Bhishma

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Bhishma (भीष्म) was the eighth son of Kuru King Shantanu, who was one of the most prominent characters of the great Indian epic, the Mahabharata. He was the grand uncle of both the Pandavas and the Kauravas.

Origin of name

Bhishma means He of the terrible oath, referring to his vow of lifelong celibacy. Originally named Devavratha, he became known as Bhishma after he took the bhishana pratigya ('terrible oath') — the vow of lifelong celibacy and of service to whoever sat on the throne of his father (the throne of Hastinapur). He took this oath so that his father, Shantanu could marry a fisherwoman Satyavati — Satyvati's father had refused to give his daughter's hand to Shantanu on the grounds that his daughter's children would never be rulers as Shantanu already had a son (Devratha).

His birth and early life

Bhishma was born as the eighth son of the illustrious King Shantanu and Ganga. As per the Mahabharata, Shantanu saw Ganga on the banks of river Ganga (Ganges) and enamoured of her beauty, asked her to marry him. She agreed but with the condition that Shantanu would never question her, no matter what her actions — if he ever broke his promise, she would leave him, never to be a part of his life again. Shantanu readily agreed to this seemingly harmless condition and was thus married to Ganga. Eight children were born in this marriage, the eighth of which was Bhishma himself. The seven siblings born before him were drowned by their mother Ganga in order to break their curse — as they were incarnations of the aforementioned Vasus, who do not like to live the life of Humans. Shantanu silently bore the torture of watching his wife drown his offspring seven times. However, when Ganga was about to drown Bhishma, Shantanu could no longer contain his anguish and burst into protest. Ganga, aware of the eighth child's destiny to live a long life on earth, did not drown the child. However, since Shantanu had broken his promise given to her at marriage, she left Shantanu promising to return the child to him once he is grown up.During his childhood, Devavrata was taught political science and other subjects by Brihaspati and Sukracharya,gurus of the Devas and Asuras respectively; Vedas and religious scriptures by the sage Vasishtha; Sage Markandeya was his spiritual guru. On Ganga's persuasion, Devavrata was taught martial arts, military sciences and the use of weapons by Parashurama. His banner in battle was a golden palm tree.

Bhishma Pitamaha

He was known as 'Bhishma Pitamaha' (Pitamaha meaning the grandfather or grandsire) among the Pandavas and the Kauravas.He was a well known person for his knowledge in politics and many other subjects.He was very good archer and he won a battle against his Guru Parshurama, who is otherwise unbeatble (due to the influence of time and the relationship of God and devotee), after a battle of 23 Days.

In Mahabharata war

Bhishma is the one who witnessed the Mahābhārata completely from the beginning since the rule of Shantanu. In the great battle at Kurukshetra, Bhishma was the supreme commander of the Kaurava forces for ten days compared to Drona's five, Karna's two and Salya's one-the last day. He fought reluctantly on the side of the Kauravas; nevertheless, he gave it his best effort. Each day he was killing around 10,000 soldiers of Pandavas.

संक्षिप्त जीवनी

भीष्म के बचपन का नाम देवव्रत था. इन्होने वेदशास्त्र की शिक्षा वशिष्ठ से प्राप्त की थी. युद्ध व शस्त्र विद्या की शिक्षा इन्हें परशुराम से मिली थी. ये शस्त्र और शास्त्र दोनों में अत्यंत निपुण थे.

एक बार की बात है महाराज शान्तनु आखेट के लिए गये. शिकार करते – करते वह यमुना नदी के तट पर पहुँच गये. वहां उन्होंने एक परम सुंदरी कन्या को देखा और उस पर मुग्ध हो गये. महाराज शान्तनु ने उस कन्या के पिता निषादराज से विवाह की इच्छा व्यक्त की.

निषादराज ने कहा- ” मैं एक शर्त पर अपनी कन्या का विवाह आपसे कर सकता हूँ की राजा की मृत्यु के पश्चात मेरी कन्या का पुत्र गद्दी पर बैठेगा, देवव्रत नहीं. महाराज शान्तनु अपने पुत्र का यह अधिकार नहीं छिनना चाहते थे. इसलिए वे हस्तिनापुर लौट आये.

धीरे – धीरे महाराज की दशा सोचनीय होती गई. देवव्रत ने पिता की चिंता का कारण पता किया और निषादराज से अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह अपने पिता से करने का अनुरोध किया.

उन्होंने प्रतिज्ञा की कि-

"मैं शान्तनु पुत्र देवव्रत आज यह प्रतिज्ञा करता हूँ कि आजीवन ब्रह्मचारी रहते हुए हस्तिनापुर राज्य की रक्षा करूँगा". इस भीष्म प्रतिज्ञा के कारण देवव्रत का नाम भीष्म पड़ा.

तत्पश्चात राजा शान्तनु का विवाह सत्यवती के साथ हो गया. सत्यवती के दो पुत्र हुए. एक का नाम था चित्रांगद और दूसरे का नाम था विचित्रवीर्य. शान्तनु की मृत्यु के पश्चात् सत्यवती का बड़ा पुत्र हस्तिनापुर का राजा हुआ किन्तु शीघ्र ही एक युद्ध में उसकी मृत्यु हो गयी.

देवव्रत का नाम पड़ा भीष्म

एक दिन राजा शांतनु यमुना नदी के तट पर घूम कर रहे थे। तभी उन्हें वहां एक सुंदर युवती दिखाई दी। परिचय पूछने पर उसने स्वयं को निषाद कन्या सत्यवती बताया। उसके रूप को देखकर शांतनु उस पर मोहित हो गए तथा उसके पिता के पास जाकर विवाह का प्रस्ताव रखा। तब उस युवती के पिता ने शर्त रखी कि यदि मेरी कन्या से उत्पन्न संतान ही आपके राज्य की उत्तराधिकारी हो तो मैं इसका विवाह आपके साथ करने को तैयार हूं।

यह सुनकर शांतनु ने निषादराज को इंकार कर दिया क्योंकि वे पहले ही देवव्रत को युवराज बना चुके थे। इस घटना के बाद राजा शांतनु चुप से रहने लगे। देवव्रत ने इसका कारण जानना चाहा तो शांतनु ने कुछ नहीं बताया। तब देवव्रत ने शांतनु के मंत्री से पूरी बात जान ली तथा स्वयं निषादराज के पास जाकर पिता शांतनु के लिए उस युवती की मांग की। निषादराज ने देवव्रत के सामने भी वही शर्त रखी। तब देवव्रत ने प्रतिज्ञा लेकर कहा कि आपकी पुत्री के गर्भ से उत्पन्न महाराज शांतनु की संतान ही राज्य की उत्तराधिकारी होगी

तब निषादराज ने कहा यदि तुम्हारी संतान ने मेरी पुत्री की संतान को मारकर राज्य प्राप्त कर लिया तो क्या होगा? तब देवव्रत ने सबके सामने अखण्ड ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा ली तथा सत्यवती को ले जाकर अपने पिता को सौंप दिया। तब पिता शांतनु ने देवव्रत को इच्छामृत्यु का वरदान दिया। देवव्रत की इस भीषण प्रतिज्ञा के कारण ही उनका नाम भीष्म पड़ा।

भीष्म प्रतिज्ञा

एक दिन महाराज शान्तनु यमुना के तट पर घूम रहे थे कि उन्हें नदी में नाव चलाते हुये एक सुन्दर कन्या दृष्टिगत हुई। उसके अंग-अंग से सुगन्ध निकल रही थी। महाराज ने उस कन्या से पूछा, “हे देवी! तुम कौन हो?” कन्या ने बताया, “महाराज! मेरा नाम सत्यवती है और मैं निषाद कन्या हूँ।” महाराज उसके रूप यौवन पर रीझ कर तत्काल उसके पिता के पास पहुँचे और सत्यवती के साथ अपने विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर धींवर (निषाद) बोला, “राजन्! मुझे अपनी कन्या का आपके साथ विवाह करने में कोई आपत्ति नहीं है परन्तु आपको मेरी कन्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्र को ही अपने राज्य का उत्तराधिकारी बनाना होगा।।” निषाद के इन वचनों को सुन कर महाराज शान्तनु चुपचाप हस्तिनापुर लौट आये।

सत्यवती के वियोग में महाराज शान्तनु व्याकुल रहने लगे। उनका शरीर दुर्बल होने लगा। महाराज की इस दशा को देख कर देवव्रत को बड़ी चिंता हुई। जब उन्हें मन्त्रियों के द्वारा पिता की इस प्रकार की दशा होने का कारण ज्ञात हुआ तो वे तत्काल समस्त मन्त्रियों के साथ निषाद के घर जा पहुँचे और उन्होंने निषाद से कहा, - “हे निषाद! आप सहर्ष अपनी पुत्री सत्यवती का विवाह मेरे पिता शान्तनु के साथ कर दें। मैं आपको वचन देता हूँ कि आपकी पुत्री के गर्भ से जो बालक जन्म लेगा वही राज्य का उत्तराधिकारी होगा। कालान्तर में मेरी कोई सन्तान आपकी पुत्री के सन्तान का अधिकार छीन न पाये इस कारण से मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि मैं आजन्म अविवाहित रहूँगा।”

उनकी इस प्रतिज्ञा को सुन कर निषाद ने हाथ जोड़ कर कहा, “हे देवव्रत! आपकी यह प्रतिज्ञा अभूतपूर्व है।” इतना कह कर निषाद ने तत्काल अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत तथा उनके मन्त्रियों के साथ हस्तिनापुर भेज दिया।

कथा

शांतनु से सत्यवती का विवाह भीष्म की ही विकट प्रतिज्ञा के कारण संभव हो सका था। भीष्म ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने और गद्दी न लेने का वचन दिया और सत्यवती के दोनों पुत्रों को राज्य देकर उनकी बराबर रक्षा करते रहे। दोनों के नि:संतान रहने पर उनके विधवाओं की रक्षा भीष्म ने की, परशुराम से युद्ध किया, उग्रायुद्ध का बध किया। फिर सत्यवती के पूर्वपुत्र कृष्ण द्वैपायन द्वारा उन दोनों की पत्नियों से पांडु एवं धृतराष्ट्र का जन्म कराया। इनके बचपन में भीष्म ने हस्तिनापुर का राज्य संभाला और आगे चलकर कौरवों तथा पांडवों की शिक्षा का प्रबंध किया। महाभारत छिड़ने पर उन्होंने दोनों दलों को बहुत समझाया और अंत में कौरवों के सेनापति बने। युद्ध के अनेक नियम बनाने के अतिरिक्त इन्होंने अर्जुन से न लड़ने की भी शर्त रखी थी, पर महाभारत के दसवें दिन इन्हें अर्जुन पर बाण चलाना पड़ा। शिखंडी को सामने कर अर्जुन ने बाणों से इनका शरीर छेद डाला। बाणों की शय्या पर ५८ दिन तक पड़े पड़े इन्होंने अनेक उपदेश दिए। अपनी तपस्या और त्याग के ही कारण ये अब तक भीष्म पितामह कहलाते हैं। इन्हें ही सबसे पहले तर्पण तथा जलदान दिया जाता है।[1]

References


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