Mordhwaj

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Bijnor district map

Mordhwaj (मोरध्वज) was an ancient King of the Mahabharata period. Mathurapur Mor Village in Najibabad Block in Bijnor District of Uttar Pradesh State was the site of fort and capital of King Moradhvaja.[1] He was a very generous king and after his name the surname Mor is believed to be started.

Variants

Jat Gotras connected with Mordhwaj

  • Dhankhar - Dhanakhanda state of Mordhwaj
  • Mor - There was a very generous king named Mordhwaja & after his name the surname Mor is believed to be started.

History

Mathurapur Mor Village in Najibabad Block in Bijnor District of Uttar Pradesh State was the site of fort and capital of King Moradhvaja.[2]

During Mahabharata period King Mordhwaj was ruler of Ratanpur, Bijnor. His son prince Tamradhwaj (ताम्रध्वज) stopped the horse of Ashwamedha Yajya of Pandava King Yudhisthira and defeated great warrior Arjuna in battle.

Modi the Capital of Mordhwaj

Modi (मोड़ी) - Mori (मोड़ी) is an ancient village in Bhanpura tahsil in Mandsaur district in Madhya Pradesh. It is 124 km from Mandsaur and 12 km from Bhanpura in west direction on Rampura road. This town was Capital of the King Mordhwaj.

As per local tradition Modi was considered to be the capital of king named Mordhwaj (मोरध्वज). During Parmara rule it was a big city with the name Moripattan (मोरीपत्तन). There are various statues of Jaina, Vaishnava and Shakt religions found in the area of period from 11th to 13th century. Most of the area has submerged under Gandhi Sagar Dam reservoir. At present one can see ruins of a three storey building which was probably a palace. [3]

Arjuna revived and battle with Tamradhwaja

Seeing Krishna, Babruvahan told him all that had happened. Krishna said if that be so, then let the ones who stole the heads, loose their own heads. Also, let the stolen heads return. As soon as Krishna said this, the heads of the sons of Dhritarashtra fell off their necks. Ananta then brought the heads of Arjuna and Vrishaketu to Krishna. The heads were placed on the respective shoulders and the gem was put on their bodies. Arjuna and Vrihaketu got up, at the touch of the gem. With the two revived, Krishna thanked and returned the gem to Ananta.

Krishna then said to Babruvahan that he had done nothing wrong. He had performed the duty of Kshatriya. He then told Arjuna to accept his son. Arjuna hugged Babruvahan and praised his skill. With the horse returned, Krishna asked Babruvahan to go along with Arjuna and guard the horse.

From the land of Manipur, the horse went to the kingdom of Ratnavati. The land was ruled a great and pious king called Mayurdhwaja. The king was also a great warrior. He had a valiant son called Tamradhwaja. The king was also performing a horse sacrifice and Tamradhwaja was guarding the horse.

Arjuna's horse happened to stray into the kingdom. Tamradhwaja saw the new horse and caught it. He asked his warriors to capture the horse and then he would face the son of Pandu.

Arjuna hearing this got ready for a fight. Vrishaketu entered the battlefield. He said This horse belongs to Yudhistira and has the blessing of Krishna. Who dared to capture this?

Tamradhwaja said Krishna blesses all who seek his protection. My father is performing the horse sacrifice and I have come to protect his horse. I see your horse which has been sent to me as a divine blessing. I will not let you take the horse away.

The battle of words became a battle of weapons. Tamradhwaja shot fifty arrows which Vrishaketu could not avoid. His chariot was broken and the charioteer was killed. Vrishaketu fought on the ground but soon fainted. Seeing this Yuvanashwa and Subeg came but they too could not stand for long. Hamsadhwaja and Babruvahan came next but they too could not conquer Tamradhwaja. Sons of Krishna, Satyaki and Bhima came next. Tamradhwaja cut off their weapons. All were defeated. Seeing this, Arjuna came. Arjuna shot arrows which Tamradhwaja avoided and in turn wounded Arjuna. Arjuna then prayed to Krishna. He said I am easily defeated great heroes but why am I not able to defeat this warrior. I need your help Krishna. Krishna came to Arjuna and said this is because of the power of the prayer of Mayurdhwaja. Let us go and meet him. We will go as brahmanas. I will be the teacher and you will be my disciple. Leave the battle and come with me. The horse will be yours.

Tamradhwaja, having won the battle, went to inform his father.

Ref - kashidashimahabharat.blogspot.com/

मोरध्वज

मोरध्वज (AS, p.764): तहसील नजीबाबाद, जिला बिजनौर, उत्तर प्रदेश में स्थित है. यहां एक प्राचीन दुर्ग के खंडहर हैं जो संभवतः पहले बौद्ध स्तूप था. स्थानीय किंवदंती में इस स्थान को राजा मोरध्वज की कथा से संबंधित बताया जाता है.[4]

मोरध्वज किला

नजीबाबाद (बिजनौर): ग्राम मथुरापुर मोर में स्थित मोरध्वज किला क्षेत्र में भवन निर्माण या फिर उधर से गुजर रही मालन नदी के किनारे खुदाई के दौरान भगवान शिव, नंदी महाराज, शनिदेव, श्रीगणेश की मूर्ति और विभिन्न कलाकृतियां युक्त पिलर निकल रहे हैं। यह किला पुरातत्व विभाग की सूची में शामिल है। कोटद्वार मार्ग स्थित ग्राम पंचायत मथुरापुर मोर में राजा मोरध्वज का किला क्षेत्र है। [5]

मोरध्वज किला

नजीबाबाद से 15 कि.मी.दूर कोटद्वार (उत्तराखंड) मार्ग पर राजा मोरध्वज के किले के स्थान पर आज आबादी के रूप में मथुरापुरमोर गांव बसा हुआ है।

किले के अवशेषों के ऊपर जो बस्ती बसी हुई है। इस स्थान पर समय-समय पर प्राचीन मोरध्वज के किले के अवशेषों के रूप में धार्मिक मूर्तियां, कलाकृतियां, शिलापट तथा शिवलिंग मिलते रहते हैं।

इस स्थान पर निकलने वाले अवशेषों, मूर्तियों, शीलापट व अन्य प्राचीन वस्तुओं पर गढ़वाल के श्रीनगर विश्वविद्यालय के कई छात्र-छात्राओं द्वारा शोध कार्य किए गए हैं। यहां पर मिले प्राचीन कलाकृतियों एवं अवशेषों को देश के कई बड़े संग्रहालयों में प्रदर्शित किया गया है।

यहां से प्राप्त कृष्ण की केशि-वध मूर्ति एक अनुपम उपलब्धि है। एक पट्टिका पर केशिवध प्रदर्शन विष्णु पुराण में वर्णित आख्यान पर आधारित दुर्लभ कृती है। इस कथानक में वर्णित है कि केशि नामक राक्षस ने कृष्ण के सखा ग्वाल बालों को जब त्राण दिया,तब श्रीकृष्ण ने इस अश्व के मुख वाले राक्षस को अपनी लीला से मार गिराया था।इस केशिवध प्रदर्शन में भगवान कृष्ण केशि को अपनी संपूर्ण शक्ति लगाकर दाहिने हाथ से मारते हुए दिखाए गए हैं और अश्व मुखी राक्षस ने अपने दांत कृष्ण के बाएं हाथ की कोहनी पर गड़ाए हुए है। यह सुंदर प्रतिमा गढ़वाल श्रीनगर विश्वविद्यालय के संग्रहालय में प्रदर्शित है।

केंद्रीय पुरातत्व विभाग द्वारा इस स्थान को संरक्षित क्षेत्र घोषित कर यहां अपना बोर्ड लगा रखा है।

सन 2005 में इस स्थान पर भूमि को समतल करते समय जब खुदाई की गई तो वहां एक विशाल शिवलिंग मिला था। उस शिवलिंग की स्थापना कर वहां एक सुंदर विशाल मोरध्वज शिवालय का निर्माण कराया गया है।

राजा मोरध्वज के किले के अवशेष स्थल से मिलने वाले पुरातत्व अवशेषों को संजोकर इस स्थान पर एक संग्रहालय की स्थापना करके इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित किया जा सकता है।

संदर्भ: ayanayan.com, 8.7.2019

राजा मोरध्वज की कथा

द्वापर युग में राजा मोरध्वज अपने आतिथ्य और दान के प्रति वचनबद्धता के लिए जाने जाते थे। राजा मोरध्वज रतनपुर के राजा थे। वह नजीबाबाद के क्षेत्र में स्थित विशाल एवं भव्य किले से वह अपना शासन चलाते थे। राजा मोरध्वज भगवान शिव के उपासक और श्रीकृष्ण के परम भक्त थे। उन्होंने अपने समय में अनेक शिवालयों की स्थापना की और उनकी प्रजा भी भगवान शंकर की पूजा-अर्चना में लीन रहती थी।

महाभारत युद्ध समाप्त होने के बाद के समय की बात है। अर्जुन स्वयं को भगवान श्री कृष्ण का सबसे बड़ा भक्त मानने लगा था तब भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के अहंकार को समाप्त करने के लिए तथा अपने एक और बड़े भक्त की भक्ति को दिखाने के लिए ली थी एक परीक्षा।

श्री कृष्ण स्वयं तथा अपने साथ अर्जुन को ब्राह्मण साधु का भेष बनाकर तथा यमराज को सिंह के रूप में साथ लेकर रतनपुरी के राजा मोरध्वज के दरबार में पहुंच गए।

अपने दरवाजे पर साधु-ब्राह्मणों को एक शेर के साथ देख कर राजा मोरध्वज बहुत प्रसन्न हुए। राजा ने उनको दंडवत प्रणाम करके स्वागत सत्कार किया और उन्हें भोजन ग्रहण करने का आग्रह किया।

भगवान श्रीकृष्ण ने राजा मोरध्वज से कहा की ‘राजन हमने तुम्हारे दान का बहुत यशोगान सुना है। कोई भी याचक तुम्हारे दरबार से निराश नहीं लौटता, क्या यह सच है।’

इस पर राजा मोरध्वज ने विनयपूर्वक कहा,’हे महात्मन श्रीनारायण की अनुकंपा से मैं सामर्थ्यानुसार याचक की इच्छित वस्तुएं देने का प्रयास करता हूं और यह भगवान की ही दया और करुणा है कि आज तक मेरे दरबार से कोई याचक खाली नहीं लौटा।’

ब्राह्मण वेशधारी श्री कृष्ण ने कहा फिर तो राजन हमें भी विश्वास है कि हमारी भी इज्जत वस्तु मिलेगी।

राजा मोरध्वज ने कहा कि वह वस्तु मेरे अधिकार में हुई तो अवश्य मिलेगी। इस पर श्री कृष्ण ने कहा राजन हम भी ऐसी कोई वस्तु आपसे नहीं मांगेंगे जो आप के अधिकार क्षेत्र से बाहर हो, लेकिन उससे पहले आपको हमें वचन देना होगा।

राजा मोरध्वज ने कहा हे महात्मन मैं क्षत्रिय हूं और मैं प्रण करता हूं कि आप जो भी वस्तु मांगेंगे मैं दूंगा।

श्री कृष्ण ने कहा कि आप धन्य हैं राजन! हम तीन प्राणी बहुत समय से यात्रा कर रहे हैं। हम दोनों तो सात्विक भोजन के रूप में कंदमूल आदि खाकर अपनी क्षुधा को शांत कर लेते हैं परंतु हमारे साथ जो यह सिंहराज हैं, यह मांसाहार करते हैं और मांस भी मानव का ही खाते हैं। और मानव मांस के रूप में उन्हें अपने बेटे का मांस परोसने की इच्छा व्यक्त की।

साधु ब्राह्मण की बात सुनकर राजा के मन को एक बार तो धक्का लगा लेकिन पत्नी विद्याधारणी से राय कर बेटे का भोजन सिंह को कराने के लिए सहमत हो गए।

राजा मोरध्वज अतिथि को देवता मानते थे। उन्होंने अपने बेटे ताम्रध्वज को बुलाया तथा राजा पति-पत्नी दोनों ने मिलकर अपने बेटे ताम्रध्वज को आरे से चीरकर दो भागों में बांट दिया। ताम्रध्वज का शरीर दो भागों में बांटा पड़ा था। उस समय राजा मोरध्वज और उनकी पत्नी विद्याधारणी तथा उनके बेटे धीरध्वज की आंख में एक आंसू तक नहीं आया। जबकि अर्जुन की आंखें उनकी भक्ति को देखकर नम हो गई।

राजा ने कहा महात्मन अपने सिंहराज को भोजन कराइए।

सिंह ने आगे बढ़कर ताम्रध्वज का दायां भाग तो खा लिया लेकिन बाएं भाग को छोड़ दिया। सिंहराज ने तृप्त होकर एक लंबी डकार ली।

तभी रानी विद्याधारणी की बाई आंख से अश्रु टपक पड़े। साधु का रूप रखें श्री कृष्ण ने उनसे पूछा महारानी यह अश्रु क्यों आए।

रानी ने बताया महात्मन यह अश्रु तो इस सिंह के व्यवहार से निकले हैं जिसने महापितृ भक्त बेटे ताम्रध्वज का दाहिना हिस्सा तो खाने के रूप में स्वीकार कर लिया परंतु बाया अंग बिना खाए छोड़ दिया। इसी कारण मेरी बाईं आंख से अश्रु निकल पड़े हैं।

यह सब लीला देख कर श्री कृष्ण मुस्कुराए। अर्जुन का गर्व अब चूर-चूर हो ही चुका था।

श्री कृष्ण ने राजा मोरध्वज से कहा कि राजन अब हमारे सात्विक भोजन की भी व्यवस्था करें। राजा मोरध्वज ने तुरंत दोनों ब्राह्मण-साधुओं के लिए भोजन मंगाया।

राजा मोरध्वज भक्ति की परीक्षा में सफल हुए। श्री कृष्ण ने कहा राजन हम तुम्हारे दान और अतिथि सत्कार से बहुत प्रसन्न है। तुम्हारी कीर्ति समस्त संसार में फैलेगी। अपने दाहिने और देखो तुम्हारे अलौकिक कार्य का फल मिल गया है।

राजा और रानी ने दाहिनी तरफ देखा तो अपने पुत्र ताम्रध्वज को जीवित अवस्था में देखकर रानी विद्याधारणी विह्वल होकर पुत्र की तरफ दौड़ी।

राजा मोरध्वज ने पूछा, ‘हे महात्मन! यह कैसा विचित्र चमत्कार है, आप कौन हैं और किस कारण आपने इस भक्त की इतनी कठिन परीक्षा ली।’

श्री कृष्ण ने अपने वास्तविक रूप में आकर मोरध्वज को दर्शन दिए। मोरमुकुटधारी भगवान श्री कृष्ण के मनोहरी रूप के दर्शन कर राजा उनके चरणों में गिर पड़े।

श्री कृष्ण ने कहा हे भक्त मोरध्वज यह मेरे साथ कुंती पुत्र अर्जुन है और सिंह के रूप में स्वयं यमराज हैं। यह सब आपकी परीक्षा के हेतु किया गया। आप भक्ति की परीक्षा में सफल हुए। मैं तुमसे अति प्रसन्न हूं।

ऐसे भगवान के भक्त महाभारत कालीन राजा मोरध्वज के किले के अवशेष व मंदिर उनकी याद दिलाता है। क्षेत्र के निवासी आज भी राजा मोरध्वज की आस्था, भक्ति और अतिथि सत्कार को स्मरण करते हैं।


संदर्भ: ayanayan.com, 8.7.2019</ref>

References

  1. ayanayan.com, 8.7.2019
  2. ayanayan.com, 8.7.2019
  3. Usha Agarwal:Mandsaur Zile Ke Puratatvik samarakon ki paryatan ki drishti se sansadhaniyata - Ek Adhyayan, Chirag Prakashan Udaipur, 2007, p. 36
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.764
  5. जागरण, 15.7.2013

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