Dadrewa
Dadarewa or Dadrewa (ददरेवा) is a town of historical importance located in Rajgarh tahsil in Churu district of Rajasthan, India. Its ancient name was Daridreraka (दरिद्रेरक).
Location
It is situated in Rajgarh tehsil in Churu district midway on Churu-Rajgarh road.
Variants of name
- Dadrera/Dadreda (ददरेड़ा)
- Dadarera/Dadarera (ददरेड़ा)
- Daridreraka (दरिद्रेरक)
- Daddarapura (दद्दरपुर) (AS, p.424)
Population
As of 2001 census the population of village is 6176 out of them 1833 are SC and 61 are ST people. Its location is : Latitude 28.68, Longitude 75.23, Altitude 228 metre
Jat Gotras
History
Chauhans of Dadrewa
- Note - This section is from Dasharatha Sharma: Early Chauhan Dynasties (800-1316 AD), pp.365-366
Another feudatory Chauhan family which deserves notice on account of its connection with the folk-deity Gogaji as well as the Kyamkhani (Qiwam Khani) family of Fatehpur, is that of the ‘’Mandaleshwara’’ of Dadrewa (Bikaner Division), known to us from the Kyam Khan Raso and an inscription of V.1273. From the first of these sources we learn that Gogaji was the eldest son of Jevara (जेवर) and ruled for some years. His Successor was Naniga (नानिग), who perhaps died childless. The chieftainship then probably passed on to Udayaraja, a son of Goga's brother, Vairasi. Udayaraja's successors were Jasaraja, Kesoraja, Vijayaraja, Padmasi, Prithviraja, Lalachanda, Gopala, and Jaitasi. It is for the last of these rulers, 'ranaka Jayatsiha, the son mandaleshvara Gopala', that we have an inscription of V. 1270 (1213 A.D. by Govind Agarwal) at Dadrewa (JPASB. XVI •• 257). Jayatasiha's successors were Punapala, Rupa, Ravana, Tihunapala, and Moteraya. The last one of them had a son named Karama Chanda who was converted to Islam by Firuz Shah, (135l-1388 A.D.). If we keep both these definite dates in view, Gogaji ( and we may remember that there is only one Goga in the line of Dadrewa) should be regarded as a contemporary of Mahamud of Ghazna, and not of Firuz Shah, as believed by Tod and some other writers who have followed his lead. This late date is disproved also by the Shravaka-vratadi-atichara, Gujarati book composed in in V. 1466 (1409 A.D.). It requires a Jaina Shravaka not to think of worshipping Brahma, Vishnu, Kshetrapala, Goga, Dikpalas, village god and grahas etc., merely because they fulfilled the desires of their devotees. A local god like Goga must have needed not only twenty-five years but centuries to be so well known, not only in his homeland of north-eastern Rajasthan but also in the distant Gujarat Jaina teachers had to put his worship on a level with that of Brahma, Vishnu, Shiva and other popular gods and dub it as an atichara, i.e., a serious transgression of Jaina dharma.
Period of Gogaji: Actually the only basis that we have for the date of dating Gogaji are the late traditional anecdotes which make him contemporary of the Rathore hero Pabuji, who as a great grandson of Rava Sihoji could have flourished some where about 1325 A.D. It is impossible to build up serious history on the basis of such tales. To me it seems that they were concocted by a fairly late generation of the devotees of Pabuji, who were out to prove that their hero-god was in no way inferior to the Chauhan hero, Gogaji. And if we are out to believe anecdotes, we have to believe equally the stories which make Gogaji, a contemporary of Gorakhanatha: (who is generally put by historians in the beginning of the eleventh century) and of Mahmud of Ghazni against whom he is said to have fought with his forty-five sons and sixty nephews. How the worship of the Chauhan hero came to be so intimately connected with snake worship that Goga came to be regarded as a snake is a subject that needs investigation.
Further material has since writing the above been available to show that Goga was a descendant of Ghanga. Surjan, against whom he had to fight, came one generation earlier than him ( for more details read my article in the Shodhapatrika, XX, pp. 1-3).
As regards the history of the descendant of Karamachanda, known to us as Kayam Khanis,who played an important role in the affairs of Delhi under the later Tughlaqs; Saiyyads, Lodis and Mughals, readers may consult our introduction and critical notes appended to the Kyam Khani Raso published by the Rajasthan Puratattva Mandira, Jaipur.
दद्दरपुर
विजयेन्द्र कुमार माथुर[1] ने लेख किया है ...दद्दरपुर (AS, p.424) एक प्राचीन नगर था, जिसकी स्थापना 'चेतियजातक' के अनुसार, चेदि नरेश 'उपचर' के एक पुत्र ने की थी। दद्दरपुर नगर चेदि देश में बसाया गया था। उपचर के चार अन्य पुत्रों ने भी चार विभिन्न नगरों की स्थापना की थी। हेमचन्द्र रायचौधरी का मत है कि यह राजा महाभारत, आदिपर्व 63, 30-33 में उल्लिखित चेदि नरेश उपरिचर वसु है, जिसके पांच पुत्रों ने पांच राज्य वंश चलाए थे।[2] 'चेतियजातक' में चेदि नरेश उपचर के पांच पुत्रों द्वारा 'हत्थिपुर', 'अस्सपुर', 'सीहपुर', 'उत्तर पांचाल' और 'दद्दरपुर' नामक नगरों के बसाए जाने का उल्लेख है।
गोगाजी की जन्मस्थली
गोगादेव के जन्मस्थान ददरेवा, जो राजस्थान के चुरू जिले की राजगढ़ तहसील में स्थित है। यहाँ पर सभी धर्म और सम्प्रदाय के लोग मत्था टेकने के लिए दूर-दूर से आते हैं । नाथ परम्परा के साधुओं के लिए यह स्थान बहुत महत्व रखता है। दूसरी ओर कायमखानी मुस्लिम समाज के लोग उनको जहरपीर के नाम से पुकारते हैं तथा उक्त स्थान पर मत्था टेकने और मन्नत माँगने आते हैं। इस तरह यह स्थान हिंदू और मुस्लिम एकता का प्रतीक है।मध्यकालीन महापुरुष गोगाजी हिंदू, मुस्लिम, सिख संप्रदायों की श्रद्घा अर्जित कर एक धर्मनिरपेक्ष लोकदेवता के नाम से पीर के रूप में प्रसिद्ध हुए।
गोगाजी का जन्म राजस्थान के ददरेवा (चुरू) चौहान वंश के शासक जैबर (जेवरसिंह) की पत्नी बाछल के गर्भ से गुरु गोरखनाथ के वरदान से भादो सुदी नवमी को हुआ था। चौहान वंश में राजा पृथ्वीराज चौहान के बाद गोगाजी वीर और ख्याति प्राप्त राजा थे। गोगाजी का राज्य सतलुज सें हांसी (हरियाणा) तक था। लोकमान्यता व लोककथाओं के अनुसार गोगाजी को साँपों के देवता के रूप में भी पूजा जाता है। लोग उन्हें गोगाजी चौहान, गुग्गा, जाहिर वीर व जाहर पीर के नामों से पुकारते हैं। यह गुरु गोरक्षनाथ के प्रमुख शिष्यों में से एक थे। राजस्थान के छह सिद्धों में गोगाजी को समय की दृष्टि से प्रथम माना गया है।जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर के पास ददरेवा में गोगादेवजी का जन्म स्थान है। गोगादेव की जन्मभूमि पर आज भी उनके घोड़े का अस्तबल है और सैकड़ों वर्ष बीत गए, लेकिन उनके घोड़े की रकाब अभी भी वहीं पर विद्यमान है। उक्त जन्म स्थान पर गुरु गोरक्षनाथ का आश्रम भी है और वहीं है गोगादेव की घोड़े पर सवार मूर्ति। भक्तजन इस स्थान पर कीर्तन करते हुए आते हैं और जन्म स्थान पर बने मंदिर पर मत्था टेककर मन्नत माँगते हैं।
हनुमानगढ़ जिले के नोहर उपखंड में स्थित गोगाजी के पावन धाम गोगामेड़ी स्थित गोगाजी का समाधि स्थल जन्म स्थान से लगभग 80 किमी की दूरी पर स्थित है, जो साम्प्रदायिक सद्भाव का अनूठा प्रतीक है, जहाँ एक हिन्दू व एक मुस्लिम पुजारी खड़े रहते हैं। श्रावण शुक्ल पूर्णिमा से लेकर भाद्रपद शुक्ल पूर्णिमा तक गोगा मेड़ी के मेले में वीर गोगाजी की समाधि तथा गोरखटीला स्थित गुरु गोरक्षनाथ के धूने पर शीश नवाकर भक्तजन मनौतियाँ माँगते हैं।गोगा पीर व जाहरवीर के जयकारों के साथ गोगाजी तथा गुरु गोरक्षनाथ के प्रति भक्ति की अविरल धारा बहती है। भक्तजन गुरु गोरक्षनाथ के टीले पर जाकर शीश नवाते हैं, फिर गोगाजी की समाधि पर आकर ढोक देते हैं। प्रतिवर्ष लाखों लोग गोगा जी के मंदिर में मत्था टेक तथा छड़ियों की विशेष पूजा करते हैं। प्रदेश की लोक संस्कृति में गोगाजी के प्रति अपार आदर भाव देखते हुए कहा गया है कि गाँव-गाँव में खेजड़ी, गाँव-गाँव में गोगा वीर गोगाजी का आदर्श व्यक्तित्व भक्तजनों के लिए सदैव आकर्षण का केन्द्र रहा है।विद्वानों व इतिहासकारों ने उनके जीवन को शौर्य, धर्म, पराक्रम व उच्च जीवन आदर्शों का प्रतीक माना है। इतिहासकारों के अनुसार गोगादेव अपने बेटों सहित मेहमूद गजनबी के आक्रमण के समय सतलुज के मार्ग की रक्षा करते हुए शहीद हो गए।
लोक देवता जाहरवीर गोगाजी की जन्मस्थली ददरेवा में भादवा मास के दौरान लगने वाले मेले के दृष्टिगत पंचमी (सोमवार) को श्रद्धालुओं की संख्या में और बढ़ोतरी हुई। मेले में राजस्थान के अलावा दिली, उत्तराखंड, पंजाब, हरियाणा, उत्तरप्रदेश, मध्य प्रदेश, हिमाचल, महाराष्ट्र, बिहार व गुजरात सहित विभिन्न प्रांतों से श्रद्धालु पहुंच रहे हैं।
जातरु ददरेवा आकर न केवल धोक आदि लगाते हैं बल्कि वहां अखाड़े (ग्रुप) में बैठकर गुरु गोरक्षनाथ व उनके शिष्य जाहरवीर गोगाजी की जीवनी के किस्से अपनी-अपनी भाषा में गाकर सुनाते हैं। प्रसंगानुसार जीवनी सुनाते समय वाद्ययंत्रों में डैरूं व कांसी का कचौला विशेष रूप से बजाया जाता है। इस दौरान अखाड़े के जातरुओं में से एक जातरू अपने सिर व शरीर पर पूरे जोर से लोहे की सांकले मारता है। मान्यता है कि गोगाजी की संकलाई आने पर ऐसा किया जाता है।
हवाई अड्डा लगभग 250 किमी पर स्थित है।
रेल मार्ग:- जयपुर से लगभग 250 किमी दूर स्थित सादलपुर तक ट्रेन द्वारा जाया जा सकता है।सड़क मार्ग:- जयपुर देश के सभी राष्ट्रीय मार्ग से जुड़ा हुआ है। जयपुर से सादलपुर और सादलपुर से 15 किमी दूर स्थित गोगाजी के जन्मस्थान तक बस या टैक्सी से पहुँचा जा सकता है।
ददरेवा के कायमखानी
राजस्थान के इतिहासकार मुंहता नेणसी ने अपनी ख्यात में लिखा है कि हिसार के फौजदार सैयद नासिर ने ददरेवा को लूटा. वहां से दो बालक एक चौहान दूसरा जाट ले गए. उन्हें हांसी के शेख के पास रख दिया. जब सैयद मर गया तो वे बहलोल लोदी के हुजूर में भेजे गए. चौहान का नाम कायमखां तथा जाट का नाम जैनू रखा. जैनू के वंशज (जैनदोत) झुंझुनु फतेहपुर में हैं. कायमखां हिसार का फौजदार बना. चौधरी जूझे से मिलकर झुंझुनूं क़स्बा बसाया. कायमखां ददरेवा के मोटेराव चौहान का पुत्र था. कायमखां के वंशज कायमखानी कहलाते हैं. [3][4]
ऐतिहासिक तथ्यों से इस बात की पुष्टी होती है. महाकवि जान, रासो के रचयिता, कायमखां के मोटेराव चौहान का पुत्र होना, ददरेवा का निवासी होना आदि तथ्यों का विस्तार से उल्लेख करते हैं. यह विवेचना आवश्यक है कि मोटेराव चौहान का कौनसा समय था तथा कायम खां किस समय मुसलमान बना. ददरेवा के चौहान साम्भर के चौहानों की एक शाखा थे. लम्बी अवधी से इनका ददरेवा पर अधिकार था और इनकी उपाधी राणा थी . चौहानों में राणा की उपाधी दो शाखाएं प्रयुक्त करती थी. पहली मोहिल और दूसरी चाहिल. ददरेवा के चौहान संभवत: चाहिल शाखा के थे. गोगाजी जो करमचंद के पूर्वज थे, के मंदिर के पुजारी आज भी चाहिल हैं. मोटे राव चौहान गोगाजी का वंशज था. दशरथ शर्मा गोगाजी का समय 11वीं शदी मानते हैं. उनके अनुसार वे महमूद गजनवी से युद्ध करते हुए सना 1024 में बलिदान हुए.
रणकपुर शिलालेख में भी गोगाजी को एक लोकप्रिय वीर माना है. यह शिलालेख वि. 1496 (1439 ई.) का है.[5]
यह प्रसिद्ध है कि गोगाजी से 16 पीढ़ी बाद कर्मचंद हुआ. इसी प्रकार जैतसिंह से उसे सातवीं पीढ़ी में होना माना जाता है. बांकीदास ने गोगाजी को जेवर का पुत्र होना लिखा है. गोगाजी के बाद बैरसी , उदयराज , जसकरण , केसोराई, विजयराज, मदनसी, पृथ्वीराज, लालचंद, अजयचंद, गोपाल, जैतसी, ददरेवा की गद्दी पर बैठे. जैतसी का शिलालेख प्राप्त हुआ है जो वि.स. 1270 (1213 ई.) का है. इसे वस्तुत: 1273 वि.स. का होना बताया है. जैतसी के बाद पुनपाल, रूप, रावन, तिहुंपाल, मोटेराव, यह वंशक्रम रासोकार ने माना है. जैतसी के शिलालेख से एक निश्चित तिथि ज्ञात होती है. जैतसी गोपाल का पुत्र था जिसने ददरेवा में एक कुआ बनाया. गोगाजी महमूद गजनवी से 1024 में लड़ते हुए मारे गए थे. गोगाजी से जैतसी तक का समय 9 राणाओं का प्राय: 192 वर्ष आता है जो औसत 20 वर्ष से कुछ अधिक है. जैतसी के आगे के राणाओं का इसी औसत से मोटेराव चौहान का समय प्राय: 1315 ई. होता है जो फिरोज तुग़लक के काल के नजदीक है. इससे स्पस्ट होता है कि कायम खां फीरोज तुग़लक (1309-1388) के समय में मुसलमान बना. [6]
तारीखी फीरोजशाही से ज्ञात होता है कि बंगाल से लौटने के बाद बंगाल की लड़ाई के दूसरे साल हिसार फीरोजा की स्थापना की. यह 1354 में माना जा सकता है. हिसार में सुल्तान ने एक दुर्ग बनाया और अपने नाम पर इस नगर का आम हिसार फीरोजा रखा. इसके पूर्व हिसार के आसपास का क्षेत्र हांसी के शिंक (डिविजन ) में था. इस शिंक का नाम हिसार फीरोजा कर दिया और हांसी, अग्रोहा, फतेहाबाद, सरसुती, सालारुह, और खिज्राबाद के जिले इसमें सामिल कर लिये. इसके पास ही दक्षिण पश्चिम में शेखावाटी का भूभाग था. कायम खां यद्यपि धर्म परिवर्तन कर मुसलमन हो गया था पर उसके हिन्दू संस्कार प्रबल थे. उसका संपर्क भी अपने जन्म स्थान के आसपास की शासक जातियों से बना रहा था. कायम खां के सात स्त्रियाँ थी जो सब हिन्दू थी. [7]
कायमखां अपने जीवन के अंतिम दिनों में हिसार फीरोजा का हाकिम रहा था. यह क्षेत्र दूर-दूर तक फैला था तथा अपना जन्म स्थान ददरेवा भी निकट था जहाँ अब भी चौहान राज कर रहे थे. कायमखां का शेखावाटी से निकट संपर्क था यह बात खंडेले के शासकों के वर्ग में उसकी शादी से जाना जा सकता है. इसी संपर्क के कारण बाद में उसके पुत्र हिसार से विस्थापित होकर इधर चले आये. शेखावाटी प्रकाश के अनुसार कायम खां के 5 पुत्र थे - महमदखां, ताजखां, क़ुतुबखां, अबूखां, और इख्तियारखां. 'फतेहपुर परिचय' में उसके 6 लड़के होने की बात कही है. उपरोक्त पांच के अतिरिक्त मोहनखां का नाम जोड़ा गया है. चौथा पुत्र क़ुतुबखां बारुवे में जाकर बस गया और आस-पास के स्थानों पर उसने अधिकार कर लिया. बारुआ झुंझुनूं जिले का स्थान है जो नवलगढ़ से 11 किमी दूर दक्षिण में है. [8]
बुरड़क इतिहास में ददरेवा
बुरडक गोत्र के बडवा (भाट) श्री भवानीसिंह राव (फोन-09785459386) की बही के अभिलेखों में ददरेवा का सम्बन्ध बुरड़क गोत्र के इतिहास से है । अजमेर के चौहान वंश में राजा रतनसेण के बिरमराव पुत्र हुए । बिरमराव ने अजमेर से ददरेवा आकर राज किया । संवत 1078 (1021 AD) में किला बनाया । इनके अधीन 384 गाँव थे । बिरमराव की शादी वीरभाण की बेटी जसमादेवी गढ़वाल के साथ हुई । इनसे तीन पुत्र उत्पन्न हुए:
- सांवत सिंह - सांवत सिंह के पुत्र मेल सिंह, उनके पुत्र राजा घंघ, उनके पुत्र इंदरचंद तथा उनके पुत्र हरकरण हुए । इनके पुत्र हर्ष तथा पुत्री जीण उत्पन्न हुयी । जीणमाता कुल देवी संवत 990 (933 AD) में प्रकट हुयी ।
- सबल सिंह - सबलसिंह के बेटे आलणसिंह और बालणसिंह हुए. सबलसिंह ने जैतारण का किला संवत 938 (881 AD) में आसोज बदी 10 को फ़तेह किया । इनके अधीन 240 गाँव थे ।
- अचल सिंह -
सबलसिंह के बेटे आलणसिंह के पुत्र राव बुरडकदेव, बाग़देव, तथा बिरमदेव पैदा हुए ।
आलणसिंह ने संवत 979 (922 AD) में मथुरा में मंदिर बनाया तथा सोने का छत्र चढ़ाया ।
ददरेवा के राव बुरडकदेव के तीन बेटे समुद्रपाल, दरपाल तथा विजयपाल हुए ।
राव बुरडकदेव (b. - d.1000 AD) महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों के विरुद्ध राजा जयपाल की मदद के लिए लाहोर गए । वहां लड़ाई में संवत 1057 (1000 AD) को वे जुझार हुए । इनकी पत्नी तेजल शेकवाल ददरेवा में तालाब के पाल पर संवत 1058 (1001 AD) में सती हुई । राव बुरडकदेव से बुरडक गोत्र निकला ।
राव बुरडकदेव के बड़े पुत्र समुद्रपाल के 2 पुत्र नरपाल एवं कुसुमपाल हुए. समुद्रपाल राजा जयपाल के पुत्र आनंदपाल की मदद के लिए 'वैहिंद' (पेशावर के निकट) गए और वहां पर जुझार हुए । संवत 1067 (1010 AD) में इनकी पत्नी पुन्यानी साम्भर में सती हुई ।
ददरेवा का इतिहास
संदर्भ - ददरेवा के इतिहास का यह भाग 'श्री सार्वजनिक पुस्तकालय तारानगर' की स्मारिका 2013-14: 'अर्चना' में प्रकाशित मातुसिंह राठोड़ के लेख 'चमत्कारिक पर्यटन स्थल ददरेवा' (पृ. 21-25) से लिया गया है।
10 वीं शताब्दी के लगभग अंत में मरुप्रदेश के चौहानों ने अपने स्वतंत्र राज्य स्थापित करने प्रारम्भ कर दिये थे। इसी स्थापनाकाल मे घंघरान चौहान ने वर्तमान चुरू शहर से 10 किमी पूर्व मे घांघू गाँव बसा कर अपनी राजधानी स्थापित की। [9] ('अर्चना',पृ.21)
राणा घंघ की पहली रानी से दो पुत्र हर्ष व हरकरण तथा एक पुत्री जीण का जन्म हुआ। हर्ष व जीण लोक देवता के रूप में सुविख्यात हैं। ('अर्चना',पृ.21) ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते हालांकि हर्ष ही राज्य का उत्तराधिकारी था लेकिन नई रानी के रूप में आसक्त राजा ने उससे उत्पन्न पुत्र कन्हराज को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। संभवत: इन्हीं उपेक्षाओं ने हर्ष और जीण के मन में वैराग्य को जन्म दिया। दोनों ने घर से निकलकर सीकर के निकट तपस्या की और आज दोनों लोकदेव रूप में जन-जन में पूज्य हैं।
राणा घंघरान की दूसरी रानी से कन्हराज, चंदराज व इंदराज हुये। कन्हराज के चार पुत्र अमराज, अजराज, सिधराज व बछराज हुये। कन्हराज का पुत्र अमराज (अमरा) उसका उत्तराधिकारी बना। अमराजका पुत्र जेवर (झेवर) उसका उत्तराधिकारी बाना। लेकिन महत्वाकांक्षी जेवर ने दादरेवा को अपनी राजधानी बनाई और घांघू अपने भाइयों के लिए छोड़ दिया। जेवर ने उत्तरी क्षेत्र मे अपने राज्य का विस्तार अधिक किया। असामयिक मृत्यु के कारण यह विजय अभियान रुक गया। जेवर के पश्चात उनका पुत्र गोगा (गोगदेव) चौहान युवावस्था से पूर्व ही माँ बाछलदे के संरक्षण में ददरेवा का राणा बना। [10]('अर्चना',पृ.21)
वर्तमान जोगी-आसन के स्थान पर नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत तपस्वी योगी ने गोरखनाथ के आशीर्वाद से बाछल को यशस्वी पुत्र पैदा होने की भविष्यवाणी की थी। कहते हैं कि बाछलदे की बड़ी बहन आछलदे को पहले इन्हीं संत के अशिर्वाद से अर्जन-सर्जन नामक दो वीर पैदा हुये थे। ('अर्चना',पृ.22)
अर्जन-सर्जन के साथ गोगा का भीषण युद्ध: गोगा के पिताकी असामयिक मृत्यु के कारण गोगा को संघर्ष करना पड़ा। राणा के वंशजों ने, जो विस्तृत क्षेत्र में ठिकाने स्थापित कर चुके थे , गोगा को राज्य व्यवस्थित करने में सहयोग नहीं किया। घंघरान के एक पुत्र इन्दराज के वंशज घांघू से 40 किमी उत्तर मे जोड़ी नामक स्थान पर काबिज थे। इनके राजकुमार अर्जन-सर्जन गोगा के मौसेरे भाई थे। इन राजकुमारों ने गोगा से ददरेवा छिनने का प्रयास किया। इन जोडले राजकुमारों ने गायों को चोरी कर लेजाना प्रारम्भ किया। एक दिन गोगा का दादरेवा से 8 किमी उत्तर-पूर्व मे वर्तमान खुड्डी नामक गाँव के पास एक जोहड़ भूमि में अर्जन-सर्जन के साथ भीषण युद्ध हुआ। अर्जन एक जाळ के पेड़ के पास मारा गया। सर्जन तालाब की पाल के पास युद्ध करता हुआ काम आया। इनके अंतिम स्थल पर एक मंदिर बना हुआ है जिसमें एक पत्थर की मूर्ति में दो पुरुष हाथों मे तलवार लिए हुये एक ही घोड़े पर सवार हैं। घोड़े के आगे एक नारी खड़ी है। इनकी अर्जन-सर्जन के नाम से पूजा की जाती है। एसी ही एक घोड़े पर सवार की मूर्ति ददरेवा की मेड़ी मे भी है जो वर्तमान में एक दीवार के साथ स्थापित कर मंदिर का रूप दे रखा है। मंदिर में दूसरी पत्थर की मूर्ति घोड़े पर सवार गोगा चौहान की है। युद्ध मैदान मे निर्मित मंदिर का पुजारी एक भार्गव परिवार का है। वर्तमान मे ऊपर वर्णित जाळ का वृक्ष नष्ट हो गया है। जोहड़ मे अब भी पानी भरता है। यहाँ एक लोकगीत प्रचलित है - 'अरजन मारयो जाळ तलै' सरजन सरवरिए री पाळ। हेरी म्हारा गूगा भल्यो राहियो'।('अर्चना',पृ.22)
गोगा का वैवाहिक जीवन: गोगा के वैवाहिक जीवन के संबंध में ऐतिहासिक तथ्यों का अभाव है। लोक-कथाओं में उनकी पत्नियों के रूप में राणी केलमदे व राणी सुरियल के नामों का उल्लेख है। राणी केलमदे को पाबूजी के भाई बुड़ोजी की पूर्ति बताया गया है। समय का अंतराल अधिक होने के कारण यह सत्य प्रतीत नहीं होता। राणी सुरियल का वर्णन कामरूप देश की राजकुमारी के रूप में किया गया है। ('अर्चना',पृ.22)
गोगा के एक पुत्र नानक के अलावा अन्य पुत्रों का नाम ज्ञात नहीं है। [11]('अर्चना',पृ.23)
महमूद गजनवी से युद्ध - महमूद गजनवी के उत्तर भारत पर हुये आक्रमणों के परिणाम स्वरूप गोगा ने अपनी सीमा से लगते हुये अन्य अव्यवस्थित राज्यों पर भी सीधा अधिकार न कर मैत्री संधि स्थापित की। जिसके कारण उत्तरी-पूर्वी शासकों की नजरों मे गोगा चौहान भारतीय संस्कृति का रक्षक लगने लगा। जब महमूद ने सन 1018 में कन्नौज पर आक्रमण किया तो संभवत: उसके बाद गोगा ने सम्पूर्ण उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र मे संपर्क किया होगा क्योंकि सोमनाथ पर हुये आक्रमण के समय सभी शासकों ने महमूद को अपने क्षेत्र से जाने की स्वीकृति देने के उपरांत भी सोमनाथ से आते हुये महमूद पर आक्रमण करने के लिए गोगा ने युद्ध मैदान में आने का आमंत्रण दिया तो उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र के सभी शासकों ने सहर्ष स्वीकार किया था। ('अर्चना',पृ.23)
महमूद सोमनाथ पर आक्रमण कर उस अद्वितीय धरोहर को नष्ट करने में सफल रहा लेकिन उसको इतनी घबराहट थी कि वापसी के समय बहुत तेज गति से चलकर अनुमानित समय व रणयोजना से पूर्व गोगा के राज्य के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र मे प्रवेश कर गया। गोगा द्वारा आमंत्रित उत्तर-पूर्वी क्षेत्र की सेनाएँ समय पर नहीं पहुंची थी। गोगा ने हिम्मत नहीं हारी। अपने पुत्र भाई-भतीजों एवं स्थाई तथा एकत्रित सेना को लेकर प्रस्थान किया। ददरेवा से 25 कोस (75 किमी) उत्तर-पश्चिम के रेगिस्तानी निर्जन वन क्षेत्र में तेज गति से जाते हुये महमूद का रास्ता रोका। उस समय महमूद रास्ता भटका हुआ था और स्थानीय लोगों के सहयोग से गजनी शहर का मार्ग तय कर रहा था। गोगा के चतुर सैनिकों ने रास्ता बताने के बहाने महमूद की सेनाके निकट पहुँचकर उसकी सेना पर आक्रमण कर दिया। गोगा के पास साहस तो था पर सेना कम थी। महमूद की सेना के काफी सैनिक मारे गए। महमूद के सैनिकों की संख्या बहुत अधिक थी। गोगा अपने 45 से अधिक पुत्र, भतीजों एवं निकट बंधु-बांधवों के अतिरिक्त अन्य सैंकड़ों सैनिकों के साथ बालू मिट्टी के एक टीले पर सांसारिक यात्रा को विराम दिया।[12]('अर्चना',पृ.23)
युद्ध समाप्त होने के कुछ घंटों बाद बचे हुये पारिवारिक सदस्यों व सैनिकों ने उसी स्थान पर अग्नि की साक्ष्य में इहलोक से परलोक के लिए विदाई दी। शेष बचे वीर योद्धाओं ने ददरेवा आकर गोगा के भाई बैरसी के पुत्र उदयराज को राणा बनाया। उत्तर-पूर्वी क्षेत्र के सैनिक भारी संख्या में दादरेवा पहुंचे लेकिन उस समय तक सब कुछ बदल गया था। चौहान वंश व अन्य रिशतेदारों के योद्धा गोगा के सम्मान में ददरेवा आए। उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों के अनुयाई लोग आज भी पीले वस्त्रों मे परंपरा को निभाने के लिए उपस्थित होते हैं। ('अर्चना',पृ.23)
गोगा को जहरीले सर्पों के विश को नष्ट करने की अलौकिक शक्ति प्राप्त हुई। गाँव-गाँव में गोगा के पूजा स्थान बनने लगे। गोगामेड़ियों की स्थापना हुई। जन्म स्थान ददरेवा में बनी मेड़ी को 'शीश मेड़ी' कहा जाता है। ददरेवा मेड़ी में गोगाजी की घोड़े पर सवार मूर्ति स्थापित है। ददरेवा की मेड़ी बाहर से देखने पर किसी राजमहल से कम नहीं है। ('अर्चना',पृ.23)
दादरेवा का दूसरा महत्वपूर्ण स्थान गोरखधुणा (जोगी आसान) है। यह वही स्थान है जहां नाथ संप्रदाय के एक सिद्ध संत तपस्वी योगी ने गोरखनाथ के आशीर्वाद से बाछल को यशस्वी पुत्र पैदा होने की भविष्यवाणी की थी। यहाँ पर सिद्ध तपस्वियों का धूणा एवं गोरखनाथ जी और अन्य की समाधियाँ भी हैं। ('अर्चना',पृ.24)
ददरेवा गाँव में एक पुराना गढ़ है जो सन 1509 ई. से 1947 तक बीकानेर के राठोड राज्य के अधीन रहा। [13]('अर्चना',पृ.25) महाकवि पृथ्वीराज राठोड़ के पुत्र सुंदरसेन को 12 गाँव की जागीर के साथ ददरेवा मिला था। पुराने कुएं , मंदिर,हवेलियाँ तथा जाल के वृक्ष यहाँ की सुंदरता बढ़ते हैं। राठोड़ राज्य से पूर्व गोगाजी चौहान के वंश में मोटेराय के तीन पुत्रों द्वारा इस्लाम धर्म स्वीकार करने और क्यामखानी नाम विख्यात होने की ऐतिहासिक घटना दादरेवा के इतिहास की महत्वपूर्ण घटना है। क्यामखानी एवं अन्य हिन्दू धर्म से इस्लाम को मानने वालों के कारण ही गोगाजी के नाम के साथ पीर शब्द जूड़कर गोगापीर नाम लोकप्रिय हुआ। [14]('अर्चना',पृ.25)
गोगाजी का समाधि-स्थल 'धुरमेड़ी' कहलाता है। यह गोगामेड़ी स्थान भादरा से 15 किमी उत्तर-पश्चिम मे हनुमानगढ़ जिले में है। यहाँ पुरानी मूर्तियाँ हैं। यहाँ के पुजारी चायल मुसलमान हैं जो चौहान के वंशज हैं। गोगामेड़ी में गोरख-टिल्ला व गोरखाणा तालाब दर्शनीय स्थान हैं। गोरखमठ में कालिका व हनुमान जी की मूर्तियाँ हैं। गोगाजी के भक्त ददरेवा के साथ ही गोगामेड़ी आने पर यात्रा सफल मानते हैं। ('अर्चना',पृ.25)
ददरेड़ा में सुहाग वंश
पंडित अमीचन्द्र शर्मा[15]ने लिखा है - कोड खोखर (1375 ई.) नामका सरदार उदयपुर रियासत में रहता था। वह चौहान संघ में था और वहाँ से चलकर ददरेड़े नामक गाँव में आ बसा। बाद में वह पल्लूकोट में आ बसा। पल्लूकोट और ददरेड़ा दोनों मारवाड़ में हैं।
ठाकुर देशराज लिखते हैं कि सुहाग वंश के लोग पहले मेवाड़ कोडखोखर नामक स्थान पर सरदारी करते थे। [16] कुछ समय के पश्चात् मारवाड में पहुंचकर एक किला बनवाया उसका नाम अपने सरदार पहलू के नाम पर पहलूकोट (पल्लूकोट) रखा। पल्लूकोट और ददरेड़े के आस-पास कुल भूमि पर आधिपत्य जमा लिया। सरदार पहलू अथवा पल्लू राणा की उपाधि थी। उससे पहले इसी वंश के वीर राणा और वीर राणाओं ने मेदपाट की भूमि पर राज किया था।[17] [18]
संत श्री कान्हाराम[19] ने लिखा है कि....ईसा की दसवीं सदी में प्रतिहारों के कमजोर पड़ने पर प्राचीन क्षत्रिय नागवंश की चौहान शाखा शक्तिशाली बनकर उभरी। अहिच्छत्रपुर (नागौर) तथा शाकंभरी (सांभर) चौहनों के मुख्य स्थान थे। चौहनों ने 200 वर्ष तक अरबों, तुर्कों, गौरी, गजनवी को भारत में नहीं घुसने दिया।
चौहनों की ददरेवा (चुरू) शाखा के शासक जीवराज चौहान के पुत्र गोगा ने नवीं सदी के अंत में महमूद गजनवी की फौजों के छक्के छुड़ा दिये थे। गोगा का युद्ध कौशल देखकर महमूद गजनवी के मुंह से सहसा निकल पड़ा कि यह तो जाहरपीर (अचानक गायब और प्रकट होने वाला) है। महमूद गजनवी की फौजें समाप्त हुई और उसको उल्टे पैर लौटना पड़ा। दुर्भाग्यवश गोगा का बलिदान हो गया। गोगाजी के बलिदान दिवस भाद्रपद कृष्ण पक्ष की गोगा नवमी को भारत के घर-घर में लोकदेवता गोगाजी की पूजा की जाती है और गाँव-गाँव में मेले भरते हैं।
भाखर गोत्र के इतिहास में
भाखर गोत्र के प्रमुख निकास स्थल व थान[20]:
गढ़ आबू (निकास वि.सं 1260= 1203 ई.) → सांभर निकास → अजमेर निकास → सिद्धमुख निकास → ददरेवा निकास → तीबो डोडो थान (?) → भाखरोली थान → लाडनू थान → बलदु थान → कीचक थान → फोगड़ी थान → खाखोली थान → मोडावट थान → फागल्वा थान → रुल्याणा थान → बरड़वा थान → रातगो थान → आजड़ोली थान → डकावा थान → सुनथली थान (?) → घस्सू थान → थोरासी थान
भाखर गोत्र के बसने और विस्थापन का क्रम[21]:
गढ़ आबू (वि.सं 1260= 1203 ई.) → सांभर → भाखरोली (वि.सं 1263= 1206 ई.) → ददरेवा (वि.सं 1360= 1303 ई.) → बलदु (वि.सं 1420= 1363 ई.) → कीचक (वि.सं 1499= 1442 ई.) → मोडावट (वि.सं 1512= 1455 ई.) → फागल्वा (वि.सं 1670= 1613 ई.) → सिगड़ोला छोटा (वि.सं 1954= 1897 ई.) → रुल्याणा माली (वि.सं 1956= 1899 ई.)
The rule of Punias
According to James Tod as mentioned in his book "Annals and Antiquities of Rajasthan (1829)" the Jangladesh region was inhabited by Jats or Jits, who had for ages been established in these arid abodes. At every stage of invasion to India the invaders had to encounter with the Jats of this region. At what period the Jats established themselves in the Indian desert is not known. By the 4th century they had spread upto Punjab in India.
Nearly the whole of the territory forming the boundaries of Bikaner was possessed by the six Jat cantons namely:—
1. Poonia, 2, Godara, 3. Saran 4. Asiagh 5. Beniwal 6. Johiya, or Joweya
Each canton bore the name of the community, and was subdivided into districts.
Number of villages in each canton and Districts included in them were as under :
The canton of Poonia : Villages - 300 Districts : Bahaderan, Ajltpoor, Scedmookh, Rajgarh, Dadrewoh, Sankhoo, etc. [22]
Beeka, the founder of Rathore supremacy in Bikaner, died in S. 1551 (a.d. 1495). Kalyan Singh succeeded in S. 1603. He had three sons, 1, Rae Singh; 2, Ram Singh ; and 3, Pirthi Singh. Rae Singh succeeded in S. 1630 (a.d. 1573). Until this reign, the Jats had, in a great degree, preserved their ancient privileges. Ram Singh, at the same time, completely subjugated the Johyas, who, always troublesome, had recently attempted to regain their ancient independence. Ram Singh, having destroyed the power of future resistance in the Johyas, turned his arms against the Puniya Jats, the last who preserved their ancient liberty. They were vanquished, and the Rajpoots were inducted into their most valuable possessions. But the conqueror paid the penalty of his life for the glory of colonising the lands of the Puniyas. He was slain in their expiring effort to shake off the yoke of the stranger ; and though the Ramsingotes add to the numerical strength, and enlarge the territory of the heirs of Beeka, they, like the Kandulotes, little increase the power of the state, to which their obedience is nominal. Sidhmukh and Sankhoo are the two chief places of the Ramsingotes. Thus, with the subjugation of the Puniyas, the political annihilation of the six Jat cantons of the desert was accomplished. [23]
Bhari clan
According to the Bards of Bhari clan two brothers Khinwa and Bhinwa moved from Ajmer and went to Dadrewa in Churu side after the fall of Prithvi Raj Chauhan. The descendants of Khinwa are known as Khalia and those of Bhinwa are Bhari. Bhari people settled in various villages of Churu district in Rajasthan.
Notable persons
- Ramesh Kumar Rulania, Dadrewa, Teacher, 224083[24]
External links
- Information about Dadrewa village - villageinfo.in website
- Dadrewa on Google
- Delimitation Commission Report
- Villages in the Rajgarh tehsil, Churu district, Rajasthan
See also
References
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.424
- ↑ पोलिटिकल हिस्ट्री ऑफ़ ऐंशेंट इंडिया, पृष्ठ 110.
- ↑ नैणसी की ख्यात:मुंहनोत नैणसी पृ. 196
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.71
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.75-76
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.77
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.79-80
- ↑ रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, मंडावा, 1998, पृ.84-85
- ↑ गोविंद अग्रवाल: चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास, पृ. 51
- ↑ गोरी शंकर हीराचंद ओझा: बीकानेर राज्य का इरिहास भाग प्रथम, पृ. 64
- ↑ क्यामखां रासो पृ 10
- ↑ गोविंद अग्रवाल: चूरू मण्डल का शोधपूर्ण इतिहास, पृ. 53, कर्नल टोड़ के आधार पर लिखित।
- ↑ गोरी शंकर हीराचंद ओझा: बीकानेर राज्य का इरिहास भाग प्रथम, पृ. 112
- ↑ क्यामखां रासो पृ 11
- ↑ Jat Varna Mimansa (1910) by Pandit Amichandra Sharma, p.33
- ↑ जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ-596
- ↑ जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठ-597
- ↑ ‘चौधरी गौरव’ नामक हस्त लिखित पुस्तिका से।
- ↑ Sant Kanha Ram: Shri Veer Tejaji Ka Itihas Evam Jiwan Charitra (Shodh Granth), Published by Veer Tejaji Shodh Sansthan Sursura, Ajmer, 2015. p.76
- ↑ Raghunath Bhakhar: 'Rulyana Mali' (Jhankata Ateet), Bhaskar Prakashan Sikar, 2022. ISBN: 978-93-5607-079-0, p.322
- ↑ Raghunath Bhakhar: 'Rulyana Mali' (Jhankata Ateet), Bhaskar Prakashan Sikar, 2022. ISBN: 978-93-5607-079-0, p.323
- ↑ James Tod: "Annals and Antiquities of Rajasthan (1829)"
- ↑ James Tod: "Annals and Antiquities of Rajasthan (1829)"
- ↑ Ganesh Berwal: 'Jan Jagaran Ke Jan Nayak Kamred Mohar Singh', 2016, ISBN 978.81.926510.7.1, p.100
- Dr Mahendra Singh Arya, Dharmpal Singh Dudi, Kishan Singh Faujdar & Vijendra Singh Narwar: Ādhunik Jat Itihas (The modern history of Jats), Agra 1998
- Thakur Deshraj : Jat Itihas (Hindi), Maharaja Suraj Mal Smarak Shiksha Sansthan, Delhi, 1934, 2nd edition 1992.
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