Nau Nihal Singh

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Kunwar Nau Nihal Singh, Son of Maharaja Kharak Singh of Lahore
Kumar Nau Nihal Singh

Nau Nihal Singh (b.9 March 1821 - d. 6 November 1840) was a Jat Sikh ruler of the sovereign country of Punjab and the Sikh Empire.

Ancestry

He was the son of Maharani Chand Kaur and Maharaja Kharak Singh, himself the eldest son and heir of Maharaja Ranjit Singh Sher-e-Panjab and a grandson of Datar Kaur.

History

After the death of Ranjit Singh, Kharak Singh became king but was unable to keep control of the various factions within the kingdom. Prince Nau Nihal took control of the state himself.

In April 1837 at the age of sixteen he was married to Bibi Sahib Kaur, a daughter of Shaheed Sardar Sham Singh Attariwala (1790-1846) of the village of Attari in Amritsar district of Punjab.

Upon Kharak Singh's death, Nau Nihal Singh was in line to become Emperor. However, whilst he was passing through the gate of the Hazuri Bagh on returning from his father's cremation, stones fell from above, killing his companion and injuring the prince, who was taken into the fort by the vizier Dhian Singh. Nobody else was allowed into the fort, not even his mother, who beat on the fort gates with her bare hands in a fever of anxiety. Eyewitnesses described his initial injuries as being small blows to the head which knocked him unconscious. Later, when his mother and friends were allowed into the fort, Nau Nihal Singh was dead, his head having been smashed in, possibly with a rock. It is unclear whether the building's collapse was accidental or deliberate and who was responsible. He died at the age of 19.[1]

His mother Maharani Chand Kaur became the Empress of Sikh Empire, from (1840-41) she challenged Sher Singh, the second son of Maharaja Ranjit Singh Sher-e-Panjab, the stepbrother of her husband Kharak Singh, on the grounds that her co-daughter Nau Nihal, Singh's widow, Sahib Kaur, was pregnant saying that she should assume regency on behalf of the unborn legal successor to her husband's throne. In July 1841, Nau Nihal Singh's widow Sahib Kaur delivered a stillborn son. This ended whatever hopes Chand Kaur had of realizing her claims. But courtly intrigue had not ceased. Dhian Singh replaced the maidservants of the Dowager Maharani with hillwomen from his own country . The latter tried to kill her by poisoning her food and eventually finished her off on 11 June 1842, smashing her head with wooden pikes from the kitchen (some reports say they dropped a stone from a balcony crushing her skull.)

He also ordered the construction of a bunga (tower) in the complex of Tarn Taran Sahib One of the Holiest Sikh Shrines in the Majha Region of Punjab Kingdom.

नौनिहालसिंह की शादी

ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है - यों तो महाराज रणजीतसिंह ने अपने सभी पुत्र-पौत्रों की शादी धूमधाम से की थीं किन्तु उनका पहले से ही इरादा था कि कुं० नौनिहालसिंह की शादी अनुपम बना देंगे। निदान ऐसा ही किया। इन दिनों तक महाराज का वैभव और प्रताप तथा यश भी पहले से बहुत ज्यादा फैल गया था। अब वे पंजाब के एकछत्र अधीश्वर थे। अनेक राजे-महाराजे तो उनकी सरदारी में गिने जाते थे। सन् 1837 ई० में शामसिंह अटारी वाले की सुपुत्री के साथ यह शादी सम्पन्न हुई। इस शादी में नाभा, झींद, पटियाला, कपूरथला, फरीदकोट और कई पहाड़ी राजे शामिल हुए। भारतीय अंग्रेजी हुकूमत के कमाण्डर इन चीफ भी इस शादी में आए थे।

शादी के दिन दोपहर को तम्बूल की रस्म अदा हुई। उस समय नाच में 80 नाचने वाली लड़कियां थीं जो चार-चार मिलकर गाती थीं। महाराज और दूल्हा एक वृक्ष के नीचे बैठे थे। उस पेड़ में बनावटी संतरे लगाए गए थे। नजरें पेश होने पर राजा ध्यानसिंह ने एक लाख पच्चीस हजार रुपया, 'सर हेनरी फिन' ने ग्यारह हजार रुपया पेश किया। दो घण्टों में नजरों में पचास लाख इकट्ठा हुआ। 7 मार्च को हरि-मन्दिर में सेहरा पहनाया गया। 500 ग्रन्थ और 125 अकाल बुंगे पर चढ़ाए गए। तीन बजे अटारी की तरफ बढ़े। महाराज दोनों तरफ रुपये फेंकते जाते थे। लगभग छः लाख आदमी इस शादी में इकट्ठे हुए थे। हाथी और घोड़ों का ठिकाना न था। साथ में बाजे बजते जाते थे। तोपें चलती जाती थीं। जब बरात पहुंची तो खेत में सरदार शामसिंह ने एक सौ एक मुहरें महाराज को, कुं० खड़्गसिंह को इक्यावन और प्रत्येक सरदार को ग्यारह-ग्यारह मुहरें नजर कीं। रात को 9 बजे के बाद नाच-रंग और शराब के दौर दौरा हुए।

8 मार्च को पांच मील के घेरे में एक बाड़ा बनाया गया। उसमें अस्सी दरवाजे थे। प्रत्येक दरवाजे के पास और घेरे के चारों ओर सिपाही खड़े हुए थे। इस काम


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-281


का प्रबन्धक मिश्र बलीराम था, जिसने बड़ी लगन और होशियारी के साथ इस बाड़े को सजाया था। मिलनी की रसम इसी बाड़े में हुई। मुख्य द्वार पर एक अफसर था जो प्रत्येक को एक रुपया देता था। कोई भी बराती इस बाड़े से खाली हाथ बिना रुपया पाये नहीं निकल सकता था।

दहेज में महाराज को शामसिंह ने एक सौ बढ़िया घोड़े, एक सौ एक भैंस, दस ऊंट, ग्यारह हाथी, सोने के जेवर, जवाहरात और सोने चांदी के बर्तन, मुलतान की रेशम, बनारस के कमख्वाव, कश्मीर के पांच सौ शाल आदि सामान इतना दिया कि एक एकड़ जमीन में जनाने लिवास का सामान सजाया गया था।

लाहौर में लौटने पर 12 मार्च को महाराज ने सारे आगत जनों और सैनिकों को एक बड़ी दावत दी। इन दिनों लाहौर की शोभा मुगलशाही ठाठ को मात करती थी।

References

  1. Harbans Singh Noor (February 2004).
  2. Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part I (i),pp.281-282

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