Rajasthan Me Navchetana Ke Chitere Aur Adhunik Churu Ki Chamak

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

राजस्थान में नव चेतना के चितेरे और आधुनिक चूरू की चमक

मानवतावाद के पुरोधा, धर्म के मर्म के ज्ञाता, कर्मयोगी संत, बीकानेर रियासत में आजादी के आंदोलन के प्रणेता, निरंकुश राजसत्ता के ज़ुल्म के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद करने वाले योद्धा, जन जागृति के जनक, भविष्यदृष्टा, महान समाज सुधारक, सर्वहितकारी कार्यों के प्रति समर्पित श्रेष्ठ शख्सियत, अनुपम पर्यावरण प्रेमी और सच्चे गौ भक्त स्वामी गोपालदास मात्र एक इंसान नहीं अपितु इंसानियत की परिष्कृत संस्था थे, एक जीवट विचारधारा थे। शख्श एक पर उनकी शख्शियत के आयाम अनेक। एक शब्द में सब कुछ समेटते हुए कहें तो वे महामानव थे।

विराट, विरल व विलक्षण व्यक्तित्व के धनी स्वामी जी को उत्कर्ष पर पहुंची मानवता का प्रतीक माना जा सकता है। आधुनिक चूरू की नींव की ईंट और शिल्पकार स्वामी गोपालदास को उनकी पुण्यतिथि ( 9 जनवरी ) पर शत- शत नमन ।

युग पुरुष स्वामी गोपालदास का जन्म सन 1882 में चूरू की उत्तर दिशा में स्थित गांव भैरूंसर में हुआ। पिता का नाम श्री बिंजा राम कस्वां और माता का नाम था श्रीमती नोजी देवी। शैशवकाल में पिता की मृत्यु हो जाने के कारण माता के सामने इकलौते बेटे के लालन -पालन का संकट उत्पन्न हो गया। रोजी- रोटी के लिए बेटे को गोद में लेकर दुखियारी माता चूरू आकर मेहनत- मजदूरी करने के लिए मजबूर हुई। चूरू के उत्तराधा बाजार में स्थित छोटे मंदिर के प्रांगण में बच्चे को छोड़कर दुखियारी मां आस -पास के घरों में अनाज की पिसाई का काम कर अपना जीवन- यापन करने को विवश थीं। मंदिर के महंत मुकुंद दास जी ने बालक गोपाल की विलक्षण प्रतिभा व कुशाग्र बुद्धि को भांपते हुए उसे चूरू के ख्यातनाम पंडित कन्हैया लाल ढंड की पाठशाला में दाखिला दिलवा दिया, जहां उन्होंने धर्म, दर्शन और आयुर्वेद का गहन अध्ययन किया। महंत मुकुंद दास जी ने अपने पट शिष्य गोपाल को निंबार्क संप्रदाय में दीक्षित करके अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। सन 1901 में महंत मुकुंद दास जी के स्वर्गवास के बाद स्वामी गोपालदास छोटे मंदिर के महंत की गद्दी पर आसीन हुए।

बाल्यकाल से ही संकटों से त्रस्त बालक गोपाल का अपनी विलक्षण प्रतिभा के बल पर स्वामी गोपालदास के रूप में मात्र 19 वर्ष की आयु में उत्तराधा बाजार, चूरू में स्थित छोटे मंदिर के महंत की गद्दी संभालना और फिर तमाम तरह की बाधाओं के बावजूद जन जागृति का अग्रदूत बनकर हर मोर्चे पर नव चेतना का संचार करते रहना उनके संघर्षशील जीवन की कहानी को पुष्ट करता है।

कर्मयोगी संत:- समाज के समग्र उत्थान के लिए सुसंगठित रूप से जनहित के विभिन्न कार्य संचालित करने हेतु स्वामी गोपालदास ने अपनी 25 साल की उम्र में 1907 ईस्वी में चूरू में सर्वहितकारिणी सभा नामक सार्वजनिक संस्था की स्थापना की। उद्देश्य था शिक्षा का प्रचार- प्रसार, समाज -सुधार, पीड़ितों की सेवा आदि लोक कल्याण के कार्य प्रारंभ करना। सर्व हितकारिणी सभा की शाखाएं फतेहपुर, सुल्ताना, चिड़ावा आदि कस्बों में भी स्थापित की गईं। स्वामी जी की पहल और प्रेरणा से राजगढ़, सरदारशहर, रतनगढ़ आदि कई कस्बों में भी सर्वहितकारी सभा की स्थापना की गई।

वंचितों की शिक्षा के लिए क्रांतिकारी कदम :- भविष्यदृष्टा स्वामी गोपालदास स्त्री शिक्षा के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कहते थे कि जब तक समाज का आधा अंग ( अर्थात नारी ) अशिक्षित और सुप्तावस्था में रहेगा तब तक राष्ट्र की उन्नति नहीं हो सकती। रूढ़िवादी लोगों के विरोध की परवाह नहीं करते हुए स्वामी जी ने सर्वहितकारिणी सभा के अंतर्गत सन 1912 में चूरू में सर्वहितकारिणी पुत्री पाठशाला की स्थापना कर चूरू व आसपास के इलाके में बालिका शिक्षा का मार्ग प्रशस्त किया। पाठशाला में लड़कियों को सिलाई -कढ़ाई का काम भी पढ़ाई के साथ-साथ सिखाया जाता था। रूढ़िवादी लोगों ने रुष्ट होकर स्वामी जी पर पत्थर बरसाए पर धुन के पक्के स्वामी जी अपने कर्तव्य पथ से विचलित नहीं हुए। रिणी ( अब तारानगर ) में भी सावित्री कन्या पाठशाला खोली गई, जिसका संचालन सर्वहितकारिणी सभा, चूरु द्वारा कई वर्षों तक किया जाता रहा।

स्त्री शिक्षा के क्षेत्र में स्वामी जी द्वारा की गई पुख्ता पहल कालांतर में फलदायी साबित हुई। आज़ादी के बाद सरकार द्वारा अधिग्रहण के बाद पुत्री पाठशाला क्रमोन्नत होती रही। लड़कियों के उच्च अध्ययन के महत्त्व को दृष्टिगत रखते हुए सर्वहितकारिणी सभा के प्रयासों से कालांतर में चूरू बालिका महाविद्यालय, चूरू की स्थापना हुई। उल्लेखनीय है कि सर्वहितकारिणी सभा के भवन में ही शुरुआत में चूरू में बालिका कॉलेज प्रारम्भ की गई। बाद में कॉलेज के भवन का निर्माण हो जाने के बाद वहां कॉलेज स्थानांतरित की गई।

देश में गांधी जी के अछूतोद्धार आंदोलन की शुरुआत के कई वर्षों पूर्व मरुभूमि के इस सफेद खद्दरधारी गांधी स्वामी गोपालदास ने चूरू की वाल्मीकि ( दलित शब्द उस समय प्रचलन में नहीं था ) बस्ती में सर्वहितकारिणी कबीर पाठशाला की स्थापना कर शिक्षा के जरिए समाज में अछूत समझे जाने वाले लोगों में जागृति व स्वाभिमान पैदा करने के अग्रदूत बने। वक्त से आगे की सोचने वाले स्वामी जी कहा करते थे कि 'मनुष्य मात्र से घृणा नहीं की जाए और नीची समझी जाने वाली जातियों को ऊपर उठाने की चेष्टा की जाए। इसी से हिंदू धर्म की रक्षा हो सकती है।' स्वामी जी ने चूरू के अलावा भादरा एवं कुछ अन्य कस्बों में भी प्रयास करके दलित समुदाय के बच्चों के लिए ऐसी पाठशालाएं खुलवाई और उन्हें संचालित करने के लिए आर्थिक मदद भी दिलवाई ( इस आशय के पत्र नगर-श्री, चूरू के संग्रह में उपलब्ध हैं। )

स्वामी जी द्वारा चूरू में प्रज्ज्वलित की गई शिक्षा की ज्वाला शिक्षा प्रेमी सहयोगियों व अनुयायियों के प्रयासों से परवान पर चढ़ती गई। कालांतर में सर्वहितकारिणी सभा के भवन में रात्रिकालीन कक्षाओं के नाम से आगे की पढ़ाई का सिलसिला शुरू हुआ।

स्वामी जी द्वारा स्थापित चूरू की ऐतिहासिक संस्था सर्व हितकारिणी सभा द्वारा चूरू में महाविद्यालय की स्थापना का अभियान आरंभ किया गया। चूरू के उदारमना सेठ कन्हैयालाल लोहिया जीवन में शिक्षा की महत्ता को समझ चुके थे। स्वामी जी से प्राप्त प्रेरणा से लोहिया जी ने निर्णय कर लिया कि अपनी मातृभूमि चूरू के लोगों की उच्च शिक्षा के अभाव में प्रगति अवरूद्ध नहीं होने देंगे। नतीज़तन चूरू में महाविद्यालय की स्थापना का सपना अपना स्वरूप लेने लगा। 18 दिसम्बर 1943 का वह दिन चूरू के लिए हमेशा गौरवशाली रहेगा क्योंकि इसी दिन बीकानेर के महाराजा शार्दूल सिंह और सेठ कन्हैयालाल लोहिया जी ने चूरू में लोहिया महाविद्यालय की आधारशिला रखी। यह दुर्भाग्य ही रहा कि चूरू में कॉलेज का सपना देखने वाले और सेठ लोहिया को इस हेतु प्रेरित करने वाले स्वामी गोपालदास जी लोहिया कॉलेज के भवन के शिलान्यास से पहले ही इस दुनिया से प्रस्थान कर गए।

रूढ़िवादी सोच पर सीधा प्रहार करते हुए स्वामी गोपालदास द्वारा पुत्री पाठशाला एवं कबीर पाठशाला स्थापित करना निःसंदेह उस जमाने में बड़ा क्रांतिकारी कदम था। वक्त से आगे सोचने और चलने वाले स्वामी जी ने सर्वप्रथम संपूर्ण बीकानेर राज्य में अनिवार्य शिक्षा की मांग करने का साहस किया ।

स्वामी गोपालदास ने तत्कालीन राजशाही, सामंती एवं औपनिवेशिक सत्ताधीशों के गठजोड़ से उत्पन्न संकटपूर्ण परिस्थितियों का डटकर मुकाबला करते हुए चूरु और आसपास के इलाके में सामाजिक, धार्मिक, शैक्षिक, साहित्यिक, राजनीतिक आदि विभिन्न गतिविधियों का संचालन किया और जनजागृति और समाज के समग्र उत्थान के अगुआ बने ।

पीड़ित मानवता की सेवा: सन 1917 व 1918 में चूरू जनपद अकाल और महामारी की चपेट में रहा। दुर्भिक्ष के दौरान स्वामी जी ने स्थानीय एवं प्रवासी सेठों से संपर्क कर अभावग्रस्त आमजन को अन्न- वस्त्र उपलब्ध करवाए। गांवों में राहत कार्यों के अंतर्गत सार्वजनिक महत्व के निर्माण कार्य प्रारंभ करवाकर लोगों के लिए रोजगार का प्रबंध किया। शीत ज्वर एवं सन्निपात का प्रकोप फैलने पर स्वामी जी ने इक्कीस सेवाभावी कार्यकर्ताओं की एक कमेटी गठित कर वैद्य शांत शर्मा एवं महंत गणपति दास को ऊंट की सवारी से गांवों में रोगियों की चिकित्सा हेतु दवाइयां देकर भेजा। दूरदराज के गांवों में घूम-घूम कर बीस दिनों तक रोगियों की चिकित्सा की गई।

मार्च 1918 में जब चूरू प्लेग की घातक बीमारी की चपेट में आ गया तो प्लेग- ग्रस्त रोगियों को छोड़कर परिवारजन अपने प्राण बचाने हेतु शहर से बाहर पलायन करने लगे। उस संकट की घड़ी में स्वामी जी व सभा के स्वयंसेवक शवों को उठाकर उनका अंतिम संस्कार करते थे। स्थिति बेकाबू होने पर स्वामी जी ने अजमेर सेवा समिति के मंत्री कु.चांद किरण शारदा को तार दे कर वहां से औषधियां मंगवाई तथा कुछ कार्यकताओं भी भी बुलवाया। लगभग सूने शहर में स्वामी जी और उनके कार्यकर्ता सेवा- कार्य में डटे रहे।रोगियों के बीच रहकर उन्हें दवाइयां देते, उन्हें पानी पिलाते, उनकी सेवा करते तथा घरों में पड़े शवों को निकालकर उनका अंतिम संस्कार करते थे। बीमारी के भयावह रूप का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उस समय चूरू की कुल जनसंख्या लगभग तीन हज़ार थी, जिसमें से लगभग आठ सौ लोग इस बीमारी से काल के ग्रास बन गए थे।

मरुभूमि में पानी के संकट से जूझते हुए आमजन को राहत प्रदान करने के उद्देश्य से सर्वहितकारिणी सभा के माध्यम से स्वामी जी ने शहर की बाहरी बस्तियों में एवं गांवों के रास्तों पर तथा चूरू जनपद के अनेक गांवों में सार्वजनिक कुँए, कुंड ,जोहड़ व तालाब खुदवाए। जीर्ण-शीर्ण कुँओं, कुंडों और जलाशयों की मरम्मत करवाई । चूरू के आसपास के गांवों के अलावा दूरदराज के गांव जैसे सरदारशहर के शिमला गांव में एक सौ बीघा गोचर भूमि पर बड़ा पक्का तालाब, एक कुंड व चार मरवों का कुआं और गौशाला का निर्माण चूरू की गौशाला के वास्ते स्वामी गोपालदास जी की आज्ञा से करवाया गया। इस आशय का शिलालेख वहां कुएँ पर अब भी मौजूद है। खंडवा व अन्य गांवों में भी कुँओं व कुण्डों का निर्माण करवा कर स्वामी जी ने ग्रामीणों को जल संकट से निजात दिलवाने का कार्य किया।

धार्मिक सहिष्णुता के पोषक: सर्वहितकारिणी सभा की ओर से स्वामी गोपालदास एवं मास्टर श्रीराम ओझा के सद् प्रयास का ही सुफल था कि पिलानी के सेठ जुगल किशोर बिड़ला ने चूरू स्टेशन रोड पर धर्म स्तूप ( प्रचलन में नाम लाल घण्टा घर ) का निर्माण करवाया। लाल पत्थर से निर्मित इस धर्म स्तूप पर विभिन्न धर्मों के प्रवर्तकों की स्थापित मूर्तियां धार्मिक सहिष्णुता का संदेश दे रही हैं।

पर्यावरण प्रेमी : स्वामी जी की सद्प्रयास से चूरू के सेठ रुकमानंद बागला ने अपनी सुपुत्री इंद्रमणि की पुण्य स्मृति में इंद्रमणि पार्क का निर्माण करवाया। स्वामी जी ने पार्क के निर्माण हेतु सरकार से निर्मूल्य जमीन प्राप्त करने में सफलता हासिल की। वहां स्थित टीलों को समतल करवा कर अपनी देख-रेख में चूरू के इस प्रथम सार्वजनिक पार्क का निर्माण करवाया।

पर्यावरण संरक्षण एवं पशुधन की चराई की समुचित व्यवस्था करने हेतु स्वामी जी ने सेठों से संपर्क कर चूरू के आसपास लगभग 5100 बीघा की गोचर भूमि ( बीड़ ) छुड़वाने का अनूठा कार्य कर दिखाया। स्वामी जी के नेतृत्व में सर्वहितकारिणी सभा चूरू की ओर से सन 1912 में महाराजा बीकानेर को एक प्रार्थना पत्र सौंप कर गोचर भूमि ( बीड़ ) अर्थात पशुओं को चरने के लिए आरक्षित भूमि छोड़ने की मांग की गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि स्वामी जी मरुस्थल में हरियाली व पर्यावरण सरंक्षण के महत्व को बख़ूबी समझते थे। पर्यावरण और पशुधन के संरक्षण हेतु शहरों और गांवों के आसपास गोचर भूमि ( बीड़ ) आरक्षित करवाने के स्वामी जी के इस अभिनव अभियान की सर्वत्र सराहना की गई। इसी का प्रतिफल यह हुआ कि वन -रक्षण के लिए सर्वप्रथम जंगलों का बिल, रियासत बीकानेर, सन 1927 ईस्वी पास किया गया और पूरी रियासत में लागू हुआ।

स्वामी जी के गोचर भूमि अभियान से प्रभावित होकर रामगढ़ के सेठ रामचंद्र पोद्यार ने भी कई स्थानों पर गोचर भूमि छुड़वाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया परन्तु जनवरी 1932 में स्वामी जी की गिरफ्तारी के साथ ही गोचर भूमि छुड़वाने के उनके अभियान को विराम लग गया। पेड़ों के प्रति अगाध प्रेम: चूरू में मंडी चौराहे से रेलवे स्टेशन तक के मार्ग के दोनों तरफ स्वामी जी स्वयं ने नीम व पीपल के अनेक छायादार पेड़ लगाए। अपने कंधों पर पानी से भरे घड़े ढोकर वे इन पेड़ों को पानी देते थे तथा उनकी समुचित सुरक्षा करते थे। जब कभी वे लंबी अवधि तक चूरू से बाहर होते तब अपने निकटस्थ मित्रों को पत्र लिखकर पेड़ों की 'ख्यान्त' अर्थात पूरा ध्यान रखने की ताक़ीद बार-बार करते। ( नगर-श्री , चूरू में इस आशय के पत्र उपलब्ध हैं। ) स्वामी जी के ख़ुद के लगाए हुए बहुत से पेड़ तथाकथित सड़कों को चौड़ा करने के नाम पर समय-समय पर काटे जा चुके हैं। पर कुछ विशाल वृक्ष अपने पालक स्वामी जी की के अथक परिश्रम को याद दिलाते हुए अब भी सीना ताने खड़े हैं।

गो-पालक स्वामी जी 'यथा नाम तथा गुण' की उक्ति को सार्थक करते हुए एक सच्चे व समर्पित गो-भक्त/ गो-पालक थे। स्वामी जी ने अपने नाम को सार्थक करते हुए गो-पालक के रूप में चूरू पिंजरापोल ( गोशाला ) के सुचारु संचालन में उल्लेखनीय योगदान दिया। सेठ शिवबक्श राय बागला द्वारा संवत 1945 में स्थापित पिंजरापोल के संचालन में कालांतर में अव्यवस्था पनपने लगी तब स्वामी जी को गोशाला का प्रबंध सौंपा गया। जुलाई 1929 में पदाधिकारियों के हुए चुनाव में स्वामी गोपाल दास को पूर्ण स्वत्वाधिकारी बनाया गया। गौशाला के महत्व के प्रति आमजन का ध्यान आकृष्ट करने के लिए स्वामी जी ने गोपाष्टमी के अवसर पर मेले का आयोजन किए जाने की परंपरा प्रारंभ की जो कि अभी भी प्रतिवर्ष आयोजित हो रही है।

चूरू की पहली निडर व आज़ाद आवाज़:- स्वामी जी ने सर्वहितकारिणी सभा के लिए चूरू में गढ़ के सामने जमीन खरीद कर स्थापत्य की दृष्टि से सभा के सुंदर भवन का निर्माण करवाया। स्वामी जी ने भवन को सात मंजिला स्वरूप देकर राजसत्ता को यह संदेश दे दिया लोकसत्ता/ जनसत्ता का कद राजसत्ता के कद से ऊंचा होता है। एक शताब्दी से ज्यादा पुराना होने के बावजूद सर्वहितकारिणी सभा का यह भवन अपना पुख्तापन और रौनक अभी तक बरकरार रखे हुए है। स्वामी जी ने सर्वहितकारिणी सभा भवन में लाला लाजपत राय, बाल गंगाधर तिलक एवं विपिन चंद्र पाल के चित्र सजा करके रखते थे। यह उनकी स्वतंत्रता सेनानियों के प्रति अगाध श्रद्धा का द्योतक है। ब्रिटिश शासन की दृष्टि में लाल-बाल-पाल तीनों सरकार से सजा प्राप्त अपराधी थे। स्वामी जी के विरुद्ध इस बात की शिकायत बीकानेर रियासत को यहां खुफियागिरी करने वाले लोग पहुंचाते रहते थे।

आज़ादी के आंदोलन के अग्रदूत:- स्वामी गोपालदास की बीकानेर रियासत में आजादी के आंदोलन में आधार स्तंभ के रूप में भूमिका रही है। सन 1931 में लंदन में आयोजित गोलमेज सम्मेलन में बीकानेर रियासत में तत्समय हो रहे उत्पीड़न, दमन व शोषण से संबंधित जो पंपलेट बांटा गया था उसका मज़मून स्वामी जी एवं उनके साथी श्री खूबराम सर्राफ़ तथा श्री सत्यनारायण सर्राफ़ ने तैयार किया था। इस पम्पलेट को गोलमेज़ सम्मेलन में बांटने की व्यवस्था आज़ादी के राष्ट्रीय स्तर के आंदोलन के सबल नेता ने कर दी। महाराजा गंगासिंह इस पम्पलेट को पढ़कर विचलित हो गए और बहाना बनाकर सम्मेलन छोड़कर चले आए।

11 जनवरी 1932 को चूरू के उत्तराधा बाज़ार में आयोजित सार्वजनिक सभा में स्वामी जी ने बीकानेर रियासत में गेहूं लाने पर लगाई गई जकात का अपने भाषण में तीव्र विरोध किया। राजसत्ता की पहले से ही आंखों की किरकिरी बने हुए स्वामी जी के जकात के विरोध को राजसत्ता ने राजद्रोह की संज्ञा देखकर स्वामी जी एवं उनके साथियों पर बीकानेर राजद्रोह और षड्यंत्र केस दायर किया। न्याय के नाम पर हो रहे ढोंग से क्षुब्ध होकर स्वामी जी ने अपने मुकदमे की पैरवी नहीं की और उन्हें 4 वर्ष की कठोर कारावास की सजा सुना दी गई।

जेल से रिहाई के बाद कुछ दिन चूरू में ठहरकर स्वामीजी कलकत्ता गए, जहां उनका भव्य अभिनंदन किया गया। हिंदी समाचार पत्र 'लोकमान्य' ने अपने 15 अगस्त 1932 के अंक में कलकत्ता निवासियों से स्वामी जी का पुरजोर स्वागत करने की अपील प्रकाशित की ,जिसका अंग्रेजी अनुवाद राजस्थान अभिलेखागार, बीकानेर की फाइल 12 -1935 Cuttings relating to Swami Gopala Das में पढ़ने को मिलता है :-

Swami Gopal Das ji , the well-known heroic worker and sadhu of Churu ( Bikaner ), has arrived in our city these days and is putting up at the Surana Bhavan. He has got inherently a vow of public service and did not budge off his way after undergoing hardships of jail for a pretty long period of three and half years. We accord him a hearty welcome in our city.

स्वामी जी कलकत्ता से चूरू लौटकर आए और सर्वहितकारी कार्यों का फिर व्यवस्थित संचालन फिर शुरू कर दिया परंतु खुफियागिरी में लिप्त कुछ तत्व उनकी हर गतिविधि की रिपोर्ट शिकायत के रूप में बीकानेर राज सत्ता के पास भेजते थे। दमनकारी राज सत्ता के भय से लोग स्वामी जी के पास मंदिर में आने से भयभीत रहते थे। ऐसी स्थिति में स्वामी जी ने व्यथित होकर चूरू छोड़कर स्वर्गाश्रम की ओर प्रस्थान कर दिया तथा अधिकतर लक्ष्मण झूला या फूल चट्टी में रहने लगे।

नव चेतना के सृजक, महिला व दलित शिक्षा के उत्प्रेरक, आज़ादी की अलख जगाने वाले त्यागी, तपस्वी ,कर्मनिष्ठ ,संत पुरुष स्वामी गोपालदास लक्ष्मण झूला में फूल चिट्टी( उत्तरप्रदेश) में गंगा तट पर 9 जनवरी 1939 को 57 वर्ष की आयु में काल कवलित हो गए ।

स्वामी जी के जन कल्याण के कार्यों की प्रशंसा में अनेक टिप्पणियां राष्ट्रीय स्तर के समाचार- पत्रों में प्रकाशित होती रहती थीं। दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी पत्र प्रिंसली इण्डिया ने 8 जून 1932 के अंक में स्वामी जी के बारे में यह उद् गार प्रकट किए: ' Swami Gopaladas ji Maharaj is a saintly personality. The soul of social, religious and public life of Churu. He started new activities of public welfare and well- being in Churu. His life was devoted entirely to the service and well-being of the people. He firmly advocated the removal of illiteracy from the Bikaner state.'

प्रबुद्धजनों ने स्वामी गोपालदास को नव चेतना के जनक, संकल्प के धनी, संकल्प सिद्ध मनीषी, मानवीय सेवा के जन -प्रतीक, समस्त शक्तियों का समर्पण राष्ट्र सेवा में, प्रभावशाली व्यक्तित्व, निस्पृह वृत्ति, भविष्यदृष्टा ,जीवन-मुक्त व्यक्ति के रूप में चित्रित किया है। ( राजस्थान में स्वतंत्रता सेनानी, 1973 . लेखक: सुमनेश जोशी, पृष्ठ 104 -110)

' राजस्थानस्य गांधी गोभक्त जनसेवक :स्वामी गोपालदास' शीर्षक से स्वामी गोपालदास का सचित्र परिचय हजारीबाग के प्रोफेसर बद्रीदत्त शास्त्री ने अपने संस्कृत ग्रंथ नवभारत निर्मातार: ( 1971) में किया है। 'स्वामी गोपालदास जी एक आदर्श कर्तव्यपरायण जनसेवक थे।' (श्री ईश्वरदास जालान, कानून मंत्री बंगाल शासन ) 'राजस्थान में जिन लोगों ने सिर पर कफन बांध कर लड़ाई लड़ी उनमें स्वामी गोपालदास निराली छटा रखते थे।' ( 'स्वामी गोपालदास: नीवं की ईंट' शीर्षक से आकाशवाणी पर 11 फरवरी 1985 को आयोजित वार्ता में प्रसिद्ध क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त का कथन।

दुःखद बात है कि सियासत-प्रधान इस ज़माने में जिक्र स्वामी गोपालदास जैसे कर्मयोगियों , समाज-सुधारकों, अंधेरे से उजाले की तरफ़ ले जाने वाले प्रबुद्धजनों का नहीं किया जाता बल्कि जयकारे उनके लगाए जाते हैं जो धर्म का चोगा धारण कर समाज में संकीर्णता परोसने के काम को अंजाम दे रहे हैं। सच तो यह है कि सत्ता/ बल की गूंज सीमित दायरे में सीमित समय तक गूंजती है जबकि कर्म की गूंज स्थान और समय की सीमाओं से परे भी गूंजती है।

स्रोत:

1. स्थानीय इतिहासकार श्री गोविंद अग्रवाल एवं उनके भ्राता श्री सुबोध अग्रवाल द्वारा संकलित एवं संपादित 'चूरू मंडल का शोधपूर्ण इतिहास', उनकी पुस्तकें 'पत्रों के प्रकाश में स्वामी गोपालदास' एवं 'युगपुरुष स्वामी गोपालदास'।

2. नगर -श्री, चूरु के अभिलेखागार में सहेज कर रखे गए स्वामी गोपालदास जी के पत्र एवं उनकी जीवनी से संबंधित सामग्री।

3. इतिहासकार डॉ पेमाराम की पुस्तक 'राजस्थान का इतिहास' में स्वामी गोपालदास के योगदान से संबंधित सामग्री।

4. अन्य प्रामाणिक स्रोत जिनका उल्लेख आलेख में यथास्थान किया गया है।

5. प्रोफेसर हनुमानाराम ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, द्वारा अनुसंधान कर हिन्दी में यह लेख तैयार कर प्रस्तुत किया गया है।


Back to The Reformers/Freedom fighters from Churu district