Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Janm, Shaishav Aur Shiksha

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

शहीद शिरोमणि श्री करणीराम जी (जन्म 2 फरवरी, 1914- मृत्यु 13 मई, 1952): जो जाज्व्लयमान नक्षत्र की तरह नीलाकाश में समग्र आभा और दीप्ति से चमके और क्षिप्र गति से अपना करणीय कर अनंत में विलीन हो गए।

प्रथम खंड

जीवन परिचय, आदर्श और कर्म-शौर्य की गाथा

1. जन्म, शैशव और शिक्षा

भव में नव वैभव व्याप्त करने आया।

नर को मानवता प्रदान करने आया।

संदेश नहीं मैं यहां स्वर्ग को लाया।

इस भूतल को ही स्वर्ग बनाने आया।।

करणी राम जी का जन्म

श्री करणी राम जी का जन्म माघ शुक्ला सप्तमी संवत 1970 तदनुसार 2 फरवरी सन 1914 को झुंझुनू जिले के ग्राम भोजासर में एक गरीब किसान परिवार में हुआ था।

भोजासर का इतिहास

शहीद करणीराम मील का जन्म स्थान भोजासर

भोजासर जिला मुख्यालय झुंझुनू से लगभग 20 किलोमीटर दूर पश्चिम में स्थित है। यह गांव आज से लगभग 400 वर्ष पूर्व बसाया गया था। इस गांव के बसने की निश्चित तिथि असाढ़ बदी 1 संवत 1632 (=1575 ई.) बताई जाती है।

इस गांव को बसाने वाला भोजा नाम का व्यक्ति था जो जाट जाति के मील गोत्र का था। उसके नाम पर इस गांव का नाम भोजासर पड़ा। भोजासर बसाने से पहले भोजा व उनके पूर्वज रोहिली ग्राम में रहते थे । रोहिली गांव झुंझुनूसीकर के लगभग बीच में स्थित था। सामरिक दृष्टि से इसकी स्थिति बहुत महत्वपूर्ण थी। राजा नवल सिंह ने अपने शासनकाल में यहां एक गढ़ का निर्माण कराया तथा इस गांव का नाम बदलकर नवलगढ़ रख दिया जो कालांतर में झुंझुनू जिले का प्रमुख व्यवसायिक एवं शैक्षणिक केंद्र बन गया । रोहिली गांव में भोजा के पूर्वजों ने एक बावड़ी का निर्माण करवाया था जो कुछ समय पूर्व तक नवलगढ़ में मौजूद थी। नवलगढ़ के बावड़ी गेट का नाम भी इस बावड़ी के कारण है।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-1

सामरिक केंद्र होने के कारण भोजा के पूर्वजों ने शांतिपूर्वक जीवन यापन के लिए रोहिली गांव छोड़ दिया और वर्तमान सीकर जिले के कोलिडा गांव में बस गए। कोलिंडा ग्राम सीकर के अधीन था। इस गांव में अधिकांश मील गोत्र के जाट परिवार रहते थे। सीकर के राव राजा का वहां के जाटों के साथ सदा ही टकराव रहा। दिन प्रतिदिन के अत्याचारों से तंग आकर भोजा ने कोलिंडा गांव भी छोड़ दिया तथा झुंझुनू के कायमखानियों के अधीन किसी क्षेत्र में आकर बस गए जिसे अब भोजासर कहा जाता है।

शेखावाटी के टीलों से भरे पूरे इस क्षेत्र में पीने के पानी के अभाव में कम वर्षा के कारण गांव का विस्तार बहुत धीरे-धीरे हुआ । फिर भी शासन के साथ टकराव ना होने के कारण यहां का जीवन शांत एवं व्यवस्थित बना रहा। कृषि ही यहां के लोगों का एकमात्र जीवन आधार थी। वर्षा पर निर्भर होने के कारण आर्थिक संकट बना ही रहता था।

किसान सरल हृदय और धर्म प्रिय होता है। अतः गांव में भगवान की मूर्ति स्थापित कर एक छोटा सा मंदिर बनाया गया। यह काम एक महात्मा जी ने किया। उन्होंने बाहर से ठाकुर जी की मूर्ति लाकर गांव के एक कोने पर छोटी सी गुमट्टी बनाकर स्थापित की। आगे चलकर इस मंदिर को कुछ बड़ा आकार मिला। इस मंदिर में उत्कीर्ण एवं अभिलेख से ज्ञात होता है कि यहां भगवान की मूर्ति का संस्थापन आषाढ़ वदी 1 स. 1862 (=1862 ई.) को किया गया था। आज भी ग्राम में एक मात्र यही मंदिर मौजूद है।

ग्राम में पीने के पानी का तब एक ही कुंवा था। बार बार जीर्णाोदार होने से कोई भी प्राचीनता का द्योतक कोई अवशेष नहीं रहा है। गांव में जाटों की घनी बस्ती है जिनमें अधिकांश मील कुल के हैं।

शेखावाटी में सत्ता का परिवर्तन हुआ। अनेक वर्षों से राज करने वाले कायमखानी नवाब दिल्ली की सल्तनत कमजोर होने से बेसहाय हो गए और उन्हें जयपुर नरेश सवाई जयसिंह की कृपा पर आश्रित रहना पड़ा। कुछ वर्षों तक राज्य


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-2

करने के बाद शेखावटी भूभाग का कायमखानी शासन अस्त हो गया और उसकी जगह शेखावतों ने ली।

शार्दुल सिंह की मृत्यु पर विक्रम की 19 वी सदी के प्रारंभ में उनके अधीनस्थ भूभाग का उनके पांच पुत्रों में समान बटवारा हुआ क्योंकि अन्य राजकुलों में पिता के मरने पर पाटवी पुत्र को राज मिलता था और छोटे भाइयों को गुजारे के लिए कुछ गांव मिलते थे शेखावतों में समान बंटवारे का सिद्धांत था। इस सिद्धांत के अनुसार कायमखानी नवाबों से ली गई भूमि को उन्होंने बराबर बांट लिया। इस बाट के अनुसार भोजासर ग्राम खेतड़ी ठिकाने के नीचे आ गया तबसे जागीरदारी पूर्ण ग्रहण तक यह गांव खेतड़ी राज्य के अधीन ही बना रहा।

भोजासर के किसानों की स्थिति सामान्य थी। आर्थिक दृष्टि से वे सफल नहीं थे। एक फसली इलाका था, जिसमें इंद्र देवता की कृपा के कारण कई कई साल अकाल पढ़ते थे। किसान की मेहनत ही उसका बल था जो कुछ भी पैदा करता उसी में संतोष था। मोटा खाना, मोटा पहनना, ना अधिक प्राप्त करने की महत्वाकांक्षा, ना उसकी प्राप्ति के साधन, सदियों से संतोष का पारंपरिक सुखी निष्कपट जीवन किसान जी रहा था। शिक्षा का नाम मात्र भी साधन आस पास नहीं था। 'मसि कागद छूयो नहीं' कहावत वाली स्थिति थी।

गांव में आर्य समाज का प्रचार प्रारंभ हो चुका था जिससे जागृति का प्रभात कालीन प्रकाश फैलने लगा था। चौ.हरदा राम जी इस में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे थे। हरदा राम जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने परंपरा को तोड़कर अपनी पौत्री का विवाह आर्य समाज विधि से संपन्न कराया था। इस गांव के श्री लादूराम ब्राह्मण भी कर्मकांड के खिलाफ थे तथा प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। आगे चलकर हरदा राम जी के भतीजे चो. थानी रामजी, श्री कालूराम जी व श्री जगन सिंह जी ने इस काम को आगे बढ़ाया और उन्होंने झुंझुनू जिले के प्रमुख व्यक्तियों में अपना स्थान बना लिया ।

करणी राम जी का परिवार

करणीराम मील की बहन नारायणी देवी
करणीराम मील के भाई डालूराम

करणी राम जी के पिता का नाम देवाराम जी था। देवाराम जी अनपढ़ व्यक्ति थे। बड़े सीधे साधे, सच्चे और अपना पूरा ध्यान खेती पर केंद्रित रखने


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वाले। गांव में उनकी व उनके परिवार की अच्छी प्रतिष्ठा थी। देवाराम जी के पास जमीन, बैलों की जोड़ी, बाड़ा व मकान थे। मकान हालांकि कच्चा था पर काफी लंबा-चौड़ा था। उनका बड़ा संयुक्त परिवार था। उन दिनों गांव में पक्का मकान था ही नहीं। करणी राम जी का जन्म कच्चे फूंस की टापरी में हुआ था। आज की दृष्टि में वह संपन्न परिवार नहीं था पर वह जमाने में बैलों की जोड़ी, संयुक्त लंबा परिवार, खेती आदि हैसियत की प्रतीक मानी जाती थी। इस वजह से अपने जमाने के झुंझुनू इलाके के शीर्षस्थ चौधरी टीकू राम जी ने अपनी पुत्री चीमा बाई को देवाराम जी से ब्याही। पुत्र रत्न, प्राप्त होने पर देवाराम जी के समस्त भरे पूरे परिवार एवं मोहल्ले भर में खुशी की लहर दौड़ गई।

श्री करणी राम जी के एक बड़ी बहन थी जिसका नाम नारायणी देवी है। उनके जन्म के समय बहन की उम्र 3 साल थी। श्री करणी राम जी के जन्म के करीब 3 साल बाद उनके छोटे भाई डालूराम का जन्म हुआ। दो पुत्र और एक पुत्री के होने से घर में अमन चैन और आनंद था। मां अपने बच्चों का बड़े प्रेम से लालन पालन करती थी । वह स्वयं एक संपन्न और संस्कारवान परिवार की थी। अतः अपनी संतान में भी अच्छे संस्कार डालने के लिए प्रयत्नशील थी । लेकिन विधि की विडंबना कौन जानता है। किसी को सपने में भी खयाल ना था की दूसरे पुत्र के जन्म के 1 साल बाद ही कोई अनहोनी घटना होने वाली है। सवंत 1975 इस परिवार के लिए दुर्भाग्य लेकर आया। सवंत 1975 टपकाली की साल कहलाती थी। इस टपकाली का नाम लेते ही आज भी गांव के बड़े बूढ़ों के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। सैकड़ों लोग इस बीमारी की चपेट में आ गए । लोग घर गांव छोड़कर भागने लगे। यह टपकाली एक महामारी थी। उस समय देहातों में किसी प्रकार की चिकित्सा की सुविधाएं उपलब्ध नहीं थी। यह महामारी देवाराम जी के घर में घुसी और उनके परिवार की खुशी छीनकर ले गई। करणी राम जी की माताजी इस महामारी की शिकार हुई, और सदा के लिए इस संसार से विदा ले गई। नियति के क्रूर हाथों ने इस सुखी परिवार को एक तरह से झकझोर कर रख दिया। अबोध शिशु बिलखते रह गए। देवाराम जी के लिए नन्हे नन्हे बच्चों का पालन पोषण करना अत्यंत दुष्कर हो गया। माता की मृत्यु


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के समय करणी राम जी की उम्र करीब 4 साल, बहन की 7 साल अनुज की उम्र करीब 1 वर्ष थी।

यह भी एक अजीब संयोग था की करणी राम जी की मां चीमा बाई और उनकी नानी यानी चीमा बाई की मां दोनों की मृत्यु दो-चार दिन के फासले से हुई और दोनों को एक दूसरे के मरने की खबर तक नहीं हुई।

ननिहाल में परवरिश

विपत्ति की इस घड़ी में देवाराम जी के ससुराल पक्ष ने साथ दिया। उनका ससुराल गांव अजाड़ी में था। उनके ससुर चो. टीकू राम जी संपन्न एवं सरल व्यक्ति थे । वे कई गांवों के चौधरी डूंडलोद ठिकाने की ओर नियुक्त थे। उनके नाम बाढ़ था तथा 1800 रुपए की चौधर उनके नाम उनके नाम स्वीकृत थी। यह एक अच्छा खाता पिता परिवार था।

करणीराम मील की मामी चावली देवी

चीमा देवी की गमी में भोजासर बैठने गए तभी करणी राम जी के नाना करणी राम जी व उनकी बड़ी बहन नारायणी देवी को अपने गांव में ले आए। दोनों को बेहद प्यार व अच्छा लालन-पालन मिला। अपने नाना के घर दोनों भाई बहन बड़े होने लगे। उनकी मामी चावली देवी, जो प्यार और समर्पण की साकार मूर्ति थी, ने करणी राम जी को बहुत प्यार दिया और अपने औरस पुत्रों से भी अधिक ध्यान करणी राम जी पर लगाया। मैं तो उन्हें यशोदा माता का दर्जा देता हूं जिन्हें कृष्ण जैसा करणी राम का लालन पालन करने को मिला।

करणी राम जी में सरलता, सच्चाई एवं उत्सर्ग की भावनाओं के संस्कार उनकी मामी चावली देवी से ही मिले। जिस किसी ने एक महान महिला को देखा है वे जानते हैं कि अतिथियों की सेवा और बीमार आदमियों की सेवा वे कितने निस्वार्थ भाव से करती थी। करणी राम जी के कोमल हृदय पर वे संस्कार अमिट रूप से अंकित हो गए। सेवा का अनवरत व्रत करणी राम जी ने अपनी मामी से ही सीखा। वे अनुनय भाव से अपनी मामी को कहते थे की मामी तू यों ही रोटी पो-पो कर लोगों को खिलाती हुई तथा बीमारों की सेवा करती करती ही मर जाएगी-कभी तो आराम किया कर।


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श्री मोहनराम अजाड़ी, करणीराम मील के मामा

करणीराम जी के मामा मोहनराम जी उर्दू फारसी पढ़े हुए सुशिक्षित व्यक्ति थे। वे डूंडलोद ठिकाने में हाकीम थे। ठिकानेदार एवं काश्तकारों के बीच अच्छे संबंध बनाए रखने में सिद्धहस्त थे। इलाके में उनकी बड़ी मान्यता थी। करणी राम जी के मामा जी भी उन्हें अपने बेटे से भी ज्यादा प्यार देते थे। मामा के घर पर रोजाना आने जाने वालों की भीड़ लगी रहती थी। मेहमानों से घर भरा रहता था। सभी को खाना पीना और सब तरह की सुख सुविधाएं मिलती थी। मेहमानगिरी का सारा भार उनकी मामी जी पर होता था। ऐसे माहौल में करणी राम जी बड़े होते गए। मोहन राम जी के बड़े पुत्र हनुमान राम जी करणी राम जी के हम उम्र थे।

शेखावटी के देहातों में उन दिनों शिक्षा का नामोनिशान न था। लोगों के दिल में शिक्षा के प्रति कोई रूचि और सम्मान भी नहीं था। लेकिन मोहन राम जी को शिक्षा के प्रति बड़ा लगाव था। पढ़े-लिखे व्यक्तियों और बच्चों से बातचीत करने के लिए उत्सुक रहते थे। उन दिनों इस इलाके में आर्य समाज का जबरदस्त प्रचार था। आर्य समाज के जोशीले कार्यकर्ता शिक्षा के प्रति लोगों का रुझान पैदा करते थे तथा समाज में फैली कुप्रथाओं पर करारा प्रहार करते थे। करणी राम जी लगभग 11 से 12 वर्ष के हो चुके थे। अतः उनको शिक्षा दिलाने की और स्वभावतः उन्होंने ध्यान दिया। वे करणी राम जी को बहुत अच्छी शिक्षा दिलाना चाहते थे। लेकिन आसपास कहीं कोई प्राइमरी स्कूल तक नहीं थी।

बुगाला गांव की पाठशाला में

बुगाला गांव में जो अजाड़ी से 5 से 6 किलोमीटर दूर है उन दिनों प. ओंकार लाल जी एक छोटी सी पाठशाला चलाते थे। मोहन राम जी ने करणी राम जी और अपने स्वयं के पुत्र हनुमान राम को पढ़ने के लिए इसी पाठशाला मैं भर्ती कराया। उन दिनों पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी। कुछ गांवों में प. ओंकार लाल जी जैसे ब्राह्मण कुल के गुरु अपने घर में ही पढ़ने की व्यवस्था करते थे और पढ़ने वाले बच्चों के घरों से सीधा के रूप में आटा, घी आदि उनके भरण पोषण के लिए आया करता था।


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करणीराम जी ने ऐसे ही गुरु के पास शिक्षा प्रारंभ की। उनके भाई हनुमान राम जी ने भी उनके साथ पढ़ना प्रारंभ किया । इस स्कूल में पढ़ाई की अच्छी व्यवस्था नहीं थी। स्कूल में पढ़ाई नाम मात्र की ही थी परंतु फिर भी करणीराम जी की पढ़ाई में अत्यधिक लग्न एवं रुचि थी। करणीराम जी की इस लगन, रुचि एवं अन्य गुणों का प्रभाव ओंकार लाल जी पर इतना पडा कि वे कहा करते थे कि यह स्कूल ढ़ाई आदमियों के बलबूते पर चलती है - एक मैं, दूसरा करणीराम तथा आधा बुगाला निवासी भैरूबनिया। इस प्रकार स्वयं गुरु ओंकार लाल ने करणी राम को अपने विद्यालय का स्तंभ माना। वास्तव में बचपन में ही होनहार बच्चों के गुण मुखरित हो जाते हैं। इसलिए तो कहा जाता है कि होनहार बिरमान के होत चिकने पात।

जयपुर रियासत में उन दिनों छठी की परीक्षा भी बोर्ड से संचालित होती थी। यह सन 1931-32 की बात है। करणी राम जी इसी स्कूल से छठी क्लास पूरी नहीं कर सके। उन्होंने प्रारंभिक शिक्षा ही ली। मोहन राम जी अपने भांजे करणी राम जी को अच्छी से अच्छी शिक्षा दिलवाना चाहते थे अतः वे लोगों से पूछताछ किया करते थे । उनको जानकारी मिली की उनके गांव से करीब 40 मील उत्तर में अलसीसर में एक अच्छी स्कूल है। वह मिडिल स्कूल थी। करणी राम जी और हनुमान राम जी के वहीं पढ़ने के लिए भर्ती कराया गया।

अलसीसर मिडिल स्कूल में

अलसीसर मिडिल स्कूल में कुछ ही दिन हुए थे कि करणी राम जी का मन नहीं लगा। अतः पढ़ाई छोड़ कर अपने गांव अजाड़ी आ गए। मोहन राम जी इस बात को कहां पसंद करने वाले थे। उन्हें बहुत बुरा लगा और नाराज होकर करणी राम जी को बोले कि अगर हमारे पास रहोगे तो पढ़ना होगा अन्यथा अपने गांव जाकर रेवड़ चराओ। मामा जी कि इस बात का उनके दिल पर बड़ा प्रभाव पड़ा। बे वापस अलसीसर लौट गए और दृढ़ निश्चय पूर्वक पढ़ाई में जुट गए।

इस स्कूल में पढ़ाई की व्यवस्था अच्छी थी । यहीं से सन 1934 में करणी राम जी ने प्रथम श्रेणी में आठवीं कक्षा पास की। पहले यह अलसीसर की


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स्कूल छठी क्लास तक थी और इसके हेड मास्टर श्री मान सिंह जी थे। मिडिल स्कूल होने पर इसके हेड मास्टर श्री कैलाशपति सिंह बने।

अलसीसर स्कूल में इनके साथ पढ़ने वाले अनेक सहपाठी आज भी मौजूद है। प. शिव चंद्र शर्मा जो उनके सहपाठी थे आजकल मंडावा कस्बे में सेवानिवृत अध्यापक का जीवन-यापन कर रहे हैं। उनका कहना है कि करणी राम जी बाल्य-काल में ही बड़ी गंभीर प्रकृति के थे। बच्चों वाली चंचलता एवं काम से जी चुराने की प्रवृत्ति उनमें नहीं थी। वे प्राय अपने काम में लगे रहते थे। अपनी कक्षा के वे सर्वोत्तम विद्यार्थी गिने जाते थे। उनके एक अन्य स्कूल-साथी कर्नल भगवान सिंह ने बताया कि वे छात्र जीवन में भी उच्च आदर्शवादी व्यक्ति थे। उनमें राष्ट्रीय प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ था। लड़ाई झगड़ों से हमेशा दूर रहते थे। लोगों को नेक सलाह देते। सीधे, सरल और सच्चे इंसान थे। गांव के लोगों में आपसी समझौता कराने एवं भाईचारे की बातें कहते थे।

चिड़ावा हाई स्कूल में

सन 1934 में अलसीसर से आठवीं परीक्षा पास कर वे चिड़ावा हाई स्कूल में भर्ती हुए। स्कूल के प्रधानाध्यापक प्यारेलाल जी गुप्ता थे। राष्ट्रीय संघर्ष में उनका बड़ा योगदान रहा था। प्यारे लाल जी ने सामनतो अत्याचारों के खिलाफ भी संघर्ष किया था। कहते हैं कि जागीरदारों ने उन्हें घोड़े की पूंछ से बांध कर मीलों तक घसीटा था तथा तरह-तरह की यातनाएं दी थी। ऐसे राष्ट्र-प्रेमी एवं मुखरित व्यक्ति के धनी प्यारे लाल जी ने इस स्कूल के बच्चों में राष्ट्र प्रेम एवं सामाजिक जागृति के बीज अंकुरित किए। करणी राम जी के जीवन पर भी उनका अत्यधिक प्रभाव पड़ा और मैं सोचता हूं कि ऐसे गुरु के वरदहस्त के नीचे उनके भावी जीवन की रूपरेखा एवं दिशा निर्धारित हुई। इस स्कूल से करणी राम जी ने सन 1936 में दसवीं परीक्षा पास की।

बिड़ला कॉलेज पिलानी में

हाई स्कूल पास करने के बाद करणी राम जी बिड़ला इंटरमीडिएट कॉलेज में भर्ती हुए। यह कॉलेज बिरला बंधुओं द्वारा संचालित थी। उनके साथ पढ़ने


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वालों में अजाड़ी के हर नंदराम जी है जो आजकल एडवोकेट है तथा भोजासर ग्राम के करणी राम के चचेरे भाई राधा किशन जी है जो बाद में बिरला एजुकेशन ट्रस्ट की ओर से शिक्षा अधिकारी नियुक्त हुए।

करणी राम जी का पूरा ध्यान पढ़ाई पर केंद्रित रहता था। वे अन्य प्रवृत्तियों में विशेष रुचि नहीं रखते थे। इस समय तक कॉलेज में विद्यार्थियों का संगठन उभरने लगा था। करणी राम जी ने इस संगठन के किसी पद के लिए चुनाव नहीं लड़ा हालांकि विद्यार्थियों में वे अति प्रिय थे और सभी प्रकार से चुनाव लड़ने हेतु समर्थ थे। प्रसिद्ध शिक्षा शास्त्री श्री शुक् देव पांडे इस कॉलेज के प्रिंसिपल थे। बे पहले बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में प्रोफेसर थे और विश्वविद्यालय में पं. मदन मोहन मालवीय जी के पांच रत्नों में से एक थे। सेठ घनश्याम दास जी बिरला उन्हें मालवीय जी से अनुनय कर मांग कर लाए थे। करणी राम जी को इस महान एवं आदर्श व्यक्ति के निकट रहने का अवसर मिला। सदाचार, राष्ट्र प्रेम एवं देश भक्ति के जो बीज चिड़ावा हाई स्कूल में अंकुरित हुए थे वे पांडे जी के प्रेरणा से पल्लवित एवं पुष्पित होने लगे। सन 1938 में बिरला इंटरमीडिएट कॉलेज से उन्होंने इंटरमीडिएट परीक्षा पास की।

तत्कालीन राजनीतिक स्थिति

सन 1938 के तत्कालीन राजस्थान में चल रही वेगपूर्ण गतिविधियों का उल्लेख और उनके परिप्रेक्ष्य में करणी राम जी के ईद गिर्द झुंझुनू जिले की राजनैतिक, सामाजिक एवं प्रशासनिक व्यवस्था पर विहंगम दृष्टिपात अपेक्षित है ताकि करणी राम जी के व्यक्तित्व को बताने वाली परिस्थितियों का ज्ञान हो सके।

इस समय देश का राजनीतिक घटना चक्र तेजी से घूम रहा था। जागीरदारी अत्याचारों के कारण सारा शेखावटी इलाका एक तनावपूर्ण वातावरण से गुजर रहा था। कृषकों की सोई शक्ति जाग उठी थी जिसको जगाने के लिए कई नेता मैदान में आ गए थे। सरदार हरलाल सिंह जी, चौधरी नेतराम जी, श्री तारकेश्वर जी शर्मा, श्री नरोत्तम लाल जी जोशी, श्री संत कुमार जी औरचौधरी घासीराम जी प्रमुख थे।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-9

इलाके में जगह-जगह किसान सभायें होती और बेजा लगान तथा अनुचित लागबागों का विरोध होता। सामाजिक असमानता को दूर करने के लिए किसान उठ खड़े हुए थे। इन आंदोलनों, सभा सम्मेलनों की चर्चा छात्रों में बराबर चलती रहती थी। पिलानी में किसानों के लड़के अच्छी संख्या में पढ़ते थे। वे भी बराबर इन सम्मेलनों में भाग लेते और राजनीतिक शिक्षा के काम को आगे बढ़ाते। अधिकतर छात्र राजनीति की ओर अग्रसर थे। श्री करणी राम जी भी इस क्षेत्र में होने वाली गतिविधियों से पूरी तरह परिचित रहते। सभादि सम्मेलनों में जाते पर उन्होने मूल उद्देश्य शिक्षा प्राप्ति से अपना ध्यान कभी नहीं हटाया। उनका कहना था कि विद्यार्थी का पुनीत कर्तव्य शिक्षा प्राप्ति है अतः पहले उस ध्येय की पूर्ति करनी चाहिए।

जाट महा सभा

कुछ वर्षों पूर्व सन 1931-32 में झुंझुनू में जाट महासभा का बड़ा जलसा संपन्न हो चुका था। इसका आयोजन प्रसिद्ध कृषक नेता पन्ने सिंह जी देवरोड़ ने सफलतापूर्वक किया था। इससे जागृति की जो लहर फैली उसने इलाके के कोने-कोने को अपनी प्रखर धार से सिक्त कर दिया। यह सम्मेलन किसानों की शक्ति का मापदंड माना गया। लगभग एक लाख लोग इस सम्मेलन में एकत्रित हुए थे। इसी समय शेखावटी के बाहर से भी लोग इस इलाके में प्रविष्ट हुए। उनमें ठा. देशराज, कुंवर रतन सिंह, अजमेर के चौधरी राम नारायण, बाबा नरसिंह दास आदि प्रमुख है। श्री करणी राम यद्यपि शिक्षा प्राप्त कर रहे थे पर वे इन गणमान्य नेताओं से बराबर संपर्क बनाए हुए थे और उनके नेतृत्व एवं प्रेरणास्पद व्यक्तित्व से बड़े प्रभावित थे।

श्री करणी राम जी की उम्र उस समय 17-18 वर्ष थी। युवा शक्ति के जोश और आक्रोश को लिए वे इस महासमर में समूचे वेग से कूद पड़ने को आतुर थे पर शिक्षा प्राप्ति का मूल उद्देश्य उनको इस कार्य से बराबर रोक रहा था। वे जानते थे कि संघर्ष लंबा चलेगा और अनेक लोगों के बलिदान के बाद ही शांत होगा। इस संघर्ष में पूरी योग्यता अर्जित करके सम्मिलित होना चाहते थे ताकि आगे चलकर जनशक्ति को समुचित नेतृत्व प्रदान कर सकें।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-10

जन आन्दोलन और आर्य समाज

शेखावाटी के जन आन्दोलन पर कुछ विस्तार से विचार करना आवश्यक लगता है। जन आन्दोलन का प्रारम्भ में एक ही उद्धेश्य था और वह या सामजिक सुधर। कृषक वर्ग में परम्परा से चली आ रही अनेक ऐसी बातें थी जिनमें सुधार करना अत्यंत आवश्यक था।

क्षेत्र में सुधारों की भावना का सूत्रपात आर्य समाज ने किया। 10 अप्रैल 1875 को मुंबई में आर्य समाज की स्थापना हो चुकी थी। स्वामी दयानंद सरस्वती इसके प्रवर्तक थे। आर्य समाज की संस्थापना के साथ ही राजनीतिक चेतना का उदय हुआ। आगे चलकर सारे देश में आर्य समाज की शाखाएं स्थापित हो गई। राजस्थान में सन 1880-1890 के बीच अनेक शाखाएं स्थापित हो गई। सन 1883 में स्वामी दयानंद ने अजमेर में परोपकारीगी सभा की नींव रखी। जून 1885 में स्वामीजी प्रथम बार राजस्थान में आए। वे करौली, जयपुर, चूरू और उदयपुर गए।

आर्य समाज की शिक्षा के चार मूल तत्व थे- स्वराज्य, स्वदेशी, स्वभाषा और स्वधर्म। सन 1875 में आर्य समाज ने प्रथम बार स्वराज्य का प्रयोग किया था। वस्तुतः आर्य समाज का आंदोलन सामाजिक एवं देशप्रेम का आंदोलन था। परंतु वह समय राजनीति पूर्णजागरण का समय था। आर्य समाज की लहर अन्य भागों की तरह शेखावाटी के ग्रामों में भी फैल गई थी।

मंडवा के सेठ देवीबक्स जी इस क्षेत्र में आर्य समाज के प्राण थे। उन्होंने अनेक कर्मठ युवकों को तैयार किया। कुछ कर्मठ लोगों को बाहर से बुलवाया ताकि इस क्षेत्र की सोई जनता को जागृत करें। पंडित कालीचरण जी शर्मा और पंडित क्षेमराज जी शर्मा उनके साथी थे। वे गांव गांव में जाकर लोगों को आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते थे। चूरू जिले के चौधरी जीवन रामजी अपने भजनों से हजारों लोगों को मंत्रमुग्ध कर देते थे। श्री सूरजमल गोठड़ा भी लोकप्रिय भजनीक थे। सरदार हरलाल सिंह ने राजनैतिक शिक्षा सेठ देवीबक्स जी से ही प्राप्त की थी। वे उन्हें अपना राजनैतिक गुरु मानते थे।


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-11

सेठ देवीबक्स जी किसी समय ठिकाने में काम करते थे। पर आगे चलकर उन्होंने यह काम छोड़ दिया था। उन्होंने ठिकाने वालों के प्रतिरोध के बावजूद मंडावा में विशाल आर्य मंदिर बनवाया था। इस कार्य में टाइ और पाटोदा के ठाकुर उनके साथ थे।

सन 1925 में जाट महासभा भी सामाजिक सुधारों की बात कहने लगी थी। एक शैक्षणिक समितियां बनी जिनका काम जाट विद्यार्थियों के लिए और छात्रावास खोलने के लिए पैसा एकत्रित करना था। देवरोड के पन्ने सिंह जी सर छोटू राम से धन राशि प्राप्त कर पिलानी में छात्रावास खोला था।

किसानों के बच्चों में शिक्षा प्रसार के काम में महाजन जातियों के संस्थानों से बड़ी मदद मिली। समाज सुधार के साथ साथ तत्कालीन सामंती शासन को उखाड़ फेंकने को भी अपना लक्ष्य बनाया। जयपुर रियासत में खालसा गांव के किसानों के मुकाबले ठिकाने के किसानों की दशा अपेक्षाकृत अधिक खराब थी। भौमियों के क्षेत्र में किसानों की दशा बड़ी दयनीय हो उठी थी।

जाट महायज्ञ

किसान शक्ति का सबसे प्रबल विस्फोट सन 1934 का सीकर में होने वाला जाट महायज्ञ था। यह 10 दिनों तक चला था 20 वीं सदी का सबसे बड़ा यज्ञ था। हर किसान ने अपने घर से एक सेर घी एक की आहुति के लिए


शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम, पृष्ठांत-12

दिया। 200 मन एकत्रित किया गया। यह यज्ञ कृषक समाज की एकता का प्रतीक था।

यज्ञ की समाप्ति पर हाथी पर चढ़कर जुलूस निकाला गया। सीकर ठिकाने के लोग नहीं चाहती थे की कोई जाट हाथी पर चढ़े। अंत में पं. खेमराज जी शर्मा को सरदार हरलाल सिंह जी के शिशु के साथ हाथी पर बढ़ाया गया और जुलूस जय जय के नारों के साथ आगे बढ़ा। 500 गांव के लोग इस महायज्ञ में एकत्रित हुए थे। लोगों की संख्या 1 लाख से भी अधिक थी। ब्रिटिश भारत से उस समय के अनेक गणमान्य नेताओं ने इस में भाग लिया था। सर छोटू राम जी भी सदल बल आए थे। जयपुर रियासत के इंस्पेक्टर जर्नल ऑफ पुलिस एफ एम. यंग भी इस महायज्ञ के समय सीकर में ही मौजूद रहे। उसके कारण भी सीकर ठिकाना इस यज्ञ पर प्रतिबंध नहीं लगा सका। प्रसिद्ध राजनीतिक नेता पंडित ताड़केश्वर शर्मा इस यज्ञ के पुरोहित थे। कृषक शक्ति का प्रबल ज्वार यज्ञ के समय फूट पड़ा था। स्थान-स्थान से लोग आए थे। यह कृषक एकता का एक अद्वितीय प्रयत्न था जिसने सोई शक्ति को जगाया और उनमें एकता व स्वाभिमान की भावना भरी।

सन 1930 में शेखावाटी में अनेक ठिकानों में जाट पंचायतें बन चुकी थी। पर आगे चलकर सन 1935 के आस पास वे किसान सभा में मिला दी गई। सन 1925 में जाट महासभा ने शेखावाटी के लोगों को आकर्षित किया था। सन 1931 में प्रजामंडल की स्थापना हुई। आगे चलकर सन 1936 में इसका पूनर्गठन किया गया। कृषक आंदोलन के कुछ नेताओं को प्रजामंडल की गतिविधियों में शामिल किया गया। इस प्रकार नगर तथा ग्राम क्षेत्र के बीच एक समन्वय और संपर्क कायम हुआ और प्रजामंडल को अपने आंदोलन को फैलाने के लिए एक ग्रामीण आधार प्राप्त हो गया।

बीसवीं सदी के तीसरे दशक में किसान सभाओं ने किसानों के दुख दर्द दूर करने की स्पष्ट मांगे रखी थी। साथ ही साथ अपने आंदोलन को तेज किया। 1935 में प्रसिद्ध सीकर किसान आंदोलन हुआ। सीकर ठिकाने ने कई मांगे मान ली। बंदोबस्त की कार्यवाही शुरू हुई और लगान को कम करने की बात कही गई। यह भी वचन दिया गया कि लगान निश्चित कर दिया जावेगा। किसानों


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के बच्चों को नौकरी आदि में शामिल करने का भी आश्वासन दिया गया। उनकी सामाजिक असमानताओं को दूर करने और उनके लिए स्कूल खोलने की इजाजत देने का आश्वासन दिया गया।

इन आश्वासनों पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। किसानों का धैर्य समाप्त हो रहा था। जगह-जगह आंदोलन शुरू हुए। सारे इलाके में अशांति फैल गई। इस समय सीकर ठिकाने का सीनियर ऑफिसर कैप्टन ए.डब्ल्यू. टी. वेव था। इस समय दो ऐसी घटनाएं हुई जिन्होंने इस समझौते को बर्बाद करके रख दिया। इस समझौते की शर्तों का प्रकाशन हिंदुस्तान टाइम्स के मार्च 15, 1935 के अंक में हुआ था। इसी प्रकार का समझौता 23 अगस्त 1934 को सीकर ठिकाने द्वारा किया गया था। ठिकाने ने इस तरह तरह की लाग-बाग हटाने और एक चल दवाखाने की स्थापना का भी आश्वासन दिया था।

खुड़ी गांव की घटना

जिन दो घटनाओं का उल्लेख किया गया है उनमें प्रथम थी खुड़ी गांव की घटना। एक जाट परिवार में शादी थी। दूल्हा तोरण मारने बारात के साथ घोड़े पर चढ़कर जा रहा था। गांव में राजपूतों की बस्ती थी उन्होंने दूल्हे के घोड़े पर चढ़कर तोरण मारने का अपना अपमान समझा और बड़ी संख्या में शस्त्र लेकर एकत्रित हो गए। उधर जाट भी पूरी तरह संगठित थे। दोनों और से भिड़ंत की पूरी तैयारी थी। सीकर की पुलिस भी तनाव के समय उपस्थित थी पुलिस ने जाटों को भी बिखरने के लिए कहा पर वे वही डटे रहे। इस पर ठिकाने को पुलिस ने हमला किया। इसमें कई लोग जान से मारे गए और अनेक घायल हुए।

कुंदन कांड

दूसरी घटना कुंदन गांव की थी। वहां ठिकाने के राजस्व अधिकारी बढ़ी हुई दर पर समझौते के विरुद्ध लगान वसूल कर रहे थे। जबरदस्ती हो रही थी और लोगों को जबरन अपनी संपत्ति से वंचित किया जा रहा था। किसान वहां भी संगठित हो गए और उन्होंने प्रतिरोध किया। पुलिस ने गोली चलाई जिसमें अनेक किसान मारे गए और बड़ी संख्या में लोग आहत हुए। इस पर भी ठिकाने


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की पुलिस ने 104 किसानों को गिरफ्तार कर लिया। यह घटना संभवत: 24 अप्रैल 1935 की है। किसान और सामाजिक समानता प्राप्त करने के लिए तुले हुए थे।

कैप्टन वेब का कुंदन की घटना के बाद एक वक्तव्य प्रसारित हुआ था जिसमें उसने वादा तोड़ने आदि के निराधर आरोप कृषक नेताओं पर लगाए थे। उसने धमकी देते हुए कहा था कि इसके भयंकर परिणाम उन्हें भुगतने होंगे। उसने आगे ठिकाने की नीति को अपनी इच्छा अनुसार चलाने की बात भी कही थी।

इन घटनाओं के कारण सीकर इलाके की जाट पंचायत और किसान सभा को 10 अप्रैल 1935 को गैरकानूनी घोषित कर दिया गया। इसके साथ ही राज्य में जनजागृति का काम कर रहे नेताओं को राज्य के बाहर निकाल दिया गया। उन पर आरोप लगाया लगाया गया कि वे ठिकाने के किसानों को आंदोलन के लिए उकसा रहे हैं। ऐसी परिस्थिति में संघर्ष की स्थिति फिर बन गई जो स्वतंत्रता प्राप्ति के समय तक जारी रही।

शेखावाटी में सन 1936 से 1937 के आसपास इस राजनैतिक वातावरण के समय इस क्षेत्र के भावी नेता श्री करणी राम पिलानी में अपनी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। छात्रों में इन नित नई घटनाओं के कारण एक अजीब तरह जोश और आक्रोश था। वे स्वयं इस संग्राम में कूद पड़ने को व्यग्र हो रहे थे पर अभी समुचित अवसर नहीं था। जिस समय श्री करणी राम पिलानी में अध्ययन कर रहे थे उस समय एक महत्वपूर्ण घटना घटी जिसने कुछ समय के लिए जयपुर रियासत की सहानुभूति कृषकों की ओर मोड़ दी थी। उस समय ठिकाने अपने क्षेत्र में निकलने वाले खनिज पदार्थ के खुद मालिक थे और उनकी अपनी जगात थी जबकि राज्य के अन्य भागों में जयपुर राज्य स्वयं खनिजों का मालिक था और उसकी अपनी जगात लगती थी।

विल्स रिपोर्ट (Wills Report)

सन 1933-34 में जयपुर राज्य में इस प्रश्न पर विचार करने के लिए तीन व्यक्तियों की एक समिति का गठन किया। इस समिति का अध्यक्ष सी. यू. विल्स (C.U.Wills)


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नामक एक सेवा निर्वत आई. सी. एस. अधिकारी था। दो अन्य सदस्य थे जयपुर राज्य के चीफ न्याय अधिकारी श्री शीतला प्रसाद वाजपेयी और कोटली के श्री महेंद्र पाल सिंह जो यू.पी. सिविल सर्विस के सदस्य थे।

विल्स ने सीकर, मुंबई, पाटन, पंचपाना आदि के संबंध में अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की। विल्स ने जयपुर के अनेक कागजातों के आधार पर सिद्ध किया कि शेखावाटी के ठिकानेदारों ने तलवार से यह भूमि नहीं जीती है बल्कि इनको यह भूमि जयपुर महाराजा से इजारे में मिली है। ऐसी अवस्था में उनकी कोई स्वतंत्र सत्ता नहीं है।अत: न वे जगात लगा सकते हैं तथा न खनिज ही ले सकते हैं।

इससे जागीरदारों में बड़ी खलबली मची। उन्होंने लखनऊ के बैरिस्टर मि. जैकसन को अपना वकील बनाकर अपना केस प्रस्तुत किया। इस संबंध में निर्णय करने के लिए बनी कमेटी ने रिपोर्ट और उसके उत्तर पर विचार करके विल्स के पक्ष में निर्णय दिया। अब जागीरदारों को खनिज संबंधी अधिकार नहीं रहे।

इस अवधि में राज्य से जागीरदारों के संबंध तनावपूर्ण हो गए जिसका लाभ यतकिंचित कृषक आंदोलन को मिला। कहते हैं की इस्पेक्टर जनरल यंग का अनेक किसान नेताओं से बड़ा मेलजोल था जिससे ठिकानेदारों के मुकाबले इस अवधि में उसने किसानों की थोड़ी बहुत मदद अवश्य की थी।

इस निर्णय के पूर्व जागीरदारों की जकात लगती थी। इस जकात को वे लोग बहुधा इजारे पर देते थे और इजारेदार एक निश्चित रकम वसूल कर लेते थे। इजारेदार पूरी सख्ती करता था तथा न्याय अन्याय में कोई भेद नहीं करता था जागीरदारों के ज़ाकत के अधिकार छीनने से यह आशा बलवती हो चली थी कि अब इनके भू-राजस्व संबंधी अधिकार भी धीरे-धीरे कम हो जाएंगे।

स्नातक स्तरीय अध्ययन

जैसा ऊपर उल्लेख किया जा चुका है करणी राम जी ने अपने पिताजी से सन 1938 में इंटर मीडिएट परीक्षा पास की। चौ. मोहन राम जी के दिल में


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करणी राम जी को उच्च शिक्षा दिलाने की बड़ी तमन्ना थी। करणी राम जी भी बड़े विद्दानुरागी थे मोहन राम जी की आकांक्षाओं के अनुरूप साबित हो रहे थे। उन्हें स्नातक शिक्षा हेतु महाराजा कॉलेज जयपुर में भर्ती कराया गया। उस समय खेतड़ी ठिकाने की ओर से ठिकाने के विद्यार्थियों को वजीफा मिलता था। प्रत्येक विद्यार्थियों को 8/- रुपए महिया वजीफा मिला करता था। यह राशि श्री करणी राम जी तथा उनके साथ पढ़ने वाले खेतड़ी ठिकाने के अन्य विद्यार्थियों को मिलती थी। पढ़ने वाले विद्यार्थियों को यह प्रोत्साहन केवल खेतड़ी ठिकाने से ही मिलता था बाकी ठिकानेदार तो शिक्षा ग्रहण करने में बाधा एवं रुकावटें डालते थे।

खेतड़ी ठिकाना प्रगतिशील नीतियों का अनुसरण करता था। इस ठिकाने के राजा अजीत सिंह जिन का शासन काल सं. 1927 से सं. 1957 तक रहा बड़े उदार शासक थे। जयपुर राज्य में खेतड़ी ही एक ऐसा ठिकाना था जहां बंदोबस्त कराने के उपरांत काश्तकारों को खतौनीया बांट दी गई थी। काश्तकारों पर कोई अत्याचार या वेदखली नहीं की जाती थी। लाग-बाग भी न्यूनतम थी। राजा अजीत सिंह पर स्वामी विवेकानंद का प्रभाव था। उनके दिल में शिक्षा के प्रति गहरा प्रेम था तथा प्रजा के साथ अच्छा व्यवहार था।

खेतड़ी हाउस जयपुर में निवास

करणी राम जी और उनके साथी जयपुर में खेतड़ी हाउस मे रहते थे। ग्राम भोजासर के ही उनके सम व्यस्क और चचेरे भाई श्री राधा कृष्ण उनके साथ रहते थे और महाराजा कॉलेज में ही पढ़ते थे। अन्य सहपाठियों मे थे-अजाड़ी के हरनंदराम जी जो आज भी झुंझुनू में वकालत करते हैं, कोटपूतली के श्री रामेश्वर प्रसाद गुप्ता जो खेतड़ी ठिकाने में आगे जाकर तहसीलदार बने, खेतड़ी के श्री दुर्गा प्रसाद शर्मा/ कोटपूतली के श्री हर दयाल शर्मा, अलवर के श्री रामजी लाल आदि थे। वे खेतड़ी हाउस में सईसों की कोठड़ी में रहते थे। खाना पकाने के लिए 5/- रुपए प्रति महीने पर एक ब्राह्मणी रखी हुई थी। खाना बनाने के बर्तनों का अभाव था सिर्फ एक देगची थी। कॉलेज में सिनेमा के विज्ञापनों के जो कागज आते उनको कॉलेज से साथ ले आते उन्ही पर रोटी रखकर खा लेते थे। इसका मतलब


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यह नहीं की उनकी आर्थिक हालत खराब थी बल्कि यह उस समय के विद्यार्थियों के सरल एवं साधे जीवन का परिचायक है।

व्यायाम प्रेमी

करणी राम जी के साथ पढ़ने वाले बताते हैं कि उन्हें कसरत का बड़ा शौक था। नित्य प्रति व्यायाम करते थे। खेतड़ी हाउस से महाराजा कॉलेज तक पैदल जाया करते थे। खेतड़ी हाउस में सिंचाई के लिए पानी का पंप था उसी के नीचे बैठकर खुले में स्नान करते थे। पढ़ाई लिखाई का काम दिन में ही कर लिया करते थे क्योंकि रात्रि में रोशनी की व्यवस्था नहीं थी। प्राय: वे खादी का अंगोछा अपने साथ रखते थे और शरीर को पूछते रहते थे। उन्हें सफाई का बड़ा ख्याल रहता था।

वे कला के विद्यार्थी थे लिखने पढ़ने में विशेष रूचि लेते थे। उन दिनों जयपुर में सिनेमा का प्रचार हो चला था। ग्रामीण क्षेत्र से आए लोग सिनेमा के प्रति विशेष आकर्षण रखते थे पर करणी राम जी कभी सिनेमा नहीं जाते थे।

सादा जीवन उच्च विचार

श्री करणी राम सादा जीवन उच्च विचार से आस्था रखते थे हमेशा खादी (रेजी) के कपड़े पहनते थे। रेजी का पजामा तथा रेजी की ही कमीज पहनते थे। सर्दी में भी कभी कोई गर्म कपड़ा नहीं पहनते थे। 12 महीने एक सी ही ड्रेस पहनते थे। खद्धर की गांधी टोपी बराबर धारण करते थे।

वे कभी बाजार की चीजें नहीं खाते थे। किसी साथी ने उन्हें क्रोध करते नहीं देखा था। सहनशीलता की वे साकार मूर्ति थे।

खेतड़ी हाउस से दूसरे साथी साइकिल से कॉलेज जाते थे। लेकिन श्री करणी राम जी नित्य प्रति पैदल ही कॉलेज जाते थे। उस समय कॉलेज की ड्रेस निर्धारित थी। वह हमेशा निर्धारित ड्रेस में जाते थे। कई लड़के इस नियम का बराबर पालन नहीं करते थे। तरह-तरह की ड्रेस रखते थे और अपने गरीब माता-पिता पर अनुचित बोझ डालते थे। वे अपनी कॉलेज की ड्रेस की सफाई का


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पूरा ध्यान रखते थे। कॉलेज से लौटकर वे खादी के कुर्ते पजामे पहन लेते थे। उन्हें मोटे कपड़ों से प्रेम था और तड़क-भड़क से हमेशा दूर रहते थे।

शेखावाटी विद्यार्थी संघ

श्री करणी राम जी छात्र संघ के चुनावों से हमेशा अलग रहते थे और भाषणबाजी से भी उन्हें विशेष प्रेम नहीं था। इसी समय एक घटना घटी। कुछ छात्रों ने आपसी सहमति से कॉलेज में शेखावाटी विद्यार्थी संघ बनाया। श्री करणी राम जी भी इसमें शामिल हुए। इसके अध्यक्ष राधाकृष्ण जी बने। उन्होंने कुछ लेख भी इस संबंध में लिखें। खुफिया पुलिस ने इसकी रिपोर्ट राज्य सरकार में कर दी।

उस समय विलियम ओविंस शिक्षा डायरेक्टर थे। पुलिस सुपरीटेंडेंट ने उनको शिकायत की जिस पर डायरेक्टर ने प्रिंसिपल को फोन किया कि तुम्हारे यहां के कुछ विद्यार्थी राज्य के विरुद्ध लेख आदि लिख कर लोगों को भड़काते हैं। उसने छात्रों के नाम भी बताएं।

प्रिंसिपल ने राधाकृष्ण जी को बुलाया और सारी बात पूछी। उन्होंने साफ जवाब दिया कि हमारा कोई राजनैतिक उद्देश नहीं है। हमने सिर्फ शेखावटी के छात्रों का सामाजिक सुधार के लिए संगठन बना लिया है। प्रिंसिपल ने उन्हें लेकर दूसरे डायरेक्टर से मिलना तय किया।

लड़कों ने आपस में बातें की। श्री करणी राम का कहना था कि चाहे जो परिणाम हो हमें सत्य बोलना चाहिए और चूंकि हमने ठीक काम किया है इसलिए कभी क्षमा नहीं मांगनी चाहिए।

दूसरे दिन निश्चित समय पर प्रिंसिपल राधा कृष्ण को लेकर श्री ओवेंस के यहां पहुंचे। ओवेंस ने छात्र की पीठ थपथपाई उनसे प्रसन्नता व्यक्त की कि छात्र समाज सुधार के लिए प्रयत्न कर रहे हैं पर उन्होंने सलाह दी कि कुछ समय के लिए लेख आदि नहीं लिखे क्योंकि सारे राज्य में प्रजामंडल का आंदोलन चल रहा है। अतः पुलिस निर्देशों को इसमें लपेट लेगी।


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गोठड़ा किसान सम्मेलन

समय-समय पर श्री करणी राम कॉलेज के दिनों में झुंझुनू या अपने गांव आते तो जलसों, सम्मेलनों आदि में भाग लेते और कुछ दिन रह कर लौट जाते। गोठड़ा गांव में एक बड़ा किसान सम्मेलन हुआ था। उस समय जागीरदारों से समझौता वार्ता भी चली थी जिसमें मि. यंग इंस्पेक्टर जनरल पुलिस भी उपस्थित थे। श्री करणी राम एवं राधा कृष्ण जी भी जयपुर से इस में भाग लेने आए थे। सन 1938 बड़ी उथल-पुथल का समय था। सीकर में कृषक आंदोलन पिछले 3- 4 साल से बराबर चल रहा था। इधर झुंझुनू जिले के भू-भाग में भी किसान बराबर संगठित होकर अपना संघर्ष चला रहे थे। आए दिन मुठभेड़ होती थी जिनमें लोग घायल होते और मरते थे। इस समय सीकर में एक ऐसी घटना घटी जिसने कृषक आंदोलन को पूरी तरह अपने में समाहित कर लिया।

सीकर आंदोलन

जयपुर के महाराजा मानसिंह, सीकर के राजकुमार हरदयाल सिंह आपको अपने साथ इंग्लैंड ले जाना चाहते थे। उस समय वह मेयो कॉलेज में पढ़ रहा था और 16-17 वर्ष का किशोर था। सीकर के राव राजा कल्याण सिंह ने राजकुमार की सगाई ध्रांगधा स्टेट में कर दी थी और वे शादी से पूर्व राजकुमार को बाहर नहीं भेजना चाहते थे। जयपुर महाराजा अपनी जिद पर अड़े रहे और धमकियां देने लगे। राव राजा को शासन के अयोग्य बताया गया और सीकर का शासन कोर्ट ऑफ बोर्ड के तहत किए जाने की धमकी दी। सीकर राव राजा को जयपुर बुलाया गया पर वे नहीं गए।

इधर इस स्थिति में राव राजा के पक्ष में आसपास के हजारों व्यक्ति सीकर में एकत्रित हो गए। जयपुर की फौज ने सीकर में डेरा डाल दिया। उसके साथ तोपखाना भी था। लोग निरंतर सीकर जाने लगे। स्थिति विस्फोट हो गई। इसी समय इंस्पेक्टर जनरल सिंह पुलिस एफ.एस. यंग सीकर राव राजा को लेने आया। देवीपुरा की कोठी में वह राव राजा से मिला और उनके कंधे पर हाथ रखा। उसके हाथ को झटक कर राव राजा लौट कर किले में आ गए। इसी समय स्टेशन पर गोली कांड हुआ इसमें अनेक राजपूत मारे गए।


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सीकर में एक एक्शन कमेटी बनी। नगर के दरवाजे बंद कर दिए गए। शहर में पूर्ण हड़ताल हो गई। यह स्थिति कई दिनों तक जारी रही। अंत में महाराजा को सीकर से बाहर ले जाया गया और सीकर के शासन से उनका संबंध विच्छेद हुआ। कई लोगों ने बीच बचाव किया जिन में सेठ जमनालाल प्रमुख थे। उनके प्रयत्नों से समझौता हुआ और राव राजा सीकर लौट आए। हरदयाल सिंह इंग्लैंड नहीं गया। सारे संघर्ष के दौरान जयपुर महाराजा विदेश में ही रहे।

सीकर संघर्ष ने जागीरदारों की असहाय दशा का नक्शा उनके सामने खींच दिया था। महज एक व्यक्ति की सनक थी जिसने हजारों लोगों को कष्ट पहुंचाया अनेक लोग मारे गए एवं घायल हो गए। यह प्रश्न सद्भभावना से सलटाया जा सकता था । इसके लिए फुर्सत किसे थी।

जयपुर राज्य प्रजामंडल

8-9 मई 1938 की प्रजामंडल का पहला बड़ा जलसा जयपुर में हुआ। जिसके सभापति सेठ जमनालाल जी बजाज थे। बजाज जी ने उत्तरदायी शासन की आवश्यकता पर बल दिया तथा प्रजामंडल के उद्देश्य पर प्रकाश डाला। बहुत बड़ा जन वर्ग इस जलसे में शामिल हुआ था। राज्य सरकार इससे चौकनी हो गई। सन 1938 में प्रजामंडल को गैर कानूनी करार दे दिया गया। इस पर प्रजामंडल ने सविनय अवज्ञा आंदोलन चलाया। 500 व्यक्ति गिरफ्तार हुए। जगह-जगह राज्य में आंदोलन हुए। शेखावाटी के किसानों ने इस आंदोलन में प्रमुखता से भाग लिया। जयपुर सरकार और जागीरदार सम्मिलित होकर इस आंदोलन को कुचलने में लग गए। झुंझुनू का ताल दमन का मुख्य केंद्र बना। लोगों को बेरहमी से पिटाई की गई।

12 फरवरी 1939 को अकाल राहत कार्य में मदद करने जमना लाल जी बजाज राज्य में आना चाहते थे। पहले उनको रोका गया। फिर गिरफ्तार कर लिया। सर बीचम इस समय जयपुर का प्राइम मिनिस्टर था। उसने बड़ा दमन किया। आगे चलकर प्रजामंडल को वैध संस्था मान लिया गया और मार्च 1939 को आंदोलन समाप्त कर दिया गया। बीचम की तरह राजा ज्ञाननाथ आया।


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शेखावाटी में प्रजामंडल की स्थापना होने पर कुछ लोग इस में सक्रिय रूप से भाग लेने लगे। पर कुछ लोग इससे अलग रहे। प्रजामंडल में भर्ती होने वाले सोचते थे की इसे आंदोलन को एक बड़ा आधार मिलेगा और किसानों की समुचित मांगों को एक बड़े स्तर से आगे रखा जा सकेगा जबकि किसान सभाई यह मानकर चलते थे की नगरीय लोगों को किसानों की वास्तविक स्थिति का ज्ञान नहीं है तथा उनकी बहुविध गतिविधयों में किसानों के हित को उभार कर आगे नहीं रखा जा सकेगा।

प्रजामंडल के आंदोलन से महात्मा गांधी के बराबर सहानुभूति रही। सेठ जमनालाल जी उन्हीं की राय से आकर गिरफ्तार हुए। जयपुर में हुए दमन पर महात्मा गांधी जी ने अपना मत इस प्रकार किया था-" जयपुर में जो तरीका अख्तायर किया जा रहा है वह इतना भीषण है कि पूरी शक्ति के साथ उसका मुकाबला करना चाहिए क्योंकि अगर उसका मुकाबला न किया गया तो रियासतों में होने वाली ऐसी हलचलों का अन्त हो जाएगा जिसका प्रजा की वैध राजनैतिक आकांक्षाओं जरा भी संबंध हो। "

करणी राम जी ने सन 1940 में बी. ए.पास किया। चौ. मोहन राम जी बी. ए. करने मात्र से संतुष्ट नहीं थे। उनकी दृष्टि कानून की पढ़ाई पर टिकी हुई थी। उनकी इच्छा करणी राम जी को कानून की पढ़ाई कराकर वकील बनाने की थी। वे वकालत के पेशे को बड़ा सम्मान जनक एवं उच्च कोटि का मानते थे। मोहन राम जी के दिल में वकालत के प्रति इतना आकर्षण था कि उन्होंने अपने दो पुत्रों हनुमान जी एवं महादेव जी तथा अपने भतीजे कन्हैया लाल जी को वकालत की पढ़ाई कराई। कन्हैयालाल जी प्रतिष्ठित एडवोकेट है तथा जनता सरकार के शासनकाल में एम. पी. भी रह चुके हैं। वे स्वयं फारसी पढ़े हुए थे और दूसरों को भी वकालत का व्यवसाय अपनाने के लिए उस प्रेरित करते थे। वास्तव में मोहन राम जी करणी राम को झुंझुनू में एक अच्छे वकील के रूप में काश्तकारों की सेवा करते हुए तथा मान मर्यादा एवं प्रतिष्ठा प्राप्त करने वाले एक प्रमुख राजनेता के रूप में देखना चाहते थे। इसी उद्देश्य से उन्होंने करणी राम जी को इलाहाबाद विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई करने भेजा।


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इलाहाबाद की ओर

इलाहाबाद उस समय राजनैतिक गतिविधियों का केंद्र था। " अंग्रेजों भारत छोड़ो" आंदोलन सारे देश में पूरे जोर-शोर से चल रहा था। नेहरू परिवार का घर होने के कारण देश के चोटी के नेता वहीं जमघट लगाए रहते थे। वस्तुतः उन दिनों इलाहाबाद भारतीय राजनीति का केंद्र बिंदु था। मोहन राम जी को आशंका थी कि कहीं पढ़ने गया लड़का पढ़ाई छोड़कर इस संग्राम में ना कूद पड़े। इसलिए उन्होंने जाने से पहले करणी राम जी को बहुत अच्छी तरह समझाया और संभावित बातों से सचेत किया था। उनका कहना था कि देर-सवेर तुम्हें राजनीति में आना ही है पर पहले अपना कैरियर बना लो। सुशिक्षित व्यक्ति अपने कर्तव्य की पूर्ति अधिक अच्छी तरह कर सकता है।

करणी राम जी के उच्च शिक्षा प्राप्ति के दृढ़ निश्चय को वे जानते थे। साथ ही उनकी गंभीरता से भी परिचित थे। अतः यह डर कम ही था कि आशा के विपरीत कोई बात हो जाए। रूपए पैसे और आवास आदि की सारी व्यवस्था उन्होंने कर दी थी। करणी राम जी कानून की पढ़ाई करने लगे। बीच बीच में अजाड़ी या अपने गांव में भी आते रहते थे। इस क्षेत्र में चल रही गतिविधियों की जानकारी प्राप्त करते थे। लेकिन वे अधिक दिनों तक नहीं रहते थे और शीघ्र ही इलाहाबाद लोट जाते थे। इलाहाबाद में कानूनी शिक्षा प्राप्त करते हुए उन्होंने देश के महान नेताओं की गतिविधियों को बहुत निकट से देखा और उनके दर्शनों का अवसर पाया। पंडित नेहरू के अनेक बार भाषण सुने और उनसे प्रभावित हुए। वे इलाहाबाद प्रवास की बात लोगों को सुनाते थे। किस तरह हजारों लोगों का जन समूह एवं प्रबल ज्वार की भांति आगे बढ़ता था और किस प्रकार ब्रिटिश सरकार की पुलिस उस निहत्थे जनसमूह पर डंडों की वर्षा करती और घोड़े दौड़ाती थी। अनेक लोगों के सिरों से डंडो की चोट के कारण रुधिर की धारा बहने लगती पर वे पग पीछे नहीं हटाते थे। उनकी जय घोष से आकाश विदीर्ण होने लगता था। " अंग्रेजों भारत छोड़ो" आंदोलन अब अपने पूरे जोर पर था।

इतना होते हुए भी डंडे मारने वालों के प्रति जरा सा भी आक्रोश नहीं था। प्रतिकार की जरा भी भावना उनके मन में नहीं थी। वह कौन सी भावना


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थी जो इस महान जनसमूह को बिल्कुल शांत और आक्रोश रहित बनाए हुए थी। अगर ऐसा नहीं होता तो हजारों की वह भीड़, प्रतिपल बढ़ता हुआ जन समुदाय हिंसक बन कर डंडे बरसाने वालों की बोटी-बोटी नोच डालता पर वे लोग जैसे दिन-रात अहिंसा व्रत की उपासना कर रहे थे।

पं. नेहरू का प्रभाव

उन दिनों पंडित जी कई बार इलाहाबाद आए। उनके प्रति जनमानस में असीम आदर था। करणी राम जी को भी पंडित नेहरू ने प्रभावित किया। वे प्रारंभ से ही उनके बड़े भक्त थे। प्रत्यक्ष दर्शन ने श्रद्धा को और भी घनी भूत कर दिया था। उन्होंने पंडित नेहरू पर एक गीत भी बड़ी सरल भाषा में बनाया था जिसे अक्सर वे गाकर सुनाते थे।

मोती के जवाहर जाया यह, मोती के जवाहर जाया।

म्हरा भाग सवाया, घर घर गीत गवाया।।

अत्याचार अन्याय मिटाया दुखियाओं का दर्द भगाया।

नीचा ने ऊपर उठवाया, ऊंचा न समझाया।।

देश का सावल दिन अब आया........मोती के।

गोरा ने भगाया राजा ने मिटाया।।

बोटों का राज चलाया ..........मोती के।

भारत ने आजाद कराया, सबने हर्ष मनाया........... मोती के।

कई बार उनके मन में इस अथाह जन समूह में एकाकार हो जाने के बात आती पर कोई अदृश्य शक्ति का इंगित उन्हें बराबर रोक रहा था। जैसे कहती हो अभी ठहरो तुम्हारा कार्यक्षेत्र वहां है जहां कष्ट, दुख, अपमान और दर्द अधिक पीड़ादायक है। सन 1942 की मई में अपनी कानून की पढ़ाई पूरी करके अपने घर लौट आए। इलाहाबाद की स्मृतियों को अपने अंतर्मन में संजोए हुए, कुछ कर गुजरने की तमन्ना लेकर वे लौटे थे।

अध्ययन काल की प्रवृत्तियां

करणी राम जी ने अपने जीवन के लगभग 28 वर्ष विद्या अध्ययन में ही


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बिताए। इस दीर्घकालीन समय में करणी राम जी ने जो विचार, आदर्श और सिद्धांत अपने दिल और दिमाग में संजोये उन्हीं का प्रस्फुटन भावी कार्य-क्षेत्र में हुआ। इस जमाने में जो सामाजिक एवं सांस्कृतिक चेतना की हवाएं आर्य समाज के प्रचार की चल रही थी उनका प्रभाव उनके कोमल मानस पर पड़ा। गर्मियों की छुट्टियों में गांव में तथा आसपास के इलाके में आर्य समाज के प्रचारक घूमते रहते थे। मूर्ति पूजा, दहेज प्रथा, नुक्ता, जेवर आदि बुराइयां एवं क्रुप्रथाएं जाट समाज में व्यापकता से घर किए बैठी थी। आर्य समाज ने बुराइयों पर डट कर प्रहार किए। करणी राम जी ग्रीष्मावकाश में अजाड़ी में हर सप्ताह अपनी मामी,बहनों भाभियों एवं भतीजिओं के बीच में बैठकर उन्हें प्रेम से रहने की शिक्षा देते। उन्हें जेवर न पहनने के लिए कहते। जाट महिलाएं पैरों हाथों में 2 से 3 किलो वजन के जेवर पहनती थी। करणी राम जी उन्हें इस निरर्थक जेवर को ना पहनने के लिए प्रेरित करते। महिलाओं को उन दिनों काफी काम करना पड़ता था करणी राम जी उनके प्रति बड़ा दया भाव रखते थे और उनसे कहते थे की इतनी कमरतोड़ शारीरिक मेहनत नहीं करनी चाहिए।

खादी प्रेम

वे उन्हें खादी प्रेम गांधी जी व जवाहर लाल जी की बातें बताते, प्रदेश में राजनीतिक वातावरण के बारे में शिक्षित करते। महिलाओं को चरखा कातने की सलाह देते। देश में गांधी जी की प्रेरणा से चरखा कातने का एक जबरदस्त वातावरण बन गया था। हर बड़ा नेता खादी पहनता था और मौका मिलने पर खादी कातता था। गांधीजी का सिद्धांत था कातो, समझ-बूझकर कातो, कातें वे खद्दर पहने, पहले वे जरूर कातें। करणी राम जी विद्यार्थी जीवन से ही मोटी खादी पहनते थे और गर्मियों की छुट्टी में खुद चरखा चलाते थे। काती हुई खादी से कपड़ा बनवाते थे तथा उसी के कपड़े पहनते थे। अपने मामा की हवेली में ही नहीं सारे गांव में इस बात का प्रचार करते। खादी को मूलत: एक धर्म के रूप में गांधीजी ने स्थापित किया था। खादी तब मात्र वस्त्र नहीं रह गई थी बल्कि अहिंसक आचरण की तथा एकादश व्रत को स्वीकार करने का प्रतीक बन गई थी। खादी के साथ राष्ट्रधर्म जुड़ गया था। इस प्रकार करणी राम जी आरंभ से ही गांधीवादी


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विचारधारा के पोषक थे। उनके चरित्र में व्यक्तिगत जीवन में गांधीजी की प्रति छाया नजर आने लग गई थी। वे पक्के सिद्धांतवादी थे।

पंक में पंकज

मोहन राम जी स्वयं एक प्रगतिशील एवं राष्ट्रवादी विचारधारा के व्यक्ति थे। परंतु तत्कालीन डूंडलोद ठिकाने के मुखिया चौधरी होने के नाते सामंती व्यवस्था से भी उनका संपर्क था। इस तरह उनके घर में सामंती संस्कृति एवं राष्ट्रीयता दोनों का ही वातावरण था परंतु करणी राम जी पर सामंती संस्कृति का कोई असर नहीं पड़ा- वे राष्ट्रीय विचारधारा एवं समाज सुधार के संदेशवाहक एवं प्रेरक बन गए और कमल के फूल की तरह विकसित होकर सात्विक ऊंचाइयों की ओर अग्रसर होते गए।

करणी राम जी ने खान-पान रहन-सहन की बुराइयों के प्रसार को रोका। कई बार वे शराब के मामले को लेकर अनशन आदि कर डालते और उसका असर होता। वे अहिंसा के पुजारी थे परंतु फिर भी कहते हैं कि शराब न छोड़ने की वजह से उन्हें अपने मामा के बेटे भाई हनुमान राम की खूब पिटाई की। लेकिन हनुमान राम जी उस बीमारी से मुक्त नहीं हो सके जिसके लिए उन्हें आज भी पछतावा है। करणी राम जी ने शराबबंदी के मामले में गांधीवादी अहिंसक तरीका ही अपनाया।

स्पष्ट वक्ता

वे स्पष्ट वक्ता थे। मोहन राम जी अगर उनके सिद्धांत के खिलाफ कोई बात कहते तो वह कतई नहीं मानते थे। एक तरह से करणी राम जी के व्यक्तित्व का इतना प्रभाव था कि मोहन राम जी जैसे बुलंद एवं होशियार व्यक्ति उनसे दबते थे और वे भी करणी राम जी की सलाह की बड़ी कदर करते थे क्योंकि मोहन राम जी करणी राम जी के भीतर बैठे महापुरुष को पहचानने लग गए थे और इसी वजह से भी करणी राम जी के पूर्णत: अनुगामी हो गए। कोई अच्छा माने या बुरा करणी राम जी अपने बात को स्पष्ट रूप से कहते थे। किसी चालाकी से या घुमा


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फिरा कर बात नहीं कहते थे। करणी राम जी की सलाह एवं आग्रह के कारण मोहन राम जी ने अपने घर से ही सामाजिक बुराइयों के निराकरण के लिए श्री गणेश किया क्योंकि करणी राम जी के कथन और कर्म में कोई अंतर नहीं था।

समाज सुधार के प्रेरक

समाज सुधार के प्रवर्तक करणी राम जी की दृढ़ मान्यता थी कि सामाजिक कुरीतियों और प्रथाओं को समाप्त किए बिना सामाजिक एवं आर्थिक स्वाधीनता नहीं लाई जा सकती। इसके लिए सामाजिक चेतना एवं सामाजिक सुधार की आवश्यकता उन्होंने महसूस की। उस समय कृषक समाज में पूर्ण जड़ता थी। किसी प्रकार की कोई हलचल नहीं थी अतः वे विद्यार्थी जीवन में भी समय-समय पर देहातों में आकर आम जनता से संपर्क करते हैं और उन्हें सामाजिक कुरीतियों की तिलांजलि देने की आवश्यकता और महत्व समझाते। करणी राम जी का मानना था कि राजनीतिक स्वाधीनता प्राप्ति में सबसे बड़ी बाधक सामाजिक कुरीतियां है। जाट समाज में समय-समय पर इन कुरीतियों को छोड़ने के लिए प्रस्ताव पारित होते रहते थे। विद्यार्थी भवन, झुंझुनू जिसे उस समय जाट छात्रावास कहते थे, में मीटिंग होती और इस तरह समाज में चेतना फैलाने के लिए निर्णय लिए जाते। परंतु पहल करने की हिम्मत कम ही लोगों में थी। श्री करणी राम जी ने पहले अपने परिवार से ही पहल करने का संकल्प लिया और मामा मोहन राम जी को भी अपने इरादे से प्रभावित किया।

मृत्यु भोज का परित्याग

उन दिनों में उनके मामा श्री मोहन राम का परिवार जाट जाति में अग्रणी परिवारों में माना जाता था। सन 1938 के आसपास श्री मोहन राम जी की चाची का देहांत हो गया। उस चाची के पुत्रों का देहांत पहले ही हो गया था और उनकी चाची व भावज दो विधवाएं ही थी। श्री करणी राम ने उनका नुक्ता ना करने को श्री मोहन राम से कहा तो श्री मोहन राम का जवाब था कि लोग यह चर्चा


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करेंगे चाची के कोई लड़का आदि तो है नहीं अतः उस बेचारी का नुक्ता करने वाला कौन था। श्री करणी राम ने उन्हें समझाया कि यह चर्चा तो उनके पिता श्री टीकू राम का नुक्ता न होने पर अपने आप ही खत्म हो जावेगी। श्री टिकु राम भी काफी वृद्ध हो चुके थे। अंत में उनका नुक्ता बंद कर दिया और इसको लेकर आम लोगों में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगी और वही हुआ जिसकी आशंका श्री मोहन राम को थी।

इसके कुछ समय बाद ही सन 1941 के आसपास श्री मोहन राम के पिता श्री टीकू राम का देहांत हो गया और उनका नुक्ता नहीं किया गया तो उस प्रकार के चर्चाओं का अंत हो गया। श्री टीकु राम का नुक्ता करने के लिए नजदीकी रिश्तेदारों के दबाव को भी नहीं माना गया। इस प्रकार से श्री करणी राम ने अपने ही परिवार में उक्त प्रथा का अंत करवाया। इसके बाद धीरे-धीरे यह प्रथा खत्म हो गई। इस प्रथा को बंद करने में सरदार हरलाल सिंह, श्री घासीराम, श्री नेतराम आदि प्रमुख नेताओं का पूर्ण सहयोग मिला और उन्होंने होने वाली आलोचनाओं का मजबूती से प्रत्युत्तर दिया।

दहेज, जेवर प्रथा विरोधी

इसी प्रकार समाज में चल रही दहेज व जेवर जैसी कुप्रथा को बंद करने का प्रश्न था। श्री मोहन राम के पुत्र रघुनाथ की शादी तय हुई। उनका विवाह कूदन के प्रमुख घराने के श्री गणपत राम महेरिया की लड़की से होना था। महेरिया परिवार भी काफी संपन्न व ख्याति प्राप्त था। उसी परिवार में श्री राम देव सिंह काफी समय से राजस्थान विधानसभा की सदस्य चले आ रहे हैं और राज्य सरकार में मंत्री भी रह चुके हैं। इस शादी में श्री करणी राम ने जेवर ना डालने के लिए अपने मामा व परिवार के अन्य सदस्यों को समझाया और उनके सुझावों प्रभाव से उस शादी के जेवर नहीं डाला गया। इससे महेरिया परिवार मन ही मन में नाराज भी हुआ और स्वाभाविक था।

इसके बाद इस परिवार में जेवर प्रथा का अंत हो गया। दहेज प्रथा को


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बंद करना कठिन काम था। श्री मोहन राम की लड़की श्रीमती बनारसी देवी की शादी कटेवा परिवार में जन्मे श्री दिलीप सिंह के साथ होनी थी। कटेवा परिवार इस इलाके में बहुत ही संपन्न परिवार रहा है और संपन्न परिवारों में दहेज ज्यादा मिलना उस परिवार की प्रतिष्ठा पानी जाती थी। करणी राम जी शादी में दहेज प्रथा बिल्कुल बंद करना चाहते थे। उन्होंने अपने मामा श्री मोहन राम व उनके परिवार वालों को समझाया और सहमत हो गए। शादी में दहेज बिल्कुल बंद कर दिया। इससे कटेवा परिवार के कुछ सदस्यों के मन में नाराजगी भी पैदा हुई परंतु उन्होंने अपनी नाराजगी जाहिर नहीं कि और इससे वह प्रगतिशील कदम मान कर खुश ही रहे।

श्री मोहन राम पढ़े-लिखे प्रगतिशील विचारों के व्यक्ति थे। उन्हें आने वाले समय का ज्ञान था। वे खुद भी इन प्रथाओं के विरुद्ध थे परंतु कार्य रूप में परिणीत करना कठिन हो रहा था। श्री करणी राम से उनको काफी मदद मिली और इन क्रुप्रथाओं को बंद कर दिया। इन कुप्रथाओं को बंद करवाने में श्री करणी राम का ही प्रमुख प्रभाव रहा और उस वक्त आर्य समाज के नेताओं से भी मदद मिली, जिममें सरदार हरलाल सिंह प्रमुख है। इसके बाद श्री मोहन राम के परिवार में नुक्ता, दहेज, जेवर आदि कुप्रथा बंद है। अपने ही परिवार से इन कुप्रथाओं को बंद करवाने से श्री करणी राम की सच्चाई की छाप जनता पर पड़ी और यह माना जाने लगा कि श्री करणी राम जो कहते हैं वही करते भी हैं। श्री करणी राम खुद व आम लोग श्री करणी राम को श्री मोहन राम के परिवार का सदस्य ही मानते थे और ज्यादातर लोगों को यह पता भी नहीं था कि श्री करणी राम अजाड़ी के न होकर भोजासर के हैं।

वृक्षारोपण में अभिरुचि

शेखावाटी के बालू के टीबों को हरा भरा करने की उनमें बड़ी उत्कट इच्छा थी। वे करनी में विश्वास करते थे कथनी में नहीं। उन्होंने स्वयं अपनी हवेली के सामने सिरस के पेड़ लगाए जो आज काफी बड़े हो गए हैं और लोगों को शीतलता एवं छाया प्रदान कर रहे हैं। इसी प्रकार जिस खेत में टापी बनाकर टी. बी. की बीमारी के दौरान एकांतवास में थे वहां भी उन्होंने पेड़ लगाए। हरे पेड़ों की तरफ उनका स्वाभाविक आकर्षण था। विद्यार्थी भवन, झुंझुनू में भी काफी


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वृक्षों का रोपण करवाया जो आज बड़े होकर करणी राम जी को मूक श्रद्धांजलि अर्पित कर रहे हैं।

अंतर्मुखी विद्यार्थी

करणी राम जी के साथ पढ़ने वाले विद्यार्थी जो आज भी मौजूद हैं खासतौर से उनके चचेरे भाई राधा कृष्ण जी बताते है कि करणी राम जी एक सच्चे विद्यार्थी की भांति राजनैतिक आंदोलन आदि से दूर रहते थे तथा अपना ध्यान पढ़ाई में ही केंद्रित रखते थे। उन्होंने अपने नाना टीकुराम जी को इलाहाबाद से पत्र लिखे जो अन्यत्र दिए जा रहे हैं उनसे भी उनकी अंतर्मुखी प्रकृति का पता चलता है। उन्होंने यह अच्छी तरह समझ लिया था कि अध्ययन समाप्त करने के उपरांत ही देश और समाज की अच्छी सेवा की जा सकती है आज के विद्यार्थियों के लिए यह एक अनुकरणीय बात है।

प्रचार प्रदर्शन से अरुचि

कहते हैं कि करणी राम जी को दिखावा, प्रचार-प्रसार, प्रदर्शन आदि से बड़ा परहेज था। वे रोबदाब जैसे सामान्य मानवीय दुर्गुणों से ऊपर उठे हुए थे। उनके मामाजी के घर में क़रीब क़रीब रोजाना मेला सा लगा रहता था। कई बार कई वरिष्ठ अधिकारी व नेता आते तो मोहन राम जी फोटो ग्रुप का आयोजन रखते। करणी राम जी फोटो ग्रुप में शामिल होने के लिए बड़ी मुश्किल से तैयार होते थे। सन 1945 में मोहन राम जी ने झुंझुनू जिले के पुलिस अधीक्षक श्री हकीकत राम के स्थानांतरण होने की वजह से अपने गांव अजाडी में विदाई समारोह का आयोजन किया था जिसमें बड़ी तादाद में लोग एकत्र हुए थे। करणी राम जी उन दिनों खेत में टी. बी. की बीमारी के कारण टापी मे रहते थे। इस समारोह में उन्होंने स्वागत भाषण तो दिया पर ग्रुप फोटोज में शरीक नहीं हुए हालांकि उनसे बड़ी विनय अनुनय की गई। महापुरुषों की पहचान वास्तव में छोटी-छोटी बातों से ही होती है। महापुरुष कोई चमत्कार नहीं करता है। बड़प्पन देखना हो तो उनके द्वारा किए गए जाने वाले कामों में न देखें बल्कि सही बड़प्पन उनकी छोटी छोटी बातों में ही मिलेगा। इस प्रकार श्री करणी राम जी की महानता उनके विद्यार्थी काल से ही उनके साथ चल रही थी।


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