Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Shekhawati Me Shiksha Prasar Aur Birla Shiksha Nidhi
Digitized by Dr Virendra Singh & Wikified by Laxman Burdak, IFS (R) |
पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम
लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 198410. शेखावाटी में शिक्षा प्रसार और बिड़ला शिक्षा निधि
राधाकृष्ण भोजासर
शेखावाटी से मेरा आशय आज के झुंझुनू और सीकर जनपद क्षेत्र से है। आज से लगभग पचास साल पहले इस भूभाग में शिक्षा प्रचार-प्रसार की क्या सीमा रेखा थी, इस ओर मैं पाठकों का ध्यान ले जाना चाहता हूँ। शासकीय दृष्टि से सारा प्रदेश राजाओं और जागीरदारों में विभक्त था। उनके अपने-अपने नियम और अपने-अपने नियामक होते थे। जनता में शिक्षा का भी प्रसार होना चाहिए, यह सोचना शायद उन्होंने लिए भयावह समझा है।
यही कारण रहा होगा कि इतने बड़े क्षेत्र में सिर्फ एक ही कॉलेज था ----बिड़ला इण्टर-मीडियट कॉलेज,पिलानी। जय सिंह हाई स्कूल खेतड़ी, कल्याण हाई स्कूल सीकर, और सोमानी हाई स्कूल चिड़ावा --- ये तीन ही हाई स्कूल थे। अलावा इनके बाकी बड़े-बड़े नगरों में सिर्फ मिडिल स्कूलें ही थी, यथा ---रामगढ़, फतेहपुर, लक्ष्मणगढ़, नवलगढ़, मुकुंदगढ़, मण्डावा, झुंझुनू, सूरजगढ़ आदि शहर कहे जाने वाले इन बड़े-बड़े कस्बों में ही जब शिक्षा प्रसार एवं स्तर का यह हाल था, तो फिर देहातों की तो विचारणा ही कौन करता था। देहाती जनता तो यह मान बैठी थी कि पढ़ना-लिखना हमारी भाग्य-पुस्तिका में लिखा ही नहीं है विधाता ने।
समय ने पलटा खाया। इस पराधीन देश के कुछ मनीषियों में स्वाधीनता एवं स्वावलम्बन की भावना जाग उठी। फलतः समाज सुधार के नाम से लोगों ने अपने विचार जनता के सामने रखे। ऋषि दयानन्द, राजाराममोहन राय, स्वामी
विवेकानन्द आदि महामानवों ने आर्य समाज, ब्रह्म समाज एवं रामकृष्ण परमहंस मिशन आदि संगठनों के माध्यम से सारे राष्ट्र में जागरण का शंख फूंका। यहां के कवि-कोविदों की स्वर लहरी भी भारतमाता ग्राम वासिनी गीतों में गूंज उठी। समाज सुधारकों का ध्यान भी ग्रामीण क्षेत्र की ओर गया। उन लोगों ने यह महसूस किया कि देश की जागृति का मूलाधार गांवों में शिक्षा का प्रसार और प्रचार ही है। क्योंकि भारत की बहुसंख्यक जनता गांवों में ही है जो अज्ञानता के गहन घेरे में जी रही है।
शेखावाटी का आँचल भी जन-जागरण की इस लहर से वंचित कैसे रह सकता था ? "जगती यहां ज्ञान की ज्योति, शिक्षा की जो कमी न होती। तो ये ग्राम स्वर्ग बन जाते, पूर्ण शांति रस में सन जाते। " के सुखद सन्देश को यहां के लोगों ने भी सुना-समझा और इस क्षेत्र के गांवों में शिक्षा-प्रसार करने की मनसा की। ठिकाने खेतड़ी और सीकर के शासकों ने अपने यहां के कुछ बड़े-बड़े गांवों में स्कूलें खोली और श्री सूरजमल शिवप्रसाद ट्रस्ट चिड़ावा एवं राजपूताना शिक्षा मण्डल ने भी इस प्रगति में अच्छा योगदान किया। लेकिन इन दोनों जन पदों के क्षेत्र-विस्तार को देखते हुए उपर्युक्त प्रयास बहुत कम लग रहा था। इस शून्यता को पाटने का बीड़ा उठाया बिड़ला एज्युकेशन ट्रस्ट पिलानी ने।
सन 1928 में श्री शुकदेव जी पाण्डे नामक शिक्षा शास्त्री बिड़ला शिक्षण संस्थान के आचार्य नियुक्त होकर पिलानी में पधारे। श्री पाण्डे जी, पिलानी में आने के पहले, हिन्दू विश्व विद्यालय, काशी में शिक्षक थे। पूज्य मालवीय जी का वरदहस्त उनके सर पर रह चुका था। श्री पाण्डे जी जैसे कर्मशूर और सर्वनाम धन्य बाबू श्री घनश्याम दास जी जैसे दानवीर का मणि कांचन योग हुआ और देश उत्थान के लिए कुछ कर गुजरने की ललक ने साकार रूप लेना शुरू किया पिलानी जैसे छोटे से नगर को तो उन सपूतों ने देश का महान शिक्षा मन्दिर बनाया ही साथ ही साथ श्री बिड़ला जी ने अपनी जन्मस्थली खुलवाकर शिक्षा का प्रकाश करने का संकल्प किया।
श्री पाण्डे जी के निर्देशन एवं नियन्त्रण में बिड़ला एजूकेशन ट्रस्ट
ग्राम शिक्षा विभाग की स्थापना की गई और उसके अपने नियम एवं नियावली भी अध्यापकों के लिए तैयार करके पुस्तिका के रूप में तैयार की गई, जिसमें अध्यापक की नियुक्ति तबादला, त्यागपत्र, वेतनमान छुट्टियों एवं प्रोविडेंट फंड आदि के सम्बन्ध में नियम प्रकाशित किए गए।
"अगर गरीब लड़का शिक्षा के मन्दिर तक न आ सके तो शिक्षा को ही उसके पास जाना चाहिए" स्वामी विवेकानन्द जी के इस विचार को ही बिड़ला शिक्षा निधि के सचांलकों ने अलग से ग्रामीण शिक्षा विभाग की स्थापना करके ग्राम वासिनी भारत माता तक ज्ञान-ज्योति जगाने का निश्चय किया। तदनुसार सारे शेखावाटी भू-भाग को पांच केन्द्रों में विभक्त करके यहां पर पांच केन्द्र कार्यालय खोले गए -- यथा चिड़ावा, खेतड़ी, मुकुन्दगढ़, सीकर और रींगस। प्रधान कार्यालय पिलानी में रखा गया।
हर एक केन्द्र कार्यालय में एक-एक निरीक्षक की नियुक्ति को गई, जिसके निरीक्षण में कम से कम पचास या उससे भी अधिक पाठशालाये चलती थी, इस सुनियोजित कार्यक्रम का यह मूल्यांकन रहा कि विभिन्न तरह से रुकावटें डाली जाने पर भी सन 1928 से सन 1942 तक पहुंचते-पहुंचते लगभग 250-275 ग्राम पाठशालायें इस क्षेत्र में सुचारु रूप से लगने लगी, जिनमें 350 के करीब अध्यापक काम करने लगे। आगे चलकर सन 1950 तक तो कई स्कूलें मिडिल स्तर तक भी पहुंच गई थी।
आज का पाठक यह पढ़-सुनकर आश्चर्य करेगा कि पाठशाला खोलने के शुभ कार्य में भी रुकावटें कौन डालता होगा। मैं उस जमाने का प्रत्यक्ष्दर्शी हूँ। अतः संक्षेप में यही उत्तर है कि अज्ञान के गहन अन्धकार में जीने के आदि लोग ज्ञान की प्रकाश-किरण से बिदकते थे--शासक भी और शासित भी। अधिकतर देहाती तो यह मान बैठे थे, कि पढ़ना-लिखना तो ब्राह्मण बनियों का धन्धा है, किसान-मजदूर का इससे क्या लेन-देन है।
अलसीसर के पास ही कंकड़ेऊ गांव है। वहां ट्रस्ट की और से स्कूल चल रही थी। निरीक्षण के लिए, दोपहर बाद, में वहां पहुंचा। कुछ बच्चे अपनी स्लेटें
लिए हुए एक स्थान पर बैठे थे, लेकिन अध्यापक जी नहीं थे। पूछने पर पाया गया कि गुरूजी तो एक सज्जन के यहाँ "गरुड़ पुराण" पढ़ने गए हुए है। मास्टर जी आए। उन्होंने बतलाया कि गांव वालों ने मुझसे पूछा कि गुरूजी आप "गरुड़ पुराण" पढ़ना एवं 'गणेश जी' का पूजन भी जानते है क्या ? उत्तर दिया गया कि मैं सब कुछ जानता हूँ। अब तो ठीक है, आप रहिए। आपको स्थान बतला देते है और टाबर भी भेजेंगे गांव वालों ने इस शर्त पर मास्टर जी को स्वीकारा।
"उदयपुरवाटी" कहे जाने वाले इलाके में कुछ अजीब ही तमाशा था। वहां के "भौमिये साहेबान" स्कूल के नाम से ही बिदक उठते थे, इस काम में सहयोग देना तो दूर रहा। "ढाणी केमरी" में तो स्कूल कायम होने के कुछ समय बाद यहां के भोमियों एवं किसानों में दंगा हो गया और गोलियां तक चल गई। इस काण्ड के और भी कई कारण होंगे, लेकिन मूल में वहां पर पाठशाला खुलना ही था। इसी तरह की गीदड़ घुड़कियाँ ढाणी गिलानं के लोगों को भी, वहां पाठशाला कायम होने पर, धमोरा के भौमियों से सुननी पड़ी थी।
उपर्युक्त तरह के झंझटों का प्रायः सामना करना पड़ता था। लेकिन बिड़ला एजुकेशन ट्रस्ट के "ग्राम शिक्षा-विभाग" ने गांव-गांव में शिक्षा-प्रसार का दृढ़ सकंल्प लिया था, उससे वह पीछे नहीं हटा और भारत के स्वतंत्रत होने की चेला तक इस शेखावाटी कहे जाने वाले क्षेत्र में स्कूलों का जाल सा बिछा दिया था।
उद्देश्य:--ट्रस्ट द्धारा इतनी अधिक संख्या में पाठशालायें चलाने का एक मंत्र उद्देश्य शिक्षा प्रचार द्धारा ग्रामोद्धार और देश-सेवा करना ही था, इसलिए ट्रस्ट अपने अध्यापकों से यह आशा करता था कि वे अपने कर्तव्य को समझते हुए ग्रामीण जनता में शिक्षा-प्रसार के इस शुभकार्य को सफल बनाने में किसी तरह की कमी नहीं रखेंगे। नैनिहाल नवयुवकों के चरित्र, स्वास्थ्य और बुद्धि का विकास अध्यापकों पर ही निर्भर हैं। यदि वे अपने उत्तरदायित्व को सच्चाई और सेवा भाव से निभायेंगे तो वे समाज और राष्ट्र को ऊँचा उठाने में सहायक हो सकेंगे।
अधिक विस्तार में न जाकर मैं यही कहूंगा कि ट्रस्ट के अध्यापक सच्चे अर्थो में अपने कर्तव्य का पालन करते थे। वे पढ़ने-पढ़ाने के अतिरिक्त गांव के लोगों
से मेल-जोल बढ़ाकर उनके जीवन को हर तरह से बेहतर बनाने की कोशिश करते थे। गांव के लोगों को अध्यापक सफाई व शिक्षा का महत्व बतलाते थे, और वहां की सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयत्न भी करते थे। ट्रस्ट अपनी हर पाठशाला में एक साप्ताहिक समाचार-पत्र भिजवाता था, जिसकी खबरें अध्यापक ग्रामवासियों को पढ़कर सुनाता था और उनको साक्षर बनाने के प्रयास भी करता था।
तब और अब:---चालीस वर्षो के बाद आज शेखावाटी क्षेत्र में चल रही शिक्षण संस्थाओं का लेखा जोखा लिया जाये तो विस्तार की दृष्टि से बहुत अच्छी प्रगति हुई है। प्राथमिक, मिडिल सेकेण्डरी एवं हायर सेकेण्डरी संस्थाए देहातों में चल रही हैं। शायद ही कोई ऐसा गांव होगा, जहां पर पाठशाला नहीं। छात्रों की संख्या भी बहुत रहती है। छात्राएं भी इस दौड़ में बेरोक भाग ले रही है। जहां छप्परों में कक्षाएं लगती थी, वहां आज हवादार अच्छे भवनों में स्कूलें चलती है। कपड़े पहनने में भी विद्यार्थी टीप-टाप से रहते है। बाहरी आवरण तो सुन्दर ही लगता है, पर भीतर झांकने पर तो रिक्तता ही नजर आती है।
गुरु-शिष्य में जहां स्नेह और श्रद्धा थी, वहां आज दोनों ओर के मनों में ही दूरी सी लगती है। शिक्षालय जहां समाज के लिए प्रकाश का स्तम्भ का काम करते थे, वे आज कोरे स्तम्भ ही रह गये है। प्रकाश तो उनमें रहा ही नहीं, ऐसा लगता है। इनकी तुलना तो उस लालटेन से की जाती है जिसमें तेल नहीं है शीसा, बत्ती और पेच का मेल नहीं है। मूल रूप में तो यही कहना है कि आज शिक्षा, शिक्षक और शिक्षार्थी कुछ बिखरे-बिखरे से लगते है। उनमें एकात्मकता है ही नहीं।
विद्यार्थियों से:-- विद्यार्थी जीवन,मनुष्य-जीवन का सर्वोत्तम काल है। विद्यार्थी को चाहिए कि विद्या का अधिक से अधिक संचय वह करे, और उन सभी गुणों को अपनाये जो मुनष्य जीवन के भूषण है। छात्र को परिश्रमशील एवं अनुशासनप्रिय होना चाहिए। अपने गुरु के प्रति उसके मन में श्रद्धा रहे, तभी वह गुरु कृपा का भागी हो सकता है। "श्रद्धावान लभते ज्ञानम" के सिद्धान्त को विद्यार्थी भूल गये है। देखा जाता है, आज के विद्यार्थियों की अवस्था शोचनीय होती जा
रही है। उनमें आत्मसंयम का अभाव है। "सादाजीवन और उच्च विचार" को उन्होंने ताक पर रख दिया है। सिनेमा, सिगरेट, सूट-बूट का शौक अधिक बढ़ गया है। लगता है सद्व्यवहार और सदाचार से उन्होंने किनारा कर लिया है। हमारे आचर्यों ने विद्यार्थी के पांच लक्षण बतलाये है यथा ---
"काक चेष्टा, बकोध्यानं श्वान निद्रा तथैवच।
अल्पाहारी, गृहत्यागी, विद्यार्थी पंच लक्षणम्।।
जो विद्यार्थी इस सीख के अनुसार चलते है, उनका जीवन सफल है।
"विद्यार्थी जीवन में पान, सिगरेट या शराब की
आदत डालना आत्मघात के समान है।" -------- महात्मा गांधी