Secular Traits in Jat Community

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जाट ज्योति पत्रिका (नवम्बर 2016) में छपा हुआ लेख
जाट ही तो है धर्मनिरपेक्षता का सही स्वरूप
लेखक - ओमप्रकाश 'पत्रकार', रोहतक - मो. 9255001594

जाट जाति के अनोखे गुण

महर्षि स्वामी दयानन्द सरस्वती ने अपने महान् ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश में लिखा है - "यदि जाट जी जैसे पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।" वे सत्यार्थ प्रकाश के एकादश समुल्लास में जाट का उदाहरण देकर आगे लिखते हैं -

एक जाट था । उसके घर में एक गाय बहुत अच्छी और बीस सेर दूध देने वाली थी । दूध उसका बड़ा स्वादिष्ट होता था । कभी-कभी पोपजी के मुख में भी पड़ता था । उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढ़ा बाप मरने लगेगा तब इसी गाय का संकल्प करा लूंगा । कुछ दिन में दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया । जीभ बन्द हो गई और खाट से भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा । उस समय जाट के इष्ट-मित्र और सम्बन्धी भी उपस्थित हुए थे । तब पोपजी ने पुकारा कि "यजमान ! अब तू इसके हाथ से गोदान करा ।" जाट १० रुपया निकाल कर पिता के हाथ में रखकर बोला - "पढ़ो संकल्प !" पोपजी बोला - "वाह-वाह ! क्या बाप बारम्बार मरता है ? इस समय तो साक्षात् गाय को लाओ, जो दूध देती हो, बुड्ढी न हो, सब प्रकार उत्तम हो । ऐसी गौ का दान करना चाहिये ।"
जाटजी बोला - हमारे पास तो एक ही गाय है, उसके बिना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह न हो सकेगा इसलिए उसको न दूंगा । लो! २० रुपये का संकल्प पढ़ देओ ! और इन रुपयों से दूसरी दुधार गाय ले लेना ।

पोपजी - वाहजी वाह ! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो ? क्या अपने बाप को वैतरणी नदी में डुबाकर दु:ख देना चाहते हो ? तुम अच्छे सुपुत्र हुए ! तब तो पोपजी की ओर सब कुटुम्बी हो गये, क्योंकि उन सबको पहले ही पोपजी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया । सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान पोपजी को दिला दिया । उस समय जाट कुछ भी न बोला । उसका पिता मर गया और पोपजी बच्छा सहित गाय और दोहने की बटलोही को ले अपने घर गया, बछड़े को बांधकर और बाल्टी धरकर पुन: जाट के घर आया और मृतक के साथ श्मशानभूमि में जाकर दाहकर्म्म कराया । वहाँ भी उसने कुछ-कुछ पोपलीला चलाई । पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी जाट को मूंडा । महाब्राह्मणों ने भी उसे लूटा और भुक्खड़ों ने भी बहुत सा माल पेट में भरा अर्थात् जब सब क्रिया हो चुकी तब जाट ने जिस किसी के घर से दूध मांग-मूंग कर निर्वाह किया । चौदहवें दिन प्रात:-काल पोपजी के घर पहुँचा । देखा तो पोप गाय दुह, बाल्टी भर, पोपजी की उठने की तैयारी थी । इतने में ही जाटजी पहुँचे । उसको देख पोपजी बोला, आइये ! यजमान बैठिये !

जाटजी - तुम भी पुरोहित जी इधर आओ ।
पोपजी- अच्छा, दूध धर आऊँ ।
जाटजी - नहीं-नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ ।
पोपजी बेचारे जा बैठे और बाल्टी सामने धर दी ।
जाटजी - तुम बड़े झूठे हो ।
पोपजी - क्या झूठ किया ?
जाटजी - कहो, तुमने गाय किसलिए ली थी ?
पोपजी - तुम्हारे पिता के वैतरणी नदी तरने के लिए ।
जाटजी - अच्छा तो तुमने वहाँ वैतरणी के किनारे पर गाय क्यों न पहुँचाई ? हम तो तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम इसे अपने घर बाँध बैठे । न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे ?
पोपजी - नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बनकर उसको उतार दिया होगा ।
जाटजी - वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है ?
पोपजी - अनुमान से कोई तीस करोड़ कोश दूर है । क्योंकि उञ्चास कोटि योजन पृथ्वी है और दक्षिण नैऋत दिशा में वैतरणी नदी है ।
जाटजी - इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो, उसका उत्तर आया हो कि वहाँ पुण्य की गाय बन गई, अमुक के पिता को पार उतार दिया, यह दिखलाओ ?
पोपजी - हमारे पास 'गरुड़पुराण' के लेख के बिना डाक वा तारवर्की दूसरा कोई नहीं ।
जाटजी - इस गरुड़पुराण को हम सच्चा कैसे मानें ?
पोपजी - जैसे हम सब मानते हैं ।
जाटजी - यह पुस्तक तुम्हारे पुरषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिए बनायी है । क्योंकि पिता को बिना अपने पुत्रों के कोई प्रिय नहीं । जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी नदी के किनारे गाय पहुंचा दूंगा और उनको पार उतार, पुन: गाय को घर में ले आ दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पिया करेंगे, लाओ !
दूध की भरी हुई बाल्टी, गाय, बछड़ा लेकर जाटजी अपने घर को चला ।
पोपजी - तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायेगा ।
जाटजी - चुप रहो ! नहीं तो तेरह दिन लों दूध के बिना जितना दु:ख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा ।
तब पोपजी चुप रहे और जाटजी गाय-बछड़ा ले अपने घर पहुँचे । जब ऐसे ही जाटजी के से पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले ।

जाट की आकृति-प्रकृति एवं स्वभाव

ऋषि दयानन्द ने उदाहरण देकर जाट की आकृति-प्रकृति एवं स्वभाव का वर्णन कर उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। स्वामी दयानन्द के अनुसार जाट के स्वभाव में शर्मीलापन है। उसने अपने कुटुम्बियों और परिवारजनों की लिहाज से पोप को गोदान कर दिया परन्तु जब गोदान के पीछे सच्चाई न पा कर केवल ठगी ही पाई गई तो जाट ने कठोरता से ठगी का भण्डा-फोड़ कर दिया तथा गाय वापिस ले आया और पोप के मिथ्या विलाप पर उसे धमका कर कह दिया कि अधिक बोला तो तुम्हारी इस ठगी के पीछे तेरह दिन तक हम जो दुःखी हुए हैं उसकी सारी कसर निकाल दूंगा। ऋषि दयानन्द ने यह भी दर्शाया है कि पोपों के गरुड़पुराण को जाट सच्चा न मान कर केवल उनकी आजीविका के साधन भर मानता है। ऋषि दयानन्द ने अपने भाषणों और आलेखों में कहा भी है कि केवल जाट ही विशुद्ध आर्य क्षत्रिय है, जमाने की गर्दिश भी उन्हें अनार्य नहीं बना सकी क्योंकि जाटों ने कभी किसी ढोंग, पाखंड एवं मत-मतान्तर को नहीं माना। जाट ईश्वर की सीधी उपासना में विश्वास रखता है। जाट का मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा और गिरजा, उसके खेत और खलिहान हैं, उसका परिश्रम, उसका शुभ कर्म, उसकी नेक कमाई ही उसका मजहब है, धर्म है, ईमान है। जाट भूखा होकर भी किसी से नहीं मांगता क्योंकि जाट याची या मंगता नहीं, वह तो दाता है, उसकी नेक कमाई में सब का साझा है, वह प्रायः बांटकर खाता है। जाट के प्रत्येक कार्य में सादगी और सच्चाई का भाव पाया जाता है। उसका प्रत्येक कार्य भय, शंका और लज्जा रहित होता है। जाट प्रायः जंगल में रहता है, उसे किसी जंगली जानवर, भूत-प्रेत एवं दैवी आपदाओं का भय नहीं होता है। वह निर्भय, बेखौफ अपने कार्य में तल्लीन रहता है। जाट का रूप शेर का रूप है। जिस प्रकार शेर जंगल में होता है, उसके जंगल में रहते कोई जंगल को नहीं काट सकता, उसी प्रकार जाट खेत में रहता है और उसके रहते कोई उसका खेत नहीं काट सकता। जिस प्रकार शेर अपनी जान पर खेल कर जंगल की रक्षा करता है तथा शेर को मारकर ही जंगल को काटा जा सकता है, उसी प्रकार जाट अपने खेत और देश की रक्षा करता है और वह मोर्चे में अपनी अंतिम सांस तक लड़ता है, उसके देश को कोई उसकी मौत के बाद ही फतह कर सकता है। जिस प्रकार शेर भूखा होकर भी घास नहीं खायेगा, उसी प्रकार जाट भूखा होकर भी भीख नहीं मांगेगा। जिस प्रकार शेर दरिया में पानी के बहाव को चीरकर नदी को सीधा पार करता है, उसी प्रकार जाट अपने दुःखों के समुद्र को, अपने स्वाभिमान के साथ, बिना किसी की सहायता के पार करता है। कवि का शेर और जाट के प्रति कथन है - सैले हवादिस भी मोड़ सकते नहीं मर्दों के मुंह, शेर सीधा तैरता है वक्ते रफतन आब में। जाट किसी को नहीं ठगता, वह अपने भोले स्वभाव के कारण स्वयं ठगाई में आता है। जाट न किसी को डराता है न किसी से डरता है। जाट के स्वभाव, हाव-भाव और बोल-चाल में सच्चाई की गर्मी है, यथार्थ की तपिश है, उसकी आक्रोशपूर्ण भाषा उसकी भीतरी स्वच्छता का दर्पण है, वह निर्मल और पवित्र मन से सोचता है और बेधड़क होकर बोलता है, उसकी कड़वाहट में सत्यता की मिठास है, उसकी वाणी के प्रत्येक स्वर में निःसंशय का आभास है अतः वह निःसंकोच है, निःसीम और निःस्वार्थ है, वह निःस्पंद है, वह अपने कार्यकलापों में निष्कलंक है, उसका शुभकर्म ईश्वर की निगाह में निरपवाद है, उसका हर बोल निरमोल है, समाज के प्रति उसकी सोच निरलेप है, जाट का प्रत्येक आचरण निर्विरोध, निर्विवाद, निर्विकार और निशंक है। वह अपने कार्यों में सदा निश्चिंत , निश्चेष्ट, निष्कपट और निष्काम भाव से उदित रहता है, उसके शुभ कर्म की प्रत्येक भूमिका निर्विवाद और निर्णायक है। जाट, जाट के घर में जन्म लेकर शर्मिन्दा नहीं, गर्वीला है। उसे गौरवपूर्ण जीवन जीने की आदत है और गौरवपूर्ण मर्यादा पर मर-मिटने में आनन्द आता है। जाट कभी रंडवा नहीं रहता और जाट की बहू कभी विधवा नहीं होती। जाट का पुनर्विवाह में विश्वास है। जाट कभी छूआछूत को नहीं मानता और न किसी से घृणा करता है।

जाट की धर्मनिरपेक्षता का यह आलम है कि वह जाति तोड़ एवं अन्तर्जातीय विवाह करता है। वह अपनी उदारभावना के कारण नियोग में भी विश्वास रखता है और नियोग द्वारा संतान उत्पत्ति में भी परहेज नहीं करता। जाट मूर्तिपूजक नहीं है। उसका परमात्मा से सीधा नाता है। वह ज्योतिष, ढोंग, पाखंड व देवी-देवताओं में विश्वास नहीं रखता। जाट न किसी की चापलूसी करता है और न किसी की निंदा करता है। जिसको कुछ कहना है, साफ-साफ स्पष्ट, बेधड़क, बेखौफ और बेखटके कह देता है। जाट किसी की मिथ्या बड़ाई भी नहीं करता और न आलोचना करता। अंग्रेजी के महान् कवि शेक्सपीयर ने अपने नावल मर्चेन्ट आफ वीनस में कहा है कि जितना बड़ा कोई बहादुर होगा वह उतना ही रहमदिल होगा और जितना बड़ा कायर होगा वह उतना ही बड़ा बेरहम होगा। अतः जाट अपनी बहादुरी के कारण दयावान है। शरणागत की रक्षा और आगंतुक का स्वागत, जाट की महान् परम्परा है। जाट का जीवन किसी के आश्रय पर टिका हुआ नहीं है, वह अपने आत्मविश्वास और बाहुबल पर जिन्दा है। जाट का पंचायती परम्परा में अटूट विश्वास एवं श्रद्धा है। कहावत है कि जाट से अकेले में लड़ियो मत और जाट की पंचायत से डरियो मत। जाट न्यायप्रिय है और जाट की पंचायत न्याय की प्रतीक है। लोकोक्ति अनुसार जाट कहता शर्माता है लेकिन न्यायिक प्रक्रिया के लिये लड़ता हुआ नहीं शर्माता। जाट सच्चा आर्य और वैदिक धर्मी है। जाट बात का धनी और अपनी मर्यादा का पालन करता है। जाट पशुपालक है तथा प्रचुर मात्रा में दूध घी खाता है। जाट अपने स्वास्थ्य के प्रति सदा सजग और चौकस रहता है। जाट निर्बल न्यायी की सहायता करता है और सबल अन्यायी के विरुद्ध लोहा लेता है। जाट प्रायः दूसरों की आग में जलने का शौकीन है। देश रक्षार्थ जाट चाव के साथ सेना में भर्ती होता है। जाट मरने मारने और लड़ने में विश्वास रखता है। किसी समय सिखों के नेता रहे संत फतह सिंह से संवाददाताओं ने पूछा - "सन्त जी, पाकिस्तान बनने से पहले आप मुसलमानों से लड़ते थे, फिर हिन्दुओं से लड़ते रहे और अब आप आपस में ही लड़ने लग गये?" संत जी ने उत्तर दिया, "असीं बहादुर हैं, साडा काम है लड़ना, साडे नाल कोई होर नहीं लड़ेगा तो असीं खुद लड़ेंगे। अतः लड़ाई जाट के चरित्र का एक हिस्सा है। जाटों से जब कोई पूछता है कि सब जातियों में आपसी समन्वय एवं एकता हो जाती है परन्तु जाटों में कभी एकता क्यों नहीं होती? इस पर उनका उत्तर होता है कि एकता भेड़-बकरियों में होती है, शेरों में कभी एकता नहीं होती और वे हजारों भेड़-बकरियां भी एक शेर का कुछ नहीं बिगाड़ सकती।

अतः जाट को इस बात की परवाह नहीं है कि वह अपनी जाति में एकता के बिना अकेला है, अकेलेपन का उसे कोई डर नहीं सताता क्योंकि भगवान ने उसे आत्मविश्वासी और बाहुबली बनाया है और उसमें यह विश्वास जगाया है कि तू किसी से मत डर। जाट को अपने स्वावलंबन पर अटूट भरोसा है जिस कारण वह किसी दूसरे से अपनी सुरक्षा की भीख नहीं मांगता। जाट किसी मन्दिर में बैठकर तथा घड़ी-घंटाल बजाकर ईश्वर को रिझाने का ढोंग नहीं करता। वह तो अपने शारीरिक कर्म यानी ईश्वर की उपासना में विश्वास रखता है। जाट ईश्वर और प्रकृति के प्रत्येक नियम का पालन करता है। चारों वेद, छः शास्त्र और गीता के आदर्शों को जाट आर्य (क्षत्रिय) होने के नाते पूरी तरह मानता है और उनके अनुसार ही अपना जीवन यापन करता है। जाट इस देश को आर्यावर्त के नाम से जानता, मानता और पुकारता है। इस देश का नाम हिन्दुस्तान उन हिन्दुओं का रखा हुआ है जो पत्थर यानि मूर्ति पूजते हैं और जिन्होंने अपनी आजीविका के लिये गरुड़पुराण जैसी पाखंड से भरी कृतियों को घड़ रखा है क्योंकि वेदों, शास्त्रों और गीता में कोई पोपलीला या पाखंड नहीं है। उसका ज्ञान तो मनुष्य के लिये सही और सच्ची जीवन पद्धति को ही दर्शाता है जिनके ज्ञान पर जाट का अटल और अटूट विश्वास है।

गांव की अन्य जातियों के साथ जाट का व्यवहार

जाट मानवता में विश्वास रखता है। प्रत्येक मानव जो इस धरती पर विचरता है,जाट उन सब में परमेश्वर का स्वरूप देखता है, परमेश्वर के बन्दे मानकर ही उन सब का आदर करता है, उन सबसे प्यार करता है, यथाशक्ति उनकी सहायता करता है, किसी के प्रति घृणा या द्वेष का भाव न रख कर उनके साथ मानवता का व्यवहार करता है। किसी के साथ छल-कपट धोखा या ठगी न करके उनके साथ आत्मीयता का रिश्ता स्थापित कर मेल-मिलाप से रहना चाहता है या रहता है। ब्राह्मण से लेकर चूहड़े तक जाट का बेटी-रोटी का रिश्ता है। समाज की छत्तीस बिरादरियों के बीच जाट एक धुरी की भूमिका अदा करता है। ब्राह्मण इस समाज की उच्च एवं सिरमोर बिरादरी मानी जाती है। ब्राह्मण ने इस समाज में जो परम्पराएं स्थापित की हैं या जो नई व्यवस्थाएं वह लागू करता है, जाट भी उन्हें अपनी मान्यता प्रदान करता है। समाज की उच्च बिरादरी होने के नाते, ब्राह्मण ने अपने लिये कुछ उंचे मानदंड तय किये हैं। सामाजिक रिश्ते नातों के लिहाज से ब्राह्मण को छोड़ कर अन्य सब बिरादरियों में, आपसी बातचीत एवं बोलचाल में सब के आपस में चाचा-ताऊ, भाई-भतीजा आदि के रिश्ते हैं परन्तु ब्राह्मण का रिश्ता अन्य सब बिरादरियों के साथ चाचा-ताऊ तथा भाई-भतीजे का न होकर केवल दादा का रिश्ता है। पांच वर्ष के ब्राह्मण से लेकर सौ साल के ब्राह्मण तक वह सबका दादा लगता है, उसे सब दादा कहकर पुकारते हैं या बोलते हैं। अन्य बिरादरी का सौ साल का बूढ़ा भी ब्राह्मण के पांच वर्ष के अबोध बालक को दादा कहकर ही पुकारेगा, उसे बड़पन की मान्यता प्रदान करेगा। इसी प्रकार ब्राह्मण की पत्नियां भी सब की दादी और वे ब्राह्मण की भांति उसी आदर भाव से पुकारी जाएंगी। अन्य बिरादरी का कोई भी बड़े से बड़ा व्यक्ति ब्राह्मण की चारपाई पर, उसके साथ नहीं बैठ सकता। यदि किसी ने ब्राह्मण से बात करनी दरकार हो तो चार कदम की दूरी से या तो खड़ा होकर ही बतलायेगा या फिर उसके सम्मुख धरती पर नीचे बैठ कर बात करेगा। ब्राह्मण का हुक्का या उसके मटके का पानी भी अन्य बिरादरी का व्यक्ति नहीं पी सकता। अन्य जाति का व्यक्ति न तो ब्राह्मण को छू सकता है और न ब्राह्मण भी अन्यों को छुएगा। अन्य जातियों को ब्राह्मण द्वारा पानी पिलाने का जो तरीका ब्राह्मण ने तय किया उसके अनुसार उसकी प्याऊ पर पांच फुट लम्बी लोहे की नलकी से पिलाया जा सकता है। ब्राह्मण केवल जाट या बनियों के घर ही भोजन करेगा परन्तु वह अपने हाथ से ही भोजन तैयार करके भोजन करेगा। आजादी के बाद सन् 1955 में स्वदेशी सरकार ने अस्पृश्यता कानून बनाकर छुआछूत पर पाबन्दी लगाने का प्रयास किया था जिसके माध्यम से कुछ शृंखलाएं तो अवश्य ढ़ीली पड़ीं परन्तु ब्राह्मण की ओर से अब भी बहुत सारी कायम हैं। जाट ने भी दूसरी बिरादरियों के साथ, ब्राह्मण की उक्त परम्पराओं को मान्यता दी और उन्हें परवान चढ़ाया। जाट के घर शादी हो तो मिठाई के कोठे का मालिक ब्राह्मण होगा, शादी में सब से पहले ब्राह्मण को भोजन कराया जायेगा तब जाकर अन्य लोग भोजन करेंगे। अमावस्या हो, पूर्णमासी हो, कोई भी तीज-त्यौहार हो, साल में श्राद्धों में पंद्रह दिन यानी श्राद्ध पखवाड़ा हो, शादी हो, जन्म हो या जन्मदिन हो या कोई और मुहूर्त का या खुशी का शुभ दिन हो और यहां तक कि जाट के घर में किसी की मृत्यु भी क्यों न हुई हो, ब्राह्मण का भोजन, उसकी दान-दक्षिणा आदि के जो माप-दंड ब्राह्मण द्वारा तय किये हुए हैं, सब पूरे किये जाते हैं वर्ना तो ब्राह्मण का श्राप (शाप) जाट के सिर पर खड़ा हो जाता है। लेकिन फिर भी जाट से ब्राह्मण के दिल की दूरी का फासला कोसों का बना रहता है।

जाट समाज की अन्य सब बिरादरियों को अपने यहां शादी में आमंत्रित करता है, भोजन कराता है और ब्राह्मण को तो उस खुशी की दक्षिणा भी देता है परन्तु अन्य जातियों के विवाहों में जाट को भोजन के लिये तो आमंत्रित नहीं किया जाता, हां, जाट उन्हें दक्षिणा के रूप में लत्ते-कपड़े या नकद रुपये पैसे दें तो वे उन्हें जरूर स्वीकार कर लेते हैं। जाट भी दाता के रूप में अपना दान देने का कर्त्तव्य जरूर निभाता है। हरिजनों के घर लड़के-लड़कियों की शादी हो, पिछड़ी जातियों के बच्चों की शादियां हों, जाट की आर्थिक सहायता के बिना उनके विवाह सम्पन्न नहीं होते। जाट उनकी प्रत्येक प्रकार की यथास्थिति सहायता करता आया है। जाट के खेत-खलिहान में वे सब अपना साझा मानते हैं और जाट भी खुले हाथ से उनकी सहायता करता है। गांव में अन्य बिरादरियों के लोग सभी पशु रखते हैं, उनके लिये घास-फूस और चारे का साधन केवल जाट का खेत है। जाट के खेत में बेरोक-टोक उन सबका आना-जाना है। अपने खेत से मुफ्त चारा ले जाने के लिए जाट उन्हें कभी मना नहीं करता। जाट के खेत से चारा लाना वे अपना जन्मसिद्ध अधिकार मानते हैं। जाट भी इस परम्परारूपी रियायत को निभाये जा रहा है। हजारों साल से कर के रूप में ये बिरादरियां जाट को अनायास चूंट-चूंट कर खाये जा रही हैं। गांव में कोई भी शामलात कार्य हो जैसे कुंआ बनाना, जोहड़ खोदना, धर्मस्थल स्थापित करना, पाठशाला का भवन तामीर करना, किसी भी खर्च में अन्य बिरादरियां गरीबी का बहाना लेकर, अपने हिस्से की बांच देने से साफ बची रहती हैं। मगर जाट इन सब बातों की भी परवाह नहीं करता और सारा बोझ स्वयं वहन करता रहा है। जाट के अलावा अन्य बिरादरियों पर कोई भी आपत्ति पड़े, जाट उनकी सहायता के लिये हरदम तैयार रहता है। गांव में कोई चोर-डाकू, लुटेरा, आक्रमणकारी, बाहर से आकर गांव की शांति भंग करता है, लूटमार करता है तो उसका सामना जाट ही करता है। गांव में कोई जंगली जानवर आ घुसे और जान-माल की हानि की आशंका पैदा कर दे तो उसे गांव से बाहर खदेड़ बाहर करने की जिम्मेदारी भी जाट ही सम्भालता है। किसी के घर में सांप निकल आये तो उसे मारने के लिये भी जाट को ही बुलाया जाता है। अन्य बिरादरियों में कोई झगड़ा उत्पन्न हो जाये तो उसे सुलझाने के लिये भी जाट की ही पंचायत आगे आती है। एक प्रकार से गांव की प्रत्येक घटना या दुर्घटना एवं आफत का सामना करना सब जाट की जिम्मेदारियों में शामिल है।

समाज में अन्य जातियों का जाट के प्रति व्यवहार

ब्राह्मण अपने आप में उच्च जाति का होने का मिथ्या घमंड, अहं एवं अहंकार पाल कर सब पर अपने आदेश और अपनी स्वयं की बनाई परम्परा एवं मर्यादा लागू कर अपना रौब गालिब करता है या रखता है। हजारों साल से अन्य जातियों के साथ जाट भी ब्राह्मण की उच्चता की मान्यता को सहन करता चला आ रहा है। जाट लोक लिहाज के नाते ब्राह्मण की पोपलीला को छोड़कर, अन्य बातों में उसका आदर करता है। परन्तु ब्राह्मण जाट से इसी बात को लेकर नाराज है कि वह उसकी ढोंगी परम्परा को पूरी तरह कुबूल क्यों नहीं करता। ब्राह्मण इस हिन्दुस्तानी समाज का बहुत बड़ा प्रचारक है। वह अपने प्रचार से, समाज में आई बड़ी से बड़ी लहर का भी रुख मोड़ देता है। उसके प्रचार की हिन्दुस्तानी समाज पर बहुत बड़ी छाप है। उसे झूठ को सच और सच को झूठ बनाने में महारत हासिल है और यही उसके करिश्मे का जादू है जो समाज के सिर चढ़कर बोलता है। लेकिन जाट के सामने भी यह धर्म संकट है कि वह एक कर्मयोगी होकर केवल अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये एक अकर्मण्य ब्राह्मण के मिथ्या प्रचार से डरकर अपने सिद्धान्तों से समझौता कर ले। जाट अपनी सुख-समृद्धि और प्रत्येक प्रकार के स्वार्थों को तो तिलांजलि दे सकता है परन्तु अपनी आत्मा पर पत्थर रखकर किसी भी प्रकार के झूठे ढोंग और पाखंड को स्वीकार नहीं कर सकता। जाट द्वारा ब्राह्मण की ढोंगी परम्परा को न मानना, ब्राह्मण को कांटे की तरह खटकता है जिस कारण ब्राह्मण जाट के विरुद्ध अनायास और अनर्गल प्रचार में अपनी सारी शक्ति जुटा देता है। समाज की अन्य जातियों को भी जाट के विरुद्ध भड़काने में, ब्राह्मण अपनी विशेष भूमिका अदा करता है। जाट, ब्राह्मण को दादा भी कहता है, पूज्य भी कहता है, पुरोहित जी कहकर उसका आदर भी करता है, अपने यहां शादी विवाहों तथा अन्य खुशी के अवसरों पर उसे आमंत्रित भी करता है परन्तु उसकी ज्योतिष एवं पोथी-पत्रों में विश्वास नहीं करता, उसके मन्दिरों में चढावा नहीं चढाता, उसके मन्दिरों में रखी पत्थर की मूर्तियों के सामने सिर झुका कर उनकी धोक-पूजा भी नहीं करता। जाट की इस प्रकार की प्रवृत्ति ब्राह्मण के दिल को कचोटती है जिस कारण वह जाट को नीचा दिखाने का कोई अवसर हाथ से नहीं जाने देता।

समाज में जाट के समकक्ष अन्य किसान जातियां, राजपूत, अहीर, गूजर, रोड़, सैनी आदि ऊपरी तौर पर जाट से समन्वय बनाये रखने का दिखावा करती हैं परन्तु ब्राह्मण द्वारा जाट के विरुद्ध भड़कीले एवं जहरीले प्रचार से प्रभावित होकर, सामाजिक तथा राजनीतिक कार्यकलापों में सदा दूर-दूर ही रहती हैं। जाट उनके निकट जाने का प्रयत्न भी करता है, समय-समय पर उन्हें अपना समर्थन भी देता है परन्तु जब जाट को उनके सहयोग एवं समर्थन की जरूरत पड़ती है तो वे जाट की सहायक सिद्ध नहीं होती। जहां तक हरिजन और पिछड़ी जातियों का सम्बन्ध है, वे गांव के समाज में विशेष तौर पर जाट के सहारे पर जिन्दा हैं परन्तु जब जाट को उनके समर्थन की आवश्यकता पड़ती है तो वे जाट की बजाए ब्राह्मण के पाले में खड़ी मिलती हैं। ग्राम पंचायत के चुनाव से लेकर संसद के चुनाव तक वे ब्राह्मण से पूछकर वोट देती हैं और जाट को ठेंगा दिखाने में न शर्म महसूस करती और न अपनी कृतघ्नता को ही ध्यान में रखती। लेकिन जाट फिर भी उनके कुकृत्य को दर गुजर कर देता है। हालांकि ब्राह्मण छुआ-छूत के विषय में सदा उनसे घृणा करता है, उनसे दूरी बनाये रखता है परन्तु फिर भी वे सदा ब्राह्मण के प्रचार के रंग में रंगे रहते हैं। सन् 1966-67 में पं० भगवत दयाल शर्मा ने जाट-गैर जाट का नारा लगाया तो ये सब जातियां, जाट के विरुद्ध शर्मा जी के साथ लामबन्द हो गईं। वे मुख्यमंत्री बन गए और लग गए जाट के विरुद्ध जहर उगलने - "मैंने इनकी पचास साला चौधर को उखाड़कर फैंक दिया है, अब इनकी पगड़ी और इनके डोगे नुमाइश (प्रदर्शनी) में रखवा दूंगा। चौधरी देवी लाल और प्रो० शेरसिंह की ओर इशारा कर कहते थे कि जब इनकी कुर्सी छिन गई थी तो इन्हें हरयाणा याद आया था और जब हरयाणा बन गया तो इन्हें फिर कुर्सी याद आई। अब मैंने इन्हें राजनीति में बहुत पीछे छोड़ दिया है।"

इसी प्रकार भजन लाल ने सन् 1991 में जाट गैर-जाट का नारा लगाकर मुख्यमंत्री की कुर्सी हथिया ली। कुछ महीनों पहले मुख्यमंत्री हुकम सिंह द्वारा जाटों को दिया गया आरक्षण छीन लिया और भोला जाट देखता रह गया। फिर 2005 में गैर-जाट का नारा देकर विधायकों का बहुमत अपने साथ जोड़ लिया था। लेकिन शुक्र है उस विदेशी महिला का जो जाट गैर-जाट के नारे से प्रभावित नहीं हुई और उसने हरयाणा के मुख्यमंत्री पद को नारे और भावनाओं की भेंट नहीं चढ़ने दिया और भूपेन्द्रसिंह हुड्डा को मुख्यमंत्री बनाया। हरयाणा में जाटों की संख्या 30-32 प्रतिशत है और निःसन्देह दूसरी जातियां 70 प्रतिशत के लगभग हैं जबकि ब्राह्मण कुल जनसंख्या के सात प्रतिशत हैं परन्तु जाट के विरुद्ध उनके प्रचार के रंग में हरयाणा की ये सब बहुसंख्यक बिरादरियां, जितनी जल्दी रंगी जाती हैं यह भी किसी करिश्मे से कम नहीं। जाट के विरुद्ध इस प्रकार के गठजोड़ से यह सिद्ध होता है कि इन लोगों को सच्चाई, न्याय, ईमानदारी, लोकतान्त्रिक मान्यताओं एवं धर्मनिरपेक्षता से कुछ लेना देना नहीं। यह तो केवल एक बिरादरी के विरुद्ध ईर्ष्या और द्वेष का ही कारण है। दूसरा कारण यह भी है कि जाट की शक्ति को कोई अकेली जाति चुनौती देने की स्थिति में नहीं है इसीलिए वे सब मिलकर उसे परास्त करने का कुप्रयास करती हैं। कारण जो भी हों, यह उन सबका अनैतिक दुष्कर्म है क्योंकि जाट तो न किसी का बुरा करता है और न बुरा सोचता है। मगर फिर भी उसके विरुद्ध इस प्रकार का षड्यन्त्र अव्यवहारिक और राजनैतिक बेईमानी है, समाज में जाट को स्वाभिमान से न जीने देने की एक घटिया प्रवृत्ति है। उनके इस प्रकार के कुकृत्य से यह सिद्ध होता है कि वे ब्राह्मण को अपना समर्थन देकर समाज में अंधविश्वास को बढावा देते हैं या उसमें आस्था रखते हैं। अंधविश्वास घटिया दर्जे का अंधा धर्म है जिसका सच्चाई और धर्मनिरपेक्षता से कुछ लेना देना नहीं। जबकि जाट समाज में ईमानदाराना व्यवस्थाएं एवं परम्पराएं स्थापित कर सत्यता की मर्यादा कायम करता है। सब के प्रति सद्व्यवहार का पालन करता है और दूसरों के दुर्व्यवहार के सामने न कभी घुटने टेकता है और न समाज में अपने अकेलेपन से घबराता है। परिस्थितियां चाहे जो भी हों, समाज में जाट की सच्ची और ईमानदाराना भूमिका को न कोई रोक सकता है और न चुनौती दे सकता है। कवि ने जाट के लिये ठीक ही कहा है कि -

चर्ख (आसमान) का क्यों गिला करें, दहर (जमाने) से क्यों खफा रहें।
सारा जहाँ अदू (दुश्मन) सही, आओ मुकाबला करें॥

हजारों साल से जाट इस जड़बुद्धि समाज से लोहा लेता चला आ रहा है, यही जाट की जिन्दगी है और यही उसका जीवन है।

हजारों साल से ये लोग जाट की हस्ती को मिटाने के लिये अनर्गल प्रचार करते चले आ रहे हैं परन्तु इन की मिथ्या आलोचनाएं, जाट के फलने-फूलने के लिये खाद का काम देती हैं। इन्होंने अनेक नारे और मुहावरे जाट के विरुद्ध घड़ रखे हैं। परन्तु वे सब जाट का कुछ नहीं बिगाड़ सके। ब्राह्मण कहता है कि जाट मरा तब जानियो जब तेरहामी हो जाए। वह बेशक जाट को अपनी उक्ति से कोसता है परन्तु उसका भावार्थ यही है कि उसे जाट की मौत पर सन्देह है। बनिये का छोटा बच्चा अपने बापू से पूछता है कि बापू! जाट खड़ा अच्छा या पड़ा अच्छा? बनिया उत्तर देता है कि बेटा! जाट न तो खड़ा अच्छा और न पड़ा अच्छा, जाट तो मरा अच्छा। वह अपनी दुर्भावना से जाट के मरने की कामना करता है, उस जाट की जो उसके घर में घुसे चोरों को भगाता है, उसके घर में निकले सांप को मारता है परन्तु उस पर भी बनिया अपनी भावना दर्शाता है कि इसे तो सांप भी नहीं काटता। देखिये, जो ब्राह्मण जाट का माल खाता है, उसकी दान-दक्षिणा पर अपने जीवन के दिन ओछे करता है, वह उसके मरने की कामना करता है। जिस बनिये के घर से जाट चोरों को भगाता है, सांप को मारकर उसके जीवन की रक्षा करता है, वही बनियां जाट के मरने की कामना करता है। जाट की जिन्दगी का आधार यही तो है कि जो जाट का बुरा चाहते हैं वह उनका भी भला करता है। ऐसे भले पुरुष को किसी की भी बद-दुआएं नहीं मिटा सकतीं। जो लोग जाट को आदमी भी नहीं मानते, जाट उन्हीं के काम आता है। डूम ने जाट के लिये कहा है कि यदि इस धरती पर जाट न होते तो हम जैसे आदमियों को खेती करनी पड़ती। अर्थात् जो डूम सौ प्रतिशत जाट पर आश्रित है वह भी जाट को आदमी नहीं मानता। पाकिस्तान बनने के बाद शुरु-शुरु में जब पंजाबी इधर आये तो घर में पानी न होने के कारण इनकी स्त्रियां जाट के खेत में ट्यूबवैल पर कपड़े धोने तथा स्नान के लिये जाया करती थीं। एक दिन जाट ट्यूबवैल चला कर पास के खेत में चला गया। पंजाबी स्त्रियों ने कपड़े घोए और उनमें से एक नहाने लग गई। उसी दौरान जाट उन्हें दूर से आता दिखाई दिया। उनमें से एक नहाने वाली को कहने लगी - "बन्दा आंदा प्या!" नहाने वाली ने पूछा - "कित्थे?" दूसरी बोली - "ओ वेखो!" नहाने वाली कहने लगी - "वो बन्दा कित्थे है, ओ तो जट्ट है!" पंजाबी स्त्री ने जाट को बन्दा (इंसान) मानने से ही इंकार कर दिया। जाट के विरुद्ध हिन्दू धर्म की घृणा की यह पराकाष्ठा है कि वह उसे एक आदमी के रूप में भी मानने को तैयार नहीं।

सन् 1957 में हिन्दी सत्याग्रह चल रहा था। तत्कालीन मुख्यमंत्री सरदार प्रताप सिंह कैरों जाट कालेज के प्रांगण में सोनीपत आये। जाट कालेज के विद्यार्थियों ने उन्हें बोलने नहीं दिया। उन्होंने प्रार्थना की कि केवल दो मिनट बोल लेने दो। उनके हाथ में उर्दू का दैनिक 'प्रताप' था। उसके सम्पादकीय में लिखा था, "मुझे यह देखकर बड़ी खुशी हो रही है कि आज पंजाब का हिन्दू और हरयाणा का जाट एक हो गए।" कैरों साहब बोले कि इस पत्र का सम्पादक महाशय कृष्ण जो आन्दोलन का संचालक है और जिसके आह्वान पर तुम बावले हो रहे हो, वह तुम्हें हिन्दू मानने के लिए भी तैयार नहीं। हालांकि जाट हिन्दू नहीं, लेकिन उसकी संकीर्णता देखिये वह जाट का इतना बड़ा समर्थन लेकर भी उनको अपने बराबर मानने की शालीनता तक भी नहीं दिखा रहा। इस देश का इतिहास गवाह है, रहबरे आजम सर छोटूराम ने पंजाब का प्रिमियर निर्वाचित होने के बाद अपने गले का हार निकाल कर एक मुसलमान के गले में डालकर उसे प्रधानमंत्री बनाया। चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री का पद ब्राह्मण मोरारजी देसाई को सौंप दिया, चौधरी देवीलाल ने प्रधानमंत्री का ताज अपने सिर से उतार कर राजपूत वी० पी० सिंह के सिर पर रख दिया। दूसरी जाति के लोगों के लिये इतने बड़े त्याग का कोई उदाहरण नहीं मिलता। जाटों के त्याग की भारत का इतिहास गवाही देता है और गैर-जाटों के त्याग के नाम पर देश का इतिहास खामोश है। फिर भी कोई जाट का विरोध करे तो उसकी वाणी में कीड़े पड़ जाने चाहिएं। जुल्म का यहीं पर अंत नहीं हो जाता, चरणसिंह और देवीलाल की कुर्बानियों का सिला, देसाई और वी० पी० सिंह ने यह दिया कि उन्होंने एक साल के अन्दर-अन्दर ही चरणसिंह और देवीलाल को अपने मंत्रिमंडलों से बर्खास्त करवा दिया। त्यागियों के त्याग और कृतघ्नों की कृतघ्नता की वह पराकाष्ठा थी। इन हिन्दुस्तानी हिन्दुओं द्वारा जाटों पर जुल्म ढाने, उनके साथ अन्याय और अत्याचार करने, उनके साथ कदम-कदम पर द्रोह करने, उनका सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक शोषण करने की लम्बी-लम्बी दास्तानें हैं। हिन्दुस्तानी राजनीति के शिखर पर तीन जाट चढे और उन तीनों ने जाट के त्याग और कुर्बानी का इतिहास रचा जब कि दूसरी ओर इन हिन्दुस्तानी हिन्दुओं ने अवसर मिलते ही उनका गला काट लिया। इतने बड़े दुर्व्यवहारी लोगों के बीच हजारों साल से जाट कैसे रह रहा है यह भी एक विडम्बना है!

ढोंग, पाखंड और कुरीतियों के विरुद्ध जाट कहां-कहां लड़ा?

आर्यों (जाटों के तीन वंश हैं - सूर्यवंश, चन्द्रवंश और यादव वंश। इन तीनों वंशों के अढाई-तीन हजार गोत्र हैं। इनके गोत्रबन्धु सारी दुनियां में पाये जाते हैं। चूंकि बोली चार कोस पर बदल जाती है, अतः हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के अलावा जाट के भाईचारे के लोग अपनी बिरादरी को, अपने देश काल के हिसाब से, अलग-अलग नामों से पुकारते हैं परन्तु वे सब आर्य हैं। उन सबका रंग रूप, चाल-ढाल, प्रवृत्ति-मनोवृत्ति, व्यवहार, शारीरिक बनावट, स्वभाव लगभग एक जैसा है परन्तु उनकी यह पहचान कि वे हमारे भाई हैं केवल गोत्रों से पता चलता है। हमारे पड़ौसी देशों, चीन, अफगानिस्तान, ईरान, इराक, मिश्र, श्रीलंका, सऊदी अरब, लगभग खाड़ी के सभी देशों में हम अपने गोत्र से उन्हें पहचान सकते हैं जैसे चीन के स्वर्गीय राष्ट्रपति माऊत्से तुंग, श्रीलंका की पूर्व राष्ट्रपति चन्द्रिका कुमारतुंग, यानी तुंग गोत्र जाटों का है। ईरान के स्वर्गीय बादशाह रजा पहलवी, मिश्र के स्वर्गीय राष्ट्रपति कर्नल अब्दुल गमाल नासर, इराक के अपदस्थ राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन नासर, फिलस्तीन के स्वर्गीय राष्ट्रपति यासर अराफत नासर, मुगलिया खानदान के जन्मदाता जहीरुद्दीन बाबर सूर्यवंशी और यहां तक कि इस्लाम के जन्मदाता पैगम्बर हजरत मुहम्मद कुरान तथा जर्मनी के तानाशाह हर हिटलर आर्य। नासर, पहलवी, सूर्यवंशी, कुरान, आर्य ये सब गोत्र आर्य क्षत्रियों के हैं। कहते हैं कि गोती भाई, बाकी सब आशनाई।

आर्यों के जहां-जहां गोत्र मिलते हैं, हम उन्हें चाहे जाट कहें, आर्य कहें या वंशीय पहचान से सूर्यवंशी तथा यादववंशी कुछ भी कह सकते हैं। हमारे पूर्वज यानी आर्य लोग कबीलों की शक्ल में सारी दुनियां में घूमे और जहां-जहां गए उनमें से कुछ-कुछ लोग स्थान-स्थान पर बसते रहे। उन्होंने वहां बसने वाली अपनी बिरादरी का नाम चाहे जो भी रख लिया हो, परन्तु उन्होंने, आर्य, वंशीय और गोत्रीय पहचान को नहीं भुलाया। हम इस देश में बैठे हुए भी धुर अमेरिका, इंग्लैंड और रूस में बसे उन लोगों को, उनका वंश और गोत्र जानकर, उन्हें पहचान और ढूंढ सकते हैं। आप उन्हें आर्य कहें, जाट कहें या उन्होंने अपने देश काल के हिसाब से अपनी बिरादरी का नाम जो भी अपना रखा है, वह कहें परन्तु वे सब हमारे भाई हैं, हमारा परिवार है, हमारा खून है, हमारी नस्ल है, हमारा कुनबा है, हमारा भाईचारा है। उनके साथ हमारा आत्मीयता का रिश्ता है परन्तु हिन्दुस्तान के इन हिन्दुओं के साथ हमारा कुछ नहीं मिलता। यदि इनके साथ कुछ मिलता होता तो 36 बिरादरी में कोई एक बिरादरी तो हमारा साथ देती, कोई एक तो हमारे साथ रहती। इन सभी ने जाट को अलग निकाल रखा है, अलग मान रखा है, सबने जाट के विरुद्ध उपेक्षा का व्यवहार स्थापित किया हुआ है। जब भी कोई अवसर आता है, 35 बिरादरी एक ओर तथा जाट एक ओर। जाट, गैर-जाट, जाट-गैर जाट! जाट के साथ कोई नहीं, कोई एक बिरादरी भी तो नहीं, किसी अन्य बिरादरी या जाति का कोई एक व्यक्ति भी तो नहीं। कैसे काम चलेगा? कैसे इनके साथ रहा जायेगा? भविष्य कैसे गुजरेगा? ये सब अन्य बिरादरियां तो प्रत्येक अवसर पर चूतड़ जोड़कर एक हो जाती हैं और जाट को दूध की मक्खी की भांति अलग निकाल कर फैंक दिया जाता है। पहले तलवार के बल पर राज लिये जाते थे, अब राज लेने का तरीका बदल गया। अब तो सब से पूछकर, उनकी राय जानकर राजा बनाया जाता है। जाट तो इस देश में अल्पसंख्यक हैं। ऐसी परिस्थिति में ये हिन्दू लोग जाट को सत्ता के निकट नहीं जाने देंगे। इस सारे देश में तो क्या, किसी प्रदेश में भी जाटों का बहुमत नहीं है। हर प्रदेश में जाट अल्पमत में हैं और इन लोगों को जाट से खास नफरत है। जाट का नाम तो इनके सामने ऐसा ले दिया जैसे कुत्ते को ईंट दिखा दी। इस विषय पर जाटों को गहन विचार करना होगा।

आजादी के बाद इस देश में जाटों को मिला ही क्या है? और भविष्य में कुछ भी मिलने की उम्मीद ही क्या है? जाट ने कभी ब्राह्मण गैर-ब्राह्मण का नारा नहीं लगाया, जाट ने कभी बनिये गैर-बनिये का नारा नहीं लगाया, जाट ने कभी हरिजन गैर-हरिजन का नारा नहीं लगाया तो फिर ये सब जाट के विरुद्ध अलगाव की बोली बोलकर जाट को देश से बाहर निकालने की साजिश क्यों कर रहे हैं? जाट तो धर्म निरपेक्षता में विश्वास रखता है फिर ये लोग धर्म-निरपेक्षता को साम्प्रदायिकता के हाथों क्यों कत्ल करने पर उतारू हैं? जाट देशभक्त हैं, जाट स्वामीभक्त हैं, जाट वैदिकधर्मी हैं तथा उन वेदों में ढोंग पाखंड, अन्धविश्वास, पोपलीला, ठगी, लूटमार, शोषण, झूठ, धोखाधड़ी, हेरा-फेरी का कहीं कोई जिक्र नहीं है। जाट अपने उसूलों को छोड़ नहीं सकता और ये अपने पाखंड को नहीं छोड़ सकते। जाट कमा कर खाना चाहता है, ये ठग कर और लूट कर खाना चाहते हैं। फिर इन तिलक, तराजू और त्रिशूल वालों के साथ जाट कैसे निर्वाह करे, कितने दिन इनके साथ लड़े और कैसे इनका मुकाबला करे? ये तो पिस्सू हैं, हर स्थान पर मिलते हैं, हर मजहब में मिलते हैं, इन्हें प्रत्येक प्रकार की चालाकी और हेर-फेरी आती है, जाट इनके बीच में एक भोला-भाला जीव फंसा हुआ है, ये हरदम जाट का शोषण करने की ताक में रहते हैं। जाट हजारों वर्षों से इनकी बेईमानी, इनके अधर्म के विरुद्ध लड़ता चला आ रहा है परन्तु ये मुफ्तखोरे हर स्थान पर मिल जाते हैं।

महात्मा बुद्ध ने जब यह देखा कि जानवरों की बलि दी जा रही है, मनुष्यों को भी बलि का बकरा बनाया जा रहा है, तो उन्होंने हिंसा के विरुद्ध लोगों के बीच में अपने विचार दिये, समाज में अंधाधुंध हिंसात्मक कार्यवाईयों को रोकने के लिये अहिंसा का दर्शन दिया, इंसानीयत को बचाने के लिये अहिंसावादियों की एक सेना खड़ी करने का आह्वान किया तो उनके निकटतम रहने वाले सब जाटों ने बुद्ध धर्म में प्रवेश किया। अरब देशों में इन पाखंडी लोगों ने जब अंधविश्वास, मूर्तिपूजा और कुरीतियों को समाज में चरमसीमा तक पहुंचा दिया तो उनके विरुद्ध सुधार आंदोलन के रूप में पैगम्बर हजरत मुहम्मद ने जिहाद का नारा देकर एक फौज का गठन किया तो मुहम्मद साहब के साथ वहां के सब जाट मुसलमान हो गए। पंजाब में जब चारों ओर पाखंड का बोलबाला हो गया और समाज में अधर्म ने जड़ें जमा लीं, तो गुरु नानकदेव ने धर्म की वीणा बजाई तथा समाज में सुधार की गुहार की तो पंजाब के सब जाट सिख हो गए। राजस्थान में स्थाई अकाल के कारण भुखमरी फैल गई और लोग पशु-पक्षियों को मार-मार कर खाने लगे, एक प्रकार से हिंसा का तांडव जाग उठा तो उस समय गुरु जम्भेश्वर महाराज ने अहिंसात्मक उसूलों को अपनाने, अनपढ़ता के विरुद्ध समाज में चेतना एवं सुधार भावना का ललकारा दिया तो वहां के जाट विश्नोई हो गए। चारों वेद, छह शास्त्र तथा गीता के गहन अध्ययन के बाद महर्षि दयानन्द ने जब यह देखा कि देश और समाज को ढोंगी और पाखंडियों ने अपनी जकड़न में लेकर भारी अंधविश्वास फैलाया हुआ है जबकि वेद शास्त्रों में इस प्रकार की मूर्तिपूजा और पोपलीला का कोई जिक्र नहीं है तथा कुछ विधर्मी अपनी पेटपूजा एवं आजीविका चलाने के लिये ज्योतिष-पोथी पत्रों के नाम पर भोली-भाली जनता को ठग रहे हैं, तब उन्होंने देश में जागृति लाने तथा समाज सुधार के लिये विशुद्ध आर्य धर्म के प्रचार का डंका बजाया तो देश का जाट आर्यसमाजी हो गया। हिन्दुस्तान में अंग्रेजों के आगमन पर ईसाई मिशनरियों ने हजरत ईसामसीह के आदर्शों, उनकी कुर्बानियों और समाज में उनकी सुधार भावना का खुलकर प्रचार किया तो उनके प्रचार से प्रभावित हो कर देश का बचा-खुचा जाट ईसाई हो गया।

अब जाट बौद्ध भी हैं, मुसलमान भी, सिख भी, बिश्नोई भी, आर्यसमाजी भी और ईसाई भी। ये सब मजहब या धर्म नहीं हैं, ये समाज सुधार की दिशा में तहरीकें हैं, शाश्वत आन्दोलन हैं। इन आन्दोलनों के शुरूआती दौर में, जाट इन्हें आन्दोलन मानकर, इनमें शामिल हुआ। लेकिन गैर-जाट या दूसरी जातियों के लोग इनमें उस समय शामिल हुए जब ये आन्दोलन धर्म और मजहब के रूप में बदल गए। उस समय कोई सरकारी आतंक से आतंकित होकर, कोई आर्थिक अभाव में और कोई अन्य प्रलोभनों द्वारा इनमें शामिल हुआ। जाट सुधारवादी है, सुधारवाद जाट के खून में लिखा हुआ उसका एक सिद्धान्त है। जाट हर सुधारवादी आन्दोलन का अगवा रहा है, हर सुधारवादी आन्दोलन में शामिल होकर जाट ने उसे आन्दोलित किया है। समाज में उठी हर सुधारवादी लहर पर सवार होकर, जाट अंधविश्वास, अन्याय एवं झूठ के दरिया को पार करता है। बाद में इन आन्दोलनों में कुछ पाखण्डी लोग घुस गए और उन्हें आन्दोलनों से धर्म और मजहब का रूप देकर उन्हें जुनूनी और कट्टरता में बदल कर विकृत कर दिया। परन्तु जाट जहां भी है पवित्र है, जुनूनी नहीं है, जाट ने सदा अपनी पवित्रता को चिरस्थाई बना कर रखा है। इस देश के हिन्दुओं को छोड़कर बाकी जिस किसी भी धर्म मजहब में जाट हैं वहां जाट को अलग से जाति या बिरादरी नहीं माना जाता, उन सब धर्मों-मजहबों ने जाट को अपने में समाहित कर रखा है। परन्तु यहां पर तो जाट, गैर-जाट कहकर जाट को अलग से चिन्हित किया हुआ है। लेकिन जाट जहां भी है, उसकी संस्कृति नहीं बदली, उसकी प्रवृत्ति नहीं बदली, उसकी नस्ल नहीं बदली, उसकी सोच नहीं बदली। उसने कहीं भी और कभी भी अपने नैतिक चरित्र की पहचान नहीं बदली। जाट का विश्वास है -

हमने माना कि मजहब जान है इंसान की,
कुछ इसके दम से बाकी शान है इंसान की।
रंगे कौमियत (राष्ट्रीयता) मगर इससे बदल सकता नहीं,
खूने आबाई (बाप-दादा का खून) रगे तन से निकल सकता नहीं।

जाट जहां भी है उसे ईश्वर की सत्यता में अटूट विश्वास है। वह जहां कहीं भी है, ढोंग और पाखंड से कोसों दूर है, वह कहीं भी मूर्तिपूजक नहीं है। वह ईश्वर की सीधी और सच्ची उपासना में विश्वास रखता है। अनेक धर्मों-मजहबों में अपनी आस्था रखकर, उन्हें आदर देना, सब इंसानों को बराबर समझना, सब मनुष्यों को परमात्मा के बन्दे मानना, सबसे प्यार करना, जाट की धर्मनिरपेक्षता का ये ज्वलन्त उदाहरण हैं। अतः जाट के समकक्ष या इससे बढ़कर इस धरती पर कोई और धर्मनिरपेक्ष नहीं है। जाट ही धर्मनिरपेक्षता का सही स्वरूप है, जिसे इस विषय में कोई चुनौती नहीं दे सकता। जाट सब धर्मों को मानव धर्म मानता है जो सब ईश्वर की आस्तिकता के प्रतीक हैं। जाट रूढिवादी, कट्टरवादी या अवसरवादी न होकर मानवता का अलम्बरदार है। जाट कवि की इस उक्ति में विश्वास रखता है -

यही है इबादत, यही दीन व ईमां,
कि दुनियां में काम आये इंसां के इंसां।

धर्मनिरपेक्षता बनाम साम्प्रदायिकता, धर्मांधता एवं धर्मसाक्षेपता

हजरत मुहम्मद ने अपने गोत्र कुरान के नाम पर अपनी महान् कृति कुरान शरीफ की रचना की। कुरान गोत्र भी जाटों के अढ़ाई हजार गोत्रों में से एक है। मुहम्मद साहब जहां पैदा हुए थे वह क्षेत्र पूरी तरह रेगिस्तान था। अकालग्रस्त होने के कारण अन्न और पानी का अभाव था। कुरान में बहुत सारी बातें वहां के देशकाल के आधार पर भी वर्णित हैं, जिस कारण मुहम्मद साहब ने यह भी स्पष्ट किया है कि कुरान-हदीस में जो कुछ भी बयान किया गया है उसे अंतिम वाक्य न समझ कर परिस्थिति एवं समयानुसार या संसार में बदलती हुई परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उसे अपने अनुकूल बनाया जा सकता है। जैसे सभी मुसलमान सुन्नत को न अपना कर शिया भी हो सकते हैं और अधिकांश जाट शिया हैं, दूसरे अन्न के अभाव में मांस खाया जा सकता है अन्यथा मांस खाना आवश्यक नहीं। कुरान में एक शब्द है तोहिमम यानी किसी वस्तु के अभाव में अन्य वस्तु का प्रयोग में लाना। जैसे नमाज अदा करने से पूर्व, पानी के अभाव में, हाथ पैरों को रेत मसल कर साफ कर लेना। इसी प्रकार शादी ब्याह के लिये खानदान की निकटता या दूरी की भी कोई खास शर्तें लागू नहीं हैं। उनके कोई भी आदर्श कट्टरता पर निर्भर नहीं हैं और न ही इस्लाम में किसी प्रकार का जुनून पाया जाता है। परन्तु बहुत सारी बातें बाद के कठमुल्लों ने अपने अनुसार ढाल कर इस्लाम को कट्टर और जुनून से ओत-प्रोत करने की कुचेष्ठा की है।

इस्लाम ने ईश्वर की उपासना के लिये जो आदर्श स्थापित किये हैं उनमें परमेश्वर की निर्गुण भक्ति पर जोर देकर मूर्तिपूजा का पूरी तरह खंडन किया है। जाट ने इस्लाम को सुधार भावना तथा सुधारों को समाज में प्रस्थापित करवाने के लिये एक आन्दोलन के रूप में स्वीकार किया था। इस्लाम जाट के लिये कोई बन्धन नहीं है। जाट ने मुसलमान होकर भी उन कट्टरपंथियों की किसी जड़ता को स्वीकार नहीं किया जो उसके दैनिक कर्म में बाधक हों। हजरत मुहम्मद के अनुसार इस्लाम कोई धर्म मजहब न होकर उन कुरीतियों के खिलाफ बगावत है, जिहाद है, आन्दोलन है जो बेमतलब में किसी भी कर्मयोगी मनुष्य को बाधित करती हों। इसी प्रकार गुरु नानक के अनुसार गुरु का सच्चा शिष्य (सिख) वही है जो सामाजिक कुरीतियों एवं जड़ता के विरुद्ध आन्दोलनरत रहे। जाट के लिए आन्दोलन और जिहाद जैसे शब्द पूरी तरह प्रिय हैं। क्योंकि जाट तो पैदा ही संघर्ष के लिये हुआ है। मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारों, चर्च आदि धर्मस्थलों की संस्कृति से जाट अधिक प्रभावित नहीं है। वह तो प्रत्येक धर्म की खामख्वाह की जकड़न और जड़ता से आजाद है। जाट का मानना है कि यदि वह धर्मस्थलों में बैठकर उन धार्मिक कार्यकलापों में फंसा रहा तो अपना खेती-बाड़ी का काम तो कर ही नहीं सकता। इसीलिये जाट कभी भी और कहीं भी किसी मन्दिर का पुजारी नहीं है, किसी मस्जिद का मुल्ला व ईमाम नहीं है, किसी गुरुद्वारे का ग्रन्थी नहीं है, किसी मठ का मठाधीश नहीं है, किसी चर्च का पादरी नहीं है। इन धर्मस्थलों को भी हिन्दू मन्दिरों की तरह, इन धर्मों के पाखंडी लोगों ने सम्भाल रखा है। जाट के अतिरिक्त जिन पाखंडी हिन्दुओं ने इस्लाम कुबूल किया या अन्य धर्म-मजहबों में ये गए, वहां जाकर भी इन्होंने पाखंड ही फैलाया। शेख-सईद बने, ग्रन्थी बने, पादरी बने और वहां भी पाखंड फैलाने की कुचेष्टा की। जाट इन तथाकथित सब धर्मों को आन्दोलन के रूप में तो स्वीकार करता है, इनके कठोर, कट्टरपंथी एवं जुनूनी नियमों की पाबंदियां स्वीकार नहीं करता।

न जाट कट्टर है, न जुनूनी है। वह तो सीधा-सादा किसान है। जाट ईश्वर की इस सत्यता को तो कुबूल करता है कि यह प्रकृति, यह संसार, यह ईश्वर की प्रभुसत्ता परिवर्तनशील है। जो आज पैदा हुआ है उसकी मृत्यु अनिवार्य है, यह प्रकृति स्थिर नहीं, बदलाव की मुहताज है। बदलाव लाना और बदलना ईश्वर का नियम है और ईश्वर के इसी नियमानुसार जाट भी इस प्रतिदिन के परिवर्तन को अपने जीवन की दिनचर्या में शामिल करते हुए कार्यरत है। जाट यह अनुभव करता है कि जब वह ईश्वर के प्रत्येक नियम का पालन करते हुए उसकी सत्ता की सत्यता को इस धरती पर स्थापित करने के लिये दिन-रात घोर परिश्रम करता है तो फिर इन खामख्वाह के धर्मस्थलों में बैठकर क्यों समय बर्बाद किया जाए? वह झूठ के विरुद्ध लड़ता है, अन्याय के विरुद्ध लड़ता है, बेईमानी के विरुद्ध लड़ता है, प्रत्येक प्रकार की अनैतिकता के विरुद्ध लड़ता है और वह उन अधर्मियों के विरुद्ध लड़ता है जो साक्षात ईश्वर की सत्ता को न मानकर पत्थरों में भगवान को खोजते हैं। जाट का प्रत्येक आचरण सच्चाई से ओत-प्रोत है। वह अपने जीवन में प्रत्येक वह कार्य करता है जिसके करने में किसी भय का आभास न हो, जिसके करने में लज्जा और किसी प्रकार की शंका की अनुभूति न हो। वह अपने प्रत्येक कार्य में जिम्मेदार है, कर्त्तव्य पालक है, देशभक्त है। भारत की सीमाओं पर पहरा देने वाला जाट यह जानता है कि सीमापार पाकिस्तान की सीमा का पहरा देने वाला भी जाट है परन्तु देशभक्ति और वतनपरस्ती को अधिमान देते हुए वह भाई के खून की परवाह किये बिना, देश की सुरक्षा के नाम पर, सीमापार के भाइयों को गोलियों से भून देता है। इसी प्रकार पाकिस्तान की सीमा पर पहरा देने वाला जाट, अपने देशभक्ति के सदके, देश की सुरक्षा के नाम पर, भारतीय जाट भाई को भून डालता है। सन् 1943-44 में भारत की पूर्वी सीमा पर नेताजी सुभाषचन्द्र बोस की आजाद हिन्द फौज, अंग्रेज की भारतीय सेना के साथ जूझ रही थी, आजाद हिन्द फौज के हवाई जहाज पोस्टरों की वर्षा कर रहे थे जिनमें लिखा होता था कि हम तुम्हारे फौजी भाई हैं और देश की आजादी के लिये लड़ रहे हैं, तुम हथियार डालकर हमारे साथ मिल जाओ। परन्तु भारतीय सेना के बहादुर जाटों का यह संकल्प था कि हम अंग्रेज से सीमाओं की रक्षा करने के नाम पर वेतन लेते हैं, हमने सीमाओं की रक्षार्थ वफादारी की शपथ ली है, हम अपनी वफादारी को भाई के प्यार पर कुर्बान नहीं कर सकते। अतः जाट की देशभक्ति बिकाऊ नहीं है और न ही भाई के खूनी प्यार के प्रलोभन से फिसलने वाली है।

धर्मनिरपेक्षता क्या है? - धर्मनिरपेक्षता मनुष्य के जीवन के उस आचरण का नाम है जो किसी भी प्रकार के प्रलोभन तथा जाति, समुदाय, समूह, बिरादरी, भाईचारे, कुनबे, कबीले, धर्म-मजहब की परवाह किये बिना सत्य और न्यायप्रिय नियमों का पालन करे। अपने जीवन में उन सामाजिक मूल्यों की पासबानी करे जो ईश्वरीय नियमों के अनुकूल हों, अनुसार हों।

साम्प्रदायिकता क्या है? - साम्प्रदायिकता मनुष्य की उस कमजोरी का नाम है जो अपनी जाति, समुदाय समूह, बिरादरी, भाईचारे, कुनबे, कबीले, धर्म-मजहब के बचाव के नाम पर अन्यों के अधिकारों, जीवन मूल्यों, सत्य एवं सनातन आदर्शों पर डाका डाले, उन्हें छिन्न-भिन्न करे, नष्ट करे।

धर्मांधता एवं धर्मसापेक्षता क्या है? - यह वह जीवन पद्धति है जो ढोंग, पाखंड, आडम्बर, ठगी, पोपलीला, हेरा-फेरी और लूट-खसोट से ओत-प्रोत हो। सन् 1992 में विश्व हिन्दू परिषद्, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और संघ की कुंवारी बेटी भारतीय जनता पार्टी ने मिलकर अयोध्या में बनी बाबरी मस्जिद को ढाह दिया। क्यों? क्योंकि उनके अनुसार बादशाह बाबर के शासन काल से पहले वहां राम का मन्दिर था जिसे बाबर ने ढाह कर उसके स्थान पर मस्जिद बनवा दी थी। जब उनसे जाना गया कि अब आप क्या करोगे? उनका उत्तर था कि वे उस स्थान पर राम मन्दिर बनवायेंगे। राम सूर्यवंशी क्षत्रिय राजा था और बाबर सूर्यवंशी मुसलमान बादशाह था। राम और बाबर एक ही वंश के राजा और बादशाह थे, मन्दिर भी सूर्यवंशियों का था और फिर मस्जिद भी सूर्यवंशियों की थी तो सूर्यवंशियों की इच्छानुसार ही बनने और बिगड़ने चाहिएं थे।

ये हिन्दू कौन हैं? और ये मन्दिर क्यों बनाना चाहते हैं? मन्दिर इसलिये बनाना चाहते हैं ताकि उस मन्दिर में देवी-देवताओं की मूर्तियां रखी जाएं, अंधविश्वासी और धर्मांध लोग उन मूर्तियों पर चढ़ावा चढ़ाएं और उस चढ़ावे पर इनके पुजारी अपना जीवनयापन करें, उनकी आजीविका चले, उनकी बेरोजगारी दूर हो। उनके परिवार वाले, उनके वंश के लोग, भारतीय जनता पार्टी को वोट दें और उनकी सरकार बने तथा फिर इस देश में ढोंग, पाखंड, ठगी, पोपलीला, लूटमार और हेराफेरी का बोलबाला हो और मुस्टंडे मौज करें। वे लोग कौन हैं? वे हिन्दूधर्मी हैं उर हिन्दू संस्कृति के पुजारी हैं। इन हिन्दू धर्मियों ने इस देश में लाखों करोड़ों मन्दिर, शिवालय बनवा रखे हैं और उनमें देवी-देवताओं की मूर्तियाँ रखी हुई हैं जिन पर अन्धविश्वासी लोग चढ़ावा चढ़ाते हैं और उन मन्दिरों के पुजारी पुरोहित, पंडे उस चढावे को खाते हैं और मौज करते हैं। उन मन्दिरों में हिन्दू व्यापारी लोग प्रतिदिन प्रातः सांय उन मूर्तियों के सामने सिर झुका कर मिन्नतें और मुरादें मांगते हैं, उनकी आराधना करते हैं और उनका आशीर्वाद पाकर दिन में, अपने हाट-बाजार में, सारा दिन झूठ बोलते हैं, बेईमानी करते हैं, हेरा-फेरी करते हैं, खाद्यान्न में मिलावट करते हैं। यह सब उनका नित्य कार्यक्रम है जिसे उन्होंने हजारों साल से चलाया हुआ है। उस कार्यक्रम का नाम है हिन्दू धर्म और हिन्दू संस्कृति, जिसके नाम पर करोड़ों-करोड़ साधु-संतों के वेश में तिलकधारी त्रिशूल लिये घूमते हैं। वे सब दक्षिणा प्राप्त हैं, दूसरों की कमाई खाते हैं और रात-दिन अंधविश्वास का प्रचार करते हैं ताकि यह हिन्दू धर्म और संस्कृति बची रहे और वे इसी प्रकार मौज करते रहें।

ढोंगी बाबाओं द्वारा लूट

दूसरों की जेब से रुपये ऐंठना एक कला है। दूसरों को भ्रमित कर अपने मन मस्तिष्क अनुसार चलाना भी एक कला है। भारत में ये दोनों कार्य सदियों से होते आए हैं। आजकल ऐसे ढोंगी बाबाओं की तरफ भीड़ खिंची चली आती है जो दुखियों को सुखी और निर्धनों को धनी बनाने का कार्य बड़ी चतुराई से कर रहे हैं। यह गोरखधंधा सालाना कितनी टर्न-ओवर करता होगा। कसूर ढोंगी बाबाओं का नहीं, दरअसल हमारे देश की जनता का है जो दिग्भ्रमित हो गई। आज जनता में आत्मविश्वास, मेहनत व ईमानदारी की कमी के कारण वह भटक चुकी है। उसे समझना होगा कि इन ढोंगी बाबाओं के चक्कर में फंसने से कुछ हासिल नहीं होगा। - सुरेन्द्रसिंह ढाका, महम

जाट इन लोगों से पूछता है - ओ मंदिरों का चढावा खाने वाले भद्र पुरुषो! कभी कमा के भी खा लो, तुम्हारी पीढियां-दर-पीढियां बीत गईं हराम का माल खाते हुए। कुछ तो सोचो! तुम हजारों साल से समाज को खाये जा रहे हो, समाज को कुछ देना भी सीखो! समाज को चूसते-चूसते, खाते-खाते, युग बीत गए। अब कुछ देकर भी दिखा दो! अब तक समाज को दी हुई तुम अपनी कोई देन बताओ! जब तुम्हारी समाज को कोई देन ही नहीं है तो तुम उस दाता भगवान को क्या जवाब दोगे? अब तो विज्ञान का युग है, दुनियां चाँद पर पहुंच चुकी है, तुम अब भी पत्थरों में भगवान ढूंढते हो। पुनर्विवाह न करने के कारण तुम्हारी जवान विधवा बेटियां वेश्या बनती हैं, क्लबों में नाचती हैं, उनकी जवानी पर रहम करो! तुम अपने आप को समाज का उच्च वर्ग मानते हो, तुम्हें कर्म भी तो उच्च करने चाहियें। तुम सच्ची राह दिखाने वाले जाट को कोसते हो, उसे घेरने और उसकी सच्ची राह रोकने के लिये अनेकों जाल बुनते हो, उसे मिटाने के लिये सौ-सौ तरीके सोचते हो परन्तु तुम यह क्यों नहीं जानते कि जिसको राखे साइयां उसे मार सके ना कोए। जाट का खुरदरापन तुम्हें अखरता है लेकिन यह अनुभव क्यों नहीं करते कि सच्चाई हमेशा कड़वी होती है और उसका परिणाम मीठा होता है। जाट बाहर से बेशक खुरदरा हो परन्तु भीतर से अति मुलायम है। वह तुम्हें कड़वी सच्चाई भी तुम्हारे भले के लिये ही कहता है परन्तु तुम्हें सच्ची बात रास नहीं आती।

तुम मानते हो कि तुम्हारे गलत काम करने के रास्ते में जाट सबसे बड़ी रुकावट है, सबसे बड़ा रोड़ा है। तुम यह भी जानते हो कि समाज में, जाट के सिवा तुम्हें रोकने और टोकने वाला कोई नहीं है। इसीलिये तुम जाट के दुश्मन बने बैठे हो। तुम यह क्यों मानते हो कि जाट सच्ची बात केवल तुम्हें ही कहता है। जाट तो अपनी सच्ची और दो-टूक बात अन्य बिरादरियों के लोगों को भी कहता है। जाट तो तुम्हारे साथ ही व्यापारियों को भी यही उपदेश देता कि वे भी नास्तिकता छोड़ दें और भगवान की सत्ता से डर कर चोर बाजारी न करें, गरीबों का शोषण न करें, अनैतिक तरीकों से धनोपार्जन न करें। लेकिन वे भी आप की तरह हठी हैं और अपनी आदत से मजबूर हैं। जाट तो हरिजन और पिछड़ी जाति के लोगों से भी कहता है कि जो तुमने अपना पिछड़ापन दूर करने के लिये, सरकार से 25 प्रतिशत और 27 प्रतिशत आरक्षण लेकर अन्य जातियों के अधिकारों का हनन किया है या कर रहे हो वह ठीक नहीं है क्योंकि कहीं भी और कभी भी पूरी की पूरी कोई जाति न गरीब होती है और न अमीर होती। व्यक्ति गरीब होते हैं और व्यक्ति ही अमीर होते हैं। पूरी की पूरी जातियां न गरीब होती और न अमीर होती। जाट उन्हें भी कहता है कि सरकार ने तुम्हें जो यह रियायत दी है इस रियायत की राशि सरकार की जेब से न निकल कर गैर-आरक्षित जातियों की जेबों पर डाका डाला जा रहा है। सरकार अपनी वोटों की खातिर यह जो राजनैतिक द्रोह कर रही है, जो पाप कर रही है तुम उस पाप की घूंट पीकर, अपनी गरीबी दूर करने की बात कह कर, यह अनैतिक रियायत प्राप्त कर रहे हो, यह केवल पाप ही नहीं, सामाजिक अपराध भी है क्योंकि पिछले 60 वर्षों से दलित जातियां जो यह आरक्षण रूपी रियायत प्राप्त कर रही हैं उसे प्राप्त करके बहुत सारे लोग ए-श्रेणी की नौकरियां हासिल कर अमीर हो चुके हैं, कार, कोठी और बंगलों में रह रहे हैं। जाट का कहना है कि या तो उन्हें वह रियायत स्वयं छोड़ देनी चाहिए या सरकार उन्हें गैर-आरक्षित घोषित करे और वह रियायत उन मजदूरों को दी जाए जो प्रतिदिन की दिहाड़ी पर अपना गुजर-बसर करते हैं, या उन्हें दी जाए जो घुमन्तु कबीले हैं जिनका आजादी के 60 साल बाद भी कोई ठौर-ठिकाना नहीं। लेकिन जाट का यह कथन उन हरिजन और पिछड़ी जाति के लोगों को व्यापारी और पोपों की तरह नागवार गुजरता है तथा स्पष्ट, साफ और सच्ची बात कहने पर वे भी जाट को अपना विरोधी मानकर उन्हीं की हां-में-हां मिलाते हैं। इस प्रकार उन्हें तो मुफ्त में ही, हरिजन और पिछड़ी जाति के लोगों के रूप में, जाट के विरुद्ध अपने हिमायती प्राप्त हो जाते हैं। जिस कारण वे सब जाट को अकेला मानकर जाट और गैर-जाट का नारा लगा कर इकट्ठे हो जाते हैं परन्तु जाट उन सब से भी नहीं डरता और कहता है कि ये सब पापी हैं, अनैतिक हैं, इन सबका पाप इन्हें इकट्ठा किये हुए है। जिस प्रकार पचास गधे मिलकर भी एक घोड़ा नहीं हो सकते, उसी प्रकार ये पचासों पापी, अपने अनैतिक दुष्कर्मों के कारण भयभीत हैं, डरे हुए हैं तथा डर कर इकट्ठे बैठे हैं। ये मलिन आत्मा के लोग, एक आत्मबली जाट को नहीं जीत सकते, उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते, सैंकड़ों भेड़-बकरियों की एकता उस शेर के सम्मुख नहीं आ सकती जिसके पीछे उसके परोपकार की शक्ति छिपी हुई है, जिसका नाम परमेश्वर है। क्योंकि मुदई लाख बुरा चाहे क्या होता है, वही होता है जो मंजूरे खुदा होता है।

जाट ईश्वर की सत्ता को सत्य मानता है। वे पत्थरों की सत्ता को सत्य मानते हैं। पाखंडियों का भगवान मन्दिरों में वास करता है, जाट का भगवान खेत और खलिहान में रहता है। वे अकर्मण्यता और मुफ्तखोरी में विश्वास रखते हैं, जाट अपने कर्मयोग का पुजारी है। उनकी नियत लेने-देने, ठगने और लूटने-खाने तक सीमित है, जाट कमाने और कमाकर दान देने तथा दाता बना रहने में विश्वास करता है। जब वे अपनी 'खू' न छोड़ेंगे तो फिर जाट अपनी वफादारी क्यों छोड़ें? उन्होंने झूठ का दामन पकड़ कर नास्तिकता को परवान चढाया है, जाट ने सच्चाई का पल्लू थाम कर ईश्वर की आस्तिकता के गीत गाए हैं। हजारों साल से झूठ और सत्य के बीच लड़ाई का यह खेल चल रहा है। सत्य झूठ को सौ बार हराकर कहता है -

बातिल से दबने वाले ऐ आसमां नहीं हम,
सौ बार कर चुका है तू इम्तिहां हमारा।

हजारों साल से झूठ, सत्य को मिटाने में लगी हुई है परन्तु सत्य को मिटाया नहीं जा सकता है। यही बात है कि सत्यवादी जाट की हस्ती मिटाये से भी नहीं मिट रही। डा० इकबाल कहते हैं -

कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी,
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जहां हमारा।
यूनान मिश्र रोम सब मिट गए जहां से,
अब तक मगर है बाकी नामो निशां हमारा।

डा० इकबाल का कहना है कि जाट की सच्चाई के कारण उसके जवान बेटों की नजरें आसमान की ओर उठी रहती हैं, उनकी गर्दन कभी नहीं झुकती।

उकाबी रूह जब बेदार होती है जवानों में,
नजर आती हैं मंजिलें उनको आसमानों में।
गुलामी में काम आती हैं तदबीरें न शमशीरें,
गर हो यकीं कामिल तो कट जाती हैं जंजीरें।
कोई अंदाजा कर सकता है भला उसके जोरे-बाजू का,
निगाहें मर्द-मोमिन से बदल जाती हैं तकदीरें।

डा० इकबाल ने जाट को मर्दे मोमिन कहा है यानी आस्तिक मर्द। और बताया कि जब वे अपनी उकाब जैसी नजरों को आसमान पर गाड़ देते हैं यानी आत्मविश्वास में भरकर अपनी मंजिल को निहारते हैं तो उनकी तकदीरें भी बदल जाती हैं। उनके बाजुओं के दम-खम का कोई अनुमान नहीं लगा सकता। जाट को मिटाने वाले स्वयं मिट गए। यदि वह अब तक जिन्दा है तो उसकी जिंदगी का राज, उसकी सच्चाई, उसका परिश्रम, उसकी दानशीलता, अपने नेक कर्मों में सच्ची लगन और ईश्वर की सत्ता की सत्यता में प्रगाढ़ आस्था में छिपा हुआ है।

फानूस बनके जिसकी हिफाजत हवा करे,
वो शमां क्या बुझे, जिसे रौशन खुदा करे।

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External Links

References


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