Gulab Singh

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Genealogy of the Fridkot rulers

Gulab Singh (b.1797, r.1804 - d.1826) (गुलाबसिंह) was Barar-Jat Raja of erstwhile Faridkot State.

History

Lepel H. Griffin[1] writes that the Maharaja Ranjit Singh of Lahore on the 3rd of April, 1809, restored Faridkot to Sirdar Gulab Singh and his brothers. All obstacles to the completion of the treaty between Lahore and the British Government were now removed, and it was signed shortly afterwards.

Minority of Gulab Singh - Fouju Singh ably administered the affairs of the State until Gulab Siugh became adult. No further attempts were made by Lahore to obtain possession, and Faridkot was so far distant from the stations of the British Political Agents, and was so insignificant in size and importance, that for many years its very existence seemed almost forgotten.


* Mr. C. Metcalfe to Government, 4th and 22ud March 1809.
† Resident at Dehli to Military Secretary to Commander-in-Cliief, 1st April 1809. Resident Dehli to Government, 5th February 1809. General Ochterlony to Adjutant General, 5th February 1809.
†† Resident at Dehli to Government, 9th April ; General Ochterlooy to Government, 28th March and 5th April 1809.

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The Revenue of Faridkot

The revenue of Faridkot was at this time very small and always fluctuating. The country was entirely dependent on rain for cultivation, and this fell in small quantities and some years not at all. Wells were difficult to sink and hardly repaid the labour of making them, as the water was from 90 to 120 feet below the surface. In a favorable season the estate yielded Rs. 14,000 or Rs. 12,000, in a bad season Rs. 6,000, and sometimes nothing whatever. The number of villages in the estate, principally new ones, was about sixty.


Gulab Singh married two wives, one the daughter of Sirdar Jodh Singh Kaleka of Jammu in Pattiala, and the second, the daughter of Sirdar Sher Singh Gil, of Gholia in the Moga district.

The assassination of Gulab Singh

On the 5th of November, 1826, Sirdar Gulab Singh was assassinated while walking outside the town of Faridkot. The persons who were last seen with him before his death were Jaideo, a Jat, and Buhadar a silversmith, and their flight seemed to connect them with the crime. But, if these men were the actual assassins, it was generally believed that the instigators of the crime were Fouju Singh the Manager and Sahib Singh the youngest brother of the Chief. No shadow of evidence could be procured against the former who had served the family faithfully for twenty five years, but the discovery of Sahib Singh's sword as one of those with which his brother met his death, the concealment of life scabbard and his contradictory replies when Captain Murray the Political agent questioned him, were sus-

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picious in the extreme ; but, in the absence of all direct proof, he was acquitted.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

गुलाबसिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

गुलाबसिंह

गुलाबसिंह जिस समय सन् 1804 में राज के शासक हुए, उस समय उनकी उम्र केवल सात वर्ष की थी। इसलिए राज की तथा राज-परिवार की देखभाल और संभाल का काम उनके मामा फौजूसिंह के हाथ में रहा। फौजूसिंह योग्य था, इसलिए प्रजा और दरबारी उनसे प्रसन्न थे और गुलाबसिंह जी का सगा मामा था, इसलिए रानी भी इस भय से निश्चिन्त थी कि कहीं बालक राजा के साथ कोई दगा न हो जाये। यह समय ऐसा था कि पढ़ने-लिखने का रिवाज बहुत कम था। गुरु साहिबान के प्रचार से लोग गुरुमुखी भाषा पढ़ने के शौकीन हो रहे थे। गुलाबसिंह जी भी गुरुमुखी पढ़ने लगे। पढ़ने के साथ ही बालक सरदार गुलाबसिंह


1. कहा जाता है कि चड़हतसिंह के चार रानियां थीं। पहली सिन्धू जाटों की मौजा शेरसिंहवाला की जिनसे (1) गुलाबसिंह, (2) पहाड़सिंह, (3) साहबसिंह - तीन पुत्र हुए। दूसरी मौजे गोले वाला के मांसाहिया जाट सरदारों की लड़की थी। इनसे महताबसिंह सिर्फ एक ही लड़का हुआ। तीसरी मौजा कोट-करोड़ के खूमा जाट सरदारों की लड़की थी। चौथी पक्का-पथराला मौजा की थी। तीसरी-चौथी रानी के कोई औलाद न थी।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-456


घोड़े पर चढ़ने, तलवार, बर्छी, तेगा चलाने का भी अभ्यास करते थे। थोड़े दिन में वे इस विद्या में निपुण भी हो गए।

यह समय इन्कलाब का था, बड़े-बड़े हेर-फेर हो रहे थे। मुगल-शासन उखड़ चुका था, मरहठों का भी दम फूल रहा था और एक नई विदेशी व्यापारी जाति यौवन पर थी। वह दक्षिण से उत्तर को बढ़ रही थी। जब देश में इस प्रकार का परिवर्तन हो रहा था, उस समय पंजाब में भी रणजीतसिंह जैसे महापुरुष जाट अथवा सिख साम्राज्य-स्थापन के लिए खूब प्रयत्न कर रहे थे। पंजाब इस समय बहुत ही छोटे सरदारों, नवाबों और राजाओं में बंटा हुआ था। इस समय चार-चार गांव के मालिक भी राजा बने बैठे थे। जहां जिसके दिल में आता, अपनी सरदारी कायम कर लेता। साम्राज्यवादिता और अराजकता दोनों की घुड़-दौड़ हो रही थीं। ये छोटे-छोटे सरदार आपस में खूब झगड़ते थे। कभी-कभी कोई किसी के गांवों पर अधिकार कर लेता, कभी कोई। किसकी जागीर अथवा राज्य की सीमा कहां तक है, यह बहुत कम निश्चय हुआ था। फरीदकोट की भी यही दशा थी। उसके राज्य की भी अब तक कोई निश्चित सीमा नहीं थी। फौजूसिंह ने सीमा बांधने का प्रयत्न करना आरम्भ किया। सीमा के गांवों में गढ़ियां बना कर थाने निश्चित करने का उस समय रिवाज था, यही फौजूसिंह ने किया। इस सीमा-बन्दी में लड़ाई-झगड़े भी खूब होते थे। इस समय फीरोजपुर के किले पर सरदारनी लक्ष्मनकुंवरि का कब्जा था। इलाका सुल्तानखान वाला फरीदकोट के अधिकार में था, इसलिए सुल्तानखान वाला में फरीदकोट का थाना था और पास ही कुल-गढ़ी में रानी साहिबा का। इससे दक्षिण-पूर्व की ओर मलवाल पठानों के इलाके थे, पच्छिम की ओर खुड़ियां वाले पठान थे। किन्तु कायदे की कोई हदबन्दी न थी। एक दूसरा दूसरे की जमींन दबाने के लिए तैयार बैठा रहता था। एक बार कुलगढ़ी के जमींदारों ने सुल्तानखान वाला मौजे की कुछ बीघे जमीन दबा ली। रानी साहिबा के पास शिकायत इसलिए गई कि वह अपने जमींदारों को समझा कर जमीन वापस दिला दें। रानी साहिबा भी तैयार हुईं। तनिक से मामले पर खून-खराबी हो गई। इसी तरह खुड़ियां वाले पठानों ने मौजा नथलवाला दबा लिया। उन्हें ठिकाने पर लाने के लिए भी फरीदकोट को फौज-कशी करनी पड़ी। फौजूसिंह बड़ी योग्यता से काम चला रहा था, किन्तु परिस्थितियों का सामना करना उसके लिए भी कठिन था। इस समय सुकरचकिया मिसल उन्नति पर थी। सारे मिसलें उसके प्रभाव में आ गईं थीं। कुछेक तो उसी के राज्य में अपनी जमीन को मिला चुकी थीं। इस मिसल के सरदार का खिताब अब महाराजा था और वह महाराज था शेरे-पंजाब रणजीतसिंह

महाराजा रणजीतसिंह जी के दीवान मुहकमचन्द ने जीरा, बूड़ा, मुदकी,


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-457


कोट-कपूरा, मुकतेसर और माड़ी को लगातार हमलों के बाद जीत कर उनके राज्य में मिला दिया। सन् 1807 में उसने फरीदकोट को भी घेर लिया, किन्तु पानी की कठिनाई के कारण उसने घेरा उठा लिया। फरीदकोट से एक घोड़ा मुलाकात में फौजूसिंह व पहाड़सिंह ने मुहकमचन्द को भेंट किया। सर लेपिल ग्रिफिन का कहना है कि - खिराज में सात हजार रुपये भी मुहकमचन्द ने वसूल किए। बराड़वंश का लेखक लिखता है कि - जिस समय मुहकमचन्द ने घेरा डाला तो बाहर के जोहड़ और तालाबों में जहरीली बेल व पत्तियां फरीदकोट वालों ने लगा दीं, इससे उसकी फौज को बहुत कष्ट हुआ और इस कारण उसने सन्धि की चर्चा की। किन्तु यह बात सही नहीं जान पड़ती। हां, यह हो सकता है कि पर्याप्त तादाद में उसकी फौज को पानी व रसद न मिल सकी हो। मुहकमचन्द वापस लाहौर लौट गया, किन्तु महाराज रणजीतसिंह का इरादा न बदला। वह सतलज पार के इलाके को अपने राज्य में मिला लेना चाहते थे। यूरोप में जिस भांति नैपोलियन बोनापार्ट की बहादुरी प्रसिद्ध थी, उसी भांति भारत में महाराज रणजीतसिंह का नाम था। भारत के भीतर अंग्रेजी राज भी जोर पकड़ रहा था। इन्हीं दिनों अंग्रेजी राजदूत सर चार्लस मेटकाफ महाराज के पास अंग्रेजी मित्रता का सन्देश लेकर पहुंचा। वे अंग्रेजों से मित्रता करने के पहले अपने राज को अधिक से अधिक बढ़ा लेना चाहते थे। इसलिए वे तथा अन्य सरदार अंग्रेज अतिथि को अमृतसर में छोड़कर विजय के लिए निकल पड़े। फरीदकोट को जीतने के लिए उन्होंने कर्मसिंह की अध्यक्षता में सेना भेजी। फौजूसिंह तथा अन्य दरबादियों ने इस आशा पर किला कर्मसिंह के हवाले कर दिया कि शायद बालक रईस पर कृपा करके महाराज रणजीतसिंह किला वापस कर दें। कर्मसिंह ने महाराज रणजीतसिंह के पास फीरोजपुर में खबर भेज दी कि फरीदकोट उसके हाथ आ गया है। महाराज रणजीतसिंह ने फरीदकोट पहुंच कर खजाने पर कब्जा किया और अपने सरदार दीवानचन्द तथा मुहकमचन्द को फरीदकोट का हाकिम बनाया। फरीदकोट के रईस के गुजारे के लिए कुछ गांव नियत कर दिए। फरीदकोट से चलकर मालेर कोटला के नवाब से सत्ताईस हजार नजराना लिया। पटियाला के भटिण्डा आदि इलाकों को विजय किया तथा लूटा। जींद से भी नजराना वसूल किया। अनेक स्थानों को विजय करने के बाद महाराज रणजीतसिंह लाहौर पहुंच गए। उनके वापस लौटते ही पटियाला, फरीदकोट, नाभा, जींद आदि इलाकों के सभी राजा-रईसों ने देहली में जाकर अंग्रेजी रेजीडेण्ट से अपनी रक्षा की प्रार्थना की। अंग्रेज ऐसे मौकों की तलाश में रहने वाले सदा से थे। उन्होंने इस मौके से लाभ उठाया। दूसरे, नैपोलियन का खटका भी दूर हो चुका था। इसलिए इन रईसों से संधि और इकरारनामे करके अपनी फौज का एक बड़ा दल लुधियाना भेज दिया। साथ ही गवर्नर-जनरल ने अपने दूत सर चार्ल्स को लिखा कि महाराज


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-458


रणजीतसिंह से कह दिया जाए कि सतलज पार के तमाम रईस ब्रिटिश सरकार की शरण में आ गए हैं। इसलिए अब मित्र के नाते न तो महाराज उन पर चढ़ाई करें और न उनसे खिराज मांगें और अब पिछले दिनों फरीदकोट, नारायणगढ़ आदि जो विजय कर लिए हैं, उन्हें उनके असली मालिकों को लौटा दें। महाराज रणजीतसिंह उस समय अंग्रेजों से छेड़-छाड़ न करना चाहते थे। वह किसी अवसर की तलाश में थे। दूसरे, उन्हें पेशावर और काबुल की ओर के इलाकों की रक्षा में भारी शक्ति खर्च करनी थी। इसलिए दूरंदेशी से उन्होंने अंग्रेजों की बात को मान लिया और सतलज को अपनी हद मानकर सतलज पार के इलाकों से अपनी फौज वापस बुला ली। फरीदकोट के सम्बन्ध में महाराज ने अधिक सोच-विचार किया। अंग्रेजों की उस समय की महाराज की इज्जत तथा कदर ने महाराज के हृदय में यह भाव पैदा कर दिए थे कि योग्य-मित्र को, थोड़ी-सी बात पर दुश्मन बनाना ठीक नहीं। साथ ही वे अपने देशवासियों की कुवृत्तियों को भी देख रहे थे कि विदेशी लोगों को अपना मालिक बनाने को तैयार थे, किन्तु अपने ही भाई के खिलाफ साजिश रचने में बहादुरी समझते थे। 3 अप्रैल सन् 1809 ई० को उन्होंने फरीदकोट भी वापस कर दिया।

महाराज रणजीतसिंह से रियासत फरीदकोट के वापस आने पर प्रबन्ध पूर्ववत् फौजूसिंह के हाथ ही रहा। अंग्रेजों की ओर से अम्बाले में पोलीटिकल एजेण्ट नियुक्त किया गया। सभी रियासतों की ओर से वहां वकील रखे गए। फौजूसिंह ने भी फरीदकोट की ओर से हाकिमसिंह को राज का वकील बनाकर अम्बाले में पोलीटिकल एजेण्ट के पास भेज दिया। अब रियासत अंग्रेजों की सुरक्षा में आ चुकी थी। इसलिए दुश्मनों की आशंका तो बहुत कुछ मिट ही चुकी थी। अतः फौजूसिंह ने रियासत की हदबन्दी करना शुरू किया। जहां दिक्कत आई, पोलीटिकल एजेण्ट ने उसको सुलझा दिया। कुल-गढ़ी, मुदकी मलवाल की ओर हदबन्दी करते समय कुछ कठिनाइयां पेश आईं जिसका निर्णय अंग्रेज एजेण्ट ने बीच में पड़कर कर दिया। हदबन्दी के काम से फुर्सत पाने पर फौजूसिंह ने राज्यकोष को बढ़ाने की चेष्टा की। किन्तु राज्य में न तो भारी संख्या में कुएं थे, न नहर-नाले। भूमि सारी बीरानी थी। इसलिए लगान से बहुत कम आमदनी होती थी। कुछ कस्टम की भी आमदनी हो जाती थी। इस थोड़ी-सी आमदनी से भी फौजूसिंह ने राज्य का अच्छा काम चलाया। प्रजा के साथ अच्छा बर्ताव करने की फौजूसिंह की आदत थी।

एक अर्से से हुकूमत उसके हाथ में रही थी, इसलिए उससे उसे खास मोह हो गया था। जब सरदार गुलाबसिंह जवान हुए और राजकाज में हस्तक्षेप करने लगे तथा उनके निर्णयों में त्रुटियां निकालने लगे, तो उसे असह्य हो गया। वह नहीं चाहता था कि अधिकार उसके हाथ से निकल जाएं। उसको बनाये रखने के लिए उसने


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-459


भाइयों में खटपट मचाने की नौबत डाली। कहा जाता है सरदार गुलाबसिंहजी को घोड़ी और भैंसों से बड़ी मुहब्बत थी। वे इनकी नसल सुधारने की भी चेष्टा करते थे। एक समय एक जमींदार उनके छोटे भाई साहबसिंह को एक प्रसिद्ध भैंस भेंट में दे गया। गुलाबसिंह ने फौजूसिंह की मार्फत साहबसिंह से यह भैंस मांग ली। किन्तु फौजूसिंह ने साहबसिंह को इसी बात का रंग देकर भाई के विरुद्ध कर दिया। दोनों भाइयों के हृदय में अन्तर पैदा कर दिया। सरदार गुलाबसिंह के दो रानियां थीं। बड़ी के एक पुत्र भी पैदा हो गया था।

गृह-कलह बड़ा बुरा होता है। उसका फल, बीज से कई गुना भयंकर होता है। इसी गृह-कलह के कारण, नवम्बर सन् 1826 ई० में, सैर करके वापस लौट रहे सरदार गुलाबसिंह को अकेले पाकर किसी ने कत्ल कर डाला। चाहे साहबसिंह और पहाड़सिंह जो कि उनके भाई थे इस साजिश में शामिल न रहे हों, किन्तु यह कदापि नहीं माना जा सकता कि फौजूसिंह की राय से यह काम नहीं हुआ। अम्बाले में इस समय पोलीटिकल एजेण्ट मरी थे। उनको सूचना दी गई। वे तीन साल पहले इधर का दौरा कर चुके थे। वह फरीदकोट के पास घरेलू झगड़ों की तवारीख से भली-भांति परिचित हो चुके थे कि इस खानदान में भाई ने भाई को, बाप ने बेटे को, चचा ने भतीजे को कत्ल करके अपने हाथ खून से रंगे हैं। इस समाचार के सुनते ही एजेण्ट साहब फरीदकोट पहुंचे और वहां जाकर खून की जांच की। गुलाबसिंह की रानी के तथा अन्य लोगों के बयानों से साहबसिंह और फौजूसिंह अपराधी प्रमाणित सिद्ध हुए। किन्तु फौजूसिंह बड़ा चालाक आदमी था। उसने अपनी पुरानी सेवाएं जो कि गुलाबसिंह की नाबालिगी में की थीं, याद दिला कर सफाई कर ली। एजेण्ट को भी यकीन हो गया। एजेण्ट को भी पता चल गया कि सिंह और बहादुर नाम के आदमियों द्वारा गुलाबसिंह का कत्ल कराया गया है। फरीदकोट से चलते समय एजेण्ट ने साहबसिंह को साथ लिया और अम्बाला पहुंच कर दोनों कातिलों के वारन्ट काट दिए। किन्तु कातिलों का कहीं पता न चला। इधर पहाड़सिंह तथा फौजूसिंह ने एजेण्ट साहब को यकीन दिलाया कि हम साहबसिंह को आप जब भी चाहेंगे, तभी हाजिर कर देंगे। उन्हें नजरबन्दी से फरीदकोट भेज दीजिए। एजेण्ट साहब ने सबूत की कमी देखकर साहबसिंह को फरीदकोट वापस भेज दिया।

References


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