Atranji-Khera

From Jatland Wiki
(Redirected from Atranji)
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Map of Etah district
Kasganj on Map of Uttar Pradesh

Atranji-Khera village is located in Kasganj tahsil of Etah district in Uttar Pradesh.

Location

The great mound of ruins called Atranji Khera is situated on the right or west bank of the Kali Nadi four miles to the south of Karsana , and eight miles to the north of Etah on the Grand Trunk Road.

Variants of name

Jat Gotras

History

अतरंजीखेड़ा

विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...अतरंजी खेड़ा (AS, p.18 ) उत्तर प्रदेश के एटा ज़िलांतर्गत गंगा की सहायक काली नदी के तट पर स्थित एक प्रागैतिहासिक स्थल है। इस नगर की नींव डालने वाला राजा बेन कहा जाता है जिसके विषय में रूहेलखण्ड में अनेक लोककथाएं प्रचलित हैं. कहा जाता है कि राजा बेन ने मुहम्मद ग़ोरी को उसके कन्नौज-आक्रमण के समय परास्त किया था किंतु अंत में बदला लेकर ग़ोरी ने राजा बेन को हराया और उसके नगर को नष्ट कर दिया। एक ढूँह के अन्दर से हजरत हसन का मक़बरा निकला था- जो इस लड़ाई में मारा गया था।

कुछ लोगों का कहना है कि अंतरंजी खेड़ा वही प्राचीन स्थान है जिसका वर्णन चीनी यात्री युवानच्वांग ने पिलोशना या विलासना नाम से किया है किंतु यह धारणा ग़लत सिद्ध हो चुकी है। यह दूसरा स्थान बिलसड़ नामक प्राचीन नगर था जो एटा से 30 मील दूर है। किन्तु फिर भी अंतरंजी खेड़े के पूर्व-मुसलमान काल का नगर होने में कोई संदेह नहीं है क्योंकि यहां के विशाल खंडहरों के उत्खनन में, जो एक विस्तृत टीले के रूप में हैं (टीला 3960 फुट लम्बा, 1500 फुट चौड़ा और प्राय: 65 फुट ऊंचा है) शुंग, कुषाण और गुप्तकालीन मिट्टी की मूर्तियां, सिक्के, ठप्पे, ईंटों के टुकड़े आदि बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं।

खंडहर के एक सिरे पर एक शिवमंदिर के अवशेष हैं जिसमें पांच शिवलिंग हैं। इनमें एक नौ फुट ऊंचा है। टीले की रूपरेखा से जान पड़ता है कि इसके स्थान पर पहले एक विशाल नगर बसा हुआ था।

अतरंजी खेड़ा परिचय

इस स्थल की खोज 1961-1962 ई. में एलेक्जेण्डर कनिंघम ने की थी। कनिंघम ने चीनी यात्री युवानच्वांग द्वारा उल्लिखित पि-लो-शा-न नामक स्थल का अतरंजी खेड़ा से समीकरण किया है।

अबुल फ़जल ने 'आइने अकबरी' में अतरंजी का उल्लेख कन्नौज सरकार के एक महल के रूप में किया है। यहाँ पर 1962 ई. में परिक्षणात्मक खुदाई की गयी। 1964 ई. से सात वर्षों तक लगातार उत्खनन से यहाँ एक प्रागैतिहासिक सांस्कृतिक स्थल खोज निकाला गया। प्रारम्भिक उत्खननों का निर्देशन मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के प्रोफेसर नुरुल हसन और आर. सी. गौड़ ने किया।

यहाँ पर दो हज़ार वर्ष ई. पूर्व. से लेकर अकबर के शासनकाल तक के अवशेष प्राप्त हुए हैं। इन अवशेषों के आधार पर यहाँ की संस्कृतियों को चार स्तरों में बाँटा जा सकता है।

संस्कृतियाँ: अवशेषों के आधार पर अतरंजी खेड़ा की संस्कृतियों को चार स्तरों में बाँटा जा सकता है।

गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति: प्रथम गैरिक मृद्भाण्ड संस्कृति स्तर से प्राप्त गेरुए रंग के मृद्पात्रों के आधार पर इसे गैरिक मृद्भाण्ड परम्परा कहते हैं। गेरुए रंग के ये पात्र अधिकांशतः चाक निर्मित एवं कुछ हस्त निर्मित भी हैं। इनमें घड़े, कलश, पेंदीदार कटोरे, मटके, तसले, नाँद आदि मोटी गढ़न के हैं। तश्तरियाँ, चिलमची, घुण्डीदार कटोरेनुमा ढक्कन, दीपक और छोटे कलश पतली गढ़न के हैं। कुछ पात्र चित्रित हैं और कुछ पर अनियमित रेखाएँ हैं। इस काल के लोग अधिकांश खेतिहर थे। वे धान, जौ एवं दालों की खेती से परिचित थे। इस स्तर से अनाज पीसने के सिलबट्टे भी प्राप्त हुए हैं। प्रथम संस्कृति का समय आमतौर से 2000 ई.पूर्व. से 1500 ई.पूर्व. माना जाता है।

कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति: द्वितीय कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति में जिस संस्कृति के अवशेष मिलते हैं, उनके निवासी काले-लाल मृद्भाण्डों का उपयोग करते थे। इस परम्परा के पात्रों का अन्दर एवं गर्दन का भाग काला और शेष भाग लाल रंग का होता है। पात्रों के अतिरिक्त इस स्तर से वर्गाकार एवं आयताकार चूल्हे मिले हैं। ताँबे और हड्डियों के अवशेष भी प्राप्त हुए हैं। कृष्ण-लोहित मृद्भाण्ड संस्कृति में माणिक्य के फलक काफ़ी संख्या में मिले हैं। इस स्तर का काल 1450 ई. पूर्व. से 1200 ई. पूर्व. माना जाता है।

चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति: तीसरी चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति से चित्रित धूसर-मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। इनमें अधिकतर चाक निर्मित हैं, परंतु कुछ हाथ के बने हुए भी हैं। इन पात्रों में कटोरे एवं थालियाँ महत्त्वपूर्ण हैं। इस परम्परा में पात्रों पर चित्रण भी मिलते हैं। ये चित्रण प्रायः रेखीय, बिन्दु, वृत्त, अर्द्धवृत्त आदि के रूप में हैं। चित्रितधूसर मृद्भाण्ड संस्कृति में स्वस्तिक चिह्न का भी चित्रण मिलता है। ये प्रायः धूसर रंग के हैं। इस परम्परा के साथ काले-लाल एवं बिना अलंकरण वाले धूसर भाण्ड परम्परा के पात्र भी प्राप्त हुए हैं। इस स्तर से लौह उपकरण भी प्राप्त हुए हैं, जो निचले स्तर से ऊपर की ओर संख्या में अधिक होते गए हैं। मुख्यतः बाण के अग्र भाग, भाला-फलक, चिमटे, कीलें, कुल्हाड़ी, मछली पकड़ने के काँटे, छल्ले, छेनी, बरमा आदि मिले हैं। अतरंजी खेड़ा से लौह गलाने की भट्टियों के संकेत भी मिले हैं। इस काल में कृषि गेहूँ के अवशेष भी प्राप्त होते हैं। कृषि के साथ मवेशी भी पाले जाते थे। गाय, बैल, भेड़, बकरी और घोड़े के चिह्न भी प्राप्त हुए हैं। इस स्तर से आवासीय चिह्न मिलते हैं। आवास बाँस-लकड़ी से निर्मित होते थे। मिट्टी की पशु मूर्तियाँ, पहिये एवं मनके प्राप्त हुए हैं। ताँबा और हड्डी से निर्मित वस्तुएँ भी मिली हैं। घरों में चूल्हों के साथ-साथ आग के गड्ढे भी मिले हैं। इस संस्कृति की काल गणना 1200 ई.पूर्व. से 600 ई.पूर्व. तक की जाती है।

उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा संस्कृति: चतुर्थ उत्तरी काली चमकीली पात्र परम्परा संस्कृति से उत्तरी काली ओपदार भाण्ड परम्परा के पात्र प्राप्त होते हैं। ये पात्र खूब गुँथी हुई काली मिट्टी से बने हुए, काले रंग की विशेष चमक लिए हुए हैं। ये पात्र पतली गढ़न के हल्के, अच्छी फिनिश एवं धातु पात्रों-सी खनक वाले हैं। पात्रों में थाली-कटोरे, छोटे कलश, हांडियाँ आदि प्रमुख हैं। यह स्तर अधिक व्यापक एवं मोटे जमाव में पाया गया है। इस स्तर के आवासों में क्रमशः ईंटों का प्रयोग देखने को मिलता है। घास-फूस एवं बाँस-लकड़ी के मकानों के साथ-साथ ऊपरी परतों में पकायी हुई ईंटों के मकानों के अवशेष मिलते हैं। इस स्तर से मिट्टी के मनुष्य, पशु एवं पक्षियों की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं। लोहे, ताँबे एवं हाथी के दाँत तथा हड्डियों से निर्मित वस्तुएँ प्राप्त हुई हैं। इस स्तर का समय 600 ई.पूर्व. से लेकर 50 ई.पूर्व. का माना जाता है।

प्राचीन अस्थियाँ: अतरंजी खेड़ा पर किये गये उत्खनन में जिन पशुओं की अस्थियाँ मिली हैं उनमें अधिकांश गाय-बैलों की हैं। उन पर काटने के स्पष्ट चिह्न हैं तथा अधिकतर की तिथि 500 ई.पूर्व. से पहले की है। इससे यह प्रमाणित होता है कि यज्ञों में इन पशुओं की बलि दी गई थी। इस प्रकार के तथ्यों के आधार पर प्रोफेसर रामशरण शर्मा ने 'प्राचीन भारत में भौतिक प्रगति एवं सामाजिक संरचनाएँ में यह मत प्रकट किया है कि वैदिक धार्मिक स्वरूप लोहे के फल वाले हल से होने वाली कृषि के अनुकूल नहीं था। मोटे तौर पर अतरंजी खेड़ा से इसके आर्य संस्कृति के केन्द्र होने के व्यापक प्रमाण मिलते हैं। पशुपालन, खेतिहर समुदाय, चावल की खेती, लोहे की उपस्थिति, चित्रित धूसर भाण्ड संस्कृति आदि तथ्य अतरंजी खेड़ा की विशेषताएँ है।

संदर्भ: भारतकोश-अतरंजीखेड़ा

Visit by Xuanzang in 636 AD

Alexander Cunningham[2] writes that from Ahi-chhatra the Chinese pilgrim Xuanzang proceeded in a south direction a distance of from 200 to 270 li, from 23 to 25 miles, to the Ganges, which he crossed, and then turning to the south-west he arrived in the kingdom of Pi-lo-shan-na[3] His route to the south -would have taken him through Aonla and Budaon to the Budh Gunga (or old Ganges), somewhere near Sahawar, a few miles below Soron, both of which places stood on the main stream of the Ganges so late as 400 years ago. As his subsequent route is said to have been to the south-west, I believe that he must have crossed the Ganges close to Sahawar, which is 42 miles from Ahi-chhatra in a direct line. From all my early inquiries I was led to believe that Soron was the only ancient place in this vicinity ; and as Hwen Thsang does not give any distance for his south-west march, I concluded that Soron must have been the place to which he gives the name of Pi-lo-shan-na. I accordingly visited Soron, which is undoubtedly a place of very great antiquity, but which cannot, I think, be the place visited by the Chinese pilgrim. I will, however, first describe Soron before I proceed to discuss the superior claims of the great ruined mound of Atranji-Khera to be identified with the Pi-lo-shan-na of the Chinese pilgrim.

Soron is a large town on the right, or western, bank of the Ganges, on the high-road between Bareli and Mathura. The place was originally called Ukala Kshetra ; but after the demon Hiranyaksha had been killed by the Varaha Avatar, or Boar incarnation of Vishnu, the name was changed to Sukara Kshetra, or


[p.365]: " the place of the good deed." The ancient town is represented by a ruined mound called the Kilah, or " fort," which is one quarter of a mile in length from north to south, and somewhat less in breadth. It stands on the high bank of the old bed of the Ganges, which is said by some to have flowed immediately under it so late as 200 years ago. The modern town stands at the foot of the old mound on the west and south sides, and probably contains about 5000 inhabitants. There are no dwellings on the old mound, which is occupied only by the temple of Sita-Ramji and the tomb of Shekh Jamul ; but it is covered with broken bricks of large size, and the foundations of walls can be traced in all directions. The mound is said to be the ruins of a fort built by Raja Somadatta of Soron many hundred years ago. But the original settlement of the place is very much older, being attributed to the fabulous Raja Vena Chakravartti who plays such a conspicuous part in all the legends of North Bihar, Oudh, and Rohilkhand.

The great mound of ruins called Atranji-Khera is situated on the right or west bank of the Kali Nadi four miles to the south of Karsana, and eight miles to the north of Eyta on the Grand Trunk Road. It is also 15 miles to the south of Soron, and 43 miles to the north-west of Sankisa in a direct line, the road distance being not less than 48 or 50 miles. In the ' Ayin Akbari' Atranji is recorded as one of the parganahs of Kanoj, under the name of Sikandarpur Atreji[4] Sikandarpur, which is now called Sikandrabad, is a village on the left bank of the Kali Nadi opposite Atranji. From this it would appear that Atranji was


[p.366]: still occupied in the reign of Akbar. The parganah was afterwards called Karsana, bat it is now known by the name of Sahawar Karsana, or of Sahawar only. The name given by the Chinese pilgrim is Pi-lo-shan-na, for which M. Julien proposes to read Virasana.

So far back as 1848 I pointed out that, as both. pil and kar are Sanskrit names for an elephant, it was probable that Pilosana might be the same as Karsana, the large village which I have already mentioned as being four miles to the north of Atranji Khera. The chief objection to this identification is the fact that Karsana is apparently not a very old place, although it is sometimes called Deora Karsana, a name which implies the possession of a temple of note at some former period. It is, however, possible that the name of Karsana may once have been joined to Alranji in the same way that we find Sikandarpur Atreji in the ' Ayin Akbari.' As the identification oi Karsana with Pilosana is purely conjectural, it is useless to hazard any more speculations on this subject. The bearing and distance from Sankisa, as recorded by Hwen Thsang, point to the neighbourhood of Sirpura, near which there is a small village called Pilkuni or Pilokuni, which is the Pilukhoni of our maps. It is, however, a very petty place ; and although it boasts of a small khera, or mound of ruins, it cannot, I think, have ever been more than one-fourth of the circuit of two miles which Hwen Thsang attributes to Pi-lo-shan-na. But there are two strong points in its favour — namely, 1st, its position, which agrees both in bearing and distance with the Chinese pilgrim's account ; and 2nd, its name, which is almost identical with the old name, sh being very commonly pronounced as kh, so that Hwen


[p.367]: Thsang's Piloshana would usually be pronounced Pilokhana.

In proposing Atranji-Khera as the site of the ancient Piloshana, I am influenced solely by the fact that this is the only large place besides Soron of any antiquity in this part of the country. It is true that the distance from Sankisa is somewhat greater than that recorded by the Chinese pilgrim, — namely, 45 miles, instead of 33 miles ; but the bearing is exact ; and as it is quite possible that there may be some mistake in Hwen Thsang's recorded distance, I think that Atranji-Khera has a better claim than any other place to be identified with the ancient Piloshana.

The only objection to the identification of Atranji with Piloshana is the difference between the distance of 200 li, or 33 miles, as stated by Hwen Thsang, and the actual distance of 43 miles direct, or about 48 or 50 miles by road. I have already suggested the possibility of there being some mistake in the recorded distance of Hwen Thsang, but perhaps an equally probable explanation may be found in the difference of the length of the yojana. Hwen Thsang states that he allowed 40 Chinese li to the yojana ; but if the old yojana of Rohilkhand differed from that of the central Doab as much as the kos of these districts now differ, his distances would have varied by half a mile in every kos, or by two miles in every yojana, as the Rohilkhand kos is only 1½ mile, whilo that of the Doab is two miles; the latter being one-third greater. Now if we apply this difference to Hwen Thsang's measurement of 200 li, or 33 miles, we increase the distance at once to 44 miles, which agrees with the direct measured distance on the map. I confess, however, that I am


[p.368]: rather inclined to believe in the possibility of there being a mistake in Hwen Thsang's recorded distance, as I find exactly the same measurement of 200 li given as the distance between [[Sankisa] and Kanoj. Now, the two distances are precisely the same, — that is, Sankisa is exactly midway between Atranji and Kanoj ; and as the latter distance is just 50 miles by my measurement along the high-road, the former must also be the same. I would therefore suggest the probability that both of these distances should be 300 li, or 50 miles, instead of 200 li, as recorded in the text. In favour of this proposed correction I may cite the testimony of the earlier Chinese pilgrim Fa-Hian, who makes the distance from Sankisa to Kanoj 7 yojanas, or 49 miles.[5] At Hwen Thsang's own valuation of 40 li to the yojana, this measurement would give 280 li; and as Fa-Hian does not record half yojanas, we may increase the distance by half a yojana, or 20 li, which will bring the total up to 300 li, or 50 miles.

But whatever may be the true explanation of the difference between the actual distances and those recorded by Hwen Thsang, there still remains the important fact that Sankisa was exactly midway between Kanoj and Piloshanna, just as it now is midway between Kanoj and Atranji. If we couple this absolute identity of position with the fact that Atranji is the only old place in the part of the country indicated by Hwen Thsang, we can scarcely arrive at any other conclusion than that the great ruined mound of Atrauji is the site of the ancient Piloshana. This conclusion is strengthened by the fact that the mound of Atranji correspunds almost exactly in size with


[p.369]: Hwen Thsang's measurement of 12 li, or 2 miles, for Piloshana. The mound is 3250 feet in breadth at base, or a little more than 2 miles in circuit. Its highest point is 44-3/4 feet above the level of the country ; but there are no remains save the foundations of walls and masses of broken brick.

Piloshana is said to have been 2000 li, or 333 miles, in circuit ; but this is certainly too great. With reference to the surrounding districts, its limits may be defined approximately as extending from Bulandshahar to Firuzabad on the Jumna and Kadirganj on the Ganges, which would give a circuit of not more than 250 miles.

Notable person

External Links

References

  1. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.18
  2. The Ancient Geography of India/Piloshana, p.364-369
  3. Julien's 'Hiouen Thsang,' ii. 235. See Map No. X.
  4. Gladwyn gives " Secunderpoor Aterchhy," ii. 214.
  5. Beal's ' Fa-Hian,' chap. xviii.