Shiv Karan Sangwan

From Jatland Wiki
Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Shiv Karan Sangwan

Shiv Karan Sangwan (01.11.1900 - 30.11.1980) (श्री पंडित शिवकरण प्रभाकर) (सांगवान), from Dohki (डोहकी), Charkhi Dadri, Bhiwani was a social worker and freedom fighter in Bhiwani, Haryana. [1] He was a follower of Arya Samaj.

जीवन परिचय

स्वतंत्रता सेनानी पण्डित शिवकरण सांगवान का जीवन परिचय उनके स्वयं के शब्दों में
(01.11.1900 - 30.11.1980)

संस्थापक- आर्य हिन्दी संस्कृत महाविद्यालय, चरखी-दादरी

स्वतंत्रता सेनानी, भजनोपदेशक एवं समाज सुधारक चौधरी शिवकरण (श्योकरण) सांगवान का जन्म 01.11.1900 को तत्कालीन जींद रियासत के दादरी तहसील के गांव डोहकी में साधारण किसान परिवार में हुआ था। शिवकरण के पिता जी का नाम चौधरी अमीचन्द था। अमीचन्द जी दो भाई थे, दूसरे भाई का नाम रामचन्द्र था उनके भी दो सन्तान धर्मपाल व चन्द्रकला थे । अमीचन्द की चार सन्ताने थी। शिवकरण जो अपने चार भाई बहनो में सबसे बड़े थे छोटा भाई मीर सिंह था। दो बहनों में एक बहन गांव मोखरा व दूसरी बहन मड़ोधी जिला रोहतक में विवाहित थी।

अमीचन्द जी गाँव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों में से थे व अनुशासनप्रिय तथा शिक्षा प्रेमी थे इसलिए उन्होंने अपने पुत्र शिवकरण जी को नजदीक के गांव कितलाना के प्राईमरी पाठशाला में दाखिला करवा दिया था । वहां पर शिवकरण जी ने प्राईमरी शिक्षा पास करली थी परन्तु आगे शिक्षा ग्रहण करने की कोई नजदीक व्यवस्था नहीं थी अतः घर पर ही रह कर पिताजी के कृषि कार्य में हाथ बटाने लगे थे। कुछ समय के पश्चात स्वामी नित्यान्द जी पूर्व नाम नोनंद सिंह जी आर्य समाज का प्रचार करने व अंग्रेजी राज के खिलाफ लोगों में जोश पैदा करने के लिए गाँव-गाँव में घूमते हुए डोहकी ग्राम में पधारे व अमीचन्द जी के घर पर ही ठहराव किया । स्वामी जी के ओजस्वी विचारों को सुनने के पश्चात उनकी प्रेरणा से व समझाने से अमीचन्द जी ने अपने पुत्र शिवकरण को गुरूकुल भैंसवाल जिला रोहतक (वर्तमान सोनीपत) में दाखिला करवा दिया था। गुरूकुल से ही मैंने रत्न भूषण, प्रभाकर, शास्त्री व आचार्य की पढ़ाई की थी।

शिवकरण जी की आवाज बहुत ही मधुर व पैनी थी। स्वामी नित्यानंद जी ने जब उनकी आवाज को सुना तो बहुत ही प्रसन्न हुए और उनको संगीत गाने व हरमोनियम सीखने के लिए प्रेरित किया। शिवकरण जी ने गुरूकुल में पढ़ते हुए ये कार्य भी स्वामी जी की कृपा से अच्छी तरह से सीख लिया था। गुरूकुल भैंसवाल उन दिनों शिक्षा का बहुत बड़ा केन्द्र था। यह गुरूकुल भगत फूलसिंह जी के द्वारा संचालित था। यहां पर बड़े-बड़े विद्वान क्रांतिकारी समय-समय पर पधारते रहते थे। आर्य समाज का भी प्रमुख केन्द्र था । शिवकरण जी ने यहां पर कई वर्ष तक अध्ययन किया, वे भगत फूल सिंह जी के प्रिय बन गए थे। भगत जी भी शिवकरण जी को अपना पुत्र ही मानते थे व बहुत स्नेह रखते थे क्योंकि भगत जी के अपना पुत्र नहीं था, दो लड़कियां सुभाषिणी व गुणवती ही थी।

स्वतंत्रता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी

शिवकरण जी के मन में क्रांतिकारियों व देशभक्तों का बहुत गहरा असर हुआ। वे गुरूकुल की शिक्षा के दौरान ही सन् 1930 में कांग्रेस में शामिल हो गए थे क्योंकि उस समय कांग्रेस ही सबसे बड़ी पार्टी थी जो आजादी के लिए संघर्ष कर रही थी। उसी वर्ष लाहौर में कांग्रेस का सालाना इजलास रखा गया था, इसमें रोहतक जिले की तरफ से प० श्रीराम शर्मा जी के नेतृत्व में शिवकरण जी समेत 50 सत्याग्रही शामिल हुए और 15 दिन तक वहां पर रहे। वहां से आते ही घर का मोह छोड़कर कांग्रेस का प्रचार आरम्भ कर दिया जिस कारण सरकार ने प० श्रीराम शर्मा झज्जर को गिरफ्तार कर लिया। इसके पश्चात् राव मंगलीराम को भी गिरफ्तार कर लिया। इससे लोगों में जोश फैल गया व गिरफ्तारियों का तांता लग गया और हम सब आदमियों का जत्था सत्याग्रह करता हुआ 24 जून, 1930 को गिरफ्तार हुआ। 04 जुलाई, 1930 को मुझे 6 माह की सजा व 100 रूपये का जुर्माना लगाया गया, सजा रोहतक जेल में पूरी की जिसका विवरण डी.सी. रजि. न. 35 – 1931 पर दर्ज है। 1931 में रिहा होने के पश्चात फिर से गांव-गांव में घूम कर कांग्रेस का प्रचार आरम्भ कर दिया।

गांधी-इरविन समझौता

आखिरकार 5 मार्च, 1931 को दिल्ली में गांधी-इरविन समझौता हो गया। रोहतक में 5 मार्च, 1931 को आर.जी. सुलह का दिन मनाया गया। इससे पहले लगभग सभी राजनैतिक कैदी जेलों से वापिस आ चुके थे और सारे मुल्क में जलसे जुलुसों की भरमार शुरू हो चुकी थी। रोहतक शहर को लोगों ने रंग बिरंगी झण्डियों से सजाया हुआ था। दिन में एक बहुत बड़ा जुलूस निकाला गया जिसमें बैल गाड़ियों पर हम कांग्रेस के कार्यकर्ता भजनोपदेशक कौमी तराने गाकर लोगों में जोश पैदा कर रहे थे। इसके बाद एक बहुत बड़ा जलसा रोहतक शहर में ही हुआ जिसमें गांव व शहर के हजारों लोगों ने हिस्सा लिया। 10 मार्च, 1931 को रोहतक में तमाम जिले के राजनैतिक कैदी और हर गांव से नुमाइन्दे इकट्ठे हुए और दिन में बहुत बड़ा जुलूस निकालने के बाद एक मीटिंग हुई जिसमें कांग्रेस का काम जारी रखने के लिए एक नया प्रोग्राम बनाया गया। उसमें हर एक थाना और हर एक तहसील में कांग्रेस के एक-एक इन्चार्ज मुकर्रर किए गए और कांग्रेस का प्रचार देहात व शहर में होने लगा और दुबारा देशभक्ति का डंका बज गया। गांधी-इरविन समझौते के अनुसार कांग्रेस के बन्दी छूटने लगे और स्थान-स्थान पर इनके जलूस निकलने लगे। कारावास से छूटे हुए ये बन्दी विजेता वीरों के समान अनुभव करते थे।

5 अप्रैल, 1931 को जिला रोहतक कांग्रेस कमेटी का चुनाव हुआ और हर मेम्बर के जिम्मे काम लगाया गया। मुझे (शिवकरण) थाना महम का इन्चार्ज बनाया गया और हरेक मेम्बर से यह वचन लिया गया कि महीने में एक हफ्ता देहात में मींटिग कर लोगों को प्रेरित करें ।

देश में दोबारा असहयोग आन्दोलन

सन् 1932 में देश में दुबारा असहयोग आन्दोलन शुरू हो गया और आन्दोलन को अच्छी प्रकार से चलाने के लिए जिला रोहतक कांग्रेस कमेटी ने 2 जनवरी को प० मोहनलाल स्वामी वैद्य झज्जर को जिला का डिक्टेटर नियुक्त किया। कांग्रेस सत्याग्रह आश्रम से रोजाना जलूस निकलने शुरू हो गए थे। 5 जनवरी को जिले के पहले डिक्टेटर मोहन स्वामी को गिरफ्तार कर लिया गया। इसके बाद रोजाना जुलूस निकलते और पुलिस गिरफ्तार कर ले जाती। 20 जनवरी को पुलिस ने कांग्रेस आश्रम जो कि झज्जर वाली सड़क पर तालाब के पास धर्मशाला में बनाया हुआ था के अन्दर छापा मार कर मुझे (शिवकरण) व लाला लखीराम को गिरफ्तार कर लिया गया तथा मुकदमा चलाया गया। इस केस को कांग्रेस कमेटी की तरफ से लड़ा गया। प० श्रीराम शर्मा, लाला सुलतान सिंह, आचार्य विश्वनाथ गुरूकुल भैंसवाल, स्वरूप सिंह बलम्भा, बाबू रामफूल सिंह वकील रोहतक, दो नम्बरदार सोहन व हरदत्त डोहकी, चौधरी सिलवन्त सिंह मोखरा मेरे गवाह बने थे और 6 माह तक कैद काटने के पश्चात् बरी छूट गया वर्ना एक साल की सख्त कैद व 100 रु जुर्माना सुनाया गया था, जुर्माना न देने पर 45 दिन की अतिरिक्त कैद की सजा सुनाई थी।

इसके बाद भगत फूलसिंह जी संस्थापक गुरूकुल भैंसवाल ने एक व्यक्ति को भेजकर मुझे (शिवकरण) अपने पास बुलाया और समझाया कि अभी तकरीर कुछ ठण्डी पड़ चुकी है। अतः कुछ दिन में अपनी शेष पढ़ाई पूरी कर लो। गुरूकुल से ही मैंने रत्न भूषण, प्रभाकर, शास्त्री व आचार्य की पढ़ाई की थी। गुरूकुल भैंसवाल उस समय विद्वानों व आर्य समाज व क्रान्तिकारियों का प्रमुख केन्द्र होता था। यहां पर तत्कालीन बड़े.बड़े महान लीडर आर्य समाज के विद्वान साधु सन्यासी आते थे जिनसे परिचय होता था जो अन्त तक जारी रहा।

आसोदा सत्याग्रह

18 दिसम्बरए 1938 को आसोदा में एक देहाती कांग्रेस कमेटी की तरफ से एक कांफ्रेस की जा रही थी जिसमें गांव के कुछ लोगों ने नाजुक हालात पैदा कर दिए थे, वे अंग्रेजों के बहकाए हुए थे। कांफ्रेस से पहले यह अफवाह थी कि ये लोग कांफ्रेस में रूकावट डालेंगे इसलिए चार दिन पहले कांग्रेस कमेटी ने हल्के के थाना में इतलाह कर दी थी कि इस बारे में कानूनी कार्यवाही की जाए और एक दिन पहले भी थाने में सूचना दी थी। थानेदार कुछ सिपाहियों के साथ आसोदा में हाजिर था, कांफ्रेस के शुरू होते ही कुछ लोगों ने जिन्हें टोडी कहा जाता था पुलिस के इशारे पर ही शरारत करनी शुरू कर झण्डे वगैरह उखाड़ दिए और तखत व सामान उठा कर ले गए। जब कांग्रेस के लीडरान वहां पर भाषण देने पहुंचे तो वहां पर अफरा तफरी मची हुयी थी और वो कांफ्रेस नहीं हो पायी। बार.बार कांफ्रेस की तारीख बदलते रहे और ढ़ाई महीने तक सत्याग्रह चलता रहा। हम कांग्रेस के कार्यकर्ता देहातों में जा जा कर वॉलन्टिअर् बनाते रहे, आखिरकार ढ़ाई महीने के संघर्ष के बाद हमारी जीत हुई । परन्तु इस जीत के लिए हमारे शरीर ने बहुत कष्ट सहे जिनके निशान हमारे शरीर पर मौजूद रहे जिन्हें देख कर हम और भी ज्यादा जोश के साथ अपने मिशन में लग जाते थे। 3 मार्च, 1939 को आसोदा में बहुत ही जोश खरोश के साथ शानदार जलसा हुआ जिसमें श्रीमती सरोजनी नायडू पूर्व काँग्रेस अध्यक्ष, प० मोहन लाल मेम्बर सैन्ट्रल असेम्बली, प० नेकीराम शर्मा, श्यामलाल जैन, नान्हूराम जसराणा पधारे व उनके ओजस्वी भाषण हुए । उस जलसे में मैंने भी एक भजन गाया था।

ना रहे सदा रात अंधियारी देगा चांद उजाला,
आज जिनके डंडे पड़ रहे कल डलेगी माला।

बाद में जहां-जहां कांग्रेस की कांफ्रेस होती इस भजन को सुनाने की मांग होती थी। सभी ने कार्यकर्ताओं को बधाई दी। श्रीमती सरोजनी नायडू ने विशेषरूप से मुझे (शिवकरण) सम्मान दिया।

हैदराबाद सत्याग्रह

सन् 1939 में हैदराबाद सत्याग्रह ने जोर पकड़ा, इसमें मैं रोहतक जिले का चौथा जत्थेदार था जिसने हैदराबाद में गिरफ्तारी दी थी। हैदराबाद सत्याग्रह के समय आपने हरियाणा से काफी सहायता भिजवाई। 6 महीने में ही आर्य समाज की जीत हुई और नवाब हैदराबाद ने माफी मांगी।

हैदराबाद सत्याग्रह में जेल काटने के बाद 1939 में ही मुझे आर्य महाविद्यालय आहुलाना सोनीपत का आचार्य बनने का गांववासियों ने अनुरोध किया जिसे मैने स्वीकार कर वहां पर हिन्दी व संस्कृत पढ़ाना शुरू कर दिया जो कि कई वर्ष तक जारी रहा। इस दौरान वहां पर भी आजादी के आन्दोलन की मीटिंग व कार्यक्रम बनते रहते थे। कई बार वहां पर भी पुलिस ने छापामारी की थी परन्तु गांव-वासियों के सहयोग से पुलिस पकड़ नहीं पाई थी। आहुलाना गांव के लोगों से इतना स्नेह व सहयोग मिला जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता जो कि अन्तिम समय तक जारी रहा। वहां पर रहते हुए भी आर्य समाज का प्रचार प्रसार किया। शिवकरण जी की आवाज बहुत ही मधुर थी। जब गाने के लिए खड़े होते थे तो सुनने वाले मंत्र मुग्ध हो जाते थे तथा फरमाइश करते ही रहते थे। आर्य समाज में रहते हुए ही उस समय के लीडरों से सम्पर्क हुआ जिनमें चौधरी छोटूराम जी, ईश्वर सिंह गहलोत आदि। आचार्य विष्णु मित्र भी जो इनके सहपाठी थे और अपने समय के बहुत बड़े लेखक व वेदों के विद्वान थे।

भारत छोड़ो आंदोलन 1942

सन् 1941 में गांधी जी के व्यक्तिगत सत्याग्रह में रोहतक जिले के लोगों ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया तथा गाँव-गाँव में घूम कर लोगों को सत्याग्रह के लिए जागरूक किया । इसी दौरान सन् 1942 में भारत छोड़ो आन्दोलन शुरू हो चुका था। उसके बारे में किस प्रकार कार्यवाही की जाए उसके लिए एक मीटिंग गांव भापड़ोदा झज्जर में चौधरी नेतराम के घर पर गुप्त रूप से बुलाई गई थी। इस मीटिंग में श्री कृष्ण नायर पूर्व संसद सदस्य व उनके साथी जो देहली से आने वाले थे, उनके आने से पूर्व ही सांपला पुलिस ने मीटिंग के स्थान को घेर लिया तथा मुझे व मेरे साथ के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार करके बहादुरगढ़ थाने मे बन्द कर दिया तथा कुछ दिनों के पश्चात् एक साल की सजा व 100 रूपये जुर्माना कर रोहतक जेल में भेज दिया था। जेल से आने के बाद कुछ दिन आहुलाना में रहने के बाद सोचा कि यहां की पुलिस की नजरों में किरकरी बन चुका हूँ। जब चाहे आ जाते थे छापे मारने के लिए अतः आहुलाना गांव के विद्यालय से त्याग पत्र दे दिया और दादरी प्रजामण्डल में शामिल हो गये।

लोहारू में नवाब के खिलाफ आर्य समाज का आन्दोलन चला जिसमें स्वामी स्वतन्त्रतानन्द जी घायल हो गए थे, वहां पर जाकर आंदोलन में भाग लिया फलस्वरूप नवाब के खिलाफ आर्य समाज की जीत हुई थी।

जींद असेंबली में एम. एल. ए.

सन् 1946 में जींद असेम्बली का चुनाव हुआ जिसमें कांग्रेस के टिकट पर मैं एम.एल.ए. बना। 9 व 10 नवम्बर 1946 को हीरासिंह चिनारिया की अध्यक्षता में पहला अधिवेशन हुआ, 25 से 30 हजार लोग शामिल हुए तथा 500 डेलिगेट थे। इस अधिवेशन में कई प्रस्ताव पास करने के पश्चात् 16 आदमियों की एक एक्शन कमेटी चुनी गई। राजा से पत्र व्यवहार किया गया परन्तु राजा ने कोई उत्तर नहीं दिया तो 26.11.1946 को कमेटी की मीटिंग करके एक डिक्टेटर बनाया गया और स्टेट के गांव-गांव में जाकर स्वयं सेवक भर्ती करने का काम शुरू कर दिया। 08.12.1946 को पूरी जींद स्टेट में हड़ताल जुलूस व प्रदर्शन करके डायरेक्ट ऐक्शन डे मनाया गया। राजा ने सब जगह दफा 144 लागू कर दी। संगरूर में एक बहुत बड़ा जुलुस दफा 144 तोड़कर निकाला गया। राजा ने चौधरी लहरी सिंह मजिस्ट्रेट को जुलूस को रोकने के लिए नियुक्त किया परन्तु चौधरी साहब लोगों के विरोध व जुलूस को देखकर स्वंय ही जुलूस में शामिल हो गए और हाथ में झण्डा लेकर नारे लगाने शुरू कर दिए, उनको देखकर और भी बहुत से अफसर बगावत करके जुलूस में शामिल हो गए। चौधरी लहरी सिंह मंत्री पंजाब को सफल बनाने में आपने सहयोग दिया था । यह देखकर राजा घबरा गया और प्रजामण्डल के सदस्यों को बुलाकर समझौता कर लिया और एक मंत्री परिषद बनाई गई। इसके बाद मैंने रावलधी गाँव के स्कूल में संस्कृत अध्यापक की नौकरी भी शुरू कर दी।

दादरी में जनता शासन - समानांतर सरकार

अप्रैल 1947 में अखिल भारतीय राज्य पीपल्स कांग्रेस का सालाना अधिवेशन ग्वालियर में हुआ जिसमें हीरासिंह चिनारिया, चौधरी निहाल सिंह तक्षक, श्री बनारसी दास और महताब सिंह डेलीगेट में शामिल हुए थे। 1947 में देश आजाद हो गया तो प्रजामण्डल के नुमाइन्दों ने राजा से मिलने की कोशिश की। मगर राजा ने मिलने से इन्कार कर दिया। स्वतन्त्र भारत के गृहमंत्री सरदार बल्लभ भाई पटेल की मार्फत राजा से मिले लेकिन कोई हल नहीं निकला। आखिर फरवरी 1948 में दादरी में प्रजामण्डल की सभा बुलाकर एक प्रस्ताव पास किया गया कि दादरी स्टेट को तोड़कर इस इलाके को जिला हिसार में मिला दिया जावे। बाद में एक जुलूस निकाला गया जिसमें 10 हजार से ज्यादा आदमी शामिल हुए। इस जुलूस के बाद राजा ने प्रजामण्डल के प्रमुख व्यक्तियों को गिरफ्तार कर लिया। 25 फरवरी 1948 को मेरे व कुछ प्रमुख व्यक्तियों के आह्वान पर दादरी के किले को तीस हजार आदमियों ने घेर लिया और हमने समानान्तर सरकार की घोषणा कर दी और किले में अधिकारियों के खाने के अलावा सभी चीजों पर पाबंदी लगा दी कि कोई भी वस्तु अन्दर नहीं जाने देंगे न किसी को बाहर आने देंगे। यह देखकर राजा घबरा गया और अपना नुमांयदा दिल्ली में गृह मन्त्री के पास भेजा। गृहमंत्री ने तत्कालीन काँग्रेस अध्यक्ष डा० पट्टाभि सीतारमैय्या को दिल्ली से प्रजामंडल पदाधिकारियों से वार्ता के लिए दादरी भेजा। डा० साहब ने प्रजामण्डल के नुमायन्दों को आश्वासन दिया कि सरकार जल्दी ही रियासतों को खत्म कर देगी। इस आश्वासन के बाद सत्याग्रह खत्म किया और इस प्रकार दादरी में 13 दिन तक जनता शासन रहा । इसके बाद लोग शान्तिपूर्वक अपने-अपने घरों को चले गए। दिनांक 05.03.1948 को दादरी को पेप्सू में मिला दिया और महेन्द्रगढ़ जिले में शामिल कर दिया और हमने अपनी दूसरी आजादी प्राप्त की। इससे पहले कुछ समय मैंने रावलधी स्कूल में अध्यापक की नौकरी प्राप्त कर रखी थी उससे त्यागपत्र दे दिया। यह पता लगने पर कि नौकरी से भी त्याग पत्र दे दिया है और दादरी भी आजाद हो चुकी है, आहुलाना के प्रमुख व्यक्ति आकर मिले तथा वहां की पाठशाला को फिर से संभालने का अनुरोध किया परन्तु मैंने कुछ समय विचार करने लिए मांग कर उनको आदरपूर्वक विदा किया। आहुलाना में रहते हुए प्रमुख व्यक्तियों का आना-जाना व मिलना होता रहता था। जिसका वर्णन मैं पहले भी कर चुका हूँ। जब मैं आहुलाना में रहता था तो स्वामी ओमानन्द जी महाराज पूर्व नाम भगवान देव आचार्य जी भी आर्य समाज के प्रचार के लिए जगह-जगह जाते थे। जिन्होंने अपना जीवन आर्य समाज के लिए समर्पित कर रखा था। अपनी सारी जमीन दान कर दी थी। उन्होंने मुझे कहा कि आप जुझारू हैं आप अपने हल्के में आर्य समाज व हिन्दी के प्रचार प्रसार के लिए कार्य करें तो और भी अच्छा होगा। उनके जीवन से प्रभावित होकर मैंने अपने हल्के में कार्य करने का मन बना लिया था।

अन्य आंदोललनों मेँ भाग

सन् 1957 में हिन्दी रक्षा सत्याग्रह चला जिसमें 6 माह तक जेल में रहा। उसके बाद गोरक्षा आन्दोलन में भी एक माह तक जेल में रहा। सन् 1968 में चण्डीगढ़ आन्दोलन में भी बढ़.चढ़कर भाग लिया व दादरी हल्के के हजारों लोगों के साथ दिल्ली में प्रधानमंत्री आवास पर प्रदर्शन कियाए वहां लाखों लोग जमा हुए थे। इस कारण से चण्डीगढ़ पंजाब को देने का फैसला टल गया था।

जेलों का अनुभव

जेलों को हम अपना घर ही समझते थे। जेल जाने से कोई नयापन या कोई भय आदि मन में नहीं रहता था बल्कि हम सब मिलकर अपनी भावी योजनाएं बनाते रहते थे कि जेल से निकलते ही अबकी बार इस प्रकार आंदोलन चलाएंगे । जेल में अधिकारी कई बार गुस्से में आकर हमें बहुत कठिन कार्य भी दे देते थे जिसे हम हंसते हुए करते थे। तब अंग्रेज अधिकारी कहते कि हिंदुस्तान के लोग किस फौलाद के बने हुए हैं जो कि भयंकर से भयंकर यातनायें देने पर भी नहीं डरते। तब मैं और मेरे साथी यह गाना सुना कर और भी जलाते कि..

ना रहे सदा रात अंधियारी देगा चांद उजाला,
आज जिनके डंडे पड़ रहे कल डलेगी माला।

हमें अपने परिवार से बिछड़े हुए ज्यादा दिन हो जाते तो भी हमने कभी भी जेल में परिवार को याद नहीं किया और न ही कभी अपने परिवार को अपने दुख.सुख को बतलाया कि हमारे साथ जेल में क्या व्यवहार किया जाता है, अगर इस चक्कर में पड़ते तो शायद आजादी न देख पाते।

शिवकरण - श्योकरण व पंडित शिवकरण के नाम का रहस्य

जींद के राजा ने यह घोषणा कर रखी थी कि जो अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध कार्य करेगा उसकी संपति जब्त कर ली जाएगी। इस वजह से उन्होंने अपना पता गाँव मोखरा जिला रोहतक का लिखवा दिया था। उनके द्धारा लिखे गए भजन, गीत व प्रमाण पत्र सब जब्त कर लिए गए थे। अतः उन्होंने दादरी एरिया में अपना नाम श्योकरण बताया था। आर्य समाज के विद्धान आपसी बातचीत मे शिवकरण जी को पंडित जी कहकर संबोधित करते थे व शिवकरण जी गांवो में विवाह संस्कार करवाते थे। अतः इस वजह से भी उन्हें पण्डित जी कहते थे। पण्डित शिवकरण जी विवाह संस्कार बहुत ही अच्छे व सरल ढंग से समझाकर करवाते थे। जिस कारण कुछ गांवो में तो पण्डित जी से ही विवाह संस्कार करवाते थे। अगर उस तिथि में समय नहीं है तो पण्डित जी से समय लेकर विवाह की तिथि को आगे सरका देते थे और विवाह में मिठाईयों में देशी घी का प्रयोग ही करते थे । यह परंपरा आज भी कई गांवों के कई परिवार निभा रहें हैं विशेषकर दातोली-दुधवा में शिवकरण जी का प्रभाव लोंगों में इतना था कि कोई उनकी बात को मना नहीे करता था क्योंकि वो कभी ऐसी बात नहीें कहते थे जो झूठ हो। इसी कारण से कोई उनसे गलत कार्य करवाने के लिए नहीं कहता था। उनका दायरा बहुत बडा था। लोहारू बाढड़ा दादरी हल्के से जिस किसी को चुनाव की टिकट मिलती थी वो उनसे मदद लेने के लिए आते थे और जिस किसी की मदद करते थे उसकी जीत निश्चित होती थी ।

आर्य भजनोपदेशकों से लगाव

आर्य समाज के भजनोपदेशकों से उनका परिवारिक लगाव था इसी क्रम में कुछ उपदेशकों के नाम चौधरी जोहरी सिंह जसराणा सोनीपत, चौधरी धर्मपाल सिंह भालोठिया निवासी ढाणी भालोठिया महेंद्रगढ़, स्वामी खटकानंद, रामपत वानप्रस्थी आसन्न झज्जर, पृथ्वीसिंह बेधडक शिकोपुर मेरठ, स्वामी नित्यानंद सूरा कलोई झज्जर, श्री प्यारेलाल भापड़ोदा झज्जर, चौधरी ईश्वर सिंह गहलोत काकरोला नजफगढ़, पण्डित बस्तीराम, खेड़ी सुलतान, झज्जर और भी बहुत से थे जिनसे उनके अच्छे सम्बन्ध थे ।

महाविद्यालय की स्थापना

01 नवंबर 1949 को दादरी में ही जमीन तलाश करके व प्रमुख आदमियों से सलाह करके आर्य हिन्दी महाविद्यालय की नींव रखी। जनता में विश्वास जमाने के लिए एक कमेटी बना दी गयी उसमें प्रमुख-प्रमुख व्यक्तियों को लिया गया। चौधरी निहाल सिंह तक्षक भागवी, राजा महताब सिंह पंचगांव, श्री हेतराम जी सांगवान चरखी, मा. लज्जेराम समसपुर आदि, परन्तु दादरी का ईलाका इतना समृद्ध नहीं था। अतः जो सहयोग लिया गया उसमें रोहतक जिले का योगदान ही ज्यादा था। नेक नीति होने के कारण विद्यालय में रत्न भूषणए प्रभाकर की कक्षाएं शुरू की, हाईस्कूल भी बनाया गया, बाद में प्राज्ञ, विशारद, शास्त्री की कक्षाएं भी शुरू हो गयी। स्वामी जी के कहने पर पहले एक साल अवैतनिक कार्य किया बाद में आजीवन वेतन नहीं लिया । महाविद्यालय में बहुत से विद्यार्थी पढ़ने के लिए आने लगेए किसी के पास तो फीस के पैसे भी नहीं होते थे उनको भी पढ़ाया जाता था तथा समय-समय पर अनाज भी संग्रह किया जाता था। इस प्रकार शुरूआती कठिनाईयों को पार करते हुए विद्यालय चलने लगा व हजारों की संख्या में हिन्दी व संस्कृत के अध्यापक तैयार किए।

पंडित शिवकरण जी ने विद्यालय के बनवाने और संचालित करने में अपना जीवन लगाया। इसी का उदाहरण है कि 1955 में उनकी धर्मपत्नी जो कि सरकारी स्कूल में अध्यापिका थी का ग्रेड पे रिवाईज होकर 5500 रूपये ऐरियर बना थाए बहुतों ने उस रूपये का उपयोग करने के लिए अलग अलग सलाह दी परंतु पंडित जी ने उस पैसे को विद्यालय भवन बनाने में ही खर्च कर दिए । एक एक रूपया बचा करके उन्होंने इसको बनाया था जिसमें कि हजारों विद्यार्थी शिक्षा ग्रहण करके रोजगार प्राप्त करने में सफल हुए । यहां पर जे.बी.टी., ओ.टी. हिन्दी संस्कृत की ट्रेनिंग भी चलती थी । यहां पर राष्ट्रीय स्तर का कुश्ती अखाड़ा भी होता था जो कि सरकार की तरफ से चलाया जाता था । उसके कोच श्री फतेह सिंह जी दहिया श्री यशपाल सिंह व अन्य ने अपनी मेहनत से सैकडों पहलवान तैयार किए थे। यह अखाड़ा इतना प्रसिद्ध था कि यहां समय समय पर मास्टर चंदगी राम श्री लीलाराम भी आकर पहलवानों की होसलाफजाई करते थे। पंडित शिवकरण इतने उदार हृदय थे कि जो लड़के विद्यालय से बाहर पढाई करते थे उनके भी रहने का स्थान विद्यालय में दे देते थे । बाद में कुछ अनुशासनहीनता होने पर यहां से कुश्ती का अखाड़ा दूसरी जगह बदलवा दिया था ।

विद्यालय का बुरा समय

आर्य हिंदी संस्कृत महाविद्यालय बिना सरकारी सहायता व बिना आर्य प्रतिनिधि सभा की सहायता से अपने संसाधनों व विद्यार्थियों की फीस की आमदनी से ही चलता था। इस दौरान आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब के चुनाव में दो दल बन गए थे, एक स्वामी ओमानन्द जी का व दूसरा उनके शिष्य इन्द्रवेश का। इस चुनाव में स्वामी इंद्रवेश जी प्रधान चुने गए उन्होंने प्रधान बनते ही आर्य संस्थाओं पर कब्जा करना शुरू कर दिया। पंडित शिवकरण जी स्वामी ओमानन्द की तरफ थे । अतः इंद्रवेश जी ने यहां पर अपने आदमी भेजकर नाजायज तरीके से विद्यालय पर कब्जा करना चाहा। शुरू में तो पंडित जी ने उनको समझाया था कि यह स्वतंत्र संस्था है इसका प्रतिनिधि सभा से संबंध नहीं है परंतु स्वामी इंद्रवेश जी के भेजे हुए आदमी नहीं माने व जबरदस्ती विद्यालयों पर कब्जा करने का प्रयास करने लगे। इससे छात्रो की पढाई पर बुरा असर पड़ा व विद्यार्थी विद्यालय छोडकर जाने लगे । यह देखकर पंडित जी ने इलाके के लोगों की एक पंचायत बुलाई व सारी बातें बताई, तब लोंगों ने एकजुट होकर इंद्रवेश के असामाजिक तत्वों को विद्यालय से भगाया व प्रत्येक गांव से लोग विद्यालय में पहरा देने लगे और स्वामी इंद्रवेश को यहां से जाना पड़ा था। उसके बाद हरियाणा आर्य प्रतिनिधि सभा अलग से बन गई थी परंतु इस दौरान पंडित जी को भी काफी परेशानियों व मुकदमों का सामना करना पड़ा । इसका असर उनके स्वास्थ्य पर भी हुआ और उन्होंने आचार्य पद से त्यागपत्र दे दिया और घर पर आराम करने लगे। इसके बाद जो प्रबंध कमेटी बनी वो भी विद्यालय को ठीक से चला नहीं पाई और अव्यवस्था ज्यादा फैल गई, सालाना उत्सव बंद हो गया। विद्यार्थी बिल्कुल कम हो गए थे। फीस बहुत ज्यादा बढा दी गई थी। इसके बाद इलाके के प्रमुख-प्रमुख व्यक्ति फिर इकट्ठे हुए व पंडित शिवकरण जी से पुनः आचार्य पद संभालने व संस्था को बचाने की अपील की। लोगों की भावनाओं को समझते हुए पंडित जी ने फिर से आचार्य पद को संभाला व व्यवस्था को पुनः पटरी पर लाने का प्रयत्न किया।

इसी सिलसिले में एक बार वे मदद के लिए हरियाणा के मुख्यमंत्री चौधरी बंशीलाल जी के पास चण्डीगढ गए थे। बंशीलाल जी ने पंडित जी की बातों को अनसुना कर दिया व जाने को कहा। पंडित जी ने भी बंशीलाल जी को चुनौती देते हुए कहा कि म्हारे इलाके में बड़के दिखाइए ये कहकर बंशीलाल जी के कमरे से बाहर निकल आए । उसी समय बनारसी दास जी गुप्ता जो कि हरियाणा सरकार में मंत्री थे व बंशीलाल जी के नजदीकी थे। वे पंडित जी के पास से निकले व पंडित जी को नमस्ते कही, पंडित जी ने नमस्ते नहीं ली और चलते रहे। गुप्ता जी ने बंशीलाल जी से पूछा ये आदमी कुछ काम आया था क्या ? चौधरी बंशीलाल के बताने पर गुप्ता जी ने पंडित जी के बारे में सारी बातें बतायी कि ये तो स्वतंत्रता सेनानी हैं, इनके कहने पर ही लोगों ने जिंदिया राजा को बंधक बनाया था। चौधरी साहब को अपनी भूल का एहसास हुआ और उन्होंने पंडित जी का वो कार्य पंडित जी के चरखी दादरी पहुँचने से पहले ही अधिकारियों को फोन करके करवा दिया था। पंडित जी ने भी चौधरी साहब को फोन करके धन्यवाद दिया और कहा कि चौधरी साहब बोलना और सीख लो। इसके बाद जब भी बंशीलाल जी का दादरी के आस पास प्रोग्राम होता तो पंडित जी को अवश्य अपने पास बुलाते थे। वर्ष 1980 में पंडित जी की मृत्यु के बाद विद्यालय के हालात भी बेहाल हो गये जो अब तक जारी हैं।

नेताओं से संपर्क

शिवकरण जी के ज्ञानी जैलसिंह भूतपूर्व राष्ट्रपति, प्रताप सिंह कैरो भू.पू. मुख्यमंत्री पंजाब, रणबीर सिंह हुड्डा, चौधरी मांडूसिंह मलिक व चौधरी भजनलाल से भी अच्छे संबंध थे। श्री बनारसी दास गुप्ता, श्रीमति चंद्रावती, मेजर अमीरसिंह, चौ० सुलतान सिंह, महाशय मनसाराम त्यागी, श्री मंगलाराम पटेल व राजा महताब सिंह को तो वे अपना परिवार का सदस्य मानते थे। महाशय धर्मपाल सिंह भालोठिया निवासी ढाणी भालोठिया की पंडित जी से काफी निकटता थी और जब भी चरखी-दादरी आते तो विद्यालय में ही रूकते थे और पंडित जी के साथ समाज के हितों की बातें ही करते थे।

परिवार

शिवकरण जी ने अपना जीवन सार्वाजनिक कार्याे में ही लगा दिया था। परिवार की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं दिया। शिवकरण जी के चाचा ताऊ के लड़कों सहित तीन भाई थे। एक भाई मीर सिंह फौज में भर्ती हो गया था जो द्वितीय विश्वयुद्ध में वीर गति को प्राप्त हुआ था। वो कुहाड़ गांव में ब्याहा था। उनके भी कोई संतान नहीं थी। दूसरा भाई धर्मपाल था जो कि पढ़ा लिखा था तथा उसने लाहौर में दयानन्द ब्रह्मविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की थी। वहीं पर गांव किरठल जिला मेरठ से चौ० तुलाराम के सुपौत्र महेन्द्र सिंह व उनकी बहन उमरावती भी शिक्षा ग्रहण करते थे। चौ० तुलाराम जी अपने एरिये के प्रतिष्ठित आर्य समाजी थे। उन्होने किरठल में भी आर्य महाविद्यालय की स्थापना करवाई थी। जिसके जगदेव सिद्धान्ती जी भी आचार्य रहे । महेन्द्र सिंह ने अपने दादा से कहकर उमरावती का रिश्ता सन् 1935 में धर्मपाल जी से करवा दिया था। परन्तु शादी के तीन साल बाद सन् 1938 में धर्मपाल जी की बीमार होने के कारण मृत्यु हो गयी थी। अतः सामाजिक परिस्थितियों की वजह से शिवकरण जी को उमरावती जी का पल्ला थामना पड़ा। उमरावती जी ने भी अपना पत्नी धर्म निभाया और शिवकरण जी का हर कदम पर साथ दिया चाहे जेल में मिलना हो या कोई अन्य काम हो जब शिवकरण जी जेल में होते तो पीछे से सारी जिम्मेदारी निभाती थी। अकेले में कभी हताश नहीं हुई। सन् 1944 में वे भी अध्यापिका लग गई थी। गुरूकुल पंचगांव की शुरूआत जब मंगलाराम व मनसाराम त्यागी जी ने की उसकी पहली अध्यापिका उमरावती ही थी। उसके बाद रावलधी कन्या स्कूल खुला तो उसमें नियुक्ति हो गयी थी। वो भी समय-समय पर आन्दोलनों में जाती रहती थी। विद्यालय के अन्दर बहुत से विद्यार्थी पढ़ते थे। कई बार किसी विद्यार्थी का मन नहीं लगता था तो उसे समझाती व माँ का प्यार देती थी। अतः वो माता जी के नाम से प्रसिद्ध थी, सभी उनको माता जी कहकर पुकारते थे। शिवकरण जी अब दादरी में रहने लगे थे। विद्यालय के साथ ही उन्होंने अपने रहने के लिए अलग मकान बना लिया था। वहीं पर एक संत की तरह साधारण मकान में रहते थे, विद्यालय के संचालन के साथ-साथ वे सामाजिक कुरीतियों को दूर करने के लिए भ्रमण करते रहते थे। शिवकरण जी का इलाके में बहुत अच्छा प्रभाव था।

अब समय के साथ पंडित जी का स्वास्थ्य पहले जैसा नहीं था। पंडित जी के अपनी कोई औलाद नहीं थी, न ही भाइयों के थी अतः उन्होंने अपनी पत्नी उमरावती जी के कहने पर अपने साल के लड़के को गोद ले लिया था और घर पर ही आराम करने लगे थे।

देहांत

30 नवंबर, 1980 को दिल का दौरा पड़ने पर आपका निर्वाण हो गया लेकिन स्वतंत्रता सेनानी, देशभक्त, भजनोपदेशक व समाजसुधारक एवं प्रेरक के रूप में आपको हमेशा याद किया जावेगा। 21 अगस्त 2017 को आपकी पत्नी श्रीमती उमरावती का भी निधन हो गया।

लेखक - तेजपाल शास्त्री, चरखी - दादरी

प्रस्तुति - सुरेन्द्र सिंह भालोठिया

जाट जन सेवक

ठाकुर देशराज[2] ने लिखा है ...श्री पंडित शिवकरण प्रभाकर MLA - [पृ.512]: आप चौधरी अमिचंद जी सांगवान ग्राम डोहकी के सुपुत्र हैं। आपकी आयु लगभग 40 वर्ष है। प्रभाकर तक शिक्षा पाई है। आप आर्य विद्यालय आहुलाना (रोहतक) में मुख्याध्यापक हैं। प्रभाकर तक हिंदी परीक्षाएं दिलाते हैं। इस वर्ष जिला जींद दादरी से शिक्षा क्षेत्र से जींद राज्य असेंबली में चुने गए हैं। आप प्रजामंडल के संगठन में सहयोग देते रहें हैं। जींद राज्य की प्रजा मंडल असेंबली पार्टी में हैं। हैदराबाद सत्याग्रह के समय आपने हरियाणा से काफी सहायता भिजवाई। चौधरी लहरी सिंह मंत्री पंजाब को सफल बनाने में आपने सहयोग दिया था।

बाहरी कड़ियाँ

संदर्भ


Back to Jat Jan Sewak/The Freedom Fighters