Dal Singh

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Genealogy of the Fridkot rulers

Dal Singh (b. ... - d.1804) (r.1804 - ), also called Dil Singh (दिलसिंह), was son of Hamir Singh and brother of Mohr Singh, Barar-Jat Raja of erstwhile Faridkot State. Dal Singh ruled for one month only.

History

Lepel H. Griffin[1] writes that Sirdar Charat Singh now considered himself safe from attack and reduced the number of his troops. The Pattiala State, his old enemy, was not likely to attack him, for he had repulsed an attack of the famous Diwan Nanun Mal, Minister of Pattiala, during the minority of Raja Sahib Singh, with some loss, and had acquired a great name for courage. But he had forgotten to number among his enemies his disinherited uncle, Dal Singh, who was only waiting an opportunity to regain his lost possessions, and, in 1804, having collected a small body of followers, he attacked the Faridkot fort by night and obtained possession. Charat Singh was surprised and killed, and his wife and three children, Gulab Singh, Pahar Singh and Sahib Singh, barely escaped with their lives.

Sirdar Dal Singh assasinated

Sirdar Dal Singh only enjoyed his success for a single month. The children of the murdered Chief were very young, the eldest being no more than seven years of age : but they had many friends, the most able of whom was their maternal uncle Fouju Singh, one of the Sirdars of Sher Singhwala, and, moreover, Dal Singh was generally hated for his tyranny. A plot to assassinate him was formed, and Fouju Singh, with a few armed men, penetrated at night to the apartment of Dal Singh, where he was sleeping with two or three attendants, and killed him. Then they beat a drum, which was the signal for the friends of the young Gulab Singh to bring him into the fort. There he was declared Chief without opposition, and his uncle Fouju Singh was appointed Diwan or Minister.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

मुहरसिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

मुहरसिंह फरीदकोट के राजा तो हुए, किन्तु दिलसिंह उनसे खूब जलता था। वह पिता के आगे से ही अपने भाई से ईर्षा-द्वेष रखता था। उसने अपने बाप के मरने पर कई बार फरीदकोट पर चढ़ाई करने की तैयारी की, किन्तु विफल रहा। मुहरसिंह खूब चाहते थे कि भाई पर कब्जा करके उसे वश में रक्खें। आखिरकार उन्हें मौजा ढोढ़ी पर चढ़ाई करनी पड़ी। खूब लड़ाई हुई किन्तु मुहरसिंहजी को विजय प्राप्त न हुई। इसका कारण यह था कि दिलसिंह ने पहले से ही मिसल वालों की सेना सहायता के लिए बुला रक्खी थी। इससे सरदार मुहरसिंहजी को ढोढ़ी को बिना ही परास्त किए फरीदकोट लौटना पड़ा। इन्होंने अपनी शादी मांसाहिया सरदारों के घर में की थी। रानी से जो कुंवर पैदा हुआ था, उसका नाम चड़हतसिंह रक्खा गया था। चड़हतसिंह की मां उसके बचपन में ही स्वर्ग


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-452


सिधार गईं। इसलिए मुहरसिंहजी ने दूसरी शादी कर ली और यह शादी जानी गोत के जाट घराने में हुई, किन्तु इससे कोई औलाद नहीं हुई।

तवारीख लेखक कहते हैं कि मुहरसिंह आराम-पसन्द तथा ऐश-पसन्द आदमी था। उन्होंने प्रजा की देखभाल भी छोड़ दी थी। राज बढ़ाना तो एक ओर रहा। उनकी लापरवाही से राज के अवोहर, कडमे, भक और वोद इलाके हाथ से निकल गए। कहा जाता है कि रावल राजपूतों की पंजी नाम की औरत को सरदार मुहरसिंहजी ने उसके पति से अलग करके अपने महल में रख लिया था। इस औरत ने महाराज को उसी भांति अपने वश में कर लिया, जैसे संयुक्ता ने पृथ्वीराज को कर लिया था। एक बढ़कर बात इसमें यह भी थी कि राज-काज में भी हाथ रखती थी। इसके उदर से एक लड़का हुआ था जिसका नाम भूपसिंह रक्खा गया था। बड़ा होने पर भूपसिंह भी राजकाज में दस्तन्दाजी करने लगा था और राज का मालिक युवराज चड़हतसिंह बेचारा इधर-उधर मारा-मारा फिरता था। पंजी कचहरी में बैठती, मुकद्दमे करती, राज्य के सब काम को हाथ में लिए हुए थी। उसने अपने भाई-बन्धुओं को भी राज के अच्छे-अच्छे पदों पर नौकर रख लिया था। दरबार में उसका ऐसा रौब था कि दरबारी उसके सामने दिल खोलकर बातें नहीं कर सकते थे। सरदार मुहरसिंह ने भूपसिंह की शादी जाटों में ही करा दी थी - वह एक जगह नहीं, तीन जगह। इस कारण से युवराज चड़हतसिंह को बहम हो गया था कि कहीं भूपसिंह ही राज का मालिक न बना दिया जाए। कुछ घटनाएं भी ऐसी घट चुकी थीं, जिससे चड़हतसिंह का सन्देह पक्का होता था। वह अपनी ननिहाल चला गया। राज्य के कुछ कार्यकर्ता मंत्री से बड़े तंग व नाराज थे। वह युवराज चड़हतसिंह को उभाड़ते भी थे। लेकिन चड़हतसिंह मौके की तलाश में थे। जबकि चड़हतसिंह अपनी ननिहाल में थे, मंत्री को भ्रम हुआ कि कहीं चड़हतसिंह अपने चचा दिलसिंह की मदद से किले पर चढ़ाई न कर दे। इसलिए दिलसिंह को या तो कैद कर लेना चाहिए या रियासत से भगा देना चाहिए। इस इरादे से ढोढ़ी पर उसने चढ़ाई कर दी। किन्तु दिलसिंह की सहायता के लिए मिसलों की सेना आ गई, इससे मन्त्री को लाचार फरीदकोट लौटना पड़ा।

पंजी का सलूक प्रजाजनों के साथ भी अच्छा न था। जिन कबीलों पर वह जरा भी सन्देह करती, उन पर सैनिक लेकर जा टूटती और उन्हें तंग करती। इस तरह प्रजा-जनों के हृदय में उसने थोड़े ही समय में विद्वेष के भाव पैदा कर दिये। इससे हुकूमत भी कमजोर होने लगी। नौबत यहां तक आ गई कि पंजी चाहती थी कि अगर चड़हतसिंह फरीदकोट रहे, तो उसे कोई इल्जाम लगाकर राजा से तंग कराया जाए या उसको मरवा डाला जाए और दरबारी लोग चाहते थे कि सरदार मुहरसिंह किसी काम के लिए दो-चार दिन को भी बाहर चले जाएं तो पंजी का काम तमाम कर दिया जाए और राजगद्दी पर चड़हतसिंह को बिठाकर सरदारों को


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-453


भी छुट्टी दे दी जाए। दोनों दल अपनी-अपनी घात में थे। दैवयोग से सर्दी के दिनों में सरदार मुहरसिंह माहिला व मलोर गांव के झगड़े निपटाने को वहां चले गए। दरबारियों ने चड़हतसिंह को ननिहाल से बुलाकर अपना उद्देश्य पूरा करने की ठानी। कुछ दरबारी लोगों (दीवानसिंह, शोभासिंह व दाऊसिंह आदि) के साथ चड़हतसिंह महल में घुस गए। साथियों ने पंजी को मार डाला। उसके भाई व बेटे वहां से भाग खड़े हुए। राजगद्दी पर चड़हासिंह ने कब्जा कर लिया। उधर मुहरसिंह के पास जब यह खबर पहुंची तो बड़े घबराए। फौज इकट्ठी करके कुछ ही दिनों बाद किले पर चढ़ाई कर दी। इधर चड़हतसिंह ने भी काफी तैयारी कर ली थी। बाप-बेटों में युद्ध छिड़ गया। सरदार मुहरसिंह को पहली बार में सफलता न मिली तो फिर चढ़ाई की। इसी तरह कई दफा चढ़ाई करते रहे।

जब बाप बेटे पर विजयी न हुआ तो अन्य अनुचित तरीकों से राज्य प्राप्त करने की सूझी। कुछ भेदियों को लोभ देकर पता लगाया कि मोरी दरवाजा खुला रहता है। एक दिन कुछ आदमी लेकर उसी दरवाजे से किले में घुस गए। खूब खून खराबी हुई, लाचार वापस लौटना पड़ा। पक्का नाम के मौजे में जाकर आबाद हो गये और वहीं से बैठे-बैठे तैयारियां करने लगे। चड़हतसिंह ने लाचार होकर दिल भर कर लड़ाई करने की तैयारी की। इधर-उधर से फौज इकट्ठी की। नाभा से बहुत कुछ रकम देनी करके सैनिक सहायता मंगाई और बेमुरम्बत होकर बाप के आदमियों के ऊपर हमला बोल दिया। मुहरसिंह हार कर पक्का से बाहर निकल आये और रियासत भी छोड़नी पड़ी। उन्हें मुदकी की ओर जाना पड़ा।

बाप की लड़ाई-झगड़ों से फुरसत पाने पर चड़हतसिंह ने साजिश में शामिल लोगों को सजा दी। कहा जाता है कि पंजाब में सिख-धर्म के बढ़ते हुए प्रवाह को देखकर सरदार चड़हतसिंह भी पायिल (दीक्षा) लेकर सिख-धर्म के अनुयायी हो गये और सिख होने की खुशी में गुरु के आदेश से राज-बन्दियों को भी मुक्त कर दिया। मुहरसिंह ने मुदकी के सरदार की सहायता से फिर एक बार फरीदकोट पर हमला किया, किन्तु विफल रहा। आखिर दिनों में सरदार चड़हतसिंह ने उसे अपने ससुर की देख-रेख में मौजा शेरसिंहवाल में नजरबन्द कर दिया और सन् 1798 में वहां उसका देहान्त हो गया। सरदार मुहरसिंह के देहान्त के बाद भी चड़हतसिंह को युद्ध करने पड़े। पंजी का लड़का भूपसिंह मुदकी के सरदार महासिंह से मिल गया। अन्य राजबंदी जो फरीदकोट से निकाले गये थे, महासिंह के यहां जा बसे। इन्हीं लोगों की प्रेरणा से महासिंह ने फरीदकोट पर चढ़ाई करने की तैयारी कर दी। इधर चड़हतसिंह भी फौज लेकर मुदकी की ओर बढ़ा। मौजा चक्रबाजा में दोनों दलों की मुठभेड़ हो गई। दिन भर की लड़ाई और खून-खराबी के बाद दोनों दलों के दिल टूट गए। दोनों दल अपने-अपने स्थान को वापस लौट गये। भूपा इतने पर निराश न हुआ। कोट-कपूरा के सरदार से सहायता लेकर फरीदकोट पर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-454


चढ़ आया। जिस समय घमासान लड़ाई हो रही थी और भूपा घोड़े पर बैठकर सेना-संचालन कर रहा था, उस समय फरीदकोट के प्रसिद्ध निशानेबाज सैनिक करमसिंह ने गोली से भूपसिंह को घोड़े की पीठ से गिरा दिया। भूपसिंह मारा गया। इस तरह चड़हतसिंह का खास घरेलू दुश्मनों से पीछा छूटा। बाहर चले गये लोगों को बुलाकर बस्तियां आबाद कराईं तथा प्रजारंजन के अन्य कामों में दिलचस्पी ली। यद्यपि प्रजा में धन-जन की वृद्धि हो रही थी, किन्तु कुछ महाजन अब भी षड्यन्त्र रचने में लगे हुए थे। पहले तो उन्होंने कुछ जाट परिवारों की निन्दा की। इसमें भी जब वे सफल न हुए तो उन्होंने दिलसिंह को उकसाया। दिलसिंह ने अपने पिछले समय में काफी झगड़े-फसाद किये थे। इस समय वह शान्ति के साथ जीवन-यापन कर रहा था। किन्तु कान भरने वालों ने एक बार फिर खूंरेजी करने पर उसे तैयार किया। उन लोगों ने जो मंत्रणा बताई उसका मौका आया और वह मंत्रणा सफल हुई। उचित अवसर पाकर जबकि चड़हतसिंह की तीन रानियां और उनके बच्चे फरीदकोट में न थे और सरदार अपनी चौथी रानी के साथ महलों में अकेले थे दिलसिंह ने षड्यन्त्र के अनुसार, किले में और फिर महलों में घुस कर बर्छे से अपने भतीजे चड़हतसिंह का काम तमाम कर दिया। भेदियों तथा नीच षड्यन्त्रकारियों को सफलता मिली। बेचारे चड़हतसिंह मारे गये। दिलसिंह फरीदकोट के मालिक तो हो गये, किन्तु चड़हतसिंह की मेहरबानियां लोगों के दिलों में घर किए बैठी थीं। इसलिए वह दरबारियों के हृदय पर कब्जा न कर सके। दरबारी लोग हृदय में इस धोखे-धड़ाके के कत्ल और परिवर्तन से दुःखी थे। किन्तु प्रकट में उन्होंने कोई विरोध नहीं किया और मौके की तलाश में लगे रहे। वह दिलसिंह को इस धोखे की सजा देने के लिए भीतर ही भीतर उधेड़-बुन में लगे रहते थे। उन्हें भी मौका मिला। दिलसिंह ने प्रतिज्ञा की थी कि अगर फरीदकोट लेने में सफल हुआ तो डोरली के गुरुद्वारे में खुद जाकर चढ़ाऊंगा। चूंकि सफलता उसे मिल चुकी थी, इसलिए उसने वैशाखी के मेले में डोरली जाने का इरादा किया। हालांकि फरीदकोट पर काबिज हुए उसे अभी दो ही हफ्ते हुए थे, फरवरी 1804 ई० मुताबिक फागुन संवत् 1861 में चड़हतसिंह का वध हुआ था। किन्तु उसे विश्वास यह हो गया था कि फरीदकोट के दरबारियों में उसका विरोधी कोई नहीं है। यह उसकी प्रत्यक्ष भूल थी। जब उसके विपक्षियों को इस इरादे का पता लगा तो उन्होंने चड़हतसिंह जी की बड़ी रानी के पास जो कि अपने बच्चों समेत मौजा शेरसिंहवाला (अपने मायके) में थी, खबर भेजी कि आप युवराज समेत वैशाखी से एक दिन पहले चुपके से इधर आ जायें। हम


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दिलसिंह से इस समय राज्य छीनकर असली मालिक को दे देंगे।1

चैत का महीना था। दिलसिंह के कुल साथी वैसाखी के लिए भंग पी-पीकर दरोली को चल दिये। दिलसिंह भी तैयारी में था। महल खास में पगड़ी बांध रहा था कि विपक्षियों के निर्वाचित दरबारी मुहरसिंह ने जाकर दिलसिंह को मारने की चेष्टा की और आखिर मुहरसिंह और योगासिंह ने दिलसिंह को कत्ल कर दिया और गुलाबसिंह के नाम का नक्कारा बजा दिया। दिलसिंह के हामी महाजन घरों में जा छिपे। सर लेपिल ग्रिफिन दिलसिंह के कत्ल की घटना यों लिखते हैं कि - फौजूसिंह दरबारी ने एक जत्थे के साथ सोते हुए को कत्ल किया था। बात कुछ भी हो, दिलसिंह दरबारियों के हाथ से कत्ल हुआ। इन घटनाओं से इस बात पर स्पष्ट प्रकाश पड़ता है कि फरीदकोट के मालिकों की रक्षा व मृत्यु दरबारियों के हाथ थी। दिलसिंह के मारे जाने के पश्चात् युवराज गुलाबसिंह को, जो कि मौजा कमियाना में एक दिन पहले अपनी मां और भाइयों समेत आ चुके थे, सवार भेजकर बुलाया गया और उन्हें राज्य का मालिक बना दिया गया। दिलसिंह की हुकूमत केवल 29 दिन रही। उसके परिवार के लोग जो कि मौजा डरोली के गुरुद्वारे में दिलसिंह के आने की बाट देख रहे थे, यह सुनकर बड़े भयभीत हुए कि दिलसिंह का कत्ल हो गया। उसकी स्त्रियां मौजा ढूढी में पहुंचाई गई। वहीं दिल की लाश आ गई जिसका परिवार वालों ने संस्कार किया।

References


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