Pratishthanapura

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Pratishthanapura (प्रतिष्ठानपुर) is a sacred place in Prayaga. The place is at present called Jhusi. Once this place was ruled over by a king called Yayati. The sage Gālava accompanied by Garuḍa visited this king one day. (Śloka 9, Chapter 114, Udyoga Parva). [1][2]

Origin

Variants

History

In Mahabharata

Pratisthana (प्रतिष्ठान) (Tirtha) in Mahabharata (III.83.72)

Vana Parva, Mahabharata/Book III Chapter 83 mentions names of Pilgrims. Pratisthana (प्रतिष्ठान) (Tirtha) is mentioned in Mahabharata (III.83.72).[3]....The tirthas Prayaga (प्रयाग) (III.83.72), Pratisthana (प्रतिष्ठान) (III.83.72), Kambala (कम्बल) (III.83.72), Ashwatara (अश्वतर) (III.83.72) and Bhogavati (भॊगवती) (III.83.72) are the sacrificial platforms of the Creator. There in those places, O foremost of warriors, the Vedas and the Sacrifices, in embodied forms, and the Rishis endued with wealth of asceticism, adore Brahma, and there the gods and rulers of territories also celebrate their sacrifices.

प्रतिष्ठानपुर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है .....प्रतिष्ठानपुर (AS, p.583): प्रयाग के निकट गंगा के दूसरे तट पर स्थिति झूसी ही प्राचीन प्रतिष्ठानपुर है. महाभारत में सब तीर्थों की यात्रा को प्रतिष्ठान (प्रतिष्ठानपुर) में प्रतिष्ठित माना गया है-- 'एवमेषा महाभाग प्रतिष्ठाने प्रतिष्ठिता, तीर्थ यात्रा महापुण्या सर्वपाप प्रमोचनी' वन. 85,114 (टिप्पणी यह निर्देश प्रतिष्ठान या पैठाण के लिए भी हो सकता है). वन.85,76 में प्रयाग के साथ ही प्रतिष्ठान का उल्लेख है-- 'प्रयागं स प्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरौ तथा' (दे.झूसी )

प्रतिष्ठानपुर परिचय

पुरूरवा की राजधानी प्रतिष्ठानपुर गंगा के उत्तरी तट पर थी । भारद्वाज ऋषि का आश्रम भी यहीं पर था। प्रयाग-संगम स्थान, अश्वमेध फलदाता, स्वर्गप्रदाता सब कुछ है। प्रतिष्ठानपुर नगर में वाराह मिहिर एवं भद्रबाहु दोनों सगे भाई थे। राजा त्रिलोचन पाल 1027 ई. में प्रयाग के प्रतिष्ठानपुर में रहते थे। इन्होंने प्रतिष्ठानपुर के एक तीर्थ पुरोहित को ग्राम दान में दिया था। इनके वंश के तीर्थ पुरोहित प्रतिष्ठानपुर (झूँसी) में आज भी विद्यमान है। राजा पुरुरवा सोम-वंश के आदि पुरुष हुए हैं। उनकी राजधानी प्रयाग के पास, प्रतिष्ठानपुर में थी। पुराणों में कहा गया है कि जब मनु और श्रद्धा को सन्तान की इच्छा हुई, उन्होंने वसिष्ठ ऋषि से यज्ञ करवाया। श्रद्धा की मनोकामना थी कि वे कन्या की माता बनें, मनु चाहते थे कि उन्हें पुत्र प्राप्त हो। किन्तु, इस यज्ञ से कन्या ही उत्पन्न हुई। पीछे, मनु की निराशा से द्रवित होकर वसिष्ठ ने उसे पुत्र बना दिया। मनु के इस पुत्र का नाम सुद्युम्न पड़ा। प्रतिष्ठानपुर (इलाहाबाद में गंगा पार का (झूँसी क्षेत्र) के नरेश ययाति की पुत्री माधवी एक राजपूत्री थी। राजपुरुषों की संगिनी थी। राजमाता थी। किन्तु जीवन भर अरण्यबाला बनी तपस्या करती रही। गंगा और यमुना के मध्यवर्ती पुरातन प्रदेश में आर्य संस्कृति का सर्वोत्तम रूप सजाया और सँवारा गया था। उनके संगम पर ही आर्य सभ्यता के आदिम केन्द्र 'प्रतिष्ठानपुर' (वर्तमान प्रयाग के समीप 'झूँसी') की स्थापना हुई थी।[5]

झूसी

विजयेन्द्र कुमार माथुर[6] ने लेख किया है ...झूसी (AS, p.378) इलाहाबाद ज़िला, उत्तर प्रदेश में गंगा नदी के दूसरे तट पर अति प्राचीन स्थान है। इसका पूर्व नाम 'प्रतिष्ठान' या 'प्रतिष्ठानपुर' था। प्रतिष्ठान का तीर्थ स्थान के रूप में उल्लेख महाभारत, वनपर्व में हुआ है- 'एवमेव महाभाग प्रतिष्ठिता' [7] प्राचीन समय में झूसी में चंद्रवंशी राजाओं की राजधानी हुआ करती थी। पौराणिक कथा के अनुसार चंद्र वंश में पुरुरवा प्रथम राजा हुए, जो मनु की पुत्री इला के पुत्र थे। (एक किंवदंती यह भी है कि इलाहाबाद का प्राचीन नाम 'इलाबास' था, जिसे बादशाह अकबर ने इलाहाबाद कर दिया था।) इनके वंशज ययाति के पांच पुत्रों में से पुरु ने प्रतिष्ठानपुर और उसके सीमावर्ती प्रदेश पर सर्वप्रथम अपना शासन स्थापित किया था। झूसी में प्रागैतिहासिक काल की कई गुफ़ाएँ भी हैं। प्राचीन काल के खंडहर दो ढूहों (मिट्टी का ढेर या टीला) के रूप में झूसी रेलवे स्टेशन से एक मील दक्षिण-पश्चिम की ओर अवस्थित हैं। एक ढूह के ऊपर 'समुद्रकूप' नामक एक प्रसिद्ध प्राचीन कूप है।

External links

References

  1. Source: archive.org: Puranic Encyclopaedia
  2. https://www.wisdomlib.org/definition/pratishthanapura
  3. प्रयागं स प्रतिष्ठानं कम्बलाश्वतरौ तथा, तीर्थं भॊगवती चैव वेदी परॊक्ता प्रजापतेः (III.83.72)
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.583
  5. भारतकोश-प्रतिष्ठानपुर
  6. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.378
  7. महाभारत, वनपर्व 85, 114.