Kaman
Author: Laxman Burdak IFS (R) |
Kaman (कामां) village is situated in Tehsil- Kaman, District- Bharatpur in Rajasthan. Its ancient name was Kamyaka Vana. Its ancient name Kamaprastha (कामप्रस्थ) has been mentioned by Panini in Ashtadhyayi (4.2.138)[1] and (6.2.88) group.[2]
Variants
- Kamana (कामां) (जिला भरतपुर, राज.) (AS, p.168)
- Kamavana (कामवन) (जिला भरतपुर, राज.) (AS, p.168)
- Kamyavana (काम्यवन)
- Kama (काम) दे. Kamyavana काम्यवन (AS, p.167)
- Kamavana (कामवन) (जिला भरतपुर, राज.) (AS, p.168)
- Chaurasi Khambha (चौरासीखम्भा) दे. Kamavana कामवन (AS, p.347)
Location
Located about 50 km north of Bharatpur City. Its PIN Code-321022.
Founder
Kaman was founded by Jat ruler of Delhi Kaldahan or Kamsen (515 BC-506 BC). Kama clan is found in Afghanistan.[3]
Jat Gotras
1.SINSINWAR 2.CHAHAR
Villages in Kaman tahsil
Akata, Akbarpur, Anchwara, Angrawali, Asooka, Badli, Bajhera, Bambadi, Bamni, Bansoli, Barauli Dhau, Bas Karmooka, Bas Laddooka, Bas Nandera, Basai Dahra Mai Lohagarh, Basra Laddooka, Bhandara, Bhooraka, Bilang, Bilond, Birar, Chak Nandola, Chhichharwari, Dandarra, Dantka, Dhana, Dharmshala, Dhilawati, Dhool Bas, Fatehpur, Gaonri, Garh Ajan, Ghata, Ghoghor, Gurgaon, Gurguriya, Indroli, Jajanka, Jhenjhpuri, Jhilpatti, Jurhara, Jurhari, Kadam Khandi, Kalawata, Kaman (M), Kanwara, Kanwari, Karmooka, Kautka, Khaichatan, Khanpur, Khera, Kherli Gumani, Kherli Jallo, Khohra, Khoontpuri, Kirawata, Kulwana, Ladlaka, Lalpur, Lewra, Luhesar, Manchi, Mauroli, Moonsepur, Mullaka, Murar, Nagla Baldeo, Nagla Bhatt Ki, Nagla Bhongra, Nagla Chahra, Nagla Dandoo, Nagla Doobokhar, Nagla Harnarayan, Nagla Harsukh, Nagla Ishrisingh, Nagla Jalim, Nagla Kishorsingh, Nagla Kulwana, Nagla Kundan, Nagla Mukariv, Nagla Shahjad, Nagla Sonokhar, Nagla Vadipur, Nagla Vanchariya, Nandera, Nandola, Naunera, Neemla, Netwari, Nogawan, Olanda, Pai, Palla, Palri, Parehi, Pathwari, Radhanagri, Rasoolpur, Rosyaka, Rundh Kanwara, Sabalgarh, Sablana, Sahera, Samdhara, Satwas, Sonokhar, Sunhera, Tayra, Udaka, Unchera, Undhan, Vadipur, Varnaul, Vaulkhera,
Mention by Panini
Kamaprastha (कामप्रस्थ) is name of a Country mentioned by Panini in Ashtadhyayi under Gahadi (गहादि) (4.2.138) group. [4]
Kama (काम) is mentioned as place name ending Prastha (Kamaprastha) by Panini in Ashtadhyayi under Maladi (मालादि) (6.2.88) group.[5]
History
We find mention of an island around Lake Urmia in Iran.
Kaladahana or Kamsena became ruler of Delhi in 515 BC. His rule extended up to Brahmpura which was known as Kamyavana (Kaman) after Kamsen. In 506 Strumardan became the ruler of Delhi after Kamsen. (See - Kamyaka Vana)
Aurangzeb died in 1707. Taking advantage of the weakness of Mughal rule, Churaman planned to expand his state. His rise started from the battle of Jajau in 1707. After the war was over he looted both armies of Azam as well as Muazzam. Churaman showed wisdom and decided to be honest to the New Mughal ruler with a view to protect huge wealth of booty. He appeared before Bahadurshah on 15 September 1707 and presented gifts in his honour.
In January 1709 Churaman entered into an agreement with Jay Singh, looking to the possibilities of victory of Rajputs in wars of Sambhar and Kaman and Bahadurshah’s intention to compromise with them. Under the garb of agreement Churaman intensified his campaign to abolish Rajput Zamindars and capturing back the Jat areas occupied by Kachwahas. He succeeded in getting back Sogar, Bhusawar, Kaman, Khohari, Kot, Khunthare, Ithera, Jadila and Chaugdara.
काम्यवन
कामां जिले को काम्यवन कहते हैं, पहले यहां काम्यक लोगों का राज था। इसका पहला नाम ब्रह्मपुर भी बताया जाता है। यदुवंशी राजा कामसेन ने इसका कामां नाम रखा था, ‘ब्रजेन्द्र वंश भास्कर’ से इसका पता लगता है।[6]
कामां
विजयेन्द्र कुमार माथुर[7] ने लेख किया है ...कामां (AS, p.168) इस स्थान से खंडित पाषाण पर उत्कीर्ण, विष्णु के विविध अवतारों की कई गुप्तकालीन मूर्तियां प्राप्त हुई हैं. यह पाषाण किसी मंदिर का भग्नांश जान पड़ता है. कामां में प्राचीन शिव मूर्तियां भी मिली है जिनमें एक चतुर्मुखी लिंग प्रतिमा भी है. इसके चार मुख विष्णु, ब्रह्मा, शिव और सूर्य के परिचायक हैं. एक पाषाण फलक पर शिव-पार्वती के परिणय का सुंदर चित्र मूर्तिकारी में अंकित है. यह सब कलाअवशेष अब अजमेर संग्रहालय में हैं.
काम्यकवन
विजयेन्द्र कुमार माथुर[8] ने लेख किया है ... काम्यकवन (AS, p.170): महाभारत में वर्णित एक वन जहाँ पांडवों ने अपने वनवास काल का कुछ समय बिताया था। यह सरस्वती नदी के तट पर स्थित था--स व्यासवाक्यमुदितो वनाद्द्वैतवनात् तत: ययौसरस्वतीकूले काम्यकंनाम काननम्।
काम्यकवन का अभिज्ञान कामवन, ज़िला भरतपुर, राजस्थान से किया गया है।
एक अन्य जनश्रुति के आधार पर काम्यकवन कुरुक्षेत्र के निकट स्थित सप्तवनों में था और इसका अभिज्ञान कुरुक्षेत्र के ज्योतिसर से तीन मील दूर पहेवा के मार्ग पर स्थित कमौधा स्थान से किया गया है।
महाभारत वनपर्व 1 के अनुसार द्यूत में पराजित होकर पांडव जिस समय हस्तिनापुर से चले थे तो उनके पीछे नगर निवासी भी कुछ दूर तक गए थे। उनको लौटा कर पहली रात उन्होंने प्रमाणकोटि नामक स्थान पर व्यतीत की थी। दूसरे दिन वह विप्रों के साथ काम्यकवन की ओर चले गए- तत: सरस्वती कूले समेपु मरुधन्वसु, काम्यकंनाम दद्दशुर्वनंमुनिजन प्रियम् (महाभारत वनपर्व 5, 30)। यहाँ इस वन को मरुभूमि के निकट बताया गया है। यह मरुभूमि राजस्थान का मरुस्थल जान पड़ता है जहाँ पहुँच कर सरस्वती लुप्त हो जाती थी। (दे. विनशन) इसी वन में भीम ने किमार नामक राक्षस का वध किया था। (महाभारत वनपर्व 11) इसी वन में मैत्रेय की पांडवों से भेंट हुई थी जिसका वर्णन उन्होंने धृतराष्ट्र को सुनाया था--तीर्थयात्रामनुकामन् प्राप्तोस्मि कुरुजांगलान् यद्दच्छया धर्मराज द्दष्टवान् काम्यके वने। ( महाभारत वनपर्व 10, 11)
[p.171]: काम्यकवन से पांडव द्वैतवन गए थे। (महाभारत वनपर्व 10,1128)
कामवन
विजयेन्द्र कुमार माथुर[9] ने लेख किया है ...कामवन (जिला भरतपुर, राज.) (AS, p.168): यह स्थान जिसे जनश्रुति में प्राचीन काम्यकवन बताया जाता है, अब एक छोटा सा कस्बा है. यहां से प्राप्त प्राचीन अवशेषों के आधार पर कामवन [p.169] अवश्य ही बहुत पुराना स्थान जान पड़ता है. कहा जाता है कि 12 वीं सदी में रचित वराहपुराण में इस वन का तीर्थरूप में वर्णन है-- 'चतुर्थकाम्यकवनं बनानां वनमुत्तमम्, तत्रगत्वा नरोदेवि ममलोके महीयते' (मथुराखंड, 2). यहां इस वन की मथुरा के परिवर्ती वनों में गणना की गई है.
कामवन को वैष्णव संप्रदाय में आदि वृंदावन भी कहा जाता है. वृंदादेवी का मंदिर यहां आज भी है. कामवन से 6 मील दूर घाटा नामक स्थान स्थान से एक शिलालेख प्राप्त हुआ था जिससे सूचित होता है कि 905 ई. में गुर्जर-प्रतिहार वंश के शासक राजा भोजदेव ने कामेश्वर महादेव के मंदिर के लिए भूमि दान की थी. इससे इस स्थान का नाम कामेश्वर शिव के नाम पर ही पड़ा मालूम होता है.
चौरासीखम्भा नामक स्थान से भी, जो कामवन के निकट ही है, 9 वीं सदी का एक अभिलेख प्राप्त हुआ है जिसमें गुर्जर प्रतिहार वंश के राजाओं का उल्लेख है. इस वंश की रानी बच्छालिका ने यहां विशाल विष्णु मंदिर बनवाया था जिसे बाद में आक्रमणकारी मुसलमानों ने मस्जिद के रूप में परिवर्तित कर दिया था. इस मंदिर को अब 84-खंभा कहा जाता है. इसके खंभों में रूपवास और फतेहपुर-सीकरी का पत्थर लगा हुआ है. प्राचीन समय में इन स्तंभों की संख्या बहुत अधिक थी और इन पर गणेश, काली, विष्णु आदि की मनोहर मूर्तियां अंकित थी जिन्हें मुसलमानों ने नष्ट कर दिया. स्थानीय जनश्रुति के अनुसार इस मंदिर को जिसमें थे अनगिनत स्तंभ थे, विश्वकर्मा ने एक ही रात में बनाया था. 1882 ई. में सर एलेग्जेंडर नाम के एक पर्यटक ने इस मंदिर के 200 खंभों को देखा था 13वीं सदी में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने इस मंदिर पर आक्रमण करके नष्ट कर दिया जैसा कि प्रवेशद्वार पर अंकित फारसी अभिलेख से सूचित होता है--दिनुस्सुलतान उल आलम उल आदिल उल आजमूल अबुल मुल्क मुजफ्फर इल्तीतमिश उस्सुल्तान' ने इसके पश्चात सन् 1353 ई. में धर्मांध फिरोज तुगलक ने कामवन पर आक्रमण किया और नगर के विनाश और कत्लेआम के साथ मंदिर का भी विध्वंस कर दिया. उसने प्रवेश द्वार के एक स्तंभ पर अपना नाम खुदवा कर पश्चिम की ओर विष्णु प्रतिमा के स्थान पर 7 फुट ऊंचा और 4 फुट चौड़ा एक मेहराबदार एक दरवाजा बनवाकर उसकी मेहराब पर कुरान की आयतें खुदाई. पास ही नमाज का चबूतरा बनवाया जो आज भी है. इस समय 84-खंभों के बीच के चौक की लंबाई 52 फुट 8 इंच और चौड़ाई 49 फुट 9 इंच है. मंदिर के चारों ओर विस्तीर्ण खंडहर पड़े हुए हैं. यहां की कुछ मूर्तियां मथुरा के संग्रहालय में सुरक्षित हैं.
काम्यवन
काम्यवन / कामवन / कामां ब्रजमण्डल के द्वादशवनों में चतुर्थवन काम्यवन हैं। यह ब्रजमण्डल के सर्वोत्तम वनों में से एक हैं। इस वन की परिक्रमा करने वाला सौभाग्यवान व्यक्ति ब्रजधाम में पूजनीय होता है।[1]
हे महाराज ! तदनन्तर काम्यवन है, जहाँ आपने (श्रीब्रजेन्द्रनन्दन कृष्ण ने) बहुत सी बालक्रीड़ाएँ की थीं । इस वन के कामादि सरोवरों में स्नान करने मात्र से सब प्रकार की कामनाएँ यहाँ तक कि कृष्ण की प्रेममयी सेवा की कामना भी पूर्ण हो जाती है ।[2]
यथार्थ में श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का प्रेम ही 'काम' शब्द वाच्य है । 'प्रेमैव गोपरामाणां काम इत्यागमत प्रथाम्', अर्थात् गोपिकाओं का निर्मल प्रेम जो केवल श्रीकृष्ण को सुख देने वाला होता है, जिसमें लौकिक काम की कोई गन्ध नहीं होती, उसी को शास्त्रों में काम कहा गया है । सांसारिक काम वासनाओं से गोपियों का यह शुद्ध काम सर्वथा भिन्न है । सब प्रकार की लौकिक कामनाओं से रहित केवल प्रेमास्पद कृष्ण को सुखी करना ही गोपियों के काम का एकमात्र तात्पर्य है । इसीलिए गोपियों के विशुद्ध प्रेम को ही श्रीमद्भागवतादि शास्त्रों में काम की संज्ञा दी गई है । जिस कृष्णलीला स्थली में श्रीराधाकृष्ण युगल के ऐसे अप्राकृत प्रेम की अभिव्यक्ति हुई है, उसका नाम कामवन है। गोपियों के विशुद्ध प्रेमस्वरूप शुद्धकाम की भी सहज ही सिद्धि होती है, उसे कामवन कहा गया है।
काम्य शब्द का अर्थ अत्यन्त सुन्दर, सुशोभित या रुचिर भी होता है । ब्रजमंडल का यह वन विविध–प्रकार के सुरम्य सरोवरों, कूपों, कुण्डों, वृक्ष–वल्लरियों, फूल और फलों से तथा विविध प्रकारके विहग्ङमों से अतिशय सुशोभित श्रीकृष्ण की परम रमणीय विहार स्थली है । इसीलिए इसे काम्यवन कहा गया है ।
विष्णु पुराण के अनुसार काम्यवन में चौरासी कुण्ड (तीर्थ), चौरासी मन्दिर तथा चौरासी खम्बे वर्तमान हैं । कहते हैं कि इन सबकी प्रतिष्ठा किसी प्रसिद्ध राजा श्रीकामसेन के द्वारा की गई थी
ऐसी भी मान्यता है कि देवता और असुरों ने मिलकर यहाँ एक सौ अड़सठ(168) खम्बों का निर्माण किया था ।
कुण्ड और तीर्थ:
यहाँ छोटे–बड़े असंख्य कुण्ड और तीर्थ है । इस वन की परिक्रमा चौदह मील की है । विमलकुण्ड यहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ या कुण्ड है । सर्वप्रथम इस विमलकुण्ड में स्नान कर श्रीकाम्यवन के कुण्ड अथवा काम्यवन की दर्शनीय स्थलियों का दर्शन प्रारम्भ होता है । विमलकुण्ड में स्नान के पश्चात् गोपिका कुण्ड, सुवर्णपुर, गया कुण्ड एवं धर्म कुण्ड के दर्शन हैं । धर्म कुण्ड पर धर्मराज जी का सिंहासन दर्शनीय है । आगे यज्ञकुण्ड, पाण्डवों के पंचतीर्थ सरोवर, परम मोक्षकुण्ड, मणिकर्णिका कुण्ड हैं । पास में ही निवासकुण्ड तथा यशोदा कुण्ड हैं । पर्वत के शिखर भद्रेश्वर शिवमूर्ति है । अनन्तर अलक्ष गरुड़ मूर्ति है। पास में ही पिप्पलाद ऋषि का आश्रम है । अनन्तर दिहुहली, राधापुष्करिणी और उसके पूर्व भाग में ललिता पुष्करिणी, उसके उत्तर में विशाखा पुष्करिणी, उसके पश्चिम में चन्द्रावली पुष्करिणी तथा उसके दक्षिण भाग में चन्द्रभागा पुष्करिणी है, पूर्व–दक्षिण के मध्य स्थल में लीलावती पुष्करिणी है । पश्चिम–उत्तर में प्रभावती पुष्करिणी, मध्य में राधा पुष्करिणी है। इन पुष्करिणियों में चौंसठ सखियों की पुष्करिणी हैं। आगे कुशस्थली है । वहाँ शंखचूड़ बधस्थल तथा कामेश्वर महादेव जी दर्शनीय हैं ।, वहाँ से उत्तर में चन्द्रशेखर मूर्ति विमलेश्वर तथा वराह स्वरूप का दर्शन है। वहीं द्रोपदी के साथ पंच पाण्डवों का दर्शन, आगे वृन्दादेवी के साथ गोविन्दजी का दर्शन, श्रीराधावल्लभ, श्रीगोपीनाथ, नवनीत राय, गोकुलेश्वर और श्रीरामचन्द्र के स्वरूपों का दर्शन है । इनके अतिरिक्त चरणपहाड़ी श्रीराधागोपीनाथ, श्रीराधामोहन (गोपालजी), चौरासी खम्बा आदि दर्शनीय स्थल है ।
कामवन ग्राम से दो फर्लांग दूर दक्षिण–पश्चिम कोण में प्रसिद्ध विमल कुण्ड स्थित है। कुण्ड के चारों ओर क्रमश: (1) दाऊजी, (2) सूर्यदेव, (3) श्रीनीलकंठेश्वर महादेव, (4) श्रीगोवर्धननाथ, (5) श्रीमदन मोहन एवं काम्यवन विहारी, (6) श्रीविमल विहारी, (7) विमला देवी, (8) श्रीमुरलीमनोहर, (9) भगवती गंगा और (10) श्रीगोपालजी विराजमान हैं। (देखें- काम्यकवन)
संदर्भ: काम्यवन
जाट इतिहास
दलीप सिंह अहलावत [10] ने लिखा है .......श्रीकृष्ण जी प्रजातन्त्रवादी विचार के थे और उसी समय में दुर्योधन, जरासन्ध, कंस, शिशुपाल, दन्तवक्र आदि साम्राज्यवादी शासक भी मौजूद थे। कृष्ण जी के साथ उनके विरोध का यही मुख्य कारण था। मथुरा के आस-पास कंस ने नवराष्ट्र, गोपराष्ट्र आदि प्रजातंत्रों को नष्ट करके साम्राज्य की नींव डाली थी। मगध में जरासंध ने एक बड़ा साम्राज्य खड़ा कर लिया था। उसने लगभग 158 राजाओं का राज्य छीनकर उनको बन्दी बना दिया था। कंस ने बहुत से छोटे-छोटे राज्य अपने अधीन कर लिए थे। बृज के स्वतंत्र राजाओं की सत्ता नष्ट कर दी गई थी। उन्हें केवल गोप (ग्रामाध्यक्ष) के रूप में रहने दिया गया था। कंस इनसे भारी टैक्स लेता था। वृष्णि राज्य का अधिपति वासुदेव केवल विचार-भिन्नता के कारण जेल में डाल दिया गया था। इनके पुत्र श्रीकृष्ण जी ने बृज के वृष्णि, अन्धक, नव, और गोप लोगों का संगठन किया और कंस को इस संसार से उठा दिया। कंस के मारे जाने की सूचना मिलने पर उसके सम्बन्धी जरासंध ने एक बड़ी शक्तिशाली सेना के साथ बृज पर चढ़ाई कर दी। पहली लड़ाई में उसको मुंहतोड़ जवाब मिला। फिर भी उसने अटूट ताकत के बल पर बृज का ध्वंस कर दिया। कांमा (भरतपुर के उत्तर में 32 मील) के पास घाटे की पहाड़ियों में जो लड़ाई हुई, उसमें उसको बहुत क्षति हुई। साथ ही उसे यह भी यकीन हो गया कि बृजवासियों के दल को जिस पहाड़ पर घेरकर आग लगाकर उसे भस्मीभूत कर दिया है, उसमें कृष्ण बलदेव भी जल गए होंगे, वह अपने देश को लौट गया। जरासन्ध के लौट जाने पर भी श्रीकृष्ण जी ने बहुत सोच-विचार के बाद बृज को छोड़ दिया। वहां से जाकर काठियावाड़ में उन्होंने द्वारिका नगरी बसाई।......
Notable persons
- Captain Fateh Singh - S/O Shri Ramswaroop Singh (Rajaji) Kaman, Bharatpur, Rajasthan. He was first person from Kaman who got selected in the Merchant Navy with his hard work and he also served in India's Navratna Company Shipping Corporation of India for many years, now a days he lives with his family in Mumbai, Maharashtra.
Another Kaman in Sikar District
Photo Gallery
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Captain Fateh Singh, Kaman, Bharatpur.
External links
Kama district in Nangarhar province Afghanistan
References
- ↑ V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.509
- ↑ V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.511
- ↑ An Inquiry Into the Ethnography of Afghanistan By H. W. Bellew, The Oriental University Institute, Woking, 1891, p.145
- ↑ V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.509
- ↑ V. S. Agrawala: India as Known to Panini, 1953, p.511
- ↑ Jat History Thakur Deshraj/Chapter IX (Page 632)
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.168
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.170
- ↑ Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.168
- ↑ Jat History Dalip Singh Ahlawat/Chapter II (page 98)
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