Kulchand

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Mahavana Samrat

NameRaja Kulchand
Reign1017AD
Ruled atMahavan(His Capital)
Born ina Jat Family of Hanga clan.[1]

Raja Kulchand was Remembered as a Very Powerful Ruler of his Reign, who was owner of some about 200 Elephants!

Raja Kulichand (also spelled Kulichandra) was a Jat ruler of Mahavan at the time of invasion of India by Mahmud of Ghazni. He was from Henga/Hanga Clan of Jats as mentioned by great history writer Kanwarpal Singh.[1]

Variants

  1. Kulchand
  2. Kulichand
  3. Raja Kulchand
  4. Raja Kulichand
  5. Kulchand Hanga
  6. Kulichand Hanga
  7. Raja Kulichand Hanga
  8. Choudhary Kulchand Hanga
  9. राजा कुलिचंद हँगा
  10. Raja Kulichandra
  11. Raja Kulchandra
  12. राजा कुलचंद्र
  13. राजा कुलिचंद्र

History

When Mahmud Gajnavi invaded India, it was a darker time, but with respect to this invasion many warriors rise to protect ourselves, in which one of rising names is Choudhary Kulchand Hanga, The ruler of Mahavan.

At the time of Mahmud's ninth invasion, in 1017AD after he reached Meerut, he departure for Braj & Mathura region.[2][3] in search for loot!

When Raja of Mahavan got to know about, that Mahmud is coming to attack him, he got ready to face him along with whole of his army, and the clash took place at Mahavan Fort(presently in Mahavan, Mathura).

Fighting with a great bravery, when Raja Kulchand got to know about that he can't fail to Mahmud's attack(or can't be able to conquerer over him), he desperately took out his dagger and digged it first in his beautiful queen and then committed suicide by himself(by the same dagger).[2][3]

This was end of Raja Kulchand, not only Great but one of the Bravest warrior too, who unfortunately doesn't have even a little name in people's said, This is our History. Be Proud!

Capture of Kulchand's Fort

Sir H. M. Elliot[4] writes....After some delay, the Sultan (Mahmud Ghazni) marched against the fort of Kulchand, who was one of the leaders of the accursed Satans, who assumed superiority over other rulers, and was inflated with pride, and who employed his whole life in infidelity, and was confident in the strength of his dominions. Whoever fought with him sustained defeat and flight, and he possessed much power, great wealth, many brave soldiers, large elephants, and strong forts, which were secure from attack and capture. When he saw that the Sultan advanced against him in the endeavour to engage in a holy war, he drew up his army and elephants within a deep forest ready for action.

The Sultan sent his advance guard to attack Kulchand, which, penetrating through the forest like a comb through a head of hair, enabled the Sultan to discover the road which led to the fort.1 The Musulmans exclaim, " God is exceeding great," and those of the enemy, who were anxious for death, stood their ground. Swords and spears were used in close conflict. * * * The infidels, when they found all their attempts fail, deserted the fort, and tried to cross the foaming river which flowed on the other side of the fort, thinking that beyond it they would be in security ; but many of them were slain, taken, or drowned in the attempt, and went to the fire of hell. Nearly fifty2 thousand men were killed and drowned, and became the prey of beasts and crocodiles. Kulchand, taking his dagger, slew his wife, and then drove it into his own body. The Sultan obtained by this victory one hundred and eighty-five powerful elephants, besides other booty.


1. The Tarlkh-i Alfi calls the fort by the name of " Mand."

2. Jarbadkani reduces the number to "five thousand," according to Reynolds, p. 454.]


महावन के सम्राट चौ. कुलचंद हँगा

सम्राट कुलीचंद का जन्म हागा चौधरी(अग्रे) जाट गोत्र में हुआ था[1], यह महावन के शासक थे.

सन् 1017 ईस्वी में महमूद गजनवी ने भारत पर नवा आक्रमण किया, जिसका वर्णन् इतिहासज्ञ लेखक कंवरपाल सिंह द्वारा अपनी कृति "पाण्डव गाथा" में किया गया है, जिसका उल्लेखन हमनें नीचे किया है।

लेखक कंवरपाल सिंह लिखते हैं(पृष्ठ 206),

गजनवी ने अपने नवे आक्रमण का निशाना मथुरा को बनाया। उसका आक्रमण 1017 ईस्वी में हुआ था। मथुरा


[पृष्ठ-207] : दिल्ली राज्य का अंग था। महावन पर हगा (अग्रे) गोत् के जाट राजा चौधरी कुलिचंद्र का शासन था। यह तोमर राजा जयपाल का रिश्तेदार था। कुलीचंद संभवत तोमरों के अधीन सामंत था, जिसपर मथुरा की सुरक्षा का दाइत्व था।

मुहम्मद गजनवी का इतिहासकार उत्वी मथुरा हमले के बारे में लिखता है- "उस समय मथुरा के चारों तरफ़ पत्थर का विशाल कोट सींचा हुआ था। जिसमें यमुना की तरफ़ खुलने वाले दो दरवाज़े थे। तोमर राजाओं के इस शहर में सुल्तान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बताकर देवताओं की कृति बताया। शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे| जिनसे लगे हुए देव मंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे| और लोहे की छड़ों द्वारा मज़बूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है। सुल्तान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उसके निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुल्तान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर


[पृष्ठ-208] : दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य माणिक्यों से जड़ी हुई थीं। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया।

महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था। उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया। अत्यंत वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब जाट राजा कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे।"फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन किया है-"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। कुलीचंद्र की मृत्यु के बाद उसके परिवारों ने बरामई बसाया, फिर यहां से बिसावर बसाया, जिसमें आज तक जाटों का क़िला है।

मथुरा नरेश कुलचंद का अप्रतिम बलिदान

इतिहास के महान् लेखक राकेश कुमार आर्य, सम्राट कुलचंद को अपने शोध ग्रंथ 'भारत के 1235 वर्षीय स्वंतत्रा संग्राम का इतिहास; भाग 1 के इक्तालिस्वे अध्याय में मथुरा नरेश कह कर संभोदित करते हैं, व अध्याय इकतालीस में लिखते हैं.....

मथुरा नरेश कुलचंद का अप्रतिम बलिदान; अध्याय 41

राजाओं का अनुकरणीय कृत्य

भारत के तत्कालीन स्वतंत्रता संघर्ष को जारी रखने के लिए हमारे राजाओं ने अनुकरणीय कृत्य किया और उसकी साक्षी यदि हमें फिरिश्ता ही देता है तो उसे ही स्वीकरणीय माना जाना चाहिए। साथ ही यह भी खोजा जाना चाहिए कि उस युद्घ में भारत के कितने लाल मां भारती की सेवा में बलिदान हुए? परिणाम चाहे जो रहा हो, बात बलिदानी परंपरा के माध्यम से स्वतंत्रता की लौ जलाये रखने की उदात्त राष्ट्रप्रेमी भावना को समझने की है कि विषम परिस्थितियों में भी हमने निज प्राणों को ज्योति की बाती बनाकर और उसमें अपनी ‘शहादत’ का रक्त रूपी तेल डालकर उसे सजीव रखा है, जलाये रखा है, बुझने नही दिया है। अत: यदि उस युद्घ के लिए एक लाख हिंदू वीर काम आये तो उन्हें संयुक्त रूप से सम्माननीय स्मारक मानना हमारा राष्ट्रीय दायित्व है।

मथुरा का राजा कुलचंद

जब महमूद गजनवी भारत में अपना आतंकपूर्ण इतिहास लिख रहा था और अपनी क्रूरता से विश्व की इस प्राचीनतम संस्कृति के धनी देश की संस्कृति को मिटाने का हर संभव कार्य कर रहा था, उस समय इस देश को सांस्कृतिक और राजनीतिक रूप से समृद्घ करने में अग्रणी रहे मथुरा पर कुलचंद नामक वीर कुल शिरोमणि शासक शासन कर रहा था।

2 दिसंबर 1018 को महमूद गजनवी का आतंकी और आक्रांता सैन्य दल बरन (बुलंदशहर) पहुंचा था। उसके सैन्यदल में तीस हजार सैनिक थे। कहा जाता है कि बरन का तत्कालीन शासक हरदत्त महमूद के आतंकी दल का सामना नही कर सका, इसलिए उसने धर्म परिवर्तन कर लिया। राजा हरदत्त की यह बात पड़ोसी शासक मथुरा के राजा कुलचंद को और देश की जनता को अच्छी नही लगी। इसलिए कुलचंद ने भारत की वीर कुलपरंपरा का परिचय देने का निर्णय लिया।

इधर महमूद गजनवी का अहंकार बरन की सफलता से और भी अधिक बढ़ गया था। वह एक तूफान की भांति विनाश मचाता हुआ आगे बढ़ता जा रहा था। उसका भी अगला निशाना मथुरा ही बन रहा था, जहां का राजा कुलचंद अपने राज दरबारियों तथा सेनापतियों के साथ मिलकर इस विदेशी आक्रांता का सामना करने का निर्णय ले चुका था।

मथुरा का गौरवपूर्ण अतीत्

मथुरा प्राचीनकाल से अपने वैशिष्टय के लिए प्रसिद्घ रही है। इसके नाम की उत्पत्ति संस्कृति के ‘मधुर’ शब्द से हुई बतायी जाती है। यह भी माना जाता है कि रामायण काल में इस नगरी का नाम मधुपुर था। कभी यह मधुदानव नामक दानव के लडक़े लवणासुर की राजधानी भी रही थी। लवणासुर के अत्याचारों से त्राहिमाम् कर रही जनता ने अयोध्यापति भगवान राम से सहायता की याचना की तो भगवान राम ने अपने भाई शत्रुघ्न को लवणासुर का प्राणान्त करने के लिए भेजा। शत्रुघ्न अपने लक्ष्य में सफल मनोरथ होकर लौटे। द्वापर युग में यहां कंस ने अत्याचारों की कहर बरपा की, तो जैसे लवणासुर का अंत शत्रुघ्न ने रामायण काल में किया था, वैसे ही महाभारत काल में कंस का अंत कृष्ण ने किया था। तब उन्होंने महाराजा उग्रसेन को पुन: राज्यसिंहासन पर बैठाकर धर्म की स्थापना की।

महाभारत काल में मथुरा शूरसेन प्रांत के नाम से विख्यात थी। महात्मा बुद्घ के समय यहां राजा अवन्तिपुत्र का शासन था, जिनके काल में महात्मा बुद्घ ने भी इस नगरी में पदार्पण किया था। चंद्रगुप्त मौर्य के काल में मेगास्थनीज नामक यूनानी यात्री भारत आया था, उसने इस नगरी का नाम अपने संस्मरणों में मथोरा लिखा था। बौद्घ जैन ग्रंथों में भी इस नगरी का विशेष उल्लेख हमें मिलता है। जैन साहित्य में मथुरा को बारह योजन लंबी तथा नौ योजन चौड़ी बतलाया गया है। यहां लगभग तीन सौ वर्ष तक कुषाण वंश का शासन रहा। जिसमें इस नगरी का सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व बढ़ा। गुप्तकाल में इसकी और भी अधिक उन्नति हुई। यहां मंदिरों का इस काल में भरपूर विकास हुआ। पर हूणों के आक्रमण से इस नगरी को भारी क्षति हुई थी। इसका उल्लेख चीनी यात्री फाहियान के द्वारा लिखित संस्मरणों से हमें मिलता है।

इस प्रकार मथुरा जैसी सांस्कृतिक और धार्मिक नगरी की ओर महमूद का बढऩा सचमुच इतिहास की एक रोमांचकारी घटना है। मानो महमूद एक नगर की ओर नही बल्कि इस देश की सांस्कृतिक और धार्मिक अस्मिता की प्रतीक एक महान ऐतिहासिक धरोहर को ही मिटाने के लिए आगे बढ़ता जा रहा था।

कुलचंद जानता था अपना राष्ट्रधर्म

तब पराधीनता के गहराते अंधकार को चीरकर प्रकाश का परचम फहराना कुलचंद के लिए आवश्यक था। सौभाग्य की बात थी कि राजा कुलचंद यह जानता था कि वह किस ऐतिहासिक धरोहर का इस समय संरक्षक है और इस विषम से विषम परिस्थिति में उसका राष्ट्र धर्म या राष्ट्रीय दायित्व क्या है?

अंत में वह घड़ी आ गयी और विदेशी आक्रांता से धर्मरक्षक राजा कुलचंद की मुठभेड़ हो ही गयी। बड़ा भयंकर युद्घ हुआ था। राजा की बड़ी सेना राष्ट्रवेदी पर बलि हुई थी। राजा बड़ी वीरता से लड़ा। उसके साथ उसकी रानी भी युद्घक्षेत्र में युद्घरत थी। राजा को इसलिए पीछे की कोई चिंता नही थी कि मैं यदि बलिदान हो गया तो रानी का क्या होगा? कहीं वह आक्रांता के हाथ तो नही आ जाएगी? लगता है दोनों पति-पत्नी पहले से ही मन बनाकर आये थे कि युद्घ का परिणाम यदि हमारे प्रतिकूल गया तो क्या करना है और कैसे करना है? राजा अपने बलिदान के पीछे किसी प्रकार का जोखिम अपनी रानी के लिए छोडऩा नही चाहता था और रानी भी इसके लिए तैयार नही थी कि राजा के जाने के पश्चात अपना सतीत्व और धर्म किसी विदेशी को सौंपना पड़े। इसलिए देश के धर्म के लिए और स्वतंत्रता की रक्षा के लिए दोनों प्राणपण से संघर्ष करते रहें।

राजा कुलचंद ने जब देखा कि अब अधिकांश सेना स्वतंत्रता की वेदी पर निज प्राणों का उत्सर्ग कर चुकी है और अब कभी भी वह स्वयं भी शत्रु के हाथों या तो मारे जा सकते हैं या कैद किये जा सकते हैं, इसलिए उन्होंने राजा हरिदत्त का अनुकरण करने से उत्तम अपना और अपनी रानी का प्राणांत निज हाथों से ही करना उचित और श्रेयस्कर माना।

किया सर्वोत्कृष्टबलिदान

राजा ने अपनी ही तलवार से अपनी रानी और अपना प्राणांत कर मां भारती की सेवा में दो पुष्प चढ़ा दिये।

ये दो पुष्प कहां गिरे या कहां और कौन से स्थान पर मां के लिए चढ़े, किसी इतिहासकार ने आज तक खोजने का प्रयास नही किया? इतिहास के इस क्रूर मौन से पता नही कब पर्दा हटेगा? कुछ भी हो, पाठकवृन्द! हम और आप तो आइए, इन बलिदानियों पर अपने श्रद्घा पुष्प चढ़ा ही दें। आज राष्ट्र के लिए और आने वाली पीढिय़ों के लिए यही उचित है।[5]

सम्राट कुलिचंद का वंश परिचय

राजा कुलिचंद महावन के सम्राट थे, इनका जन्म जाटों की यदुवंशी शाखा हांगा गोत्र में हुआ था, जो कि जदुवंशी जाट गोत्र है, जिस बात का संदर्भ हमें लेखक कंवरपाल सिंह की रचनावली(पाण्डव गाथा) के पृष्ठ 207 से प्राप्त होता है।

राजा कुलिचंद को लेकर, हमारे बुज़ुर्ग आज भी बताते हैं की अपने समय में वह पूरे ब्रजमण्डल में ना सिर्फ़ सबसे शक्तिशाली बल्कि सबसे लोकप्रिय शासक भी थे, उन्होंने समस्त प्रजा को एक नज़र से देखा था, 32 युद्ध लड़े थे जिनमें से 31युद्ध जीते थे और 32 वा युद्ध महमूद गजनवी के विरुद्ध सन् 1017ईसवी में लड़ा, जिसके अंत तक उन्होंने हार नहीं स्वीकारी और जब उन्हें लगा कि वह महमूद के हाथ लग जाएंगे जिसके बाद महमूद उन्हें अपना गुलाम बना लेगा, तब उन्होंने अपनी रानी को मार कर स्वयं भी आत्महत्या करली।

राजा कुलिचंद, मथुरा क्षत्रप हंगमाश के वंशज थे(जो कि हीअंग-नु गोत्र के जाट थे, और जिनके नाम से ही जाटों में हगा गोत्र प्रचलित हुई), इस बात पर एक तथ्य यह भी है कि राजा कुलचंद ने महावन में कुषाणों का एक मंदिर भी बन वाया था, और कनिष्क की तोड़ी गई हर मूर्ति का पुनः निर्माण कराया था। राजा कुलिचंद की मृत्यु के बाद इस मंदिर सहित ज़्यादातर मूर्तियों को महमूद गजनवी द्वारा तोड़ दिया गया, फिर बादमें राजा के पुत्र बरामल सिंह ने उस मंदिर का पुनः निर्माण कराया था।

राजा कुलीचंद के पश्चात्

संसार और प्रकृति का नियम है जो शुरू हुआ है उसे ख़त्म होना ही है, इसी प्रकार बहादुरी से भरपूर योद्धा राजा कुलीचंद का भी अंत हुआ, उनके पश्चात् उनके पुत्र बरामल सिंह हंगा ने बरामई नगर की स्थापना सन् 1019ईस्वी में किरारों को परास्त करके कि, और इनके वंश में आगे चल कर चार भाई हुए जिनके नाम निम्न हैं- रामसेन, उदयसिंह, अरथसिंह और सुसेन।

इन भाइयो ने अपने राज्य को चार भागो मे बांट लिया था| रामसेन ने बिसावर पर राज्य किया और उदय सिंह ने नौगावा पर ,अरथसिंह ने अरोठा पर तथा सुसेन ने ऊँचागाँव पर राज किया।

वर्तमान में यह चारों ही स्थान, इन हागा जाटों के चार खेड़े(गढ़) कहलाते हैं।

महावन और उँचागाँव के क़िले पूर्ण रूप से संपन्न क़िले हैं और बाकी कच्चे मिट्टी के बने हैं, जिनपर चारों तरफ़ खाई का घेरा है, और उसमें राज्य के समय पानी भी रहता था। इनके अतिरिक्त बिसावर और अंचाई गढ़ी के क़िले भी काफ़ी बड़े और संपन्न हैं।

नोट- हागा जाटों के महावन, व मथुरा क्षेत्र सहित सादाबाद परगने और हाथरस ज़िले को मिला करके कुल 30 के आस पास क़िले थे, जिनमें से 22 क़िले गढ़ी(अन्यथा उनके अवशेष) तो वर्तमान में भी विराजमान हैं।

हमारा कथन(सम्राट कुलीचंद को समर्पित)

जिस महमूद गजनवी का नाम सुन कभी समस्त एशिया के बड़े बड़े राजे-महाराजे थर्रा जाते थे, उस गजनवी का ऐसे अप्रतिम साहस के साथ मुक़ाबला करने के लिए जाट का खून चाहिए, विद्वान् रचनाकार(लेखक) रांगेय राघव लिखते हैं, "की योद्धा ख़ूब लड़े नदी खून से लाल रंग गई, महावन का राजा कुलीचंद भी तो ऐसा काफ़िर था कि अंतिम दम तक लड़ा और जब हार पक्की हो गई और उसने 50 हज़ार सैनिकों को मरते देखा तो अपनी रानी को मारकर स्वयं को भी उसने छुरा भौंक लिया" [6]

अंतिम शब्द आज इतने बड़े राजा सम्राट कुलिचंद का कोई नाम तक नहीं लेता, जिन्हें मृत्यु तो मंज़ूर थी परन्तु महमूद गजनवी की अधीनता नहीं। जब महमूद ने नवा आक्रमण किया था तब ब्रज भूमि के लिए तलवार उठाने वाले एकमात्र शासक थे चौ॰कुलिचंद हँगा।

लेखक, चौ॰रेयांश सिंह।

महावन के जाट राजा कुलिचंद हागा

महाराजा कुलिचंद भगवान् श्रीकृष्ण के वंशज थे| यह यदु वंश वृष्णि शाखा से सम्बंधित थे| भगवान् श्री कृष्ण से 71 वि पीढ़ी में राजा वसुना हगान हुए थे| जिनके नाम से इनके वंशज हगा कहलाते है| वसुना हगान को ही हगामस नाम से भी जाना जाता है|यह शको के सेनापति थे|इनके पुत्र का नाम शिवदत्त प्राप्त होता है|इनके सिक्के मथुरा और महावन से प्राप्त हुए है| गजनवी ने जब मथुरा पर हमला किया था उसका दरबारी इतिहासकार अलबरूनी भारत आया था| अलबरूनी लिखता है| भगवान् श्री कृष्ण जाट जाति में पैदा हुए थे| आए अलबरूनी लिखता हैं की महावन का राजा कुलिचंद भगवान् कृष्ण का वंशज है| इस आधार पर राजा कुलिचंद एक यदुवंशी हगा जाट थे| राजा कुलिचंद के पिता का नाम राजा फूलचंद था|

ग़ज़नवी ने अपने नवें आक्रमण का निशाना मथुरा को बनाया। उसका आक्रमण 1017 ई॰ में हुआ था| मथुरा दिल्ली राज्य का अंग था| महावन पर हगा (अग्रे ) गोत के जाट राजा चौधरी कुलीचंद का शासन था| यह तोमर राजा जयपाल का रिश्तेदार था | कुलीचंद सम्भवतः तोमरो के अधीन सामंत था| जिस पर महावन की सुरक्षा का दायित्व था| उत्वी लिखता है- " उस समय मथुरा के चारो तरफ पत्थर का विशाल कोट खिंचा हुआ था| जिसमें यमुना की तरफ खुलने वाले दो दरवाजा थे| तोमर राजाओ के इस शहर में सुल्तान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बताकर देवताओं की कृति बताया। शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे| जिनसे लगे हुए देव मंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे| और लोहे की छड़ों द्वारा मज़बूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है। सुल्तान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उसके निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुल्तान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य माणिक्यों से जड़ी हुई थीं। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया।

महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था। उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया। अत्यंत वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब जाट राजा कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे। "फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन किया है-"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। कुलीचंद की मृत्यु के बाद उसके पुत्र बरामल्ल ने किरारो को हराकर बरामई ने अपने राज्य की पुनः स्थापना की थी| इनके वंश में चार भाई हुए जिनके नाम रामसेन,उदयसिंह,अरथसिंह और सुसेन थे |इन भाइयो ने अपने राज्य को चार भागो ने बांट लिया था| राम सेन ने बिसावर पर राज्य किया और उदय सिंह ने नौगावा पर , अरथसिंह ने अरोठा पर , सुसेन ने ऊँचागाँव पर राज्य किया था| यह चार ठिकाने ही इनके चार खेड़े कहलाये है|

-मानवेन्द्र सिंह तंवर

Further Reading(About Raja Kulichand)

  • Mathura, A District Memoires 1883; by Frederick Salmon Growse, p.32
  • Studies in Indo-Muslim History(1979), by Hormasji Hodivala, p.146
  • History of medieval India(1940), Isvari Prasad, p.86

Gallery

References

List of References
  1. 1.0 1.1 1.2 Historian Kanwarpal Singh: Pandav Gatha, Page 207.
  2. 2.0 2.1 Abu Nasr Mohammad Al-Utvi: Tarikh-I-Yamini.
  3. 3.0 3.1 Kanwarpal Singh: Pandav Gatha, Page 208
  4. The history of India : as told by its own historians. Volume II/II. Tarikh Yamini of Utbi,p.43
  5. लेखक, राकेश कुमार आर्य- पुस्तक 'भारत का 1235 वर्षीय स्वतंत्रता संग्राम का इतिहास; भाग 1, अध्याय 41-"मथुरा नरेश कुलचंद का अप्रतिम बलिदान"
  6. किताब महायात्रा गाथा- रैन और चंदा(1996), लेखक रांगेय राघव, पृष्ठ 114.

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