किसान आंदोलन -किसको क्या मिला
- क्या किसान नेताओं को असली किसान समस्याओं के बारे में पता था या फिर असली किसान को बेवकूफ बनाया गया ?
- वास्तव में 3 अधिनियम काले थे या किसान नेताओं के कुछ छिपे हुए एजेंडे थे
- सोचिए कैसे इन एसकेएम नेताओं ने एक साल में किसानों को बेवकूफ बनाया और बिचौलियों से दलाली हासिल की। अच्छे अधिनियमों को वापस ले लिया गया है जो स्थानीय बेरोजगार युवाओं को स्वरोजगार के अवसर प्रदान करते
- किसान की परिभाषा - विभिन्न सरकारी योजनाओं में, यह परिभाषित किया गया है कि यदि कृषि आय, किसी भूमि जोत (न कि किसान परिवार की जिसमें पति, पत्नी, बच्चे और माता-पिता शामिल है) की कुल आय के 50% से अधिक है, तो उसे किसान माना जाएगा। उदाहरण के लिए ; यदि किसी बड़े व्यापारी की पत्नी के नाम जमीन है और उसकी कोई अन्य आय नहीं है। ऐसे मामलों में वह किसान का लाभ ले सकती है और यह सरकारी योजनाओं में हुआ है।- किसानों नेताओं को इसकी जानकारी नहीं थी
- भारत सरकार का भूमि जोत के आधार पर किसानों कावर्गीकरण : भूमि जोत गणना के अनुसार किसानों को, 5 समूहों (सीमांत किसान (upto 1 ha or 2.5 Acre or 2.5 Kila से कम ), छोटा किसान,(1-2 ha 0r 2.5 acre to 5 Acre or 2.5 Kila to 5 Kila) अर्ध मध्यम किसान(2-4 ha or 5 Acre to 10 Acre or 5 Kila to 10 Kila), मध्यम किसान(4-10 ha or 10 acre to 25 Acre or 10 kila to 25 kila )और बड़े किसान(>10 ha or 25 Acre or 25 kila ) में वर्गीकृत किया गया है।इसी मापदंड के आधार पर कर्जमाफी, ब्याज में छूट(other than KCC), सरकारी योजना में सब्सिडी, आर्थिक रूप से पिछड़े आरक्षण (EBC reservation) आदि का लाभ दिया जाता है और ज्*यादातर ये योजनाएं छोटे किसानों के लिए बनायी गई हैं।
- अब मुख्य मुद्दा है कि राजस्थान के किसानों (गंगा नगर और हनुमानगढ़ जिले के सिंचित क्षेत्रों के किसानों को छोड़कर) को देखें, इन किसानों की आय, सिंचित क्षेत्रों के छोटे किसानों (2 हेक्टेयर वाले) के बराबर नहीं है। ऐसे किसान राजस्थान में, 14.16 लाख सेमी मीडियम (> 2 हेक्टेयर से 4 हेक्टेयर वाले- यानी देश का 10.11%), 11.31 लाख मध्यम (4 से 10 हेक्टेयर वाले- यानी देश का 20.33 फीसदी) और 3.59 लाख बड़े किसान (> 10 हेक्टेयर या 25 एकड़ वाले- जो देश के 42.84 फीसदी) पाए जाते हैं। यानी राजस्थान में 29.06 लाख किसान (38 फीसदी -76.55 लाख में से ) को इसका लाभ नहीं मिल रहा है (हालांकि राजस्थान सरकार ने ईबीसी में भूमि मानदंड को बाहर रखा है) इसी प्रकार वर्षा आधारित क्षेत्रों में रहने वाले अर्ध मध्यम, मध्यम और बड़े किसान, जो देश के अन्य भागों, जैसे विदर्भ और मराठवाड़ा, गुजरात का सौराष्ट्र क्षेत्र, उत्तरी कर्नाटक, आदि में रह रहे हैं, को इन योजनाओं लाभ नहीं मिल रहा है मुझे लगता है कि 3 अधिनियमों को वापस लेने से यह मुद्दा बड़ा है।लेकिन किसानों नेताओं को इसकी जानकारी नहीं थी
- तमाम जानकारों (So called experts and policy makers) का कहना है कि पूरा फायदा मध्यम और बड़े किसान ले जाते हैं. किसान नेताओं और विशेषज्ञों पर शर्म आती है।ये किसान कहां रहते हैं, इसकी उन्हें जानकारी नहीं है।
- खाद्यान्नों की खरीद (On MSP) : एफसीआई (FCI) देश के लिए गेहूं और धान की खरीद की नोडल एजेंसी है।जिसे गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों में बांटा जाता है। जबकि दलहन और तिलहन की खरीद नैफेड (NAFED)द्वारा की जाती है।पंजाब, हरियाणा और राजस्थान राज्यों को छोड़कर, किसान स्तर पर खरीद अन्य सभी राज्यों में ग्राम विकास सहकारी समिति को सौंपी जाती है। केवल किसान ही इन समितियों के सदस्य हैं। ये समितियाँ किसान को खाद, बीज, फार्म मशीनरी, गोदाम, मेडिकल स्टोर आदि विभिन्न प्रकार की सुविधाएँ प्रदान करती हैं।ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना आदि राज्यों में ये समितियां अच्छा लाभ कमा रही हैं लेकिन किसानों नेताओं को दूसरे राज्य में प्रचलित खरीद व्यवस्था की जानकारी नहीं थी
- पंजाब और हरियाणा में 70% से अधिक गेहूं और धान की खरीद एमएसपी के तहत की जाती, केवल पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में खरीद आढ़तियों के माध्यम से की जा रही है। केवल पंजाब और हरियाणा में खाद्यान्न की अनुमानित खरीद लागत रुपये 75,000 करोड़ प्रतिवर्ष से अधिक है। खरीद के लिए 2% कमीशन बिना किसी प्रयास के आढ़ती को दिया जाता है। इसका मतलब यह है कि पंजाब और हरियाणा के इन बिचौलियों (केवल गेहूं और धान के लिए) को भारत सरकार द्वारा 1500 करोड़ रुपये/वर्ष से अधिक कमीशन (2%) दिया जा रहा है, और अधिनियम वापस लेने के बाद, आढ़तियों के द्वारा खरीद जारी रखेगी। इसका मतलब यह है कि, यह राशि (1500 करोड़ रुपये/वर्ष) ग्राम विकास सहकारी समिति (जो किसानों के स्वामित्व में है) को दी जा सकती थी, लेकिन किसान नेताओं को इसकी जानकारी नहीं थी, या फिर वे आढ़तियों के संपर्क में थे और किसी छिपे हुए एजेंडे के तहत इसे कोई मुद्दा नहीं बनाया गया था।
- किसानों को MSP की राशि सीधे account में हस्तांतरित की जा रही थी।इस पर भी शुरू में आपत्ति जताई गई थी कि यह कैसे संभव है। जबकि दूसरे राज्यों में भी ऐसा ही हो रहा था। लेकिन किसान नेताओं को इसकी जानकारी नहीं थी
- पीडीएस में स्थानीय उत्पादित खाद्यान्न जैसे बाजरा, मक्का, ज्वार, मंडुआ आदि को शामिल करना (Atleast MSP can be ensured of locally produced)- यह मांग नहीं थी तो मौजूदा एमएसपी से दूसरे राज्य के किसानों को कैसे फायदा होगा ?किसान आंदोलन का निष्कर्ष है कि राजस्थान, दक्षिण हरियाणा, बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, उत्तराखंड, आदि के किसान राज्य सरकार से मांग कर सकते हैं कि पीडीएस में बाजरा, मक्का, ज्वार और मंडुआ आदि को शामिल किया जाए।ये स्थानीय उत्पाद जैसे बाजरा, मक्का, ज्वार और मंडुआ आदि खाने के लिए बेहतर है।किसानों को एमएसपी का लाभ देने के लिए पीडीएस में कम से कम 10 किग्रा/माह की स्थानीय उपज को शामिल किया जा सकता है। किसान नेताओं ने इसकी मांग नहीं की क्योंकि वे केवल पंजाब के किसानों के पक्ष में थे।
- पिछले 20 साल से कितनी मंडियों में आवक नहीं हो रही थी और किसान नेता ने जनता को मूर्ख बनाया कि ये मंडियां 3 अधिनियमों के कारण बंद हैं।
- किसान नेता को इस बात की जानकारी नहीं थी कि ग्रामीण भंडार योजना और कृषि विपणन योजना 2003-04 और 2008-09 में 30000 मीट्रिक टन तक की warehouse/silo बनाने के लिए शुरू की गई थी। एपीएमसी अधिनियम में संशोधन किया गया ( by all States) और प्रत्यक्ष विपणन, अनुबंध खेती आदि को 2009-10 में लगभग सभी राज्यों में लागू किया गया। उन्होंने अडानी और अंबानी के नाम पर किसानों को बेवकूफ बनाया।
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