Shivi Raja

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King Shivi was a King of Shivi Kingdom of the Mahabharata period. His capital was at Udyana.

राजा शिवि के दान की कहानी

ठाकुर देशराज [1] ने लिखा है .... राजा शिव - पेशावर से उत्तर उद्यान में इनका राज्य था। यह शिव जाति के प्रजातंत्र के अध्यक्ष थे। हिंदू पुराणों में इनके संबंध में कथा है कि यम और इंद्र इनके दान की प्रशंसा सुनकर इनके पास जांचने के लिए कबूतर और बाज बन कर गए थे। कबूतर झपटकर महाराज की गोद में बैठ गया। बाज ने कहा महाराज यह तो मेरा आहार है। या तो इसे छोड़ो या अपने शरीर से इस के बराबर काटकर गोस्त दो। महाराज ने कहा यह तो मेरा शरणागत है। मेरे शरीर का मांस ले लो। तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बैठा दिया गया। राजा ने सारे शरीर का मांस चढ़ा दिया फिर भी कबूतर के बराबर न हुआ। तब राजा स्वयं एक पलड़े में बैठ गए। इस पर इंद्र ने स्वयं प्रकट होकर राजा को स्वस्थ कर दिया बौद्ध ग्रंथों में भी इन महाराज के दान की बड़ी प्रशंसा की गई है।

बोध कथाः राजा शिवि का नेत्र-दान

प्राचीनकाल में शिवि देश के अरिट्टपुर नगर में शिवि राजा रहता था। उस राजा की रानी ने बोधिसत्व के रूप में पुत्र को जन्म दिया था। राजा ने उसका नाम शिविकुमार रखा। समय आने पर राजा ने शिविकुमार को विद्या अध्ययन के लिए तक्षशिला भेजा। जब राजकुमार तक्षशिला से शिल्प सीखकर आया, तो राजा को अपनी सीखी हुई विद्या दिखाई। राजा उसकी कला को देखकर अत्यंत प्रसन्न हुआ और कुमार को उप राजा बना दिया।

राजा की मृत्यु के बाद वह राजा बना और धर्मानुसार शासन करने लगा। उसने किले के चारों फाटकों, नगर के मध्य और राजभवन के द्वार पर छ: दानशालाएं निर्मित कराईं, जिनमें वह प्रतिदिन छ:-सात हजार मुद्राएं खर्च करके दान दिलवाता रहता था। राजा अष्टमी, चतुर्दशी और पूर्णिमा के दिन दानशालाओं में जाकर निरीक्षण करता था।

एक बार राजा पूर्णिमा के दिन प्रात:काल श्वेत-छत्र के नीचे राजसिंहासन पर बैठा हुआ था। वह सोचने लगा, ‘‘कोई ऐसा बाहरी पदार्थ नहीं है जिसे मैंने दान नहीं दिया हो किंतु बाहर के पदार्थ के दान देने से संतोष एवं मन सुखी नहीं होता है। मैं अपनी निजी वस्तु दान देना चाहता हूं। क्या अच्छा हो यदि आज मैं दानशाला में जाऊं और कोई याचक मुझसे बाहरी वस्तु न मांगकर निजी वस्तु जैसे मेरा राजपाट, शरीर का मांस, रक्त या फिर मेरी आंख ग्रहण करे।

ऐसा सोचकर राजा दानशाला की ओर गया। शक्र देव ने राजा के मन की बात जानकर सोचा, ‘‘राजा शिवि आज याचक को अपनी आंखें निकालकर दान देने की सोचता है, वह दे सकेगा या नहीं?’’ उसकी परीक्षा लेने के लिए शक्र ने बूढ़े, अंधे ब्राह्मण का वेश बनाया और दानशाला में जा पहुंचा। राजा ने एक ऊंचे स्थान पर खड़े हो, हाथ उठाकर पूछा, ‘‘यह ब्राह्मण क्या कहता है?’’

शक्र बोला, ‘‘महाराज! तुम्हारे दान-संकल्प का जो कीर्तिघोष हुआ है, उसने समस्त लोकवासियों को स्पर्श किया है। मैं अंधा हूं और तुम्हारे पास दो आंखें हैं। बहुत दूर निवास करने वाला बूढ़ा आंख मांगने के लिए आया है। मैं मांग रहा हूं, मुझे एक आंख दे दो। दोनों एक-एक आंख वाले हो जाएंगे।’’

यह सुनकर बोधिसत्व राजा शिवि ने मन ही मन सोचा, ‘‘अभी मैं महल में बैठा-बैठा सोच रहा था। यह कितना अच्छा हुआ। आज मेरा मनोरथ पूरा होगा। जैसा दान मैंने पहले कभी नहीं दिया, ऐसा दान दूंगा।’’ यह सोचकर बोधिसत्व अत्यंत प्रसन्न हुए और उन्होंने कहा, ‘‘हे याचक! तू किसके कहने से यहां पर आंखें मांगने आया है? तू कठिनाई से देने योग्य उत्तम आंखें मांग रहा है, जिस नेत्र को सभी लोग कठिनाई से देने योग्य कहते हैं।’’

यह सुनकर शक्र ने उत्तर दिया, ‘‘जिसे देवलोक में सुजम्पति और मनुष्य लोक में मधवा कहते हैं। मैं उनके कहने से आंखें मांगने आया हूं। मैं याचक हूं, मुझे आंखें मांगने पर श्रेष्ठ दान दें। मुझे सर्वश्रेष्ठ आंखें दें, जिन आंखों के दान को लोग कठिनाई से दे सकने योग्य कहते हैं।’’

इतना सुनकर बोधिसत्व राजा शिवि ने कहा, ‘‘हे ब्राह्मण! जिस बात के लिए आया है, जिस बात की इच्छा रखता है, तेरे वे संकल्प पूरे हों। हे ब्राह्मण! आंखें प्राप्त कर। तू एक मांगता है, मैं तुझे दोनों देता हूं। तू लोगों की नजर के सामने आंख वाला होकर जा, जो तू चाहता है, तेरी इच्छा पूरी हो।’’

बोधिसत्व राजा शिवि ने विचार किया कि यहां पर आंख निकालकर देना उचित नहीं होगा। उसने राजमहल में आंखें निकालकर देना उचित समझा। राजा उसी समय राजमहल में गया और राजासन पर बैठकर सीवक नामक राज वैद्य को बुलाकर कहा, ‘‘मेरी आंखें निकाल।’’

यह सुनकर सारे महल और नगर में हा-हा कार मच गया कि राजा अपनी आंखें निकालकर ब्राह्मण को दान देना चाहते हैं। तब सेनापति, मंत्रियों, रानियों, नागरिकों तथा अंत:पुर के लोगों ने एकत्रित होकर राजा को निवेदन किया, ‘‘हे देव! आंखें दान में न दें। हम सबको न छोड़ें। बहुत-से हीरे-जवाहरात, मोती, सोना-चांदी आदि धन दे दें। हे देव! जुते हुए रथ दे दें। सजे हुए घोड़े दे दें। महाराज! स्वर्ण-वस्त्रों से सजे हाथी दे दें। जिस प्रकार हम सब शिवि के लोग आपको अपनी गाड़ियों और रथों के साथ चारों ओर से घेरे रहते हैं- हे राजन! ऐसा दान दें।’’

सेनापति, मंत्रियों, रानियों, नागरिकों आदि सबके कहने पर भी राजा शिवि ने किसी की भी बात नहीं मानी और राजवैद्य सीवक को आदेश दिया कि उसकी आंखें निकाल दी जाएं। सीवक के द्वारा राजा जड़ी-बूटियों के माध्यम से आंखें निकलवाकर और अपने हाथों में रखकर ब्राह्मण को दान दे दीं। बोधिसत्व शिवि के इस महानतम नेत्र-दान से प्रभावित होकर शक्र देव अपने असली रूप में प्रकट हुए और प्रसन्न होकर उन्होंने बोधिसत्व राजा शिवि के नेत्र पहले की भांति ठीक कर दिए।

References


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