Rangad

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Rangad (राङ्गड़) Rangar (राङ्गड़) Rangar (रांगड़)/(रांगर)[1] Ranghad (रांघड़)[2] gotra Jats live in Uttar Pradesh. [3]

Origin

They originated from place name Range (राङ्गे) or Raise (रायसे). [4]

History

रांगर

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज (पृ.519-522) के अनुसार इस खानदान का निकास बीकानेर (राजपूताना) से है और ये लोग गुरुदासपुर के उपजाऊ जिले में बस गये, जहां कि इन्होंने बटाला के निकट रांगल नांगल नाम का गांव बसा लिया। रांगर उस गोत का नाम है जिसमें से कि राजा जगत ने इस वंश की नींव डाली थी। नांगल संस्कृत के मंगल शब्द का अपभ्रंश है जिससे यह प्रकट होता है कि ये लोग घूमते-घामते ऐसे अच्छे स्थान पर बस गए, जहां कि इन्हें सन्तोष मिला।

बहुत बरसों के बाद रनदेव का बेटा नत्था सिख-धर्म में दीक्षित हो गया और कन्हैया मिसल में जैसिंह की कमान में सम्मिलित होकर रांगर नांगल के इर्द-गिर्द के समस्त प्रदेश पर अपना अधिकार कर लिया और एक किला बना लिया। उनके


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-519


बाद उनका बेटा करमसिंह उत्तराधिकारी हुआ और इन्होंने भी इस वंश की खूब उन्नति की। इन्होंने रांगर नांगल के किले को फिर से बनवाया और मजबूत किया और ये अमृतसर में रहने लग गए जहां कि इन्होंने एक कटरा बसाया जिसे कटरा करमसिंह अथवा कटरा रांगर नांगल कहते हैं। जब रणजीतसिंह शक्ति-सम्पन्न हो गए और उन्होंने लाहौर तथा अमृतसर पर अपना अधिकार कर लिया तो करमसिंह ने उनकी आधीनता स्वीकार कर ली और सदैव को महाराज के आज्ञाकारी सेवक बने रहे। हां, केवल एक मौके पर ही इन्होंने महाराज से झगड़ा किया। यह घटना इस प्रकार है कि करमसिंह महाराज रणजीतसिंह की फौज के कप्तान थे और चूंकि उस प्राचीन समय में सरदार के पास अधिक रुपया खर्च के लिए नहीं था, अतः फौजों की तनुख्वाह बाकी रह गई। इस पर करमसिंह ने फौज का पक्ष लिया और महाराज रणजीतसिंह से वेतन चुकाने के लिए कहा। महाराज ने यह खयाल करके कि कहीं बगावत न हो जाए, रानी महताव कौर के जेवर बेच कर फौज का वेतन चुका दिया। किन्तु बाद में महाराज ने करमसिंह को इस प्रकार फौज का पक्ष लेने के कारण दण्डित किया। उसके घर अमृतसर को लूट लिया और बरबाद कर दिया। किन्तु पीछे राजीनामा हो गया और करमसिंह महाराज के साथ अधिकतर युद्धों में साथ जाते रहे। पेशावर के धावा में उन्होंने बड़ी बहादुरी दिखाई जहां पर कि वे बहुत ही जख्मी हो गए थे और अपनी इस सेवा के उपलक्ष में जालन्धर-दोआब में इन्होंने एक नई जागीर प्राप्त कर ली। एक मौके पर उनके अधिकार में कई लाख रुपये की रियासत थी जो कि अधिकतर गुरुदासपुर जिले में ही अवस्थित थी। इनके बाद इनका पुत्र जमीयतसिंह अधिकारी हुआ जो कि अरसे से फौज में था और महाराज उसे उसकी वीरता के कारण प्रिय मानते थे। इनके छोटे भाई वजीरसिंह को सन् 1821 में भीमबार में एक जागीर मिली। सन् 1820 में दरबन्द-युद्ध के समय जमीयतसिंह तथा उनका भतीजा रामसिंह दोनों ही हजारा की लड़ाई में मारे गए और उनकी मृत्यु के बाद जागीरें आधी से भी कम कर दी गईं।

अर्जुनसिंह अभी तक एक बलवान सरदार बना हुआ था और जब तक रणजीतसिंह और नौनिहालसिंह जीवित रहे वह इसी प्रकार अपनी शक्ति स्थिर रख सका। फिर शेरसिंह के शासन ग्रहण करते ही उसकी जागीर पुनः कम कर दी गई और उसके लिए केवल 28000) रु० ही शेष रह गए जिनमें से 15000) तो उनको व्यक्तिगत रूप से मिलते थे और 13000) रु० तीस सवार राज्य की सेना में रखने पर ही दिए जाने की शर्त थी। अर्जुनसिंह की मां, खडगसिंह की विधवा तथा नौनिहालसिंह की माता रानी चांदकौर की चाची थीं और यही रिश्तेदारी महाराज शेरसिंह की रंजिश का कारण हुई। सतलज के धावे से पूर्व सन् 1845 में राजा लालसिंह ने अर्जुनसिंह को चार रेजीमेण्टों का कमाण्डर बना


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-520


दिया था जिनमें से एक रेजीमेण्ट पैदल सेना की थी और एक घुड़सवारों की और इस फौज के साथ ही इन्होंने सोवरांव युद्ध में भाग लिया था। सन् 1846 में इन्होंने काश्मीर-युद्ध में भाग लिया और अगस्त 1847 में ये राजा शेरसिंह अटारी वाला के साथ मुल्तान गए और उनके साथ बगावत में शरीक हो गए। उनके कुटुम्बियों ने जब यह सुना तो वे भी उनका साथ देने आगे बढ़े और दरबार-फौज की दो कम्पनियों को हरा कर जो कि उनकी रियासत पर हमला करने भेजी गईं थीं, रांगर नांगल के किले की रक्षा करने में सफल हुए। किन्तु 15 अक्टूबर को ब्रिगेडियर ह्वीलर ने इस पर चढ़ाई करके जीत लिया। लड़ाई के बाद सन्धि होने पर अर्जुनसिंह की तमाम जायदाद जब्त कर ली गई और रांगर नांगल की जागीर सरदार मंगलसिंह रामगढ़िया को दे दी गई, क्योंकि उन्होंने हरीसिंह को जीतने में पूरी सहायता दी थी जो कि लड़ाई के समय बटाला के इर्द-गिर्द हल्ला-गुल्ला मचाता रहा था।

अर्जुनसिंह को 1500) रु० की पेंशन दी गई किन्तु यह वैयक्तिक थी अतः सन् 1859 में इनकी मृत्यु हो जाने के बाद पेंशन बन्द कर दी गई। सरदार बलवन्तसिंह के द्वितीय भतीजे नाभा के राजा भगवानसिंह के सिफारिश करने पर अंग्रेज सरकार ने अर्जुनसिंह की दोनों विधवा रानियों को हर एक को 120) रु० सालाना की पेंशन देना मंजूर किया। नाभा से कुछ सहायता इस वंश को मिली थी।

अर्जुनसिंह ने दो बेटे अपने पीछे छोड़े थे जिनमें ज्येष्ठ पुत्र बलवन्तसिंह प्रान्तीय दरबारी और रांगर नांगल का जेलदार था। यह और इसका भाई सम्मिलित रूप से अमृतसर और गुरुदासपुर जिलों में लगभग 1500 एकड़ भूमि के मालिक थे। नाभा के राजा भरपूरसिंह ने इनको रोही और बूरा कलां मौजों के जागीरी स्वत्व दिए। किन्तु वर्तमान राजा ने इनको ले लिया और रोही की आमद केवल अतरसिंह के अधिकार में रहने दी। अतर का देहान्त सन् 1903 में हो गया और ये दो पोते छोड़ मरे जो अब भी नाबालिगी की सूरत में नाभा में रह रहे हैं। सरदार बलवन्तसिंह फरवरी 1908 में मृत्यु को प्राप्त हो गए और दो नाबालिग पुत्र छोड़ गए। अतः जागीर का प्रबन्ध कोर्ट आफ वार्ड्स के अधीन हो गया। इस वंश को अंग्रेज सरकार की ओर से कोई जागीर या भत्ता नहीं दिया गया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-521


रनदेव का वंश-वृक्ष

सर लेपिल ग्रिफिन के अनुसार इस कुटुम्ब का वंश वृक्ष इस प्रकार है -

रनदेव के पुत्र नत्थासिंह। नत्थासिंह के तीन पुत्र हुए - 1. कामसिंह 2. धरमसिंह 3. चरतसिंह।

करमसिंह के दो पुत्र हुए - जमीयतसिंह और वजीरसिंह। जमीयतसिंह के एक पुत्र और एक पुत्री हुई (जिसकी शादी नाभा के राजा देवेन्द्रसिंह से हो गई) । पुत्र का नाम सरदार अर्जुनसिंह था जिसके दो पुत्र हुए (सरदार बलवन्तसिंह और अतरसिंह)।

सरदार बलवन्तसिंह के दो पुत्र हरीसिंह और नारायणसिंह हुए।

अतरसिंह का पुत्र प्रतापसिंह हुआ और उसके दो पुत्र गुरुदत्तसिंह और गुरुबचनसिंह हुए।

धरमसिंह के दो पुत्र हुए - रामसिंह और सारदूलसिंह। चरतसिंह के एक पुत्र दालसिंह हुआ।

रामसिंह का एक पुत्र सावनसिंह। सारदूलसिंह के दो पुत्र - भूतासिंह और शेरसिंह। शेरसिंह का पुत्र सन्तसिंह और सन्तसिंह का पुत्र दलीपसिंह।

Distribution in Uttar Pradesh

Distribution in Punjab

Rangar Nangal

Notable persons

External links

References


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