को नव-उदारवादी नीति कहा जाता है। यह नव उदारवाद नीति पूंजीवाद का ही और ज्यादा भयंकर रूप है, जिसमें सरकार सभी जन कल्याण और जन सुविधा के क्षेत्र को भी पूँजीपतियों के हवाले कर देती है। स्वास्थ्य, शिक्षा, खेती इन सब को निजी क्षेत्र के सुपुर्द कर पूँजीपतियों के मुनाफ़े को कई गुणा बढ़ाने की नीति ही नव-उदारवादी विचार की खास बात है।

देश में आर्थिक उदारीकरण का दौर शुरू होने पर पूरे ग्रामीण व कृषि क्षेत्र को लावारिस बनाकर छोड़ दिया गया। विदेशी निवेश के नाम पर भारत की कृषि मूलक अर्थव्यवस्था को नकार दिया गया। 

साल 1991 से भारत की आर्थिक व्यवस्था में उदारीकरण का जो दौर शुरू हुआ उसने समूची आर्थिक प्रणाली को न केवल बदला बल्कि सामाजिक-आर्थिक समीकरणों को भी बदलने में उसने निर्णायक भूमिका निभाई। इसमें बाजार का महत्व सर्वोपरि हो गया और 'उपभोक्तावाद' इस व्यवस्था का नया विमर्श बन गया। उदारीकरण और निजीकरण की दौड़ में बाजार उपभोक्ताओं की मांग की आपूर्ति करने का मालिक/ कब्जेदार ( possessor ) बन गया जिसमें सरकार की भूमिका सुविधाकारक (फैसिलिटेटर) की बनती चली गई।

कृषि क्षेत्र में नव उदारवादी सुधारों से भारत में खेती घाटे का सौदा हो गयी है जिससे किसान कर्ज के जाल में फंस गया है। इसके कारण नई पीढ़ी खेती से विमुख हो रही है और शहरों में पूंजीपतियों के लिए सस्ते श्रम के बाजार का निर्माण कर रही है। नेशनल सैंपल सर्वे आर्गनाइजेशन (एनएसएसओ) की 70 वीं राउंड रिपोर्ट के अनुसार 1 एकड़ से कम भूमि वाले किसान की मासिक आय 1308 और खर्च 5401 रुपया है। इसी तरह 5 एकड़ तक भूमि वाले किसान को 28.5 प्रतिशत का नुकसान है। उगाई जाने वाली फसलों पर कुल लागत मूल्य में भारी वृद्धि और उपज का उचित मूल्य नहीं मिलना खेती में घाटे का मुख्य कारण है।

वर्तमान में एक तरफ खेती पर लागत लगातार बढ़ रही है और दूसरी तरफ किसानों की उपज के दामों में गिरावट दर्ज हो रही है। बीज व खाद उत्पादक कंपनियां सरकार से सांठगांठ कर किसानों का खून चूस रही हैं। दूसरी तरफ जब किसान अपनी उपज को बाजार में बेचने जाता है तो इसकी सप्लाई बढ़ने जाने से भाव इतने नीचे गिरा दिए जाते हैं कि फसल की लागत भी वसूल नहीं हो पाती। हालांकि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य तय करती है परन्तु उसके खरीद केंद्रों ( मंडियों ) की संख्या बहुत कम होने और उसमें भी कई पाबंदियां व खामियां होने की वज़ह से किसान की पूरी उपज खरीदी ही नहीं जाती है। नतीज़तन किसान को अपनी उपज बाज़ार में एवं बिचौलियों के पास ले जाकर औने-पौने दामों में बेचनी पड़ती है। किसान जब खेती के जरूरी सामान के लिए बाजार में जाता है तब उसे कालाबाजारियों के चंगुल में फंसना पड़ता है और जब वह अपनी उपज बेचने के लिए बाजार में जाता है तब उसे मुनाफाखोरों की शरण में जाना पड़ता है। 

किसान अपनी उपज बाजार में बेचने के बाद स्वयं उपभोक्ता बन जाता है और बाज़ार में अपने ही सामान की बढ़ी हुई कीमतों को देखकर दंग रह जाता है। मसलन आलू, प्याज, टमाटर की उपज के समय किसान को एक रुपया प्रति किलो का भाव नहीं मिलता जबकि बिचौलिए और जमाखोर बाद में क़रीब 50 रुपए किलो या इससे भी ऊपर के भाव में बेचकर उपभोक्ता का शोषण करते हैं। असल में यह बाज़ार की ताक़तों के दबदबे का परिणाम है। 

खेती के उत्पाद अन्य औद्योगिक उत्पादों की तुलना में यथोचित मूल्य से वंचित हैं। सन् 1967 में भारत में गेहूं की कीमत 76 रूपए प्रति क्विंटल और खेती के यंत्र में इस्तेमाल होने वाले लोहे की कीमत 65 रूपए प्रति क्विंटल थी। आज 53 वर्ष बाद भारत में गेहूं की कीमत 1700 रुपए प्रति क्विंटल और लोहे की कीमत 5500 रुपए प्रति क्विंटल है। 

खेती के लिए संचालित बीमा योजना बजाय किसानों को लाभ पहुंचाने के बीमा कम्पनियों को लाभ पहुंचा रही है। आज किसान को जलवायु परिवर्तन, मिट्टी के उपजाऊपन में गिरावट फसलों की उपज में कमी या ठहराव आने, जमीन के खराब होने और पर्यावरण प्रदूषण जैसी चुनौतियों से निपटना पड़ रहा है है। अतः खेती लगातार घाटे का सौदा बनती जा रही है।

==बाजार पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों का कब्ज़ा== 

भारत में घाटे की खेती का मुख्य कारण खेती की लागत में लगातार हो रही बढ़ोतरी है। भारत के बीज बाजार पर दैत्याकार बीज कंपनियों का कब्जा होता जा रहा है। भारत दुनिया का 8वां बड़ा बीज बाजार है। बहुराष्ट्रीय कंपनियां यहां 1 अरब डालर से भी ज्यादा का कारोबार करती हैं। भारत के बीज बाजार के 75 प्रतिशत से ज्यादा पर इनका कब्जा हो चुका है। बीज बेचने वाली कंपनियों द्वारा उत्पादित टमाटर का बीज 40,000 रुपए किलो, गोभी का बीज 25 से 40 हजार रुपए किलो और शिमला मिर्च का बीज 1,00,000 रुपए किलो तक बेचा जा रहा है।

उत्पादन बढ़ाने के नाम पर बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बीजों, रासायनिक खादों और कीटनाशकों का जमकर हमारी खेती में प्रयोग कराया जा रहा है। धीरे-धीरे हमारे परम्परागत बीज, जो हमारी जलवायु के अनुकूल थे, जिनके अन्दर रोग प्रतिरोधक क्षमता थी, विलुप्त होते जा रहे हैं।

बीज कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाने की नीयत से सरकार ने बीजों पर से राज्य का नियंत्रण खत्म कर उन्हें पूँजीपतियों के हवाले कर दिया है। उदारीकरण से पहले बीज सरकार बंटती थी और इसे कम दामों में किसानों को मुहैया कराती थी। जो इस क्षेत्र में निजी कंपनियां थी भी उन पर सरकारी नियंत्रण रहता था। पर अब बीज व्यापार को बाजार तथा बड़ी बहु-राष्ट्रीय कंपनियों के हवाले कर दिया गया है। नतीजा यह हुआ कि किसान इन कंपनियों के बीज को महंगे दामों में खरीदने पर मजबूर हो गए हैं । इन वैज्ञानिक तरीकों से संशोधित बीज को किसान हर साल खरीदने के लिए भी मजबूर हो  गए हैं। पहले खुद फसल से ही कुछ हिस्सा बीज के रूप में फिर से इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन बहुराष्ट्रीय बीज कंपनियों के बीज को एक बार ही इस्तेमाल किया जा सकता है। इन संशोधित बीज से पैदावार में तो बढ़त हुई लेकिन इनके रखरखाव में कीटनाशक और अन्य रासायनिक खादों की कई गुना अधिक ज़रूरत होती है। इसी तरह से खाद और कीटनाशक क्षेत्र को भी बाजार और निजी कंपनियों के सुपुर्द कर दिया गया है, साथ ही खाद पर दिए जा रहे सब्सिडी में भारी कटौती कर दी गई है, जिसका फौरन असर इन दोनों के बढ़े दामों पर पड़ा है। सरकार ने सरकारी स्तर पर कृषि संबंधी रिसर्च पर होने वाले खर्च को लगभग खत्म कर इन्हें भी निजी क्षेत्र के हवाले कर दिया है।

हाइब्रिड फसलों को उगाने के लिए बीज की कीमत गैर हाइब्रिड बीज की तुलना में कहीं ज्यादा होती है, साथ में इन फसलों को खाद, कीटनाशकों और पानी जैसे इनपुट की ज्यादा खुराक चाहिए जिससे खेती की लागत में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है। लंबे समय में, इन जहरीले रसायनों के उपयोग से मिट्टी खराब हो जाती है, क्योंकि इन रसायनों से मिट्टी में रहने वाले जीव और सूक्ष्म जीवाणु नष्ट हो जाते हैं, जो ज़मीन की उर्वरता को कायम रखने के लिए ज़रूरी हैं। इनके नष्ट होते ही मिट्टी एक प्रकार से ‘मृत’ हो जाती है और उसमें फसल उगाने के लिए पहले से कहीं अधिक मात्रा में खाद और अन्य रसायनिक पदार्थों की ज़रूरत होती है। 

भारतीय हाइब्रिड बीज व्यापार में पिछले कई वर्षों में सालाना 15-20 प्रतिशत की वृद्धि हुई है। 2018 में बीज व्यापार लगभग 18,000 करोड़ रुपये तक पहुंच गया था। इस क्षेत्र में 300 से अधिक कंपनियों ने डेरा डाल रखा है पर सिर्फ 10 घरेलू और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का बाजार में 80 प्रतिशत से अधिक का नियंत्रण है। साफ है कि बाजार पर कब्ज़ा बडी कंपनियों का ही है। 

कृषि और ग्रामीण मामलों के प्रख्यात पत्रकार पी. साईनाथ कहते हैं कि कृषि कर्ज़ को किसानों के बजाय खेती आधारित उद्यम (एग्री बिज़नेस) हजम कर रहे हैं, किसान और कृषि के नाम पर पूँजीपतियों की चांदी है, जो किसान के नाम पर कम ब्याज के कर्ज को हजम कर अपना मुनाफा बढ़ रहे हैं। 

फसल बीमा योजना के नाम चांदी कूटने वाली निजी कंपनियों के नाम सुन लेते हैं, आई.सी.आई.सी आई लोम्बार्ड, रिलायंस, टाटा-ए. आई.जी, यूनिवर्सल, बजाज अलायन्स, फ्यूचर, एसबीआई, एचडीएफसी, इफको टोकियो और चोलामंडलम। चौंकाने वाली बात यह है कि जहां साल 2016-17 में इन कंपनियों ने 17902.47 करोड़ मुआवज़े के तौर पर दिया था वहीं साल 2017-18 में इन कंपनियों ने 2,000 करोड़ रूपये कम मुआवज़ा दिया। 

फसल बीमा योजना के शुरुआत में एक सरकारी कृषि बीमा कम्पनी (Agriculture Insurance Company) भी शामिल थी जिसने 2016-17 में अकेले 7984.56 करोड़ का प्रीमियम ले कर 24,683,612 किसानों की फसल का बीमा किया था और इसमे से 5373.96 करोड़ की राशि का मुवाज़े के रूप में भुगतान भी किया था। लेकिन 2017-18 में सरकार ने अपनी ही कंपनी को इस काम से हटा लिया, सवाल यह भी है की क्यों?

किसानी और खेती से जुड़े कारोबार तेजी से फल-फूल रहे हैं। उर्वरक, खाद,  बीज, कीटनाशक और दूसरे कृषि कारोबार से जुड़ीं कंपनियां सरकारी रियायतों का फायदा भी लेती हैं। खाद और अन्य सब्सिड़ी किसान के नाम पर सीधे खाद और अन्य सामान बनाने वाली कम्पनी को जाती है। दरअसल, खेती का सारा मुनाफा खेती संबंधी कारोबार से जुड़ी कंपनियां कूट रही हैं।  यूरोप और अमरिका जैसे पुराने पूंजीवादी मुल्कों के अनुभव बताते हैं कि इस  रास्ते पर चलते हुए अंत में छोटे और मध्यम किसानों को उजड़ना पड़ा है, क्योंकि पूंजी का  मूलभूत तर्क ही अपना फैलाव करना है जिसके लिए वो नए क्षेत्रों की तलाश में रहता है। 

खाद्य जिंसों की दोषपूर्ण आयात नीति

सरकार द्वारा अपनाई जा रही आयात-निर्यात नीति पूंजीपतियों और दलालों को फ़ायदा पहुंचाने वाली है। दाल का कटोरा कहे जानेवाले बिहार में किसान दाल उगाते आए हैं, लेकिन इन सालों में दाल की फसल में हो रहे नुकसान की वजह से दाल की खेती कम कर दी हैं। वर्ष 2015-2016 में किसानों ने 7,800 रुपए क्विंटल मसूर दाल बेची थी, लेकिन अगले ही साल मसूर की दाल की कीमत घट कर 3,200 रुपए क्विंटल आ गई थी। एक क्विंटल मसूर उगाने की लागत 7,000 रुपए बैठती है, लेकिन किसानों को वो दाम भी नहीं मिल सका था, क्योंकि सरकार ने मोजाम्बिक और दूसरे देशों से सस्ती दर पर मसूर दाल खरीद ली थी। व्यापारी भी आयातित दाल ज्यादा बेचने लगे हैं, जो सस्ती है इसलिए किसानों की दाल को उचित मूल्य नहीं मिल पा रहा है। 

जून 2019 की कृषि मंत्रालय की रिपोर्ट के मुताबिक, विदेशी व्यापार समझौते के तहत भारत व आसियान देशों और साफ्टा देशों के बीच मूंग, उड़द, मसूर, तूर (अरहर), चने के आयात व निर्यात पर कोई ड्यूटी नहीं लगती। जबकि मटर, तूर, मूंग और उड़द पर आयात की मात्रा को लेकर प्रतिबंध नहीं है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, 2017-18 में भारत ने 56.07 लाख टन दालों का आयात किया था। जबकि इसी साल केवल 2 लाख टन दालों का निर्यात किया गया। भारत ने सबसे अधिक कनाडा से दालों का आयात (17 लाख टन) किया, जबकि ऑस्ट्रेलिया से लगभग 12 लाख टन आयात किया। इनके अलावा रूस, म्यांमार, यूक्रेन, रोमानिया आदि देशों से दालों का आयात करता है।

दरअसल, दाल आयात को लेकर सरकार की नीतियों से किसान परेशान हैं। दालों की मांग बढ़ने से कीमत का फायदा किसान को न मिले, इसलिए सरकारें दालों के आयात का दरवाजा खुला रखती हैं, जिस वजह से किसान के हाथ खाली ही रह जाते हैं और सरकार अपने पसंदीदा देशों से दलालों को लाइसेंस देकर दाल मंगवा लेती है। दालों का उत्पादन बढ़ने पर एक समय के लिए सरकार आयात पर रोक लगा देती है, लेकिन जैसे ही दाल की कीमत थोड़ी बढ़ने लगती हैं। इस बहाने सरकार यह प्रतिबंध हटा देती है। व्यापारी भी चांदी कूटने के लिए विदेशों से आने वाली सस्ती दाल का इंतजार करते रहते हैं। राजस्थान में भी किसानों के घरों पर मूंग-मोठ रखे पड़े हैं, भाव नहीं मिल रहा है क्योंकि सरकार द्वारा डालें बाहर से आयात करने से बाज़ार में न्यूनतम समर्थन मूल्य भी नहीं मिल पाता।

आवारा पशुओं का आतंक

जानवरों से खेती की सुरक्षा न होने के कारण किसान बड़े पैमाने पर खेती करना छोड़ रहे हैं। आवारा पशुओं के आतंक से किसानों को अपने खेत की कांटेदार तारों से तारबंदी करवाए बिना अपनी फसलों को बचाना संभव ही नहीं हो पा रहा है। ये अतिरिक्त खर्चा किसानपर बोझ बन चुका है। गौ-रक्षा के नाम पर सत्ता के संरक्षण में संगठित गुंडा गिरोहों द्वारा गौ-पालक किसानों की मवेशियों की बिक्री से होने वाली आमदनी ख़त्म कर दी है। 

गोरक्षा कानून के जरिए गायों की खरीद-बिक्री पर लगी रोक से ग्रामीण ग़रीबों और छोटे मझोले किसानों के सहायक रोजगार दुग्ध उत्पादन पर भी हमला हुआ है।इससे घाटे की खेती से जूझ रहा किसान कर्ज में डूबता जा रहा है।

लकड़ियों को बेचने से होने वाली आमदनी पर ताला लग चुका है। सरकार इतनी चालबाज कि किसान की आमदनी के रास्तों को बंद कर कई किंतु परन्तु जोड़कर उसे 6000 रुपये सालाना देकर उस पर अहसान करने का ढिंढोरा पीट रही है।

कर्ज में डूबा किसान

एक अनुमान के अनुसार भारत में 52 प्रतिशत किसान कर्ज के बोझ तले दबे हुए हैं। घाटे की खेती के कारण छोटा व मंझोला किसान अपनी जमीन को बटाई पर दे रहा है और खुद के लिए कोई और रोजगार तलाश रहा है। आज भारत की 60 प्रतिशत खेती बटाई पर हो रही है, पर इन बटाईदारों को किसान का दर्जा प्राप्त नहीं है। इसके कारण बैंक कर्ज, नुकसान का मुआवजा और एमएसपी पर फसल खरीद सहित किसानों को मिलने वाली सरकारी सुविधा से वास्तविक खेती करने वाला यह 60 प्रतिशत हिस्सा वंचित रह जाता है।

आत्महत्याएं

पिछले 13 वर्षों में कर्ज में डूबे साढे़ तीन लाख से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या कर ली है। जबकि पिछले 2 वर्षों से भारत सरकार ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को जारी करने से राष्ट्रीय अपराध शाखा को रोक दिया है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार 1997 से 2012 के बीच भारत में 2,50,000 किसानों ने आत्महत्या की। मोदी राज में इन आंकड़ों को जारी करने पर रोक से पूर्व ही 48,000 किसान आत्महत्याएं कर चुके थे। 

==सार्वजनिक उपक्रमों का बेचना== 

1996 से 2004 तक सर्वाधिक जोर सार्वजनिक कम्पनियों के बेचने पर रहा और पूरी हेकड़ी के साथ विनिवेश मन्त्रालय बना दिया गया। इस मन्त्रालय ने राष्ट्रीय सम्पत्ति को दहेज में मिले माले मुफ्त की तरह कॉरपोरेट्स को बेचा और वित्तीय घाटा पूरा करने के उपाय किए। यही नीति वर्तमान मोदी सरकार अपना रही है। 

याद होगा कि बीएसएनएल की लुटिया डुबाने के लिए मोदी जी खुद ने जियो का प्रचार किया था। सरकारी उपक्रम BSNL के बजाय मुकेश अम्बानी की जिओ कंपनी को स्थापित करने वाले, paytm का विज्ञापन करने वाले, रेलवे के लिए डीजल सप्लाई BPCL के बजाय रिलायंस को दिलवाने वाले और रॉफेल जेट का ठेका सरकारी कम्पनी HAL की जगह दिवालिया अनिल अंबानी को दिलवाने वाले मोदी जी अब किसान हितैषी बनने का नाटक कर रहे हैं। 

मोदी जी की नीतियों से जिस प्रकार BSNL, LIC, BPCL, रेलवे व एयर इंडिया को फायदा हुआ है, वैसे ही कृषि सुधार कानूनों से किसानों का फायदा होगा। मोदी सरकार सार्वजनिक कमाऊ कम्पनियों को धड़ल्ले से बेच रही है। देश के सबसे बड़े निजीकरण अभियान के तहत केंद्र सरकार ने पिछले सप्ताह भारत की दूसरी सबसे बड़ी तेल रिफाइनर भारत पेट्रोलियम कॉर्पोरेशन लिमिटेड (बीपीसीएल) में अपनी पूरी 52.98 प्रतिशत हिस्सेदारी की बिक्री के लिए बोलियां आमंत्रित कीं। रेलवे का टुकड़ो-टुकड़ों में निजीकरण चुपके चुपके किया जा रहा है। सरकारी उपक्रमों को उजाड़कर उन्हें कॉरपोरेट घरानों को बेचकर कॉरपोरेट्स की कंपनियों को फ़ायदा पहुंचाया जा रहा है। 

कॉरपोरेट्स द्वारा पैक्ड कृषि जिंसों की कीमत

कृषि क्षेत्र में सुधार के नाम पर कृषि संकट के पंख लगाने वाले नए कृषि कानूनों का असर देख लीजिए। हाथ कंगन को आरसी क्या? कॉरपोरेट घरानों के कोल्ड स्टोरेज में असीमित भंडारण के बाद वहाँ से निकली कृषि जिंसों की एमआरपी पर नज़र डाल लीजिए। किसानों से कौड़ियों के भाव खरीदी जिंसों की आसमान छूती कीमतें। इन कानूनों के ज़रिए बरबादी किसान की ही नहीं आम उपभोक्ता की भी होनी है। अभी तो शुरुआत है। कृषि जिंसों का जब कॉरपोरेट्स असीमित स्टॉक कर लेंगे और मार्किट पर कब्ज़ा कर लेंगे तब देखना आम उपभोक्ता की हालत क्या होगी। राजस्थानी एक कहावत है-

'घर तो घोस्यां का ही बलसी पर सुख उनरा ही कोनी पाँवगा।'

जागो ग्राहक, जागो। जो सोवत है वो खोवत है। यह लडाई सिर्फ और सिर्फ किसान की नहीं है। यह लड़ाई हमारे सबकी रसोई पर पड़ने वाली डकैती के खिलाफ एकजुट होने की भी है ! यह लड़ाई सरकारी संरक्षण में चल रही मगरमच्छों की धमाचौकड़ी और मछलियों के अस्तित्व की है

अंत में परसाई जी का लिखा एक व्यंग्य पढ़ लीजिए-

मोदी जी ख़ूब उछल- कूद करते हुए कांग्रेस मुक्त भारत का नारा शुरू से उछालते रहे हैं। जब कांग्रेस शक्तिहीन हो चली है तब भी देश में होने वाले किसी भी आंदोलन या फिर सरकार की किसी नाकामयाबी का ठीकरा कांग्रेस के सिर पर फोड़ते हैं और कांग्रेस के 'ताकतवर' होने का माहौल ख़ुद बनाते हैं। आपातकाल के बाद 1977 के आम चुनाव में इंदिरा गांधी की करारी हार हुई और जनता पार्टी की सरकार बनी जिसमें जनसंघ ( अब बीजेपी ) के नेता भी मंत्रिमंडल में शामिल थे। जनता ने उम्मीद पाल रखी थी कि जनता सरकार देश का कायाकल्प कर देगी। जनता सरकार कुछ खास कर नहीं पाई तो देश में होने वाली हर अप्रिय घटना के लिए इंदिरा गांधी को जिम्मेदार ठहराने लगी। इस पर प्रख्यात व्यंग्यकार हरि शंकर परसाई ने एक व्यंग्य लिखा था, उसकी पंक्तियाँ यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ। वर्तमान संदर्भ में इस व्यंग में इंदिरा गांधी की जगह 'कांग्रेस' और जनता नेता की जगह 'बीजेपी व मोदी जी' पढ़ लें, बीजेपी सरकार के नेताओं की अब की बयानबाजी समझ में आ जाएगी। उस समय के हालात पर परसाई जी ने यह लिखा था--

"मेरी बड़ी मुश्किल है। मैं मानना चाहता हूं कि इंदिरा गांधी खत्म हो गई। उनमें कोई शक्ति नहीं है, कोई उनके साथ नहीं है, जनता ने उन्हें त्याग दिया है।

मगर ये जनता के नेता मुझे यह मानने का संतोष नहीं लेने देते। इन्हें कहना तो यह चाहिए था कि इस देश में इंदिरा गांधी के कराए कुछ नहीं हो रहा है, मगर ये कहते हैं कि जो कुछ भी हो रहा है, वह उन्हीं के कराए हो रहा है।

पटना में लोकनायक के सम्मान में ऊंची जाति के लोगों ने शानदार हुल्लड़ किया। जनता नेताओं ने कहा- यह इंदिरा गांधी ने कराया। 

फिर नीची जाति के लोगों ने हुल्लड़ किया। जनता नेताओं ने कहा- यह भी इंदिरा गांधी ने कराया।

सही बात यह है कि दोनों हुल्लड़ों का नेतृत्व जनता पार्टी के नेताओं ने और ‘संपूर्ण क्रांतिकारियों’ ने किया। 

दिल्ली विश्वविद्यालय के कुलपति के दफ्तर पर छात्र संघ के नेताओं ने हमला किया। ये लोग आर.एस.एस. के हैं। जनता पार्टी के नेताओं ने कहा- हमला इंदिरा गांधी ने करवाया है। 

यानी आर.एस.एस. भी इंदिरा गांधी के कहने पर चल रहा है।

फिर छात्र संघ के दफ्तर पर हमला हुआ। जनता नेता कहते हैं- यह भी इंदिरा गांधी ने कराया। 

कहीं हड़ताल- इंदिरा गांधी ने कराई। गुंडों ने बाजार लूट लिया- इंदिरा गाधी ने लुटवाया। कहीं डाका पड़ा- इंदिरा गांधी ने डलवाया। कहीं चोरी हो गई- इंदिरा गांधी ने करवाई। जेब कट गई- इंदिरा गांधी ने कटवाई। 

मेरा रोना तो यह है कि जनता पार्टी के नेता यह कहते हैं कि जो कुछ इस देश में हो रहा है, वह इंदिरा गांधी करवा रही है। हम कुछ नहीं करवा रहे हैं। कुछ करवाने की ताकत उनमें है, हममें नहीं है।

लोग उनके कहने से जूता-पत्थर फेंकते हैं, हमारे कहने से शांत नहीं रहते। हम कहते हैं, महंगाई घटी है, वह नहीं घटी है। हम कहते हैं, भ्रष्टाचार मिटा है, जो नहीं मिटा है। हम कहते हैं कानून व्यवस्था की हालत अच्छी है, जबकि बहुत खराब है। यानी जो-जो नहीं है, उसकी जिम्मेदारी तो जनता नेता लेते हैं, उसका श्रेय इंदिरा गांधी को देते हैं। 

इस देश का आदमी फिर सोचने लगा है। एक दिन लोग जनता नेताओं से कहेंगे- भैया लोगों, तुम कहते हो इस देश में जो भी होता है, वह इंदिरा गांधी कराती है, उनकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं हिलता। तो भैया, तुम्हें राज करने का क्या हक है? तुम उसी को सत्ता सौंप दो और रुमाल से हाथ पोंछ लो।" - लाल बुझक्कड़


✍️✍️ हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 2 जनवरी, 2021


चित्र गैलरी

संदर्भ