Turmeric

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घरेलू औषध-१
हल्दी
लेखक : स्वामी ओमानन्द सरस्वती

प्रकाशक - हरयाणा साहित्य संस्थान, गुरुकुल झज्जर, जिला झज्जर (हरयाणा)
संवत् २०५७ विक्रमी
मुद्रक - आचार्य प्रिंटिंग प्रैस, गोहाना मार्ग, रोहतक

सुमित्रिया नः आप औषधयः सन्तु

हे प्रभु ! आपकी कृपा से प्राण, जल, विद्या और औषधि हमारे लिये सदा सुखदायक हों

Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल

नम्र निवेदन

हल्दी - आवरण पृष्ठ

सामान्य मनुष्य चाहे जंगल ग्राम कस्बे और बड़े नगर किसी भी स्थान में निवास करते हों, प्रायः सभी का एक ही स्वभाव है कि छोटे मोटे रोगों पर वैद्य, हकीम वा डाक्टर के घर का द्वार शीघ्र ही नहीं खटखटाते । अपने घर, खेत, आस-पास पड़ौस में सुगमता से जो भी घरेलू उपयोगी वस्तु मिल जाये, झट उसी का उपयोग वा सेवन करते हैं । किन्तु दैनिक प्रयोग में आने वाली हल्दी, नमक, धनिया, जीरा, अदरक आदि वस्तुओं के यथोचित गुणों का ज्ञान न होने से अनेक रोगों की चिकित्सा इनके द्वारा भलीभांति वे नहीं कर सकते । जिन हल्दी, नमक आदि का सभी लोग प्रतिदिन सेवन करते हैं, उनके द्वारा अनेक रोगों की वे स्वयं चिकित्सा भी कर सकें, इसी कल्याण की भावना से घरेलू औषध नामक ग्रन्थमाला का प्रथम पुष्प हल्दी आपको को भेंट किया जा रहा है।

इसमें सामान्य रूप से रोगों के निदान वा पहचान, चिकित्सा, उपचार, पथ्य और अपथ्य पर भी प्रकाश डाला है। आशा है प्रेमी पाठक इससे लाभ उठायेंगे।

- ओमानन्द सरस्वती

पृ० २

हल्दी के नाम

हल्दी एक प्रसिद्ध वस्तु है। इसे संस्कृत में हरिद्रा कहते हैं। भावप्रकाश निघण्टु में इस हरिद्रा के अनेक नाम दिये हैं। यथा -

हरिद्रा काञ्चनी पीता निशाख्या वरवर्णिनी।
कृमिघ्ना हल्दी योषित्प्रिया हट्टविलासिनी॥१८४॥

अर्थ - हरिद्रा, कांचनी, पीता, निशा, कृमिघ्ना, हल्दी, योषित्प्रिया, हट्टविलासिनी तथा युवती, हेमरागिणी, मेहघ्नी, गौरी इत्यादि नाम हल्दी के आयुर्वेद के ग्रन्थों में कहे हैं। एक विशेष वार्ता यह है कि जितने रात्रि के नाम संस्कृत भाषा के हैं वे सब नाम हल्दी के भी हैं।

भाषाभेद से हल्दी के नाम

इसे हिन्दी में हल्दी, बंगला में हरिद्रा, पीतरास, हलद। मराठी में हलद। गुजराती में हलदर। कन्नड़ में अरसीन। तैलगु में पासुपु। फारसी में जरदपोप। तामिल में मञ्जल। लैटिन में करक्युमालौंग (Curcuma longa)। अंग्रेजी में टरमेरिक (Turmeric)। उर्दू में हल्दी। अरबी में कुरकुम और पञ्जाबी में हलदर कहते हैं।

संस्कृत भाषा की यह विशेषता है कि शब्द के नाम में ही पदार्थ के अर्थ तथा गुण भी निहित रहते हैं। इसी प्रकार हल्दी के भी यथा नाम तथा गुण अथवा यह भी कह सकते हैं कि यथा गुण तथा नाम हल्दी के हैं।


हल्दी के गुण

भावप्रकाश निघण्टु में इस प्रकार से हल्दी के गुणों का वर्णन किया है -


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हरिद्रा कटुका तिक्ता रूक्षोष्णा कफपित्तनुत्।
वर्ण्या त्वगदोषमेहास्रशोषपाण्डुव्रणापहा॥१८५॥

हल्दी चरपरी, कड़वी, रूखी, गर्म, कफ-पित्त, त्वचा के रोग, प्रमेह, रुधिरविकार, कोढ़ खुजली, सूजन, पाण्डुरोग और घाव वा व्रणविनाशक है। सौन्दर्यवर्धक होने से स्त्रियों को भूषण समान प्रिय है। बिगड़े हुए प्रतिश्याय जुकाम पीनस रोग को दूर करती है। कृमिरोग, शीतपित्त, विषविकार और अपचन, राजयक्ष्मा आदि रोगों में भी लाभदायक है।

यूनानी मत

यूनानी मतानुसार हल्दी की गांठें कड़वी, शान्तिदायक, फोड़े को पकाने वाली और मूत्रल (पेशाब लाने वाली) होती हैं। ये यकृत की विकृति तथा पीलिया रोग में लाभ पहुंचाती हैं।

औषध का रूप

भारत देश में तो प्रत्येक घर में हल्दी की सूखी गांठों का खाद्य वस्तु के रूप में दैनिक प्रयोग होता है। इसको कूट छानकर शाक सब्जी दाल आदि में सभी निर्धन, धनी, गृहस्थ प्रतिदिन डालते हैं। किन्तु औषध में भी इसके कन्द का ही विशेष रूप से व्यवहार होता है। भेद केवल इतना है कि जब हल्दी की गांठें वा कन्द गीले होते हैं तो इसके रस का प्रयोग करते हैं जिसकी मात्रा १ तोले से २ तोले तक होती है। सुखाकर इसके चूर्ण का प्रयोग करते हैं तो इसकी मात्रा १ माशे से ४ माशे तक होती है। इसका स्वाद कटु (कड़वा) होने से इसको कटुका कहते हैं। यदि शाक वा दाल में हल्दी अधिक मात्रा में पड़ जाय तो उसका स्वाद कड़वा होने से


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सामान्य व्यक्ति उसे खा नहीं सकता। इसका अधिक मात्रा में प्रयोग हृदय को हानि पहुंचाता है। प्लीहा (तिल्ली), रक्त और मज्जा के लिए उत्तेजक है। इसके दोषों का निवारण नींबू के रस से होता है। हल्दी के अभाव में मुमीरे वा कचूर का प्रयोग करते हैं।

हल्दी की खेती

हल्दी की खेती पर्वतीय प्रदेशों के बीच की उपत्यकाओं में तथा समतल भूमि के क्षेत्रों में अथवा जांगल प्रदेशों में इसकी उपज अधिक होती है। अनूप (जल सहित) उष्ण जलवायु वाले स्थानों और रेत मिली डाक्कर उपजाऊ भूमि में इसकी अच्छी उपज होती है। जल खाद नलाई इन तीनों की इसमें बड़ी आवश्यकता है। सारे साधन यथोचित जुट जाने पर हल्दी की गांठें खूब मोटी-मोटी बैठती हैं। इसकी खेती अनेक बार हमने गुरुकुल में स्वयं करके अनुभव किया है। इसके क्षुप (पौदे) अदरक के समान छोटे-२ किन्तु कुछ बड़े पत्तों वाले होते हैं। ये डेढ़-दो फुट से भी अधिक ऊंचे हो जाते हैं। इसके पत्तों को तोड़कर मसलकर सूंघने से आम के समान गन्ध आती है। इसके पौदों के नीचे भीतर (घुइयों) अरबियों के समान कन्द वा गांठें बैठ जाती हैं। ये गांठें पीले रंग की होती हैं। ये अन्दर और बाहर से पीली होने से इसका नाम पीता है। इसका रंग सुवर्ण (सोने) के समान पीला बड़ा सुन्दर होता है, इसीलिये हल्दी का नाम काञ्चनी और हेमरागिणी (काञ्चन) सोने (हेम) के समान रंग वाली है। इसकी गांठें जहां खाने तथा औषध के रूप में प्रयोग में लाई जाती हैं वहां वस्त्र यज्ञोपवीत आदि के रंगने तथा संस्कारों में यज्ञ की वेदी के सजाने के कार्य में इसका प्रयोग होता है। वैश्य ब्रह्मचारी और वानप्रस्थी हल्दी


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से रंगे पीतवस्त्रों को धारण करते हैं। इसको जिस पदार्थ में डालोगे उसे ही अपने रंग में रंगकर पीला कर देती है।

हल्दी बनाना

हल्दी की गांठों को भूमि में से खोदकर निकाल लेते हैं और धोकर पानी में उबालकर धूप में सुखा लेते हैं। इन्हीं सूखी गांठों को हल्दी के रूप में प्रयोग करते हैं तथा हल्दी के नाम से जानते हैं। कई लोगों का विचार है कि बिना उबाले ही इन्हें सुखा देने से भी हल्दी तैयार हो जाती है। यही हल्दी बाजार में पीली गांठों के रूप में मिलती है और सारे भारत देश में हल्दी एक खाद्य पदार्थ के रूप में उपयोग होती है। हरी ताजी हल्दी की भाजी बनाकर भी लोग खाते हैं। यह भी अच्छी मानी जाती है।

हल्दी का सामान्य उपयोग

इस प्रसिद्ध वस्तु हल्दी का उपयोग भारत देश के सभी प्रान्तों में सभी घरों में सभी लोग एक खाद्य पदार्थ के रूप में प्रतिदिन प्रयोग करते हैं। सारे भारत देश में एक व्यक्ति भी ऐसा बहुत खोजने से भी नहीं मिलेगा जिसने अपने जीवन में हल्दी न खाई हो। क्योंकि प्रतिदिन सभी गृहस्थ शाक भाजी में, दाल में, कड़ी में यथोचित मात्रा में हल्दी डालकर खाते हैं। इसी प्रकार अचार, नमकीन वा मीठे पकवानों में इसका प्रचुर मात्रा में उपयोग होता है। भोजन में चाहे और मसाले कोई भी न डालें, किन्तु हल्दी को अवश्य ही डालते हैं, यहां तक जो नमकीन, मिर्च, खटाई, मीठा आदि नहीं खाते वे भी हल्दी अवश्य खाते हैं। हल्दी का परित्याग इसके गुणों के कारण कोई नहीं करता। धनी लोग तो जीरा,


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धनियां, सौंफ, अजवायन, हींग आदि अनेक मसालों के साथ हल्दी को अवश्य ही व्यवहार में लाते हैं। आबाल वृद्ध, वनिता सभी की हल्दी अवश्य सेवनीय वस्तु है। अनेक प्रकार के रोगों को दूर करने के लिये इसका प्रयोग खाने तथा लगाने की औषधियों में मिलाकर होता है।

हल्दी के विशेष उपयोग

हल्दी में एक विशेष सुगन्धित उड़नशील तैल होता है जो कढ़ी, शाक, सब्जी, भात आदि भोज्य पदार्थों को सुगन्धित, स्वादु और स्वास्थ्यप्रद बनाता है। जहाँ हल्दी सुगन्ध वाली है वहाँ बलदायक भी है। यह यकृत दोष, कामला, पीलिया तथा पुराने कफ रोगों में लाभदायक है। पिसी हुई हल्दी को तिल के तैल में मिलाकर मर्दन (मालिश) करने से कण्डू खुजली आदि चर्म रोग उत्पन्न ही नहीं होते। इसीलिये आर्यों (हिन्दुओं) में विवाह से कुछ दिन पूर्व वर और वधू को हल्दी आदि का उबटन मलकर प्रतिदिन दोनों समय स्नान कराने की परिपाटी (रिवाज) धार्मिक रूप में प्रचलित है, जिससे फोड़े, फुन्सी, खुजली, दाद आदि चर्म रोगों से वे दोनों सुरक्षित रहते हैं तथा सब मल उतरकर रोमकूप खुल जाते हैं तथा दोनों का रंग रूप निखर आता है। चून और हल्दी को मिलाकर चोट वा आघात लगे स्थानों पर, मोच आये अंगों पर लेप करने से लाभ होता है।

आंखों के अनेक प्रकार के रोगों में हल्दी अत्यन्त हितकर है और चक्षु रोगों में होने वाली पीड़ा को दूर करने के लिये अच्छी औषध है।

चोट के कारण हुए रक्त प्रवाह को रोकने के लिए हल्दी का


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चूर्ण लगाने से लाभ होता है।

हल्दी मूत्रस्थान की पीड़ा को दूर करती है। सामान्यरूप से हल्दी के विशेष लाभ संक्षिप्त रूप में ऊपर लिख दिए। हल्दी का विस्तार से उपयोग, विधि-विधान पूर्वक अगले पृष्ठों में पाठकों को पढ़ने को मिलेगा।

दूसरे देशों के लोग वा डाक्टर हल्दी के विषय में जो गुण वा उपयोग मानते हैं, उस विषय में श्री सी० लोंगा का मत नीचे दिया जाता है।

Constituents of C. Longa. An essential oil I.P.C. resin curcumin, the yellow colouring matter, turmeric oil or turmerol. Turmeric oil is a thick yellow viscid oil. The curry powder owes its aromatic taste and smell to this oil.
Actions and Uses - Tonic and aromic, given in jaundice and in chronic bronchitis.
When mixed with tila tela, it is applied to the whole body to prevent skin eruptions. With kali chuna power, it is applied to bruises, sprains, contused wounds, black eyes with relief. A paste of it stops bleeding from leechbites. A docoction of it is used as a cooling lotion in conjunctivitis, boiled in milk and sweetened with शर्करा turmeric is a popular remedy for cold. Fumes of burning turmeric passed into the nostrils relieve coryza. Internally, halalada is given in

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liver infections and jaundice. On account of its yellow colour, cloth dipped in its paste is employed as an eye-shade. It is used in urinary diseases and with Sajikhara (सज्जीक्षार) as an internal application to reduce indolent swelling.
(R.N. Khory)

अर्थात् हरिद्रा बलदायक और सुगन्धित है। यह कामला और पुराने कफरोगों में प्रयोग में लायी जाती है। पिसी हुई हल्दी को पुराने तिल तैल में मिलाकर मालिश करने से कण्डू खुजली आदि चर्म रोग उत्पन्न नहीं होते। चूने और हल्दी का मिश्रित प्रयोग चोट वा आघात लगे स्थान तथा पिच्चित वा मोच आये अंगों पर प्रलेप द्वारा इसका प्रयोग किया जाता है। ब्लैक आई नामक आंख के रोग में तथा नेत्र के चतुःपार्श्व में होने वाली पीड़ा वा वेदना को इसका प्रयोग दूर करता है। जोंक आदि के द्वारा दंशित स्थान से जो अधिक रक्त निकलता है इसे बन्द करने के लिए हल्दी का चूर्ण लगाते हैं। हल्दी के क्वाथ द्वारा चक्षु परिषेचन से आँखों की जलन दूर होती है। हल्दी को दूध में पका कर तथा शर्करा मिलाकर शीतकाल में प्रयोग करते हैं। कफ रोग को दूर करने के लिये हल्दी अच्छी औषध है।

हल्दी का धूवाँ दोनों नासिका छिद्रों के द्वारा लेने से ऊर्ध्वश्लेष्म (कफ) के द्वारा हुई पीड़ा विशेष (coryza) दूर होती है। यकृत् दोष वा कामला (पीलिया) को दूर करने के लिए हल्दी का सेवन किया जाता है। दुखती हुई आँखों पर हल्दी में रंगे हुए वस्त्र को ढकने से लाभ होता है।

मूत्र (पेशाब) रोगों में हल्दी का हज्जीखार के साथ मसाने


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पर अन्दर की सूजन को दूर करने तथा रुके हुए पेशाब को निकालने के लिये लेप किया जाता है तथा इसे औषध के रूप में खिलाया जाता है। (आर० एन० खोरी)

हल्दी में एक प्रकार का सुगन्धित तैल होता है। यह उड़नशील होता है। इसकी मात्रा १ प्रतिशत गोंद वा पीतवर्ण का रञ्जक पदार्थ और एक विशेष तैल रहता है जो घना पीले रंग का और चिपचिपा होता है। कढ़ी के अन्दर इसका सुगन्ध युक्त स्वाद होता है।

हल्दी से कफ रोगों की चिकित्सा

हल्दी को आयुर्वेद शास्त्रों में कफपित्तनुत् अर्थात् कफ और पित्त के रोगों का नाश करने वाली कहा है।

कफ के रोग - कास वा खांसी, श्वास, दमा, प्रतिश्याय (जुकाम), नजला, पीनस आदि प्रसिद्ध रोग कफ के दूषित वा कुपित होने से उत्पन्न होने वाले हैं।

प्रतिश्याय वा जुकाम - संस्कृत में वा आयुर्वेद शास्त्रों में जुकाम का नाम ही प्रतिश्याय है। वैसे तो जुकाम साधारण रोग माना जाता है। इसकी ओर ध्यान भी कम ही दिया जाता है किन्तु इसकी ठीक चिकित्सा न करके जो व्यक्ति अपथ्य (बदपरहेजी) करते हैं, ऐसे रोगियों को श्वास दमा पीनस राजयक्ष्मा (तपेदिक) आदि भयंकर रोगों


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के चंगुल में फंसकर दुःखी होकर मृत्यु का ग्रास बनना पड़ता है। अतः सावधानी से ही जुकाम की चिकित्सा करनी चाहिए। यदि शीतकाल में प्रतिश्याय शीत वा ठंडक लगने से हो जाए, छींक खूब आती हो, नाक भी बहता हो, गले में खराश खुरदरापन हो, चाहे खाँसी भी हो, भूख भी न लगती हो, खाने पीने में अरुचि हो तो ऐसी अवस्था में निराहार रहना (उपवास करना) बहुत ही लाभदायक सिद्ध होता है। उपवास एक वा दो दिन ही करना चाहिए। इससे बहुत ही लाभ होगा। रोगी निर्बल हो अथवा जुकाम में भी भूख अच्छी लगी हो तो हल्का भोजन करायें।

हल्दी का प्रयोग - जब जुकाम आरम्भ ही हुआ हो तो रात को सोने से पूर्व नाक के छिद्रों के द्वारा हल्दी का धूवाँ ग्रहण करें। जलते कोयलों पर पिसी हुई हल्दी डालें और श्वास द्वारा नाक से उस धूवें को खूब अन्दर खींचें। हल्दी की गांठें जलाकर भी उनका धूवाँ लिया जा सकता है। इस हल्दी के धूवें के अन्दर जाने से नाक खूब बहने लगता है और जुकाम का सब विकार अर्थात् दूषित कफ बहने लगता है और इस प्रकार दूषित मल बहकर बाहर निकल जाता है और मस्तिष्क हल्का हो जाता है। चाहे कितना भी कठिन सख्त जुकाम हो, अच्छा हो जाता है। कई बार नये तथा पुराने जुकाम में भी नाक बन्द हो जाता है। ऐसी अवस्था में भी यह हल्दी का धूवाँ बड़ा ही लाभ करता है। ऊपर लिखे अनुसार हल्दी के धूवें से नाक द्वारा मल पतला होकर निकलकर पीनस तक में भी लाभ होता है। हल्दी इस प्रकार जुकाम, पीनस, खाँसी आदि कफ के रोगों में लाभदायक है। हल्दी क्योंकि श्लेष्म त्वचा में रूक्षता उत्पन्न करके कफ के उत्पन्न होने को कम कर देती है। इसलिये शीतकाल में त्रिकुटा वचादि


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लाभ पहुंचाती है उसी प्रकार हल्दी भी लाभदायक है। ठण्डक लग जाने पर जैसे हल्दी की धूनी से लाभ होता है, उसी प्रकार हल्दी खाने से भी लाभ होता है।

हल्दी के अन्य उपयोग - हल्दी को गाय के दूध में उबालकर यथेच्छा थोड़ी खांड वा गुड़ मिलाकर रोगी को पिलाना चाहिये। इसके प्रयोग से भी नाक द्वारा दूषित कफ बहकर निकल जाता है और मस्तिष्क का भार हल्का हो जाता है। हल्दी का यह काढ़ा जुकाम, पीनस तथा खांसी में भी बहुत लाभदायक है।

जिन रोगों में श्लेष्म त्वचा से कफ अधिक मात्रा में निकलने लगता है, जैसे गले द्वारा कफ का अधिक निकलना, नाक से सैंडा सिनक का गिरना आदि रोगों में हल्दी का सेवन बहुत हितकर है।

विशेष सावधानी -

  • १. हल्दी सूखी के चूर्ण की एक मात्रा १ माशे से ४ माशे तक है। बच्चों को १ रत्ती से ४ रत्ती एक मात्रा के रूप में देनी चाहिये।
  • २. यदि ताजी और गीली हल्दी का रस किसी रोग में देना हो तो इसकी एक मात्रा १ तोले से २ तोले तक है। बालक को एक माशे से ४ माशे तक यह रस दिया जा सकता है। मात्रा की न्यूनता अधिकता देशकाल रोगी की शक्ति तथा वैद्य की बुद्धि पर निर्भर है। जितना लाभ ताजी गीली हल्दी की गांठें वा रस करता है उतना लाभ सूखी हल्दी वा उसका चूर्ण नहीं करता किन्तु ताजी वा गीली गांठें सदैव तथा सर्वत्र सुलभ नहीं, अतः सूखी हल्दी की गांठों वा चूर्ण का प्रयोग उसके अभाव में करना चाहिये।

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  • ३. जब जुकाम वा पीनस वा कंठ के रोगों में हल्दी का धूवाँ नाक द्वारा रोगी को दिया जाये तो उसके पीछे एक घण्टे तक जल नहीं पीना चाहिये तथा एक घण्टे पीछे भी उष्णजल ही सेवन करना चाहिये। शीतकाल में जुकाम खांसी तथा पीनस आदि कफ के रोगों में सदैव उष्ण जल का पान तथा उष्ण जल से ही स्नान करना चाहिये।

पीनस रोग

बिगड़े हुए प्रतिश्याय वा जुकाम वा उससे उत्पन्न विकारों का नाम ही पीनस है। पीनस रोग वायु और कफ के दूषित होने से नासिका के भीतर का कफ सूख जाता है और इससे नाक बन्द हो जाता है। कभी वह बन्द होकर बहता भी रहता है। मस्तिष्क और शरीर में उष्णता प्रतीत होती है। ऐसे अवसर पर सुगन्ध और दुर्गन्ध का ज्ञान भी नहीं रहता और जिह्वा का स्वाद भी बिगड़ जाता है। और प्रतिश्याय जुकाम के सभी लक्षण भी इस रोग में होते हैं क्योंकि यह रोग तो जुकाम का एक बिगड़ा हुआ ही रूप है। जिस प्रकार जुकाम में शिर में भारीपन, नाक का बहना, भोजन में अरुचि, गालों का बैठ जाना, शीघ्र-शीघ्र थूकने की इच्छा होना ये प्रारम्भिक अर्थात् कच्चे पीनस के लक्षण होते हैं। जब पीनस थक जाता है तब कफ गाढ़ा हो जाता है और वह थोड़ी मात्रा में निकलता है। पकने पर कण्ठ और मुख की आकृति ठीक होने लगती है।

पीनस की चिकित्सा - हम कह चुके हैं कि यह नाक का रोग है। अधिकतर जुकाम


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के बिगड़ने से इसके लक्षण प्रकट होते हैं। नाक का बहना, कण्ठ का बैठना, बार बार थूकना, भोजन में अरुचि जुकाम के समान ही सब लक्षण होते हैं।

  • १. ऐसी अवस्था में कच्ची हल्दी की सब्जी तरकारी बड़ी अच्छी रहती है। उसमें गोघृत, सैंधा नमक और काली मिर्च साथ डालकर पका लें और इसमें अदरक भी रुचि के अनुसार मिला लें। फिर इस हल्दी की सब्जी के साथ गेहूं वा जौ की रोटी बिना चुपड़ी सूखी खिलायें। इस प्रकार १०, १५ दिन तक कच्ची ताजा हल्दी की सब्जी खाने से यह रोग दूर हो जाता है।
  • २. हरिद्राघृत - १ पाव गोघृत, कच्ची हल्दी का रस १ सेर - दोनों को कढ़ाई वा कलीदार बर्तन में एक साथ पकायें, मन्दाग्नि जलाकर पकायें। जब रस जल जाये तो घी को कपड़े से छान कर रख लें। इस घी को चम्मच से वा रूई के फोहे से नाक के अन्दर डालें और ऊपर को खींचें। जाड़े के कारण यदि घी जम गया हो तो उसे थोड़ा अग्नि पर गर्म कर लें। इसी प्रकार दस पन्द्रह दिन दोनों समय नाक के द्वारा इस हरिद्राघृत का सेवन करें। जहाँ कच्ची हल्दी का रस न मिले वहाँ आध सेर सूखी पिसी हुई हल्दी का क्वाथ बनाकर उसे घी में डालकर पका लें। घी शेष रहने पर उपर्युक्त प्रकार से सेवन करें। इस हरिद्राघृत के सेवन से पीनस, जुकाम तथा नाक, मस्तिष्क और कण्ठ आदि के सभी विकार ठीक हो जाते हैं।
  • ३. हल्दी डालकर पकाया हुआ गोदुग्ध पीने से भी पीनस आदि में लाभ होता है।
  • ४. शिर पर नाक में हल्दी वा अन्य औषध से तैयार किये हुए तैल का प्रयोग करना चाहिए। नाक द्वारा नस्य लेने से लाभ होता है।

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नस्य - हल्दी पिसी हुई १ तोला को आक के दूध में भिगोकर छाया में सुखा लें और पीसकर इसकी नसवार लेकर छींकें आकर नाक खुक जाता है और पीनस जुकाम आदि में लाभ होता है।

  • ५. हल्दी को जलाकर इसका धूवां नाक द्वारा लेने से भी लाभ होता है। ठण्डक से बचना चाहिए। उष्ण वस्त्र धारण करने चाहिएं, उष्ण जल से ही स्नान करना चाहिये।

भोजन - गाय के घी में बनाया हुआ हल्दी वाला नमकीन पतला हलुआ वा लापसी जुकाम वा पीनस में अच्छा भोजन रहता है। भोजन हल्का गर्म पतला नमकीन और चिकना देना चाहिये। यदि ज्वर हो तो हलवा वा घी वाला भोजन न करायें।

अपथ्य - शीतल जल से स्नान, मल, मूत्र, अपानवायु आदि वेगों का धारण करना, चिन्ता शोक तथा पतले भोजन तक्र छाछ दही आदि सब वर्जित हैं।

पथ्य - पुराना जौ, पुराना बासमती चावल, परवल, सौंहजना, बथुवा आदि का सेवन इन रोगों में अच्छा रहता है। मूंग कुल्थी का उबाला हुआ उष्ण जल (जूस) का सेवन भी लाभदायक है। गाय की मीठी ताजी दही लवण अदरक कटु अम्ल और चिकने पदार्थ खाने से लाभ होता है। हल्का और गर्म भोजन जुकाम पीनस में पथ्य अर्थात् लाभदायक है।

कास वा खांसी

कास वा खांसी अनेक प्रकार की होती है। काली खांसी, कुत्ता खांसी, सूखी खांसी तथा तर कफ वाली खांसी इत्यादि।

  • १. काली खांसी - भुनी हुई हल्दी १ मासा, सितोपलादि

पृ० १५

चूर्ण १ माशा, वासाक्षार १ माशा, अपामार्गक्षार ४ रत्ती, केलाक्षार ४ रत्ती - इन सबको मिला लें। यह एक मात्रा है, इसे मधु शहद में मिलाकर रोगी को चटायें। ये तीन-चार बार दिन रात में रोगी को चटानी चाहिये। इससे सूखी खांसी, कफवाली, तर खांसी, कुक्कुर (कुत्ता) खांसी सब प्रकार की खांसी दूर होती है।

  • २. भुनी हुई हल्दी का चूर्ण १ माशा और यवक्षार वा वासाक्षार ४ रत्ती दोनों मिलाकर पान के पत्ते में रखकर चबायें तथा उसका रस चूसें तथा इसी प्रकार भोजन के पश्चात् हल्दी भुनी हुई तथा यवक्षार वा वासाक्षार रखकर इसे चबाना चाहिये। इसका रस चूसने से पुरानी खांसी में भी लाभ होता है।
  • ३. प्रातःकाल निराहार १ पाव गाय वा बकरी का दूध लें तथा उसमें १ माशा हल्दी डालकर खूब पकाकर उसे ठण्डा कर लें तथा उसमें ६ माशे मधु (शहद) डालकर रोगी को कुछ दिन पिलाने से पुरानी खांसी दूर होती है।
  • ४. हल्दी २ तोले को खूब बारीक पीसकर तवे पर भून लेवें। और इसमें २ माशे आक का दूध अच्छी प्रकार से मिला लें। २ रत्ती शहद में मिलाकर चाटें, इसी प्रकार २ वा ३ बार दिन में सेवन करें। कुछ ही दिन में खांसी में लाभ होता है। खांसी अधिक हो तो मात्रा ४ रत्ती तक भी ली जा सकती है।

पुरानी खांसी - यदि खांसी पुरानी हो और उसके कारण खांसते-खांसते रोगी न दिन में कोई कार्य कर सकता हो न रात्रि में नींद ही आती हो तो भुनी हुई हल्दी १ माशा, पान का रस ३ माशे और अदरक का रस ३ माशे और शहद ६ माशे तीनों को मिलाकर दिन रात में रोगी को तीन चार बार चटायें। यदि कफ न निकलता हो तो यवक्षार वा वासाक्षार दो रत्ती प्रत्येक मात्रा में


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मिलाकर चटायें। इससे पुरानी खांसी में बड़ा लाभ होगा।

पथ्य - रोगी को पुराने जौ, पुराने बासमती चावल, कुल्थी और मूंग का बना हुआ पतला दलिया, दाल व छोलिया अथवा रससार (जूस) लेना चाहिए। परवल, छोटी, मूली, बथुवा, सौंहजना, लवण, कटु, अम्ल और चिकने पदार्थ, हल्का सुपच और थोड़ा उष्ण आहार लेना चाहिये। अदरक, सूंठ, काली मिर्च का सेवन भोजन के साथ लाभदायक है। गाय की ताजी मीठी दही, नमक, सूंठ डालकर भी थोड़ी मात्रा में ली जा सकती है। त्रिकुटा २ माशे तथा हल्दी २ माशे गाय के दूध में उबालकर लेने से रोगी को लाभ होता है तथा यह खांसी के रोगी का सर्वोत्तम भोजन है।

अपथ्य - शीतल जल से स्नान, क्रोध करना, मल मूत्र और अपानवायु आदि के वेगों को धारण करना या रोकना, चिन्ता करना, पतली वस्तुओं का अधिक प्रयोग करना, खांसी, जुकाम आदि रोगों में इनसे बचना चाहिये। स्नान उष्ण जल से करना चाहिये, किन्तु यह सदैव ध्यान रहे कि ब्रह्मचारी को सदैव शीतल जल से ही स्नान करना चाहिये। खाँसी आदि रोगों में कूएं के ताजे जल से धूप में निर्वात स्थान में स्नान किया जा सकता है। लाल मिर्च, कच्चा मीठा, गुड़ शक्कर आदि, उड़द, अधिक भोजन, धूवां, धूल, अधिक परिश्रम, अमरूद, मूली, सब प्रकार के खट्टे पदार्थ, तैल की वस्तुयें, बासी भोजन - ये सब पुरानी और नई सभी प्रकार की खांसी में सर्वथा त्याग देने चाहियें। इनसे परहेज करना चाहिये।

उपचार - सैंधा नमक डालकर पुराने गेहूँ का दलिया, पुराने गेहूँ के आटे का सूखा फुल्का, जौ, मसूर, मूंग, चना इनको उबाल कर इनका गर्म-गर्म जल (जूस) रस-सा, अदरक, अजवायन, लौंग,


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उष्ण जल, काला मुनक्का, अञ्जीर, खजूर, छुहारा, शहद, परवल, कच्चे केले की सब्जी, कच्चे पपीते की सब्जी बनाकर खिलाना हितकर है।

श्वास का रोग

श्वास वा दमा शराब पीने, गन्ने का रस अधिक पीने, राई, लाल मिर्च आदि अधिक जलन उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के खाने, भारी, रूखी और रस को बहाने वाले सूक्ष्म बारीक (महीन) शिराओं व नसों के मार्ग को रोक देने वाली वस्तुओं, दही, कटहल, बड़हल तथा कफ को उत्पन्न करने वाली वस्तुओं के अधिक प्रयोग से, शीतल वस्तुओं के खाने से, अधिक ठण्डा भोजन करने से, अनूप देशों में रहने से, धूल, धूवां, धूप और तेज वायु में रहने से, अत्यधिक परिश्रम, अधिक भार उठाने से, मलमूत्र आदि वेगों को रोकने से, अधिक उपवास करने से और ब्रह्मचर्य के नाश करने से श्वास वा दमे का रोग हो जाता है।

विशेष सावधानी - यदि किसी व्यक्ति को चाहे वह स्त्री हो वा पुरुष, यदि उसको खांसी जुकाम वा पीनस का रोग हो तो उसे ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। उपरोक्त रोगों में वीर्य नाश से ही दमा वा श्वास का रोग हो जाता है। इसलिये प्रत्येक स्त्री पुरुष को इस भयंकर श्वास वा दमे के रोग से बचने के लिए कास, खांसी, जुकाम, पीनस आदि रोगों में जी जान से ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहिये।

श्वास रोग कफ के कारण होता है। श्वास वा दमे के रोग में श्वास वा दम फूलता है। जैसे भाथी (भट्ठी) से वायु वेग से


पृ० १८

निकलता है, उसी प्रकार वेग (तेजी) से मुख वा नाक से श्वास निकलता है। यही श्वास वा दमे की पहचान है। यह भी कास खांसी के समान पांच प्रकार का ही होता है। इस रोग के प्रारम्भ में उदर पक्वाशय और आमाशय में अर्थात् पेट में दर्द होता है, पीड़ा होती है।

उदर का फूलना, तनाव, अफारा, अपानवायु के रुकने से मलबद्ध (कब्ज) मल का न निकलना, मुख में सूखापन, सिर वा कनपटियों में पीड़ा होती है।

सूखी खांसी और दमा - काली मिर्च, हल्दी छोटी, पीपल, मुनक्का काली, रास्ना, कंचूर, पुराना गुड़ - प्रत्येक बराबर लेकर कूट पीस लें। मुनक्का और गुड़ बाद में मिलायें। मुनक्का का तोल बीज निकालकर करें। मात्रा ३ माशे। छोटे बच्चों को मां के दूध में तथा अन्यों को कड़वे तैल में प्रातः सायं दें। परहेज - चावल, दही, मूली, नीम्बू न खायें। कष्ट ज्यादा हो तो गुनगुना पानी पीवें। दवा खाकर आधा घण्टा तक पानी न पीवें।

श्वास की चिकित्सा

१. श्वास, दमा पुराना हो और रोगी इससे बहुत दुःखी वा तंग हो तो तीन माशे हल्दी का कपड़ छान किया हुआ चूर्ण लेवें, शुद्ध सरसों का तैल ६ माशे साथ काली मिर्च बारीक पीसकर इसमें मिलाकर रोगी को चटायें।

मालिश के लिए तैल - सरसों का तैल १० तोले, अर्क के पत्तों का रस १० तोले अथवा इसके स्थान पर आक का दूध १० तोले


पृ० १९

लेवें, पांच तोले हल्दी, बारीक पिसी हुई हो, उसको जल में मिलाकर चटनी के समान रगड़कर बना लेवें तथा तैल में पकायें। आग धीमी जलायें, पक जाने पर जब तैल ही रह जाए तो इसे कपड़छान कर लें और शीशी में रख लेवें। प्रातः सायं इसे थोड़ा गर्म करके छाती, पीठ, पेट और कण्ठ आदि स्थानों पर चुपड़ कर अग्नि से सेक करें। इस प्रकार १० वा १५ दिन करने से तथा पथ्य से रहने से श्वास वा दमा का दौरा समाप्त हो जाता है और रोगी सुख का श्वास लेता है।

३. अन्य उपचार - श्वास के रोगी को आदि में कोई औषध सेवन कराने से पूर्व यदि रोगी में कोई बल वा शक्ति हो तो उसे स्वेदन, स्नेहन, वमन, विरेचन आदि पञ्चकर्म किसी अनुभवी वैद्य की देखरेख में करा देने चाहियें। यदि रोगी अधिक निर्बल हो तो रोग को शान्त कराने के लिए और उपाय करें। क्योंकि रोगी का दूषित कफ ढीला करके निकालने तथा बढ़ी हुई वायु को शान्त करने के उपाय अत्यावश्यक हैं।

४. सेक - महानारायण तैल वा तिल का तैल, सैंधा नमक मिलाकर गर्म करके पेट और छाती पर मालिश करके खूब सिकाई करें। रात्रि में सोने से पूर्व इस प्रकार सिकाई और मालिश करने से वायु शान्त होकर तथा कफ पिघलकर पतला होकर निकल जाता है। रोगी को शान्ति मिलती है।

५. सैंधा नमक १ माशा, पीपल का चूर्ण १ माशा, हल्दी का रस ६ माशा मिलाकर रोगी को चटावें।

६. पेठे का चूर्ण ३ माशे थोड़े गर्म जल से देने से रोगी को लाभ होता है।

मूंग, परगल, पुआना गेहूं, पुराना जौ, बथुवा आदि का


पृ० २०

पकाया हुआ पतला पानी (जूस) या दलिया श्वास के रोगी को अच्छा रहता है।

पथ्य - पुराने अन्न, जौ, गेहूं, चावल, कुल्थी और मूंग, अदरक, अजवायन सहित उबाला हुआ उष्ण जल, फलों में मीठा अनार, काला मुनक्का, कच्चे केले और पपीते की सब्जी, आंवला, बथुवा, पुराना पेठा, हल्दी, धनियां, सैंधा नमक और अदरक का सेवन रोगी के लिए हित्गकर है। गाय वा बकरी का दूध, अदरक, सूंठ, पीपल उबालकर देना चाहिए। यदि सायंकाल भोजन न करें तो बहुत अच्छा रहता है। यदि किन्हीं कारणों से सायंकाल भोजन करना भी पड़े तो दिन रहते थोड़ा और हल्का भोजन करना चाहिए।

दाल, सब्जी, दलिया, नमकीन हलुवा, कुछ भी देवें तो सब में हल्दी के चूर्ण का अधिक सेवन कराने से लाभ रहेगा।

पामा खुजली

हल्दी के सेवन से कण्डू पामा, खुजली, दाद आदि चर्मरोग नष्ट हो जाते हैं और जुवें, लीक आदि क्षुद्र (छोटे) जन्तुओं का वस्त्रों और शरीर में उत्पन्न होना तथा फैलना रुक जाता है।

खाज चाहे गीली पकने वाली हो वा सूखी हो, चाहे सारे शरीर में हो वा हाथ पैरों की अंगुलियों के बीच में पीली फुन्सियां निकल आयें उनमें मवाद निकलता हो वा सूखी खुजली चलती हो, शरीर में रूक्षता हो, कोई खुजली का रोग हो, इसी को पामा तथा कण्डू भी कहते हैं।

मलमूत्र व वमनादि के वेगों को रोकने से, भोजन


पृ० २१

के पश्चात् तुरन्त उसी समय अधिक परिश्रम करने से, अग्नि धूप के अधिक सेवन करने से, गर्मी वा अग्नि के पास अधिक कार्य करने के कारण शरीर के उष्ण होते हुए तुरन्त शीतल जल से स्नान करने से, नया अन्न खाने से, दही, उड़द, तिल, गुड़, खटाई, मछली, मांस के सेवन से, मूली, दूध और मैदे पीठी के बने भोजन के अधिक सेवन से, वीर्य नाश से, दिन में सोने आदि कारणों से वायु, पित्त और कफ के दूषित होने से चर्म रक्त मांस मज्जा आदि को बिगाड़ देते हैं तब यह कई प्रकार के कण्डू पामा खुजली कुष्ठादि रोग हो जाते हैं। इन्हीं कोढों में यह छोटा कोढ़ खाज वा खुजली है। इसी का नाम आयुर्वेद शास्त्रों में पामा है। इस रोग में हरिद्रा आसव, हरिद्रा खण्ड और हल्दी का हलुवा बहुत लाभदायक है।

हरिद्रा आसव - बढ़िया हल्दी की सूखी गांठें एक सेर लेकर कूटकर कपड़छान कर लेवें। इसे आठ सेर शुद्ध जल में मिलाकर एक उबाल देकर नीचे उतार लेवें और ठंडा होने पर तीन सेर शुद्ध मधु (शहद) मिलाकर किसी चिकने मिट्टी के बर्तन चीनी वा शीशे के बर्तन में डालकर उसका मुख बन्द कर देवें। १५ दिन वा १ मास में निथरे हुए आसव को छानकर बोतलों में भर देवें।

यदि ताजा हल्दी की गांठें मिल जायें तो उनको कूट-छानकर उसका १० सेर स्वरस निकाल लें। उसे एक उबाल देकर नीचे उतार ठंडा करके उसमें तीन सेर मधु मिलाकर मिट्टी के चिकने बर्त्तन वा चीनी के बर्त्तन में डालकर बन्द कर देवें। १५ दिन वा १ मास में निथरे हुए आसव को छानकर बोतलों में भर देवें। मात्रा १ तोले से २ तोले तक रोगी की आयु तथा शक्त्यनुसार


पृ० २२

समान जल मिलाकर भोजन के आधा घण्टा पश्चात् शीशे के गिलास में देवें।

यह आसव पामा, खुजली, दाद, चर्म रोगों तथा प्रमेह आदि धातु रोगों की अचूक औषध है। मूत्र के साथ धातु आना, आगे-पीछे धातु आना, शक्कर आना, मधुमेह आदि रोगों की रामबाण औषध है।

रक्त को शुद्ध करने, चर्म रोग, शीतपित्त, छपाकी, पित्त निकलने आदि रोगों को नष्ट करने के लिए यह अत्यन्त लाभदायक औषध है।

हल्दी का हलुवा - हल्दी की गांठों को कूट पीसकर कपड़छान कर लें। इसका चूर्ण २० तोले, गौ का दूध २ सेर और खाण्ड वा मिश्री सवा सेर गोदुग्ध में अच्छी प्रकार से घोल लेवें और लोहे की साफ कढ़ाई वा किसी कलीदार बर्त्तन में इसे पकायें। जब खोया तैयार हो जाय, तब उसमें घी डालकर भून लें, जब कुछ लाल हो जाए तो उसमें खाण्ड की पहले तैयार की गई एक तार की चाशनी डालें। जब पककर हलुवा तैयार हो जाय अर्थात् बनकर घी छोड़ देवे तो उसे उतार लेवें। उसे पका हुआ समझें।

चाशनी तैयार करने की यह विधि है - सेवा सेर खण्ड वा मिसरी में आधा सेर जल डालकर पकायें। जब एक तार की चाशनी तैयार हो जाए तो उसे उतारकर हलुवा बनाने के कार्य में लावें।

हलुवे की सेवन विधि - हलुवे की मात्रा १ तोले से २ तोले तक है। इसे प्रातःकाल


पृ० २३

तथा सायंकाल खाकर ऊपर से गौ का धारोष्ण दूध वा ऊष्ण करके ठण्डा किया दूध पीवें। इस हलुवे को १० वा १५ दिन तक खाने से सूखी वा तर पकने वाली खाज दूर भाग जाती है। रक्त शुद्ध होकर अन्य चर्मरोग भी दूर हो जाते हैं। साथ ही हल्दी से बना तैल भी खुजली पर लगावें।

हल्दी का तैल - सरसों का तैल १ पाव, हरी घास वा दूब का रस आधा सेर, अर्क का दूध आधा पाव, जल के साथ पिसी हुई हल्दी ३ छटांक लेवें। इन सबको लोहे की कढ़ाई में पकायें, आग मन्दी-मन्दी जलायें, रसादि के जलने पर तैल को नीचे उतार लेवें। थोड़ा सा ठण्डा होने पर तैल को वस्त्र से छानकर शीशी में रख लेवें और इस तैल को प्रतिदिन खुजली पर लगायें, इससे सभी प्रकार की खुजली दूर हो जाती है। यदि फुन्सी वा मवाद हो तो उसे नीम के गर्म पानी से धो डालें और सूखे कपड़े से पोंछ कर रूई के फोहे से खुजली की फुन्सियों पर तैल को चुपड़ देवें। इस प्रकार हल्दी का हलुवा खाने तथा यह तैल लगाने से कुछ दिन में खुजली दूर हो जाती है।

खुजली की मालिश की औषध

हल्दी ६ माशे, नीला थोथा ३ माशे, कमेला ३ माशे, आंवला सार गंधक ३ माशे, मुर्दासंग ८ माशे - सबको कूट छानकर सरसों का तैल ८ तोले वा गाय के मक्खन ८ तोले में मिला लें। इसको धूप में बैठकर खुजली के स्थानों पर लगाकर हल्के हाथ से मालिश करें। एक घण्टे के पश्चात् नीम के पत्तों के उष्ण जल से स्नान कर लेवें। यह भी खुजली की अच्छी औषध है। इसकी


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मालिश से खुजली तो पहले ही दिन शान्त हो जाती है। एक सप्ताह की मालिश तथा हल्दी का हलुवा खाने से खुजली भी भाग जाती है।

अन्य उपचार - खुजली के रोगों में कोई भी औषध सेवन करने से पूर्व हल्का-सा विरेचन (दस्तावर दवा) ले लेनी चाहिए। कब्ज नहीं रहना चाहिए। त्रिफले का भी सेवन किया जा सकता है। नीम के पत्तों से गर्म किए हुए जल से प्रतिदिन खुजली के स्थानों को धोना चाहिए तथा खुजली के रोगी को इसी जल से स्नान करना चाहिए।

अन्य उपचार - चिरायता पित्तपापड़ा (शाहतरा) उशबा, गिलोय गोरखमुण्डी आदि तिक्त, कड़वी, कसैली और रूखी गुणवाली तथा पित्त को दबाने वाली औषधों का सेवन करें।

अपथ्य - गुड़, शक्कर आदि कच्चा मीठा, खटाई, लाल मिर्च, अरबी, आलू, उरद, मटर, दही, बैंगन, नया अन्न, पक्का केला, दिन में सोना, आग सेकना, अधिक समय धूप में कार्य करना, पूर्व की तेज तथा ठण्डी वायु से बचना चाहिए।

पथ्य - नीम, महानीम, करेला, मधु (शहद), परवल, मूंग, चना, पुराना चावल, गेहूँ, गाय तथा बकरी का दूध, हल्दी, धनियां, सैंधा नमक, आंवला आदि पथ्य हैं, इनका सेवन करना चाहिए।

सोते समय प्रतिदिन त्रिफले के जल के साथ सेवन करें। पानी वाला नारियल भी हितकर है। प्रतिदिन शरीर की शुद्धि बहुत ही लाभप्रद है।

यदि भोजन में केवल मिस्सी वा बेसनी रोटी, गाय के घी के साथ सेवन करें, नमक भी न खायें तो खुजली आदि चर्म रोग बहुत शीघ्र दूर होते हैं।

हल्दी को मक्खन मिलाकर लगाने से त्वचा बहुत ही नरम,


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मुलायम हो जाती है और बहुत से खुजली आदि चर्मरोग होते ही नहीं तथा हो गए हों तो नष्ट हो जाते हैं। हल्दी के उबटन से देह का सौन्दर्य भी निखर जाता है। इसलिए विवाह के समय पर वर और कन्या दोनों ही हल्दी का उबटन शास्त्राज्ञा मानकर करते हैं।

व्रण, फोड़े तथा जख्म

व्रणों, जख्मों के ऊपर हल्दी को पीसकर लगाने से व्रण का संशोधन और संकोचन होकर वह शीघ्र भर जाता है। फोड़ों को पकाने के लिये जितनी भी पुलटस बनायी जाती है, उन सबमें हल्दी डाली जाती है। इसी प्रकार जितने तैल फोड़े, फुन्सियों के लिए बनाये जाते हैं उन सबमें भी हल्दी अवश्यमेव डाली जाती है। तैलों के मर्दनार्थ अर्थात् उन्हें मुर्दा करने के लिए हल्दी प्रायः सभी तैलों में डाली जाती है। हल्दी जख्म, फोड़े-फुन्सियों के लिये बहुत उपयोगी है।

चोट - आकस्मिक कहीं गिर जाने से वा किसी दुर्घटना से शरीर के भीतर कहीं चोट पहुंची हो अथवा रक्त का जमाव हो गया हो तो हल्दी को शक्कर के साथ देने से तथा गाय के गर्म दूध में पकाकर पिलाने से जमा हुआ रुधिर पिघल जाता है, तथा रक्त का संचार ठीक होने लगता है। हल्दी का लेप चोट पर और मोच पर करने से लाभ होता है क्योंकि हल्दी में उत्तेजक गुण हैं। इसलिए हल्दी की गांठें बाह्य और अन्तरंग दोनों ही दृष्टियों से उत्तेजक धर्म वाली हैं। इनका लेप करने से त्वचा में उत्तेजना होकर वेदना पीड़ा को शान्त करती है और इनका भीतरी प्रयोग रक्त के जमाव तथा


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अन्य विकृति को दूर करता है। इसका बाह्य प्रयोग चोट, मोच, जोंक के डंक आदि पर किया जाता है। इसीलिए भारतवर्ष में हरेक लेप और पुलटिस में हल्दी डालकर चोटों तथा फोड़ों पर प्रयोग करते हैं। नमक तथा हल्दी वाले उष्ण जल की सिकाई से ही लाभ हो जाता है।

सेकने की विधि

१ सेर जल को खूब उबालो। जब वह खूब औटने लगे तो उस में १ तोला सैंधा नमक डाल दें तथा थोड़ी देर पश्चात् दो तोले हल्दी का बारीक कपड़छान किया हुआ चूर्ण डाल दें तथा ५ मिनट पीछे जलपात्र को नीचे उतार लें तथा उसे किसी पात्र से ढ़क दें और १०-१५ मिनट बाद उसी जल में रूई का बड़ा फोआ वा कपड़ा भिगोकर चोट के स्थान पर सेक करें तथा एक मोटे वस्त्र की कई तह करके हल्दी के जल में भिगोकर उस चोट के स्थान पर रख दें। जब वह वस्त्र ठण्डा होता दिखाई दे तो दूसरा वस्त्र जो पहले से गर्म जल में डाल रखा हो उसकी तहें करके चोट वाले स्थान पर रख देवें। जल को गर्म करने के लिए कुछ जलते हुए कोयलों की आग उसके नीचे रख लेनी चाहिए अथवा ठण्डा होने से पूर्व उसे पुनः अग्नि पर रख देवें, अथवा किसी दूसरे पात्र में इसी प्रकार नमक हल्दी का उष्ण जल तैयार रखें क्योंकि सिकाई निरन्तर तथा पर्याप्त समय तक करनी चाहिए तभी चोट में शीघ्र आराम होगा। सिकाई में यह ध्यान अवश्य रखें कि सुहाते जल से सिकाई होनी चाहिए। न वह बहुत गर्म ही हो जो अंग को जला डाले, न ही ठण्डा होने दें क्योंकि ठण्डे जल की सिकाई ही क्या। कई बार मूर्ख लोग चोट आदि के स्थानों को सेकते समय जला डालते हैं और लाभ के स्थान पर हानि हो जाती है।


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हल्दी नमक के पूड़े

गेहूं के आटे में यथोचित हल्दी तथा नमक डालकर तिल के तैल वा गोघृत अथवा महानारायण तैल से पूड़े (अपूप) बनायें, तथा सिकाई के पश्चात् चोट के स्थान को वस्त्र से पूछकर गर्म गर्म पूड़े बांध देवें। इससे चोट वा मोच पर बहुत ही लाभ होगा।

चोट लगने पर गोदुग्ध में हल्दी उबालकर पिलाना चाहिए। इससे भी चोट खाए व्यक्ति को शांति मिलती है। अधिक चोट लगने पर जब रोगी बेहोश हो गया हो अथवा पीड़ा के कारण हाथ पैर भी पटकता हो तो ये हल्दी के पूड़े लाभ करते हैं। ये पूड़े नमकीन तथा मीठे दोनों ही एक समान लाभ करते हैं, किन्तु दोनों में हल्दी पर्याप्त मात्रा में डालनी चाहिए अर्थात् एक पू्ड़े में कम से कम १ तोला हल्दी अवश्य डालो, अधिक चोट हो तो कई पूड़े गर्म-गर्म एक दूसरे के ऊपर बांधो। इससे छित्ता हुआ अथवा फटा हुआ मांस भी शीघ्र ही ठीक होकर रक्तसंचार होने लगता है तथा रोगी शीघ्र राजी हो जाता है। पूड़े दो-तीन घण्टे तक बांधे रखने चाहियें। ठण्डे होने पर फिर गर्म करके बांध देवें। इन पूड़ों में प्रति पूड़ा यदि हल्दी के साथ छः-छः माशे अर्क की जड़ का बक्कल कूट छानकर बारीक करके डाल दिया जाए तो सोने पर सुहागे का कार्य होगा।

साधारण चोट पर चाहे फूट गई हो या छित्ती हुई चोट हो, हल्दी नमक तथा घी में पकाए हुए रूई के फोहे के बाँधने से भी लाभ हो जाता है। जिस स्थान पर चोट लगी हो उसे बन्धा तथा गर्म रखना चाहिए।

गुड़ पुराना १ छटांक, रूई का लोगड़ १ छटांक, हल्दी चूर्ण १ तोला इन तीनों की खूब कुटाई करें तथा जब कुटने पर एक रस हो जाएं तो इसको चोट के स्थान पर रख कर पट्टी बांध देवें।


पृ० २८

बारह घण्टे के पश्चात् इसे खोलें। फिर इसी प्रकार दूसरी नई हल्दी गुड़ लोगड़ लेकर कुटाई करके बांध देवें। भयंकर से भयंकर चोट एक-दो सप्ताह में ठीक हो जाएगी। बार-बार की अनुभूत औषध है। किन्तु इसे फूटी हुई चोट वा जख्म पर नहीं बांधना चाहिए।

हल्दी का हलुवा

आधी छटांक हल्दी का चूर्ण, १ छटांक गेहूं का चूर्ण तथा डेढ़ तोला गाय का घी ले लेवें, इसमें ६ माशे सैंधा नमक तथा थोड़ा सा उष्ण जल भी पकाते समय डाल देवें। पक जाने पर इसे उतार कर जब थोड़ा-थोड़ा गर्म हो तभी चोट के स्थान पर बांध देवें जिससे सिकाई भी साथ ही हो जाए। दो-तीन घण्टे बांधें, ठण्डा होने पर इसे गर्म करके दोबारा भी बांधा जा सकता है। चोट वाला स्थान बड़ा हो तो उसी के अनुसार इसे अधिक मात्रा में बनाकर बांधें। चोट अधिक हो तो पट्टी खोलने से पूर्व और नया हलुवा तैयार करके चोट के स्थान पर बांध देवें। यदि रात्रि को सोते समय बांधें तो उसे सारी रात बंधा रहने दें। साधारण चोट तो दो या तीन दिन में ही अच्छी हो जाती है। अधिक चोट हो तो दोनों समय इस हल्दी के हलुवे को बनाकर बांधें, एक सप्ताह में सब पीड़ा तथा चोट ठीक हो जाती है।

यह हलुवा यदि महानारायण तैल घी के स्थान पर डालकर बनाया जाए तो और अधिक तथा शीघ्र लाभ करेगा।

अन्य उपचार - गाय का घी वा महानारायण तैल लगाकर सेक करें, हल्दी बहुफली कुरण्ड का लेप करें। यदि चोट में जलन हो तो सौ बार कांसी की थाली में एक छटांक गाय के मक्खन को ठण्डे जल से


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धोकर उस में देशी कपूर, कत्था और सिन्दूर मिलाकर लेप करें। मिट्टी की पट्टी बांधने से भी लाभ होता है।

अपथ्य परहेज - चोट लगने पर विश्राम करना चाहिए, व्यायाम परिश्रम का कार्य, रूखा-सूखा भोजन, वीर्यनाश आदि से दूर रहें। कड़वे, खट्टे, खारे, तीखे पदार्थ न खायें।
पथ्य - दूध, घी, गेहूं आदि का पौष्टिक भोजन करें, जो भी वस्तु खाएं उसमें यथोचित मात्रा में हल्दी अवश्य डलवायें। यदि चोट के कारण ज्वर न हुआ हो, रोगी युवा हो, पाचनशक्ति अच्छी हो तो हलुवा नमकीन वा मीठा हल्दी डालकर बनाया हुआ खाना चाहिए। स्नेहयुक्त पौष्टिक भोजन खाने से सभी प्रकार की चोटें वा मोच शीघ्र अच्छी होती हैं।

शीतपित्त

शीतपित्त को छपाकी, पित्त निकलना आदि नामों से याद किया जाता है। इसमें शरीर के किसी भाग वा सारे शरीर पर दिदोड़े से उभर आते हैं। वे लाल रंग के होते हैं, उनमें जलन खुजली होती है। कई बार सारा शरीर ही सूज जाता है। कभी-कभी इसमें हल्का ज्वर होता है, उबकाई भी आती है। इसमें हल्दी बहुत लाभ करती है। प्रातःकाल दो माशे से चार माशे तक हल्दी निराहार गाय के गर्म व धारोष्ण दूध से देनी चाहिए। प्रातः सायं दोनों समय हल्दी खिलाने से शीघ्र लाभ होता है। यह देखने में आया है कि पुरानी से पुरानी बिगड़ी छपाकी शीतपित्त भी केवल हल्दी के सेवन से दूर भाग जाती है।

शीतपित्त में हरिद्रासव से बढ़कर कोई औषध मेरे अनुभव में नहीं आयी। आचार्य उदयवीर जी दर्शनकेसरी वर्षों से


पृ० ३०

शीतपित्त से तंग थे, सब चिकित्सा उन पर विफल हो गई थी, हरिद्रासव ने उनका इससे सदा के लिए पिण्ड छुड़ा दिया।

एक बार गुरुकुल में हमने हल्दी अधिक मात्रा में बोयी, ५० मन से अधिक हल्दी की उपज हो गई, उस सारी का मैंने हरिद्रासव बना डाला, वह आज तक शीतपित्त, प्रमेह आदि रोगों पर जादू का कार्य करती है। इसकी मात्रा दो तोले है। समान जल मिलाकर भोजन के आध घण्टे पीछे शीशे के गिलास में ताजा जल मिलाकर दोनों समय देना चाहिए। शीतपित्त प्रमेह के लिए यह अमृत तुल्य औषध है। हरिद्रा को कफपित्तनुत् अर्थात् शीतपित्त का नाशक कहा है तथा त्वग्-दोष नाशक भी लिखा है। शीतपित्त त्वक् का भी दोष है, इसे हल्दी दूर करती है। इसी प्रकार हल्दी का हलुवा तथा हरिद्राखण्ड भी शीतपित्त को दूर करने की अच्छी औषध है।

हल्दी का हलुवा - हल्दी का चूर्ण १ तोला, गेहूं का चूर्ण २ तोला, गौ का घी १ तोला। हल्दी और गेहूं के चूर्ण को मिलाकर कढ़ाई में घी में भून लें। जब थोड़ा भुनकर लाल हो जाए, उसमें मीठे की चाशनी डालकर पका लें। जब पक कर घी छोड़ने लगे तब उतार लें। कुछ ठण्डा होने पर खा लें तथा ऊपर से गाय का दूध धारोष्ण वा गर्म करके ठण्डा किया हुआ पी लेवें। मीठा दो तोले खाण्ड लेकर आध पाव पानी में पकावें। जब १ तार की चाशनी हो जावे तो भुने हुये हल्दी आदि के चूर्ण में डालकर हलुवा बनायें। यह हलुवा १० वा १५ दिन तक खाना चाहिए। यदि शीतपित्त बिगड़ा हुआ पुराना हो तो एक महीना वा २ मास तक इस का सेवन करें, जड़ मूल से रोग चला जाएगा।


पृ० ३१

लोग इस रोग को क्षुद्र चर्मरोग अर्थात् केवल ऊपर की ही छोटी-मोटी बीमारी समझ कर चिकित्सा उपेक्षावृत्ति से करते हैं। फिर यह जड़ जमा लेती है तथा बिगड़ कर सारी आयु प्राण पीती है। बहुत तंग करती है। आहार व्यवहार को भी दूषित कर डालती है तथा रक्त में विकार उत्पन्न कर चमड़े के ऊपर फैल कर दोष प्रकट होते हैं। लोग यह समझते हैं कि शीतल वायु लगने से, शीतल जल में स्नान करने से अथवा सख्त धूप लगने वा उसमें कार्य करने वा गर्मी लगने से शरीर पर चित्ते पड़ गए, खुजली तथा जलन हो गई, अतः यह चर्मरोग ही है। वास्तव में यह आन्तरिक रोग है जो वात, कफ, पित्त और रक्त के दूषित होने से होता है। इस रोग के बढ़ने पर पिपासा, अन्न में अरुचि, उबकाई, आलस्य, तन्द्रा, भारीपन और आंखों में लाली होती है। सारे शरीर में वा शरीर के किसी अङ्ग में खुजली तथा सूजन होती है। प्रायः शीतपित्त के रोगी को कोष्ठबद्धता (कब्ज) होती है। कब्ज को दूर करने के लिए त्रिफलादि का हल्का सा विरेचन (दस्त) लेना चाहिए। कोष्ठबद्धता (कब्ज) के दूर हुए बिना शीतपित्त का रोग दूर नहीं हो सकता।

हरिद्राखण्ड - हल्दी को कूट पीसकर कपड़छान करके १० तोले लेवें। गोदुग्ध दो सेर लेवें, खाण्ड वा बूरा ३ पाव लेवें। हल्दी को दूध में मिलाकर पकावें, यहां तक कि खोवा बन जाए। फिर उसमें घी को डालकर भून लें, पककर लाल होने पर इसमें मीठे की एक तार की पकी हुई चाशनी डालकर इतना पकायें कि पकाने पर घी छोड़ देवे। गरम रहते निम्न वस्तुयें मिलायें -

सोंठ, पीपल, काली मिर्च, दालचीनी, छोटी इलायची के दाने,


पृ० ३२

तेजपात, वायविडंग, निशोथ, आंवला, बहेड़ा, हरड़, नागकेशर, मोथा और लोहभस्म, प्रत्येक सवा तोला लें। इन सब को पीसकर तथा कपड़छान करके मिलायें। इसकी मात्रा आधा तोला है। इसे खाकर ऊपर से गोदुग्ध धारोष्ण वा गर्म करके ठण्डा किया हुआ लेवें। यह शीतपित्त, खुजली, दाद आदि चर्मरोगों को दूर करती है।

अन्य उपचार

शीतपित्त के रोग में जब यह खूब बढ़ा हुआ हो और पुराना हो जाने का नाम न लेता हो तो इसमें स्वेदन (पसीना निकलने की क्रिया) अवश्य करनी चाहिए। आर्यसमाज के महोपदेशक दादा बस्तीराम जी, जिनको हरयाणा का बच्चा-बच्चा जानता है, बहुत ही अच्छे वैद्य थे। वे शीतपित्त के रोगी को निम्न प्रकार से स्वेदन (पसीना) दिलाते थे।

प्रातःकाल मालिश कराकर गाय के गोबर वा हल्दी और मूंग की दाल का आटा तैल में मिलाकर मालिश करे। कुछ देर ठहरकर खूब ठण्डे जल से इतना स्नान करे कि रोमाञ्च हो जाय वा सुबकी आने लग जाये, तब किसी दुधारू गाय के पास जाय। वहां दूध निकालने वाला दूसरा व्यक्ति हो, वह दूध निकालता जाय और शीतपित्त का रोगी साथ-साथ दूध लेता जाय और छान-छान कर पीता जाय, खूब पेट भरकर दूध पीवे। जितना दूध सरलता से पी सकता हो उससे आध सेर दूध अधिक पीये और फिर बिस्तर पर रूई का गद्दा बिछाकर ऊपर से रूई से भरी रजाई वा सौड़ ओढ़कर लेट जाये। खूब पसीना आयेगा, एक घण्टे तक पसीना ले, इसी प्रकार दो-तीन बार पसीना लेने से ही शीतपित्त जड़मूल से चला जायेगा। कभी कभी तो केवल इस पसीना लेने से ही बिगड़ा


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हुआ शीतपित्त जड़मूल से चला जाता है। यदि दूध पीने से पहले पिसी हुई हल्दी छः माशे भी खा लेवें तो और अधिक लाभ होगा। यह पसीना दिलाने की विधि बहुत से रोगियों पर मैंने तथा मेरे अनेक मित्र वैद्यों ने खूब आजमायी है। पसीना दिलाने के पीछे कुछ काल तक हरिद्रासव हरिद्राखण्ड वा हरिद्रा के हलुवे का सेवन कराने से सोने पर सुहागे का कार्य होगा।

मालिश - तिल के तैल १ पाव में ५ तोले कायफल का चूर्ण तथा २ तोले हल्दी १ सेर जल मिलाकर पकायें, जब केवल तैल रह जाय, उसकी रोगी को प्रतिदिन मालिश करायें तथा कुछ देर कम्बल ओढ़ाकर धूप में बिठायें। पसीना निकलने पर फिर बन्द कमरे में जाकर उष्ण जल से स्नान करें।

यदि रोग पुराना हो तो पसीना दिलाने के पश्चात् रोगी को दो दिन पीछे कै (वमन) करायें।

वमन की औषध - जल १ सेर, नीम की छाल १ तोला चिरायता वा परवल के पत्ते १ तोला डालकर खूब उबालें, १ पाव रहने पर उतार लेवें। इसमें छः माशे मैनफल का चूर्ण मिलाकर पिलायें और वमन करायें।

दो दिन ठहरकर रोगी को विरेचन (जुलाब) करायें।

विरेचन की औषध - १ पाव उष्णजल में मिट्टी के पात्र में २ तोले अमलतास की फली का गूदा भिगो दें, प्रातः काल मल छान


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कर इसे थोड़ा-सा उबाल छान कर १ माशा पीपल का चूर्ण मिलाकर पिलावें। यह जुलाब बालक, वृद्ध, गर्भवती स्त्री तथा निर्बल रोगियों को भी दी जा सकती है। मात्रा रोगी की शक्ति और आयु को देखकर न्यून वा अधिक रखनी चाहिये।

त्रिफले की जुलाब - त्रिफले का चूर्ण ६ माशे से १ तोले तक गर्म जल के साथ सायंकाल सोते समय देवें। इसमें २ से ४ रत्ती पिप्पली चूर्ण, ४ रत्ती से २ माशे शुद्ध गुग्गल भी मिला सकते हैं। कुछ लोग प्रातःकाल विरेचन देना उचित समझते हैं, जैसी सुविधा हो कर लेवें। कुछ लोग पञ्चकर्म करवाकर ही शीतपित्त, दमे आदि रोगों की चिकित्सा प्रारम्भ करते हैं। इससे लाभ शीघ्र तथा स्थायी होता है।

लेप और औषध - अजवायन चूर्ण ३ माशे, गुड़ १ वर्ष पुराना ६ माशे - इन्हें मिलाकर प्रातःकाल लेवें तथा हल्दी और दूब घास को चटनी के समान पीसकर शरीर पर पतला लेप करने से शीतपित्त में लाभ होता है। खुजली, दाद में भी इससे लाभ होता है।

अपथ्य - दिन में शयन, धूप, वीर्यनाश, मछली माँस, मछली दूध, नमक और दूध एक साथ - यह परस्पर विरोधी आहार है, इससे उपर्युक्त परहेज करना चाहिए। मल मूत्र, अपानवायु के वेगों को रोकना, मछली, माँस, अण्डा अभक्ष्य वस्तुयें नहीं खानी चाहियें। भैंस का दूध, गन्ने का रस वा उसकी बनी हुई वस्तुयें, मद्य (शराब), मीठा, खट्टा, तैल की वस्तुयें, लाल मिर्च तथा अपचन करने वाली सब वस्तुयें वर्जित हैं।

पथ्य - पुराने बासमती चावल, मूंग, कुलथी, करेला, सरसों


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का साग, गर्म जल जो कफ और पित्त को शांत करे ऐसे पदार्थ, कड़वे गिलोय आदि, तीखे त्रिकुटा आदि इसमें लाभदायक हैं।

कृमि रोग

हल्दी का एक नाम कृमिघ्ना है। यदि पेट में छोटे छोटे कृमि कीड़े जिन्हें चुरणे कहते हैं, हो जायें तो कच्ची हल्दी का रस दो तोले लेवें। उस में मधु (शहद) १ तोला मिलाकर प्रातःकाल चटावें। यदि इसमें बायबिडंग का चूर्ण १ माशा मिलाकर लें तो अधिक लाभ होगा। यदि ताजी हल्दी का रस न मिले तो हल्दी का बारीक चूर्ण ६ माशे, बिडंग का चूर्ण १ माशा, शहद १ तोला मिलाकर चाट लेवें। इन उपर्युक्त औषधों में से सुविधानुसार कोई एक औषध १०-१५ दिन तक लेवें। इससे पेट के कीड़े मर जाते हैं। कृमिरोग बच्चों को अधिक होता है।

कारण - मीठा और खट्टा अधिक खाने, अधिक भोजन करने से गुड़ तथा मैदे की वस्तुएं खाने से, दिन में सोने, आलसी जीवन से, उड़द वा सब्जियाँ अधिक खाने से, मांस मछली, दूध दही, सिरकादि के लगातार खाने से तथा भोजन के न पचने से पेट में सड़ांद उत्पन्न होकर कीड़े उत्पन्न हो जाते हैं।

कृमि रोग में कुछ दिन दही के साथ मीठा मिलाकर खिलायें, पेट में सब कीड़े इकट्ठे हो जायेंगे, फिर कमेला दही में मिलाकर दो तीन बार जुलाब देवें, सब कीड़े बाहर निकल जायेंगे। इसके पश्चात् उपर्युक्त हल्दी की औषध से अधिक लाभ होगा।

पथ्य - लाल पुराने चावल, करेला, परवल, बथुआ, पपीता, केला, तिल और सरसों का तैल, काँजी, शहद, पान, सुपारी, अजवायन, हींग, कत्था, जम्बीरी नींबू आदि इसमें लाभदायक हैं। हल्दी के चूर्ण को कड़वे तैल में जलाकर उस तैल से फाहे को मल (टट्टी)


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के मार्ग गुदा में रखने से महीन महीन कृमि मर जाते हैं।

अपथ्य - मल-मूत्र और वमन के वेगों को रोकना, दिन में सोना, अजीर्ण की अवस्था में दूध, दही, घृत, उड़द, साग-सब्जी, मांस खटाई और मीठा - ये वस्तुयें हानि पहुंचाने वाली हैं। इनका सेवन न करे।

अर्बुद रोग

अर्बुद वा रसोली एक ऐसा रोग है जो बिना (आपरेशन) शल्यक्रिया के दूर नहीं हो सकता किन्तु एक यतिराज का एक अनुभूत योग है।

योग - हल्दी की सूखी गांठें अंगारे पर रखकर जला लें और इनकी भस्म को एक सुदृढ़ डाट (कार्क) वाली शीशी में भर लें। फिर जब आवश्यकता हो तो उसे थोड़ी-सी लेकर पानी में मिलाकर लेप के समान गाढी करके रसोली के ऊपर बिलकुल बीच में एक पैसे के बराबर स्थान पर लगायें। इसे दिन में तीन-चार बार लगाना चाहिये। तीन चार दिन तक निरन्तर लगाने से उस स्थान का मांस गलकर एक अंगुल गहरा जख्म हो जाएगा। चारों ओर से इस जख्म के स्थान को दबाकर पीप तथा मेद का भाग निकाल देना चाहिये। इसके निकलने से अर्बुद (रसोली) बैठने लगेगा। फिर भी उस घाव को स्थिर रखना चाहिए। यदि वह भरने लगे तो उस पर हल्दी की भस्म का लेप करना चाहिए। यह लेप रसोली के अन्दर रहते हुये शेष दोषों को पीप का रूप देकर शीघ्र बाहर निकालने का कार्य करता है। इस प्रकार अर्बुद के सब दोष निकल जाने पर कोई अच्छी मरहम लगाकर उस घाव को भर देना चाहिए। इस पद्धति से अर्बुद के अतिरिक्त कारबङ्कलादि विषैले फोड़ों तथा


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अन्य सांघातिक फोड़ों में भी बहुत लाभ होता है।

इस प्रकार हल्दी द्वारा अग्निदग्ध करके उपदंश के विष को घाव द्वारा निकाल देने का भी योग लिखा मिलता है किन्तु वह प्रकार बहुत कष्टदायक और भयानक है। उसमें भूल होने पर अनिष्ट होने की सम्भावना है, इसलिए उसे यहां देना उचित नहीं।

सारांश यह है कि हल्दी हमारे घरों में रात-दिन उपयोग में आने वाली वस्तु है किन्तु चिकित्साशास्त्र की दृष्टि से यह वस्तु कितनी महत्त्वपूर्ण है यह बहुत थोड़े विरले लोग ही जानते हैं। अर्बुद आदि असाध्य समझे जाने वाले रोगों में भी यह कितना आश्चर्यजनक कार्य करती है।

पाण्डु वा कामला रोग

हल्दी पाण्डु कामला जिसे पीलिया भी कहते हैं, उसको दूर करने वाली है। पाण्डु रोग पांच प्रकार का होता है।

पाण्डु रोग के कारण - अधिक खटाई, मिठाई वा मीठे दधि, गुड़, शक्कर, खांड, चीनी आदि खाने से, मद्यपान, व्यभिचार करने से, मिट्टी आदि खाने तथा मल-मूत्र के वेगों को रोकने से इस रोग की उत्पत्ति होती है।

सामान्य लक्षण - पाण्डु वा पीलिया रोग होने पर मन्दाग्नि, अजीर्ण, अंगों का टूटना, थका हुआ होना, निद्रा वा आलस्य का प्रभाव रहना, श्वास फूलना, अरुचि, आंख और नाखूनों का पीला होना, आंखों पर सूजन आना, मल-मूत्र का पीला वा सफेद होना, मुख में लार वा जल का आना इत्यादि लक्षण प्रकट होते हैं।


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पाण्डु रोग के असाध्य लक्षण

  1. यदि पाण्डुरोगी की आंख, दांत, नाखून पीले हो जायें और सब पदार्थ पीले ही दिखाई देवें तो यह रोग असाध्य समझा जाता है।
  2. त्वचा पीली हो जाए, मल-मूत्र पीले हों, त्वचा का रंग श्वेत हो जाए और हर समय वमन (कै) आती हो, मूर्च्छा जैसी अवस्था बनी रहे, तृषा से बहुत पीड़ित हो तो रोग को असाध्य जानो।
  3. पाण्डुरोगी के हाथ-पैरों पर और शिर के बीच में शोथ वा सूजन हो, यदि मध्य का भाग पतला हो अथवा हाथ-पैर और शिर सूज जायें और मध्य भाग शोथयुक्त हो, मूत्रेन्द्रिय गुदा आदि पर शोथ आ जाये और शरीर का रंग मुर्दे के समान हो जाये, उस की मृत्यु निश्चय से होगी।

कामलारोग पाण्डुरोग का ही एक प्रकार है। कामलारोग की असाध्य अवस्था में मस्तिष्क, नेत्र और वमन के मल का रंग पूर्णतया लाल, मल का रंग काला और मूत्र का रंग पीला हो, शरीर पर सूजन हो, कोई वार्ता स्मरण नहीं रहती हो, यदि रोगी को भोजन में अरुचि, दाह-प्यास खूब सताती हो, अफारा रहता हो, तन्द्रा, मूर्च्छा, मन्दाग्नि हो तो रोगी को मृत्यु के निकट समझो।

कुम्भ कामला - जिस प्रकार घड़े (कुम्भ) का मुख छोटा और पेट बड़ा होता है, उसी प्रकार अफारे के कारण रोगी का पेट फूलकर बड़ा हो जाता है। वमन अतिसार हो, सूखी वमन (मतली) हो, बिना परिश्रम के थकावट हो और श्वास, कास रोग भी हो जाए तो रोग की यह असाध्यावस्था है।


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चिकित्सा -

  1. ताजा हरी हल्दी का रस दो तोले, गोघृत ६ माशे, मधु ९ माशे वा एक तोला मिलाकर कुछ दिन प्रातः सायं खाने से पाण्डु कामला नष्ट हो जाते हैं।
  2. हरिद्रादिघृतः - गाय का घी ४ सेर, गोदुग्ध १६ सेर, जल ६४ सेर - इनको एक साथ मिलाकर कढाई में चढायें। निम्नलिखित वस्तुओं का चूर्ण करके कढाई में डाल दें। त्रिफला, नीम का छिलका, खरैंटी, मुलहटी प्रत्येक २०-२० तोले लेकर कूट-छान लें। इसे डाल कर नर्म आंच पर पकायें। जब तक दूध और जल सारा न जल जाए, तब तक अग्नि बराबर जलाते रहें। जब केवल घृत ही रह जाए, तो उतारकर ठण्डा करके छान लें। मात्रा ६ माशे से लेकर १ तोला तक प्रातः सायं गोदुग्ध में मिलाकर खिलायें, पाण्डु रोग दूर होगा।
  3. गेरू, हल्दी और आँवले का रस अथवा इन में से किसी एक वस्तु का अञ्जन आंखों में डालने से कामला रोग दूर होगा।
  4. सफेद प्याज का रस, गुड़, हल्दी, इन तीनों को मिलाकर नसवार (नस्य) देने से कामला रोग दूर होगा।
  5. हल्दी चूर्ण १ तोला, आठ तोला गाय के दही में मिलाकर कुछ दिन प्रातःकाल खिलाने से कामला हलीमक रोग नष्ट हो जाते हैं।
  6. हल्दी, त्रिफला, त्रिकुटा, वायविडंग, मण्डूरभस्म - इन सब को १-१ तोला लेकर कपड़-छान कर लें और इसमें सवा तोला गोघृत मिलायें और इसमें १० वा १५ तोले मधु मिला लें। मात्रा १ माशे से ३ माशे तक प्रातःकाल और सायंकाल ताजे पानी के साथ इसका प्रयोग करें। यह औषध कामला, पाण्डु रोग को दूर करने के लिए सर्वोत्तम और अनुभूत है।
  7. हल्दी ३ माशे प्रातःकाल गाय के छाछ के साथ कुछ दिन सेवन करने से पाण्डु कामला रोगों में लाभ होता है।

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पथ्य - चावल, जौ, गेहूं की रोटी वा दलिया और गाय का दूध लोहे की कढ़ाई में उबालकर पिलायें। मूंग और मसूर की दाल, मूली, तोरी, घीया और टिण्डों का सेवन हितकर है।

स्नान - पाण्डु रोग में शीतल जल में स्नान वर्जित है। उष्ण जल से स्नान करना चाहिए। गर्म जल में तौलिया भिगोकर सारा शरीर शुद्ध कर लेना चाहिए। क्योंकि इस प्रकार करने से रोगी के सब रोमकूप खुलकर मल (पसीने) के द्वारा निकल जाती है।

अपथ्य - पेट भर भोजन करना निषिद्ध है। भूख लगने पर जितना भोजन पचे, खा लेना चाहिए। भूखा रहना ठीक नहीं। मद्य-मांस उष्ण वस्तुओं का सेवन नहीं करना चाहिए। तैल की वस्तुयें, लाल मिर्च, नमकीन (खारी) पदार्थों का सेवन न करें। ब्रह्मचर्य का पालन करें।

प्रमेह और हल्दी

आयुर्वेद के ग्रन्थों में हरिद्रा को मेहनाशक लिखा है। मेह प्रमेह का पर्यायवाची शब्द है। प्रमेह वात पित्त कफ दोषों के दूषित होने से अनेक प्रकार का प्रमेह माना जाता है।

कारण - जो लोग शारीरिक श्रम, व्यायामादि नहीं करते, बैठे रहना, पड़े रहना और खूब भोजन करना, यही जिनका कार्य है। प्रमेह निठल्ले लोगों का मित्र होता है। मांस, मछली आदि अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करते हैं, नया अन्न दूध दही, वर्षाजल, गुड़, गुड़ की वस्तुओं का अधिक सेवन करते हैं। कफ और चर्बी उत्पन्न


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करनेवाली वस्तुओं का अधिक सेवन करना और आलस्य आराम में जीवन व्यतीत करने आदि अनेक कारणों से तीनों दोष दूषित होकर प्रमेहादि रोग उत्पन्न होते हैं। गन्दे कुत्सित विचार, सिनेमा देखना, अश्लील उपन्यास पढ़ना, नीचों की संगति करना आदि भी प्रमेह और स्वप्नदोषादि रोगों के कारण हैं। इस रोग के अनेक भेद हैं। हल्दी प्रायः सभी प्रकार के प्रमेहों में लाभदायक है।

औषध

१. कच्ची ताजी हल्दी का रस १ तोला, मधु १ तोला, दोनों को मिलाकर चाट लें। प्रातः सायं दोनों समय इसका सेवन करें, ऊपर से गोदुग्ध पी लें। यदि गोदुग्ध न मिले तो बकरी का दूध भी लिया जा सकता है। गाय का दूध सबसे अच्छा है। उपर्युक्त औषध के सेवन से प्रमेह आदि शीघ्र दूर हो जाते हैं। यदि प्रमेह वा धातु सम्बन्धी रोग पुराना भी हो और इसके कारण रोगी दुबला, पतला भी हो गया हो, उसकी कमर में पीड़ा रहती हो, वह व्याकुल रहता हो, मन्दाग्नि हो, उसका स्वभाव चिड़चिड़ा हो गया हो, तो ऐसी अवस्था में भी ऊपर लिखी औषध चालीस दिन सेवन करने से बड़ा लाभ होता है।

२. सूखी हल्दी का चूर्ण ३ माशे और मधु ६ माशे, वा बकरी के उबाले हुए दूध में जब वह शीतल हो जाये, तब मिलाकर प्रातःसायं सेवन करें। यह औषध भी एक-डेढ़ मास तक लेनी चाहिए।

३. शीर्षासन, हलासन, सर्वाङ्गासन, पश्चिमोत्तानासन तथा अपने शरीर का बल (शक्ति) देखकर, नंगे पैर भ्रमण वा दौड़ करनी चाहिए। प्रातःकाल सूर्योदय से पूर्व आसन व्यायामादि करें। प्राणायाम करने से भी बहुत लाभ होगा। विचार शुद्ध और


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पवित्र रखने चाहिएं। सत्संग और स्वाध्याय करें। ब्रह्मचर्य पालन सर्वशक्ति लगाकर करें। दन्तधावन, शीतल जल से स्नान और सात्विक आहार करें। चरबी को न्यून करने के सब साधन करने चाहिएं। आलस्य प्रमाद को छोड़ परिश्रम का जीवन अपनाना चाहिए।

पथ्य - बथुवा, गाजर, पुराने जौ, गेहूँ, सांठी चावल, मूंग, अंजीर, गूलर, परवल, धनियां, हल्दी, आंवला, गाय वा बकरी के दूध का सेवन करना चाहिए। सैंधा नमक, सांठी, पालक, गाजर, घीया तोरी, टिण्डे की सब्जी का भी उचित मात्रा में सेवन करें।

अपथ्य - सदैव बैठे रहना, दिन में सोना, मल मूत्र आदि के वेगों को रोकना, धूम्रपान करना, आग सेंकना, दही, शराब, सिरका, तैल, गुड़, शक्कर, खटाई, पीठी की पकी वस्तुएं, गन्ने का रस, मांस, मछली, लाल मिर्चें - इनसे दूर रहना चाहिए। कुसंग तथा व्यभिचार अत्यन्त हानिकारक और वर्जित हैं।

४. किसी भी औषध का सेवन करें, किन्तु भोजन के पीछे हरिद्रासव का सेवन करने से बहुत ही लाभ होता है। मात्रा २ तोले समान जल मिलाकर शीशे के गिलास में भोजन के एक घण्टा पश्चात् इसका पान करें।

५. हल्दी २ माशे, राल सफेद २ माशे दोनों को मिलाकर गोदुग्ध वा जल के साथ प्रातः सायं लेवें। यह अच्छी प्रकार बारीक पीसकर कपड़छान कर लेना चाहिए। न्यून से न्यून एक मास तक इसका सेवन करना चाहिए।

राजयक्ष्मा

राजयक्ष्मा, यक्ष्मा, क्षय के सब पर्यायवाची हैं। इसी को तपेदिक वा टी० बी० कहते हैं। इसका नाम सुनते ही मानव को व्याकुलता होती है और कंपकपी चढ़ जाती है। यदि किसी रोगी


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को डाक्टर वा वैद्य क्षय वा तपेदिक बता दे तो उसकी हवाइयां उड़ जाती हैं और भय के कारण मृत्यु की ओर उसका मुख हो जाता है। कुछ डाक्टर तथा वैद्यों ने यह अपना स्वभाव वा पेशा बना रखा है कि जहां रोगी को ज्वर और खांसी एक साथ हुआ देखा तो झट मौलवियों के समान फतवा दे डाला कि आपको तो तपेदिक हो गया है, अच्छे डाक्टर वैद्य से शीघ्र चिकित्सा करवावो, नहीं तो मर जावोगे। इस प्रकार के लुटेरे चिकित्सक लोगों का धन लूटने के लिए झूठे ही बहकाकर रोगियों को भयभीत करते रहते हैं। जिनको सामान्य ज्वर वा खांसी यकृत दोष के कारण होती है, उनको झूठे ही तपेदिक का रोगी बना देते हैं। उनमें १०० में से दो-चार प्रतिशत ही रोगी तपेदिक के होते हैं, शेष ९० प्रतिशत वा ९५ प्रतिशत रोगियों को झूठ बोलकर, भय दिखलाकर तपेदिक का रोगी बनाकर उनका धन लूटते और मृत्यु के मुंह में पहुंचा देते हैं। ऐसे ही लोगों के लिए किसी कवि ने ठीक कहा है -

वैद्यराज ! नमस्तुभ्यं यमराजसहोदर ।
यमस्तु हरति प्राणान् वैद्यः प्राणान् धनानि च ॥

यमराज के सगे भ्राता वैद्यराज ! आपको नमस्कार करता हूँ। यम तो केवल प्राणों को ही लेता है किन्तु वैद्य तो प्राण और धन दोनों को लेनेवाला है।

राजयक्ष्मा के लक्षण

जब तपेदिक का प्रारम्भ होता है तो रोगी के कन्धों और पसलियों में पीड़ा होती है। हाथ और पांव के तलवों में जलन रहती है। ज्वर हर समय अर्थात् चौबीस घण्टों चढ़ा रहता है। इस रोग की पहली अवस्था में अच्छा वैद्य रोगी को चिकित्सा से


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शीघ्र भला चंगा कर लेता है।

जब भोजन में अरुचि वा घृणा, ज्वर का हर समय बने रहना, खांसी का बहुत अधिक होना, कफ के साथ रक्त (खून) आना, स्वरभेद अर्थात् गले का बैठ जाना, दमकशी आदि दूसरी अवस्था में लक्षण यक्ष्मा रोग के हैं।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि तपेदिक के रोग में वात, पित्त और कफ तीनों ही दोष दूषित वा कुपित होते हैं किन्तु इन तीनों में एक वा दो अधिक कुपित होते हैं। जिस दोष की प्रधानता हो उसी दोष के लक्षण स्पष्ट प्रकट हो जाते हैं। जैसे - वातप्रधान यक्ष्मा में कन्धों पसलियों में पीड़ा, गले का बैठना, शरीर का सुकड़ना वा रूक्षता का अधिक होना - ये वात की प्रधानता के लक्षण हैं। पित्त की प्रधानता में ज्वर का अधिक वेग होना, दाह, अतिसार, दस्तों का आना, मुख तथा गुदा के मार्ग से रक्त का आना - ये पित्त की प्रधानता के लक्षण हैं। कफ की प्रधानता में भोजन में अरुचि वा घृणा, शिर का भारी होना, खांसी की अधिकता और कफ से गले का जकड़ना।

साध्यावस्था - यदि रोगी के शरीर में शक्ति वा बल हो, शरीर का मांस नष्ट न हुआ हो अर्थात् रोगी निर्बल न हो, उसका शरीर सूख न गया हो, शरीर का मांस सुरक्षित हो, ऐसे रोगियों की चिकित्सा हो सकती है।

असाध्यावस्था - खांसी का बहुत अधिक होना, पसलियों और कन्धों में पीड़ाम दस्त लग जाना, गला बैठ जाना, अरुचि, शरीर का मांस सूख जाना, अत्यन्त निर्बलता हो तो रोगी की चिकित्सा नहीं हो सकती। इसे असाध्य समझें।

जिस यक्ष्मा के रोगी की आँखें धंस गई हों और बिल्कुल


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सफेद हो गई हों, भोजन से सर्वथा घृणा हो, दमकशी हो, समझ लो कि रोगी कुछ दिन का अतिथि है। वीर्य आदि धातुवें बुरी प्रकार से नष्ट हो रही हों और रोगी खूब खाता पीता हुआ भी सूखता जाता हो और पेट पर सूजन हो तो मृत्यु आ गई समझें।

राजयक्ष्मा रोग की चिकित्सा बहुत कठिन है। फिर भी यह देखने में आता है कि कई बार जिन रोगियों को वैद्य डाक्टर असाध्य रोग बताकर छोड़ देते हैं, वे भी कई बार सामान्य औषधों के सेवन से अच्छे हो जाते हैं। इसी प्रकार के एक-दो योग हल्दी के भी हैं।

नरेला में डाक्टर भरतसिंह जी तथा हमारे वैद्य बलवन्तसिंह जी पहलवान तपेदिक के रोगियों की चिकित्सा बहुत वर्षों से कर रहे हैं। अनेक ऐसे रोगी जो सब चिकित्सकों वा हस्पतालों से निराश लौटकर आते हैं, वे अच्छे होते देखे जाते हैं। वैद्य बलवन्तसिंह जी तो देवता हैं, सारी आयु उनकी जनता की धर्मार्थ सेवा करते ही बीत रही है। सहस्रों निराश रोगियों की वे परोपकारार्थ ही चिकित्सा करते हैं। उनका क्रियात्मक ही सन्यासी का जीवन है।

डाक्टर भरतसिंह तो गृहस्थ थे, जीवन में चिकित्सा से उन्होंने खूब धन पैदा किया, किन्तु राजयक्ष्मा तपेदिक की औषध वे भी रोगियों को मुफ्त ही देते थे, किन्तु औषध का योग किसी को बताते नहीं थे। उनका मेरे साथ कुछ स्नेह था। कभी कभी मुझे मिलने आया करते थे। अपनी मृत्यु से पहले वे एक दिन मुझे वैद्य कर्मवीर जी के घर पर मिलने आये। उस समय वैद्य कर्मवीर जी ने मुझे ध्यान दिलाया कि इनसे आप तपेदिक का योग पूछ लो, आप को बता देंगे और किसी को नहीं बतायेंगे।


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मैंने डाक्टर भरतसिंह को योग बताने को कहा और साथ यह भी कहा अब आप वृद्ध हो गये हो, न जाने प्रभु की आज्ञा से कब आप चलते बनो और यह यक्ष्मारोग की औषध आप के साथ ही चली जाये। डाक्टर भरतसिंह ने उसी समय कहा - आपको तो मैं अभी लिखा देता हूँ क्योंकि आप तो परोपकार में ही लगे रहते हैं किन्तु मेरी यह इच्छा है कि इससे कोई चिकित्सक धन न कमाये। उन्होंने योग इस प्रकार बताया।

आक (अर्क) जिसे आकड़ा और मदार भी कहते हैं। एक आक का दूध १ तोला, हल्दी बढ़िया १५ तोले। हल्दी को बारीक पीस कर कपड़छान कर लें और इसमें आक का दूध मिला लें। इसकी मात्रा २ रत्ती से ४ रत्ती है। दिन में दो-तीन बार मधु में मिला कर चटायें। एक-दो मास निरन्तर सेवन करें। इससे असाध्य रोगियों को अच्छे होते देखा गया है। डा० भरतसिंह का अनुभूत योग है। हमने तथा अनेक वैद्यों ने इसको रोगियों पर आजमाया है। अच्छी औषध है, आश्चर्यजनक लाभ करती है।

श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी का योग

श्री वैद्य बलवन्तसिंह जी इस योग का प्रयोग पर्याप्त समय से रोगियों पर कर चुके हैं। बहुत से रोगी तो रोहतक के मैडीकल तथा तपेदिक के हस्पताल से निराश होकर इनके पास आते हैं, जिन्हें डाक्टरों ने यह कह दिया था कि तुम अच्छे नहीं हो सकते, उन्की चिकित्सा वैद्य जी ने की। वे सब सर्वथा रोगरहित हो गये और अब पूर्ण स्वस्थ हैं और इनके गुण गाते हैं।

योग निम्न प्रकार से है - कच्ची हल्दी की छोटी-छोटी गांठें लेवें। इनका चूर्ण १० तोले, महारुद्रदन्ती के फलों का


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चूर्ण २० तोले, सर्पगन्धा की जड़ के छिलके का चूर्ण ५ तोले, आक का ताजा दूध १ तोला और उत्तम स्वर्णबसन्तमालती रस १ तोला। सबको एकत्र करके बारीक चूर्ण कर लें। मात्रा - ४ रत्ती से १ माशा दिन में दो से चार बार तक सेवन करायें। सब प्रकार की तपेदिक के लिये यह उत्तम औषध है । प्रयोग करने पर ९९ प्रतिशत रोगियों को लाभ होता है।

यदि तपेदिक के रोगी को प्रमेह भी हो तो उसे हरिद्रासव का भी प्रयोग करायें तो बहुत लाभ होगा। चिकित्सा के समय तथा पीछे यह ध्यान रखना चाहिये कि जिन कारणों से तपेदिक होता है उनको दूर कर देवें। इसमें आवश्यक ब्रह्मचर्य पालन ही है। वीर्यनाश करना मृत्यु को बुलाना है। तपेदिक के रोगी अच्छे होने पर यदि ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते तो उनको पुनः तपेदिक रोग आ दबाता है और वह रोगी अच्छा नहीं होता। वह असाध्य रोगी हो जाता है। इसलिये ब्रह्मचर्य का पालन जी जान से करना चाहिये। वैसे तो इस रोग के अनेक कारण हैं किन्तु मुख्य कारण ब्रह्मचर्य नाश वा वीर्य नाश ही है।

यदि किसी गृहस्थ पति-पत्नी को ज्वर है और वे उस अवस्था में ब्रह्मचर्य का पालन नहीं करते तो ज्वरग्रस्त व्यक्ति को राजयक्ष्मा हो जायेगा। क्योंकि वीर्य अमूल्य रत्न है, शरीर का राजा है, इसका नाश होने से अन्य सब धातुएं जो प्रजा के रूप में रहती हैं, वे भी साथ ही सूख जाती हैं। वीर्य जो सब धातुओं का सार है उसके नाश से सब शक्ति, बल, ओज, पराक्रम समाप्त हो जाते हैं। इसलिये ब्रह्मचर्य ही परम औषध है।


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चक्षु रोग और हल्दी

सभी चक्षु रोगों पर हल्दी बहुत अच्छा कार्य करती है। प्राचीनकाल में प्रत्येक भारतीय गृहस्थ दातुन, मालिश, व्यायाम, स्नान, प्राणायामादि अपने सुन्दर स्वास्थ्य के लिये प्रतिदिन करता था, तथा इसी प्रकार चक्षुओं की रक्षार्थ जलनेती, चक्षु स्नान आदि क्रियाओं के साथ प्रतिदिन सुर्मे का भी सेवन करता था, एक सप्ताह में चक्षुओं की शुद्धि के लिए रसौत भी प्रयोग करता था। इस से प्रत्येक व्यक्ति की आंखें सौ वर्ष तक बल्कि इससे भी अधिक आयु तक पश्येम शरदः शतम् पूर्णरूप से स्वस्थ रहती थीं और इसी कारण अन्तिम समय तक बारीक से बारीक अक्षरों की पुस्तकें पढ़ते थे, यहां तक कि सूई में धागा भी डाल लेते थे। सब व्यक्ति इस बात को याद रखते थे कि -आंख में अंजन दांत में मंजन नित कर, नित कर, नित कर । किन्तु अब इस कर्य को कोई भी नहीं करता, इसलिए काला मोतिया, सफेद मोतिया, रोहे, किसी की दूर की दृष्टि न्यून तो किसी की निकट की दृष्टि खराब, जिधर देखें तेली के बैल के समान नयनक (चश्मे ही चश्मे) दिखाई देते हैं। इस विषय पर मेरी नेत्ररक्षा पुस्तक देखने का कष्ट करें।

हल्दी का ममीरा

लोग आंखों के लिए ममीरे को बहुत अच्छा बताते हैं किन्तु आंखों के लिए हल्दी ममीरे से भी अधिक लाभदायक है। आंख किसी भी कारण से पीड़ा देती हो, प्रत्येक भारतीय जानता है कि हल्दी, घी का फोहा गर्म करके बांधने से बहुत लाभ होता है। किन्तु ममीरे से बढ़कर हल्दी किस प्रकार लाभ करती है यह किसी-किसी वैद्य को मालूम होगा, सामान्य लोग इस विषय में कुछ नहीं जानते।


पृ० ४९

हल्दी का ममीरा - हल्दी की सूखी गांठ इन्द्रायण फल जो पकने वाला हो, उसे फोड़कर उसके अन्दर छिद्र करके रख दें। १५ वा २० दिन में हल्दी की गांठ उसके रस को पीकर फूल जायेगी और इन्द्रायण फल पिचक कर सूख जाएगा। इस गांठ को निकाल कर नींबू के रस में डाल दें अथवा बड़े नींबू में छिद्र करके भीतर रख दें, सूखने पर गांठ को निकाल लें। अगर नींबू के रस में डाली हो तो फूली हुई गांठों को एक सप्ताह दस दिन पश्चात् निकाल लेवें। यदि बहुत लाभदायक बनाना हो तो नीम और सिरस के वृक्षों में छिद्र करके इन गांठों को एक-एक मास वा चालीस-चालीस दिन तक रखकर निकाल लें, फिर छाया में सुखा लें और कई बार कपड़े में छान लें और सुर्मे के स्थान पर प्रातः सायं (सोते समय) सलाई से प्रतिदिन आंखों में डालने से अनेक चक्षु रोगों को इसका प्रयोग दूर करता है।

  • हल्दी सात माशे, फिटकड़ी सफेद भुनी हुई ४ माशे, अहिफेन शुद्ध ५ माशे - इन सब को पीसकर एक लोहे की कढाई में डालें और इस पर कागजी नींबू का एक पाव रस डालें और चूल्हे पर चढ़ाकर नरम आँच पर पकाएं। जब गाढ़ा सा लेप हो जाय तब उतार लें, खूब खरल करें, जब गोलियां बनाने के योग्य हो जाएं तो गोलियां बनाकर छाया में सुखा लें। आवश्यकता के समय जल में घिसकर दुखती आंखों पर लेप करें। आंख दुखने की अत्यन्त लाभप्रद औषधि है।
  • हल्दी, फिटकरी, इमली के पत्ते, सिरस के पत्ते, अनार के पत्ते सबको कूटकर पोटली तैयार कर आंखों पर फेरें। इससे आंखों को शीघ आराम होता है।

पृ० ५०
  • रसौत, दारुहल्दी, मालती के पत्ते और नीम के पत्ते - सब समतोल लेकर गाय के गोबर के रस में खरल करें और गोलियां बनाएं। इन गोलियों को जल में घिसकर लगाने से रात को न दीखने का रोग (रतौंधी) दूर होता है।
  • हल्दी २० तोले, अम्बा हल्दी २० तोले, दारचीनी २० माशे, नीम के पत्ते दो तोले - इनको बारीक पीसकर छः मास तक छः घण्टे प्रतिदिन बछड़े के मूत्र में खरल करके गोलियां बनायें। इन्हें अर्क गुलाब में घिसकर आंखों में लगाने से फोला (नाखूना) जड़ से उखड़ जाता है। अनुभूत है।

चेहरे की झांई पर

अगर चेहरे पर झांई हो जाये और मुख उसके कारण बुरा वा भद्दा दिखाई दे तो उसे दूर करने के लिये निम्न औषध का प्रयोग करें।

सूखी हल्दी का चूर्ण कपड़छान करके १ तोला लें। इसे आक के दूध में अच्छी प्रकार भिगोकर सुखा लें, छाया में सुखाना चाहिये और बारीक पीसकर शीशी में रखें। स्नान से पूर्व थोड़ा चूर्ण लेकर जल में धो लें और मुख पर मल लें। इसके सूख जाने पर स्नान कर लेवें। इस प्रकार एक सप्ताह या दस दिन में मुख की कालिमा मिट जायेगी। मुख का भद्दा रंग मिट जायेगा, इसके अधिक दिन प्रयोग करने से मुख की पुरानी छांई भी नष्ट हो जाती है। इस उबटन को और अच्छा बनाने के लिये इसमें थोड़ी केसर भी मिला ली जाय तो बहुत ही अच्छा हो।

यह घरेलू औषधमाला का प्रथम पुष्प पाठकों के हाथ में है। यदि पाठकों को रुचिकर हुआ तो इस माला के लवण, मिर्च, जीरा, धनियां अदरक, सौंफ आदि अनेक पुष्प पाठकों की सेवा में भेंट करने का यत्न करेंगे।

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