Swami Keshwanand Ek Nirala Sant

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

स्वामी केशवानन्द
स्वामी केशवानन्द : एक निराला शिक्षा-संत

फ़र्श से अर्श तक पहुंचने वालों के कई किस्से सुने हैं। पर यह किस्सा एक ऐसी महान विभूति का है, जिसे पैर टिकाने के लिए अपना कोई टिकाऊ फ़र्श नसीब नहीं हुआ। आज यहां तो कल वहां। यह किस्सा एक ऐसे यायावर का है जिसने कष्टों के कांटों से जूझते हुए एक विशाल इलाके को शिक्षा से रोशन कर नव-जागरण की ज्वाला प्रज्ज्वलित की और अपने कर्मनिष्ठ जीवन से लोकप्रियता के आकाश पर धूमकेतु की तरह छाया रहा। यह किस्सा बेहद रोमांचक है। ट्विस्ट इसमें कई हैं। तूफ़ान से दिए की लौ की लड़ाई जैसा किस्सा है यह। दर-दर की ठोकरें खाने को मजबूर एक चरवाहे का साधु बनना और फिर अपना समूचा जीवन राष्ट्रसेवा, जनसेवा एवं ज्ञानदान में झोंक देना -- यह है स्वामी केशवानन्द का चंद शब्दों में समाहित जीवन चरित।

गुण, कर्म और स्वभाव , इन तीनों से केशवानन्द संत शिरोमणि थे। इस महान शिक्षा-संत, स्वतंत्रता सेनानी, समाज सुधारक, हिन्दी के श्रेष्ठ सेवक, कला- मर्मज्ञ, त्यागी, तपस्वी, दृढ़ प्रतिज्ञ, निष्काम कर्मयोगी जनसेवक थे।

जन्म

आपका जन्म दिसम्बर 1883 में सीकर जिले के लक्ष्मणगढ़ तहसील के गांव मंगलूणा में हुआ। असल नाम था बीरमा। पिता का नाम ठाकर सी ढाका तथा माँ का नाम था- सारां। पिता ऊँट- इक्के से परिवहन का काम करके परिवार का पालन-पोषण करते थे।

कष्टों से भरा बचपन

बीरमा के जन्म के कुछ समय पश्चात उसके पिता जी मंगलूणा गांव छोड़कर रतनगढ़ ( जिला- चूरू) में एक माली गोत्र के जाट से धर्म भाई बनकर वहां रहने लगे। लगभग सात साल की उम्र में बीरमा पर क़िस्मत का क़हर ऐसा बरपा कि उसके पिता दुर्घटनावश काल के ग्रास बन गए। बालक की दुखियारी मां मंगलूणा गांव लौट आने और फिर वहां से एक गांव से दूसरे गांव पलायन करने को विवश हो गई। बाल्यावस्था में बीरमा गाय-बछड़े चराने लगा। सन 1897 में माँ और बेटा हनुमानगढ़ जिले के केलनियाँ गांव पहुंचे और वहाँ रहने लगे। दुर्भाग्य के दानव ने इस बालक पर यहाँ ऐसी बेरहमी से प्रहार किया कि उससे उसकी माँ का आँचल भी छीन लिया। सन 1899 में माँ के देहान्त के बाद बीरमा अनाथ हो गया। दर-दर की ठोकरें खाने को मज़बूर। परन्तु हालात से हारकर बैठ जाना और क़िस्मत को कोसते रहना बीरमा को मंजूर नहीं था।

बीरमा से केशवानन्द बनने की कहानी

सन 1899 (सवंत1956 जो 'छपनिया काल' के नाम से कुख्यात है) में पड़े भीषण अकाल की मार से त्रस्त 16 साल का बालक बीरमा खानाबदोश की हालत में भटकता हुआ रेगिस्तानी इलाके से फिरोजपुर ( पंजाब) पहुंचा और वहाँ अनाथालय में आश्रय प्राप्त किया। संस्कृत पढ़ने की इच्छा हावी होने पर वहां से पैदल चलकर भटिंडा, अबोहर होते हुए सन 1904 में साधु आश्रम, फाजिल्का जा पहुंचा। डेरे के साधुओं ने बीरमा की जाति पूछकर यह कहा: 'तुम जाट हो; जाट को कौन संस्कृत पढ़ाता है?' मालूम हो कि उस जमाने में संस्कृत पढ़ने का अधिकार सिर्फ़ ब्राह्मणों को था। धुन का पक्का बालक बीरमा हार मानने वाला नहीं था। उसने आश्रम में उदासी संप्रदाय के महंत कुशलदास से अनुनय-विनय की तो उन्होंने बीरमा को एक युक्ति सुझाते हुए साधु बनने की सलाह दी ताकि वह संस्कृत सीखने का पात्र बन सके। इस सलाह को शिरोधार्य करते हुए बीरमा ने साधुत्व धारण कर लिया और उदासी सम्प्रदाय में दीक्षित होकर महंत कुशलदास का शिष्य बन गया।

स्वामी जी के शब्दों में : 'भाग्य का ऐसा झोंका आया कि सूखे पत्ते की तरह उड़कर संवत 1961( सन 1904 ) में फाजिल्का (पंजाब ) में जा कर पांव जमे। 'साधु आश्रम, फाजिल्का में बीरमा ने संस्कृत, हिन्दी व गुरुमुखी सीख ली। कुशाग्र बुद्धि के बल पर बीरमा गुरुग्रन्थ-साहब का पारंगत पाठी बन गया। कुछ समय बाद वह देशाटन एवं संस्कृत के ग्रंथों का गहन अध्ययन कर विद्वता अर्जित करने हेतु पहले इलाहाबाद और फिर काशी होते हुए प्रयाग पहुंचा।

सन 1905 में प्रयाग में आयोजित कुंभ मेले में अवधूत हीरानन्द ने बीरमा के संस्कृत व हिंदी के शुद्ध उच्चारण से प्रसन्न होकर उसे केशवानन्द नाम दे दिया। विदित हो कि अवधूत अखाड़े में पूर्व में केशवानन्द नाम के एक विद्वान हुए थे, जो अपने शुद्ध उच्चारण के लिए सुविख्यात थे। वहाँ से फाजिल्का लौट कर उन्होंने गहन ज्ञानार्जन हेतु हरिद्वार, अमृतसर , क्वेटा व सिन्ध की यात्राएं की।

"...यूं तो हमारे देश में गेरुवां कपड़े पहने लाखों साधु-संन्यासी हैं। समझा यह जाता है कि सब कर्मों का नाश करना ही सन्यास है। कुछ नहीं करना और समाज में भार बने रहना ही अपना कर्तव्य समझते हैं। सन्यासी को समाज से कम से कम लेना और अधिक से अधिक देना चाहिए ,ऐसे कर्म योगी को मैं नमन करता हूं।" सेठ रामगोपाल मोहता द्वारा स्वामी जी के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए कहे गए ये शब्द एक सच्चे साधु के जीवन को परिभाषित करते हैं। आडम्बर और पाखण्ड से कोसों दूर स्वामी जी ने साधुत्व के सारतत्व को आत्मसात किया। कबीर के इस दोहे के निहितार्थ को उन्होंने गहराई से समझा और जीवन में उसका अनुसरण किया। 'साधु ऐसा चाहिए ,जैसा सूप सुभाय सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।'

श्रेष्ठ राष्ट्रसेवक व जनसेवक

महंत कुशलदास अपने शिष्य केशवानन्द की कर्तव्य- परायणता, सेवा-भावना, सच्चरित्रता और योग्यता से इस हद तक प्रभावित थे कि उन्होंने फाजिल्का स्थित डेरे की रजिस्ट्री साधु केशवानन्द के नाम करवाकर अपनी मृत्यु से पहले उसे अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। सन 1908 में उत्तराधिकारी के रूप में गुरु-गद्दी पर आसीन होकर स्वामी जी ने अपनी शक्ति और संसाधनों का सदुपयोग शिक्षा के प्रचार-प्रसार तथा जनहितकारी कार्यों में करना प्रारंभ किया। शिक्षा को मानव-कल्याण और समाजोत्थान का की कुँजी स्वीकारते हुए स्वामी जी ने ज्ञानदान और जनसेवा को अपने जीवन का लक्ष्य निर्धारित कर लिया।

साधुत्व धारण करने के बाद स्वामी जी पर गुरु नानक और उदासीन संप्रदाय के संस्थापक श्रीचन्द जी महाराज के उपदेशों का गहरा प्रभाव पड़ा। इसके साथ ही स्वामी दयानंद से प्रभावित होकर उन्होंने समाज सुधार की दिशा में कई रचनात्मक काम किए। स्वामी जी की कार्यशैली तथा मनोवृत्ति नितान्त आधुनिक थी। उनका दिमाग सिर्फ़ तर्क की राह पर चलता था। अपार कार्य-शक्ति से संपन्न दृढ़व्रती स्वामी जी स्पष्टवादी, सद्व्यावहारिक और सत्यवादी सज्जन पुरुष थे। डेरे की गद्दी पर काबिज़ रहकर कर्मकांडी जीवनयापन करना, आडम्बर को बढ़ावा देना, मठाधीश बने रहकर भक्तजनों की जमात खड़ी करना, दर्शनार्थियों से चरण- स्पर्श करवाना, उन्हें आशीष देना--ये सब स्वामी जी के स्वभाव में नहीं था। स्वामी जी ने एक त्यागी साधु का परिचय देते हुए सन 1916 में साधु-आश्रम, फाजिल्का की महंत की गद्दी अपने गुरुभाई श्यामदास को सौंपकर ख़ुद को देश-सेवा व जनसेवा के प्रति अर्पित कर दिया।

स्वतंत्रता सेनानी

आज़ादी के दीवाने स्वामी केशवानंद का नाम उन गिने-चुने साधुओं में सम्मिलित है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन में बढ़चढ़ कर भाग लिया। सन 1919 में घटित जलियांवाला बाग हत्याकांड ने उन्हें झकझोर दिया। महात्मा गांधी की अगुवाई में चल रहे स्वतंत्रता के राष्ट्रीय आंदोलन में सक्रिय भागीदारी निभाते हुए वे कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में स्वतंत्रता प्राप्ति तक शिरकत करते रहे।

आज़ादी के आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण स्वामी जी को दो बार जेल की सजा भुगतनी पड़ी। पहली बार, सन 1921में महात्मा गांधी के नेतृत्व में चल रहे असहयोग आंदोलन में शामिल होने के कारण उन्हें गिरफ्तार किया गया। पुलिस द्वारा उन पर अंग्रेजी सरकार के विरुद्ध जनता में भावनाएं भड़काने का आरोप लगाया गया। मजिस्ट्रेट ने स्वामी जी से पूछा कि क्या वे माफी मांग कर छूटना चाहेंगे ? इस पर स्वामी जी का सहज उत्तर था; 'यदि मुझे बिना माफी मांगे भी छोड़ दिया जाए तो भी मैं पुनः आंदोलन में ही शामिल होऊंगा।' इस पर उन्हें फ़िरोज़पुर जेल में दो वर्ष की जेल की सजा भुगतनी पड़ी। गांधी जी के आह्वान पर स्वामी जी ने विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार और खादी अपनाने की प्रतिज्ञा ली।

स्वामी जी को कांग्रेस द्वारा सन 1930 में फिरोजपुर जिले में आजादी के आंदोलन को गति देने का प्रभार सौंपा गया। वे इलाके में अंग्रेजी राज के ख़िलाफ़ धुंआधार प्रचार करने लगे। उसी वर्ष सत्याग्रह संग्राम और सविनय आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्हें दूसरी बार गिरफ्तार कर मुल्तान की कुख्यात न्यू सेंट्रल जेल व लाहौर जेल में एक साल से अधिक समय तक कैद रखा गया। देश आज़ाद होने के बाद स्वामी जी ने स्वतंत्रता सेनानी को देय भत्ते/ पेंशन की कोई मांग नहीं की और न ही किसी ताम्रपत्र की चाह रखी।

शिक्षा-जगत को अतुल्य योगदान

स्वामी केशवानन्द ने 'गांव जगे, देश जगे' मुहिम को परवान पर चढ़ाने के लिए अज्ञान के अंधेरे में डूबे गांवों में ज्ञान का उजाला फैलाने का काम इन तीन संस्थाओं के ज़रिए किया:

1.वेदान्त पुष्पवाटिका: सन 1911 में स्वामी जी ने साधु आश्रम ( गुरु डेरा ), फाजिल्का में वेदान्त पुष्पवाटिका नाम से पुस्तकालय स्थापित कर सन 1912 में वहीं पर प्रथम संस्कृत विद्यालय की स्थापना की। वे मानते थे कि समाज में व्याप्त अंधविश्वासों और रूढ़ियों के नाश के लिए आधुनिक ज्ञान से युक्त साहित्य आमजन तक हिंदी भाषा में पहुंचना जरूरी है। वे खुद हिंदी भाषा में लिखित लोकोपयोगी पुस्तकों की गठरी बांध कर आस-पास के गाँवों में ले जाते और पढ़े-लिखे लोगों को उन पुस्तकों को पढ़ने के लिए प्रेरित करते थे।

2. साहित्य- सदन: सन 1924-25 में स्वामी जी ने अबोहर ( जिला-फ़िरोजपुर ) में साहित्य- सदन की स्थापना कर पंजाब में हिन्दी के प्रचार -प्रसार का बीड़ा उठाया। यहाँ दस हज़ार पुस्तकों से समृद्ध पुस्तकालय की स्थापना करने एवं समाचारपत्रों से सुसज्जित सर्व सुलभ वाचनालय शुरू करने का अनूठा कार्य कर दिखाया। सन 1925 से 1933 तक कि अवधि में उन्होंने अबोहर तहसील में हिंदी अध्ययन हेतु विद्यालयों की स्थापना के अलावा श्रीगंगानगर, मुख़्तसर, डबवाली, सिरसा, ऐलनाबाद में पुस्तकालयों व वाचनालयों की स्थापना की। गांवों में ज्ञान-ज्योति पहुंचाने हेतु स्वामी जी ने साहित्य- सदन पुस्तकालय के अंतर्गत एक चलता- फिरता पुस्तकालय सन 1932 में शुरू किया।

3. ग्रामोत्थान विद्यापीठ: सन 1932 से स्वामी जी के कर्तव्यनिष्ठ जीवन की कर्मभूमि बना राजस्थान, पंजाब और हरियाणा की सीमा पर बसा हुआ कस्बा संगरिया, जो कि उस समय एक छोटा- सा गांव था। यहां उन्होंने चौधरी बहादुर सिंह भोबिया द्वारा 9 अगस्त 1917 को स्थापित और चौधरी हरिश्चंद्र नैण के संरक्षण में तत्समय संचालित 'जाट एंग्लो संस्कृत मिडिल स्कूल' के संचालन की बागडोर शिक्षा-अनुरागी महानुभावों के आग्रह पर संभाली। स्वामी जी ने इस संस्था का कायापलट करने के उद्देश्य से काया-पलट नामक एक विज्ञापन प्रकाशित करवाकर जनता से धनराशि संग्रह करने का अभियान चलाया। चौधरी घेरूराम ज्याणी (कटेड़ा) ने आरोग्य मंदिर नामक भव्य इमारत का निर्माण करवा दिया। चौ. कानाराम ढाका ने साहित्य मंदिर का निर्माण करवाया। जनता से प्राप्त आर्थिक सहयोग से स्कूल के जीर्णोद्धार का सिलसिला शुरू हो गया। स्कूल के नाम पर पहले से बने हुए पांच कच्चे कोठों की जगह पक्की नई इमारत बनवाने के साथ-साथ सरस्वती मंदिर, व्यायामशाला, वाचनालय, औषधालय, रसायनशाला आदि इमारतों का सलीक़े से निर्माण करवाया गया। दो बीघा ग्यारह बिस्वा जमीन और ख़रीद कर स्कूल परिसर का विस्तार किया गया। पानी की विकट समस्या के समाधान हेतु वर्षा-जल के भंडारण के लिए कुण्डों का निर्माण करवाया गया। डिग्गियां, स्नानघर आदि बनवाए गए। जतन से पानी की एक-एक बूंद संचित कर स्कूल परिसर के रेतीले धोरों पर पेड़-पौधे लगाए गए। यहाँ यह जान लेना जरूरी है कि इस इलाके में भाखड़ा नहर का पानी सन 1955 में आने के बाद ही इलाक़े को पानी की क़िल्लत से निज़ात मिल सकी।

सन 1938 में इस संस्था में म्यूजियम( संग्रहालय ) की विधिवत स्थापना 'सांस्कृतिक संग्रहालय' के नाम से की गई, जिसमें कीमती दुर्लभ दस्तावेज, पेंटिग्स, प्राचीन कलाकृतियां दूर-दराज़ के क्षेत्रों से लाकर यहाँ संग्रहित की गईं। सन 1956 में इस संग्रहालय का नामकरण 'सर छोटूराम स्मारक कलात्मक संग्रहालय' किया गया। सांसद रहने के दौरान स्वामी जी को जो भत्ता मिला, उसे उन्होंने विद्यापीठ के संग्रहालय के विस्तार में व्यय कर दिया। यह स्वामी जी का कला के प्रति अगाध प्रेम का द्योतक है।

स्वामी जी के प्रयासों से 13-14 सितंबर 1942 को जाट स्कूल, संगरिया का रजत जयंती महोत्सव मनाया गया, जिसमें सर छोटूराम और श्री के. एम. पन्निकर ने शिरकत की। इस अवसर पर प्रस्तुत 25 वर्षीय कार्य रिपोर्ट में उल्लेख है कि सन 1917 से सन 1942 तक इस संस्था में 2508 विद्यार्थियों ने शिक्षा प्राप्त की जिसमें से 1656 विद्यार्थी छात्रावास में रहे।

स्वामी जी की अनवरत साधना और कर्मठता का ही सुफल था कि यह संस्था उत्तरोत्तर प्रगति के पथ पर अग्रसर रही। सन 1943 तक विद्यार्थी- आश्रम, छात्रावास, सभाभवन, गोशाला-भवन, पांच अध्यापक निवास, अतिथिशाला, स्नानागार और वर्षाजल के संग्रहण हेतु बड़े कुण्ड का निर्माण करवाया जा चुका था। स्वामी जी के प्रयास से इस मिडल स्कूल की सन 1943 में हाईस्कूल के रूप में क्रमोन्नति हो सकी। सन 1948 तक इस संस्था में संगीत व आयुर्वेद -शिक्षा के साथ-साथ वस्त्र -निर्माण और सिलाई, काष्ठ-कला, धातु -कर्म आदि उद्योगों का प्रशिक्षण प्रदान करना प्रारंभ कर दिया गया था।

नवंबर- दिसंबर 1948 में इस शिक्षा संस्था का नाम स्वामी जी ने ग्रामोत्थान विद्यापीठ रखकर इसे उत्तर भारत की एक प्रगतिशील संस्था के रूप में रूपांतरित कर यह दिखा दिया कि मन में हो संकल्प तो कुछ काम नहीं है मुश्किल। विद्यापीठ के माध्यम से स्वामी जी ने राजस्थान, पंजाब और हरियाणा --इन तीन राज्यों में शिक्षा और जनजागृति के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान दिया।

दूर-दराज़ के गांवों में शिक्षादान

स्वामी जी जानते थे कि जब तक गांवों में शिक्षा-प्रसार नहीं होगा तब तक देश उन्नत नहीं हो सकता। 'मरुभूमि सेवा कार्य' नाम से शिक्षा-प्रसार की एक विस्तृत योजना तैयार कर इसे गांवों में क्रियान्वित करने के लिए स्वामी जी ने देहात से जुड़े कर्मठ कार्यकर्ताओं का सहयोग लिया, जिसमें प्रमुख थे: चौ. कुम्भाराम आर्य, चौ. दौलत राम सारण, चौ. हंसराज आर्य, लोक कवि सरदार हरदत्त सिंह भादू, चौ. रिक्ताराम तरड़, व्यायामाचार्य श्री रामलाल काजला और श्री लालचंद पूनिया। इस परियोजना का हैड ऑफिस ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया में ही रखा गया। सन 1944 से 1959 तक की अवधि में 'त्रैमासिक शिक्षा योजना', 'ग्रामोत्थान पाठशाला योजना' और 'समाज शिक्षा योजना' के अंतर्गत मरुभूमि के विभिन्न गांवों में 287 स्कूल खोलकर उनका संचालन किया। गांवों में स्कूल खोलने में स्वामी जी को ग्रामवासियों तथा मारवाड़ी रिलीफ सोसाइटी, कलकत्ता का भरपूर सहयोग मिला। इन ग्राम शिक्षा शालाओं में बच्चों की शिक्षा के अलावा प्रौढ़-शिक्षा, दलितोद्धार और प्राथमिक चिकित्सा के काम भी संचालित होते थे।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ के अधीन मरुभूमि के गांवों में खोली गई 287 पाठशालाओं को 1 नवम्बर 1956 को राज्य सरकार को सौंपने तक स्वामी जी स्वयं इन पाठशालाओं का निरीक्षण करते रहते थे। चौ. दौलतराम सारण ( राजस्थान के कद्दावर किसान नेता एवं पूर्व केंद्रीय शहरी विकास मंत्री ) ने इन पाठशालाओं की समुचित देखरेख का जिम्मा बख़ूबी निभाया।

स्वामी जी ने शिक्षा-दान का महान कार्य उन दुर्गम इलाकों में किया जहां आवागमन के मार्गों व यातायात के साधनों का अभाव था। हालात इतने भयावह कि दूर- दूर तक पानी सुलभ नहीं होता था। मार्गों की दुर्गमता, बस्तियों की निर्जनता, अज्ञानता के अंधेरे और पानी की क़िल्लत से बागड़ का समूचा इलाका शहरों से अलग-थलग तिरस्कृत रूप में पड़ा था। कुछ नगरों में वहां के दानवीर सेठों की उदारता से कुछ स्कूल संचालित हो रहे थे, लेकिन देहात में हर तरफ़ अज्ञान का अंधेरा पसरा हुआ था।

स्वामी के सहयोग से मरुभूमि खोले गए संस्थान

स्वामी जी की प्रेरणा, मार्गदर्शन एवं सक्रिय सहयोग से मरुभूमि में जो स्कूल और हॉस्टल खुले, उनमें से कुछ का उल्लेख यहाँ किया जा रहा है : ◆विद्यार्थी भवन, रतनगढ, जिला-चूरू ( 13-14 अप्रेल 1946 को शिलान्यास ) ◆ विद्यार्थी आश्रम, राजगढ़, जिला- चूरू ( स्थापना 9 सितम्बर 1947 ) ◆ किसान बोर्डिंग हाउस, बीकानेर ( 24 मई 1947 को छात्रावास का उद्घाटन एवं सन 1948 में प्राथमिक पाठशाला की शुरुआत ) ◆ खीचिवाला ग्रामोदय विद्यापीठ ( शिक्षा सदन, खीचिवाला) स्थापना 9 नवम्बर 1947 ◆ ग्राम छात्रावास, भादरा ( 20 अगस्त 1925 को भादरा में जाट बोर्डिंग हाउस नाम से स्थापित इस संस्था का नामकरण 28 मार्च 1949 को स्वामी जी के प्रस्तावानुसार ग्राम छात्रावास रख कर इसे नवजीवन प्रदान किया गया।) ◆ कस्तूरबा ग्रामोत्थान महिला विद्यापीठ, महाजन ( स्थापना सन 1951में, भवन निर्माण सन 1955) ◆ ग्रामोत्थान छात्रावास, श्री गंगानगर ◆ ग्रामोत्थान छात्रावास, सूरतगढ़ ( 2 अक्टूबर 1955 को आधारशिला रखी गई ।)

जीवन की प्रतिकूलताओं के कारण स्वामी जी को औपचारिक शिक्षा प्राप्त करने का अवसर नहीं मिला। इस मलाल को महसूस करते हुए उन्होंने अपने जीवन- काल में विभिन्न स्थानों पर लगभग 300 स्कूल, 50 हॉस्टल मय स्कूल,अनेक पुस्तकालय एवं 58 समाज सेवा केंद्र स्थापित कर तमाम उम्र शिक्षा का उजियारा फैलाने और समाज- सुधार के काम में निष्ठा से लगे रहे। प्रो. ब्रजनारायण कौशिक ने स्वामी जी की शिक्षा- प्रसार की अनूठी परियोजनाओं के महत्त्व को समझ कर उन्हें शिक्षा-संत की संज्ञा देते हुए उनकी जीवनी 'शिक्षा-संत स्वामी केशवानंद' शीर्षक से सन 1968 में प्रकाशित की, जो कि उनके जीवन और योगदान पर लिखी गई प्रथम पुस्तक थी।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया एवं उसके तहत संचालित सभी संस्थाओं का अपने-अपने इलाके में ग्रामीण परिवेश की प्रतिभाओं को संवारने- निखारने में विशेष योगदान रहा है। इनमें शिक्षा प्राप्त अनेक विद्यार्थियों ने राष्ट्रीय एवं राज्य स्तरीय प्रशासनिक सेवाओं के विभिन्न पदों को सुशोभित किया है। अनगिनत विद्यार्थी ऐसे हैं, जिन्होंने अनेक शिक्षण संस्थाओं में प्रख्यात शिक्षाविदों के रूप में अपनी ख़ास पहचान कायम की है। अनेक विद्यार्थी ऐसे भी हैं जिन्होंने सफल लेखक, पत्रकार, उद्यमी, अधिवक्ता, शिल्पकार एवं कलाकार के रूप में राष्ट्रीय स्तर पर ख्याति अर्जित की है।

शिक्षा और चिकित्सा का समन्वय

स्वामी जी गांवों की समस्याओं से भली-भांति परिचित थे। वे जानते थे कि गांवों में लोग कच्चे तालाब/जोहड़ों का गंदा पानी पीने के लिए मजबूर होने के कारण नहरूआ रोग से ग्रसित होते रहते हैं। रोगियों की तात्कालिक चिकित्सा के लिए गांवों में जो अध्यापक कार्यकर्ता हैं, उन्हें आयुर्वेद का भी ज्ञान होना चाहिए ताकि वे देहात में शिक्षा के साथ-साथ आरोग्य का उजाला भी फैला सकें। अतः स्वामी जी ने 'वैद्य ही अध्यापक, अध्यापक ही वैद्य' की निराली नीति पर काम करते हुए संगरिया में आयुर्वेद विद्यालय खोला। गांवों में रोग से उत्पन्न विपत्ति को ध्यान में रखते हुए स्वामी जी ने सन 1945 में अनुभवी वैद्यों का 'अखिल राजस्थान वैद्य सम्मेलन' आयोजित कर उसमें नहरूआ रोग के कारण व उसकी चिकित्सा आदि पर विचार-विमर्श किया तथा इस रोग से बचाव व उपचार से संबंधित निष्कर्षों पर जनोपयोगी साहित्य प्रकाशित करवाया।

स्त्री-शिक्षा के प्रसार में योगदान

स्वामी जी का मानना था कि समाज रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं : एक पुरुष तथा दूसरा स्त्री। जब तक यह दोनों पहिए समान रूप से साथ- साथ नहीं चलेंगे तब तक यह गाड़ी सही तरीके से आगे नहीं बढ़ सकती। महिला- शिक्षा के महत्त्व को समझते हुए स्वामी जी ने 1950 में विद्यापीठ में महिला आश्रम स्थापित कर कन्या प्राइमरी स्कूल खोली। ग्रामोत्थान विद्यापीठ के महिला आश्रम की स्थापना में सावित्री देवी का विशेष योगदान रहा। मालूम हो कि सावित्री देवी पंजाब के अबोहर जिले के गांव सिवाना में एक किसान परिवार की बाल विधवा बहू थी। वैधव्य काल में उन्होंने जालंधर में दयानन्द आर्य वैदिक कन्या विद्यालय में सन 1922 -23 के लगभग पढ़ाई की थी।

ग्रामोत्थान विद्यापीठ में महिला-शिक्षा की शुरुआत करने हेतु महिला आश्रम स्थापित करने की धुन स्वामीजी के दिमाग में काफी समय से सवार थी। दिक़्क़त बस यह थी कि उन्हें कोई कुशल अध्यापिका नहीं मिल रही थी। स्वामी जी के हठ करने पर सावित्री देवी अपनी अस्वस्थता के बावज़ूद सन 1950 में संगरिया आ गईं और वहां विद्यापीठ में स्थापित महिला आश्रम में अध्यापन व उसका संचालन निष्ठापूर्वक करने लगी। सन 1954 में महिला आश्रम को मिडिल स्कूल तथा 1957 में इसे हाई स्कूल में क्रमोन्नत किया गया। कालांतर में यहाँ गर्ल्स कॉलेज प्रारंभ किया गया।

विद्यापीठ में महिलाओं के लिए संगीत, सिलाई, कताई, कशीदाकारी, गुलकारी, रसोई का काम-- ये सभी विषय महिला शिक्षा में शामिल किए गए। महिला आश्रम का पृथक से पुस्तकालय और संग्रहालय भी बनाया गया। स्कूल व कॉलेज के भव्य भवनों के अलावा यहाँ पांच छात्रावास भी बने हुए हैं, जिसमें लगभग एक हज़ार छात्राओं के निवास की क्षमता है। कृतज्ञ संस्था ने एक छात्रावास का नामकरण 'सावित्री छात्रावास' कर सन 1966 में इसका उद्घाटन किया।

प्रगतिशील एवं विशाल संस्था

ग्रामोत्थान विद्यापीठ में विद्यार्थियों को बिना किसी जात-पात व पंथ के भेदभाव के प्रवेश दिया जाता था। सभी जातियों के छात्र छुआछूत की सामाजिक बुराई से मुक्त रहते हुए छात्रावास में एक साथ रहते थे तथा एक साथ भोजन करते थे। सरकार ने सन 1954 में अनुसूचित व जन जातियों के छात्रावासियों को भोजन-व्यय के लिए छात्रवृत्ति प्रदान करने के लिए यह शर्त तय कर दी कि इन जातियों के छात्रों का सामूहिक रूप में छात्रावास में रहना जरूरी है। इसलिए स्वामी जी ने सन 1955 में 'सरस्वती आश्रम' नामक भवन अनुसूचित जाति के छात्रों को छात्रावास के रूप में आवंटित कर दिया।

सन 1955 में विद्यापीठ में इंजीनियरिंग विभाग एवं कृषि संकाय खोल कर इसे बहु-उद्दयेशीय उच्चतर माध्यमिक स्कूल का दर्जा दिया गया। सन 1956 में अध्यापकों के प्रशिक्षण के लिए बीकानेर संभाग का पहला शिक्षक प्रशिक्षण स्कूल ( एस.टी.सी.) इस संस्था में प्रारंभ किया गया। सन 1962 में विद्यापीठ में कृषि महाविद्यालय की शुरुआत की गई जो कि वर्तमान में स्वामी केशवानंद कृषि महाविद्यालय, संगरिया के नाम से संचालित है। बता दें कि कृषि महाविद्यालय के अधीन 300 एकड़ भूमि पर कृषि फ़ार्म विकसित किया गया। इससे खेती-बाड़ी के उच्च शिक्षण के साथ-साथ पशु -पालन, पशु- नस्ल संवर्धन, दुग्ध-उत्पादन आदि की शिक्षा सुलभ होने से इलाके को बहुत लाभ मिला है। सन 1965 में इस संस्था में बी. एड कॉलेज खोला गया। विद्यापीठ में संचालित हो रहे कृषि महाविद्यालय को सन 1968 में बहुसंकायी ( कला एवं विज्ञान ) महाविद्यालय का दर्जा दे दिया गया।

स्वामी जी ने सन् 1932 से अपने जीवन के लगभग 40 वर्षों तक कर्मसाधन करते हुए एक ग्रामीण मिडिल स्कूल को हाई स्कूल व बहुउद्देशीय उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के रूप में परिणित करने के बाद इसे बहु संकायी महाविद्यालय स्तर तक क्रमोन्नत करवाकर रेगिस्तान में ज्ञान-गंगा प्रवाहित कर दी।

विद्यापीठ में आर्थिक दृष्टि से कमजोर छात्र 'स्वयं कमाओ और विद्याभ्यास करो' की नीति का पालन करते हुए विद्यालय की शिल्पशाला में अपने हुनर से कमाई करके स्वावलंबी जीवन यापन करते थे। स्वामी जी ने विद्यापीठ में बुनाई, रंगाई, छपाई, जिल्दसाजी, बढ़ईगिरी, दर्जीगिरी और सामान्य इंजीनियरिंग के पाठ्यक्रम संचालित कर विद्यार्थियों को व्यावसायिक शिक्षा ( vocational education ) सुलभ करवाई। विद्यापीठ में स्थित चिकित्सालय, मुद्रणालय, शिल्प भवन, व्यायाम शाला, कौतूकागार तथा विद्यार्थियों के लिए व्यायाम व क्रीडा के मैदान आदि स्वामी जी के व्यापक सोच को प्रकट करते हैं। विद्यापीठ का पुस्तकालय विभिन्न भाषाओं की दुर्लभ पुस्तकों का अद्वितीय संग्रह है। अन्वेषकों व विद्वानों के लिए स्वामी जी द्वारा स्थापित यह वृहद पुस्तकालय ज्ञानार्जन का केन्द्र है।

स्वामी जी की छत्रछाया में पल्लवित एवं पुष्पित ग्रामोत्थान विद्यापीठ को देखकर दर्शकों के दिल में स्वामी जी के प्रति उतनी ही श्रद्धा जागृत होती है, जितनी रविंद्रनाथ ठाकुर के शांति निकेतन, श्री मदन मोहन मालवीय के बनारस हिंदू विश्वविद्यालय, स्वामी श्रद्धानंद के गुरुकुल कांगड़ी को देखकर दर्शकों के दिलों में उन महान संस्थापकों के प्रति होती है। देहाती इलाके में समाज सुधार व जनहित के कार्य संपादित कर ग्रामीणों के आराध्य देव के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने वाले स्वामी जी के कार्य से अभिभूत होकर एक शिक्षाशास्त्री ने उनसे कहा कि अगर ऐसा कार्य उन्होंने संगरिया जैसे मामूली गांव की बजाय किसी अन्य नगर में किया होता तो उनकी राष्ट्रीय स्तर पर पहचान स्थापित होती। इस पर स्वामी जी का जवाब था : ' हां, बिजली के जलते हुए लट्टू के पास मिट्टी के दीपक का कोई महत्त्व नहीं। गांव की अंधेरी झोपड़ी में तो वह अवश्यमेव प्रकाश देगा। शहर में काम करने को तो हर कोई दौड़ता है लेकिन काम करने की असली जरूरत तो गांव में है।' ( स्वामी केशवानंद अभिनंदन ग्रंथ, पृष्ठ 82)

संयुक्त पंजाब के फिरोजपुर, हिसार जिलों और बीकानेर रियासत तथा बहावलपुर ( अब पाकिस्तान ) इन चार इलाकों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार व जनहित के कार्यों की बदौलत स्वामी जी जन-जन की श्रद्धा के पात्र बने। बागड़ इलाके के लिए तो वे देवदूत तुल्य थे। ग्रामोत्थान विद्यापीठ में स्वामी जी के निमंत्रण पर पूर्व प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू, श्रीमती इंदिरा गांधी, कृषि मंत्री डॉ रामसुभग सिंह, बाबू जगजीवन राम, आचार्य विनोबा भावे, राजर्षि पुरुषोत्तम दास टंडन, पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री श्री प्रताप सिंह कैरों, राजस्थान के पूर्व मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया आदि अनेक जन- नायक और महानुभाव इस संस्थान में पधारे, जिससे इस संस्था के साथ-साथ संगरिया को राष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अग्रणी भूमिका

हिन्दी के व्यापक प्रचार- प्रसार के लिए स्वामी जी ने 1920 में अबोहर ( पंजाब ) में 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना की, जिसका नामकरण सन 1924 में 'साहित्य सदन ,अबोहर' कर दिया गया। वहीं पर दीपक प्रिंटिंग प्रेस स्थापित कर सन 1933 में हिंदी मासिक पत्रिका 'दीपक' का प्रकाशन कर हिंदी के पठन- पाठन को बढ़ावा दिया। साहित्य सदन में ही साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा और पंजाब विश्वविद्यालय की हिंदी से संबंधित परीक्षा- केंद्र स्थापित करवाए गए। इन परीक्षाओं में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में विद्यार्थी प्रविष्ट होते थे। साहित्य सदन के अन्तर्गत इलाके के झूमियांवली, मौजगढ़, भंगरखेड़ा,पंचकोसी, रोहिडांवाली, बाजिदपुर, कल्लरखेड़ा, पन्नीवाला आदि 25 गांवों में हिंदी की प्राथमिक पाठशालाएं संचालित थीं, जिनमें प्रौढ़-शिक्षा का भी प्रावधान था।

साहित्य सदन, अबोहर में सन 1933 में नौवां पंजाब प्रांतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन का आयोजन किया गया। सन 1941 में स्वामी जी ने यहाँ में 30 वां अखिल भारतीय हिंदी साहित्य सम्मेलन आयोजित करवाया। प्रख्यात कवि सूर्यकांत निराला तीन दिन तक अबोहर में स्वामी जी के पास रुके। स्वामी जी द्वारा हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार हेतु प्रदत अतुलनीय योगदान का सम्मान करते हुए उन्हें 'साहित्य वाचस्पति' पदवी प्रदान की गई।राष्ट्र- भाषा प्रचार समिति वर्धा ने स्वामी जी को 'राष्ट्रभाषा गौरव' की उपाधि से विभूषित किया।

सिख इतिहास का हिन्दी में प्रकाशन

उदासी सम्प्रदाय के साधु होने के नाते स्वामी जी के मन में गुरु-ऋण से उऋण होने की इच्छा बलवती थी। सिख गुरुओं के महान कार्य, उनकी सीख और सिखों के शौर्य व बलिदान की गाथाओं को हिंदी भाषी क्षेत्रों तक पहुंचाने के लिए सिख इतिहास को हिंदी भाषा में लिखे जाने की योजना तैयार कर स्वामी जी ने सन 1935- 36 में खालसा कॉलेज, अमृतसर में इतिहास और धर्म -शिक्षा के लेक्चरर डॉ गंडासिंह से मुलाकात की। आग्रह उनसे यह किया कि वे सिख इतिहास को हिंदी भाषा में लिखने में इतिहासकार ठाकुर देशराज को अपना सहयोग प्रदान करें। डॉ गंडासिंह ने इस मुलाकात का स्मरण इन शब्दों में किया है : 'मैं इस भगवा वेश साधु में विशेषकर दक्षिणी पंजाब के ग्रामीण दलित लोगों के उत्थान के लिए असाधारण जोश देखकर चकित सा रह गया।'

स्वामी जी के ग्यारह वर्षों के अथक प्रयास के फलस्वरूप सन 1954 में सिख इतिहास का हिंदी में लगभग एक हज़ार पृष्ठों का एक प्रामाणिक ग्रंथ प्रकाशित हो सका। इस ग्रंथ से हिंदी भाषी प्रदेशों के लोग सिख इतिहास और सिख गुरुओं की सीख से अवगत हो सके।

समाज सुधार एवं दलितोद्धार

स्वामी जी की रेगिस्तान के ग्रामीण समाज के बारे में गहन समझ का पता उनकी पुस्तक 'मरुभूमि सेवा कार्य' से मिलता है। इस पुस्तक में उन्होंने मरुस्थलीय प्रदेश की ख़ासियतों का वर्णन करने के अतिरिक्त वहाँ की समस्याओं की पहचान कर उनके समाधान भी सुझाए हैं। स्वामी जी ने अस्पृश्यता, निरक्षरता, बालविवाह, अनमेल विवाह, नारी-उत्पीड़न, पर्दा-प्रथा, शोषण, नशा-सेवन, नैतिक पतन आदि सामाजिक बुराइयों व रूढ़ियों के उन्मूलन हेतु जन चेतना जागृत करने का काम समर्पित भाव से किया।

सामाजिक सद्भाव और पारस्परिक समझ को पुख़्ता करने हेतु स्वामी जी सिख, बिश्नोई, नामधारी और जैन गुरुओं के सम्मान में उत्सव आयोजित करते रहते थे। उन्होंने विश्नोई मत के प्रवर्तक गुरु जंभेश्वर, महात्मा गांधी, नेताजी सुभाष बोष, मार्टिन लूथर किंग जूनियर, महात्मा मेजिनी और शेख सादी आदि की जीवनियाँ हिंदी में छपवाकर उनका जनसामान्य में वितरण किया। आधुनिक विचारों को आमजन तक पहुंचाने के लिए स्वामी जी ने 'विज्ञान के चमत्कार', 'तंबाकू के काले कारनामे', 'भले रहो, चंगे रहो', 'समाज- शिक्षा दर्पण'आदि कई पुस्तकें प्रकाशित करवा कर गांवों में वितरित करवाई।

स्वामी जी कहते थे,"मनुष्य भगवान से भी बड़ा है, उसे मत भूलो, न उसकी अवहेलना करो।" दलितोद्धार को वे वक़्त की जरूरत समझते थे। इस दिशा में कार्य करते हुए उन्होंने सन 1937 में बहावलपुर (अब पाकिस्तान में ) के चानण गांव में दलितों के लिए हरिजन पाठशाला की स्थापना की तथा उस गांव के खैरदीन मेहतर को धर्मपाल नाम देकर अपना निजी सहायक ( PA) बनाया। जात-पात के जहर पर प्रहार करते हुए स्वामी जी ने 23 दिसंबर 1946 को एक पत्र में लिखा: 'आज मनुष्य की कद्र नहीं रही। आज तो अपनी जाति का आदमी चाहिए, फिर चाहे वह कितना भी बुरा क्यों न हो, और दूसरी जाति का देवता भी उसे पसंद नहीं है।' दलितों में चेतना जागृत करने के उद्देश्य से 24 मई 1947 को संगरिया में आयोजित अखिल राजपुताना मेघवंशीय सम्मेलन की अध्यक्षता स्वामी जी ने की। बाबू जगजीवन राम ने स्वामी जी के दलितोद्धार कार्यों की प्रशंसा करते हुए कहा था: 'दलित और उपेक्षित लोगों के प्रति इनके मन में करुणा और सहानुभूति है।' स्वामी जी सभी धर्मों व पंथों के अनुयायियों के श्रद्धा के पात्र थे। चूंकि स्वामी जी के प्रयासों से हिंदी में सिख इतिहास के प्रकाशन से हिंदी जगत में सिख इतिहास की जानकारी हुई, सिखों ने 17 अक्टूबर 1956 को पवित्र हरमिंदर साहब अमृतसर में स्वर्ण पत्रों के जीर्णोद्धार समारोह में स्वामी जी को मुख्य अतिथि बनाकर सम्मानित किया।

स्वामी जी कहते थे: "मैं किसी जाति विशेष का नहीं, धर्म या समुदाय को मानने वाला नहीं। मेरा शरीर इस देश की मिट्टी से बना है। इसी में पला-पोसा और बड़ा हुआ है। हमारा रास्ता साफ है। हम मुल्क के आदमी हैं। मुल्क के लिए जियेंगे। मुल्क के लिए मरेंगे।"

घुम्मकड़ साधु

मनमौजी स्वभाव के स्वामी जी सारी उम्र एक जिज्ञासु सैलानी की भूमिका में रहे। हरिद्वार से रामेश्वर और पंजा साहब व पेशावर से प्रयाग तक सिख और हिंदुओं के सभी तीर्थ स्थलों की उन्होंने यात्रा की। विभिन्न तीर्थ- स्थानों, मंदिरों, मठों, शहरों, विश्वविद्यालयों, शिक्षा- संस्थानों, ऐतिहासिक स्थलों, संग्रहालयों, पुस्तकालयों, वनों,पर्वतों व दुर्गम इलाकों का अवलोकन कर उन्होंने देश का प्रत्यक्ष ज्ञान (फर्स्ट हैंड नॉलेज) अर्जित किया। शायद अनवरत भ्रमण ने ही स्वामी जी को जिंदगी का फ़लसफ़ा सिखाया। रूढ़िवादी सोच से मुक्त रहकर वे सत्य की खोज में तत्पर रहेते थे। उनकी विद्वता का स्रोत बोझिल शास्त्र नहीं अपितु उनका खुद का जीवन अनुभव था।

युगप्रवर्तक

जनसेवा की साक्षात प्रतिमूर्ति, लोकेषणा और वित्तेषणा से मुक्त रहकर स्वामी जी ने गांवों में शिक्षा का उजाला फैलाने, जनसेवा और हिन्दी के प्रचार -प्रसार के लिए की गई उनकी अनुपम सेवाओं का सम्मान करते हुए काँग्रेस पार्टी ने राजस्थान से उन्हें लगातार दो बार सन 1952 से 1958 एवं 1958 से 1964 तक संसद के ऊपरी सदन राज्यसभा का सम्मानित सदस्य बनाकर उनके प्रति श्रद्धा व्यक्त की। स्वामी जी के जीवन के 75 वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री मोहनलाल सुखाड़िया ने उन्हें 9 मार्च 1958 को श्री बनारसीदास चतुर्वेदी व ठाकुर देशराज द्वारा संपादित अभिनन्दन ग्रंथ भेंट किया।

फ़कीरी और कबीरी का जीवन जीने वाले यह महान शिक्षा संत, समाज सुधारक, स्वतंत्रता सेनानी, कर्म योगी स्वामी केशवानन्द 13 सितंबर 1972 को 89 वर्ष की आयु में अपराह्न दो से तीन बजे के बीच दिल्ली के तालकटोरा चौराहे के फुटपाथ पर चलते-चलते बेहोश होकर गिर गए और इस दुनिया से महाप्रयाण कर गए। स्वामी जी के सन 1972 में इस दुनिया से महाप्रयाण करने तक ग्रामोत्थान विद्यापीठ, संगरिया में कृषि, कला व विज्ञान संकायों में महाविद्यालय, 300 एकड़ का कृषि फार्म, शिक्षा महाविद्यालय, शिक्षक प्रशिक्षण विद्यालय, छात्र- छात्राओं के लिए अलग-अलग हायर सेकेंडरी स्कूल, पुस्तकालय- वाचनालय, सर छोटूराम स्मारक संग्रहालय, छात्र -छात्राओं के लिए अलग-अलग छात्रावास तथा आयुर्वेद शिक्षा के लिए नवजीवन औषधालय, रसायनशाला एवं व्यायामशाला की स्थापना की जा चुकी थी। उस समय विद्यापीठ में लगभग 4000 छात्र-छात्राएं अध्ययन करते थे, जिनमें से 800 विद्यार्थी इस संस्था में स्थित विभिन्न छात्रावासों में रहते थे। स्वामी जी के सम्मान में भारत सरकार ने 15 अगस्त 1999 को डाक टिकट जारी की।

स्वामी जी द्वारा स्थापित विभिन्न संस्थाएं शिक्षा के लिए किए गए उनके शौर्यपूर्ण प्रयासों का प्रमाण प्रस्तुत कर रही हैं। सच्चा त्याग, तपस्या, कठिन परिश्रम किसे कहते हैं, इसे जानने के लिए स्वामी जी के जीवन से बेहतर कोई मिसाल मिलना मुश्किल है। इसे विडम्बना ही कहेंगे कि प्रथमतः बीकानेर संभाग में शिक्षा का उजाला फ़ैलाने वाले इस शिक्षा-संत के नाम पर जिस विश्वविद्यालय का नामकरण होना चाहिए था, उसका नामकरण रियासत के उस महाराजा के नाम पर किया गया है, जिनका रियासत में शिक्षा-प्रसार के क्षेत्र में कोई ख़ास योगदान नहीं रहा है।

स्वामी जी कहते थे: "मैं कोई पूजा-पाठ नहीं करता। ईश्वर किस बला का नाम है मुझे नहीं मालूम। मैं सुबह उठते ही सोचता हूं कि मेरे सामने आज कौन-कौन से काम हैं, जिनके लिए मुझे आज ही जुटना पड़ेगा... काम करते रहने से शरीर कभी नहीं थकता। यदि मन थक जाता है तो शरीर अपने आप थक जाता है।" सत्यनिष्ठा, सादगी, उच्च आचरण एवं निस्वार्थ समाज सेवा से ओतप्रोत उनका जीवन बेमिसाल है। साहित्य, समाज तथा ग्रामोत्थान की दिशा में स्वामी जी की सेवायें सदा स्वर्णाक्षरों में लिखी रहेंगी और वे आज के और भविष्य के समाजसेवियों के लिए प्रकाश-स्तंभ प्रमाणित होंगे। ( श्री प्रताप सिंह कैरों, पूर्व मुख्यमंत्री, पंजाब, के उद्गार )

राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रभाषा के नाम पर सिर्फ हंगामा खड़ा करने व शब्द-जाल गूँथने से राष्ट्रसेवा नहीं होती। इसके लिए स्वामी जी की तरह जीवन खपाना पड़ता है। सत्ता के मद में तांडव करने वालों को स्वामी जी खरी-खरी कहते थे : "पराक्रम किसी को सताने में नहीं , सताए हुओं को ऊपर उठाने में है। यदि तुम पराक्रम दिखाना चाहते हो तो यह सारी सृष्टि ही अभाव से पटी पड़ी है; इसको अपने पराक्रम से मुक्त करो। सत्ता सहयोग के लिए होती है, सताने के लिए नहीं।"

स्वामी जी ने अपने कर्मनिष्ठ जीवन एवं लोकचेतना के प्रसार सम्बन्धी कार्यों से विशाल भूभाग के जनसाधारण के दिलों में ख़ास जगह बनाई। शिक्षा, जनजागृति, समाज सुधार के क्षेत्रों में एक कर्मयोगी के रूप में तथा हिंदी के निष्ठावान सेवक के रूप में उनका योगदान युगांतरकारी सिद्ध हुआ है। 'आप जो अपने पीछे छोड़ जाते हैं, वह पत्थरों के स्मारकों पर अंकित नहीं बल्कि दूसरों के जीवन की यादों में बसा होता है।' पेरिकल्स का यह कथन स्वामी जी जैसे युगप्रवर्तक के योगदान के लिए एकदम सटीक एवं सार्थक है।

✍️✍️ प्रो. हनुमानाराम ईसराण पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

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संदर्भ


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