Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter VII
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सप्तम अध्याय: दिल्ली साम्राज्य के शासक मुसलमान बादशाह और जाट |
ये शासक निम्नलिखित वंशों के थे -
1. | गुलाम (दास) वंश | सन् 1206 से 1290 ई० तक | ||||||||||
2. | खिलजी वंश | सन् 1290 से 1320 ई० तक | ||||||||||
3. | तुगलक वंश | सन् 1320 से 1414 ई० तक | ||||||||||
4. | सैयद वंश | सन् 1414 से 1451 ई० तक | ||||||||||
5. | लोधी वंश | सन् 1451 से 1526 ई० तक | ||||||||||
6. | मुगल वंश | सन् 1526 से 1857 ई० तक |
पिछले अध्यायों में इन वंशों के बादशाहों के साथ जाटों के युद्धों का वर्णन अनेक स्थानों पर किया गया है। उनके विषय में उचित स्थान पर केवल संकेत ही दिया जायेगा। उपर्युक्त वंशों के बादशाहों के साथ जाटों के युद्ध एवं सहायता का ही संक्षिप्त वर्णन लिखा जाता है।
कुतुबुद्दीन ऐबक और जाट (सन् 1206 से 1210 ई०)
यह पिछले पृष्ठों पर लिख दिया गया है कि यह मुहम्मद गौरी की सेना का एक वीर सेनापति था। सन् 1194 ई० में मुहम्मद गौरी ने जयचन्द राठौर को मार दिया और अनेक स्थानों से अपार धनराशि लूटकर गजनी के लिए चल पड़ा। वहां जाने से पहले उसने अपने गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को भारत में अपने राज्य का उपशासक नियुक्त कर दिया। जब सन् 1206 ई० में खोखर जाटों ने मुहम्मद गौरी का सिर काट दिया, तब सन् 1206 ई० में कुतुबुद्दीन ऐबक दिल्ली सल्तनत का बादशाह बन गया तथा इसके उत्तराधिकारी बादशाह गुलाम वंशी कहलाए।
1. हिसार की सभा - संवत् 1251 (सन् 1194 ई०) में सर्वखाप पंचायत हरयाणा की बहुत बड़ी पंचायत हुई। जिस समय इस पंचायत का अधिवेशन चल रहा था, उस समय कुतुबुद्दीन ऐबक की सेनाओं ने उन पर एकदम आक्रमण कर दिया। सर्वखाप सेना ने शत्रु सेना का डटकर मुकाबिला किया। बड़ा घमासान युद्ध हुआ। दोनों ओर के बहुत सैनिक मारे गए। सर्वखाप सेना के वीरों के सामने मुसलमान सैनिक ठहर न सके और हार खाकर भाग गये। वे बड़ी संख्या में मारे गये। इस युद्ध में सर्वखाप सेना विजयी रही1। (“18 खापों की पंचायत का मौलिक इतिहास” लेखक रामसिंह साहित्यरत्न)।
2. खाप बालान के गांव भाजू और भनेड़ा के बीच के जंगल की सभा - संवत् 1251 (सन् 1194 ई०) ज्येष्ठ सुदि तीज को भनेड़ा और भाजू के बीच के जंगल में सर्वखाप
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पंचायत की एक विशाल सभा हुई। इस में सभी जातियों के लोगों ने भाग लिया जिनमें 30,000 लोग थे और 15,000 मल्ल (पहलवान) योद्धा शामिल थे। इस सभा में अधिक संख्या जाटों की थी। इस सभा का अध्यक्ष चौ० विजयराव जो बालान खाप के गांव सिसौली का निवासी था, को चुना गया। इस समय मल्ल योद्धा सेना का प्रधान सेनापति गोगरमल जाट को बनाया गया।
यह पंचायत मुहम्मद गौरी द्वारा चौहानों एवं राठौरों की हार होने के विषय में विचार करने हेतु बुलाई गई थी। इस सभा के अध्यक्ष ने बड़ा जोशीला भाषण दिया जिसकी कुछ थोड़ी बातें निम्न प्रकार से हैं – पृथ्वीराज की हार के कारण बताते हुए अध्यक्ष ने कहा कि - “वह आचरण से गिर चुका था। रात दिन शराब पीकर जनाने महलों में पड़ा रहता था। उसका ध्यान जनता की देखभाल एवं सैनिक शिक्षा, और देश की रक्षा की ओर से हट चुका था। उसके सेनापति तथा सैनिक भी उसी भांति शराबी एवं दुराचारी हो गये थे। जयचन्द राठौर ने उसके विरुद्ध देशद्रोह का कार्य किया। अन्त में उसको भी मौत का फल मिला।” आगे अध्यक्ष ने कहा “भारत माता के वीर योद्धाओ, अपने देश की रक्षा तथा शत्रु को तलवार के घाट उतारना ही हमारा परम धर्म है। उसके लिए तैयार रहो। इस संकट के समय जनता और सैनिकों को उच्च चरित्र रखना पड़ेगा। मद्यपान से बचना पड़ेगा। सब जाति के लोगों को एक भाई बनकर रहना है। मुसलमान सेना के विरुद्ध लड़ने के लिए तैयार रहो।”
इस सभा में सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पास किए गये -
- अपने देश, जनता तथा धर्म की रक्षा के लिए मर मिटो।
- मुहम्मद गौरी के अगले आक्रमण तथा उसकी लूटमार के बचावों के लिए सभी खापों से 60,000 से 100,000 तक वीरों की सेना तैयार करो।
- चारों ओर फैली हुई बदअमनी के लिए शान्ति का वातावरण बनाओ और सब खापों में आपसी मिलाप एवं एकता करो।
- विवाह-शादी के समय बारात के साथ हथियारबन्द रक्षक जत्थे जाने का प्रबन्ध किया जाये।
कुतुबुद्दीन ऐबक को जासूसों द्वारा इस पंचायती कार्य का पता लग गया। उसने बख्तियार खिलजी (यह गौरी का एक गुलाम था जो खिलजी गोत्र का था) को 35,000 मुस्लिम सेना देकर सर्वखाप पंचायत पर आक्रमण करने के लिए भेजा। सर्वखाप पंचायत को भी यह सूचना मिल गई। पंचायती सेना चार भागों में बंट गई। जब बख्तियार की सेना वहां पहुंची तो पंचायती सेना मुस्लिम सेना पर चारों ओर से टूट पड़ी। ढ़ाई घण्टे तक घोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में बख्तियार के सेनापति तथा 18,000 सैनिक मारे गये।
पंचायती सेना के 800 मल्ल योद्धा वीरगति को प्राप्त हुए। मुस्लिम सेना रणक्षेत्र छोड़कर भाग खड़ी हुई और पंचायती सेना विजयी हुई2। (दस्तावेज 36)
3. बड़ौत (जि० मेरठ) के जंगल में सर्वखाप पंचायत - सर्वखाप पंचायत बड़ौत के निकट जंगल में भाद्रपद संवत् 1254 (सन् 1197 ई०) को हुई।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-570
इस सर्वखाप पंचायत के अधिवेशन में राणा भीमदेव राठी को प्रधान सभापति चुना गया। उपसभापति अर्जुनदेव, देवकुमार ब्राह्मण मन्त्री और तीर्थराम भट्ट उपमन्त्री थे।
इस पंचायत में 50,000 पुरुष तथा 36,000 देवियां सम्मिलित थीं। प्रधान सेनापति का बड़ा ओजस्वी भाषण हुआ। दिल्ली के सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक ने पंचायती अधिवेशन करने की रोक लगा दी तथा हिन्दुओं पर जजिया (कर) लगा दिया था। सभापति ने घोषणा की कि “कुतुबुद्दीन ऐबक के इन आदेशों का पालन नहीं किया जायेगा और युद्ध के लिए तैयार हो जाओ।” सर्वसम्मति से इस घोषणा का स्वागत किया गया। सभी जातियों के मुख्य-मुख्य लोगों ने खड़े हो-होकर वचन दिये कि “दादा, आपकी आज्ञा की पालन करने के लिए अपने प्राण न्यौछावर कर देंगे।” मोहनी नामक गुर्जर लड़की ने भी कहा कि “दादा, हम भी वीर भाईयों से पीछे नहीं रहेंगी। तलवार और कटार हमारा आभूषण है।” कुतुबुद्दीन ऐबक को जासूसों द्वारा यह सूचना मिल गई। उसने अपने दामाद अल्त्मश को 50,000 सैनिकों के साथ पंचायत पर आक्रमण करने हेतु भेजा। पंचायती घुड़सवारों ने शत्रु के आने की सूचना पंचायत को दी। पंचायती सेना की संख्या 90,000 थी जो तीन भागों में बांट दी गई। दोनों ओर की सेनाओं का युद्ध बड़ौत से डेढ़ मील दूर जंगल में हुआ।
पंचायती सेना ने मुस्लिम सेना पर तीन तरफ से धावा किया। घमासान युद्ध होने लगा। मुस्लिम सैनिक बड़ी संख्या में मारे गए तथा बचे हुए मैदान छोड़कर भाग खड़े हुए। इस युद्ध में पंचायती सेना के 5000 जाट एवं 4000 सैनिक अन्य जातियों के वीरगति को प्राप्त हुए। पंचायती सेना विजयी रही। सुलतान कुतुबुद्दीन ऐबक ने पंचायत पर लगाई पाबन्दी हटा दी3। (दस्तावेज 37)
4. गांव टीकरी में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन – टीकरी गांव जि० मेरठ में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन आषाढ़ संवत् 1256 (सन् 1199 ई०) को हुआ जिसमें 60,000 लोगों ने भाग लिया। इस सभा के अध्यक्ष हरीराय राणा, उपाध्यक्ष धर्मदत्त, वजीर (मन्त्री) रामराय तंवर और सहायक वजीर रामकुमार अहीर थे। इस अवसर पर सामाजिक एवं जातीय कल्याण और सर्वखाप क्षेत्र की रक्षा विषय पर विचार किया गया। निम्नलिखित प्रस्ताव सर्वसम्मति से स्वीकार किए गए :-
- खेती-बाड़ी पर अधिक ध्यान दिया जाए, अच्छे शस्त्र बनाये जायें और सैनिकों तथा सेना के सेनापतियों को ऊंचे स्तर की सैनिक शिक्षा दी जाए और उनको अच्छी सहूलियतें दी जायें। सेना को रसद पहुंचाने के भंडारों का अच्छा प्रबन्ध किया जाए।
- नवयुवकों को इच्छापूर्वक अपनी खाप की देशरक्षक सेना में भरती हो जाना चाहिए।
- गांव एवं थाम्बा पंचायतें अपने क्षेत्र की स्वयं रक्षा करें।
- शिल्पकार बढ़िया प्रकार के शस्त्र बनायें और पंचायतें उन शिल्पकारों एवं उनके परिवारों की अच्छी देखभाल तथा रक्षा करें।
- प्रत्येक पंचायत अपने क्षेत्र के अनाथ एवं निराश्रय लोगों की ठीक से देखभाल करे4। (दस्तावेज 38)
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5. कुतुबुद्दीन ऐबक का जाटवान नामक जाट योद्धा से युद्ध -
लल्ल-गठवाला-मलिक जाटों का हांसी के पास दीपालपुर राजधानी पर लगभग 300 वर्ष तक शासन रहा। 12वीं शताब्दी के अन्तिमकाल में इनका नेता जाटवान जाट गठवाला मलिक गोत्र का था। हांसी के दुर्ग पर, कुतुबुद्दीन ऐबक का एक सेनापति मुस्लिम सेना के साथ, शासक था। जाटवान ने अपने जाटवीरों के साथ हांसी के दुर्ग को घेर लिया। सूचना मिलने पर कुतुबुद्दीन दिल्ली से अपनी बड़ी सेना लेकर रातों-रात हांसी पहुंच गया। जाट वीरों ने दोनों मुस्लिम नेताओं से घमासान युद्ध किया। जाट सैनिक थोड़े थे, फिर भी जमकर युद्ध हुआ। यह भयंकर युद्ध तीन दिन और तीन रात चला जिसमें वीर जाटवान शहीद हुआ। जाटों की हार हुई किन्तु उन्होंने मुस्लिम सैनिकों को बड़ी संख्या में तलवार के घाट उतारा। जीत मुसलमानों की रही किन्तु उनकी हानि इतनी हुई कि वे रोहतक के जाटों का दमन करने के लिए देर तक सिर न उठा सके। (अधिक जानकारी के लिए देखो तृतीय अध्याय, लल्ल-गठवाला-मलिक जाटवान प्रकरण)।
सुलतान अल्तमश और जाट
(सन् 1211 से 1235 ई०)
गुलामवंशी अल्तमश सन् 1211 ई० में दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना। वह पहले सर्वखाप पंचायत की सेना से युद्ध में हार चुका था। उसके बाद सर्वखाप सेना की बढ़ती हुई शक्ति को भी वह जान गया था। उसने अपने शासन को स्थिर करने के लिए सर्वखाप पंचायती सेना से टक्कर लेना उचित न समझा। अतः उसने सर्वखाप पंचायत से संधि कर ली। इस सन्धि के अनुसार अल्तमश ने पंचायत की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया जो कि निम्नलिखित हैं -
- पंचायत अपने मामलों का स्वयं निर्णय करेगी।
- पंचायत अपनी सेना रखेगी। बादशाही सेना की रक्षा तथा सहायता के लिए जो पंचायती सेना जायेगी उसका सारा खर्च शाहीकोष से दिया जायेगा।
- पंचायत पूर्णरूप से स्वतन्त्र रहेगी। पंचायत अपनी प्रजा से जो कर (टैक्स) लेकर शाहीकोष में देगी, वह धनराशि प्रजाहित में खर्च की जायेगी।
- धार्मिक स्वतन्त्रता होगी और हिन्दुओं पर जजिया (कर) नहीं लगाया जायेगा।
- देश के मामलों में जब भी काजी हाकिम इकट्ठे होंगे वहां उनमे पंचायत का विद्वान् भी शामिल होगा। पंचायत के विद्वान् को प्रमुखता दी जायेगी। जिस मामले के विषय में वह न होगा, उसका निर्णय पंचायत को स्वीकार नहीं होगा।
- पंचायत की ओर से एक विद्वान् दरबार में रहेगा। उसका सब खर्च शाही कोष से दिया जायेगा।
- विद्यार्थियों के अन्य स्थानों पर जाकर शिक्षा ग्रहण करने का सारा व्यय शाही कोष से दिया जायेगा।
- बादशाही राज्य को पंचायती मल्लों (पहलवान योद्धा) की जरूरत पड़ने पर उनके शस्त्रों का खर्च शाही कोष से दिया जायेगा5।
- आधार लेख - 1, 2, 3, 4, 5. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड, जो वहां से लाए हुए लेख मेरे पास विद्यमान हैं (लेखक।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-572
रजिया बेगम और जाट
(सन् 1236 से 1239 ई०)
अल्तमश समझता था कि उसके पुत्र अयोग्य हैं। अतः उसने अपनी पुत्री रजिया को अपना उत्तराधिकारी मनोनीत कर दिया था। किन्तु राजदरबारी एक स्त्री के गद्दी पर बैठने के विरुद्ध थे। अतः उन्होंने अल्तमश की मृत्यु होने के पश्चात् उसके एक पुत्र रुकुनुद्दीन को सन् 1235 ई० में गद्दी पर बैठा दिया। वह बड़ा विलासी तथा शासन चलाने के अयोग्य था। अतः क्रोधित प्रजा ने उसे पकड़कर बन्दी बना लिया। सन् 1236 ई० में बन्दीगृह में ही उसकी मृत्यु हो गई। अब अमीर रजिया के साथी हो गये और उसे अपना शासक स्वीकार कर लिया। रजिया बेगम सन् 1236 ई० में दिल्ली सल्तनत की गद्दी पर बैठी।
रजिया बड़ी गुणवती स्त्री थी। उसका सम-सामयिक इतिहासकार लिखता है कि - “वह महान् सम्राज्ञी थी। वह चतुर, विदुषी, न्यायप्रिय, उदार, विद्वानों की आश्रयदात्री, न्याय-कुशल, प्रजा का हित करनेवाली तथा युद्धकुशल थी। परन्तु विधाता ने उसे पुरुष नहीं बनाया था; अतः ये सब गुण भी उसके लिए व्यर्थ थे।”
उसने राजा का रूप धारण किया। अपने स्त्रियों के वस्त्रों का परित्याग कर दिया, जनानेखाने का एकान्त छोड़ दिया, सिर पर पुरुष की पोशाक धारण की और खुले दरबार में कार्य करना आरम्भ कर दिया। उसने एक अश्वपति हब्शी गुलाम जिसका नाम जमालुद्दीन याकूत था, को अस्तबल का अफसर बना दिया। उस पर रजिया की विशेष कृपा थी। इस पक्षपात से अप्रसन्न होकर अमीरों ने उसके प्रियपात्र याकूत हब्शी को मार डाला तथा रजिया के विरुद्ध बगावत का झण्डा खड़ा कर दिया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 83-85, लेखक ईश्वरीप्रसाद; भारतीय इतिहास: सरल अध्ययन, पृ० 109, लेखक प्रो० मिथिलेशचन्द उपाध्याय; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू 20वां बाब, पृ० 80-81)।
रजिया बेगम ने इस विद्रोह को दबाने के लिए अपने एक विश्वासपात्र सरदार बिल्लौरखां को सर्वखाप पंचायत के पास सहायता मांगने हेतु भेजा। सर्वखाप पंचायत ने अपनी पंचायती सेना भेजी जिसकी सहायता से रजिया बेगम के विरुद्ध विद्रोह को दबा दिया गया। पंचायती सेना की सहायता से रजिया का शासन फिर जम गया। इस सहयोग से रजिया इतनी प्रसन्न हुई कि उसने 60,000 दुधारू गायें एवं भैंसें पंचायत के पहलवानों तथा सैनिकों को दूध पीने के लिए प्रदान कीं क्योंकि वह जानती थी कि हरयाणा के ये वीर सैनिक दूध, घी का सेवन करते हैं, ये मांस, शराब आदि का सेवन कभी नहीं करते हैं6।
गुलामवंशी बादशाह नासिरुद्दीन और जाट
(सन् 1246 से 1266 ई०)
दिल्ली सल्तनत के बादशाह नासिरुद्दीन के शासनकाल में संवत् 1305 (सन् 1248 ई०) में सिग्गु राणा की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत की बैठक हुई, जिसमें यह निर्णय लिया गया कि सुलतान नासिरुद्दीन को दिल्ली दरबार में जाकर निम्न मांगों पर आधारित एक प्रतिवेदन पेश किया जाये -
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-573
- किसी भी आदमी को शाही प्रशासन में काम करने के लिए बाध्य न किया जाये।
- हानिकारक करों (टैक्सों) को वापिस लिया जाये।
- किसी भी जाति की, किसी भी स्त्री का जोर जबर्दस्ती से अपहरण न किया जाये।
- किसी भी शाही अधिकारी को जनता पर अत्याचार करने एवं कर लगाने से रोका जाये।
यह प्रस्ताव लेकर सर्वखाप पंचायत के 7 प्रतिनिधि बादशाह के दरबार में उपस्थित हुए और बादशाह ने उन्हें स्वीकार किया7। (दस्तावेज 39)
गांव भोकरहेड़ी (जि० मुजफ्फरनगर) में सर्वखाप पंचायत - यह सर्वखाप पंचायत भी सुलतान नासिरुद्दीन के शासनकाल में संवत् 1312 वि० (सन् 1255 ई०) में भोकरहेड़ी गांव में गंगा जी के स्नान (नाहण) के पर्व के समय हुई। इस पंचायत में भिन्न-भिन्न खापों के 225 हिन्दू जाति के प्रतिनिधियों ने भाग लिया। यह बैठक दो दिन तक चली। सर्वसम्मति से यह प्रस्ताव पारित किया गया कि बादशाह की ओर से धार्मिक पूजा स्थानों एवं स्नान पर्वों पर लगाये गए कर तथा जजिया (कर) को बन्द किया जाये। यह प्रस्ताव दिल्ली दरबार में भेजा गया जिसको बादशाह ने मान लिया8। (दस्तावेज-40)
गुलामवंशी बादशाह बलबन और जाट
(सन् 1266 से 1286 ई०)
जब सन् 1246 ई० में नासिरुद्दीन गद्दी पर बैठा तो उसने बलबन को राज्य का प्रधानमन्त्री बना दिया था। बलबन ने सन् 1246 ई० में रावी नदी को पार किया और जदू तथा जेहलम पहाडियों पर खोखर जाटों तथा अन्य उपद्रवी जातियों के साथ घोर युद्ध करके उनको दबा दिया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 87, लेखक ईश्वरीप्रसाद)।
नासिरुद्दीन की मृत्यु होने पर बलबन सन् 1266 ई० में दिल्ली सल्तनत का बादशाह बन गया। उसको भारत की उत्तर-पश्चिमी सीमा के मंगोलों के आक्रमणों का अधिक भय तथा चिन्ता रहती थी। उसने अपने दरबारी अमीर खुसरो को संवत् 1323 (सन् 1266 ई०) में शोरम गांव (जिला मुजफ्फरनगर) में भेजा। उसने मंगोलों के विरुद्ध अपनी सहायता के लिए सर्वखाप पंचायती सेना भेजने की मांग की। सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन बुलाया गया जिसमें बलबन को सहायता देने का निर्णय किया।
सर्वखाप पंचायत के 65,000 मल्ल योद्धाओं ने बादशाही सेना के साथ मिलकर विदेशी मंगोलों को देश से मार भगाया9। (इतिहास सर्वखाप पंचायत, बालान खाप, पहला भाग, पृ० 47, लेखक चौ० कबूलसिंह, मन्त्री, सर्वखाप पंचायत)।
चाहर जाट गोत्र की राजकुमारी सोमादेवी की अद्भुत वीरता
13वीं शताब्दी में गुलामवंश के शासनकाल में जांगलप्रदेश (बीकानेर) में सीधमुख नामक स्थान पर जाट राजा मालदेव चाहर शासन करता था। जैसलमेर से लौटते हुए मुसलमान सेनापति ने अपनी सेना का पड़ाव राजा मलदेव के गढ़ से बाहर डाला। उस समय एक सांड बिगड़ गया जिससे स्त्री, पुरुष और बच्चे डरकर भागने लगे और चारों ओर हाहाकार मच गया। मुसलमान
- 6, 7, 8, 9. आधार लेख - सर्वखाप पंचायत रिकार्ड।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-574
सैनिक भी डरकर सांड के सामने से दूर भाग गये। उस अवसर पर मालदेव राजा की राजकुमारी सोमादेवी ने आकर उस बिगड़े हुए सांड का सींग पकड़ लिया, वह पूरा बल लगाकर भी न छुड़ा सका। तब उस सांड को रस्से से बांधकर काबू में कर लिया गया। मुसलमान सेनापति उस राजकुमारी की शक्ति एवं सुन्दरता को देखकर मोहित हो गया तथा उसके साथ विवाह करने के लिए अड़ गया। राजा मालदेव और जाटों ने उसे साफ कह दिया कि हम मुसलमान को अपनी लड़की नहीं देंगे। मुसलमान सेनापति ने उस राजकुमारी को बलपूर्वक ले जाना चाहा। इसी कारण जाट सेना का, जो कि संख्या में कम थी, मुसलमानों के साथ युद्ध हुआ। वीरांगना राजकुमारी सोमादेवी भी घोड़े पर चढ़कर इस युद्ध में शामिल थी। उसने अपनी तलवार से अनेक मुस्लिम सैनिकों को मौत के घाट उतारा। जाट बड़ी वीरता से लड़े। इस युद्ध में राजा मालदेव वीरगति को प्राप्त हुआ। वीरांगना राजकुमारी सोमादेवी एवं उसके परिवार के आदमी बचकर निकल जाने में सफल हुए। वहां से निकलकर वे झूंझावाटी में आ गये10।
अलाउद्दीन खिलजी और जाट
(सन् 1296 से 1316 ई०)
संवत् 1354 (सन् 1297 ई०) में गांव शिकारपुर (जिला मुजफ्फरनगर, खाप बालियान) में सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन हुआ जिसमें हरयाणा की सभी खापों के 300 जाट प्रतिनिधि एकत्र हुए। इनके अतिरिक्त 125 प्रतिनिधि गुर्जर (खाप कलसलायन), 10 राजपूत, 98 अहीर, 20 रवे और 22 सैनी प्रतिनिधि भिन्न-भिन्न खापों के थे। पंचायत ने निम्नलिखित बातों पर विचार किया -
- अलाउद्दीन खिलजी के जनता पर अत्याचार एवं अन्याय।
- जनता को धन इकट्ठा करने पर रोक तथा हिन्दुओं पर जजिया लगाना।
- शस्त्र रखने तथा बारात के साथ सशस्त्र रक्षा सैनिक जाने पर रोक।
- सर्वखाप पंचायत को सेना रखने की पाबन्दी।
- पहले राजस्व किसान की उपज का छठा भाग लिया जाता था। उसको अलाउद्दीन खिलजी ने बढ़ाकर पैदावार का आधा भाग लेने के आदेश जारी कर दिए।
इस बैठक में सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित हुए-
- 1. कोई भी व्यक्ति अधिक राजस्व न दे।
- 2. बारातों पर लगी पाबन्दी को नहीं माना जाएगा।
- 3. जजिया की अदायगी नहीं की जायेगी।
- 4. पंचायत अपनी स्वतन्त्रता को जारी रखेगी और अपनी स्वाधीनता की हर कीमत पर रक्षा करेगी।
- 5. 24,000 सैनिकों की सेना खड़ी की जाये।
- 10. आधार पुस्तक - जाट इतिहास पृ० 599, लेखक ठा० देशराज; जाटों का उत्कर्ष पृ० 368, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-575
- 6. अलाउद्दीन खिलजी के अत्याचारों की आलोचना की गई और यह घोषणा की गई कि यदि बादशाह सर्वखाप पंचायत की मांगों को स्वीकार नहीं करेगा तो पंचायत उसके विरुद्ध युद्ध की घोषणा कर देगी।
बादशाह ने अपने सेनापति एवं वजीर मलिक क़ाफूर को पंचायत के प्रतिनिधियों के पास भेजा जिसने कुछ मांगें पंचायत की मान लीं तथा शेष पर विचार करने का आश्वासन दिया। (दस्तावेज-41, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)।
इसके अतिरिक्त जाट इतिहास इंगलिश पृ० 149 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने सर्वखाप पंचायत रिकार्ड का हवाला देकर लिखा है कि “अलाउद्दीन खिलजी ने पंचायत की इन मांगों को अस्वीकार कर दिया और उसने मलिक काफूर को 25,000 मुस्लिम सेना के साथ पंचायती सेना को कुचलने के लिए भेजा। काली नदी एवं हिण्डन नदी के मिलाप क्षेत्र में दोनों ओर की सेनाओं का भयंकर युद्ध हुआ। पंचायती सेना (जिसमें अधिकतर जाट थे) ने बादशाही सेना पर बड़े शक्तिशाली धावे करके उसके अनेक सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया तथा पीछे धकेल दिया। मुसलमान सैनिक रणभूमि छोड़कर भाग खड़े हुये। अलाउद्दीन की सेना हार गई और पंचायती सेना विजयी रही। बादशाह ने पंचायत के प्रस्ताव की सब बातें मान लीं तथा अपने फरमान रद्द कर दिए। बादशाह को सर्वखाप से क्षमा मांगनी पड़ी और युद्ध का सब खर्च भी दे दिया। पंचायत के साथ उसने मित्रता कर ली। उसका कारण था कि भारत पर मंगोलों के आक्रमण लगातार हो रहे थे जिससे खिलजी को उनका भय था। उसने पंचायत से विदेशी आक्रमणों के विरुद्ध अपनी सहायता करने का वचन ले लिया।”
मुबारकशाह खिलजी के समय में 262 वीरांगनाओं का बलिदान
(सन् 1316 से 1320 ई०)
संवत् 1374 (सन् 1317 ई०) की वैशाखी अमावस्या के दिन कोताना (जि० मेरठ) के पास सूर्योदय के समय 262 आर्यदेवियां यमुना नदी में स्नान कर रही थीं। वे देवियां जाट, राजपूत और ब्राह्मण घरानों की थीं। खिलजीवंश का सरदार जाफिर अली कोताना का अधिकारी था। उसने अपने सैनिकों को साथ लेकर उन वीरांगनाओं को जा घेरा। वह एक जाट लड़की पर मोहित हो गया। उसको आता देखकर सब देवियों ने अपने शस्त्र सम्भाल लिये। एक लड़की ने उस सरदार से कहा कि “तुम एक बार हमारी बहन की बात सुन लो।” वह विषयीकीड़ा सरदार घोड़े से उतरकर उनके पास पहुंचा और उस जाट लड़की को अपनी बीबी बनने के लिए कहा। यह शब्द सुनते ही उस जाट वीरांगना ने अपनी तलवार से एक ही वार में उस पिशाच जाफिर अली का सिर काट दिया। उस सरदार के मरते ही मुसलमान सैनिकों और वीर देवियों में तलवारें चलने लगीं। देखते-देखते 262 आर्य देवियां धर्म की बलिवेदी पर प्राणों की आहुति दे गईं। किसी मुसलमान का हाथ अपने शरीर पर नहीं लगने दिया। बादशाह को जब यह सूचना पहुंची तो उसने उन बचे हुए सैनिकों को कठोर दण्ड दिया और सर्वखाप पंचायत से माफी मांगी।
(सर्वखाप पंचायत रिकार्ड से, श्री जगदेवसिंह शास्त्री सिद्धान्ती का लेख, सुधारक, बलिदान विशेषांक, पृ० 252 पर)।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-576
मुहम्मद शाह तुगलक और जाट
(सन् 1325 से 1351 ई०)
संवत् 1383 (सन् 1326 ई०) में मुहम्मद शाह तुगलक के शासनकाल में आनन्दपाल राणा की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत की बैठक हुई जिसमें निम्नलिखित बातों पर विचार किया गया -
- मुहम्मद शाह तुग़लक की जनता के प्रति कठोर नीति।
- उसने राजस्व और अन्य करों को बढ़ा दिया जिनको जनता अदा नहीं कर सकती, जिस से अनेक कठिनाइयां एवं बेचैनी फैल गई है।
इस बैठक में सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पास किए गए -
- 1. कृषि एवं जीवन को एक समान महत्त्व दिया जाना चाहिए, क्योंकि भोजन के बिना जीवन नहीं रह सकता।
- 2. शाही कर अधिकारियों की लूट से किसानों की रक्षा की जाये।
- 3. बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करने वाली सैन्यशक्तियों से पंचायती सेना मिलकर बादशाह के विरुद्ध युद्ध करे।
- 4. खापों का आपसी मेल-मिलाप स्थापित किया जाये जिससे सर्वखाप पंचायत शक्तिशाली बने और सभी जातियों और वर्गों के लोगों को पंचायत के झण्डे तले एकत्र होकर शाही लूट से किसानों तथा जनता को बचाया जाये।
यह प्रस्ताव बादशाही दरबार में भेज दिया गया11।
फिरोजशाह तुगलक और पंचायती वीरों का बलिदान
(सन् 1351 ई० से 1388 ई० तक)
संवत् 1409 (सन् 1352 ई०) की घटना है। दिल्ली के फिरोजशाह बादशाह ने जब साम्प्रदायिक आधार पर जनता के धार्मिक कार्यों पर प्रतिबन्ध लगाया और प्रतिबन्ध को मनवाने के लिए अत्याचार किये, तब सर्वखाप पंचायत ने इन शाही अत्याचारों को दूर करवाने के लिए बलिदान दल बनाया और हरयाणा के स्वयंसेवक योद्धा वीरों की सेना में से 210 वीरों को छांटकर बादशाह के दरबार में दिल्ली भेजा। सर्वखाप पंचायत में सम्प्रदाय और जाति-बिरादरी के भेदभाव बिना सब लोग सम्मिलित थे। इन 210 वीरों के बलिदान दल में निम्नलिखित लोग सम्मिलित थे - जाट 66, ब्राह्मण 25, अहीर 15, गूजर 15, राजपूत 15, वैश्य 10, हरिजन 9, बढ़ई 8, लुहार 6, सैनी 5, जुलाहे 5, तेली 5, कुम्हार 4, खटीक 4, रोड़ 4, रवे 3, धोबी 3, नाई 2, जोगी 2, गोसाईं 2 और कलाल 2 ।
इन वीरों ने सर्वखाप पंचायत के नेताओं से आशीर्वाद लिया और कार्तिक पूर्णिमा को गढ़मुक्तेश्वर में गंगा-स्नान करके देहली को प्रस्थान किया। इनके साथ 150 अन्य व्यक्ति भी चले जो कि देहली के समाचार को पंचायत के नेताओं तक पहुंचाने के लिए नियुक्त किये गये थे। यह
- 11. दस्तावेज-42, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-577
जत्था देहली के शाही दरबार में पहुंच गया। पहले ये 5 वीर योद्धा दरबार के भीतर घुस गये - 1. हरभजन जाट, 2. सदाराम ब्राह्मण, 3. रूड़ामल वैश्य, 4. अन्तराम गूजर, 5. बाबरा भंगी। शेष 205 बाहर जन्मभूमि के जयकारे लगाने लगे। वीर हरभजन जाट ने बादशाह से कहा कि “जजिया हटाया जाये, मन्दिर और तीर्थों पर कर न लगाया जाये तथा धार्मिक कार्यों में हस्तक्षेप न किया जाये।”
बादशाह के काजी मुइउद्दीन ने कहा कि “तुम इस्लाम कबूल करो।”
हरभजन जे उत्तर दिया कि “धर्म का सम्बन्ध आत्मा से है। इसमें दबाव नहीं दिया जा सकता।” काजी ने कहा - “क्या तुम धर्म पर प्राणों को कुर्बान कर दोगे?”
सब वीरों ने एक साथ उच्च स्वर से कहा - “हां, हमारे लिए धर्म प्राणों से प्यारा है।”
तुरन्त अग्नि जला दी गई, काजी ने कहा - “सबूत दो।”
पांचों वीरों ने धर्म का जयघोष किया और सब ने अग्नि में कूदकर अपने प्राणों की बलि धर्म रक्षार्थ चढ़ा दी। शेष वीरों ने भी अग्नि में कूदकर अपने प्राणों की बलि दे दी। उसी समय एक मुसलमान फकीर ने काज़ी की खुले शब्दों में निन्दा की और कहा कि बादशाह का हुक्म देश पर चलता है, धर्म पर नहीं। धर्म का सम्बन्ध खुदा से है। यह अन्याय है। बादशाहत नष्ट हो जायेगी। इस पर मुल्लाओं ने शोर मचाया और फकीर को काफ़िर कहकर 210 वीरों के साथ ही जला दिया। इस फकीर का नाम बालूशाह था। जौनपुर में रहने वाला युसुफजई नामक फिरक़े का एक बहादुर पठान मन्नूखां इस जुल्म को सहन न कर सका और उसने काजी का सिर काटकर फेंक दिया और स्वयं भी अपने पेट में छुरा मारकर बलिदान दे दिया। इसी प्रकार सैयद, लोदी और मुगलों के समय में अनेक वीरों ने प्राणों का बलिदान दिया12।
तुगलक वंश का अन्तिम बादशाह महमूद और जाट
(1394 ई० से 1412 ई०)
इस सुलतान के सामने अनेकों प्रकार की कठिन परिस्थितियां उपस्थित थीं। राजधानी में दलबन्दी के कारण राज्य-प्रबन्ध असम्भव हो रहा था। हिन्दू राजा और मुसलमान शासक खुल्लम-खुल्ला दिल्ली राज्य की आज्ञा की अवहेलना करने लग गये। कन्नौज से लेकर बिहार और बंगाल तक सारे देश में अव्यवस्था फैल गई। चारों ओर के किसान एवं सर्वखाप पंचायत पूर्ण रूप से स्वतन्त्र बन गए। उत्तर में खोखर जाटों ने विद्रोह कर दिया। गुजरात, खानदेश और मालवा स्वतन्त्र हो गये। राजसत्ता के लिए इस अव्यवस्था को रोकना असम्भव हो गया। इसी समय ग्वालियर में एक हिन्दू जाट राज्य स्थापित हो गया। इस प्रकार सन् 1412 में तुग़लक वंश का शासन खत्म हो गया। (मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 159-161, लेखक ईश्वरीप्रसाद; हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू, पृ० 181)।
1398 ई० में भारत पर तैमूरलंग का आक्रमण
इसी बादशाह महमूद के शासनकाल में सन् 1398 ई० में भारतवर्ष पर तैमूरलंग का भयंकर
- 12. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड से, श्री जगदेव शास्त्री सिद्धान्ती का लेख, सुधारक बलिदान विशेषांक, पृ० 251-252 पर।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-578
आक्रमण हुआ। उससे जाटों ने अनेक स्थलों पर सख्त टक्कार ली तथा सर्वखाप पंचायत की वीर सेनाओं ने तैमूर की सेना के दांत खट्टे कर दिये। उसका लक्ष्य हरद्वार पहुंचने का था परन्तु वहां तक नहीं पहुंचने दिया। पंचायती सेना ने उसे खदेड़कर हरयाणा से बाहर निकाल दिया और उसे उत्तरी पहाड़ी क्षेत्र के मार्ग से लौट जाने को मजबूर कर दिया था। (पूरी जानकारी के लिए देखो चतुर्थ अध्याय, तैमूरलंग और जाट, प्रकरण)।
तुगलकवंश के बादशाह महमूद के शासन के समय सर्वखाप पंचायत अधिवेशन -
बादशाह महमूद तुगलक के शासनकाल में संवत् 1460 (सन् 1403 ई०) में चौ० कर्मदेव भट्ट की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन गांव शिकारपुर जि० मुजफ्फरनगर में हुआ जिसमें निम्नलिखित बातों पर विचार किया गया -
(1) देशवासी अकाल से पीड़ित हैं। (2) चारों ओर राजनैतिक अशान्ति फैली हुई है। (3) डकैती एवं लूटमार नित्य अनेकों हो रही हैं।
सर्वसम्मति से निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किये गये :-
- जान व माल तथा खेती-बाड़ी की रक्षा की जाये।
- धर्म की रक्षा हेतु तथा डाकुओं, लुटेरों और अन्य पीड़ा देनेवालों से जनता की रक्षा के लिए जाट, गुर्जर, अहीर, राजपूत तथा अन्य जातियों के 30,000 वीर सैनिकों की सेना तैयार की जाये।
- इन प्रस्तावों की सूचना प्रत्येक खाप में पहुंचाने तथा इन पर अमल करवाने के लिए एक समिति नियुक्त की गई जिसमें 5 जाट, 4 राजपूत, 2 वैश्य और 8 अन्य जातियों के मनुष्य थे।
इस प्रकार से हरयाणा में शांति स्थापित करके जनता की रक्षा की गई। (दस्तावेज-44, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
सैयदवंश
तुगलक वंश के बाद सैयदवंश का दिल्ली सल्तनत पर शासन स्थापित हुआ। इस वंश के चार बादशाहों का शासन सन् 1414 से सन् 1451 ई० तक 37 वर्ष रहा। ये दुर्बल शासक थे तथा इस काल में चारों ओर अराजकता फैल गई और इस वंश का राज्य नाममात्र का ही रहा। इस सैयदवंश के बादशाहों के शासनकाल में सर्वखाप पंचायत ने 65,000 वीर योद्धाओं सेना खड़ी की थी। शौरम गांव जि० मुजफ्फरनगर के निवासी राव मूलचन्द और दुलेचन्द दो भाइयों ने पंचायत की पूरी-पूरी सेवा की थी। इस पंचायती सेना ने अपने प्रान्त को हर प्रकार की आपत्तियों से बचाया और शान्ति स्थापित की। (इतिहास सर्वखाप पंचायत, (बालयान खाप) पहला भाग, पृ० 50, लेखक चौ० कबूलसिंह मन्त्री, सर्वखाप पंचायत)।
सैयदवंश का पहला बादशाह खिज्रखां था। उसकी मृत्यु होने पर उसका पुत्र मुबारक शाह सन् 1438 ई० तक रहा। उसके विरुद्ध खोखर जाटों तथा हिन्दू सरदारों ने विद्रोह करके उसके लिए बड़ी आपत्ति खड़ी कर दी1।
मुबारकशाह के समय दो प्रधान विद्रोह हुए। सन् 1428 ई० में जसरथ खोखर जाट का
- 1. हिन्दुस्तान की तारीख उर्दू 23वां अध्याय, पृ० 193.
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-579
विद्रोह हुआ और दूसरा सरहिन्द के निकट पौलाद तुर्क बच्चा का विद्रोह हुआ1।
सिकन्दर लोदी और जाट
(सन् 1488 से सन् 1517 ई० तक)
संवत् 1547 (सन् 1490 ई०) में सिकन्दर लोदी के शासनकाल में रामदेव की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत का अधिवेशन गांव बड़ौत (जि० मेरठ) में सम्पन्न हुआ। सैयदवंश के शासन के पश्चात् लोदीवंश का शासन दिल्ली पर स्थापित हुआ। सिकन्दर लोदी ने हिन्दू किसानों पर राजस्व बढ़ा दिया तथा हिन्दुओं पर जजिया कर फिर लगा दिया।
इस अधिवेशन में सर्वसम्मति से ये प्रस्ताव पारित किए गए -
- यह निश्चय किया गया कि जज़िया और किसानों पर बढ़ाया गया राजस्व नहीं दिये जायेंगे।
- सर्वखाप पंचायत ने 50,000 सैनिक तैयार किये और जब लोदी शासन के कर्मचारी एवं पदाधिकारी यह कर लेने आये तो पंचायत ने उनको शासन के विरुद्ध विद्रोह करने की धमकी दी।
- भिन्न-भिन्न जातियों के 150 व्यक्तियों ने ये कर न देने तथा उपद्रव करने की धार्मिक शपथ-पूर्वक प्रतिज्ञा की।
- बालियान खाप के मन्त्री चौ० मूलचन्द को प्रत्येक खाप में शाही शासन के इन आदेशों के विरुद्ध संगठन बनाने के लिए नियुक्त किया गया।
लोदीवंश के बादशाहों ने इन करों (टैक्सों) की अदायगी के लिए कोई दबाव नहीं दिया। (दस्तावेज-45, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
सिकन्दर लोदी सन् 1505 ई० में सर्वखाप पंचायत कार्यालय शोरम गांव में आया था और पंचायती संगठन एवं पंचायती फैसलों से प्रसन्न होकर उसने पंचायत को 500 अशर्फियां पुरस्कार में प्रदान की थीं2।
नोट - इसी बादशाह ने सन् 1504 ई० में आगरा नगर की नींव रखी थी।
इब्राहीम लोदी और जाट
(सन् 1517 से 1526 ई०)
सिकन्दर लोदी की मृत्यु के पश्चात् उसका सबसे बड़ा पुत्र इब्राहीम लोदी सन् 1517 ई० में दिल्ली सल्तनत का बादशाह बना। उसके विरुद्ध उसके भाई जलालुद्दीन लोदी ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह को दबाने के लिए इब्राहीम लोदी ने हरयाणा सर्वखाप पंचायत से सहायता की प्रार्थना की। इस पर विचार करने के लिए संवत् 1574 (सन् 1517 ई०) में चौ० धर्मगज देव की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत की बैठक गांव बावली जि० मेरठ में हुई। सर्वसम्मति से ये प्रस्ताव पारित किए गये -
- 1. 40,000 पंचायती वीर सैनिक इब्राहीम बादशाह की मदद के लिए भेजे जायेंगे।
- 1. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास पृ० 209, लेखक ईश्वरीप्रसाद।
- 2. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-580
- 2. यह सेना भेजने के लिए निम्नलिखित शर्तें लगाईं गईं -
- (क) धार्मिक कार्यों में पूरी स्वतन्त्रता हो।
- (ख) सर्वखाप पंचायत को अपने कार्य करने के लिए पूरी आजादी हो।
- (ग) प्रत्येक खाप में सर्वखाप पंचायत के हिन्दू मनसबदार (प्रबन्धकर्त्ता) नियुक्त किये जायें।
- (घ) पंचायती सेनाओं का सारा खर्च शाहीकोष से दिया जाये।
ये सब शर्तें इब्राहीम बादशाह ने स्वीकार कर लीं। पंचायत ने अपने 40,000 सैनिक भेज दिये जिनकी सहायता से इब्राहीम ने उस विद्रोह को कुचल दिया। (दस्तावेज-46, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)।
सर्वखाप पंचायत की प्राचीन पोथी जो आज हरिराम भाट के पास है, के लेखानुसार - “इब्राहीम लोदी के विरुद्ध उसके सगे भाई जलालुद्दीन लोदी ने बगावत कर दी। उसको दबाने के लिए इब्राहीम ने सर्वखाप पंचायत से मदद मांगी। इब्राहीम की सहायता के लिए सर्वखाप पंचायत के नाम पर गठवाला लल्ल गोत्र के युवक वीरों ने दहिया खाप और उसके साथी अहलावत खाप और तंवरवंश, रघुवंश, पंवारवंश इत्यादि (सब जाटवंश) खापों के वीर योद्धाओं का बड़ा दल साथ लेकर इब्राहीम की सेना से जा मिले। इन्होंने इब्राहीम लोदी की ओर होकर जलालुद्दीन को हरा दिया तथा उसे मार दिया।” (देखो, जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, लल्ल गठवाला मलिक, प्रकरण)।
मुगलवंश के बादशाह बाबर और जाट
(सन् 1526 से 1530 ई०)
बाबर ने भारतवर्ष में दिल्ली राजधानी पर मुगल साम्राज्य की सन् 1526 ई० में स्थापना की। वह अफगानिस्तान का शासक बन गया था, जिसकी राजधानी काबुल थी। उसने भारतवर्ष पर कई आक्रमण किये जो पंजाब तक ही सीमित रहे।
इब्राहीम लोदी के घमंड तथा कठोर दण्ड की नीति से तंग आकर अफ़गान सरदार दौलत खां लोदी ने अपने पुत्र दिलावर खां को हिन्दुस्तान पर चढ़ाई के लिए बाबर को निमन्त्रित करने हेतु काबुल भेजा। इन्हीं दिनों राणा सांगा ने भी हिन्दुस्तान पर चढ़ाई करने के लिए बाबर को बुला भेजा1।
बाबर को यह अच्छा अवसर मिल गया तथा वह अपनी सेना लेकर भारत पर चढ़ आया। पंजाब में भीरा खुशाब और चनाब नदी के क्षेत्र में खोखर जाटों ने उससे कड़ी टक्कर ली। [[जाट इतिहास पृ० 27 पर कालिकारंजन कानूनगो ने लिखा है कि - “बाबर को उसके मार्ग में नील-आब और भीरा के पहाड़ी क्षेत्रों में रहने वाले जाटों से पाला पड़ा जिनके सरदार गक्खर (खोखर) जाट थे। (बाबर का इतिहास, पृ० 387, लेखक ए० एस० बेवरिज)। उनमें उनके प्राचीन लड़ाकू एवं लूटमार करने के गुण विद्यमान थे। बाबर लिखता है कि यदि कोई भारतवर्ष में प्रवेश करता है तो जाट और
- 1. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 265, लेखक ईश्वरीप्रसाद।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-581
गुर्जर पहाड़ियों तथा मैदानों में बड़ी संख्या में एकत्र होकर लूटमार करते हैं।”
12 अप्रैल 1526 ई० को अपनी सेना सहित बाबर पानीपत पहुंचा। वहां पर उसका युद्ध इब्राहीम लोदी की बड़ी सेना के साथ हुआ जिसमें बाबर की जीत हुई। अब दिल्ली का साम्राज्य बाबर के हाथ आ गया और लोदीवंश के शासन का अन्त हो गया।
हिन्दुस्तान में बाबर का सबसे शक्तिशाली शत्रु सिसौदियावंशीय चित्तौड़ का शासक महाराणा संग्रामसिंह था जो राणा सांगा के नाम से अधिक प्रसिद्ध था। प्रायः सभी राजपूत राजा और सरदार संगठित होकर बाबर से लड़ने के लिए राणा के झण्डे के नीचे इकट्ठे हुए। युद्ध में राणा की एक आंख फूट गई थी, एक हाथ टूट गया था और वह एक पैर से लंगड़ा हो गया था। इनके अतिरिक्त उसके शरीर पर तलवार, भाले और तीर के 80 घाव थे।
राणा सांगा ने इस युद्ध के लिए सर्वखाप पंचायत से सहायता मांगी। इस पर विचार करने के लिए सर्वखाप पंचायत की बैठक संवत् 1584 (सन् 1527 ई०) में गांव सिसौली जि० मुजफ्फरनगर में हुई। सर्वसम्मति से प्रस्ताव पारित किया गया कि 25,000 वीर सैनिक भिन्न-भिन्न खापों से भेजे जायें जो कि जाट महाराजा कीर्तिमल धौलपुर नरेश के नेतृत्व में उसकी सेना में मिलकर राणा सांगा की ओर से बाबर के विरुद्ध युद्ध करें। महाराजा कीर्तिमल अपनी सेना के साथ सांगा की ओर आया था।
16 मार्च, 1527 ई० को सीकरी के निकट कन्वाहा के स्थान पर बाबर और राणा सांगा की सेनाओं में भयंकर युद्ध हुआ। हिन्दू सेनाएं हार गईं। इस युद्ध में कई हजार पंचायती योद्धा सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए। अलग-अलग खापों के सैनिकों के नेताओं के नाम रिकार्ड में लिखे हुए हैं। (दस्तावेज-47, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)।
मुगल बादशाह बाबर सन् 1528 ई० में सर्वखाप पंचायत कार्यालय शोरम गांव जि० मुजफ्फरनगर में गया था। वहां पर चौ० रामराय ने सब जाट खापों के चौधरी एकत्र किये थे जो बाबर से मिले। बाबर ने कहा कि “जाट लोग बहुत ईमानदार, पवित्र विचारवाले, चरित्रवान्, न्यायकारी और अपने अधिकार को चाहनेवाले हैं। हरयाणा सर्वखाप के मल्ल योद्धा तथा यहां की पंचायतों के पंच भारतवर्ष में सबसे प्रसिद्ध एवं श्रेष्ठ हैं। मैं सब खापों के पंचों एवं सर्वखाप पंचायत गांव शोरम के वजीरों को धन्यवाद देता हूं। मैं शोरम गांव के चौधरी को एक रुपया सम्मान का और 125 रुपये पगड़ी के भेंट के तौर पर जीवन भर देता रहूंगा। ” (इतिहास सर्वखाप पंचायत (बालियान खाप) पहला भाग पृ० 58-59, लेखक चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत)।
मुगल बादशाह बाबर की मृत्यु सन् 1530 ई० में हो गई। उसके बाद उसका पुत्र हुमायूं मुगल साम्राज्य का शासक बना जिसका शासन सन् 1530 से 1540 ई० तक और फिर दोबारा सन् 1555 से 1556 ई० तक रहा। बाबर की मृत्यु के पश्चात् अफगान जाति शेरखां के नेतृत्व में मुग़लों से अपना खोया हुआ राज्य वापिस लेने का प्रयत्न कर रही थी। शेरखां सूर जाति के अफ़गान मियां हसन का पुत्र था जो कि शेरशाह सूरी के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-582
जाट इतिहास पृ० 108 पर लेफ्टिनेन्ट रामसरूप जून ने लिखा है कि “जाट कभी भी मुगल सम्राटों के राजभक्त नहीं रहे, बल्कि सदा उनके विरुद्ध युद्ध करते रहे।”
मुगल बादशाह हुमायूं ने किसी बात से नाराज होकर अपने हाकिम मुल्ला शकीबी को ग्राम ढांढर्स (तहसील गोहाना, जि० सोनीपत) को घेरा देकर बरबाद करने के लिए भेजा। किन्तु जाट खापों ने मिलकर उस पर भयंकर आक्रमण करके उसकी सेना को वहां से भगा दिया। शेरशाह सूरी ने जाट खापों की सहायता से हुमायूं को युद्ध में हराकर दिल्ली और आगरे पर अधिकार कर लिया और भारत का सम्राट् सन् 1540 ई० में बन गया। इस प्रकार उसने द्वितीय अफ़गान राज्य की नींव डाली।
सम्राट् शेरशाह सूरी और जाट
(सन् 1540 से 1545 ई०)
शेरशाह सूरी ने अपने 5 वर्ष के थोड़े से समय में एक विस्तृत साम्राज्य की स्थापना की। यह साम्राज्य पूर्व में सोनार गांव (ढाका के निकट) से लेकर पश्चिम में अटक और उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में विन्ध्याचल तक था। इस साम्राज्य में पंजाब, उत्तरी सिन्ध, दिल्ली, आगरा, बिहार, बंगाल, राजस्थान और मध्यभारत का बहुत सा भाग सम्मिलित था। जब शेरशाह सूरी पंजाब में मुगलों का पीछा कर रहा था तो उसने गक्खड़ (खोखर जाट) प्रदेश में रहने वाली अनेक युद्धप्रेमी और स्वतन्त्र जातियों को अधीन करने का प्रयास किया। (भारत का इतिहास का इतिहास, पृ० 179, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी)।
बाबर की मृत्यु तथा शेरशाह सूरी के दिल्ली के राजसिंहासन पर बैठने के बीच के समय में कोट कोबूलाह के एक मुख्य शूरवीर लूटेरा फथखाँ जाट ने लखी जंगल के सारे प्रदेश का विनाश कर दिया तथा लाहौर से पानीपत के मध्य प्रधान सड़क पर ऊधम मचा दिया। शेरशाह सूरी के पंजाब के राज्यपाल हैबतखाँ नियाजी ने घोर युद्ध करके उसको कुचल दिया (जाट इतिहास, पृ० 17, लेखक कालिकारंजन कानूनगो)।
मुगल सम्राट् जलालुद्दीन अकबर और जाट
(सन् 1545 से 1605 ई०)
सन् 1545 ई० में शेरशाह सूरी की मृत्यु हो गई। इसके बाद अफ़गान सरदारों में आपसी झगड़े होने लगे। बंगाल, मालवा तथा पंजाब में विद्रोह खड़े हो गये। पंजाब में सिकन्दरशाह स्वतन्त्र हो गया। ऐसी परिस्थिति में हुमायूं को भारत लौटने का अवसर मिला। उसने बैरमखां की सहायता से सरहिन्द तथा माछीवाड़ा के युद्धों में अफ़गानों को परास्त करके सन् 1555 ई० में पुनः दिल्ली और आगरा पर अधिकार कर लिया। सन् 1556 ई० में हुमायूं की मृत्यु हो गई। उसके बाद उसका पुत्र अकबर सन् 1556 ई० में राजसिंहासन पर बैठा।
अकबर के साथ जाटों की कुछ घटनाओं का संक्षिप्त ब्यौरा निम्न प्रकार से है -
(1) काक या काकराणा जाटों की किला साहनपुर नामक रियासत जिला बिजनौर में थी। इस रियासत के काकराणा जाटों ने सम्राट् अकबर की सेना में भरती होकर युद्धों में बड़ी वीरता दिखाई और अपनी ‘राणा’ की उपाधि का यथार्थ प्रमाण देकर मुगल सेना को चकित कर
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-583
दिया। इसका वर्णन आइने अकबरी में है। (देखो, जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, काकुस्थ या काकवंश प्रकरण)।
मुगल सम्राटों के समय राजपूतों को बढ़ोती दी जाती थी। इसलिए जाट, गुर्जर, अहीर इत्यादि वीर कुलों के जवानों को मुग़ल सेना में भर्ती होने के लिए अपने को राजपूत लिखवाना पड़ता था। अकबर की सेना में इन सब वीर जातियों के सैनिक थे किन्तु उनको राजपूत लिखा जाता था। (इतिहास सर्वखाप पंचायत (बालायान खाप) पहला भाग, पृ० 110, लेखक चौ० कबूलसिंह मन्त्री सर्वखाप पंचायत)।
(2) जाटवीरों द्वारा महान् सम्राट् अकबर के आदेश को ठुकरा देने का अद्वितीय उदाहरण -
फिरोजपुर जिले के एक दोलाकाँगड़ा नामक गांव में धारीवाल गोत्र का चौधरी मीरमत्ता रहता था। उसकी पुत्री धर्मकौर बड़ी बलवान् एवं सुन्दर थी। एक बार सम्राट् अकबर दौरे पर उस मीरमत्ता के गाँव के समीप से जा रहा था। उसने देखा कि मीरमत्ता की उस सुन्दर पुत्री ने पानी का घड़ा सिर पर रक्खे हुए, अपने भागते हुए शक्तिशाली बछड़े को उसके रस्से पर पैर रख कर उस समय तक रोके रक्खा जब तक कि उसके पिता मीरमत्ता ने आकर उस रस्से को न पकड़ लिया। अकबर यह दृश्य देखकर चकित रह गया और उस लड़की के बल एवं सुन्दरता को देखकर मोहित हो गया। अकबर ने मीरमत्ता को उसकी इस पुत्री का अपने साथ विवाह करने का आदेश दे दिया। मीरमत्ता ने जाट बिरादरी से सलाह लेने का समय माँगा। इस पर विचार करने के लिए 35 जाटवंशीय खापों की पंचायत एकत्रित की गई जिसके अध्यक्ष सिन्धु जाट गोत्र के चंगा चौधरी थे। पंचायत ने सर्वसम्मति से प्रस्ताव पास किया कि “अकबर को लड़की नहीं दी जायेगी। यदि वह अपना सैनिक बल लगाकर लड़की को ले जाने का यत्न करेगा तो उसके साथ युद्ध करके अपने धर्म की रक्षा हेतु मर मिटेंगे।” यह प्रस्ताव लेकर चँगा और मीरमत्ता अकबर के दरबार में पहुंचे। सिन्धु जाट चँगा ने निडरता एवं साहस से पंचायत का निर्णय अकबर को सुनाया। अकबर ने चँगा जाट को चौधरी की उपाधि देकर आपसी मेलजोल स्थापित कर लिया। देखो जाटवीरों का इतिहास, तृतीय अध्याय, सिन्धु गोत्र प्रकरण)।
- नोट
- जाटों ने अपनी किसी भी लड़की का डोला मुगल बादशाहों, मुसलमानों तथा किसी अन्य जाति के पुरुष को नहीं दिया। यह जाटों की गौरवशाली विशेषता है जिससे संसार में इनका मस्तक सदा उँचा रहता आया है। इनके ऐसे उदाहरणों से इतिहास भरे पड़े हैं। यदि किसी ईर्ष्यालु लेखक ने यह बात लिखी भी है कि जाटों ने अपनी लड़कियों के डोले किसी अन्य धर्मी या अन्य जाति के लोगों को दिये, तो यह बात बेबुनियाद, मनगढंत, प्रमाणशून्य और अमाननीय है। (लेखक)
(3) वीरांगना रानाबाई - सम्राट् अकबर के शासनकाल में वीरांगना रानाबाई थी, जिसका जन्म संवत् 1600 (सन् 1543 ई०) में जोधपुर राज्यान्तर्गत परबतसर परगने में हरनामा (हरनावा) गांव के चौ० जालमसिंह धाना गोत्र के जाट के घर हुआ था। वह हरिभक्त थी। ईश्वर-सेवा और गौ-सेवा ही उसके लिए आनन्ददायक थी। उसने अपनी भीष्म प्रतिज्ञा आजीवन ब्रह्मचारिणी रहने की कर ली थी, इसलिए उसका विवाह नहीं हुआ। हरनामा गांव के उत्तर में 2 कोस की दूरी पर गाछोलाव नामक विशाल तालाब के पास दिल्ली के सम्राट् अकबर का एक मुसलमान हाकिम 500
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घुड़सवारों के साथ रहता था। वह हाकिम बड़ा अन्यायी तथा व्यभिचारी, दुष्ट प्रकृति का था। उसने रानाबाई के यौवन, रंग-रूप की प्रशंसा सुनकर रानाबाई से अपना विवाह करने की ठान ली। उसने चौ० जालमसिंह को अपने पास बुलाकर कहा कि “तुम अपनी बेटी रानाबाई को मुझे दे दो। मैं तुम्हें मुंहमांगा इनाम दूंगा।” चौ० जालमसिंह ने उस हाकिम को फ़टकारकर कहा कि - “मेरी लड़की किसी हिन्दू से ही विवाह नहीं करती तो मुसलमान के साथ विवाह करने का तो सवाल ही नहीं उठता।” हाकिम ने जालमसिंह को कैद कर लिया और स्वयं सेना लेकर रानाबाई को जबरदस्ती से लाने के लिए हरनामा गांव में पहुंचा और जालमसिंह का घर घेर लिया। जब वह रानाबाई को पकड़ने के लिए उसके निकट गया तो वीरांगना रानाबाई अपनी तलवार लेकर उस म्लेच्छ पर सिंहनी की तरह झपटी और एक ही झटके से उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। बाल ब्रह्मचारिणी रानाबाई सिंहनी की तरह गर्जना करती हुई मुग़ल सेना में घुस गई और अपनी तलवार से गाजर,मूली की तरह म्लेच्छों के सिर काट दिये। इस अकेली ने 500 मुगलों से युद्ध करके अधिकतर को मौत के घाट उतार दिया। थोड़े से ही भागकर अपने प्राण बचा सके। जाटों ने उनका पीछा किया और चौधरी जालमसिंह को कैद से छुड़ा लिया गया। वीरांगना रानाबाई की इस अद्वितीय वीरता की कीर्ति सारे देश में फैल गई। वीरांगना रानाबाई के स्वर्गवास होने पर उसकी यादगार के लिए उसके भक्तों ने उसका एक स्मारक बना दिया।
आधार लेख - (1) जाट बन्धु मासिक समाचार पत्र आगरा, मुद्रक, प्रकाशक किशनसिंह फौजदार, अंक जुलाई, अगस्त, सितम्बर 1986, सती शिरोमणि रानाबाई, लेखक चौ० किशनाराम आर्य। (2) जाट इतिहास, पृ० 606, लेखक ठा० देशराज
(4) महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी के युद्ध में जाटों की सहायता -
सन् 1572 ई० में महाराणा प्रताप मेवाड़ के सिंहासन पर बैठा और जीवनभर मुगलों से लड़ता रहा। यह षष्ठ अध्याय में राजस्थान में मौर्य-मौर जाटराज्य प्रकरण में लिख दिया गया है कि बाप्पा रावल गुहिल गोत्र के जाट थे जो चित्तौड़ के शासक बने। राणा प्रताप उसी के वंशज थे। राणा प्रताप एक सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति था जो अपनी मातृभूमि की रक्षा के लिये अकबर जैसे शक्तिशाली सम्राट् के विरुद्ध वीरतापूर्वक संघर्ष करता रहा।
उसने अन्य राजपूत राजाओं की भांति अपनी बहन-बेटी का डोला अकबर को नहीं दिया एवं उसके आगे अपना सिर नहीं झुकाया। राणा प्रताप में देशभक्ति, प्रचण्ड साहस और दृढ़ संकल्प कूट-कूट कर भरा था। राजा मानसिंह के कहने पर अकबर ने राजा मानसिंह, आसफ़ खां और सलीम (जहांगीर) के नेतृत्व में एक विशाल सेना राणा प्रताप को पराजित करने के लिए मेवाड़ में भेजी। शत्रु का सामना करने के लिये राणा प्रताप ने गोगण्डा नगर के निकट हल्दीघाटी में अपनी सेना का मोर्चा लगाया। उस समय राणा प्रताप की सेना में जो जाटवीर योद्धा शामिल थे, उनका ब्यौरा निम्नलिखित है:-
- 1). सन् 1375 ई० में एक तंवर वंशी जाट वीरसिंह ने दिल्ली के सुलतान फिरोजशाह तुग़लक की सेवा में रहते हुये भिण्ड (ग्वालियर) पर अपना अधिकार कर लिया। उसी के वंशज विक्रमादित्य तंवर ने अपने पुत्र शालवाहन, भवानी, प्रताप के नेतृत्व में अपनी सेना को महाराणा प्रताप के पक्ष में वीरभूमि हल्दीघाटी के घोर युद्ध में लड़ने के लिए सम्मिलित किया। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 298, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।
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- 2). हल्दी घाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के पक्ष में 20,000 जाट शामिल थे। (सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
18 जून 1576 ई० को दोनों ओर की सेनाओं का घमासान युद्ध हल्दीघाटी की वीरभूमि पर हुआ। मुगल सेना जिसमें मुग़ल एवं राजपूत सैनिक थे, राणा प्रताप की सेना से कई गुणा अधिक थी जिसके पास आधुनिक शस्त्र थे। फिर भी राणा प्रताप की सेना ने शत्रु सेना का बड़ी वीरता एवं साहस से मुकाबिला किया और शत्रु के असंख्य सैनिकों को मौत के घाट उतारा। राणा प्रताप के भी अधिकतर सैनिक वीरगति को प्राप्त हुए।
राणा प्रताप को विवश होकर युद्धक्षेत्र छोड़ना पड़ा। उसके पीछे दो मुग़ल सेनापति दौड़े। कुछ दूरी पर जाकर प्रताप का घायल चेतक नामक घोड़ा मर गया। राणा प्रताप का भाई शक्तिसिंह जो कि अकबर की सेना के साथ राणा प्रताप के विरुद्ध इस युद्ध में लड़ रहा था, वह भी उन दोनों मुगलों के पीछे दौड़ रहा था। शक्तिसिंह को भाई का प्रेम याद आया तथा उसने दोनों मुगलों का सिर काट दिया और एक घोड़ा प्रताप को दे दिया, इस तरह उसने भाई को बचा लिया। अब दोनों भाइयों ने मिलकर मुग़ल सत्ता के विरुद्ध संघर्ष आरम्भ कर दिये। राणा प्रताप की सन् 1597 ई० में मृत्यु होने तक उसने अपनी मातृभूमि मेवाड़ के अधिकांश भाग पर फिर से अपना अधिकार स्थापित कर लिया था।
(5) सम्राट् अकबर और हरयाणा सर्वखाप पंचायत - संवत् 1631 (सन् 1574 ई०) में सिसौली गांव के राव गंडेराय की अध्यक्षता में सर्वखाप पंचायत की बैठक शोरम जि० मुजफ्फरनगर में हुई जिसमें 90,000 लोग उपस्थित थे। इनमें मुगल शासन के आगमन से देश में राजनीतिक स्थिति बदल जाने पर विचार किया गया। उस सम्मेलन में सर्वसम्मति से ये प्रस्ताव पारित किये गये:-
- प्रत्येक खाप अपना संगठन बनाये और अपना कारोबार स्वयं चलाए।
- दूसरी जातियां भी अपने खाप के क्षेत्र में अपना संगठन बनायें तथा अपनी जाति के कार्य स्वयं सम्भालें।
- सब खापों के सामान्य लाभ की बातों के लिये सर्वखाप पंचायत से विचार विमर्श किया जाए।
- प्रत्येक खाप अपनी स्वीकृति के लिए शाही दरबार को पूछे।
- खाप के प्रधान या नेता अपनी खाप के गांव से स्वयं राजस्व इकट्ठा करें।
- खाप पंचायतें स्वयं कृषि कर लगाएं और वे उपज के अनुसार इस कर को कम या अधिक करने में स्वतन्त्र हैं।
- खाप के क्षेत्र में उसी खाप के लोग प्रबन्धकर्त्ता नियुक्त किये जायें।
- खाप सभा अपने जातीय कार्य को स्वयं सुलझाने में स्वतन्त्र होनी चाहिए।
इस प्रस्ताव की अधिकतर बातें शाही दरबार ने मान लीं।
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अकबर बादशाह ने यह घोषणा कर दी कि सभी धर्म और संप्रदाय समान समझे जायेंगे और खाप पंचायत स्वतंत्र होगी। (दस्तावेज-48, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)।
अकबर तथा अन्य कई मुग़ल बादशाहों ने सर्वखाप पंचायत को शाही फरमान (आज्ञापत्र) समय-समय पर भेजे हैं जिनके मूल लेख फारसी भाषा में लिखित एवं बादशाहों की मुहर लगाई हुई है, जो सर्वखाप पंचायत रिकार्ड, कार्यालय शोरम गांव में विद्यमान हैं। उनका सारांश हिन्दी भाषा में लिखा जाता है।
- (1) 8 सब्बाल सन् 983 हिजरी (सन् 1574 ई०) को सम्राट् अकबर ने एक शाही फरमान चौ० पच्चुमल मन्त्री सर्वखाप पंचायत गांव शोरम जि० मुजफ्फरनगर को भेजा जिसमें लिखा है कि “सम्राट् अकबर हिन्दुओं पर से जजिया एवं अन्य कर माफ करता है तथा हिन्दुओं को धार्मिक स्वतन्त्रता दी जाती है।” मुहर शहंशाह अकबर हिन्द।
- (2) 8 रमजान सन् 987 हिजरी (सन् 1578 ई०) को सम्राट् अकबर ने दूसरा शाही फरमान चौ० पच्चुमल मन्त्री सर्वखाप पंचायत को भेजा जिसमें लिखा है कि “दोआब (गंगा यमुना के बीच) की सभी जातियों तथा जाटों की खापों को उनकी प्राचीन रीति एवं सिद्धान्तों के अनुसार सामाजिक सम्मेलन करने की स्वतंत्रता शहंशाह अकबर की ओर से दी जाती है जो कि उसके राज्य में से हैं जैसे - (1) बालियान जाट खाप (2) सलकलान जाट खाप (3) कलसलान गुर्जर खाप (4) दहिया जाट खाप (5) गठवाला जाट खाप । ये सब अधिकार उन सब खापों को भी होंगे जो एक समुदाय में एकत्रित हैं तथा एक दूसरे के साथ मैत्री से रह रहे हैं।” मुहर शहंशाह अकबर हिन्द एवं वजीर माल राजा टोडरमल।
- नोट - यह शाही फरमान चौ० लाडसिंह गांव सिसौली के लिये भी था।
- (3) 11 रमजान 989 हिजरी (सन् 1580 ई०) को सम्राट् अकबर ने तीसरा शाही फरमान चौ० पच्चुमल मन्त्री सर्वखाप पंचायत को भेजा जिसमें लिखा है कि “मेरे शासन से पहले वाले मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुस्तान की जिन खास-खास जातियों की सभाओं पर रोक एवं विशेष कर (टैक्स) लगा रखे थे, वे सब माफ किए जाते हैं।”
- मेरी अनुमति से मेरे साम्राज्य में सभी जातियां अपनी साम्प्रदायिक सभायें करने में स्वतंत्र होंगी। मेरी नजरों में हिन्दू-मुसलमान सब समान हैं। अतः मैं इन सभाओं को स्वतन्त्रता से अपने कार्य करने की आज्ञा देता हूँ। इन सबको जजिया एवं अन्य शाही करों से मुक्त किया जाता है।” मुहर शहंशाह अकबर हिन्द एवं वजीर आजम राजा अबुलफजल तथा राजा टोडरमल।
सम्राट् अकबर से पहले मुसलमान बादशाहों ने हिन्दुओं पर जो जजिया लगा रखा था, जिसके लिये हरयाणा सर्वखाप पंचायत उन बादशाहों से शताब्दियों से युद्ध करती रही थी, अकबर ने इस जजिया से हिन्दुओं को मुक्त कर दिया, यह सर्वखाप पंचायत की विजय हुई। इस प्रकार से धार्मिक श्रद्धा के बचाव एवं रक्षा के लिए राजपत्र (Charter) बन गया जो कि बाद तक अनेक बार माना गया। अकबर ने सर्वखाप पंचायत को बड़ी बढ़ोतरी दी।
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सम्राट् जहांगीर और जाट
(सन् 1605-1627 ई०)
सम्राट् जहाँगीर ने 3, रबी-उल-अव्वल, सन् 1030 हिजरी (सन् 1621 ई०) को सर्वखाप पंचायत के मन्त्री भानीचन्द गांव शोरम को दावत (भोज) देने का एक शाही फरमान भेजा जिसमें लिखा है कि “शहंशाह जहांगीर हर जाति के सरदारों को दावत देते हैं जिसमें आप जाटान बालियान चौ० भानीचन्द मन्त्री सर्वखाप पंचायत गांव शोरम स्वयं आकर शरीक होवें और दरबार से तोहफे (उपहार) प्राप्त करें।” मुहर शहंशाह जहांगीर हिन्द।
सम्राट् शाहजहां और जाट
(सन् 1627-1658 ई०)
सम्राट् शाहजहां ने 8 रमजान उलमुबारिक 1059 हिजरी (सन् 1650 ई०) को सर्वखाप पंचायत के मन्त्री चौ० जादोंराय गांव शोरम को एक शाही फरमान भेजा जिसमें लिखा कि “मुलक मौज्जम शहंशाह शाहजहां, चौ० जादोंराय गांव शोरम मंत्री सर्वखाप पंचायत के प्रति वचन (वायदा) देते हैं कि मेरी तरफ से सब जातियों के साथ मेहरबानी का सलूक रहेगा तथा सबको बराबर आजादी रहेगी।” मुहर शहंशाह शाहजहां हिन्द।
- नोट - ब्रज मण्डल में सम्राट् शाहजहां के विरुद्ध जाटों का युद्ध एवं क्रान्ति के विषय में अष्टम अध्याय, भरतपुर जाटराज्य की स्थापना, प्रकरण में लिखा जायेगा।
सम्राट् औरंगजेब और जाट
(सन् 1658 से 1707 ई०)
औरंगजेब के शासनकाल में संवत् 1718 (सन् 1661 ई०) को छपरौली गांव जिला मेरठ में सर्वखाप पंचायत की बैठक हुई जिसमें भिन्न-भिन्न खापों के 40,000 लोगों ने भाग लिया। इस बैठक में औरंगजेब द्वारा हिन्दुओं पर फिर से लगाया गया जजिया एवं खापों और सर्वखाप पंचायत के कार्य करने पर पाबन्दी और उसकी साम्प्रदायिक हठनीतियों की खुले तौर पर आलोचना तथा कड़ा विरोध किया गया। बैठक में यह भी निर्णय लिया गया कि औरंगजेब के दरबार में जाकर उसके इन आदेशों तथा साम्प्रदायिक नीतियों के प्रति विरोध प्रकट किया जाये और कहा जाये कि शाही दरबार अपनी इस कूटनीति को बदले।
ऐसा करने के लिए पंचायत के 21 पंच औरंगजेब के दरबार में गये जिनको औरंगजेब ने बन्दी बना लिया और सबको मौत के घाट उतरवा दिया दस्तावेज 49 सर्वखाप रिकार्ड)।
इस घटना के विषय में हस्तलिखित अप्रकाशित सर्वखाप पंचायत के इतिहास से श्री जगदेवसिंह शास्त्री सिद्धान्ती ने एक लेख दिया है जो सुधारक बलिदान विशेषांक, लेखक श्री भगवान् देव आचार्य, पृ० 152-154 पर निम्न प्रकार से लिखा है -
- “रामगढ़ के युद्ध में सर्वखाप पंचायत के वीर सैनिकों ने औरंगजेब के विरुद्ध बादशाह शाहजहाँ और दारा का साथ दिया था। औरंगजेब ने धोखा देकर सर्वखाप पंचायत के कुछ नेताओं को देहली बुलाया। उनको दिल्ली दरबार में कपट जाल से पकड़कर बन्दी बना लिया गया। इन वीरों के नाम यह हैं -
- 1. राव हरिराय 2. धूमसिंह 3. फलसिंह 4. सीसराम 5. हरदेवसिंह 6. रामलाल 7. बलीराम 8. लालचन्द 9. हरिपाल 10. नवलसिंह 11. गंगाराम 12. चन्दूराम
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- 13. हरसहाय 14. नेतराम 15. हरबंश 16. मनसुख 17. मूलचन्द 18. हरदेवा 19. रामनारायण 20. भाला 21. हरद्वारी। इनमें 1 ब्राह्मण, 1 वैश्य, 1 त्यागी, 1 गुर्जर. 1 सैनी, 1 रवा, 1 रोड 3 राजपूत और 11 जाट थे।
- ये सब बड़े वीर योद्धा और शिक्षित नेता थे। क्योंकि इनको शुभ निमन्त्रण के नाम पर बुलाया गया था, अतः इनकी देवियां तथा कुछ व्यक्ति भी इनके साथ देहली पहुंचे थे। उस समय इन नेताओं के मुखिया राव हरिराय और औरंगजेब की बातों का सारांश निम्न प्रकार से है –
- औरंगजेब - तुम बागी हो, तुमने द्रोह किया है। तुमने दारा का साथ दिया था।
- राव हरिराय - आपकी बात मिथ्या है। निमन्त्रण देकर समझौते के लिए बुलाया और धोखा देकर पकड़वा लिया, अब हमें बागी कहते हो? हमने देश के बादशाह का साथ दिया था। दारा उसके साथ था।
- औरंगजेब - इस्लाम कबूल करो या मौत?
- राव हरिराय - इस्लाम में क्या खूबी है?
- औरंगजेब - इस्लाम खुदा का दीन (धर्म) है।
- राव हरिराय - क्या खुदा भी गलती करता है, जो अपने दीन में सबको पैदा नहीं करता? खुदा के दीन के खिलाफ लोगों के घर में सन्तान क्यों होती है? यह दीन खुदा का नहीं है। यह तेरा दीन है।
- औरंगजेब - मैं खुदा और पैगम्बर के हुक्म को मानता हूं, दूसरे को नहीं। कुरानशरीफ खुदा की किताब है, वह सच्ची है और सब झूठे हैं।
- राव हरिराय - मैंने कुरान को कई बार पढ़ा है। उसमें यह कहीं नहीं लिखा कि बाप को कैद कर लो, भाई-भतीजों को मार दो और जनता पर अत्याचार करो। क्या खुदा और रसूक का ऐसा हुक्म है? जनता की दृष्टि में तू जालिम है। यदि कुछ साहस है तो तलवार पकड़ और अपने 21 सैनिकों को बुला ले और उन्हीं में तू शामिल हो जा। हम भी 21 हैं। बाहर निकलकर मुकाबला कर, कुछ ही समय में नतीजा मालूम पड़ जाएगा।
- औरंगजेब - तुम मेरे पिंजड़े में बन्द हो। निकलने के दो ही रास्ते हैं - इस्लाम और मौत एक को मानना ही पड़ेगा।
- राव हरिराय - आत्मा अजर, अमर, अविनाशी है। यह शरीर हटा, दूसरा तैयार है। हम अपने धर्म को छोड़कर इस्लाम धर्मी कभी नहीं बनेंगे। तुझे जो करना है, कर। तेरे जीवन में तेरा बेड़ा गरक़ हो जाएगा।
- औरंगजेब के आदेश पर उसी समय उन 21 वीरों को चान्दनी चौक ले जाया गया और उनको फांसी दे दी गई। वे वीर सं० 1727 वि० कार्तिक कृष्णा दशमी को मातृभूमि के लिए अपने प्राणों का बलिदान दे गए। यह कुकृत्य दिन के 10 बजे किया गया।
- राजा जयसिंह के बहुत कहने-सुनने पर मृतक शरीर पंचायत के लोगों को दे दिए गये। दिन
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- के एक बजे इन वीरों की वीरांगनाओं ने भी अपने-अपने पतियों की जलती चिताओं में परिक्रमापूर्वक अपने प्राणों की बलि चढ़ा दी और सती हो गईं। देहली का राजघाट आज भी उन वीरों की धधकती चिताओं की साक्षी दे रहा है।
- राव हरिराय का बालकपन का साथी नजफअली सूफी 33 वर्षीय ब्रह्मचारी था। वह पंचायत का बड़ा पक्षपाती था। उसने औरंगजेब को बहुत कठोर शब्द कहे और जालिम ठहराया। औरंगजेब ने इस फकीर को भी 100 कोड़े लगवाये और मैदान में फिकवा दिया। फकीर जब होश में आया तब पूछा “मेरा प्यारा मित्र हरिराय कहां है”? पता चलने पर फकीर नजफअली हरिराय की चिता के पास गया। उसने मित्र की चिता की 7 बार परिक्रमा की और जलती चिता में कूदकर अपने मित्र के साथ न्याय की रक्षा के लिए अन्याय के विरुद्ध अपने प्राणों का बलिदान दे दिया।”
औरंगजेब भारतवर्ष में एक इस्लामी राज्य स्थापित करना चाहता था। वह यहां पर मूर्तिपूजा को सहन नहीं कर सकता था। परिणामस्वरूप उसने हिन्दू धर्म के प्रति न केवल असहिष्णुता की, अपितु अत्याचार की नीति अपनाई। ऐसी नीति उसके और उसके वंश के लिये घातक सिद्ध हुई। सन् 1669 ई० में उसने बहुत से मन्दिर जैसे - गुजरात का सोमनाथ मन्दिर, बनारस का विश्वनाथ मन्दिर तथा मथुरा का केशवदेव मन्दिर गिरवा दिये।
हिन्दुओं पर जजिया एवं 5% चुंगी कर लगा दिए। धर्म परिवर्तन को प्रोत्साहन दिया जाने लगा। जो हिन्दू मुसलमान बन जाते उन्हें पुरस्कार और ऊंची सरकारी नौकरियां दी जाती थीं। उसने हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाना आरम्भ कर दिया। सन् 1668 में उसने हिन्दू मेले बन्द करवा दिए। हिन्दुओं पर बड़े-बड़े अत्याचार होने लगे।
औरंगजेब के इन अत्याचारों से हिन्दू जाति में सामूहिक रूप से विद्रोह की ज्वाला प्रज्वलित होने लगी।
(1) मथुरा प्रदेश के जाटों ने गोकुल जाट के नेतृत्व में विद्रोह कर दिया। इसके बाद आगरा, मथुरा एवं वृन्दावन के जाटों ने मुगल शासन के विरुद्ध युद्ध जारी रखा जिसके कारण भरतपुर जाट राज्य की स्थापना हुई। इसका पूरा वर्णन आगे अष्टम अध्याय में लिखा जायेगा।
(2) सतनामी (साध जाट) विद्रोह - दूसरा प्रबल विद्रोह सन् 1672 ई० में सतनामियों ने नारनौल क्षेत्र में किया। सतनामी शब्द का अर्थ है ईश्वर के सतनाम में विश्वास करने वाला। सतनामी एक प्रतिष्ठित और शक्तिशाली संघ था (जिनको साध जाट भी कहते हैं)। यदि कोई इनको शक्ति के बल पर दबाना चाहता तो ये लोग इसे सहन नहीं कर सकते थे। इन लोगों का प्रधान केन्द्र नारनौल (हरयाणा प्रदेश) और मेवात प्रदेश था।
सन् 1672 ई० में एक शाही सिपाही ने एक सतनामी किसान का सिर तोड़ दिया जिससे सारा सतनामी संघ बिगड़ गया। उन्होंने उस शाही सिपाही को मृतप्राय करके छोड़ दिया। जब स्थानीय शिकदार (हाकिम) ने अपराधी को कैद करना चाहा तो सतनामी इकट्ठे हुए और उन्होंने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। नारनौल का फौजदार अपनी सेना लेकर वहां पहुंचा। परन्तु युद्ध में उनकी हार हुई और उसने युद्धक्षेत्र से भागकर अपनी जान बचाई।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-590
जब औरंगजेब को इसकी सूचना मिली, तो उसने एक के बाद एक करके कई शाही सेनायें इस विद्रोह को दबाने के लिए भेजीं। परन्तु सतनामियों ने इन सब सेनाओं को करारी हार दी।
मुगलों पर सतनामियों का रौब जम गया। औरंगजेब ने अन्त में मुगलों की एक शक्तिशाली सेना भेजी जिसका सतनामियों के साथ भयंकर युद्ध हुआ जिसमें शाही सेना विजयी हुई। लगभग 2,000 सतनामी मारे गये और बाकी भाग खड़े हुए। विद्रोह बड़ी क्रूरता से दबा दिया गया1।
आज भी जाटों में साध या सतनामी कहलाने वालों की संख्या बहुत है। हरयाणा प्रान्त के कई गांवों में ये लोग पाए जाते हैं।
उत्तरप्रदेश के फरुखाबाद जिले में इन लोगों की बड़ी संख्या है।
(3) राजपूतों से युद्ध - औरंगजेब ने जोधपुर के राजा जसवन्तसिंह को जमरूद (पैशावर से पश्चिम में) का फौजदार नियुक्त किया था, जिसका 10 दिसम्बर सन् 1678 ई० को स्वर्गवास हो गया। इस घटना से औरंगजेब को बड़ी प्रसन्नता हुई। औरंगजेब जोधपुर राज्य को अपने अधिकार में लेना चाहता था परन्तु जोधपुर के प्रसिद्ध सैनिक सरदार दुर्गादास राठौर ने वीरता के साथ एक लम्बे समय तक मुगलों का सामना किया। दुर्गादास का राजपूतों के इतिहास में एक विशिष्ट स्थान है। इसमें असाधारण साहस और मारवाड़ वंश के प्रति असीम भक्ति थी।
उसने जसवन्तसिंह की रानी एवं बालक पुत्र को बड़ी चतुराई एवं साहस से औरंगजेब की कैद से छुड़ाकर जुलाई 1679 ई० को जोधपुर पहुंचा दिया। उस राजकुमार का नाम अजीतसिंह था जिसको राजा मानकर दुर्गादास ने मुगलों से संघर्ष जारी रखा। रानी ने, जो मेवाड़ की राजकुमारी थी, वहां राणा राजसिंह से सहायता मांगी। राणा ने अनाथ राजकुमार को अपनी शरण में ले लिया। मुगलों के जोधपुर पर आक्रमण और अत्याचार के कारण राठौर और मेवाड़ के सिसोदियों ने परस्पर मिलकर एक संयुक्त मोर्चा स्थापित किया। औरंगजेब ने मेवाड़ पर एक बड़ी सेना के साथ आक्रमण किया। राजपूतों के विरुद्ध युद्ध में औरंगजेब को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। उसके साम्राज्य की प्रतिष्ठा को धक्का लगा2।
(4) सिक्खों से विद्रोह - सिक्ख धर्म के संस्थापक गुरु नानक जी का जन्म लाहौर से कुछ मील दूर तलवण्डी नामक गांव में सन् 1469 ई० में हुआ। उन्होंने सत्य के ज्ञान के लिए धर्म-यात्रा और धर्म-प्रचारक का जीवन अपनाया। वे सभी धर्मों को समान समझते थे। उनका कथन था कि मुक्ति का मार्ग ईश्वर की पूरा और अच्छे कर्मों द्वारा है। उनकी मृत्यु के पश्चात् गुरु अंगद, गुरु अमरदास और गुरु रामदास ने उनकी शिक्षाओं का प्रचार किया। चौथे गुरु रामदास अकबर से मिले थे। उनसे वार्तालाप करके बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ और उसने पंजाब में कुछ भूमि दान के रूप में दे दी थी, जिस पर उन्होंने अमृत सर अथवा अमृत के तालाब का निर्माण करवाया, जो बाद में सिक्खों का मुख्य धार्मिक केन्द्र बना। पांचवें गुरु अर्जुनदेव सन् 1581 ई० में गद्दी पर बैठे। उन्होंने ग्रन्थ साहिब का संपादन किया और सिक्खों को निश्चित आदर्शवाली एक जाति के रूप में परिणत कर दिया। खुसरो का पक्ष लेने के कारण जहांगीर उनसे अप्रसन्न हो गया। वे बन्दीगृह में डाल दिये गये,
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-591
जहाँ घोर कष्ट देकर सन् 1606 ई० में उनके जीवन का अन्त कर दिया गया। गुरु अर्जुनदेव की हत्या से सिक्ख बड़े कुपित हुए। अपने नवीन गुरु हरगोविन्द (सन् 1606 - 1645 ई०) के नेतृत्व में सिक्खों ने अपने को एक सैनिक संघ के रूप में परिवर्तित कर दिया और शस्त्र धारण की नीति अपनाई। सातवें और आठवें गुरु हरराय और हरकृष्ण के काल में कोई विशेष घटना नहीं हुई। नवें गुरु तेगबहादुर का सन् 1675 ई० में औरंगजेब ने दिल्ली में वध करवा दिया। इस हत्या का कारण यह था कि गुरु तेगबहादुर ने औरंगजेब की हिन्दू-धर्म पर आघात और मन्दिरों को अपवित्र करने वाली नीति का विरोध किया था। बादशाह ने गुरु को दिल्ली बुलवाया और कारागार में डाल दिया। उनसे इस्लाम-धर्म स्वीकार करने के लिए कहा गया, किन्तु उन्होंने ऐसा करने से साफ इन्कार कर दिया तो उनका सिर काट दिया गया। सिक्खों में अब तक कहावत है कि गुरु ने सिर दिया, सार न दिया।
इस घटना से सिक्ख मुगलों के विरुद्ध भड़क उठे और गुरु तेगबहादुर के पुत्र दसवें और अन्तिम गुरु गोविन्दसिंह के नेतृत्व में एक लम्बे समय तक मुगलों का दृढ़ता पूर्वक मुकाबला किया। उन्होंने सिक्खों को सैनिक सांचे में ढालने के लिए सन् 1699 ई० में ‘खालसा’ का निर्माण किया। उन्होंने अपने अनुयायियों पर पांच कक्के अर्थात् केश, कंघा, कड़ा, कच्छा और कृपाण धारण करने का आदेश दिया। कई स्थानों पर सिक्खों और मुग़ल सेना में युद्ध हुए। गुरुजी के दो पुत्र युद्ध में मारे गये और दो फतेहसिंह एवं जोरावरसिंह नामक पुत्र सरहिन्द के फ़ौजदार के हाथों पड़ गये। फ़ौजदार ने उन्हें मुसलमान बनने पर बड़ा दबाव डाला परन्तु उन वीरों ने वीरता से उत्तर दिया कि हम अपना धर्म कभी नहीं छोड़ेंगे। इस पर मुगल फौजदार ने उन्हें बड़ी निर्दयता के साथ दीवार में चिनवा दिया। परन्तु सिक्खों ने बड़े साहस और संकल्प के साथ औरंगजेब की मृत्यु तक संघर्ष जारी रखा। गुरु गोबिन्दसिंह हारकर दक्षिण में चले गये। वे नान्देड़ (महाराष्ट्र) में रहने लगे। उनके एक सेवक पठान ने उन्हें वहां सन् 1708 ई० में छुरा घोंपकर मार डाला। गुरु गोविन्दसिंह बड़े दूरदर्शी थे। वे जानते थे कि गद्दी के लिए सिक्खों में संघर्ष अवश्य होगा। अतः उन्होंने गुरु की गद्दी तोड़ दी और सेना के नेतृत्व के लिए बन्दा को वहां से पंजाब को भेजा3।
बन्दा बैरागी के बलिदान के पश्चात् पंजाब में जाट सिक्खों के राज्य के विषय में आगे अलग अध्याय में लिखा जायेगा।
(5) दक्षिण में मराठा शक्ति का उदय - औरंगजेब की हिन्दू विरोधी नीति के कारण मराठा जाति ने वीर शिवाजी (सन् 1627-1680 ई०) के नेतृत्व में स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ कर दिया। मराठा लोग औरंगजेब की मृत्यु तक संघर्ष करते रहे। मुगल सम्राट् ने उनकी शक्ति को कुचलने के लिए अनेक युद्ध किए परन्तु मराठों की गुरिल्ला युद्ध-शैली, देशप्रेम और भौगोलिक परिस्थितियों के सामने औरंगजेब को कोई सफलता न मिली। इतने लम्बे संघर्ष ने राज्य को खोखला कर दिया और मुगल राज्य की सत्ता को भारी धक्का लगा। छत्रपति शिवाजी दक्षिण भारत में एक स्वतन्त्र राज्य स्थापित करने में सफल हुए। उनके राज्य में पुर्तगाली प्रदेश (दमन, सालसेट, बसीन) को
- 1, 2, 3. मध्यकालीन भारत का संक्षिप्त इतिहास, पृ० 466-469 एवं 464-466, लेखक ईश्वरीप्रसाद; भारत का इतिहास पृ० 202-204, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड भिवानी।
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छोड़कर, उत्तर में धर्मपुर से लेकर दक्षिण में कारवार तक समूचा किनारा था। पूर्व में राज्य की सीमा नासिक से कोल्हापुर तक तथा बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी तक थी। इसके अतिरिक्त आधुनिक मैसूर तथा तमिलनाडु के राज्यों में भी कुछ प्रदेश शिवाजी के अधिकार क्षेत्र में थे। मुगल राज्य के कुछ प्रदेशों पर भी शिवाजी का अधिकार था। यह प्रदेश प्रायः मुगलाई (मुगल राज्य का भाग) कहलाता था। यहां से मराठा एक प्रकार का कर वसूल करते थे जिसे ‘चौथ’ कहा जाता था। चौथ प्रदेश की आमदनी का चौथा हिस्सा होता था। सन् 1680 ई० में शिवाजी की मृत्यु होने पर उसका बड़ा पुत्र शम्भुजी राजगद्दी पर बैठा। उसके बाद शिवाजी के दूसरे पुत्र राजाराम ने मुगलों से लड़ाई जारी रखी। सन् 1699 ई० में औरंगजेब स्वयं मराठों को पराजित करने गया। सन् 1700 ई० में राजाराम की मृत्यु होने पर राजमाता ताराबाई ने अपने पुत्र शिवाजी द्वितीय को सिंहासन पर बैठाया और संरक्षिका का काम करने लगी। ताराबाई ने साहस और शक्ति से मराठों का नेतृत्व किया। मुगलों की लगातार कौशिशों के बावजूद वे न तो मराठों की शक्ति कुचल सके और न ही उनके देश को जीत सके। औरंगजेब की सन् 1707 में मृत्यु हो गई। इसके बाद 18वीं शताब्दी में मराठे भारत की जबरदस्त शक्ति बने। (भारत का इतिहास, पृ० 208-210 और 213, हरयाणा विद्यालय शिक्षा बोर्ड, भिवानी)।
शाहआलम बहादुरशाह और जाट
(सन् 1707-1712 ई०)
बादशाह बहादुरशाह ने 13 रजब 1116 हिजरी (सन् 1707) को सर्वखाप पंचायत के मन्त्री चौ० टेकचन्द गांव शोरम को एक शाही फरमान भेजा जिसमें लिखा है कि “आप को सरकार की तरफ से यह अधिकार दिया जाता है कि आप खापों के किसानों पर स्वयं कृषि लगान स्थापित करें और सरकार के लिए आप उसको इकट्ठा करें।” (शाही फरमान-4, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड) मोहर बादशाह बहादुरशाह।
बादशाह नसीरउद्दीन मुहम्मदशाह और जाट
(सन् 1719-1748 ई०)
(1) मुहम्मदशाह के शासनकाल में सन् 1739 ई० में नादिरशाह का हमला - नादिरशाह खुरासान की पहाड़ियों में भेड़ों को चरानेवाला अपनी वीरता से ईरान का बादशाह बन बैठा था। उसने सन् 1739 ई० में भारत पर आक्रमण कर दिया। उस समय दिल्ली पर मुहम्मदशाह रंगीले का शासन था।
नादिरशाह ने दो करोड़ की मांग का सन्देश लेकर अपना दूत जब दिल्ली भेजा तब सम्राट् रंगीन शायरियां (कवितायें) सुन रहे थे और शराब के दौर में झूम रहे थे। नादिरशाह के खत को शराब की सुराही में डुबो दिया गया। नादिरशाह की सेना पर दिल्ली के नागरिकों ने पत्थर बरसाने शुरु किये तब उसने क्रोधित होकर अपने सैनिकों को कत्ले-आम और खुली लूटमार की आज्ञा दे दी। लाखों लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया तथा उनका अपार धन लूट लिया गया। उसने बेगमों, दरबारियों, व्यापारियों के भी रत्न, आभूषण, हीरे-जवाहरात और बहुमूल्य वस्त्र तक भी बलपूर्वक उतरवा लिए। नादिरशाह ने 30 करोड़ की नकदी तथा सोना चांदी, 25 करोड़ के जवाहरात, 9 करोड़ का शाहजहां का रत्नजड़ित सिंहासन तख्तेताऊस, कोहनूर हीरा और 6 करोड़
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का कारीगरी व लड़ाई का सामान लूटकर सैंकड़ों ऊंटों पर लादकर अफगानिस्तान की ओर कूच किया। पंजाब में घुसते ही बहुत से सामान को ढिल्लों, वैस, धारीवाल, मान, पूनिया, सिंधु गोत्र के सिक्ख जाटों ने लूटकर खेतों में दबा दिया। कुछ भी भेद न मिलने पर नादिरशाह विवश होकर चलता बना। इस आक्रमण से मुग़ल शक्ति का भीषण ह्रास और पंजाब में जाट सिक्खों के उत्कर्ष का पूर्ण परिचय मिलता है। (जाटों का उत्कर्ष, पृ० 128-129, लेखक योगेन्द्रपाल शास्त्री)।
- नोट
- जाटों का नवीन इतिहास, पृ० 333 पर उपेन्द्रनाथ शर्मा ने बलदेवसिंह पृ० 23, के हवाले से लिखा है कि “मार्च 1739 ई० में नादिरशाह के आक्रमण से दिल्ली तथा इसके दक्षिणी भूखण्ड के नागरिकों ने भरतपुर जाटराज्य में आकर शरण ली थी। इस विशाल जनसमुदाय को यहीं आबाद किया गया।”
(2) बादशाह मुहम्मद शाह ने 1157 हिजरी (सन् 1748 ई०) को एक शाही फरमान सर्वखाप पंचायत के मन्त्री चौ० श्योलाल को भेजा जिसका लेख निम्नलिखित है -
- “चौधरी साहेब श्योलाल, मन्त्री सर्वखाप पंचायत। आप अपनी खापों से एक सेना खड़ी करें, जो बादशाह के विरुद्ध विद्रोह करने वालों को देश से बाहर निकालने में सहायता करे और खापों के क्षेत्रों में शान्ति स्थापित रखे। आपको सूचित किया जाता है कि खापों के किसी भी भाग से विद्रोह होने पर शाही अधिकारी उसका दृढ़ता से मुकाबला करेंगे।” (शाही फरमान-2, मोहर बादशाह मुहम्मदशाह, सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)।
मुस्लिम शासनकाल में खाप और सर्वखाप सभाओं ने हिन्दूधर्म की रक्षा करके प्रसिद्धि प्राप्त की। हिन्दूधर्म की रक्षा के लिए सब हिन्दू जातियां इस पंचायती सभा के झण्डे के नीचे एकत्र हो गईं। इस संगठन से सर्वखाप पंचायत ने बड़ी-बड़ी सेनायें खड़ी कीं जिन्होंने अपने क्षेत्रों की रक्षा की और मुसलमान आक्रमणों को असफल किया।
मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ और जाट
सदाशिव भाऊ की सेना का युद्ध अहमदशाह अब्दाली के साथ सन् 1761 ई० में पानीपत के मैदान में हुआ था। उस समय दिल्ली का शासक बादशाह जलालुद्दीन शाह आलम द्वितीय (सन् 1759-1806 ई०) था। सदाशिवराव भाऊ ने सर्वखाप पंचायत को अपनी सहायता के लिए एक निवेदनपत्र भेजा जिसका लेख निम्नलिखित है -
- “सेवा में जाट, गुर्जर, अहीर और 18 खापों के जाट एवं पंचायतों के नेताओं का मैं आदर एवं नमस्कार करता हूँ। प्रत्येक हिन्दू का कर्त्तव्य है कि वह धर्म एवं देश की रक्षा के लिए मेरी सहायता करे। आनेवाले आक्रमणकारी के विरुद्ध देश को बचाने के लिए प्रत्येक को लड़ना होगा। शताब्दियों से मुसलमान हमारे देश को अपना गढ़ बनाकर इस पर शासन कर रहे हैं। इनको यहां से बाहर निकालने का इससे बेहतर अवसर और कोई नहीं मिलेगा।
- हिन्दू धर्म का दास
- सदाशिव भाऊ”
- (मोहर सदाशिव भाऊ)
- सदाशिव भाऊ”
- हिन्दू धर्म का दास
यह पत्र जाट, गुर्जर, अहीर, राजपूत तथा अन्य सब हिन्दू जातियों को भेजा गया। इस पत्र पर विचार करने के लिए सर्वखाप पंचायत का सम्मेलन चौ० दानतराय की अध्यक्षता में संवत्
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1817 (सन् 1760 ई०) में सिसौली गांव में हुआ। इस सम्मेलन में सर्वसम्मति से अब्दाली के विरुद्ध मराठा सेनापति को सैनिक सहायता देने का निर्णय लिया गया। निम्नलिखित प्रस्ताव पारित किया गया -
- भाऊ की सैनिक सहायता की प्रार्थना स्वीकार की गई, क्योंकि मराठों की सहायता करना देश की रक्षा करना है।
- प्रत्येक खाप को एक सेनादल भेजना होगा।
- 2000 घुड़सवार भेजे जायेंगे।
- सर्वखाप सेनाओं का प्रधान सेनापति चौ० श्योलाल को नियुक्त किया गया।
- खापों के सैनिक धार्मिक प्रतिज्ञा करें कि देश की रक्षा के लिए अन्तिम सांस तक लड़कर अपनी जान का बलिदान करेंगे।
पानीपत की तीसरी लड़ाई में अहमदशाह अब्दाली के विरुद्ध मराठा सेनापति के नेतृत्व में सर्वखाप पंचायत ने अपने 20,000 वीर सैनिक भेजे। इस युद्ध में मराठों की हार हुई और सर्वखाप पंचायती सेना के अधिकतर वीरों ने शत्रु के साथ वीरता से लड़कर अपने प्राणों का बलिदान कर दिया। (दस्तावेज 50, सर्वखाप रिकार्ड)
जाट महाराजा सूरजमल भरतपुर नरेश भी अपने 8000 घुड़सवार सैनिकों के साथ मराठों की सहायता के लिये आया था। परन्तु भाऊ की उनको कैद करने की गुप्त चाल का पता लगने पर महाराजा सूरजमल अपनी सेना के साथ रात्रि के समय दिल्ली से भाऊ के कैम्प से निकल जाने में सफल हुआ। इस का पूरा वर्णन महाराजा सूरजमल के प्रकरण में अगले अध्याय में किया जायेगा।
बहादुरशाह जफर और जाट
(सन् 1837-1857 ई०)
सन् 1857 ई० में भारतीय क्रांतिकारी वीरों ने अंग्रेज शासकों से भारत की स्वतन्त्रता की लड़ाई लड़ी। इस स्वाधीनता संग्राम का अनेक लेखकों ने ‘गदर’ या ‘विद्रोह’, ‘सैनिक विद्रोह’, ‘हिन्दू मुस्लिम संगठित षड्यन्त्र’, ‘महान् क्रांति’ तथा ‘प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम’ आदि विभिन्न नामों से पुकारा है। किन्तु वास्तव में वह ‘गदर’ या ‘विद्रोह’ नहीं, अपितु एक राष्ट्रीय और शुद्ध धार्मिक युद्ध था। अंग्रेज इतिहास लेखक जस्टिन मैक्कार्थी ने इस सत्य की संपुष्टि की है। वह लिखता है “A National and Religious War” (History of our own times, Vol. iii)
वीर सावरकर तथा अशोक मेहता के लेखों अनुसार यह “प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम था जिसका उद्देश्य भारत से ब्रिटिश शासन को समाप्त करना था। यह युद्ध स्वराज्य तथा स्वधर्म के लिए लड़ा गया। इस युद्ध में भारतीय वीर सैनिकों एवं देश के विभिन्न भागों के लोगों ने भाग लिया। दुर्भाग्य से यह युद्ध सफल न हो सका।”
सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के संक्षिप्त मुख्य कारण -
‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के सेनापति लार्ड क्लाईव ने जून सन् 1757 ई० में बंगाल के नवाब
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सिराजुद्दौल को प्लासी के युद्ध में पराजित किया और उसे कम्पनी ने बंगाल का गवर्नर नियुक्त कर दिया। सन् 1757 से लेकर सन् 1857 ई० तक अंग्रेजों ने राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक तथा सैनिक क्षेत्रों में इस प्रकार की नीति अपनाई थी कि भारतीय लोग, सैनिक तथा देशी शासक उनके विरुद्ध होते गये और अंग्रेजों के शासन के प्रति अशान्ति तथा असन्तोष की भावनायें प्रति वर्ष बढ़ती गयीं। इस प्रकार सन् 1857 ई० से पहले तुरन्त आग पकड़ने वाली सामग्री काफी मात्रा में इकट्ठी हो चुकी थी। सेना में चर्बी वाले कारतूसों के मामले ने तो दियासलाई का काम किया।
(क) राजनीतिक कारण
(1) अंग्रेज गवर्नर-जनरलों की यह नीति थी कि युद्ध अथवा कूटनीति द्वारा भारत के विभिन्न भागों में ब्रिटिश साम्राज्य का विस्तार किया जाये। लार्ड वेलज़ली तथा लार्ड हेस्टिंग्ज ने अपनी सहायक प्रणाली (सबसीडियरी सिस्टम) द्वारा देशी राज्यों में विदेशी प्रभुत्व फैलाना आरम्भ किया। सहायक प्रणाली के शिकार निम्नलिखित देशी राज्य थे - हैदराबाद, मैसूर, तंजौर, अवध, कर्नाटक, नागपुर, ग्वालियर, इन्दौर, बड़ौदा, भोपाल, जयपुर, जोधपुर आदि। इन राज्यों में प्रभाव के साथ-साथ कई पर अपना अधिकार भी जमा लिया। इसी प्रकार विलियम बैंटिक ने कुर्ग व कछार को और एलिनबरा ने सिन्ध को अपने हाथों में ले लिया और साम्राज्यवादी डाल सम्पूर्ण भारत में अत्याचारों से फैलने लगा। परन्तु अंग्रेजों की इस कुटिल साम्राज्यवादी नीति का देशी राज्यों और भारतीय लोगों ने विरोध किया और इन्हें भारत की भूमि से हटाने का प्रयास करने लगे।
(2) डलहौजी का लैप्स (राज्य हड़पने) का सिद्धान्त - डलहौज़ी ने अपने सन् 1848 से 1856 ई० के शासनकाल में राज्य हड़पने का सिद्धान्त बहुत ही निर्दयता से लागू किया। इस नीति का यह अभिप्राय था कि कोई भी सन्तानहीन देशी नरेश, नवाब या राजा ब्रिटिश सरकार की आज्ञा के बिना किसी बालक को गोद नहीं ले सकता था। कुछ देशी रियासतों के राजाओं की सन्तान नहीं थी। उन्होंने अपने उत्तराधिकारी के लिए डलहौजी से आज्ञा मांगी, उन्होंने नहीं दी और उनका राज्य अपने साम्राज्य में मिला लिया। लैप्स सिद्धान्त के अनुसार उसने 1848 ई० में सतारा, 1850 ई० में जैतपुर, सम्भलपुर और बघाट, 1852 ई० में उदयपुर, 1853 ई० में झांसी और 1854 ई० में नागपुर को अपने प्रभुत्व में ले लिया। डलहौजी की इस साम्राज्यवादी नीति से भारत में आतंक छा गया और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपनी झांसी को पुनः प्राप्त करने के लिए अंग्रेजों का विरोध करने लगी। इस नीति ने 1857 ई० के स्वतन्त्रता युद्ध की रूपरेखा बना दी थी।
(3) नाना साहिब की पेन्शन बन्द करना - लार्ड डलहौजी ने तंजोर तथा कर्नाटक के शासकों की उपाधियां तथा पेन्शन समाप्त कर दीं। सन् 1852 में जब अन्तिम पेशवा बाजीराव द्वितीय की मृत्यु हुई तो डलहौजी ने उसके गोद लिए पुत्र धोंदूपन्त अथवा नाना साहिब की पेन्शन भी बन्द कर दी। सन् 1857 के आरम्भ में यही नाना साहिब क्रान्तिकारियों का प्रमुख अगुआ बना था।
(4) अवध का विलय - लार्ड डलहौजी ने सन् 1856 ई० में अवध के नवाब वजीर वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतार दिया तथा अवध को ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया। इससे अवध
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का नवाब एवं उसके साथी ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध हो गये और उन्होंने बड़े उत्साह से 1857 ई० की क्रान्ति में भाग लिया।
(5) मुगल सम्राट् के प्रति अनादरभाव - लार्ड हेस्टिंग्ज ने मुगल सम्राट् को उपहार देने बन्द कर दिये और कुछ समय के बाद ब्रिटिश सम्राट् के नाम पर सिक्के चलाने आरम्भ कर दिए। लार्ड एलिनबरा तथा लार्ड डलहौजी ने तो मुग़ल सम्राट् बहादुरशाह को राजमहल, किले तथा उपाधि से वंचित करने की भी योजनाएं बनाईं। इससे बहादुरशाह अंग्रेजों का शत्रु बन गया। मुसलमान अंग्रेजों के विरुद्ध भड़क उठे। अतः 1857 ई० में दिल्ली विद्रोहियों का कार्यालय तथा केन्द्र बना।
(ख) प्रशासनिक कारण
- भारत पर इंग्लैंड से शासन।
- अंग्रेज कर्मचारियों का भारतीयों से बुरा व्यवहार।
- भारतीयों को उच्च नौकरियों से वंचित करना।
- कानून-निर्माण कौंसिल में भारतीयों को स्थान न देना।
- ब्रिटिश न्याय-प्रणाली का अप्रिय होना।
(ग) आर्थिक कारण
- देश का आर्थिक शोषण। उद्योग-धन्धों का ह्रास।
- विलियम बैंटिक की भूमियां छीनने की नीति।
- जैकसन का अवध के ताल्लुकदारों से कठोर व्यवहार।
- लोगों में बेकारी तथा गरीबी।
(घ) भारतीय शिक्षा का सर्वनाश
अंग्रेजों के भारत में आने से पूर्व यूरोप के किसी भी देश में शिक्षा का इतना प्रचार नहीं था जितना कि भारतवर्ष में था। मुख्य-मुख्य नगरों में विद्यापीठें स्थापित थीं। छोटे बालकों की शिक्षा के लिए प्रत्येक गांव में पाठशालायें थीं, जिनका संचालन पंचायतों की ओर से किया जाता था। इंगलिस्तान पार्लियामेंट के सदस्य केर हार्डी ने अपनी पुस्तक ‘इण्डिका’ में लिखा है - “मैक्समूलर ने, सरकारी उल्लेखों और मिशनरी की रिपोर्ट के आधार पर जो बंगाल पर कब्जा होने से पूर्व वहां की शिक्षा अवस्था के सम्बन्ध में लिखी गई थी, लिखा कि उस समय बंगाल में 80,000 पाठशालायें थीं।”
भारत के जिस-जिस प्रान्त में ‘कम्पनी’ का राज्य स्थापित होता गया, उस-उस प्रान्त में सहस्रों वर्ष पुरानी शिक्षा सदा के लिए मिटती चली गई। हमारे प्राचीन इतिहास और साहित्य को नष्ट कर उसके स्थान में मिथ्या इतिहास लिखवाकर भारतीय स्कूलों में पढ़ाना प्रारम्भ किया गया। सखेद लिखना पड़ता है कि वही मिथ्या इतिहास स्वतन्त्र भारत में आज भी पढ़ाया जा रहा है। प्रारम्भ में प्रायः सभी अंग्रेज शासक भारतीयों को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। जे० सी०
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मार्शमैन ने 15 जून 1853 ई० को पार्लियामेन्ट की सिलेक्ट कमेटी के सम्मुख साक्षी देते हुए कहा था - “भारत में अंग्रेजी राज्य के कायम होने के बहुत दिन बाद तक भारतवासियों को किसी प्रकार की भी शिक्षा देने का प्रबल विरोध किया जाता रहा।”
अंग्रेजों ने हमारे इतिहास, साहित्य और शिक्षा प्रणाली का सर्वनाश कर डाला।
(ङ) भारतीयों को ईसाई बनाने की आकांक्षा
सन् 1857 ई० से बहुत पूर्व से ही कूटनीतिज्ञ अंग्रेजों को भारतीयों को ईसाई बनाने में ही अपने राज्य की स्थिरता दिखाई देती थी। ‘ईस्ट इण्डिया कम्पनी’ के अध्यक्ष मिस्टर मैंगल्स ने 1857 में पार्लियामेन्ट में कहा था - “परमात्मा ने हिन्दुस्तान का विशाल साम्राज्य इंगलिस्तान को सौंपा है, इसलिए ताकि हिन्दुस्तान के एक सिरे से दूसरे सिरे तक ईसा मसीह का विजयी झण्डा फहराने लगे। हम में से प्रत्येक को अपनी पूरी शक्ति इस कार्य में लगा देनी चाहिए जिससे समस्त हिन्दुस्तान को ईसाई बनाने के महान् कार्य में देशभर के अन्दर कहीं पर भी किसी कारण थोड़ी-सी भी ढील न होने पाये।”
इसी का समकालीन एक दूसरा विद्वान् अंग्रेज रेवरेण्ड कैनेडी लिखता है - “हम पर कुछ भी आपत्तियां क्यों न आयें, जब तक भारत में हमारा साम्राज्य है तब तक हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमारा मुख्य कार्य इस देश में ईसाई मत को फैलाना है। जब तक कन्याकुमारी से लेकर हिमालय तक सारा हिन्दुस्तान ईसा के मत को ग्रहण न कर ले और हिन्दू तथा मुसलमान धर्मों की निन्दा न करने लगें तब तक हमें निरन्तर प्रयत्न करते रहना चाहिए। इस कार्य के लिए हम जितने प्रयत्न कर सकें, हमें करने चाहियें और हमारे हाथ में जितने अधिकार और जितनी सत्ता है, उसका इसी के लिए उपयोग करना चाहिए।”
यही विचार लार्ड मैकाले के लेखों में भी पाये जाते हैं जिसने भारतीय शिक्षा-प्रणाली का सबसे अधिक नाश किया। वह लिखता है -
“हमें भारत में इस प्रकार की एक श्रेणी पैदा कर देने का भरसक प्रयत्न करना चाहिए जो कि हमारे और उन करोड़ों भारतीयों के बीच जिन पर हम शासन करते हैं, समझाने-बुझाने का काम करें। ये लोग ऐसे होने चाहियें जो कि केवल रक्त और रंग की दृष्टि से हिन्दुस्तानी हों किन्तु अपनी रुचि, भाषा, भाव और विचारों की दृष्टि से अंग्रेज हों।”
भारत में पादरियों ने ईसाई धर्म का प्रचार आरम्भ किया। सेना में ईसाई बनने का विचार काफी जोर पकड़ चुका था। अकाल के समय एवं निर्धन लोगों को ईसाई बनाया गया। जन-साधारण में यह बात फैल गई थी कि नवीन गवर्नर जनरल लार्ड कैनिंग को भारतवासियों को ईसाई बनाने के लिए भारत भेजा गया है। अपने धर्म की रक्षा के लिए भारतीयों ने 1857 ई० में एक क्रान्ति को जन्म दिया जिसमें सेना में भी यह भावना आई।
(च) सैनिक कारण
- (1) भारतीय सैनिकों को यूरोपियन सैनिकों से हीन समझा जाना।
- (2) भारतीय सैनिकों के कम वेतन तथा भत्ते।
- (3) जिन रियासतों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाया गया उनके सैनिक बेरोजगार हो गये।
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- (4) चरबी वाले कारतूसों का मामला - सन् 1856 ई० में सरकार ने पुरानी बन्दूकों के स्थान पर सैनिकों को नई बन्दूकें जिन्हें ‘एन्फील्ड राईफ़ल्ज’ (Enfield Rifles) कहा जाता था, देने का निश्चय किया। इन राईफलों के कारतूसों में सुअर और गाय की चरबी प्रयोग की जाती थी और सैनिकों को राईफलों में गोली भरते समय कारतूस के ऊपर के सिरे को अपने दांतों से काटना पड़ता था। इस पर हिन्दू तथा मुसलमान सैनिक भड़क उठे। उन्हें यह विश्वास हो गया था कि अंग्रेज सरकार उनके धर्म को नष्ट करना चाहती है। अतः उन्होंने बड़े साहस तथा उत्साह से अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतन्त्रता संग्राम आरम्भ कर दिया।
- नोट
- अंग्रेजी इतिहासकार सर जान के (Kaye) भी स्वीकार करते हैं कि “दिसम्बर 1853 ई० में कर्नल टकर ने बहुत साफ शब्दों में इस बात को लिखा था कि नए कारतूसों में गाय और सुअर दोनों की चर्बी लगाई जाती थी।” तथा स्वयं सर जान के (kaye) स्वीकार करते हैं कि “इसमें कोई सन्देह नहीं कि इस चिकने मसाले के बनाने में गाय की चर्बी का उपयोग किया गया था।”
(छ) अंग्रेज सरकार ने सर्वखाप पंचायत का विरोध किया
सन् 1857 ई० तक हरयाणा प्रान्त की सीमायें दिल्ली से चारों ओर डेढ़ सौ मील दूरी तक के क्षेत्र में थीं। दिल्ली भी इसी में सम्मिलित थी। पश्चिम दिशा में तो इस प्रदेश की सीमायें इससे भी अधिक दूर तक थीं। (देखो पंचम अध्याय, विशाल हरयाणा की सीमायें)
इस हरयाणा प्रान्त की पंचायती खापें सभी क्षेत्रों में थीं। “सम्राट् हर्षवर्धन ने सन् 643 ई० में इन सभी खापों का एक गणतन्त्रीय संगठन बनाया जिसका नाम “हरयाणा सर्वखाप पंचायत” रखा गया। इस संगठन में लगभग 300 खापें शामिल हैं।
उसी समय से सन् 1857 ई० तक यह सर्वखाप पंचायत अपना कार्य स्वतन्त्र रूप से करती आयी है। इसकी अपनी सेना रही जिसने इस प्रान्त की हर तरह से रक्षा की। इस पंचायत का स्वयं का न्याय करना प्रसिद्ध रहा है। इस प्रान्त का प्रत्येक मनुष्य स्वतन्त्र रूप से अपना कार्य करता था। देखो पंचम अध्याय, विशाल हरयाणा सर्वखाप पंचायत का निर्माण, प्रकरण)
इस हरयाणा प्रान्त एवं हरयाणा सर्वखाप पंचायत की सेनाओं में सब जातियों के स्त्री-पुरुष थे। परन्तु इस प्रान्त में जाटों की संख्या दूसरी जातियों से अधिक थी। इसी भांति पंचायती सेनाओं में भी जाटों की संख्या अधिक थी। मुख्य जातियां जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत आदि थीं।
हरयाणा सर्वखाप पंचायत की सेनाओं का, शहाबुद्दीन गौरी, पृथ्वीराज चौहान से लेकर सदाशिव भाऊ तक, युद्धों तथा सहायता का वर्णन, षष्ठ एवं सप्तम अध्यायों में लिख दिया है।
अंग्रेजों का प्रथम विरोधी हरयाणा सर्वखाप पंचायत का संगठन था। अंग्रेजों ने इसके विरुद्ध निम्नलिखित कार्य किए -
- आधार पुस्तकें -
- 1. सुधारक बलिदान विशेषांक, पृ० 17-23, लेखक आचार्य श्री भगवानदेव।
- 2. भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए) पृ० 468-475, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।
- 3. भारतवर्ष का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी), पृ० 182-189।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-599
- अंग्रेजों ने गरीब किसानों पर अत्याचार किये। उनका अन्न बलपूर्वक लेते थे। किसानों और गरीबों से बेगार लेते थे। कारीगरों की देशी चीजों को बाहर नहीं जाने देते थे। छोटे-मोटे व्यापार और धन्धे नष्ट कर डाले।
- अदालतें बनाकर पंचायतों के संगठन और शक्ति को नष्ट कर डाला। लोगों के आपसी झगड़े अदालतों में जाने लगे। गरीबों की लुटाई होने लगी। झूठ, मक्कारी, बेईमानी और रिश्वत फैलाई जाने लगी। लोग तंग हो गये।
- किसानों पर साहूकारों के अत्याचार बढ़ने लगे।
- अंग्रेजी माल जबरदस्ती बेचा जाने लगा।
- अच्छे-अच्छे आचारवाले कुलों को दबाया जाने लगा।
- पंचायती नेताओं का अपमान किया जाने लगा।
इन कारणों से हरयाणा सर्वखाप पंचायत ने अंग्रेजों के विरोध में सबसे पहले झण्डा ऊंचा किया। हरयाणा सर्वखाप के दो भाग किये गये। यमुना आर और पार। पंचायत ने दोनों ओर देहली को केन्द्र मानकर, मेरठ, मुजफ्फरनगर, सहारनपुर, बुलन्दशहर तथा बहादुरगढ़, रेवाड़ी, रोहतक और पानीपत से अंग्रेजी सत्ता को उखाड़ फैंका जिसके कारण भारी कष्ट सहन किये। जनता कोल्हू में पेली गई। जायदादें छीन लीं गईं। खेद है कि यह जायदाद अब तक नहीं लौटाई गई हैं।
आन्दोलन के मुख्य नेता -
1. नाना साहब पेशवा 2. तांत्या टोपे 3. झांसी की रानी महारानी लक्ष्मीबाई 4. बल्लभगढ़ का जाट राजा नाहरसिंह 5. जगदीशपुर (बिहार) का राजा कुंवरसिंह 6. अजीमुल्ला 7. सर्वखाप पंचायत के दो नेता सूबेदार नाहरसिंह एवं जमादार हरनामसिंह 8. बखता खां पठान।
सब ने बहादुरशाह जफर को अपना सम्राट् मान लिया और दिल्ली को क्रांतिकारियों का केन्द्र तथा कार्यालय बनाया गया। (हरयाणा सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
1857 के संग्राम के संयोजक चार वेदज्ञ योगी संन्यासी
(हरयाणा सर्वखाप पंचायत के रिकार्ड से)
1857 ई० के स्वतन्त्रता संग्राम के प्रमुख संयोजक चार वेदज्ञ योगी थे। प्रथम, हिमालय के योगी स्वामी ओमानन्द थे। उस समय उनकी आयु 162 वर्ष की थी। दूसरे, इनके शिष्य कनखल (हरद्वार) के स्वामी पूर्णानन्द थे जिनकी आयु 110 वर्ष की थी। तीसरे, पूर्णानन्द के शिष्य स्वामी विरजानन्द थे, जो 79 वर्ष के थे।
चौथे, विरजानन्द के शिष्य महर्षि दयानन्द सरस्वती थे जिनकी आयु 33 वर्ष की थी। उस समय इन चारों ही महापुरुषों ने देश सुधार स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए अपनी शिक्षा से लगभग 2000 साधु-सन्त प्रचार के लिए तैयार किये थे। इनमें हिन्दू और मुसलमान सभी मतों के सन्त थे। ये स्वदेशी सैनिकों के छावनियों में, क्रान्तिकारियों में और गंगा, हरद्वार, गढ़मुक्तेश्वर, मथुरा आदि के मेले तीर्थों पर लोगों में अंग्रेजों के दमन का प्रचार करते थे। ये गुप्तचर का कार्य भी करते थे जो अंग्रेजों की गतिविधियों का ब्यौरा अपने प्रमुख साधुसमाज को देते थे।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-600
1855 ई० में हरद्वार की सभा में स्वामी ओमानन्द के विचार -
उस समय स्वामी ओमानन्द की आयु 160 वर्ष की थी। इसने स्वामी पूर्णानन्द और अन्य साधुओं से मिलकर इस क्रान्ति के दो मुख्य चिन्ह, एक कमल का फूल और दूसरा रोटी (चपाती) नियुक्त किये। कमल का फूल उन सब देशी सेनाओं में, जो इस संगठन में सम्मिलित थीं, घुमाया जाता था। किसी एक पलटन का सैनिक, फूल को लेकर दूसरी पलटन में देता था और दूसरी पलटन अपने निकट वाली पलटन में पहुंचाती थी। इसका गुप्त अर्थ था कि उस पलटन के सब सैनिक क्रान्ति में भाग लेने को तैयार हैं। इस प्रकार के सहस्रों कमल के फूल पेशावर से लेकर बैरकपुर (कलकत्ता) तक पलटनों एवं सेना में घुमाये गये। दूसरा चिन्ह रोटी को एक गांव का व्यक्ति दूसरे गांव तक ले जाता था। इसका अर्थ था कि उस गांव की सब जनता इस क्रांति युद्ध में भाग लेने को तैयार है। थोड़े दिनों में यह रोटियां विशाल भारत देश में एक सिरे से दूसरे सिरे तक लाखों ग्रामों तक पहुंच गईं।
इस सभा में स्वामी ओमानन्द ने अपने भाषण में कहा कि, “अपना ईमान दुरस्त रखो। खुदा पर भरोसा करो। मादरे वतन हिन्द की सब जनता को भाई-भाई समझकर रहो और जंगे आजादी के वास्ते सब तैयार हो जाओ।”
इस सभा में बहादुरशाह जफर का पुत्र फिरोजशाह, रायसाहब मराठा, बाला साहब मराठा, रंगोबाबू, मौ० अजीमुल्ला खां, रमजान बेग और नाना साहब पेशवा आदि उपस्थित थे। इस सभा में 1500 लोग शामिल हुए। 50 वर्ष के ऊपर की हर जाति की 15 देवियां भी थीं। नाना साहब पेशवा ने और शहजादा फिरोज़शाह ने साधुसमाज को 5000 रुपये के रत्न दिए थे।
दूसरी सभा गढ़ गंगा में सन् 1855 ई० में -
5 अक्तूबर, 1855 ई० को स्वामी पूर्णानन्द की अध्यक्षता में गढ़ गंगा के मेले से दूर एक सभा हुई। इस सभा के उपप्रधान साई फखरुद्दीन थे। दिल्ली दरबार में इनका अच्छा सम्मान था। इस सभा में 2500 लोग उपस्थित थे। इस अवसर पर अंग्रेजों के विरुद्ध धार्मिक और राजनैतिक बहुत भाषण हुए। स्वामी पूर्णानन्द के भाषण का सार यह था -
“मुल्क को फिरंगियों के भरोसे मत छोड़ो। ये लोग बेदीन हैं। इनका कोई क़ौल फेल (विश्वास) नहीं है। ये राजा नहीं, बल्कि तिजारती लुटेरे और जरपरस्त (धन के पुजारी) हैं। ये हमारे मुल्क की तमाम मखलूक (जनता) के हर इन्सान की जिन्दगी के दुश्मन हैं और ये तुम्हारा खून और गौश्त खा जायेंगे। इनसे बचो, नहीं तो तुम्हारी नस्लों को नेस्त-व-नाबूद (नष्ट) कर देंगे और हमारे मुल्क में खुद आबाद होकर रहेंगे। इन्हें अपने मुल्क से निकालो।” मौलवी जहीर ने यह भाषण सार उसी दिन सभा में लिख लिया था।
तीसरी सभा हरद्वार के पहाड़ में -
यह सभा छः दिन पश्चात् 11 अक्तूबर 1855 ई० को स्वामी पूर्णानन्द ने हरद्वार के पहाड़ में की थी। इस सभा में 565 साधु थे जिनमें 195 मुसलमान साधु थे और बाकी 370 हिन्दू धर्म के हर मत के सन्त थे। इनमें अन्धे साधु विरजानन्द तथा स्वामी दयानन्द भी शामिल थे। हरयाणा
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-601
सर्वखाप पंचायत के प्रधान सेनापति श्यौराम जाट, उपसेनापति भगवत गुर्जर, मन्त्री मोहनलाल जाट और पण्डित शोभाराम इस सभा में उपस्थित थे। सर्वखाप पंचायत का कासिद (सन्देश ले जाने वाला) मीर मुश्ताक मिरासी भी उपस्थित था। इस सभा में साई फखरुद्दीन और स्वामी पूर्णानन्द ने अपने विचार प्रकट किये।
स्वामी पूर्णानन्द जी के मन में धर्म प्रचार के साथ स्वदेश उत्थान की भी प्रबल लगन थी। सन् 1855 में कुम्भ के मेले में स्वामी दयानन्द (पहले नाम शुद्ध चैतन्य), स्वामी पूर्णानन्द जी के पास पहुंचे। आपने उनसे संन्यास दीक्षा ग्रहण की। उन्होंने आपका नाम स्वामी दयानन्द सरस्वती रखा। स्वामी जी ने कहा कि मैं वेदादि सच्छास्त्रों का अध्ययन करना चाहता हूँ। स्वामी पूर्णानन्द ने बताया कि मैं तो अतिवृद्ध हो चुका हूँ। मेरे शिष्य स्वामी विरजानन्द जी सरस्वती मथुरा में रहते हैं, आप उनके पास चले जाओ। परन्तु विद्या पढ़ने से पहले स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए देश सुधार कार्य में जुटने की प्रबल प्रेरणा दी थी। तब स्वामी दयानन्द मथुरा में उसी समय गुरु विरजानन्द से जा मिले और उनकी कुटिया पर एक गुप्त मन्त्रणा (उपाय) में भी शामिल हुए। उस गुप्त उपाय में स्वामी दयानन्द के साथ श्यामली (जि० मुजफ्फरनगर) के 40 वर्षीय चौ० मोहरसिंह जाट, बिजरौल (जि० मेरठ) के 42 वर्षीय जाट दादा सहायमल्ल, ढिकौली (जि० मेरठ) के चौ० दयासिंह जाट, दिल्ली नरेश बहादुरशाह जफर, नाना साहब, तात्या टोपे, राजा कुंवरसिंह, लखनऊ के नवाब की बेगम हजरतमहल, मौ० अजीमुल्ला, बंगाली रंगोबाबू कायस्थ, रानी लक्ष्मीबाई आदि थे। जाट दादा सहायमल्ल 1857 ई० के संग्राम में 300 वीरों सहित अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध करते हुए बड़ौत के पास बड़का गांव के तालाब पर शहीद हुए थे। चौ० मोहरसिंह जाट श्यामली के पास इसी प्रकार लड़ते हुए अपने साथियों सहित बलिदान हुए थे, जिनका स्मारक श्यामली किसान धर्मशाला में 4 अप्रैल 1976 ई० को बनाया है।
मथुरा के जंगल में स्वामी विरजानन्द का भाषण -
सन् 1856 ई० में मथुरा के निकट जंगल में देश के प्रमुख स्वतन्त्रता सेनानी एकत्र हुए थे और वहां पर गुरु विरजानन्द जी की अध्यक्षता में सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता युद्ध की रूपरेखा निश्चित की गई थी। इस सभा में उपस्थित मीर मुस्ताक मीराणी एवं मीर इलाही ने इस घटना का आंखों देखा जो वर्णन प्रस्तुत किया है उसे ज्यों का त्यों उद्धृत किया जाता है। मीर इलाही के इस विवरण के उल्लेख पहले 12 अक्तूबर 1969 को उर्दू ‘मिलाप’ जालंधर तथा ‘आर्य मर्यादा’ दिल्ली में भी आ चुके हैं। इनके अतिरिक्त ‘राजा महेन्द्रप्रताप अभिनन्दन ग्रन्थ’, लेखक रामनारायण अग्रवाल, में भी मीर इलाही का यह अभिलेख प्रस्तुत है। मीर इलाही का यह अभिलेख इस प्रकार है -
“सन् 1856 बमुताबिक सम्वत् 1913 को एक पंचायत मथुरा के तीर्थगाह पर मुनक्किद (स्थापित) हुई। उसमें हिन्दू, मुसलमान और दूसरे मजहब के लोगों ने शिरकत की। मथुरा की इस पंचायत में एक नाबीना (अन्धा) हिन्दू दर्वेश (साधु) विरजानन्द को पालकी में बैठाकर लाया गया। उनके आने पर सब लोगों ने उनका अदब किया। जब वह चौकी पर बैठ गये तब हिन्दू, मुसलमान फकीरों ने उसकी कदमबोसी की। नाना साहब पेशवा, मौलवी अजीमुल्ला खां, रंगोबाबू और सम्राट् बहादुरशाह जफर का शहजादा, इन सबने उनके अदब (सम्मान) में अशर्फियां पेश कीं। इसके बाद एक हिन्दू और एक मुसलमान फकीर ने कहा कि हमारे आक़ा की ज़बाने मुबारिक से जो
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तकरीर होगी, उसे तसल्ली के साथ सब लोग सुनें। यह इस मुल्क के लिए बहुत मुफीद साबित होगी। यह वली अल्लाह साधु बहुत-बहुत ज़बानों का आलिम और हमारा और हमारे मुल्क का बुज़र्ग है। खुदा की मेहरबानी से ऐसे बुज़र्ग हमें मिले, यह खुदा का हम पर एहसान है।”
स्वामी विरजानन्द जी की तक़रीर (भाषण) -
सबसे पहले उन्होंने खुदा की तारीफ की और फिर उर्दू में उसका तर्जुमा किया। इस बुज़र्ग ने यह कहा था कि “आजादी जन्नत और गुलामी दोजख है। अपने मुल्क की हकूमत गैरमुल्की हकूमत के मुकाबले में हज़ार दर्जे बेहतर है। दूसरों की गुलामी हमेशा बेइज्जती और बेशर्मी का बायस है। हमें किसी कौम से और किसी मुल्क से कोई नफरत नहीं है। हम तो खल्केखुदा (जनता) की वेहबूदी के लिए खुदा से दुआ मांगते हैं। मगर हुकमरान कौम खासकर फिरंगी जिस मुल्क में हकूमत करते हैं, उस मुल्क के बाशिंदों के साथ इन्सानियत का बर्ताव नहीं करते और कितनी भी अपनी अच्छाई की तारीफ करें, मगर उस मुल्क के बाशंदों के साथ मवेशियों से भी गिरा हुआ बर्ताव करते हैं। खुदा की खलक़त में सब इन्सान भाई-भाई हैं, मगर गैर-मुल्की हुकमरान कौम उन्हें भाई न समझकर, गुलाम समझती है। किसी भी मजहबी किताब में ऐसा हुकम नहीं है कि अपने मातहत लोगों के साथ दगा की जाए या अल्लाह के हुकम की खिलाफवर्जी की जाए। फिरंगियों में बहुत सी अच्छी बातें भी हैं मगर सियासी मामले में आकर वह अपने कौल-फैल (सत्यता) को न समझकर फौरन बदल जाते हैं और हमारी नेक सलाह और अच्छाई को फौरन ठुकरा देते हैं। इसकी असली वजूहात यह है कि ये लोग हमारे मुल्क को अपना वतन नहीं समझते हैं। हमारे मुल्क का बच्चा-बच्चा इनकी खैर-ख्वाही का दम भरे फिर भी यह अपने वतन के कुत्तों को हमारे इन्सानों से अच्छा समझते हैं। यही सब कमी का बासस है। इन्हें अपने ही वतन से मुहब्बत है, इसलिए हम हिन्द के बाशन्दों से इल्तिजा करते हैं कि इस मुल्क के हर इन्सान का फर्ज है कि वह वतनपरस्त बने और मुल्क के हर आदमी के साथ भाई-भाई जैसी मुहब्बत करे। हिन्दुस्तान में रहने वाले आपस में भाई-भाई हैं और आपका शहंशाह, बहादुरशाह जफर है।” तस्दीक करदा मीर इलाही व मीर मुश्ताक मीरासी कासिद सर्वखाप पंचायत।
मीर इलाही के उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि प्रथम भारतीय क्रान्ति के अग्रदूत स्वामी विरजानन्द ऐसे पहले महामानव हैं जिन्होंने सर्वप्रथम भारत की जनता को जागृत किया। इनके भाषण से भारतीयों को अंग्रेजों से घृणा हो गई और स्वतन्त्रता प्राप्ति की लालसा जाग उठी। आपने इस योजना को राज बदलो क्रान्ति या स्वतन्त्रता संग्राम का नाम दिया (सर्वखाप रिकार्ड)।
1857 के संग्राम में स्वामी दयानन्द का योगदान
स्वामी दयानन्द क्रान्ति की इस योजना से पूरी तरह परिचित थे। सन् 1856 ई० के मई मास में स्वामी दयानन्द नाना साहब के घर कानपुर गये और 5 मास तक कानपुर और इलाहाबाद के बीच ही चक्कर काटते रहे। (“सन् 1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में स्वराज्य प्रवर्तक महर्षि दयानन्द सरस्वती का क्रियात्मक योगदान”, ग्रन्थलेखक स्वामी गिरीराज ने, पृ० 12 पर यह सब स्पष्ट सप्रमाण प्रस्तुत किए हैं)।
संवत् 1913 वि० (सन् 1856 ई०) में कुम्भ मेले के अवसर पर स्वामी दयानन्द हरद्वार पहुंचे
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-603
थे। स्वामी जी ने नील पर्वत पर चण्डी मन्दिर को अपना निवास स्थान बनाया। चण्डी स्थान के संन्यासी स्वामी रुद्रानन्द जी ने आपको बताया कि “भारतवासी प्रजा-जागरण और विप्लव प्रचेष्टा के नायक नेता यहां चण्डी पर्वत पर आने वाले हैं।” तीन दिन के पश्चात् ही पांच अज्ञात सज्जन वहां पधारे। उन्होंने पूछा महात्मा स्वामी दयानन्द जी कहाँ हैं? साक्षात्कार होने पर स्वामी दयानन्द ने उनका परिचय पूछा। इस पर उन्होंने बताया कि वे हैं - 1. द्वितीय बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र धुन्धुपन्त (नाना साहब पेशवा) 2. श्री बाला साहब 3. श्री अजीमुल्ला खां। 4. श्री तांत्या टोपे 5. जगदीशपुर के राजा कुंवरसिंह। एकान्त स्थान में बैठकर स्वामीजी ने इनके साथ क्रान्ति के विषय में बहुत देर तक बातचीत की। इस बैठक में स्वामीजी ने स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए साधुसमाज के अन्दर क्रान्ति करने का उत्तरदायित्व अपने ऊपर लिया, क्योंकि इन पांचों ने ही स्वामी जी से साधु संगठन के लिए अनुरोध किया था। उन्होंने कहा था, “महाराज! प्रजा विद्रोह के कार्य में पेशावर से कलकत्ता और मेरठ से कर्नाटक तक सहस्रों भारतीय नियुक्त हो चुके हैं, परन्तु संगठन का कार्य अभी तक अधूरा ही पड़ा है, आप कृपया इसे पूर्णतः सफल कीजिए।”
उपर्युक्त पांच क्रान्तिदूतों के अतिरिक्त दो अन्य क्रान्तिकारी स्वामी दयानन्द जी से भेंट के लिए पधारे थे। वे थे राजा गोविन्दराय और झांसी की रानी लक्ष्मीबाई।
राजा गोविन्दनाथ राय - यह उत्तरीय बंगाल में नादौर की प्रसिद्ध रानी भवानी के वंशज थे। अंग्रेजों ने उनका सारा राज्य हड़प लिया था। आपने चण्डी पर्वत पर स्वामी दयानन्द से अपने राज्य सम्बन्धी तथा योग विषयक चर्चाएं कीं। राजा साहब ने स्वामी जी को 1101 रुपये भेंट के रूप में प्रस्तुत किए। स्वामी जी ने बहुत कहा कि “मुझे इस धन की आवश्यकता नहीं है।” परन्तु वह नहीं माने और सादर नमस्कार करके चले गए।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई - इनके दो-तीन दिन बाद झांसी की रानी लक्ष्मीबाई अपनी सपत्नी रानी गंगाबाई और तीन कर्मचारियों सहित स्वामी जी से मिली। स्वामी जी ने उनका परिचय पूछा। इस पर आंसूभरे नयनों से रानी ने ओजपूर्ण भाषा में कहा - “महाराज! मैं एक निःसन्तान विधवा हूँ। इसी बहाने से अंग्रेजों ने मेरे झांसी के राज्य पर अधिकार कर लेने की घोषणा कर दी है। ये एक विशाल सेना लेकर मेरी झांसी पर चढ़ाई करने वाले हैं। परन्तु मैं जीवित रहती हुई अपने श्वसुर कुल का राज्य इन्हें हड़पने न दूंगी। आप आशीर्वाद दें कि मैं वीरांगनाओं की भांति लड़ती-लड़ती स्वदेश पर बलिदान हो जाऊं।”
इस वीर रमणी के मुख से ऐसे उद्गार सुनकर स्वामी जी ने प्रसन्न होकर कहा - “देवि! यह शरीर क्षणभंगुर और नाशवान् है। यह सदैव नहीं रह सकता। धन्य हैं वे व्यक्ति जो धर्म पर इसे न्यौछावर कर देते हैं। वे मरते नहीं, अमर हो जाते हैं। अतः तलवार उठाओ और इन फिरंगियों के साथ साहस से युद्ध करो।”
उक्त रानी ने भी 1101 रुपये स्वामी जी को भेंट किए। स्वामी जी ने उसे भी कहा कि “मेरे को धनराशि की आवश्यकता नहीं है”, पर वह न मानी और नमस्कार करके चली गई।
रानी लक्ष्मीबाई के चले जाने के 7-8 दिन बाद फिर नाना साहब पेशवा आदि स्वामी जी को सारा
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समाचार देने के लिए पधारे। स्वामी जी ने नाना साहब को, गोविन्दनाथ राय वाले 1101 रुपये, रानी झांसी वाले 1101 रुपये तथा जनसाधारण के मिले 633 रुपये, कुल 2835 रुपये स्वदेश रक्षार्थ दे दिए। स्वामी जी ने नाना साहब को कहा कि “जन साधारण का नेतृत्व करना और लेकर खेलना दोनों ही खतरनाक हैं। मामूली-सी भूल से ही सत्यानाश हो सकता है। अतः संभलकर सारा काम करो। गुप्त रीति से क्रांति की सूचना सारे देश में भेज दें।” स्वामी जी ने भी पूर्ण शक्ति से साधु संगठन का काम आरम्भ कर दिया। (हरयाणा सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
सन् 1857 से 1860 तक तीन वर्ष का स्वामी दयानन्द के जीवन का कोई इतिवृत्त नहीं मिलता। इससे द्योतित होता है कि स्वामी जी ने 1857 ई० की क्रान्ति में बढ़-चढ़कर कार्य किया और अपने हस्तलिखित जीवन में भी इस सम्बन्ध में उन्होंने कुछ लिखना और किसी कारणवश उचित नहीं समझा। अक्टूबर सन् 1860 ई० के पश्चात् स्वामी दयानन्द की जीवन घटनायें विदित होती हैं। स्वामी दयानन्द ने सन् 1860 से 1863 तक तीन वर्ष स्वामी विरजानन्द जी से विद्याध्ययन किया। (सुधारक बलिदान विशेषांक, पृ० 468, लेखक भगवान् देव आचार्य।
स्वामी दयानन्द धार्मिक महर्षि के अतिरिक्त देशभक्त एवं स्वतन्त्रता प्राप्ति के कार्यकर्त्ता भी थे। उन्होंने अपने पुस्तक सत्यार्थप्रकाश के अष्टम समुल्लास में लिखा है कि “कोई कितना ही करे परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर माता-पिता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।”
स्वतन्त्रता संग्राम का आरम्भ तथा घटनाएं
सन् 1857 ई० के क्रान्तिकारियों ने भारत में अंग्रेजी राज्य का अन्त करने के लिए 31 मई 1857 ई० का दिन निश्चित किया था। उसी दिन के हिसाब से सारी योजना तैयार की गई थी। सम्पूर्ण भारत के देशभक्तों को यह योजना समझाई गई थी और यह सूचना उन्होंने प्रत्येक छावनी और जनता तक पहुंचा भी दी थी।
मंगल पांडे तथा बैरकपुर विद्रोह अभियान - अंग्रेजों के सौभाग्य और देश के दुर्भाग्य से चर्बी मिले कारतूसों की घटना तथा मंगल पांडे के बलिदान ने क्रान्तिकारियों के लिए निश्चित तिथि तक प्रतीक्षा करना असम्भव बना दिया। बैरकपुर में स्थित 34वीं रेजीमेंट के सैनिकों ने चर्बी वाले करतूसों का प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। अंग्रेजों ने उन पर अत्याचार किए। 29 मार्च 1857 ई० को इसी रेजिमेंट के एक ब्राह्मण सैनिक मंगल पांडे ने पैरेड पर दो बड़े अंग्रेज कर्मचारियों को गोली से उड़ा दिया और अपने अन्य साथियों को अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह करने के लिए पुकारा। परन्तु जनरल हेअरसे (General Hearsey) ने इस रेजिमेंट को तोड़ दिया। 8 अप्रैल 1857 ई० को मंगल पांडे को फांसी दे दी गई।
मेरठ - 9 मई 1857 को मेरठ में अश्वारोही सैनिक दल के 85 सैनिकों ने चर्बी वाले कारतूस प्रयोग करने से इन्कार कर दिया। उन पर सैनिक न्यायालय में मुकद्दमा चलाया गया और उन्हें दस-दस वर्ष का कारावास का कठोर दण्ड दिया। 10 मई को मेरठ में अन्य सैनिकों ने “भारत माता की जय” के नारे लगाते हुए विद्रोह कर दिया और जेल तोड़कर बन्दी सैनिकों को मुक्त कर
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लिया। इन भारतीय सैनिकों ने मेरठ में बहुत से अंग्रेज पुरुषों तथा स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया और उनके घरों को जला दिया। तत्पश्चात् मेरठ के सैनिकों ने दिल्ली की ओर कूच किया।
दिल्ली में क्रान्ति - 10 मई की रात को दो हजार सशस्त्र देशी सैनिक सवार मेरठ से चलकर 11 मई को प्रातः 8 बजे दिल्ली पहुंच गये। 11 से 16 मई तक भारतीय सैनिकों ने दिल्ली में अंग्रेजों का कत्ले-आम किया। कुछ अंग्रेज जान बचाकर दिल्ली से भाग गए। 11 मई 1857 ई० को सम्राट् बहादुरशाह जफर को गद्दी पर बैठाकर भारत का सम्राट् घोषित कर दिया। लाल किले पर हरे रंग का झण्डा फहराया गया। दिल्ली, अंग्रेज कम्पनी के हाथों से पूर्णतया स्वतन्त्र हो गई। सम्राट् का हरा झण्डा सारे भारतवर्ष में क्रान्तिकारियों का झण्डा बनकर फहराया। दिल्ली की स्वाधीनता की सूचना विद्युत के समान सारे भारतवर्ष में फैल गई। अनेक स्थानों पर नेताओं के सामने यह समस्या थी कि तुरन्त क्रान्ति आरम्भ करें या नियत तिथि 31 मई तक ठहरें। किन्तु अब आग को रोकना नेताओं के वश की बात न रही और 11 मई से 31 मई तक समस्त उत्तर भारत में ही स्थान-स्थान पर क्रान्ति की ज्वाला भड़क उठी। जून 1857 ई० तक लखनऊ, इलाहाबाद, कानपुर, बरेली, अलीगढ़, इटावा, आगरा, बनारस, झांसी, ग्वालियर तथा बिहार के कुछ प्रदेशों में विद्रोह फैल गया।
दिल्ली में सर्वखाप पंचायत के 1000 पंचों के सामने सम्राट् बहादुरशाह जफर का भाषण -
- “सर्वखाप पंचायत के नेताओ! अपने पहलवानों को लेकर फिरंगियों को निकालो। आप में शक्ति है और जनता आपके साथ है। आपके पास योग्य और वीर नेता हैं। शाही कुल में नौजवान लड़के हैं परन्तु उन्होंने कभी युद्ध में बारूद का धुंआं नहीं देखा। आपके जवानों ने अंग्रेजी सेना की शक्ति की कई बार जांच की है। आजकल यह राजनीतिक बात है कि नेता राजघराने का हो। परन्तु राजा और नवाब गिर चुके हैं। उन्होंने अंग्रेजों की गुलामी स्वीकार कर ली है। आप पर देश को अभिमान और भरोसा है। आप आगे बढ़ें और फिरंगियों को देश से निकालें। निकालने पर एक दरबार किया जाये और राजपाट स्वयं पंचायत सम्भाले। मुझे कुछ उजर न होगा।” तसनीफ करदा मीरमुश्ताक मिरासी कासिद सर्वखाप पंचायत।
- ह० बहादुरशाह जफर नामवर बादशाह हिन्द 23-6-1857
सम्राट् बहादुरशाह जफर का सर्वखाप पंचायत के प्रधान को पत्र -
- “सर्वखाप पंचायत के प्रधान मुल्क में रहने वाले हर कौम और मजहब के लोगों से मेरी इलतजा है कि इस नामुराद फिरंगी कौम से मुल्क की हकूमत को छीनकर मुल्क के काबिल और समझदार व खुदापरस्त लोगों की एक पंचायत इकट्ठी करो। और उनके हाथ में मुल्क सौंप दो या हरयाणा सर्वखाप पंचायत की तरह सारे मुल्क की एक पंचायत बनाओ और उन पंचों में से एक जज पंचायती तरीके से मुल्क का आईना (विधान) बनाकर हकूमत को चलाए। मैं अपने सारे अख्तियार उस पंचायत को बड़ी खुशी के साथ देता हूँ।”
- ह० बहादुरशाह जफर बादशाह नामवर हिन्दुस्तान 1-7-1857
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-606
उपर्युक्त बादशाह के पत्र मिलने पर सर्वखाप पंचायत ने अपनी सैनिक शक्ति का संग्रह करना आरम्भ किया तथा अन्य शक्तियों से सम्पर्क बढ़ाया। हरद्वार में नाना साहब और अजीमुल्ला पंचायत के नेताओं से मिले।
बहादुरशाह ने विद्रोह के समय जयपुर, बीकानेर, अलवर, हैदराबाद, ग्वालियर, पटियाला, नाभा, जींद, कपूरथला और बड़ौदा आदि के शासकों को उपर्युक्त पत्र लिखकर सहायता मांगी परन्तु इन सभी ने अंग्रेजों का साथ दिया।
दिल्ली में स्वदेशी सेनाओं की मोर्चाबन्दी -
दिल्ली पर भारतीयों का अधिकार होते ही चारों ओर से भारतीय सेनाएं वहां पहुंचने लगीं। मेरठ से जो सेनाएं दिल्ली पहुंची उनमें सबसे अधिक हरयाणा के जाट और राजपूत थे। उनके बाद अहीर थे।
हरयाणा सर्वखाप पंचायत के 5000 मल्ल योद्धा वीर सैनिकों ने, जिनमें अधिक संख्या जाटों की थी, दिल्ली में प्रवेश करके मोर्चा पकड़ा। 2 जुलाई को मोहम्मद बखत खां रुहेलों की फौज के साथ, जिसमें 14000 पैदल, तीन घुड़सवार पलटन और अनेक तोपें थीं, दिल्ली पहुंच गया। सम्राट् ने अपने अयोग्य पुत्र मिरज़ा मुग़ल को सेनापति पद से हटाकर बखत खां को दिल्ली की समस्त सेनाओं का प्रधान सेनापति बना दिया और उसे दिल्ली का गवर्नर भी नियुक्त कर दिया।
3 जुलाई को बखत खां ने 52,000 फौज की 26,000-26,000 के दो जत्थों में लाल किले के सामने परेड कराई। 4 जुलाई को बखत खां ने अपनी सेना सहित अंग्रेजों पर आक्रमण कर दिया।
सम्राट् बहादुरशाह जफर, बखत खां के अतिरिक्त बल्लभगढ़ के जाट नरेश नाहरसिंह को अपनी दाहिनी भुजा मानते थे। 16 मई, 1857 ई० को जबकि दिल्ली फिर से आजाद हुई, राजा नाहरसिंह की सेना दिल्ली की पूर्वी सीमा पर तैनात हुई। बखत खां ने भी पूर्वी मोर्चे की कमान राजा नाहरसिंह पर ही रहने दी।
हरयाणा सर्वखाप पंचायत ने दिल्ली के चारों तरफ 165 मील तक के क्षेत्र में यह मुनादी करा दी कि चाहे हमको कोई चीज न मिले, मगर दिल्ली में भारतीय सेनाओं को कोई परेशानी न हो। अतः हरयाणा वासियों ने इन सेनाओं को खाद्य सामग्री एवं जरूरी चीजें अंग्रेजों से युद्ध के समय में भी पहुंचाईं। (सर्वखाप पंचायत रिकार्ड)
अंग्रेजों की दिल्ली पर चढ़ाई -
लार्ड कैनिंग ने विद्रोह को पूर्णतया दबाने के लिए दिल्ली पर पुनः अधिकार करना आवश्यक समझा। अतः उसने इसके लिए पूर्ण तैयारी की। उसने तुरन्त ही बम्बई तथा मद्रास की प्रेजिडेंसियों से सेनायें मंगवाईं और पंजाब के चीफ कमिश्नर जॉन लारेंस को इस कार्य में सहायता देने के लिए आदेश दिया।
अंग्रेजों के सौभाग्य से हैदराबाद, ग्वालियर, पटियाला, नाभा, जींद, कपूरथला, बड़ौदा आदि के राजाओं ने इस भयानक अवस्था में अंग्रेजों का साथ दिया। हिन्दुओं तथा मुसलमानों में बड़ी
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चतुरता से फूट डालने के प्रयत्न किये। सिक्खों तथा गोरखों जैसे वीर सैनिकों को, जो अंग्रेजों के प्रति पूर्णरूप से वफादार थे, दिल्ली पर पुनः अधिकार करने के लिए लगाया गया।
एक विशाल सेना सहित अंग्रेजों ने सर हैनरी बरनार्ड तथा विलसन के नेतृत्व में दिल्ली पर घेरा डाल दिया, जो तीन मास तक जारी रहा। भारतीय सैनिकों ने शहजादा मिर्जा मुगल तथा बखत खां के नेतृत्व में दिल्ली के किले से शत्रुओं का डटकर मुकाबला किया।
हरयाणा सर्वखाप पंचायत के 5000 मल्ल सैनिकों की वीरता -
(सर्वखाप पंचायत रिकार्ड से)
9 जुलाई 1857 ई० को अंग्रेजी सेना, जिसकी संख्या 2500 गोरों की थी, यमुना नदी पर किश्तियों का पुल बनाकर उसके द्वारा लाल किले की ओर उतरी। पंचायती मल्ल सैनिक उन पर टूट पड़े तथा हजारों को मौत के घाट उतार दिया। जो गोरे सैनिक जान बचाकर नदी के रास्ते वापिस भाग रहे थे, उनको गोताखोर मल्ल सैनिकों ने पकड़कर कैद कर लिया। इन वीर सैनिकों ने यमुना नदी पर अपने मोर्चे मजबूत कर लिए। फिर उस तरफ से आक्रमण करने का गोरों का साहस न हुआ।
पश्चिम के तरफ पहाड़ी क्षेत्र के मोर्चे पर हरयाणा के 2500 वीर सैनिक शाही फौज के साथ थे। ये वीर गोरों की एक पैदल पलटन पर टूट पड़े। डेढ़ घण्टे के युद्ध में गोरों की पलटन को गाजर मूली की तरह काट डाला।
मेवों के एक जत्थे ने अंग्रेजी कैम्प पर धावा किया जिससे अंग्रेजों में भगदड़ मच गई। जाटों की मदद से कैम्प लूट लिया गया।
दक्षिण के मोर्चे पर अंग्रेजों की घुड़सवार पलटनों को जाट, अहीर, गुर्जर, राजपूत वीरों ने हमला करके मार भगाया। अंग्रेजों के बड़ी संख्या में सैनिक मारे गये। उनकी 11 तोपें छीनीं और उनके कैम्प को लूट लिया गया।
भारी हानि उठाकर अंग्रेज वहां से 9 मील पीछे हट गये (तसनीफ करदा-जहीर)। सम्राट् बहादुरशाह जफर ने मल्ल योद्धाओं की इन वीरताओं का पैगाम हरयाणा सर्वखाप पंचायत को भेजा।
इस तरह से क्रांतिकारी दिल्ली की सेनाओं ने दिल्ली के तीन ओर उत्तर, पूर्व तथा दक्षिण से अंग्रेजों को दिल्ली में प्रवेश न करने दिया। उनके दिल्ली में घुसने का केवल पश्चिम की तरफ का ही रास्ता था। उसी ओर से उन्होंने आक्रमण जारी रखे जब तक कि दिल्ली को जीत न लिया।
दिल्ली का पतन - अंग्रेज, सिक्ख तथा गोरखा सैनिकों ने दिल्ली पर घेरा डाल लिया था। ये सेनाएं दिल्ली के पश्चिम की ओर से दिल्ली में प्रवेश करने के लिए आक्रमण करती रहीं, परन्तु क्रान्तिकारी सेनाओं ने इनका डटकर मुकाबिला किया और दिल्ली के भीतर घुसने न दिया। तीन महीने तक प्रतिदिन आक्रमण होते रहे। सबसे भयंकर युद्ध 14 सितम्बर को हुआ। इस दिन अंग्रेजी सेना जनरल निकलसन के अधीन कश्मीरी दरवाज़े, काबुली दरवाज़े और सब्जी मण्डी की ओर से आगे बढ़ी। दिल्ली में अंग्रेजी सेना के प्रवेश का यह प्रथम दिन था। दोनों पक्ष खूब वीरतापूर्वक लड़े। खून की नदियां बह गईं। अंग्रेजों के 4 मुख्य सेनापतियों में से 3 घायल हुए, जिनमें से निकलसन 23 सितम्बर को
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हस्पताल में मर गया। उस दिन कम्पनी के 66 अफसर और 1104 सैनिक युद्ध में मारे गये। क्रान्तिकारियों के 1500 सैनिक खेत रहे। इसके पश्चात् क्रान्तिकारियों में अव्यवस्था बढ़ने लगी। कुछ सेना तो तुरन्त दिल्ली छोड़कर चली गई। 15 सितम्बर से 24 सितम्बर तक दिल्ली की एक-एक चप्पा भूमि के लिए शत्रु के साथ क्रान्तिकारियों ने वीरतापूर्वक डटकर युद्ध किया। इन संग्रामों में अंग्रेजी सेना के लगभग 4000 सैनिक मारे गए। लगभग इतने ही दिल्ली के सैनिक मारे गये।
24 सितम्बर को अंग्रेजों ने दिल्ली पर फिर से अपना अधिकार कर लिया। अंग्रेजों ने सम्राट् बहादुरशाह का हरे रंग का झण्डा लाल किले पर से उतार दिया और अपना झण्डा वहां पर चढ़ा दिया।
सम्राट् बहादुरशाह जफर लाल किले से भागकर हुमायूं के मकबरे में जा छुपा। विश्वासघातक मिरजा इलाही बख्श जो सम्राट् बहादुरशाह का समधी था, ने कप्तान हडसन को तुरन्त यह सूचना दे दी। हड़सन 500 सवारों के साथ वहां पहुंचा और उसने सम्राट् बहादुरशाह, बेगम जीनत महल, शहजादे जवां बखत, मिरजा मुगल, मिरजा अखतर सुलतान और सम्राट् के पोते मिरजा अकबर को हुमायूं के मकबरे से पकड़कर कैद कर लिया। हडसन ने शहजादा मिरजा मुगल, मिरजा अखतर सुलतान और सम्राट् के पोते मिरजा अकबर को गोली मारकर समाप्त कर दिया और उनके सिर उतारकर सम्राट् को भेंट के तौर पर पेश किए।
सम्राट् बहादुरशाह जफर, उनकी बेगम जीनत महल और शहजादा जवांबखत को कैद करके रंगून की जेल में भेज दिया। रंगून में कैद के अन्दर सन् 1863 ई० में सम्राट् बहादुरशाह का देहान्त हो गया। उसके साथ ही मुगल राज्य का अन्तिम चिन्ह संसार से मिट गया।
सुधारक बलिदान विशेषांक पृ० 83 पर श्री भगवान् देव आचार्य ने लिखा है कि “भले ही दिल्ली का पतन हो गया, किन्तु कोई भी सच्चा इतिहास लेखक दिल्ली और क्रान्तिकारियों की वीरता की प्रशंसा किये बिना नहीं रह सकता। उस दिन से लेकर जिस दिन (16 मई 1857 ई०) लाल किले से फिरंगी झण्डा उखाड़कर स्वराज्य की घोषणा की और उस दिन तक जब बहादुरशाह के राजप्रासाद में अंग्रेजी तलवारें स्वदेशी रक्त को पी गईं (24 सितम्बर, 1857 ई०), क्रान्तिकारियों ने महान् वीरता के कार्य किये। आश्चर्य तो यह है कि न नेता, न संगठन, न अंग्रेजों के समान सैनिक, विद्या विशारद शत्रुओं से टक्कर, फिरंगियों से भी बढ़कर अपने ही नीच देशद्रोही भाई सिक्खों और गोरखों से युद्ध, ऐसी प्रतिकूल परिस्थितियों में क्रान्तिकारियों ने डटकर संग्राम किया। इससे दिल्ली के घेरे का इतिहास अमर रहेगा।”
दिल्ली पर अत्याचार -
अंग्रेजों ने दिल्ली पर जो अत्याचार किये वे तैमूरलंग तथा नादिरशाह के कत्लेआम, लूटमार व अत्याचाओं को भी मात कर गये। इसके विषय में लार्ड एल्फिन्सट्न ने सर जॉन लारेन्स को लिखा - “मोहासरों के समाप्त होने के पश्चात् हमारी सेना ने जो अत्याचार किए हैं, उन्हें सुनकर हृदय फटने लगता है। बिना मित्र व शत्रु में भेद किये ये लोग सबसे एक समान बदला ले रहे हैं। लूट में
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तो वास्तव में हम नादिरशाह से भी बढ़ गये।” माण्टगुमरी मार्टिन लिखता है कि “जिस समय हमारी सेना ने दिल्ली नगर में प्रवेश किया तो जितने नगर निवासी नगर की दीवारों के अन्दर पाये गये, उन्हें उसी स्थान पर संगीनों से मार डाला गया। उनकी संख्या बड़ी थी। एक-एक मकान में 40 से 50 आदमी छुपे हुए थे। ये लोग विद्रोही न थे किन्तु नगर के निवासी थे, जिन्हें हमारी दयालुता पर विश्वास था। मुझे हर्ष है कि उनका यह भ्रम दूर हो गया।”
शहर पर कब्जा करने के पश्चात् अंग्रेज सेना को तीन दिन तक नगर की लूट का आदेश दिया गया। अंग्रेज, सिक्ख तथा गोरखे सैनिकों ने नगर में खूब लूटमार की। एक अंग्रेज इतिहास लेखक लिखता है कि - “दिल्ली के निवासियों के कत्लेआम की खुली घोषणा कर दी गई। यद्यपि हम जानते थे कि उनमें बहुत से हमारी विजय चाहते हैं।” लार्ड राबर्ट्स उस समय की अवस्था लिखता है कि “हम प्रातः ही लाहौरी दरवाजे से चांदनी चौक गये तो हमें वास्तव में शहर मुर्दों का ही दिखाई देता था। सब ओर मुर्दों का बिछौना बिछा हुआ था जिनकी लाशों को कुत्ते और गिद्ध खा रहे थे। इस भयानक दृश्य से हमें डर लगता था। भय से हमारे घोड़े बिदकते और हिनहिनाते थे।”
इन नीच सैनिकों ने स्त्रियों का सतीत्व धर्म भी बिगाड़ा। कुछ लोगों ने अपने घर की बहू-बेटियों को कत्ल कर दिया और स्वयं आत्महत्या कर ली। नगर की सहस्रों देवियां अपने सतीत्व धर्म को बचाने के लिए कुओं में कूदकर मर गईं।
ख्वाजा साहब लिखते हैं कि “मन्दिर और मस्जिदों को इन नीच सैनिकों ने नापाक किया। दिल्ली की बड़ी जामा मस्जिद में सिक्ख सैनिकों ने सुअर काट-काट कर पकाये। अंग्रेजों के कुत्ते भी मस्जिद में साथ जाते थे। अनेक मस्जिद और मन्दिर ढाहकर भूमिसात् कर दिये गये। दिल्ली एक तरह से सर्वथा उजाड़ दी गई। दिल्ली फिर से बसी।”
बल्लभगढ़ के जाट राजा नाहरसिंह की वीरता एवं देशभक्ति
सन् 1857 ई० में भारतीय स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए हुए शहीदों में बल्लभगढ़ के जाट राजा नाहरसिंह का नाम अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। बल्लभगढ़ का यह छोटा राज्य दिल्ली से केवल 20 मील दूर ही तो था। नवयुवक राजा नाहरसिंह की यह दूरदर्शिता ही थी कि उसने बढ़ते हुए अंग्रेजों के खतरे का सामना करने की दृष्टि से, मुगल सम्राट् बहादुरशाह जफर से मित्रता कर ली। सम्राट् भी इसको अपना दाहिना बाजू मानता था। मित्रता के साथ ही, लड़खड़ाते मुगल साम्राज्य का बहुत-सा उत्तरदायित्व भी राजा नाहरसिंह ने अपने कन्धों पर सम्भाला। परिणामतः दिल्ली नगर की सुरक्षा एवं सुव्यवस्था की बागडोर बादशाह ने राजा को दी। शाही दरबार में राजा नाहरसिंह को विशेष सम्मान के रूप में “सोने की कुर्सी” मिलती थी और वह भी बादशाह के बिल्कुल समीप।
16 मई 1857 ई० को जबकि दिल्ली फिर से आजाद हुई, तब राजा नाहरसिंह तेवतिया की सेना दिल्ली की पूर्वी सीमा पर तैनात हुई। उन्होंने दिल्ली से बल्लभगढ़ तक सैनिक चौकियां तथा गुप्तचरों के दल नियुक्त कर दिए। उनकी इस तैयारी से भयभीत होकर सर जॉन लारेन्स ने पूर्व की ओर से दिल्ली पर आक्रमण करना स्थगित कर दिया। अंग्रेज बल्लभगढ़ को दिल्ली का “पूर्वी लोह द्वार” मानकर भयभीत थे और राजा नाहरसिंह से युद्ध करने का साहस छोड़ बैठे।
लार्ड केनिंग को लिखे एक पत्र में सर जॉन लारेन्स ने लिखा था कि “पूर्व और दक्षिण की ओर
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बल्लभगढ़ के राजा नाहरसिंह की मजबूत मोर्चाबन्दी है और उस सैनिक दीवार को तोड़ा जाना असम्भव ही दीख पड़ता है, जब तक कि चीन अथवा इंग्लैण्ड से हमारी कुमक नहीं आ जाती।”
यही हुआ भी। 14 सितम्बर को जब अंग्रेज सेनाओं ने दिल्ली पर आक्रमण किया तब वह पश्चिम की ओर से कश्मीरी दरवाजे से ही दिल्ली में प्रवेश कर सकीं। 24 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया। बादशाह ने भी लाल किला छोड़कर हुमायूं के मकबरे में शरण लेनी पड़ी। उस समय राजा नाहरसिंह ने सम्राट् को बल्लभगढ़ चलने का आग्रह किया किन्तु सम्राट् के समधी मिरजा इलाही बख्श, जो अंग्रेजों का एजेंट था, के बहकाने से सम्राट् ने हुमायूं के मकबरे से आगे बढ़ना अस्वीकार कर दिया। 24 सितंबर को कप्तान हडसन ने बादशाह और शहजादों को कैद कर लिया, फिर भी राजा ने वीरता दिखाई और अंग्रेजी फौज को ही घेरे में डाल दिया। हडसन ने शहजादों को गोली से मार दिया और बादशाह को भी मारने की धमकी दी। अतः राजा ने सम्राट् की प्राणरक्षा की दृष्टि से घेराबन्दी उठा ली। साहसी वीर नाहरसिंह ने रातों-रात पीछे हटकर, बल्लभगढ़ के किले में घुसकर नया मोर्चा लगाया और आगरे की ओर से दिल्ली की तरफ बढ़ने वाली गोरी पलटनों की धज्जियां उड़ायी जाने लगीं। हजारों गोरे बन्दी बना लिए गए और अगणित बल्लभगढ़ मैदान में धराशायी हुए। सम्राट् के शहजादों का बदला बल्लभगढ़ में लिया गया।
परन्तु चालाक अंग्रेजों ने धोखेबाजी से काम लिया और रणक्षेत्र से सन्धिसूचक सफेद झण्डा दिखा दिया। चार घुड़सवार अफसर दिल्ली से बल्लभगढ़ पहुंचे और राजा से निवेदन किया कि सम्राट् बहादुरशाह से सन्धि होने वाली है, उसमें आपका उपस्थित होना आवश्यक है। अंग्रेज आपसे मित्रता ही रखना अभीष्ट समझते हैं।
भोला जाट नरेश अंग्रेजी जाल में फंस गया। उसने अंग्रेजों का विश्वास कर लिया और 500 चुने हुए जवानों के साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान कर दिया। दिल्ली में प्रवेश करते ही छिपी हुई गोरा पलटन ने अचानक राजा नाहरसिंह को बन्दी बना लिया। उसके वीर सैनिकों को मार-काट दिया गया।
दूसरे ही दिन पूरी शक्ति से अंग्रेजों ने बल्लभगढ़ पर आक्रमण कर दिया। वह सुदृढ दुर्ग जिसे अंग्रेज ‘लोग द्वार’ कहते थे, तीन दिन तक तोप के गोलों से गले मिलता रहा। राजा ने अपने इस दुर्ग को गोला बारूद का केन्द्र बना रखा था। उस छोटे से किले में वर्षों तक लड़ने की क्षमता थी। मगर बिना सेनापति के आखिर कब तक युद्ध लड़ा जा सकता था? अन्त में इस किले पर अंग्रेजों का अधिकार हो गया।
उधर स्वाभिमानी राजा ने अंग्रेजों का मित्र बनने से साफ इन्कार कर दिया। उसने कहा - “शत्रुओं के आगे सिर झुकाना मैंने सीखा नहीं।” हडसन ने राजा को फिर कहा कि “नाहरसिंह! मैं तुम्हें अब भी फांसी से बचा सकता हूँ, थोड़ा सा झुक जाओ।”
राजा ने हडसन को उत्तर दिया कि “कह दिया, फिर सुन लो। गोरे मेरे शत्रु हैं, उनसे क्षमा मैं कदापि नहीं मांग सकता। लाख नाहरसिंह कल पैदा हो जायेंगे।”
वीर नाहरसिंह के उपर्युक्त उत्तर से अंग्रेज बौखला गए। उन्होंने राजा को फांसी देने का
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निश्चय किया और चांदनी चौक में आधुनिक फव्वारे के निकट, जहां राजा नाहरसिंह का दिल्ली-स्थित आवास था, उसको खुलेआम फांसी देने की व्यवस्था की गई। दिल्ली की जनता उदास भाव से गर्दन झुकाए, बड़ी संख्या में राजा के अन्तिम दर्शन करने को उपस्थित थी। उस दिन (21 अप्रैल, 1858 ई०) राजा की 35वीं वर्षगांठ थी जिसे मनाने के लिए वीर राजा फांसी के तख्ते के निकट आकर खड़ा हो गया। राजा के साथ उनके तीन अन्य विश्वस्त साथी और थे जिनके नाम खुशालसिंह, गुलाबसिंह और भूरासिंह थे। बल्लभगढ़ के ये चार नौनिहाल देशभक्ति के अपराध में साथ-साथ फांसी के तख्ते पर खड़े हुए। दिल्ली की जनता नैराश्यभाव से साश्रु इस हृदयविदारक दृश्य को देख रही थी। परन्तु राजा नाहरसिंह के मुखमण्डल पर मलिनता का कोई चिह्न न था, वरन् एक दिव्य ज्योति तेज शत्रुओं को आशंकित करता हुआ उनके मुख-मण्डल पर छाया हुआ था।
अन्त में फांसी की घड़ी आई और हडसन ने सिर झुकाकर राजा से उनकी अन्तिम इच्छा पूछी। राजा ने सहज स्वर में उत्तर दिया कि “तुमसे मुझे कुछ नहीं मांगना। परन्तु इन भयत्रस्त दर्शकों को मेरा सन्देश कह दो कि जो चिंगारी मैं आप लोगों में छोड़े जा रहा हूं उसे बुझने न देना। देश की इज्जत अब तुम्हारे हाथ है।” हड़सन ने राजा की इस अन्तिम इच्छा को उपस्थित दर्शकों से कहने में अपनी असमर्थता प्रकट की।
इस प्रकार देशभक्त वीर राजा नाहरसिंह निःस्वार्थ भाव से देश की बलिवेदी पर चढ़कर अमर हो गया। उनका पार्थिव शरीर भी उनके परिवार को नहीं दिया गया। अतः उनके राजपुरोहित ने राजा का पुतला बनाकर गंगा किनारे अन्तिम संस्कार की रस्म पूरी की।
1857 के स्वतन्त्रता संग्राम में हरयाणा के जाटों की वीरता एवं बलिदान
इस स्वतन्त्रता प्राप्ति युद्ध में हरयाणा प्रदेश के रामपुरा, रिवाड़ी, फर्रुखनगर, झज्जर, बहादुरगढ़, बल्लभगढ़, नारनौल, श्यामड़ी (सामड़ी), रोहतक, थानेसर, करनाल, पानीपत, पाई, कैथल, सिरसा, हांसी, नंगली, जमालपुर, हिसार आदि सभी स्थान क्रांतिकारियों के केन्द्र रहे हैं। उपर्युक्त सभी स्थानों पर कुछ न कुछ दिन आजादी के दीवानों की हकूमत रही है। यहां पर मैं केवल जाटों से सम्बन्धित कुछ बातें लिखता हूं -
उस समय रोहतक बंगाल के गवर्नर के मातहत था, तथा कमिश्नरी का हैड क्वार्टर आगरा था। रोहतक का डिप्टी कमिश्नर जोहन एडमलौक था। 23 मई को क्रान्तिकारी सेना ने बहादुरगढ़ में प्रवेश किया और 24 मई को रोहतक पहुंची। डिप्टी कमिश्नर गोहाना के रास्ते करनाल भाग गया। रहे हुए अंग्रेज अधिकारियों को मार दिया गया। जेल के दरवाजे खोल दिये गए, कचहरी को आग लगा दी गयी। क्रान्तिकारी सेना ने शहर के हिन्दुओं को लूटना चाहा परन्तु जाटों ने ऐसा न करने दिया। क्रान्तिकारियों ने खजाने से दो लाख रुपया निकाल लिया। मांडौठी, मदीना, महम की चौकियां लूट ली गईं। सांपला तहसील को आग लगा दी गई। सभी अंग्रेज स्त्रियों को जाटों ने, मुस्लिम राजपूत (रांघड़ों) के विरोध के बावजूद, सही सलामत उनके ठिकानों पर पहुंचा दिया। गोहाना पर गठवाला मलिक जाटों ने कब्जा जमा लिया। अंग्रेजी सेना 30 मई को अम्बाला से रोहतक को चली, परन्तु देशी सेना ने उसे श्यामड़ी (सामड़ी) के जंगल में युद्ध करके हरा दिया।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-612
बचे हुए सैनिक 10 जून को सांपला पहुंचे। डिप्टी कमिश्नर सख्त धूप न सह सकने के कारण अन्धा हो गया। रोहतक के क्रान्तिकारी, जिनमें जाटों की संख्या अधिक थी, 14 जून को अंग्रेजों के विरुद्ध दिल्ली पहाड़ी की लड़ाई में शामिल हुए थे।
जब अंग्रेज रोहतक पर किसी तरह भी काबू न पा सके तो उन्होंने 26 जुलाई 1857 ई० को रोहतक को जींद के महाराजा स्वरूपसिंह को सौंप दिया। दिसम्बर के अन्त तक जाटों की खापें अंग्रेजों से युद्ध करने के अतिरिक्त आपस में एक दूसरे पर आक्रमण करती रहीं और बीच-बीच में रांघड़ों तथा कसाइयों से भी लड़ती रहीं।
कप्तान हडसन अपने साथ अंग्रेज सैनिकों को लेकर 16 अगस्त, सन् 1857 को 12 बजे रोहतक पहुंचा था। उसने कुछ लोगों को इकट्ठे देखकर गोली चला दी जिससे 16 आदमी मर गये। यह घटना चारों ओर के देहात में फैल गई। अगले दिन 17 अगस्त को सिंहपुरा, सुन्दरपुर, टिटौली आदि के 1500 जाट चढ़ आये। उन्होंने हडसन की सेना से युद्ध किया जिसमें इनके 50 आदमी शहीद हो गये।
हिसार में सन् 1857 में हरयाणवी फौज की लाइट पलटन तथा 14 नम्बर घुड़सवार रिसाला था। इनमें जाट सैनिक थे जिन्होंने क्रान्ति कर दी। पंजाब के तत्कालीन चीफ कमिश्नर सर जॉन लारेन्स ने एक अनुभवी जनरल वॉन कोटलैंड को सेना देकर वहां भेजा। हिसार, सिरसा, [Hansi|हांसी]] और उनके देहात में जहां भी जो अंग्रेज मिले, उनको मौत के घाट उतार दिया गया। जहां रोहतक और करनाल के युद्धों में सिक्खों ने अंग्रेजों की सहायता की, वहां हिसार के युद्ध में महाराजा बीकानेर के 800 सैनिक अंग्रेजों की तरफ होकर क्रान्तिकारी सेना से लड़े।
कुरुक्षेत्र के ब्राह्मणों के आदेश से हरयाणवी सेना ने इलाके के जाटों के साथ मिलकर थानेसर की सरकारी इमारतें जला दीं और तहसील पर कब्जा कर लिया। पाई के जाटों ने कैथल जीत लिया। असन्ध के मुसलमान राजपूत पानीपत तक चढ़ आये। खरखौदा के लोग बादशाही फौज में जा मिले। गदर के समाप्त होने पर खरखौदा की देहात के 20 आदमी गोली से उड़ा दिये गये और 14 को फांसी पर लटकाया गया।
इस तरह हरयाणा के अन्दर फैले विद्रोह को दबाने के लिये सिक्ख व राजपूत फौज तथा अंग्रेजी फौज ने भारी अत्याचार किये तथा सन् 1857 ई० के अन्त तक सारे प्रदेश पर अधिकार कर लिया गया।
गदर समाप्त होने पर अंग्रेजों के जनता पर किये गये अत्याचार
जब गदर समाप्त हुआ तो प्रायः सभी गांवों के मुखिया लोगों और खासकर नम्बरदारों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। झज्जर के चारों ओर की सड़कें उल्टे लटके मनुष्यों की लाशों से सड़ उठी थीं। रांघड़ों के नम्बरदारों तथा सामड़ी (गोहाना तहसील में) गांव के 10 जाट नम्बरदारों एवं एक ब्राह्मण को रोहतक की कचहरी व शहर के बीच नीम के वृक्षों पर (वर्तमान चौधरी छोटूराम की कोठी के सामने के वृक्षों पर) फांसी पर लटकाया गया था। फांसी से पहले अंग्रेज हाकिमों ने उन 10 जाट नम्बरदारों से पूछा - “बोलो क्या चाहते हो?” जाटों ने कहा कि हमारे ग्यारहवें साथी मुल्का ब्राह्मण को छोड़ दो। मुल्का ब्राह्मण ने अपने साथियों से अलग होने से
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-613
इन्कार कर दिया। उसे भी उनके साथ ही फांसी दे दी गई। सारी लाशें गांव में लाकर जलाई गईं। उनके नाम ये हैं - 1. मुल्का ब्राह्मण 2. हरदयाल 3. श्योगा 4. बहादुरचन्द 5. हरकू 6. जमनासिंह 7. हरिराम 8. शिल्का 9. भाईय्या। नं० 2 से 9 तक सब जाट थे। शेष दो नामों का पता नहीं चला।
लिबासपुर गांव (तहसील सोनीपत) के उदमीराम जाट* ने अपने 22 वीर योद्धाओं के साथ इस क्रान्तिकारी युद्ध में बढ़-चढ़कर भाग लिया। जी० टी० रोड पर से जाने वाले अंग्रेजों को उन्होंने मौत के घाट उतार दिया था। क्रान्ति समाप्त होने तक अंग्रेजों ने लिबासपुर गांव को घेर लिया। उदमीराम, जसराम, रामजस, सहजराम, रतिया (सब जाट) आदि वीर योद्धाओं ने अपने साधारण शस्त्र तलवार, जेली, भाले आदि से अंग्रेज सेना का मुकाबला किया। बहुत से मारे गये और शेष को पकड़कर फांसी दे दी गयी। गांव की सब सम्पत्ति अंग्रेजों ने लूट ली। गांव की सब स्त्रियों से बलपूर्वक आभूषण छीन लिये गये।
मुरथल ग्राम निवासियों ने भी इसी प्रकार अंग्रेजों के मारने में वीरता दिखाई थी। शान्ति होने पर अंग्रेज सेना मुरथल गांव को इसी प्रकार दण्ड देने आ रही थी किन्तु नम्बरदार नवलसिंह मुरथल निवासी अंग्रेज सेना को मार्ग में मिला। अंग्रेजों ने उससे पूछा कि मुरथल गांव कहां है? उस नम्बरदार ने बताया कि आप उस गांव को तो बहुत पीछे छोड़ आये हैं। इस पर अंग्रेज सेना पीछे लौट गयी। नम्बरदार की चतुराई से मुरथल गांव बरबाद होने से बच गया।
कुण्डली, खामपुर, अलीपुर, हमीदपुर, सराय आदि अनेक गांव हैं जिन्होंने सन् 1857 के स्वतन्त्रता युद्ध में अंग्रेजों को मौत के घाट उतारा था। शान्ति होने पर अंग्रेजों ने इन गांवों के निवासियों पर बड़े अत्याचार किये तथा उनकी सब सम्पत्ति लूट ली गई थी। अनेक वीरों को फांसी दी गई थी।
दिल्ली पर अंग्रेजों का 24 सितम्बर सन् 1857 को अधिकार के पश्चात् उन्होंने फरूखनगर के नवाब मोहम्मद अली, बहादुरगढ़ के नवाब बहादुरजंग और झज्जर के नवाब अब्दुर्रहमान खां को कैद कर लिया। ये सब क्रान्तिकारी थे। इसी अपराध में इन तीनों को फांसी दी गई। उनके साथियों को गोली से उड़ा दिया गया। इन नवाबों की रियासतें अंग्रेजों ने जब्त कर लीं।
23 दिसम्बर, 1857 ई० को दिल्ली के लाल किले के सामने नवाब अब्दुर्रहमान खां को फांसी दी गयी थी। इसकी रियासत के अनेक टुकड़े करके विभिन्न भागों में बांट दिया गया। नारनौल, बावल तथा दादरी के प्रदेश अंग्रेजों ने अपनी सहायता करने वाले सिक्ख राजाओं, पटियाला, नाभा व जीन्द को दे दिये। नाहड़ का इलाका दुजाना के नवाब को भेंट कर दिया गया। छुछकवास एक अंग्रेज पक्षपाती गोहाना के पठान को दे दिया। नवाब झज्जर की सारी सम्पत्ति जब्त करके दिल्ली ले जाई गई। सन् 1862 ई० में झज्जर को देहली से काटकर रोहतक के साथ मिला दिया गया और
- नोट - * उदमी राम को कैद करके एक वृक्ष से बांध दिया गया। वह भूखा-प्यासा 35 दिन बाद स्वर्ग को सिधार गया। वह देश पर बलिदान हो गया लेकिन उसने अंग्रेजों के सामने अपना सिर नहीं झुकाया। अन्य कैदियों को कोल्हुओं से पीस कर मार डाला।
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साथ ही बहादुरगढ़ को भी। उसी समय रोहतक जिले को आगरा से अलग करके सजा के तौर पर पंजाब में मिला दिया गया। इस तरह से झज्जर की प्रसिद्धि नवाबी का अन्त हो गया।
हरयाणा प्रान्त के महान् योद्धा राव राजा तुलाराम
जब भारतीयों ने अंग्रेजों के विरुद्ध स्वतंत्रता संग्राम का आरम्भ कर दिया तब वीर राजा तुलाराम ने भी स्वतन्त्रता प्राप्ति के लिए शंखध्वनि की। हरयाणा के अनेकों वीर योद्धा राव तुलाराम के झण्डे के नीचे एकत्रित हो गये। राव तुलाराम ने अपनी सेना के साथ दिल्ली की ओर कूच कर दिया। मार्ग में सोहना और तावड़ू के बीच अंग्रेज सेना से उनकी मुठभेड़ हो गई। दोनों सेनाओं का घमासान युद्ध हुआ। इस युद्ध में मि० फोर्ड को मुंह की खानी पड़ी और उसकी सारी फौज नष्ट हो गई और वह स्वयं दिल्ली भाग गया।
उधर मेरठ के राजा तुलाराम के चचेरे भाई राव कृष्ण गोपाल जो नांगल पठानी (रेवाड़ी) के राव जीवाराम के पुत्र थे, और मेरठ में कोतवाली पद पर थे, उन्होंने समस्त कैदखानों के दरवाजों को खोल दिया और नवयुवकों को स्वतन्त्रता के झण्डे के नीचे एकत्रित कर लिया था। सूचना जानकर वीर कृष्णगोपाल अपने साथियों सहित रेवाड़ी में पहुंचकर राव तुलाराम के साथ मिल गये। राजा तुलाराम ने कृष्णगोपाल को सेनापति नियुक्त कर दिया।
मि० फोर्ड के नेतृत्व में पुनः एक विशाल सेना राव तुलाराम के दमन के लिए आई। राव साहब ने रेवाड़ी में युद्ध न करने की सोचकर महेन्द्रगढ़ के किले को अपने मोर्चे का लक्ष्य बनाया। अतः अपनी सेना सहित महेन्द्रगढ़ की ओर प्रस्थान किया। अंग्रेजों ने आते ही गोकुलगढ़ के किले और राव तुलाराम के निवास घर, जो रामपुरा (रेवाड़ी) में स्थित है, को सुरंगें लगाकर नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और तुलाराम की सेना के पीछे महेन्द्रगढ़ की तरफ कूच किया।
राव तुलाराम के बहुत कहने पर भी दुर्ग के अध्यक्ष ठाकुर स्यालुसिंह कुतानी निवासी ने किले के फाटक नहीं खोले (बाद में अंग्रेजों ने स्यालुसिंह को समस्त कुतानी ग्राम की भूमि प्रदान कर दी)।
वीर तुलाराम अपनी सेना सहित नारनौल के समीप एक पहाड़ी स्थान पर नसीबपुर के मैदान में पहुंचे और वहां युद्ध के लिए जम गये। अंग्रेजों के आते ही भीषण युद्ध हुआ। यह भीषण युद्ध तीन दिन होता रहा। तीसरे दिन महाराणा प्रतापसिंह के घोड़े की भांति राव तुलाराम का घोड़ा भी शत्रु सेना को चीरता हुआ अंग्रेज अफसर (जो काना साहब के नाम से विख्यात था) के समीप पहुंचा। सिंहनाद करके वीरवर तुलाराम ने अपनी तलवार से हाथी का मस्तक काट दिया और दूसरे प्रहार से काना साहब को यमपुर पहुंचा दिया। इससे अंग्रेज सेना में भगदड़ मच गई। मि० फोर्ड भी मैदान छोड़कर भागे और दादरी के समीप मोड़ी नामक गांव में एक जाट चौधरी के यहां शरण ली। (बाद में मि० फोर्ड ने उस चौधरी को जहाजगढ़ (रोहतक) के समीप बराणी गांव में एक बड़ी जागीर दी और उस गांव का नाम फोर्डपुरा रखा)।
परन्तु इस दौरान में पटियाला, नाभा, जींद एवं जयपुर की देशद्रोही नागा सेना अंग्रेजों की सहायता के लिए आ जाने से पुनः भीषण युद्ध छिड़ गया। परन्तु अपार सेना के समक्ष अल्प सेना
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का चारा न चल सका। इसी नसीबपुर के मैदान में वीरशिरोमणि राव कृष्णगोपाल, राव रामलाल, राव किशनसिंह, सरदार मणिसिंह, मुफ्ती निजामुद्दीन, शादीराम, रामधनसिंह, समदखां पठान आदि बलिदान हो गये।
नसीबपुर के मैदान में राव तुलाराम हार गये और अपने बचे हुए सैनिकों के साथ रिवाड़ी की तरफ आ गये। राव तुलाराम कालपी पहुंचे। यहां पर नाना साहब के भाई राव साहब, तांत्या टोपे, रानी झांसी तथा अन्य राजाओं ने विचार विमर्श कर राव तुलाराम को सहायता प्राप्त करने के उद्देश्य से अफगानिस्तान भेज दिया। राव तुलाराम पहले बसरा, फिर तेहरान और वहां से अमीर काबुल की राजधानी कंधार में पहुंच गये। वहां रहकर बहुत प्रयत्न किया परन्तु सहायता प्राप्त न हो सकी। राव तुलाराम का छः वर्ष तक अपनी मातृभूमि से दूर रहकर पेचिस द्वारा 23-9-1863 को स्वर्गवास हो गया।
नाना साहब पेशवा, रानी लक्ष्मीबाई, वीर तांत्या टोपे
नाना साहब पेशवा -
कानपुर में विद्रोहियों का नेता नाना साहब था। उसने जून 1857 ई० के प्रथम सप्ताह में कानपुर पर अधिकार कर लिया तथा अपने आपको पेशवा घोषित कर दिया। कानपुर के किले के अंग्रेज सेनापति व्हीलर (Wheeler) ने कुछ विरोध के बाद 26 जून 1857 ई० को आत्मसपर्मण कर दिया।
17 जुलाई 1857 ई० को जनरल हैवलाक ने नाना साहब की सेना को पराजित किया तथा कानपुर में प्रवेश किया। उसने कानपुर की रक्षा के लिए नील को नियुक्त किया और स्वयं लखनऊ चला गया।
नाना साहब ने बुन्देलखण्ड तथा ग्वालियर से एक शक्तिशाली सेना एकत्रित की और कानपुर पर फिर आक्रमण कर दिया। नील ने तुरन्त ही हैवलाक को कानपुर में वापस बुला लिया। 17 अगस्त 1857 ई० को हैवलाक तथा नाना साहब की सेनाओं में युद्ध हुआ, परन्तु अन्त में दोनों को पीछे हटना पड़ा।
हैवलाक की प्रार्थना पर 15 सितम्बर को कलकत्ता से जेम्ज़ औट्रम के नेतृत्व में एक और सेना कानपुर आ पहुंची। परन्तु इसके बावजूद भी नाना साहब तथा तांत्या टोपे ने नवम्बर, 1857 ई० को कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। हैवलाक लखनऊ की ओर भाग गया, जहां 24 नवम्बर को उसकी मृत्यु हो गई।
अब प्रधान सेनापति कोलिन कैम्पबैल ने सेना सहित कानपुर की ओर स्वयं प्रस्थान किया। नाना साहब और तांत्या टोपे ने गंगा किनारे उसका विरोध किया। 1 दिसम्बर से 6 दिसम्बर 1857 ई० तक छः दिन घमासान युद्ध होता रहा। अन्त में कैम्पबैल सफल हुआ और उसने कानपुर पर पुनः अधिकार कर लिया। नाना साहब नेपाल की ओर भाग निकला और उसकी वहां कहीं मृत्यु हो गई। तांत्या टोपे झांसी की रानी के साथ जा मिला और उसने कुछ समय और अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध किया।
झांसी की रानी लक्ष्मीबाई -
मध्य भारत में झांसी के स्वर्गीय राजा गंगाधर राव की विधवा रानी लक्ष्मीबाई ने
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क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। 4 जून 1857 ई० को झांसी के सैनिकों ने अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई उनकी नेता बन गई तथा उसने झांसी पर अपना स्वतन्त्र शासन स्थापित कर लिया। कानपुर के हाथों से चले जाने के बाद तांत्या तोपे भी रानी से आ मिले। अप्रैल 23, 1858 ई० को सर ह्यू रोज (Sir Hugh Rose) के नेतृत्व में अंग्रेज सेना ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी लक्ष्मीबाई ने बड़ी वीरता से शत्रुओं का मुकाबला किया, परन्तु उनकी विशाल सेना के सामने वह अधिक समय तक न टिक सकी। अन्त में वह बड़ी शीघ्रता से झांसी को छोड़कर अपने दत्तक पुत्र दामोदर को कमर से बांधे हुये 102 मील की दूरी पर कालपी जा पहुंची।
वहां तांत्या टोपे ने रानी का साथ दिया और वहां दोनों ने मिलकर अंग्रेज सेना का वीरता से मुकाबला किया। घमासान युद्ध के बाद 24 मई, 1858 को अंग्रेजों का कालपी पर अधिकार हो गया।
कालपी से रानी लक्ष्मीबाई तथा तांत्या टोपे ग्वालियर की ओर चले गए। उन्हें आशा थी कि सिन्धिया उनकी सहायता करेगा, परन्तु सिंधिया ने तो उनसे युद्ध करने के लिए सेनायें तैयार कर लीं। उसके सैनिकों ने उसका साथ न दिया तथा उसे अपने मन्त्री दिनकर राव सहित भागकर आगरा में अंग्रेजों के पास शरण लेनी पड़ी। इस प्रकार जून 1858 ई० में ग्वालियर पर रानी लक्ष्मीबाई तथा तांत्या टोपे का अधिकार हो गया। अब सिन्धिया को साथ लेकर जनरल ह्यू रोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। 11 जून से 18 जून 1858 ई० तक दोनों सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ जिसमें रानी लक्ष्मीबाई बड़ी वीरता से लड़ती हुई मारी गयी। रानी के अचेत, घायल शरीर को रानी का घोड़ा बाबा गंगादास की कुटिया पर ले गया। बाबा ने लकड़ियों से चिता बनाई और रानी के शव को उस पर रखकर अग्नि संस्कार कर दिया। रानी की इच्छा के अनुसार दुष्ट अंग्रेजों का अपवित्र हाथ उसके मृत शरीर पर भी न लगने पाया। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई की देशभक्ति तथा वीरता सदा अमर रहेगी।
वीर तांत्या टोपे -
तांत्या टोपे का जन्म पुणे (पूना) में महाराष्ट्र प्रान्त में हुआ। सन् 1857 ई० के स्वतन्त्रता युद्ध में यह नाना साहब का प्रधान सेनापति था। इस वीर योद्धा ने अंग्रेजी सेनाओं के विरुद्ध अनेक युद्धों में भाग लिया जिनमें कानपुर, झांसी, कालपी तथा ग्वालियर आदि प्रमुख हैं। इनका वर्णन पीछे किया जा चुका है।
जून, 1858 ई० को रानी लक्ष्मीबाई और तांत्या तोपे ने ग्वालियर के किले पर अपना अधिकार कर लिया था। सिन्धिया को साथ लेकर ह्यू रोज ने ग्वालियर पर आक्रमण कर दिया। 11 जून से 18 जून तक दोनों ओर की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ जिसमें रानी लक्ष्मीबाई वीरगति को प्राप्त हुई। 20 जून 1858 ई० को तांत्या टोपे भी ग्वालियर को छोड़कर दक्षिण की ओर भाग गया। वह चम्बल नदी को पार करके झालरा पाटन की ओर बढ़ा। वहां के राजा की सेना 32 तोपों सहित तांत्या टोपे से आ मिली। अंग्रेजी सेना इसके पीछे लगी हुई थी। अन्त में अक्तूबर 1858 ई० में तांत्या अपनी सेना सहित राव साहब (नाना साहब का भाई) और बांदा के नवाब को साथ लेकर नागपुर के निकट पहुंचा। यहां के लोगों ने तांत्या को किसी प्रकार की सहायता न दी। तांत्या ने
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विवश होकर बड़ौदा की ओर जाने का विचार किया। दोनों ओर नर्मदा नदी के प्रत्येक घाट पर अंग्रेज सेनायें पड़ी थीं। वहां पर मेजर सण्डरलैण्ड की सेना के साथ तांत्या का संग्राम हुआ। तांत्या अंग्रेजों के घेरे में था। अतः उसने अपनी सेना को आज्ञा दी कि सब तोपें छोड़कर नर्मदा में कूद पड़ो। तांत्या और उसकी सेना पलभर में नर्मदा के पार दिखाई दी। अंग्रेज चकित रह गये।
सिन्धिया के एक सरदार मानसिंह ने, जो कि तांत्या टोपे का मित्र बन चुका था और अंग्रेजों का जासूस था, 7 अप्रैल 1859 ई० को ठीक आधी रात के समय जंगलों में सोते हुए तांत्या टोपे को अंग्रेजों से पकड़वा दिया। मानसिंह ने यह विश्वासघात तथा देशद्रोही का कार्य किया।
18 अप्रैल 1859 ई० को तांत्या तोपे को फांसी दे दी गयी। इस वीर योद्धा का नाम सदा अमर रहेगा।
राजा कंवरसिंह -
बिहार में जगदीशपुर के जमींदार राजा कंवरसिंह ने क्रान्तिकारियों का नेतृत्व किया। 25 जुलाई, 1857 ई० को दानापुर की देशी पलटनें राजा कंवरसिंह के पास पहुंच गईं। इस क्रान्ति के समय राजा कंवरसिंह की आयु 80 वर्ष की थी। परन्तु वृद्धावस्था के बावजूद उनमें साहस तथा संकल्प की कमी न थी। उन्होंने अंग्रेजों पर कई विजयें प्राप्त कीं और जगदीशपुर को स्वतन्त्र रखा। अप्रैल 22, 1858 ई० को उनकी मृत्यु के पश्चात् उसके भाई अमरसिंह ने अंग्रेजों से युद्ध जारी रखा। परन्तु अक्तूबर 19,1858 ई० को अंग्रेजों ने राजा अमरसिंह को पराजित करके भाग जाने पर विवश कर दिया और जगदीशपुर पर अधिकार कर लिया। इस वीर योद्धा राजा अमरसिंह की पहाड़ियों में कहीं मृत्यु हो गई।
सन् 1859 ई० के प्रारम्भ तक विद्रोह को पूर्ण रूप से दबा दिया गया।
विद्रोह के परिणाम
सन् 1757 ई० से चला आ रहा भारत में कम्पनी का शासन समाप्त करके 1858 ई० के एक्ट द्वारा भारत में इंग्लैंड की सरकार का सीधा शासन स्थापित कर दिया गया। भारत के गवर्नर-जनरल को वाइसराय की नई उपाधि दी गई। भारत में मुग़ल वंश के साम्राज्य का अन्त हो गया। देशी राज्यों को ब्रिटिश साम्राज्य में मिलाने की नीति को सदा के लिए त्याग दिया गया।
महारानी विक्टोरिया की घोषणा - 1 नवम्बर, 1858 ई० को इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया ने भारत में अंग्रेज सरकार की नीति के सम्बन्ध में एक घोषणा की। इस घोषणा में कहा गया कि भारत में धार्मिक सहनशीलता की नीति अपनाई जायेगी; देशी राज्यों का विलय नहीं किया जायेगा; भारत के लिए कानून बनाते समय भारतीयों के रीति-रिवाजों तथा धार्मिक भावनाओं को ध्यान में रखा जायेगा; जाति, धर्म के भेदभाव का ध्यान न करते हुए भारतीयों को सरकारी पदों पर नियुक्त किया जायेगा; सभी लोगों को कानून की दृष्टि से एक समान समझा जायेगा; भारतीयों की भलाई तथा उद्योग की उन्नति के लिए प्रयत्न किये जायेंगे, आदि-आदि।
दिल्ली के चारों ओर 150-200 मील दूरी तक के प्रान्त हरयाणा में जाट, अहीर गुर्जर, राजपूत आदि योद्धा जातियां बसती हैं, जिनमें जाटों की संख्या और जातियों से अधिक है।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-618
हरयाणा प्रान्त के वीरों ने इस स्वतन्त्रता युद्ध में सब प्रान्तों से बढ़-चढ़कर भाग लिया था। इस युद्ध के शान्त होने पर हरयाणा प्रान्त की जनता पर अंग्रेजों ने जो भीषण अत्याचार किये उनको स्मरण करने से वज्र हृदय भी कांप उठता है। स्वतन्त्रता युद्ध की समाप्ति पर अंग्रेजों ने इस विशाल प्रान्त को अनेक भागों में विभाजित करके इस वीर प्रान्त की संगठन शक्ति को चूर-चूर कर दिया।
मेरठ, आगरा, सहारनपुर आदि इसके इसके भाग उत्तरप्रदेश में मिला दिये। भरतपुर, अलवर आदि राजस्थान में मिला दिये। कुछ भाग को दिल्ली प्रान्त का नाम देकर के पृथक् कर दिया। नारनौल को पटियाला राज्य, बावल को नाभा और दादरी व नरवाना को जींद स्टेट में मिला दिया, ये झज्जर प्रान्त के भाग थे। शेष गुड़गांव, रोहतक, हिसार, करनाल आदि को पंजाब में मिला दिया। इस प्रकार हरयाणा भूमि को खण्डशः करके हरयाणा नाम ही मिटा दिया गया।
ईश्वर की कृपा से 108 वर्ष पश्चात् 1 नवम्बर 1966 ई० को पुनः हरयाणा नाम के प्रान्त की स्थापना हुई, किन्तु यह बहुत छोटे क्षेत्र वाला प्रान्त है, जिसे पंजाब प्रान्त से अलग करके हरयाणा प्रान्त नाम रखा गया।
प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम लेख की आधार पुस्तकें -
- 1. सर्वखाप पंचायत रिकार्ड, कार्यालय गांव शोरम जि० मुजफ्फरनगर।
- 2. सुधारक बलिदान विशेषांक, लेखक श्री आचार्य भगवान्देव, सन् 1857 ई० के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम सम्बन्धित प्रकरण।
- 3. भारत का इतिहास (प्री-यूनिवर्सिटी कक्षा के लिए), पृ० 468-491, लेखक अविनाशचन्द्र अरोड़ा।
- 4. भारतीय इतिहास, पृ० 182-199 ।
जाट वीरों का इतिहास: दलीप सिंह अहलावत, पृष्ठान्त-619
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