Netra Raksha

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ओ३म्


नेत्र-रक्षा


लेखक


स्व० स्वामी ओमानन्द सरस्वती


प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)


सप्‍तम संस्करण - २०५७ वि० (२००१ ई०)


Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


The author - Acharya Bhagwan Dev alias Swami Omanand Saraswati



पृष्ठ १

नेत्र-रक्षा

प्रस्तुत पुस्तिका के लेखक तपोनिष्ठ स्वामी ओमानन्द (आचार्य भगवानदेव जी) निष्काम जन-सेवक, परोपकारी एवं उच्चकोटि के त्यागी विद्वान हैं । केवल परोपकार तथा जनता के कल्याण की शुद्ध भावना से ही यह पुस्तिका प्रकाशित की गई है । मुझे आशा तथा विश्वास है कि जनता इसी शुद्ध भावना से इस पुस्तिका से लाभ उठायेगी । - जगदेव सिंह सिद्धान्ती

१. नेत्र

नेत्र रक्षा - आवरण पृष्ठ

पश्येम शरदः शतम् । हम प्रातः सायं परमदयालु जगदीश से प्रतिदिन संध्या में प्रार्थना करते हैं कि हम सौ (शरद ऋतु) अर्थात् सौ वर्ष तक आंखों से देखें । ठीक ही है आंख गई सब कुछ गया । नेत्र मनुष्य के शरीर का सर्वश्रेष्ठ अंग है । इसकी विचित्र रचना को देखकर सारा संसार चकित और दंग है । जगत् रचयिता ने न जाने इसमें कौन सा मसाला लगाया है । संसार के विद्वानों को आज तक इसका कोई भेद नहीं पाया । चक्षुहीन (अन्धा) ही जानता है कि यह अंग कितना मूल्यवान् है । जब वह बार-बार ठोकरें खाता, मार्ग में च्युत होता वा भटकता है तो दुखी होकर बिलबिला उठता है और उसके मुख से यही शब्द निकलते हैं - नेत्र हैं तो जहान है, नहीं तो संसार शमशान है । पुनर्दारा पुनर्वित्तं न च नेत्रं पुनः पुनः मनुष्य को स्त्री, पुत्र और धन - ये सब बार-बार मिल सकते हैं किन्तु नेत्र एक बार चले जाने पर ये किसी मूल्य पर भी प्राप्त नहीं हो सकते । जब मैं स्कूलों और नगरों में छोटे-छोटे बालकों को चश्मे चढ़ाये देखता हूं तो मेरा हृदय फटता है और शिर कटता है । सहसा मुख से शब्द निकल जाते हैं - प्यारे प्रभो ! पश्येम शरदः शतम् की


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प्रार्थना क्या इन बालकों के लिये नहीं है ? आपने इनके आन्तरिक प्रकाश का स्रोत (चश्मा) क्यों बन्द कर दिया कि ये कृत्रिम उपनेत्र (चश्मे) चढ़ाये हुए हैं ? न इसके बिना एक पग चल सकते हैं, न एक पंक्ति पढ़ सकते हैं । नयनक ही इनका प्राण है और ऐनक ही इनकी जान है । प्रतिवर्ष इनकी दृष्टि घटती है । ये दुखी होकर रोते रहते हैं और प्रतिवर्ष ऐनकों के शीशे बदल बदल कर दृष्टि को खोते रहते हैं । जगत् पिता ! अपने प्रिय पुत्रों पर क्या यथार्थ (सचमुच) में आपका कोप वा रोष है ? नहीं नहीं, यह तो इनके माता-पिता के दूषित आहार-व्यवहार का फल तथा नगरों के दूषित वायुमण्डल और स्कूलों (ईसकुलों) की कुशिक्षा का दोष है । यदि मनुष्य अपने आहार-व्यवहार को ठीक रखे और उसे चक्षु रक्षा का ज्ञान और शिक्षा मिल जाये तो सम्पूर्ण आयु (१०० वर्ष) तक आंखों से देख सकता है ।

नेत्ररक्षा का ज्ञान मनुष्य के लिए अत्यन्त आवश्यक है । अतः आज इसी पर विचार करना है । चक्षु रक्षा के उपायों से पूर्व नेत्र की रचना का ज्ञान भी आवश्यक है ।

२. नेत्र की रचना

पहला पटल - आयुर्वैदिक ग्रंथों में लिखा है कि आंख के चार पटल (पर्दे) होते हैं । जिनमें से पहला पटल रस और रक्त इन दो धातुओं के सहारे रहता है । यदि प्रथम पटल में दोष उत्पन्न हो जाता है तो मनुष्य पदार्थों की आकृतियों को भली-भांति नहीं देख सकता । यदि दोष कम होता है तो कभी-कभी स्पष्ट भी देखता है ।

दूसरा पटल - दूसरा पटल मांस के सहारे रहता है । इस पटल में जब दोष आता है तो मनुष्य अच्छी प्रकार नहीं देख सकता । इसको मक्खी, मच्छर और बाल आदि मकड़ी के जाले के समान उड़ते हुये दीखते हैं । मंडल, पताका और किरणें न होने पर दीखते हैं । आकाश पर मेघ न होने पर भी


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दीखते हैं । सूर्य, चन्द्र और तारागण प्रकाशमान पदार्थ उंचे, नीचे और तिरछे दिखाई देते हैं । सूई का छिद्र भी दिखाई नहीं देता ।

तीसरा पटल - यह मेद अथवा चर्बी के आधार पर रहता है । इसमें दोष आने पर मनुष्य दूर की या ऊंची वस्तुओं को भली-भांति नहीं देख सकता । इसको नाक, कान आदि अवयव तिरछे और विकृत दिखाई देते हैं । यदि दोष नेत्रों के नीचे के भाग में होता है तो दूर की वस्तु नहीं दीखती । यदि दोष पार्श्व (बगल) में होता है तो पार्श्व के पदार्थ नहीं दीखते । यदि दोष चारों ओर होते हैं तो ऊपर-नीचे और पार्श्व के पदार्थ पृथक्-पृथक् होने पर भी मिले हुए दीखते हैं । यदि दोष दृष्टि के मध्य में होता है तो बड़े पदार्थ छोटे दीखते हैं । यदि दोष दृष्टि के दो भागों में होता है तो एक वस्तु की तीन वस्तुएं प्रतीत होती हैं । यदि दोष अनियमित रूप से होते हैं तो एक पदार्थ के कई दिखाई देते हैं ।

चौथा पटल - यह अस्थियों (हड्डियों) के आश्रय से रहता है । जब इस पटल में दोष होता है तो मनुष्य को अन्धकार ही अन्धकार दीखता है । इस रोग को तिमिर कहते हैं । इससे चारों ओर की दृष्टि रुक जाती है । जब यह रोग नया ही होता है तो सूर्य, चन्द्रमा, विद्युत् और तारागण दिखाई देते हैं । इसके पुराना होने पर सूर्यादि भी दिखाई नहीं देते ।

यह तो हुई चक्षु रचना । अब हमें विचार करना है कि नेत्रों के रोग होने के कारण और उनसे बचने के उपाय क्या हैं ? आहार व्यवहार के बिगड़ जाने से हमारे मस्तिष्क में जो शिरायें वा ज्ञानतन्तु हैं उनमें रहने वाले दोष वात, पित्त, कफ कुपित हो जाते हैं और नेत्रों में अनेक प्रकार के दारुण रोग उत्पन्न करते हैं ।

३. नेत्ररोग के कारण

प्रायः निम्नलिखित कारणों से नेत्ररोग उत्पन्न होते हैं -

(१) मल, मूत्र अपानवायु के वेगों को रोकना ।

(२) प्रातः और सायं दोनों समय शौच न जाना ।


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(३) सूर्योदय के पश्चात् शौच जाना ।

(४) मूत्र में प्रतिविम्ब देखना ।

(५) गर्मी वा धूप से संतप्त (गर्म) होकर तुरन्त ही शीतल जल में घुसना ।

(६) उष्ण वा गन्दे जल में स्नान करना वा उष्ण (गर्म) जल सिर पर डालना ।

(७) अग्नि का अधिक सेवन तथा उसके पास बैठना वा अग्नि पर पैर तलवे आदि सेकना ।

(८) नेत्रों में धूल वा धुंआं जाना ।

(९) नींद आने पर वा समय पर न सोना वा दिन में सोना ।

(१०) सूर्य के उदय और अस्त होते समय सोना ।

(११) धूल, धुएं के स्थान वा अधिक उष्ण प्रदेशों में रहना वा सोना ।

(१२) वमन (उल्टी) का वेग रोकना वा अधिक वमन करना ।

(१३) शोक, चिन्ता और क्रोधजन्य कष्ट और सन्ताप ।

(१४) अधिक वा बहुत दिनों तक रोना ।

(१५) माथा, सिर अथवा चक्षुओं पर चोट आदि लगना ।

(१६) अधिक उपवास करना, भूखा रहना वा भूख को रोकना ।

(१७) अत्यन्त शीघ्रगामी (चलने वाले) यानों पर सवारी करना वा बैठना ।

(१८) अधिक खट्टे रसों (इमली आदि), चपरे (लाल मिर्च आदि), शुष्क पदार्थ (आलू आदि), अचार, तेल के पदार्थ, गर्म मसाले, गुड़, शक्कर, लहसुन, प्याज, बैंगन आदि उष्ण पदार्थों का सेवन ।

(१९) पतले पदार्थों को अधिक खाना अथवा गले, सड़े, दुर्गन्धयुक्त शाक, सब्जी और फल खाना ।

(२०) मांस, मछली, अण्डे आदि अभक्ष्य पदार्थों को खाना ।

(२१) मद्य (शराब), सिगरेट, हुक्का, बीड़ी, चाय, पान, भांग आदि मादक (नशीली) वस्तुओं का सेवन ।

(२२) बिजली वा मिट्टी के तेल के प्रकाश में पढ़ना ।

(२३) छोटे-छोटे अक्षरों की वा अंग्रेजी भाषा की पुस्तकें रात्रि वा दिन में भी अधिक पढ़ना ।

(२४) सूर्य उदय व अस्त होते समय पढ़ना ।

(२५) सूर्यास्त के बाद बिना दीपक आदि के प्रकाश के पढ़ना अथवा सूई से सीना आदि बारीक कार्य करना ।

(२६) चन्द्रमा के प्रकाश में पढ़ना अथवा कपड़े आदि सीने का बारीक काम करना ।

(२७) रात्रि में लिखाई का काम करना ।

(२८) फैशन के कारण (सुन्दर बनने के लिए) आंखों पर नयनक वा चश्मे धारण करना ।

(२९) दुखती हुई आंखों से पढ़ना और सूर्य की ओर देखना ।


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(३०) सुलाने के लिए बच्चों को अफीम खिलाना ।

(३१) बिजली, बैट्री, अग्नि, पानी, शीशे की चमक को देखना ।

(३२) सूर्य के प्रतिबिम्ब को शीशे में देखना ।

(३३) अधिक भोजन करना ।

(३४) जुराब पहनकर या बन्द मकान में सोना ।

(३५) दुखती हुई आंखों में चने चबाना अथवा अग्नि के सम्मुख बैठना वा देखना, धूल व धूएं में तथा धूप में (हल आदि का) कठिन काम करना ।

(३६) सूर्यग्रहण के समय सूर्य की ओर देखना ।

(३७) इन्द्रधनुष की ओर देखना ।

(३८) ऋतुओं और अपनी प्रकृति के प्रतिकूल आहार वयवहार (भोजन-छादन) करना ।

गृहस्थ ध्यान से पढ़ें

(३९) दुखती हुई आंखों में विषय भोग (वीर्यनाश) करने से आंखें सदा के लिए बिगड़ जाती हैं । यहां तक कि अन्धा हो जाने तक का भय है ।

(४०) रजस्वला स्त्री के शीशे में मुख देखने तथा आंखों में सुर्मा, स्याही, अञ्जन आदि डालने से अन्धा बालक उत्पन्न होता है ।

(४१) गर्भवती स्त्री के उष्ण, चरपरे, शुष्क, मादक (नशीले) पदार्थों के सेवन तथा विषयभोग से उत्पन्न होने वाले बालक की आंखें बहुत दुखती हैं तथा उसे अन्य रोग भी हो जाते हैं ।


४. नेत्र-रक्षा के साधन

यदि आंखों से प्यार है तो पूर्वलिखित निषिद्ध आहार व्यवहार से सदैव बचे रहो तथा निम्नलिखित नेत्र-रक्षा के उपायों (साधनों) का श्रद्धा से सेवन करो । प्रत्येक उपाय हितकर है किन्तु यदि सभी उपायों का एक साथ प्रयोग करें तो सोने पर सुहागा है ।

चक्षु स्नान

प्रातःकाल चार बजे उठकर ईश्वर का चिन्तन करो । फिर शुद्ध जल, जो ताजा और वस्त्र से छना हुआहो, लेकर इससे मुख को इतना भर लो कि उसमें और जल न आ सके अर्थात् पूरा भर लो । इस जल को मुख में ही रखना


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है, साथ ही दूसरे शुद्ध जल से दोनों आंखों में बार-बार छींटे दो जिससे रात्रि में शयन समय जो मैल अथवा उष्णता आंखों में आ जाती है वह सर्वथा दूर हो जाय । इस प्रकार इस क्रिया से अन्दर और बाहर दोनों ओर से चक्षु इन्द्रिय को ठंडक पहुंचती है । निरर्थक मल और उष्णता दूर होकर दृष्टि बढ़ती है । इस क्रिया को प्रतिदिन करना चाहिये ।

उषः पान

इसके पश्चात् कुल्ली करके मुख नाक आदि को साफ कर लो और नाक के एक वा दोनों छिद्रों द्वारा ही आठ दस घूंट जल पी लो और लघुशंका करके शौच चले जाओ । नाक के द्वारा जल पीने से जहां अजीर्ण (कोष्ठबद्धता) दूर होकर शौच साफ होता है वहां यह क्रिया अर्श (बवासीर), प्रमेह, प्रतिश्याय (जुकाम) आदि रोगों से बचाती और आंखों की ज्योति को बढ़ाती है ।

अन्य उपाय सं० १

(१) शौच प्रतिदिन दूर जंगल में प्रातःकाल ब्राह्ममुहूर्त में नंगे पैर (बिना जूते पहने) जाओ । भ्रमण वा शौच के समय जूता, जुराब, खड़ाऊं और चप्पल आदि कुछ भी न पहनो । शीत, ग्रीष्म, वर्षा सभी ऋतुओं में नंगे पैरों भ्रमण करने से सब प्रकार के नेत्ररोग नष्ट होकर नेत्रज्योति बढ़ती है । किन्तु भ्रमण से अभिप्राय गन्दी गलियों से नहीं है । भ्रमण का स्थान शुद्ध हो । नंगे पैर ओस पड़ी हुई घास पर घूमना तो अत्यन्त ही लाभदायक है । सायंकाल सूर्यास्त के पश्चात् भी नंगे पैर जंगल में भ्रमण करना आंखों के लिए लाभदायक है ।

(२) प्रातःकाल और सायंकाल हरी घास देखो । फसल, वृक्षों तथा पादपों को देखने से चक्षुदृष्टि बढ़ती है । हरे भरे उद्यानों में यदि कोई दुखती हुई आंखों में भी भ्रमण करे तो उनमें भी लाभ होता है । हरी वस्तुओं को देखने से चक्षुविकार नष्ट होकर नेत्रज्योति बढ़ती है यह बात साधारण लोग भी जानते हैं । प्राचीन महर्षियों की यह बात कितनी रहस्यपूर्ण है ! ब्रह्मचारी के लिए प्रत्येक ऋतु में नंगे सिर रहना यही सिद्ध करता है कि प्रकृति माता की गोद में ब्रह्मचारी के


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सब अंग-प्रत्यंगों की, सब ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों की स्वाभाविक दृष्टि (उन्नति) होकर वह आजीवन रोगरहित और स्वस्थ रहे ।


दन्तधावन

शौच से निवृत होकर दातुन अवश्य करो । यही नहीं कि दातुन से दांत ही निर्मल, दृढ़ और स्वस्थ होते हैं अपितु प्रतिदिन दन्तधावन करनेवालों की आंखें सौ वर्ष तक रोगरहित रहती हैं । जब मुख में दातुन डालकर मुख साफ करते हैं तो उसी समय आंखों में से जल के रूप में मल निकलता है जिससे आंखों की ज्योति बढ़ती है ।

चक्षुधावन

दातुन के पश्चात् कुल्ला करके एक खुले मुंह का जलपात्र लें और उसको ऊपर तक शुद्ध जल में भर लें । उसमें अपनी दोनों आंखों को डुबोवें और बार-बार आंखों को जल के अन्दर खोलें और बन्द करें । इस प्रकार कुछ देर तक चक्षुस्नान करने से आंखों को बहुत ही लाभ होगा । इस चक्षुस्नान की क्रिया को किसी शुद्ध और निर्मल जल वाले सरोवर में भी किया जा सकता है । यह ध्यान रहे कि मिट्टी, धूल आदि मिले हुए जल में यह क्रिया कभी न करें, नहीं तो लाभ के स्थान पर हानि ही होगी ।

जलनेति सं० १

शुद्ध, शीतल और ताजा जल लेकर शनैः शनैः नासिका के दोनों द्वारों से पीयें और मुंह से निकाल दें । दो-चार बार इस क्रिया को करके नाक और मुंह को साफ कर लो ।

जलनेति सं० २

किसी तूतरीवाले (टूटीदार) पात्र में जल लें और टूटी को बायें नाक में लगायें । बायें नाक को थोड़ा सा ऊपर को कर लें और दायें को नीचे को झुकायें और मुख से श्वास लें । बायें नासिका द्वार में डाला हुआ जल दक्षिण नासिका


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के छिद्र से स्वयं निकलेगा । इसी प्रकार दायें नाक में डालकर बायें से निकालो । यह ध्यान रहे कि बासी और शीतल जल से नेति कभी न करें । उष्ण जल का भी प्रयोग नेति में कभी न करें । आरम्भ में इस क्रिया को थोड़ी देर करो, फिर शनैः शनैः बढ़ाते चले जाओ । यह क्रिया आंखों की ज्योति के लिये इतनी लाभदायक है कि इसका निरन्तर श्रद्धापूर्वक दीर्घकाल तक अभ्यास करने से ऐनकों की आवश्यकता नहीं रहती । चश्मे उतारकर फेंक दिये जाते हैं । कोई सुरमा, अंजन आदि औषध इससे अधिक लाभदायक नहीं । जहां यह क्रिया चक्षुओं के लिए अमृत संजीवनी है, वहां यह प्रतिश्याय (जुकाम) को भी दूर भगा देती है । जो भी इसे जितनी श्रद्धापूर्वक करेगा उतना ही लाभ उठायेगा और ऋषियों के गुण गायेगा ।

जलनेति से किसी प्रकार की हानि नहीं होती । यह मस्तिष्क की उष्णता और शुष्कता को भी दूर करती है । सूत्रनेति (धागे से नेति करना) शुष्कता लाती है किन्तु जलनेति से शुष्कता दूर होती है । सूत्रनेति इतनी लाभदायक नहीं जितनी कि जलनेति । जलनेति से तो मस्तिष्क अत्यन्त शुद्ध, निर्मल और हल्का हो जाता है । इससे और भी अनेक लाभ हैं ।

जलनेति सं० ३

जलनेति का एक दूसरा प्रकार भी है –

मुख को जल से पूर्ण भर लो और खड़े होकर सिर को थोड़ा सा आगे झुकाओ और शनैः शनैः नासिका द्वारा श्वास को बाहर निकालो । वायु के साथ जल भी नाक के द्वारा निकलने लगेगा । जिह्वा के द्वारा भी थोड़ा सा जल को धक्का दें । इस प्रकार अभ्यास से जल दो-चार दिन में नाक से निकलने लगेगा । इस क्रिया से भी उपरोक्त जलनेति वाले सारे लाभ होंगे । किसी प्रकार का मल भी मस्तिष्क में न रहेगा । आंखों के सब प्रकार के रोग दूर होकर ज्योति दिन-प्रतिदिन बढ़ती चली जावेगी । इसके पश्चात् शुद्ध शीतल जल से


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स्नान करें । पहले जल सिर पर डालें । जब सिर खूब भीग जाय तो फिर अन्य अंगों पर डालें । नदी में स्नान करना हो तो भी पहले सिर धो लें ।

अन्य उपाय सं० २

(१) स्नान के समय सिर से पहले पैरों को शीतल जल से कभी न धोवो । यदि स्नान करते समय पांवों को पहले भिगोवोगे तो नीचे की उष्णता मस्तिष्क में चढ़ जायेगी । यह ध्यान रक्खो कि सदैव शीतल जल से स्नान करो और सिर पर शीतल जल खूब डालो । यदि दुर्भाग्यवश रुग्णावस्था में उष्ण जल से नहाना पड़े तो पहले पैरों पर डालो । सिर को ठंडे जल से ही धोवो । नाभि के नीचे मसाने और मूत्रेन्द्रिय पर भी उष्ण जल कभी मत डालो

(२) सिर में किसी प्रकार का मैल न रहने पाये ।

(३) निरर्थक फैशन के पागलपन में सिर पर बड़े-बड़े बाल न रक्खो । इनमें धूल आदि मैल जम जाता है और स्नान भी भली-भांति नहीं हो सकता । बालों से मस्तिष्क, बुद्धि और आंखें खराब होती हैं । उष्ण प्रदेश और उष्णकाल में बाल अत्यन्त हानिकारक हैं । अतः इस बला से बचे रहो जिससे कि स्नान का लाभ शरीर और चक्षुओं को पूर्णतया पहुंच सके ।

(४) शुद्ध सरोवर वा नदी में नहाने वा तैरने से भी चक्षुओं को बड़ा ही लाभ होता है । स्नान का स्नान और व्यायाम का व्यायाम । पर्याप्‍त समय शुद्ध जल में प्रतिदिन तैरने से चक्षु और वीर्यसम्बन्धी सभी रोग दूर हो जाते हैं । तैरने के समय चक्षुस्नान के लिए भी बड़ी सुविधा है । किन्तु जल निर्मल हो । यदि नदी और सरोवर सुलभ न हो तो कूप पर पर्याप्त जल से शीतकाल में न्यून से न्यून एक बार और उष्ण ऋतु में दो बार अवश्य स्नान करो । जल के निकालने और बर्तने में आलस्य और लोभ न करो । जल की महिमा वेद भगवान् ने भी खूब गाई है -

अप्स्वन्तरमृतमप्सु भेजसम्
-अथर्ववेद १।४।४

जल में अमृत और औषध है इसीलिए तो जल का नाम जीवन भी है ।


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यदि प्रभु-प्रदत्त इस जलरूपी अमृत और औषध का सदुपयोग करोगे तो अनेक प्रकार के लाभ उठाओगे और सब प्रकार से स्वस्थ और रोगमुक्त हो जावोगे ।

(५) सदैव खूब रगड़-रगड़कर घर्षण स्नान करना चाहिए । पैरों और पैरों के तलवों को खूब धोना और साफ करना चाहिए । पैरों के ऊपर नीचे तलवों पर तथा उंगलियों पर किसी प्रकार का मैल न लगा रहे ।

(६) पैरों को साफ रखने से आंखों की ज्योति बढ़ती और रोग दूर होते हैं । विशेषतया इसके साथ कभी-कभी सप्ताह में एक-दो बार पैरों के तलवों की शुद्ध सरसों के तेल से मालिश करना चक्षुओं के लिए बड़ा हितकर है ।

(७) जब कभी तेल की मालिश की जावे तो उस समय शिर और पैर के तलवों की मालिश अवश्य करें ।

(८) प्रतिदिन सोते समय सरसों का तेल थोड़ा गर्म करके एक दो बूंद कानों में डालने से आंखों को बहुत ही लाभ पहुंचता है तथा आंखें कभी नहीं दुखती, साथ ही कानों को लाभ होता है ।

सूर्य व्यायाम

स्नान के पश्चात् किसी शुद्ध एकान्त स्थान में किसी बगीचे वा तालाब के किनारे पूर्व की ओर मुख करके किसी आसन में बैठ जाओ जिसमें आपको अच्छी तरह बैठने का अभ्यास हो । सूर्योदय से पहले श्रृद्धापूर्वक सन्ध्या वा ईश्वरभक्ति करो । जिस समय सूर्य उदय होने वाला हो, सन्ध्या समाप्‍त करके सूर्य की ओर मुख करके बैठे रहो । आंखें न खुली ही हों और न बन्द ही हों । पलकों को कुछ ढ़ीला रक्खो । आपकी आंखें कुछ प्रकाश अनुभव करें किन्तु देख न सकें । ऐसी अवस्था में आप एकाग्रचित्त होकर यह ध्यान करें कि उदय होते हुए सूर्य की किरणों के द्वारा मेरी आंखों में पवित्र प्रकाश और दिव्य ज्योति आ रही है । इस प्रकार ध्यान के अभ्यास से आपको चक्षुओं के अन्दर प्रकाश और ज्योति आती हुई अनुभव होगी । उसी समय यह भी ध्यान करें कि “मेरी आंखों की ज्योति खूब बढ़ रही है और चक्षु रोगरहित, पूर्ण स्वस्थ हैं ।” इस प्रकार प्रतिदिन ध्यान करने से सब प्रकार के चक्षुरोग नष्ट होते हैं तथा आंखों


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की ज्योति बढ़ती है । किन्तु यह ध्यान रहे कि सूर्य को आंखें खोलकर इस समय देखना सर्वथा वर्जित और हानिकारक है । प्रतिदिन इस अभ्यास के पश्चात् अपने दोनों हाथों में एक पुस्तक लें और पुस्तक को उल्टा करके पकड़ लें । आंखें खोलकर पुस्तक को इस प्रकार से पढ़ें कि छपी हुई लाइनों के बीच जो कागज पर सफेद अन्तर रहता है उसको देखते चले जायें और इसी प्रकार सारे पृष्ठ को पढ़ डालें । अक्षरों को नहीं पढ़ना है । अक्षर पंक्तियों के मध्य में जो रिक्त स्थान कागज पर होता है उसी को देखना वा पढ़ना है । प्रतिदिन सूर्य व्यायाम के पश्चात् पुस्तक के पांच-सात पृष्ठ इसी प्रकार पढ़ डालें । इन दोनों क्रियाओं से आंखों को बड़ा ही लाभ पहुंचेगा । श्रद्धापूर्वक निरन्तर और दीर्घकाल तक दोनों अभ्यासों के करने से चश्मा उतर जाता है । नेत्रज्योति खूब बढ़ती है और वृद्धावस्था अर्थात् सौ वर्ष तक स्थिर रहती है ।

व्यायाम और ब्रह्मचर्य

प्रतिदिन व्यायाम करने से भोजन ठीक पचता है और मलबद्ध (कब्ज) कभी नहीं होता । वीर्य शरीर का अंग बन जाता है जो नष्ट नहीं होता और वीर्य ही सारे शरीर और विशेषतया ज्ञानेन्द्रियों को शक्ति देता है । जब व्यायाम से वीर्य की गति ऊर्ध्व हो जाती है और वह मस्तिष्क में पहुंच जाता है तब चक्षु आदि इन्द्रियों को निरन्तर शक्ति प्रदान करता है और स्वस्थ रखता है । वैसे तो ब्रह्मचर्य सभी लोगों के लिए परमौषध है जैसा कि परम वैद्य महर्षि धन्वन्तरि जी ने कहा भी है –

मृत्युव्याधिजरनाशि पीयूषं प्रमौषधम् ॥

ब्रह्मचर्यं महद्यरत्‍नं सत्यमेव वदाम्यहम् ॥

किन्तु आंखों के लिये तो ब्रह्मचर्य पालन ऐसा ही है जैसा कि दीपक के लिए तेल । जैसे तेल के अभाव में दीपक बुझ जाता है वैसे ही वीर्यरूपी तेल के अभाव वा नाश से नेत्ररूपी दीपक बुझ जाते हैं । वीर्यनाश का प्रभाव सर्वप्रथम नेत्रों पर ही पड़ता है । वीर्यनाश करने वालों की आंखें अन्दर को धंस जाती हैं


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और उसे उठते-बैठते अंधेरी आती है । आंखों के चारों ओर तथा मुख पर काले-काले धब्बे हो जाते हैं । आंखों का तेज वीर्य के साथ-साथ बाहर निकल जाता है । वीर्यरक्षा के बिना चक्षुरक्षा के अन्य सब साधन व्यर्थ ही हैं । अतः जिसे अपने आंखों से प्यार है वह कभी भूलकर भी किसी भी अवस्था में वीर्य का नाश नहीं करता और वीर्यरक्षा के लिये नियमपूर्वक अन्य साधनों के साथ-साथ प्रतिदिन व्यायाम भी करता है ।

वैसे तो वीर्यरक्षा तथा आंखों के लिये सब प्रकार के व्यायाम से लाभ पहुंचता है परन्तु शीर्षासन, वृक्षासन, मयूरचाल, सर्वांगासन तो वीर्यरक्षा में परम सहायक तथा आंखों के लिये सब प्रकार के व्यायामों में मुख्य हैं तथा आंखों के लिये गुणकारी हैं - यह स्वयं मेरे जीवन का भी अनुभव है । जब मैं दशम श्रेणी में पढ़ता था, डाक्टर ने मेरी आंखों में (slight myopic) रोग बताया । इस रोग में दूर की वस्तु स्पष्ट नहीं दीखती और पुस्तक पढ़ने के लिए विद्यार्थी को पुस्तक पास लानी पड़ती है। यह रोग आजकल प्रायः बहुत से विद्यार्थियों को होता है । डाक्टर ने साथ-साथ यह सम्मति भी दी कि आप आंखों पर चश्मे लगावें नहीं तो आंखें खराब हो जावेंगी । मुझे डाक्टर की इस सम्मति पर हंसी आई । उस समय मुझे चश्मे से घृणा थी । ईशकृपा और महर्षि दयानन्द की कृपा से मैं आर्यसमाज की शरण में आ चुका था । इसी कारण ब्रह्मचर्य पालने की लगन भी पहले से ही लग चुकी थी । इसी धुन में मैं नियमपूर्वक शीर्षासन आदि व्यायाम करता था । इसका फल धीरे-धीरे मिलने लगा । चक्षु क्या, किसी अंग में भी किसी प्रकार का विकार न रहा । महर्षि की कृपा से आज २० वर्ष के पीछे मैं देखता हूं कि मेरी आंखों की ज्योति दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही जाती है और डाक्टर की चश्मे वाली बात याद करके मुझे आज भी हंसी आती है । यदि लोग चक्षुरक्षा के लिए ब्रह्मचर्य पालन, शीर्षासन आदि व्यायाम साधनों का अवलम्बन करें तो कितने ही लोगों के चश्मे उतर जायें । निष्कर्ष यह है कि विद्यार्थी आदि मस्तिष्क से काम करने वाले लोगों को शीर्षासनादि व्यायाम से


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जहां अनेक लाभ होते हैं वहां उनकी आंखों के रोग और विकार दूर होते हैं । अतः चक्षुप्रेमियों को प्रतिदिन व्यायाम करना चाहिए ।


प्राणायाम

जिन लोगों को वात और कफ दूषित होने से चक्षुरोग हो जाते हैं अथवा कम दीखने लगता है उन्हें भस्त्रा या भस्त्रिका प्राणायाम से अत्यन्त लाभ होता है । इसी विषय में एक सच्ची घटना है । आर्य सन्यासी श्री पूज्य स्वामी शान्तानन्द जी महाराज प्रातः स्मरणीय श्री पूज्यपाद स्वामी आत्मानन्द जी महाराज के साथियों में से थे, और दुर्भाग्यवश काश्मीर के विप्लव में आततायी यवनों द्वारा योगाभ्यास करते हुए अपने आश्रम में शहीद हो गये । उन्होंने अपने जीवन में इस प्राणायाम का विशेष अभ्यास और अनुभव किया था । इस अभ्यास से पूर्व उनकी आंखें खराब हो गईं थीं । यहां तक कि वे अन्धे हो गए थे । भस्त्रिका प्राणायाम का विशेष तथा निरन्तर अभ्यास करते रहे । कुछ काल के पीछे उन्हें दीखना आरम्भ हुआ । आंखों के सब विकार दूर हो गए और बिना चश्मे आदि की सहायता के पुस्तक पठानादि सब कार्य करने लगे । यहां तक कि रात्रि में दीपक के प्रकाश में भी भलीभांति पढ़ते थे । इनके अनुभव से लाभ उठाना आर्यजगत् के भाग्य में नहीं था । अब भी वे साधना में ही लगे हुये थे । आप इस सच्ची घटना से समझ गये होंगे कि प्राणायाम आंखों के लिए लाभकारी है । किसी अनुभवी अभ्यासी से सीखकर लाभ उठाना चाहिये । वैसे करने से हानि भी हो सकती है ।

भोजन

भोजन सदैव शुद्ध, पवित्र, सात्विक करना चाहिये । भोजन शीघ्र पचनेवाला और पुष्टिकारक हो । भोजन से ही हमारा सारा शरीर बनता है । विशेषतया चक्षु जैसी अमूल्य इन्द्रिय की रक्षा के लिये सदा गौ का घी, दूध, मक्खन (नूणी घी) मलाई, बादामादि स्निग्ध और पुष्टिकारक पदार्थों का आवश्यकतानुसार खूब सेवन करना चाहिये । आजकल लोभी माता-पिता दुग्ध,


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घृतादि पदार्थ न स्वयं खाते हैं और न अपने बालकों को खिलाते हैं । छोटे-छोटे विद्यार्थियों की आंखों पर नयनकों वा चश्मों का चढ़ना बतलाता है कि हमारे देश के लोगों की आंखों का सत्यानाश हो रहा है । लोग कितने मूर्ख हैं कि मुकद्दमों, विवाह शादियों और वस्त्र आभूषणों पर व्यय करके व्यर्थ में ही धन का नाश करते हैं । वैसे तो बड़े-बड़े मकान और हवेलियां बनाते हैं किन्तु घी दूध न मिलने के कारण उनके बच्चे अन्धे हो जाते हैं । इतना ही नहीं, खट्टी, तीक्ष्ण, उष्ण और चटपटी हानिकारक वस्तुएं इन्हें खिलाते हैं तथा चाय, बीड़ी, सिगरेट, शराब जैसी गन्दी मादक (नशीली) वस्तुएं इन्हें पिलाते हैं जो नेत्रों के सबसे भयंकर शत्रु हैं । जिन्हें अपनी और अपने बालकों की आंखें प्यारी हैं, उन्हें गौ का घी, दूधादि पुष्टिकारक पदार्थ खूब खाने चाहियें । भैंस का घी, दूध शरीर को भले ही पुष्ट कर दे किन्तु आंखों तथा ज्ञानेन्द्रियों को लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचाता है । जो सूक्ष्म नस, नाड़ियां, रक्त की शिरायें और ज्ञानतन्तु हैं उनको रोक देता है और रक्तसंचार को बन्द कर देता है । इससे जो सूक्ष्म ज्ञानतन्तु, जो चक्षु आदि ज्ञानेन्द्रियों को रक्त पहुंचाते और शक्ति देते हैं वे भैंस के घी, दूध खाने अथवा सर्वथा पुष्टिकारक पदार्थ न खाने से बन्द हो जाते हैं और मनुष्य अन्धा और बहरा (बधिर) हो जाता है । इसलिये गौ का घी दूध जो चक्षु आदि इन्द्रियों के लिये अमृत है, खूब खाना पीना चाहिये । सदैव यह ध्यान रखो कि हमें खाना उतना ही चाहिये जितना पच जाये । पचनेवाला भोजन ही हमारे शरीर का अंग बनता है और हमारी चक्षु आदि इन्द्रियों को लाभ पहुंचाता है । अजीर्ण और कोष्ठबद्धता से भी आंखों को हानि पहुंचती है । जिह्वा की लोलुपता में आकर अभक्ष्य हानिकारक और अधिक पदार्थ न खाओ और पेट पर अत्याचार करके हानि न पहुंचाओ ।

अन्य उपाय सं० ३

(१) भोजन से पूर्व हाथ, पैर और सिर धोने से चक्षुओं को लाभ पहुंचता है ।

(२) भोजन के पश्चात् कुल्ला करके हाथ धोकर गीले हाथ आंखों और सिर


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पर फेरने से आंखों को लाभ पहुंचता है ।

(३) थोड़ी देर खूंटीदार खड़ाऊं पहिनने से भी आंखों को लाभ होता है ।

(४) रात्रि में चन्द्रमा की ओर टिकटिकी लगाकर देखने अथवा त्राटक करने से चक्षुओं को बहुत ही लाभ होता है । कितने ही आंखों के रोग इस अभ्यास से दूर हो जाते हैं । चन्द्रमा की ओर देखने से आंखों की दृष्टि बढ़ती है किन्तु सूर्य वा दीपक आदि अन्य प्रकाशों की ओर देखने वा त्राटक करने से दृष्टि घटती है ।

(५) सदैव सीधे बैठकर ही पढ़ो । पुस्तक को पढ़ते समय अपने हाथ में आंखों से एक फुट दूर रखो । भूमि वा ऐसे स्थान पर पुस्तक को कभी न रखो जिससे आपको झुकना पड़े । लिखने वा पढ़ने का कार्य कभी झुककर न करो । झुककर लिखने और पढ़ने से आंखें और फेफड़े दोनों ही खराब होते हैं ।

(६) जहां तक हो सके, रात में न पढ़ो । पढ़ने के लिए दिन ही पर्याप्‍त है । रात्रि में पढ़ने वा लिखने से भी आंखें खराब होती हैं । यदि दुर्भाग्यवश पढ़ना ही पड़े तो बिजली के तेज प्रकाश वा मिट्टी के तेल के लैम्प वा दीपक से न पढ़ो । यदि बिजली के प्रकाश में पढ़ना ही पड़े तो मेज वाला विद्युत दीपक (Table Lamp) कुछ सुविधाजनक है । यह आंखों के लिए दोनों ही अत्यन्त हानिकारक हैं । सरसों के तेल के दीपक से पढ़ो । उसकी बत्ती बारीक न हो । दीपक का प्रकाश पढ़ते समय आपकी आंखों पर न पड़ना चाहिए । दीपक को ऐसे स्थान पर रखो कि दीपक का प्रकाश आपके बांयीं ओर से आपकी पुस्तक पर पड़े ।

(७) रात्रि में दस बजे से पहले सो जाओ । यदि परीक्षा के कारण ज्यादा पढ़ना ही पड़े तो प्रातः तीन वा चार बजे उठकर पढ़ो ।

(८) रात्रि में देर तक पढ़ते रहना और प्रातःकाल देर तक सोते रहना दोनों ही आंखों के लिए अत्यन्त हानिकारक हैं ।

इस लेख में नेत्ररोगों के कारण और रक्षा के साधन (उपाय) बताये हैं । यह प्राचीन ऋषि महात्माओं के अनुभूत अथवा प्राचीन आयुर्वैदिक ग्रन्थों में लिखे हुए हैं जिन्हें प्रायः आधुनिक वैद्य और डाक्टर भी मानते हैं । जो इस विषय में कुछ भी ज्ञान रखते हैं वे सब मुक्तकंठ से स्वीकार करेंगे । इस लेख में जो


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बातें लिखी हैं वे सुनी सुनाई नहीं हैं अपितु अनुभव और प्रामाणिक ग्रन्थ ही इनका आधार हैं । अतः जो भी व्यक्ति इस लेख को पढ़कर इसके अनुसार आचरण करेगा वह लाभ उठायेगा और पश्येम शरदः शतम् के अनुसार सौ वर्ष तक प्रभु के सुन्दर संसार को देखेगा और आनन्द पायेगा ।

५. औषध चिकित्सा

आजकल हमारे देशवासियों की मानसिक अवस्था इतनी हीन हो चुकी है कि इन्हें रोगों से बचने के कितने ही लाभदायक प्राकृतिक सरल साधन बताओ किन्तु इन्हें औषध-चिकित्सा के बिना सन्तोष नहीं होता । अन्य सब साधन और उपाय इनके लिये निरर्थक हैं । ऐसे ही लोगों की हम में अधिक संख्या है । इनके लाभ के लिये नेत्रों के प्रसिद्ध रोगों की चिकित्सार्थ कुछ अनुभूत और अत्यन्त लाभदायक किन्तु सरल योग लिखता हूँ ।

अभिष्यन्द वा चक्षुपीड़ा की चिकित्सा

अभिष्यन्द अर्थात् आंखें दुखने का रोग ऐसा है कि इस समय ऐसा व्यक्ति खोज करने से शायद ही कोई मिलेगा जिसकी आंखें अपने जीवनकाल में किसी न किसी समय न दुखनी आई हों । मनुष्य अज्ञान के कारण किसी समय भूल कर ही डालता है । माता-पिता की मूर्खता से छोटे-छोटे दूध पीते बालकों की आंखें तो प्रायः दुखती रहती हैं और कितनों ही की दुखते नेत्रों की उचित चिकित्सा न होने से आंखें खराब हो जातीं हैं । जब आंखें दुखनी आती हैं तो चक्षुओं में मैल बहुत आता है । इसे त्रिफला के जल से धोकर साफ कर डालना चाहिये । मैल तथा गन्दगी आंखों में लगी रहने से अनेक भयंकर रोग उत्पन्न हो जाते हैं । आंखें धोने के लिए त्रिफला सर्वोत्तम है ।

त्रिफला के जल से आंखें धोना

आयुर्वेद में हरड़ की छाल (छिलका), बहेड़े की छाल और आमले की छाल - इन तीनों को त्रिफला कहते हैं । यह त्रिदोषनाशक है अर्थात् वात,


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पित्त, कफ इन तीनों दोषों के कुपित होने से जो रोग उत्पन्न होते हैं उन सबको दूर करने वाला है । मस्तिष्क सम्बन्धी तथा उदर रोगों को दूर भगाता है तथा इन्हें शक्ति प्रदान करता है । सभी ज्ञानेन्द्रियों के लिये लाभदायक तथा शक्तिप्रद है । विशेषतया चक्षुरोग के लिये तो रामबाण है । कभी-कभी स्वस्थ मनुष्यों को भी त्रिफला के जल से अपने नेत्र धोते रहना चाहिये । नेत्रों के लिए अत्यन्त लाभदायक है । कभी-कभी त्रिफला की सब्जी खाना भी हितकर है ।

धोने की विधि - त्रिफला को जौ से समान (यवकुट) कूट लो और रात्रि के समय किसी मिट्टी, शीशे वा चीनी के पात्र में शुद्ध जल में भिगो दो । दो तोले वा एक छटांक त्रिफला को आधा सेर वा एक सेर शुद्ध जल में भिगोवो । प्रातःकाल पानी को ऊपर से नितारकर छान लो । उस जल से नेत्रों को खूब छींटे लगाकर धोवो । सारे जल का उपयोग एक बार के धोने में ही करो । इससे निरन्तर धोने से आंखों की उष्णता, रोहे, खुजली, लाली, जाला, मोतियाबिन्द आदि सभी रोगों का नाश होता है । आंखों की पीड़ा (दुखना) दूर होती है, आंखों की ज्योति बढ़ती है । शेष बचे हुए फोकट सिर पर रगड़ने से लाभ होता है ।

त्रिफला की टिकिया

(१) त्रिफला को जल के साथ पीसकर टिकिया बनायें और आंखों पर रखकर पट्टी बांध दें । इससे तीनों दोषों से दुखती हुई आंखें ठीक हो जाती हैं ।

(२) हरड़ की गिरी (बीज) को जल के साथ निरन्तर आठ दिन तक खरल करो । इसको नेत्रों में डालते रहने से मोतियाबिन्द रुक जाता है । यह रोग के आरम्भ में अच्छा लाभ करता है ।


त्रिफलादि घृत

हरड़, बहेड़ा और आंवला इन तीनों की आधा सेर छाल (छिलका)


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लो । इन तीनों को अधकुटा (यवकुट) करके पृथक्-पृथक् अठगुणे जल में अर्थात् चार सेर जल में भिगोकर उबालो । जब चौथाई (एक सेर) रह जाए तो उतारकर मलकर छान लो । यदि क्वाथ करने के स्थान पर गीली त्रिफला की छाल मिल जाए तो कूटकर एक सेर रस निकालें । यह बहुत ही उत्तम है । यथार्थ में स्वरस ही लाभदायक है । किन्तु न मिलने पर काढ़ा ही लो । इसी प्रकार अडूसा (बांसा) का रस वा क्वाथ एक सेर, बकरी का दूध १ सेर, गोघृत एक सेर - सबको एक साथ कढ़ाई में डालें । फिर हरड़, बहेड़ा, आंवला, पीपल बड़ा, श्वेत चन्दन, द्राक्षा, सैंधा लवण, कंघी (गंगरेन), काकोली, क्षीरकाकोली (ये दोनों न मिलें तो इनके स्थान पर अश्वगन्ध डालें), मुलहटी, काली मिर्च, सोंठ, खांड, नीलोफर, श्वेत पुनर्नवा, हल्दी - ये उन्नीस वस्तुएं हैं । इन सबको १६, १६ माशे लेकर पानी डालकर खूब रगड़ो, घोटो और इनका कल्क (गोला सा) बनाकर उसी कड़ाही में डालकर धीमी-धीमी आग पर पकाओ । जब और सब कुछ जल जाय, केवल घृत रह जाय तो उतारकर छान लो । यह घृत आंखों के लिये अत्युत्तम है । इसकी मात्रा ६ माशे से १ छटांक तक है । अपनी शक्ति को देखकर मात्रा लो । इसका सेवन दूध के साथ होता है और भोजन के साथ भी इस प्रकार सेवन होता है कि भोजन का प्रथम ग्रास इस घृत से लगाकर खायें, एक बार भोजन के मध्य में इस घृत के साथ लगा लें तथा भोजन का अन्तिम ग्रास भी इसको लगाकर खा लें । इस घृत की जितनी प्रशंसा करें, वह थोड़ी ही है । ऋषियों की अपार कृपा है । सेवन कर लाभ उठावो और उनके गुण गावो ।

आंखों के समस्त रोगों के लिये रामबाण है । इसके सेवन से नेत्रों का कोई भी रोग नहीं रहता । इससे रतौंधी, आंखों की खुजली, पानी आना, धुंध, जाला आदि सब दूर होते हैं । आंखें निर्मल होकर चमकने लगती हैं । सौ वर्ष तक नेत्र-ज्योति नवयुवकों के समान बनी रहती है ।


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मोतियाबिन्द में भी लाभदायक है । आंखों के छोटे बड़े सब रोगों में हितकारी है ।

दुखती आंखों की अद्‍भुत औषध

अनारदाना ५ तोले, गुलाब जल (अर्क) २० तोले, दोनों को रात्रि में एक बढ़िया चीनी वा मिट्टी के पात्र में डाल दें । प्रातःकाल अच्छी प्रकार से मलकर छान लें और इसमें रसौत २ तोले, फिटकड़ी श्वेत (सफेद) भुनी हुई ६ माशे, अफीम शुद्ध ३ माशे डालकर मिला लें । इसको छानकर शीशी में रखें । यह आंखों में डालने का उत्तम लोशन (औषध) है । यह जिंक लोशन तथा अन्य अंग्रेजी औषधों से सहस्रों गुणा लाभ करता है । यदि इसी औषध को और भी अधिक तथा शीघ्र लाभ करने वाला बनाना हो तो इसमें कपूर शुद्ध ३ माशे, नीलाथोथा भुना हुआ १ माशा मिलायें । फिर इसका जादू देखें । आंखें किसी भी कारण दुखती हों तथा इनमें कितनी ही भयंकर पीड़ा हो, वे चाहे किसी भी औषध से अच्छी न होती हों, इस औषध का सेवन करें । यह मन्त्र सा फूंक देती है, तुरन्त ही आंखों में लाभ करती है । इसका लेप भी किया जाता है ।

लेप

इसी औषध को धीमी अग्नि पर इतना पकाओ कि गाढ़ा लेप करने योग्य हो जावे । इस लेप को दुखती हुई आंखों पर करने से बहुत शीघ्र ही आंखें अच्छी हो जाती हैं । लेप तथा आंखों में औषध डालना दोनों साथ-साथ करो तो सोने पर सुहागे का काम देगा ।

सावधान - इतना ध्यान रखो कि औषध पुरानी, गली, सड़ी, नकली और अशुद्ध न हो । एक वर्ष पीछे प्रायः सभी जंगल की जड़ी-बूटियां पुरानी हो जाती हैं । उनको कार्य में नहीं लाना चाहिए । वे कूड़े में फेंक देने योग्य होतीं हैं । हमारे लोभी पंसारी अनेक वर्षों की पुरानी गली-सड़ी जड़ी-बूटियां दुकान में रखते हैं जो लाभ के स्थान पर हानि करती हैं ।


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अनारदाना तथा गुलाबजल

पहाड़ी अनार सूखा हुआ तथा नया हो जिसमें दुर्गन्ध न आती हो । अर्क गुलाब भी थोड़े दिनों का खिंचा हुआ लेना चाहिये । अर्क तो दो तीन मास में खराब हो जाते हैं । उनमें जाला पड़ जाता है और काम के नहीं रहते । और अर्क प्रायः सब नकली ही मिलते हैं और गुलाब का अर्क का असली मिलना असम्भव नहीं तो दुर्लभ अवश्य ही है । कारण ? हमारे देश में असली गुलाब के पादप (पौधे) बहुत ही न्यून मिलते हैं । जो पौधे हम वाटिकाओं वा बागों में देखते हैं वे प्रायः सभी अंग्रेजी गुलाब (Rose) के होते हैं । सर्वत्र गौरांग की कृपा से इन्हीं की खेती हो रही है । ये गुलाब नहीं हैं । इनमें सभी ऋतुओं में फूल आये रहते हैं और सुगन्ध बहुत थोड़ी नाम की ही होती है । इनसे कोई भी लाभ नहीं होता । असली गुलाब तो देसी गुलाब ही होता है । इस पर पुष्प केवल वसन्त ऋतु (फाल्गुन, चैत्र मास) में ही आते हैं । इनमें सुगन्ध बड़ी अच्छी तथा बहुत आती है । ये ही यथार्थ में गुलाब हैं । इसके फूलों से ही भबके द्वारा अर्क खिंचवाकर प्रयोग में लाना चाहिये ।

यदि गुलाब जल न मिले तो वर्षाजल वा गंगाजल इसके स्थान पर ले लो । जब वर्षा हो तो छत वा ऊंचे स्थान पर बड़ा जलपात्र रख दो, उसमें धूल मिट्टी न गिरे । फिर उसे निथार छानकर शीशे के पात्रों में रख लो और आवश्यकता पड़ने पर इसी को गुलाबजल के स्थान पर आंख की औषध में डालो । यह बाजारी गुलाबजल से सैंकड़ों गुणा अच्छा है । गंगाजल के समान वर्षाजल भी नहीं सड़ता । गंगाजल को गुलाबजल से स्थान पर ले सकते हैं । यदि असली गुलाब के पुष्पों का नया गुलाब जल (अर्क) मिल जाय तो क्या कहना । न मिले तो गंगाजल वा वर्षाजल लेना अच्छा है ।

रसौंत प्रायः ठीक ही मिल जाती है । इसमें कूड़ा मिला रहता है, उसे निकाल देना चाहिये । अफीम भी किसी विश्वासपात्र ठेकेदार से लेनी चाहिये । इसमें पर्याप्‍त गड़बड़ी लोग कर देते हैं । फिटकड़ी श्वेत बारीक पीस लो और


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आग पर तवा रखकर इसे पकावो । जब फिटकड़ी का सब पानी जल जाये तो उसे भुनी हुई समझो । नीलाथोथा भी तवे पर भून लो । वह भी भुनकर सफेद हो जाता है । नीलेथोथे से डरो नहीं, यह भूनने पर किसी तरह की हानि नहीं करता । कपूर बाजार में प्रायः नकली ही मिलता है । वह एक अंग्रेजी दवा ही होती है । यह जलाने पर कपूर के समान जलती है । अतः कपूर देशी किसी भले दुकानदार से वा किसी विश्वस्त फार्मेसी से लो ।

मैंने सभी औषधों के विषय में इसलिये खोलकर लिख दिया है क्योंकि लोग खराब ले लेते हैं और जब लाभ नहीं होता तो वैद्यों वा ऋषियों वा आयुर्वेद की निन्दा करते हैं । अपनी त्रुटि नहीं देखते । आप इस औषध को बनाकर घर पर रखो । लोगों की आंखों में डालो और खूब परोपकार कर यश के भागी बनो । फिर जनता आपके गुण गाते-गाते नहीं थकेगी । इस औषध का मैंने तथा मेरे मित्रों ने सहस्रों रोगियों पर अनुभव किया है और यह सदैव अचूक सिद्ध हुई है ।

  • नीम के पत्तों की टिकिया बनाकर आंखों पर बांधने से रक्तदोष वा गर्मी के कारण दुखती आंखें ठीक हो जाती हैं ।
  • नीम की कोमल कौंपलों को पीसकर रस निकाल लो । उसको कुछ उष्ण कर लो । यदि दक्षिण नेत्र में पीड़ा हो तो वाम कर्ण में और यदि वाम नेत्र में पीड़ा हो तो दक्षिण कर्ण में कुछ बूंदें रस की डालो । यदि दोनों ही आंखें दुखती हों तो दोनों ही कानों में टपकावो । यह आंख दुखने (चक्षु-पीड़ा) को दूर करती है । इसी प्रकार धतूरे के पत्तों के रस से भी लाभ होता है ।
  • बड़ का दूध आंखों में लगाने से नेत्रपीड़ा में तुरन्त ही लाभ होता है ।
  • चन्द्रोदयवर्तिका - छिलका हरड, कूठ कड़वा, बच, पीपल बड़ा, कृष्ण मिर्च, बहेड़े की गिरि, शंख की नाभि, मैनसिल शुद्ध, सब औषध सम तोल में लेकर अत्यन्त ही बारीक पीस लो और गौदुग्ध में दो दिन खरल करके

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वटिका (गोलियां) बना लो । इन गोलियों को घिसकर आंखों में लगाने से कई वर्ष का फोला नष्ट होता है और रोहे (कुकरों) तथा रतौंधी (रात में न दीखना) के लिए एक अद्‍भुत औषध है, अनुभूत है ।

अनुपम अंजन

(१) लवङ्ग (२) पीपल बड़ा (३) काली मिर्च (४) नीला थोथा (भुना हुआ) चारों तीन-तीन तोले । (५) अम्बा हल्दी (६) शिरस के बीज (७) फिटकड़ी सफेद (भुनी हुई) (८) नृसार अर्थात् नवसादर (९) कलमीशोरा (१०) समुद्रझाग (११) मूंज की भस्म (राख) और (१२) सुरमा काला । ये सब आठों छः-छः तोले । इन सबको अत्यन्त बारीक पीस डालो और प्रतिदिन रात्रि में सोते समय आंखों में एक-दो सलाई लगा लिया करें । इनके सेवन से आंखें सब प्रकार के रोगों से सुरक्षित रहती हैं और आंखों की ज्योति वृद्धावस्था अर्थात् सौ वर्ष तक नहीं घटती ।

आंख में अंजन, दांत में मंजन नित कर, नित कर, नित कर के अनुसार इसका प्रयोग करें । बहुत ही लाभदायक है । बार-बार का अनुभूत है ।

आंख का फोला

फिटकड़ी श्वेत, सुहागा, नीलाथोथा, नौसादर समभाग सूक्ष्म पीसकर एक कोरे प्याले में डालकर ऊपर से दूसरा कोरा प्याला ढ़क दें और इन प्यालों के मुखों को मुलतानी मिट्टी से खूब बन्द करके चूल्हे पर चढ़ाकर मन्द-मन्द अग्नि में जलाते रहें, और ऊपरवाले प्याले पर चार तह किया हुआ मोटा कपड़ा भिगोकर रख दें । जब वस्त्र सूख जावे तो फिर भिगो दें । इसी भांति चार घण्टे आंच देते रहें । सब सत्त्व उड़कर ऊपर वाले प्याले पर लग जायेगा । आग से उतारकर ठण्डा होने पर सत्त्व को खुरचकर सूक्ष्म पीसकर शीशी में डालकर कार्क लगा दें ।


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प्रयोग - रात्रि में सोते समय १ या २ सलाई डालकर सो जावें । उक्त योग फोला काटने के लिए अनुभूत है । ध्यान रहे कि ब्रह्मचर्य से रहना अनिवार्य है ।

जाले की औषधि

बारहसिंगा के सींग लेकर जल के साथ पत्थर पर घिसकर चूर्ण बनायें । फिर इस चूर्ण को नींबू के रस में खरल करें और गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें । इन गोलियों को जल में घिसकर नेत्र में लगाने से पुराने से पुराना जाला दूर होता है ।

फोले की औषधि

काले कबूतर की बींट को पीसकर किसी ताम्रपात्र में डालें और इसमें नींबू का रस डालकर एक सप्‍ताह तक पड़ा रहने दें । शुष्क हो जाने पर इसको खरल करके शीशी में रख लें । अंजन की भांति इसका प्रयोग करने से फोला दूर होता है ।

रतौंधी वा अन्धराता

सिरस के पत्तों का रस आंखों में डालने से अन्धराता (रात में न दीखना दूर होता है ।

नेत्रों की खुजली तथा कुकरों की औषध

पीतल के चौड़े मुख के पात्र में कुछ जल डालकर कचूर की गांठ लेकर घिसना आरम्भ करें । जल शुष्क होने पर और जल डाल दें । इसी प्रकार २-३ दिन घिसते रहें । शुष्क होने पर बारीक पीसकर शीशी में रख लें । अंजन के समान प्रतिदिन प्रयोग करें । यह आंखों की खुजली और कुकरों (रोहों) की रामबाण औषध है ।

भीमसेनी सुरमा

इस नाम से जो सुरमा गुरुकुल कांगड़ी फार्मेसी का मिलता है वह


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नेत्रों के लिए अत्यन्त हितकर है । मेरे कितने ही मित्र इसका प्रतिदिन सेवन करते हैं । इससे सबको अत्यन्त लाभ पहुंचा है । जाला, मोतियाबिन्द, रोहे, आंखों की खुजली, पानी जाना, कम दिखना, फोले आदि सभी रोगों में लाभ पहुंचाता है । दृष्टि को न्यून नहीं होने देता । इसका निरन्तर सेवन आंखों की ज्योति को बढ़ाता है । रोहों पर तो यह रामबाण सिद्ध हुआ है । मेरे एक साथी म० जगन्नाथ आर्य हैं । ये जब बी० ए० में पढ़ते थे तो उनकी आंखों में रोहे (कुकरे) हो गये, अनेक डॉक्टर, वैद्यों की चिकित्सा की पर कोई लाभ नहीं हुआ । अतः विवश होकर बी० ए० के पीछे अपनी शिक्षा को छोड़ना पड़ा । फिर त्रिफला के पानी से आंखें धोना तथा भीमसेनी सुरमे का प्रयोग आरम्भ किया । निरन्तर सेवन से रोहे आदि सब ठीक हो गये और उसके पश्चात् वकालत, सिद्धान्तशास्त्री और प्रभाकर की परीक्षायें दे डालीं और साथ-साथ दिन में नौकरी भी करते रहे हैं । किन्तु सुरमा आंखों में डालते समय यह ध्यान रखें कि सलाई में थोड़ा सुरमा लगायें तथा सुरमा प्रतिदिन पर्याप्‍त समय तक डालना चाहिये । भोजन-छादन, आहार-विहार आदि भी ठीक रखें तो रोगरहित होकर नेत्रज्योति सौ वर्ष तक बनी रहेगी ।

नेत्रज्योति सुरमा

आर्य आयुर्वैदिक रसायनशाला गुरुकुल झज्जर ने नेत्रज्योति सुरमा नाम से जो सुरमा तैयार किया है वह इससे भी उत्तम है । नेत्रों के सभी प्रकार के रोगों को दूर करता है और नेत्रज्योति को बढ़ाता है ।

पाठकों के लाभार्थ कुछ योग दे दिये हैं । आशा है लाभ उठाकर ऋषियों तथा प्राचीन आयुर्वेद विद्या का यशोगान करेंगे ।


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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल



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