Jat Itihas Ki Bhumika/Vaidik Sabhayata Banam Buddha Dhamm

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जाट इतिहास की भूमिका

वैदिक सभ्यता बनाम बुध्द धम्म

p.10-20

[p.10]: ब्राह्मण जो हमारे देश में पश्चिमी यूरेशिया से आया इसकी मूल जाति यहूदी है। प० यूरेशिया में ठण्ड़ ज्यादा रहती है जिससे वंहा के लोगो में वीर्य की कमी है और वंहा की औरतें बच्चे कम पैदा कर पाती है।

आपने सुना होगा कि रूस की सरकार ने एक बार यह नियम भी बना दिया था कि जो औरत दस बच्चे पैदा करेगी, उसे सरकार अतिरिक्त सुविधाएं देगी और राजमाता की उपाधि देगी।

इसी बच्चे कम पैदा कर पाने की हीनता की वजह से ब्राह्मण ने अपने धार्मिक ग्रथों में वीर्य रक्षा पर इतना जोर दिया है। इनके सन्त भी हमेशा वीर्य रक्षा का जाप करते पाएं जाते है। वीर्य की कमी की वजह से इनको हमेशा यह डर रहता था कि कही इनकी पत्नी को कोई दूसरी वीर्यवान जाति का पुरूष गर्भधारण ना करवा जाए। इसी डर की वजह से ब्राह्मण ने अपने शास्त्रों में बार-बार जाति को वर्णसंकरता से बचाने के श्लोक लिखे हैं।

ठण्डें इलाके से आने की वजह से इनकी पूजा पध्दति में यज्ञ, हवन करना शामिल है, जिस माध्यम से इनके पूर्वज ठण्डें इलाके में गरीब लोगों से मुफ्त में लकडियां(समिधा) मंगवाकर आग सेका करते थे अथवा अलाव जलाया करते थे। अब कोई व्यक्ति चोरी के उद्देश्य से अगर दूसरे के घर में घुसेगा तो यह स्वाभाविक ही है कि वह अपनी औरत को लेकर चोरी करने नही जाएगा। यहूदी ब्राह्मण जब इस देश में आया तब वह औरतों को लेकर नही आया था, उसने हमारी ही धरती से औरतों को हड़पा था जिस वजह


[p.11]:से भारत भूमि ब्राह्मणों की पितृ भूमि न होकर मातृ भूमि है। इनकी पितृ भूमि तो प०यूरेशिया और इजराईल है। यही वज़ह है कि ब्राह्मण भारत में “भारत माता की जय” कहने पर इतना जोर देता है। क्योंकि वह जानता है कि उसकी मां भारत से है और उसका पिता प०यूरेशिया और ईजराईल से है इसलिए वह 'भारत माता की जय' कहता है।

इसे यू समझें:- जैसे पोर्न अदाकारा सन्नी लियोनी का पिता भारत से है और माता कनाडा से है, तो भारत देश सन्नी लियोनी का पिता है और कनाडा इसकी माता है, तो सन्नी लियोनी कनाडा की जय, 'कनाडा माता की जय' बोल सकती है लेकिन भारत माता की जय नही बोल सकती क्योंकि भारत उसका पिता देश है। उसे भारत के संदर्भ में भारत पिता की जय बोलनी बनती है। यही बात कैटरीना कैफ फिल्मी अदाकारा पर भी लागू होती है जिसका पिता भारत का और माता इंग्लैड़ की है। अत: इंग्लैड कैटरीना की माता है और भारत उसका पिता है। कायदे से कैटरीना कैफ को नारा लगाना पड़े तो वह नारा लगाएगी “ इंग्लैड़़ माता की जय-भारत पिता की जय”।

भारत में ब्राह्मण कायदे से तो नारा लगाता है जिसमें वह भारत माता की जय कहता है लेकिन उसका यह कायदा उधूरा है उसे भारत माता की जय के साथ इजराईल पिता की जय का भी नारा लगाना चाहिए। लेकिन वह इस इजराईल पिता की जय के नारे को छिपाता ही रहेगा और इसी में उसकी भलाई है।

ब्राह्मण ने भारत माता का जो चित्र बनाया हुआ है क्या वह कही से भी जाटों के कल्चर से मेल खाता है?


[p.12]: भारत माता के बाल खुले छोडे हुए है। मेरी मां-दादाी ने कभी भी सिर के बाल खुले नही छोडे़। मां चोटी बनाकर रखती थी, दादी मिहण्डी बनाकर रखती थी।

भारत माता ने साड़ी बांध रखी है, मेरी दादी दामण पहनती थी, मां सूट सलवार पहनती है और साड़ी तो मेरी लुगाई भी आज तक बांधना नही सीख पाई है।

भारत माता ने सिंदुर लगाया हुआ है। मेरी मां, मेरी दादी ने कभी सिंदुर नही लगाया क्योंकि यह जाटों की परंपरा नही है। वास्तव में सिन्दुर लगाना गुलामी की परंपरा है जब विदेशी यहूदी ब्राह्मण भारत में किसी ब्याहता (शादिशुदा) औरत के पति की निर्मम हत्या कर दिया करता था, तो उसकी पत्नी को अपनी गुलाम बना लिया करता था और इस औरत के मन में गुलामी का डर पैदा करने के लिए उसके मृतपति का खून उसके सिर में उडेल दिया करता था, जिसका प्रतिक सिंदुर है। आज भी आप छठपूजा पर बिहारी और पूर्वी उत्तरप्रदेश की औरतों को सिंदुर लगाएं देखेगे तो पाएंगे कि इन औरतों ने सिंदुर इस तरह लगा रखा होता है, मानों खून हो।

हमारे जाट पूर्वज इस बात को जानते थे इसलिए जाट कल्चर में कोई औरत सिंदुर नही लगाया करती थी। मैने मेरी दादी के हाथों पर पांव पर माथे पर ठुड्डी पर परंपरागत टैटूज तो जरूर देखे है, लेकिन मैने अपनी मां, दादी को कभी सिंदुर लगाए हुए नही देखा।

भारत माता ने झण्डा पकड़ा हुआ है। मेरी दादी अपने खेत में घुसे जंगली जानवरों को भगाने के लिए डंडा जरूर घुमा सकती थी, लेकिन उस डंडे में झण्ड़ा नही हो सकता था।


[p.13]: अत:- भारत माता की जय के नारे में ब्राहमण केवल अपनी ब्राहमणी मां की जय बोलता है। इस बाल खुले छोडे़, साड़ी पहनी, हाथ में झण्डा पकडने वाली से जाटों का कोई लेना देना नही है।

अत:- जाटों को ब्राहमणों द्वारा लगाए जाने वाले इस 'भारत माता की जय' के नारे को नही लगाना चाहिए। बल्कि इसकी जगह 'दादा भारत की जय’ का नारा लगाना चाहिए।

व्याकरण की दृष्टि से भी यही ठीक रहेगा। क्योंकि इसमें एक पुरूषवाचक शब्द भारत के साथ माता ( स्ञीवाची) शब्द का का प्रयोग करना गलत रहेगा। क्या यह कहना उचित लगेगा कि मनोज माता की जय, अभिषेक माता की जय, अखिलेश माता की जय, दिपेन्द्र माता की जय। अगर नही तो 'भारत माता की जय भी गलत है क्योंकि भारत एक पुरूषवाची शब्द है लेकिन गुलामों को कौन समझाए।

निष्कर्ष:- ठण्ड़े यूरेशिया से भारत में आए यहूदी-ब्राहमण ने वीर्यरक्षा और वर्णसंकरता का राग अलापते रहे। ठण्ड़े प्रदेश से आने कि वजह से इन्होने अपनी पूजा पद्ति में यज्ञ और हवन को शामिल किया था।


2.

ब्राह्मण ने हमारे देश में आकर यह समझ लिया कि इन जाटों पर कभी भी बलपूर्वक सत्ता कायम नही की जा सकती ,इसलिए ब्राह्मण ने जिस सबसे पहले अस्ञ का हमारे खिलाफ इस्तेमाल किया, उस अस्ञ का नाम जानते है क्या था?


[p.14]: ब्राहमण ने हमारे खिलाफ तलवार, भाले, तीर, गदा, सुदर्शन चक्र आदि अस्त्रों को इस्तेमाल नही किया था बल्कि ब्राह्मण ने हमारे खिलाफ “शब्द” का इस्तेमाल किया था। ब्राह्मण के मतानुसार शब्द ब्रम्हा है।

शब्द से ही सामाजिक मान्यताओं को बदला जा सकता है, जिससे सारी सामाजिक शक्तियों को अपने हक में मोडा जा सकता है। ब्राह्मण 'शब्द’ का इस्तेमाल करने में माहिर था और आज तो इसकी शक्ति कई गुणा बढ़ चूकि है। आपने एक पुराना उदाहरण सुना होगा कि एक कौमा (comma) पूरे वाक्य के अर्थ को उल्ट देता है जैसे:-

“रोको मत, जाने दो”
“रोको, मत जाने दो”

उपरोक्त वाक्य में कोमा रोको मत के बाद है तो इसका मतलब अलग है और रोको के बाद है तो इसका अर्थ अलग है। इसी तरह राजस्थान में एक अफवाह फैली हुई है कि जिस मीणा जनजाति का आरक्षण जनजातिय सूची में हो रखा है, कानून इनका आरक्षण होना नही था, असल में आरक्षण इस मीणा जनजाति का नही इससे अलग “भील मीणा” जनजाति का होना था। वह तो इस मीणा जाति का एक होशियार आदमी, जिसका नाम भी कोई कई राजस्थानी बता देता था, जिसने आरक्षण वाले कागज में “भील मीणा” जनजाति के बीच में कोमा लगा दिया और इस तरह भील और मीणा जाति को आरक्षण दिलवा दिया, वरना मीणाओं को कभी भी आरक्षण नही मिल पाता। ये उदाहरण में समझाने के लिए दे रहा हू, कि जिस बात पर जाट


[p.15]: कभी गौर नही करते उसी ' शब्द' से ब्राह्मण ने राखीगढ़ी और सिन्धु घाटी की सभ्यता को खत्म किया था। आज भी भारत में ब्राह्मणों का सबसे मजबूत संगठन राष्ट्रिय स्वंयसेवक संघ (RSS) शब्दों के चयन पर बहुत सावधानी बरतता है। संघ आदिवासी की जगह वनवासी, हिन्दुस्तान की जगह हिन्दुस्थान, सामाजिक न्याय की जगह सामाजिक समरस्ता जैसे शब्दों को इस्तेमाल करता है।

ब्राह्मण ने इसी 'शब्दास्त्र’ का अचूक इस्तेमाल राखीगढ़ी सभ्यता में जाटों के विरूध किया था। ब्राहमण ने राखीगढ़ी और सिंधु सभ्यता में आकर देखा कि यहां पर खेती करने वाले जाटों के लिए 'अर्य' (अरय) शब्द प्रयोग किया जाता था। अर्य का मतलब किसान था। पंजाब में खेती करने वालो को अराई कहते है। (पुस्तक कुलियाल आर्य मुसाफिर पहला भाग, लेखक अमर हुतात्या धर्मवीर प० लेखराम आर्यपथिक: प्रकाशक -हरयाण साहित्य संस्थान गुरूकुल झज्जर, विक्रमी संवत 2036)

ब्राह्मणों ने जाटों के देश में खुद को एडजस्ट करने के लिए और जाटों की सहानुभूति अर्जित करने के लिए अपने लिए “अर्य” शब्द से मिलते जुलते शब्द “आर्य” का इस्तेमाल करना शुरू किया।

जाट नए नए आए ब्राह्मण से पूछते कि तुम कौन हो, तब ये जाटों को बताते की हम 'आर्य’ है जाट सोचते कि ये भी हमारी तरह किसान ही होगे, क्योंकि हम अर्य है और ये आर्य है। यह कुछ कुछ वैसा ही था जैसे आज भी हरयाणा, पंजाब के कुछ बिहारी मजदूर खुद को बिहार के ही जाट बता देते है।



[p.16]: लेकिन ब्राह्मणों ने खुद को 'अर्य नही बताया था, बल्कि 'आर्य’ बताया था। जिससे भेद खुल जाने पर ये कह सकें कि हमने कब कहा था कि हम अर्य (किसान) है हम तो आर्य है। यह तो तुम्हारी ही गलती थी जो तुमने हमें अर्य समझा और अर्य-आर्य में भेद ना किया।

जाट ब्राह्मण के आर्य शब्द के जाल में फसकर अर्य ही समझता रहा और ब्राह्मण ने भी धीरे धीरे करके सामाजिक जीवन में अर्य शब्द का ही लोप कर दिया। अब अर्य शब्द गायब था और केवल आर्य शब्द ही प्रचलित हो गया था, लेकिन इस आर्य शब्द का इस्तेमाल ब्राह्मण केवल अपने लिए ही करता था, जाट के लिए नही।

अर्य शब्द का तो प्रचलित अर्थ किसान था, जबकि आर्य शब्द जोकि एक कृत्रिम शब्द था और एक नकलची डुपलीकेट शब्द था, का वास्तव में कोई अर्थ नही था, अब इस बिना अर्थ वाले शब्द को कोई ना कोई अर्थ देना जरूरी था क्योंकि बिना अर्थ वाले शब्द का मनमाना मतलब निकल सकने का खतरा था हालांकि जाटों ने तो इसका मतलब अर्य की तरह किसान ही समझ रखा था।

ब्राह्मण चूंकि किसान नही था इसलिेए कालांतर में जब ब्राह्मण ने अर्य शब्द को पूरे तरीके से खत्म कर दिया तब इस आर्य शब्द को अर्थ देने शुरू किये। ब्राह्मण ने आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ किया। ब्राहमण ने इसका अर्थ श्रेष्ठ इसलिए किया क्योंकि ब्राह्मण दूसरे देश से जाटों के देश में आ तो गया था, लेकिन एक विदेशी होने के नाते हीनता की ग्रन्थी से पीड़ीत था। कोई भी व्यक्ति किसी दूसरे अधिक सभ्य देश में जाकर हीनता की ग्रन्थी से पीड़ीत हो ही जाता है यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है। मनोविज्ञानिक बताते है कि हीनता की ग्रन्थी का शिकार व्यक्ति खुद को दूसरों से अधिक श्रेष्ठ दिखाने का ,बताने का प्रयास करता है।



[p.17]: ब्राह्मणों ने इस आर्य शब्द का ब्रिटिश राज में भी जाटों को भ्रमित करने के लिए सफल इस्तेमाल किया था, जिसकी विस्तृत व्याख्या मैं इस पुस्तक में आगे करूगा।

निष्कर्ष:- विदेशी ब्राह्मण ने अर्य देश में आकर खुद को आर्य घोषित किया जिससे जाटों को मूर्ख बनाया जा सके। बाद में ब्राह्मणों ने मूल 'अर्य' शब्द को समाज से लुप्त कर दिया और कृञिम आर्य शब्द का अर्थ श्रेष्ठ बता दिया। इस तरह यहूदी ब्राह्मण ने आर्य ब्राह्मण बनकर राखीगढ़ी और सिंधु घाटी में अपनी जमीन तलाशी।

3.

भारतीय इतिहास की अलग अलग विद्वानों ने अलग अलग दृष्टिकोण से व्याख्याएं की है। मार्क्सवादी इतिहासकार दूनिया के इतिहास समेत भारतीय इतिहास की व्याख्या अमीर-गरीब की लडाई के तौर पर करते है। डा० अम्बेडकर ने भारतीय इतिहास को क्रान्ति-प्रतिक्रान्ति का इतिहास कहा है। एच एल दुसाध, दलित चिंतक व लेखक ने भारतीय इतिहास की व्याख्या आरक्षण के लिए रस्साकशी के रूप में की है। कुछ इतिहासकार भारतीय इतिहास को बौध्दों और गैर बौध्दों के संघर्ष का इतिहास कहते है।

उपरोक्त सभी व्याख्याएं सही है क्योंकि हर एक ईमानदार विद्वान का यही मत होता है कि उसके दृष्टिकोण से भी अगर चीजों को देखा


[p.18]: तो संभव है कि कुछ और नई बातों का पता चलें तथा सच्चे इतिहास लेखन का कार्य और ज्यादा समृध्द हो सकें। इसी कड़ी में मेरा जो इतिहास की व्याख्या का नवीन दृष्टिकोण निवेदित है, वह यह है कि भारत का इतिहास देवताओं के स्थापन-प्रतिस्थापन का इतिहास है। मौटे तौर पर, समाज में जिस जाति का देवता अधिक पूज्य हो जाता है, वह जाति उतनी ही अधिक शक्तिशाली हो जाती है। इसलिए हरएक जाति अपने अपने देवताओं को लोकदेवता बनाने का प्रयास करती है और ब्राह्मण तो इसमें केवल प्रयास ही नही करता बल्कि अपने देवताओं को स्थापित करने तथा दुसरों के देवताओं को प्रतिस्थापित करके खत्म करने या फिर अंतिम कड़ी में दुसरे के देवताओं को अपने देवता का चेला सिध्द करने और अगर यहा भी बात ना बनें तो दूसरे के देवताओं को अपने देवता का अवतार स्थापित करने का सक्रिय षड्यंत्र रचता है। इसे यू समझे, जाटों की पूजा पध्दति में हर गांव में दादा खेडा (नगर खेडा, दादा भैय्या) होता है। जिसकी धोक पुरा गांव लगाता है। यह दादा खेडा उस गांव का पहला व्यक्ति होता है जिसने यह गांव बसाया था। अत: ग्राम समाज इसे सबसे पहली धोक लगाता है। इसके बाद जाटों के अलग अलग गांवों के कुछ सांझे देवता है, जिनकी धोक लगाने से इन अलग अलग गांवों की एकता बनी रहती है। इन सांझें लोकदेवताओं के ‘वारों’ पर मेले लगते है, कुशती के दंगल होते है। बाबा हरिदास (झाडौदा, दिल्ली) बाबा मस्तनाथ (बोहर, रोहतक) दादा चमनऋषि (खरावड, रोहतक) नाग देवता (समचाना, रोहतक) मोहज्जमा पीर ( डीघल, झज्जर) दादा नसीर पीर (नागलोई, दिल्ली) बेरी आली माता (बेरी, झज्जर) शीतला माता (गुंडगांव) संत गरीबदास धाम ( छुडानी, झज्जर) आदि देवता हमारे सांझे देवताओं के उदाहरण है।


[p.19]: इन दाद खेडा और लोक देवताओं को धोक लगाने के बाद भी अगर कोई जाट अधिक पुण्य अर्जित करना चाहता था, तो वह ज्यादा से ज्यादा हरिद्वार नहान कर लेता था, जो पूरे उत्तर भारत के जाटों का धार्मिक अड्डा था। इससे ज्यादा दौड़ जाटों की नही थी।

जाट इस व्यवस्था को बनाए रखे हुए थे और न्यारी न्यारी लाग नही लगाया करते थे, मानों जाटों को जो देवी देवता इनके ट्राईबल कलचर से इनके पूर्वजों ने पूजने के लिए सौपें थे, जाट केवल इन्हे ही पूजते थे।

जाटों की यह व्यवस्था लोकतांत्रिक थी, सरल थी, गैर साम्राज्यवादी थी, ग्राम समाज के हीत में थी और जैविक थी अथवा कृञिम नही थी । यह वैसे ही जैविक पध्दति थी जैसे परिवार एक जैविक ईकाई होता है और संगठन एक कृञिम ईकाई होता है।

परिवार से कुटुंब बना, कुटुंब से गांव बना, गांव से गुहांड में भाईचारा बना, गांव से दादा खेडा की धोक लगी, गुहाडों से लोक देवताओं की धोक लगी। इस पध्दति में जाटों का अध्यात्मिक विकास भी होता था और इस व्यवस्था में ना कोई दिखावा था।

लेकिन 1947 में भारत विभाजन के पश्चात जो पाकिस्तानी रिफ्यूजी ( अरोडा, खञी, भाटिया ) जाटों के एरिया में आए, इन्होने योजनाबंद षडयञ के तहत, पूरी प्लानिंग करके जाटों की ग्रामीण पूजा पध्दति को तबाह कर दिया। पाकिस्तानी रिफ्यूजियों ने कभी भी किसी जाट लोकदेवता (जैसे-दादा हरिदास, बाबा मस्तनाथ आदि) को धोक नही लगाई, बल्कि जाटों के शांति प्रिय इलाके में आकर शान्ति भंग करने के उद्देशय से माता के जगराते शुरू कर दिए। इतना ही नही इन्होनें हमारे लोक देवताओं के एरिया में कृञिम देवताओं, आयातित देवताओं के मंदिर बनवाने, शोभा याञाएं निकालनी शुरू कर दी।



[p.20]:पाकिस्तानी रिफ्यूजियों ने हमारे लोकदेवताओं को तो कभी धोक लगाई नही, उल्टा हमारे लोकदेवताओं के क्षेञ में शनिमहाराज (महाराष्ट्र), गणेश महाराज (महाराष्ट्र), जगन्ननाथ महाराज ( उडीसा), साई बाबा (शिरडी महाराष्ट्र) के मंदिर खोल दिए, जिससे हमारी अध्यात्मिक व्यवस्था तबाह हो गई, हमारे लोगो की अध्यात्मिक शान्ति भंग हो गई और हमारे देवता हमसे रूष्ट हो गए।

सवाल है कि कोई भी पाकिस्तानी रिफ्यूजी कभी भी जाटों के देवी देवताओं को धोक क्यों नही लगाता? क्या बाबा मस्तनाथ, दादा हरिदास, संत गरीबदास में शाक्ति नही है। नही यह बात नही है कि हमारे देवता शक्तिहीन है , असल बात यह है कि ये पाकिस्तानी रिफ्यूजी भारतीय इतिहास की इस धारा को अच्छी तरह समझते है कि भारत का इतिहास देवताओं के स्थापन प्रतिस्थापन का इतिहास है।

सन् 1947 मे इन पाकिस्तान रिफ्यूजियों के आने से पहले सन् 1875 में टंकारा गुजरात के ब्राह्मण पण्डित मूलशंकर तिवारी उर्फ महर्षि दयानन्द सरस्वती ने आर्यसमाज बनाकर जाटों को इनके देवताओं से अलग करने का सुनियोजित संस्थागत प्रयोग किया था। आर्यसमाज ने खुद को प्रगतिशील आन्दोलन बताकर मूर्तिपूजा का खण्डन किया, मूर्तिपूजा का खण्डन करने के पीछे इनका उद्देश्य ब्राह्मण की रोजी रोटी खत्म करना नही था, बल्कि इनका उद्देश्य था कि जाटों की अपने दादा खेडा और लोकदेवताओं से आस्था खत्म की जाए। मूर्तिपूजा के खण्डन के नाम पर बारगी हमारी अपने देवताओं से आस्था खत्म हो जाती, तब अपने देवताओं को स्थापित करने के क्रम में ब्राह्मण जाटों को ब्राह्मणीय देवताओ का पैकेज गिफ्ट कर देता। 1875 से अब तक का इतिहास बताता है कि हुआ भी ऐसा ही है। जाटों ने आर्यसमाज के

p. 21- 30

[p.21]: बहकावे में आकर अपने देवताओं की पूजा करनी छोड दी, जिससे जाटों के क्षेञ में रिक्त्ता पैदा हो गई। इस रिक्त्ता को 1947 में आए पाकिस्तानी रिफ्यूजीयों ने महाराष्ट्र के देवता बिढ़ाकर भर दिया।

होना तो यह चाहिए था कि महाराष्ट्र और उडीसा में दादा हरिदास, बाबा मस्तनाथ की पूजा होती। पश्चिम बंगाल में शीतला माता, बेरी आली माता की पूजा होती। तब तो हम मानते कि जाटों में भी दम है, लेकिन हो उल्टा रहा है, दादा हरिदास, बाबा मस्तनाथ की जगह तो सांई बाबा और गणेश ले रहे है। शीतला माता और बेरी वाली माता को ब्राह्मणों ने कलकत्ता की काली माता की अवतार ( फ्रेन्चाईजी) घोषित कर दिया है। यह कहते तब भी शांति होती कि कलकत्ता की काली माता जाटों की शीतला माता और बेरी वाली माता की अवतार (फ्रेन्चाईजी) है। लेकिन नही, जाटों का इस ओर ध्यान ही नही है। जानते है कि जाटों का इस और ध्यान क्यों नही है? जाटों का ध्यान इस ओर इसलिए नही है, क्योंकि जाटों में सदा से ही धर्म को व्यक्तिगत आस्था की तरह माना है। जाटों ने धर्म के साम्राज्यवादी चहरे को नकारने में ही शांति चाही है। लेकिन दुख की बात यह भी है यह भोला बंदा जाट कभी भी शक्ति प्राप्ति के इस सुञ को नही समझ पाया कि ब्राह्मण ने इसी धर्म का सबसे अधिक इस्तेमाल राज कायम करने में किया है। जाट सोचता रहा धर्म एक व्यक्तिगत विषय है, ब्राह्मण धर्म के राजनीतिक प्रयोग करता रहा।

जाट हिन्दूवाद के नाम पर भावुक होता रहा और ब्राह्मण इसी हिन्दूवाद के नाम पर जाटों की परंपरागत पूजा पध्दति, जिससे जाटों में अध्यात्मिक शांति और सामाजिक एकता कायम रहती थी, की परत दर परत बखिया उधेडता रहा और हमें देवता विहीन करता रहा।


[p.22]: ब्राह्मण-बनिया ने हमसे 'अर्य' नाम छीन लिया, हमारे देवता छीन लिए, अब हमारी जमींन छीन रहे है, कल हमारी औरतें छीनेगें। लेकिन फिर भी हम नही जागेगें, क्योंकि हमारी नींद, नींद नही है, हम कौमा में पहुच चुके है, मृतप्राय हो चुके है।

अस्तु, इतिहास की यह देवताओं की स्थापना-प्रतिस्थापना की धारा सन् 1875 या सन् 1947 से शुरू नही होती, वरन् यह धारा भारत भूमि पर उसी दिन से शुरू हो गई थी, जिस दिन से प0 यूरेशिया-इजराईल से आए यहूदी(ब्राहमण) ने राखीगढ़ी-सिंधु घाटी की पविञ धरती पर अपने नापाक कदम रखे थे।

(ब्राह्मण) यहूदी भारत में इसलिए तो आया ही था कि वह भारत में जाटों की सभ्यता के किस्से सुनसुनकर अचंभित था, यहूदियों(ब्राह्मण) के भारत में आने का एक मुख्य कारण यह भी था कि इन्हे इनके मूल देश यूरेशिया और इजराईल से वंहा की दूसरी जातियों ने जो इनके अत्याचारों से ञस्त हो चुकी थी, मार मारकर भगाया था। यहूदियों का इतिहास विस्थापन का इतिहास है जिसका विस्तृत वर्णन पविञ बाईबल में वर्णित है। यहूदी (ब्राह्मण) भारत में इसी तरह रिफ्यूजी बनकर आया था, जिस तरह 1947 में अरोड़ा खञी भारत में रिफ्यूजी बनकर आए थे।

राखीगढ़ी और सिंधु सभ्यता में कदम रखकर रिफ्यूजी यहूदी (ब्राह्मण) ने सबसे पहले तो 'अर्य' जाटों की सहानुभूति लेने के लिए खुद को आर्य घोषित किया। यह ठीक वैसा ही प्रयोग था, जैसे आजकल मार्किट में नकली ब्राण्ड वाले असली ब्राण्ड के नाम से मिलते जुलते नाम वाले उत्पाद मार्किट में उतार देते है और मार्किट से भारी मुनाफा वसूलते है। भारत में आज नकली उत्पादों का बाजार भी बड़ा बाजार है जिसकी

[p.23]: शुरूआत आज से 5000 साल पहले ब्राह्मण ने जाटों के असली 'अर्य' शब्द के मुकाबले खुद को आर्य कहकर की थी। रिफ्यूजी हमेशा अपनी मूल पहचान को छीपाने के लिए अच्छे शब्दों का प्रचलन करता है। जैसे 1947 में जो अरोडा-खञी ( सर छोटूराम पंजाब में इन्हे यहूदी कहते थे, पंजाब असेंबली में दिए गए उनके भाषण की कापॅी मेरे पास है) पाकिस्तान से हरयाणा में आए थे, तो उस समय हरयाणा निवासी इनके लिए 'पाकिस्तानी’ शब्द का इस्तेमाल करते थे और इनकी बस्तियों को मिनी पाकिस्तान कहा करते थे। मेरी दादी जो अनपढ़ थी इनके लिए पाकिस्तानी शब्द इस्तेमाल करती थी और आज भी उस जमाने के बचे हुए बूढ़े बुर्जुग इन्हे पाकिस्तानी ही कहते है। बाद में इन पाकिस्तानीयों को लोग रिफ्यूजी कहने लगे और आज इन्हे हम पंजाबी कहते है।

अत: जिस तरह आज पाकिस्तानी अरोडा-खञी जाटों के एरिया में पंजाबी हो गया है, ठीक उसी तरह आज से पांच हजार साल पहले यूरेशियाई ब्राह्मण-यहूदी जाटों के एरिया में आर्य हो गया था। जिस तरह आज पाकिस्तानी रिफ्यूजी हरयाणा का मुख्यमंत्री हो गया है उसी तरह आज से 3500-3000 वर्ष पहले यूरेशियाई रिफ्यूजी(आर्य) भी सिंधु घाटी के क्षेञ का राजा बन गया था। जो नीतियां आज अपनाई जा रही है, वही नीतिया उस समय अपनाई गई थी ( उस समय भी हमारे देवताओ को खत्म करके ब्राह्मण ने अपने कृञिम देवता समाज में प्रचलित-स्थातपित करने के षडयंञकारी प्रयास किए थे। हमारे राज शंबर ( शंभू, शिव, शंकर ) की ब्राह्मणों ने बिरानमाटी करके पूज्यनीयता की श्रेणी के तीसरे क्रम में पहुचा दिया था और अपने पूर्वज ब्रम्हा को पहले स्थान पर स्थापित किया था। ब्रम्हा, विष्णु, महेश के


[p.24]: क्रम में राजा शंबर (महेश) तीसरे पायदान पर है, जबकि जाटों के दिलों में राजा शंबर का स्थान आज भी सबसे ऊचा है।

सिंधु घाटी में बहने वाली किसी नदी का नाम बदलकर ब्राह्मणों ने सरस्वती नदी रख दिया था, ठीक वैसे ही जैसे आज इन्होने गुडगांव का नाम बदलकर गुरूग्राम कर दिया है। राज कायम होने पर ब्राह्मणों ने इस नाम बदली हुई सरस्वती नदी के मुहानों पर 'घाट' बनाने शुरू किए, जिन घाटों पर केवल आर्यों का ही कब्जा था, मानों इस बदले हुए नाम की नदी को ये यूरेशिया से ही खोद खोदकर लाए हो।

इस सरस्वती नदी के किनारे, जो इससे पहले जाटों के खेतों की जीवन रेखा होती थी, पर अब इन विदेशी आर्यों ने कब्जा करके पशुओं की बली देनी भी शुरू कर दी थी और बलि वेदियां भी बना ली थी।

राखीगढ़ी में सबसे ऊंचे टीले पर बनी हुई बलिवेदी को देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ कि यह बलिवेदी हूबहू वैसी ही बलिवैदी है जैसी बलिवेदियो का जिक्र पविञ बाईबल में यहूदियों की बलिवेदियों के लिए बार बार किया गया है। राखीगढ़ी की बलिवेदी की संरचना और बाईबल की बलिवेदि की संरचना में कतई कोई अंतर नही है। चूंकि राखीगढ़ी में यह यहूदी बलिवेदी सबसे ऊंचे टीले पर स्थित है तो इससे यह भी पता चलता है कि यहूदि (ब्राह्मण) जाटों की सभ्यता में बहुत बाद में आया है। इस बलिवेदी को देखकर मेरे साथ गई टीम के एक साथी ने मुझसे कहा देखो राखीगढ़ी के लोग भी बलि दिया करते थे। इस पर मैनें उसे कहा कि नही राखीगढ़ी के लोग बलि नही दिया करते थे, बल्कि इन बलि देने वाले मुट्ठी भर आर्यों के कारण राखीगढ़ी का पतन हुआ था। मेरी बात सुनकर उसने कहा कि आप ठीक कहते है, इन बलिवेदी तैयार


[p.25]: करने वालों ने ही इस महान सभ्यता को राख की गढ़ी (राखीगढ़ी) में बदल दिया था। आर्यों ने, (अब तक आप आर्य शब्द का मतलब भलीभान्ति समझ चुके होगें) इस बलिवेदी पर बलि देने वाली सभ्यता को बलि-वेदिक सभ्यता नाम दिया, जिसे वैदिक सभ्यता भी कहा जाता है। इस वैदिक सभ्यता में आर्यों ने पशुबलि में गाय औप बैलों की बलि देनी शुरू की, जिससे जाटों की गाय-बैल आधारित कृषि व्यवस्था चरमरा जाए और जाट घुटनों के बल आ जाए।

वैदिक सभ्यता में आर्य ब्राह्मण गाय का मीट खाता था, जो इनके यहूदी भाई आज भी खाते है। ब्राह्मण के इस गाय के मीट खाने की ही वजह से आज भी गांवो में जाट, ब्राह्मणों को 'हाड खानी जात' कहते है, जिसका मतलब एक ऐसी जाति से है जो मीट में हड्डियां भी नही छोडती, मांस समेत हड्डीयां भी खा जाती है। वैदिक युग के ब्राह्मणीय अत्याचारों की स्मृति आज भी जाटों की शब्दावली में कायम है, जिसको नकारा नही जा सकता।

इस वैदिक सभ्यता में इन्होने समाज को पूरे तरिके से परेशान कर दिया। वैदिक राज में समाज वेदना से भर उठा, इन ब्राह्मणों ने समाज को कृञिम देवताओं, हवन, बलि, गौ-मांस भक्षण से ञस्त कर दिया और पूरी जाट कौम को दर्द दे दिया।

4

कहावत है दर्द से मर्द पैदा होता है, आदमी दर्द में ही जागता और दर्द में ही कुर्बानी का जज्बा पैदा होता है।


[p.26]: जाटों के बारें में एक बात और भी प्रचलित है कि जाट जितना कटेगा, उतना बढेगा। ब्राह्मण ने वैदिक सत्ता से जाटों को काटना शुरू किया, तो जाटों में भी वैदिक सत्ता के खिलाफ अन्दर ही अन्दर विद्रोह की ज्वाला भडकनी शुरू हो हुई। इस ज्वाला ने शीघ्र ही शाक्यमुनि सिध्दार्थ गौतम बुध्द की शरण में ऐशिया की सबसे बड़ी ब्राह्मणवाद विरोधी मूवमेन्ट को खड़ा कर दिया। अफगानिस्तान, भारत, चीन, नेपाल, मंयामार, सिलोन, मंगोलिया, कोरिया, ताईवान, कंबोडिया, जापान, इण्डोनेशिया, फिलीपिंस जैसे अनेकानेक देश बुध्द धम्म में शामिल हो गए, जिससे ब्राह्मण को छीपने की जगह शेष नही रही। ऐशिया में इस महान लहर को खड़ा करने में जाटों की प्रमुख भूमिका थी, क्योंकि जाट मूलत: एक लहरी कौम है जो लहर हम पैदा कर सकते है, वह लहर शायद ही कोई और कौम पैदा कर सकती हो। सम्राट कनिष्क से लेकर महाराजा हर्षवर्धन तक एक से एक महान बौध्द शासक जाट कौम में पैदा हुए। महाम सम्राट अशोक मोर (मौर्य) जाट कौम की विश्व को सर्वोत्म देन थी। आज भी अगर हम जातिवार नामों का सर्वे करें तो पूरे भारत में अशोक नाम के लड़के सबसे ज्यादा जाट कौम में ही मिलेंगे, जिन्हे गांवों में शोकी (nick name) भी कहा जाता है।

शौकी मोर (अशोक मौर्य) ही नही बल्कि जाटों की पूरी जाटू भाषा में बौध्द धम्म के नामों की भरमार है। जाटों में ही सबसे ज्यादा आनन्द नाम के लड़के मिलेगे, जिन्हे गांव में आन्दू कहा जाता है। आन्नद, सिध्दार्थ गौतम बुध्द के बडे भाई का नाम था। सिध्दार्थ नाम से तो जाटों में पूरा गो ही चल निकला था, जिन्हे पंजाब में सिध्दु कहा जाता है। पूर्व क्रिकेटर और वर्तमान में राजनेता बने नवजोत सिंह सिघ्दू इसी गोञ से है।


[p.27]: जाट भाषा को बुध्द के समय में पाली भाषा कहा जाता था, क्योंकि यह हाली-पाली (किसान) की भाषा थी। हाली मतलब जो हल चलाए, पाली मतलब जो पशु चराए।

मैं जाटू भाषा के कुछ शब्दों की विवेचना यहा करूंगा, स्पष्ट हो सके कि बौध्द धम्म को जाटों ने किस कद्र जीना शुरू कर दिया था।

जाटों में एक शब्द चलता है “तान सी बाज री है” जिसका अर्थ सब कुशल मंगल है, आप किसी बुजुर्ग से पूछेगे कि ताऊ के ज्ञान है( ताऊ क्या हाल है) तो वह कहेगा कि तान सी बाज री सै अर्थात सब ठीक चल रहा है।

जाटों में यह वाक्य “तान सी बाज री सै” बौध्द वाग्ंमय से आया है। सुना है एक बार महात्मा बुध्द पीपल के पेड़ के नीचे बैढ़ कर जाटों को ब्राह्मणवाद के खिलाफ समझा रहे थे अथवा प्रवचन दे रहे थे। उस समय महात्मा बुध्द का शरीर भी ज्यादा प्रवास पर रहने के कारण काफी कमजोर हो चुका था और अस्थिपिंजर मात्र ही रह गया था, उनके इस अस्थिपिंजर बने शरीर की स्मृतिस्वरूप पत्थर की प्राचीन मूर्ति आज भी पाकिस्तान के पुरातात्विक विभाग के लाहौर संग्राहलय में रखी हुई है। जब महात्मा बुध्द के कैडर (प्रवचन) को जाट सुन रहे थे , तब कुछ औरतें वहा से गीत गाती हुई गुजरी जो इकतारा बजा रही थी और गीत गा रही थी कि इकतारे की तार को न तो इतना कसो की बेसुरी तान निकले और न ही इतनी ढीली छोडो कि तान ही न बजे। यही से महात्मा बुध्द को मध्यम मार्ग की सीख मिली और उन्होने इस सीख को जाटों के साथ शेयर किया।

महात्मा बुध्द ने कहा कि मिशन का कार्य करते हुए या वैसे भी हमें शरीर का ध्यान रखना चाहिए। इससे न तो इतना काम लेना चाहिए कि


[p.28]:

यह बीमार पड़ जाए और न ही इतना आराम होना चाहिए कि फिर यह किसी काम का न रहे।

महात्मा बुध्द ने कहा हमें मध्यम मार्ग का अनुकरण करना अभिष्ट है। उनके इस प्रवचन से जाटों में एक शब्द प्रचलित हुआ “तान सी बाजनी चाहिए” जो आज भी है।

महात्मा बुध्द ने तान सी बाजनी चाहिए के मध्यममार्गी दर्शन पर आधारित ‘आष्टागिक मार्ग’बताया, जिसमें सम्यक प्रज्ञा, सम्यक व्यायाम, सम्यक भोजन, सम्यक निंद्रा, सम्यक द्रष्टि, सम्यक वाणी आदि बाते थी। उन्होने कहा हमें इस मार्ग पर चलना चाहिए। इस अष्टागिंक मार्ग पर चलना चूंकि कठिन कार्य था, तो जाटों में अष्टांगिक मार्ग के लिए अष्टाकाम शब्द प्रचलित हुआ, जिसका मतलब ही मुशकिल काम होता है। आप कहेगें कि यह कौन सा मुश्किल काम है कि सम्यक निद्रा, सम्यक भोजन, सम्यक व्यायाम लेकिन हकीकत में यही सबसे कठिन काम है जो हम नही कर पाते। ओशो ने ठीक ही लिखा है कि सबसे कठिन साधना है, भूख लगे तो खा लो और नींद आए तो सो जाओ यही साधना नही हो पाती। हम अपनी नैंसर्गिक भूख और नैसर्गिक नींद जिस तरह आज के उदारीकरण के दौर में खो चुके है उसी तरह आज से 2500 वर्ष पूर्व भी वैदिक सत्ता की प्रताडना जनित वेदना के चलते हम अपनी दुर्गति कर चुके थे।

जो कार्य आज नरेन्द्र मोदी के ब्राह्मण राज में मुश्किल है वही सम्यक निद्रा सम्यक भोजन लेने का काम वैदिक ब्राह्मण राज में भी अष्टा (ऐस्टा) काम था। इसलिए बुध्द ने अष्टागिक मार्ग (ऐस्टा कामों) का उपदेश दिया था।


[p.29]: जाटों में जैसे बुध्द सन्यासियों के सम्मान की परंपरा थी, वैसी ही परंपरा जाटों में अपने बजुर्ग के सम्मान करने की भी है। जाटों मे बजुर्ग को बूढ़ा ठेरा कहा जाता है। बुढ़ा शब्द बुध्द से बना है और ठेरा शब्द थेरा से बना है। थेर का मतलब होता है बुध्द का सन्यासी। बौध्द साहित्य में थेर गाथाओं का वर्णन है।

अत: अपने बजुर्गों को हम बौध्द थेर (बुढा ठेरा) की तरह ही सेवा और सम्मान करते आए है। जाटों में कोई भी बजुर्ग अरोडा खञियों( पाकिस्तानी रिफ्यूजी) की तरह मूंगफली बेचता हुआ नही मिलेगा। जाटों का कोई भी बजुर्ग वृध्द आश्रमों में नही मिलेगा, अगर कोई होगा भी तो अन्य जातियों के मुकाबले सौ में से एक होगा, क्योंकि अब जाटों पर भी ब्राह्मणीय सभ्यता का असर होने लगा है।

हमारे अन्दर बुढापे को जीवन का एक पडाव मानने के सहज संस्कार विद्यमान है, हम बुढ़ापे से नफरत नही करते क्योकि हमारी कौम बूढों की इज्जत बौध्द थेर(बुढ़ा ठेरा) के रूप में करती है। ब्याह शादी में भी जाटों में सबसे बडे बजुर्ग की कमीज पर(छाती पर) समधन की ओर से थापा मारा जाता है, जिसमें वह मेहंदी रचे दायें हाथ से उस बजुर्ग की छाती पर, सफेद कुर्ते पर अपनी पांच उंगलियों के निशान मारती है। जिन पांच ऊगलियों के छापे को थापा कहा जाता है। यह थापा पंच उगलियों की निशानी, इस बात का प्रतीक होता है कि यह बजुर्ग पूरे तरीके से बुध्द के पंचशील पालक का जीवित रूप है अथवा यह बजुर्ग बुध्द के पंचशीलता का निसंदेह पालन कर रहा है अत: यह बजुर्ग सर्वाधिक सम्मानीय है। इस पंचशीलता के थापे को लगवाकर बुढ़े धूले


[p.30]: नही समाते क्योकि अब ये पंचशीलता के आधिकारिक (Recognized) प्रतीक जो बन गए होते है।

जाटों में अगर, मै अपनी मां को और दादी को बूढ़ी कहू तो वह बुरा नही मानेगी मेरे बेटे निश्चय और निकुंज जब अपनी दादी को बूढ़ी कहते है तो मेरी मां बुरा नही मानती उल्टा अपने पोतों की शैतानी को देखकर खुश होती है। इसका कारण यह है कि जाटों में बौध्द संस्कार की वजह से बूढ़े ठेरों की इज्जत है जब्कि क्या आप किसी अरोडा खञी (पाकिस्तानी रिफ्यूजी) बजुर्ग महिला को बूढ़ी कहने का रिस्क उठा सकते है, ना ही उठाए तो बेहतर होगा, इनको बुध्द से भी नफरत थी और बुढ़ा शब्द से भी नफरत है। अमिताभ बच्चन की एक फिल्म का टाईटल है 'बुढ़ा होगा तेरा बाप' यह टाईटल इनकी मानसिकता को दर्शाता है कि बुढ़ापे को स्वीकार नही करना, क्योंकि बुढापे में इनको डर रहता है कि कही फलूदा, कुलफी और मूंगफली की रेहडी ना लगानी पड़े।

मैनें इन पाकिस्तानी रिफ्यूजीयों के बजुर्गों के बारे में एक बात और नोट की है कि ये कभी भी किसी के सिर पर हाथ फेर कर नही पुचकारते जब्कि हमारे बजुर्ग राम राम करने पर बिना सिर को पुचकारे जाने नही देते। गांव में हमारी बूढ़ी दादियां और ताईयां बुला बुला कर हमें पुचकारती है कि आजा बेटा तनै पुचकार दू अथवा सिर पर हाथ फेर कर आशीर्वाद दे दूँ। साथ ही यह नई बात भी नोटिस में लेने की है कि आजादी के बाद की जाटों की पीढ़ी में भी सिर पुचकारने की परंपरा काफी कम हो गई है। पाकिस्तानी रिफ्यूजीयों के बजुर्ग कंधे पर हाथ रख कर आशीर्वाद दिया करते थे, सिर नही पुचकारते थे।

जाटों के बजुर्गौं की सिर पुचकारने, पाकिस्तानी रिफ्यूजीयों के बजुर्गों के सिर न पुचकार कंधे पर हाथ रखने और अब आजादी के बाद की जाटों

p.31-40

[p.31]: में भी सिर पुचकारने की परंपरा के खत्म होते जाने के कारणों की मीमाँसा से मै इस नतीजे पर पहुँचा हूं, कि सिर पुचकारने- न पुचकारने का मुद्दा हेयर स्टाईल से जुडा है। अगर समाज में हेयर स्टाईलिस जवान ज्यादा हो जाए, तो उस समाज में सिर नही पुचकारा जाएंगा, क्योंकि सिर पुचकारने से जवानों का हेयर स्टाईल जो बिगड़ जाएगा। पाकिस्तानी रिफ्यूजी कंधे पर हाथ रख कर ये भी साबित करना चाहते है कि हम बूढ़े नही है, हम तो तुम्हारे हम उम्र है क्योंकि बूढापे से इनको डर लगता है।

जाट चूंकि बुध्द धर्मी थे, सो ये तकरीबन गंजे रहना या छोटे बाल रखना ही पसंद करते थे। आपने देखा होगा की बौध्द भिक्षु गंजे ही रहते है, जाट भी गंजे रहकर इन बौध्द भिक्षुओं का ही अनुकरण करते रहे है। कल तक भी हमारे गांवों में बजुर्ग भड़ेले बाल रखने वाले नवयुवकों को टोक दिया करते थे कि क्यों भण्डेली शक्ल बना रखी है। बड़े बाल रखने वालों को जाट भण्डेली शक्ल वाला कहा करते थे।

जाट बौध्द भुक्षुओं की तरह गंजे रहा करते थे, इसलिए इनके बजुर्ग को कभी सिर पर हाथ फेरने में कोई दिक्कत नही थी। आजकल जाट युवक भी फैशन में धुस गए है, सो इनको कोई नही पुचकारता।

अरोड़ा खत्रियों के बजुर्ग बौधर्मी नही थे, उल्टा इन्होनें बुध्द धम्म को भारत भूमि से खत्म करने में ब्राह्मणों का सक्रिय सहयोग किया था तो इस कारण से ये बौध्द भिक्षुओं वाला हेयर स्टाईल ना रखकर, शुरू से ही संजय दत्त् वाला हेयर स्टाईल रखते रहे है। अत: इनमें बुध्द धर्मी हेयर स्टाईल न होने की वजह से ही सिर पुचकारने की परंपरा नही रही।


[p.32]: पविञ बाईबल में जीसस् के हवाले से लिखा गया है कि ये जो लोग आज झूठे भविष्यवक्ताओं की पूजा कर रहे है इसमें इनकी गलती नही है, क्योंकि इनके पूर्वज भी झूठे भविष्यवक्ताओं और झूठे मसीहाओं की पूजा किया करते थे। अरोडा खञीयों ने सदा से ही झूठे भविष्यवक्ताओं (ब्राह्मणों) की मजारों पर फूल चढाए है और बुध्दों का विरोध किया है। इसमें इनकी गलती नही है, किसी को खानदानी बिमारी हो, तो क्या किया जाए।

बुढ़ों से हम बच्चों पर आते है। जाटों मै जब किसी के घर लड़का पैदा होता है तब उसके घर वालें इसकी खबर पड़ोसियों को देने के लिए थाली को डंडी से या चम्मच से बजाते है। मैनें बौध्दगया (बिहार) में सम्राट अशोक द्वारा बनवाए गए महाबौध्दी बुध्द मन्दिर के बाहर पडों पर लटकती थालियों को देखा है, जिन्हे छोटे दुकानदारों ने बेचने के लिए लटका रखा था (मैनें पूछा कि तुमने ये कांसे या पीतल की थालियों को क्यों लटका रखा है तब उन्होने बताया कि बुध्द धम्म में थाली की आवाज को पविञ (Holy chanting) माना जाता है।

अत: जाटों के घर में थाली बजाकर सभी को यह सुसमाचार प्रसारित किया जाता है कि ब्राह्मणवाद का नाश करने के लिए जाटों के यंहा एक और यौध्देय ने जन्म ले लिया है।

जाटों के घर में बजी थाली की आवाज सुनकर ब्राह्मणों के घर में मातमी मौन छा जाता है और ब्राह्मण आपस में बाते करते है कि 'शाके हो गए' अर्थात कलह हो गई, अर्थात बिधन हो गया।


[p.33]:ब्राह्मण “शाके” का अर्थ अशुभ से इसलिए करता है कि सिध्दार्थ गौतम महात्मा बुध्द का गोञ “शाक्य” था और उन्हे शाक्यमुनि नाम से भी जाना जाता है।

जाटों के घर’शाक्य मानस पुञ’ पैदा होने पर ब्राह्मण कहता है शाके हो गए। जाटों ने भी ब्राह्मणों के इस मुहावरे का तोड़ निकाला था, जाट भी ब्राह्मण के घर औलाद होने पर यह कहने लगे कि ‘राशे हो गए’ अर्थात राशिफल के नाम पर ठगने वाले पैदा हो गए। राशे होने का मतलब भी नुकसान होना ही है। बाद में ब्राह्मणों ने इन वाक्यों के उद्गम (roots) को भुलवा दिया और जाट फिर से 'सद्भावना ' शब्द की मीठी गोली चूस गया।

जाटों में 'थाली बजाने' के बाद जब चह 'शाक्य पुञ’ बडा होने लगता है, तब इसके मां बाप या दादा दादी इसके लाड लडाते हुए अक्सर इसे 'भोला भन्तर’ कहते है। बनिए अपने बच्चें को लाड लडाते हुए 'सेठ जी' कहते है, तो जाट 'भोला भन्तर' कहते है।

जानते है 'भोला भन्तर’ महात्मा बुध्द के 'भन्ते' से बना है। शाक्य मुनि अपने शिष्यों को 'भन्ते’ कहा करते थे। भन्ते का मतलब होता है जिसने भय का अन्त कर दिया हो। बच्चे में चूंकि भय नही होता, क्योंकि उसने दुनियादारी को देखा नही होता और बच्चा भोला भी होता है, तो जाट अपने शिशु को भोला भन्तर कहते है, यह अपेक्षा तो रहती ही है, कि यह बच्चा बड़ा होकर बुध्द के पाले में खड़ा होगा।

जब यह 'भोला भन्तर’चलना सिखता है तो पहले गुढ्ढलिया चलता है फिर अपने पांवों पर खडे होकर चलने की कोशिश करता है तो गिर भी जाता है, फिर उठता है फिर गिरता है और इस तरह दौडने लगता है, तो जब यह भोला भन्तर (भोला भन्ते) गिरता है तो इसके अभिभावक इसके


[p.34]:गिरने को सहजता से लेकर अनायास ही कह उठते है “धम्म दे न पड़ग्या”।

असल में जाटों ने भारत में ब्राह्मणों द्वारा किए गए धम्म के नुकसान को नुकसान तो माना था, लेकिन फिर भी एक जीवित आशा जाटों में सदा ही रही थी कि बेशक आज ब्राह्मण ने धम्म को नुकसान पहुचा दिया है, लेकिन वक्त आएगा कि एक दिन फिर से धम्म खड़ा होगा, इसलिए जाटों ने धम्म के गिरने की तुलना, बच्चे के गिरने से की। बच्चा जैसे गिरकर खडा होता है, जाटों को आशा रही कि धम्म फिर से खड़ा होगा। बच्चा गिरेगा तो आगे की तरफ गिरेगा, और कुश्ती के खेल में हार तभी मानी जाती है जब प्रतिद्वन्दी की पीठ को जमीन पर लगा दिया जाता है। इसी कुश्ती के खेल के जारी रहने की स्मृति में और पिक्चर अभी बाकी है मेरे दोस्त के आशामयी संघर्ष के चलते, जाट बच्चे के गिरने पर कहते है “धम्म दे न पड़ग्या” बच्चा भी खडा होगा, धम्म भी खडा होगा।

जाटों ने इस धम्म की लडाई में “बातों के ही तूत (स्तूप)” नही बान्धे है बल्कि जाट हकीकत के स्तूप बांधने में विश्वास करने वाली कौम है।

इस संघर्ष में जाटों के गोत्र भी बौध्दमय हो गए- गांवों के 'पाने' भी बौध्दमय हो गए। बौध्द धम्म के हीनयान, महायान, वज्रयान संप्रदायों की तरह जाटों के गोत्रों में भी “यान” ( बौध्द धम्म का पहिया, अशोक चक्र) आ गया। जाटों के गोञ है- कादयान, राजयान, ओहल्यान, जागलयान, जाटयान, बालयान, पूनिया (पूनियान) दूहन (दूहयान) दहिया (दहियान), मान (महायान) आदि।


[p.35]:जाटों के गांवों के पाने (गांव में बंटे हुए एरिया) कुछ इस तरह के होते है- गांव-डीघल, जिला झज्जर, हरयाणा में पाने है:- मालयान, डालयान, मुंडयान, ऊंटवाल।

गांव चिडी, जिला रोहतक में पाने है:- बूढयान, खांडयान, बांडयान, सावयान।

गांव किलोई, जिला रोहतक में पाने है:- मेदयान, बाहरान, राबयान चौधरान, पांजयान।

गांव बोहर जिला रोहतक में पाने है:- मेलवान, भोपान, भरान।

गांव सालहावास, जिला झज्जर में पाने है:- कालयान, कर्मस्यान, चौधरयान।

गांव मदीना, जिला रोहतक में पाने है- कोरस्यान, गंधरान।

गांव जसिया, जिला रोहतक में पाने है- राजयान, बुढयान।

गांव देशखेडा, जिला जिन्द में पाने है:- डुमान, डीगढयान।

गांव लाडपुर, दिल्ली में पाने है:- भरयान, नयान।

जाटों के घर बनाने का तरीका भी बौध्दमयी रहा है। जाटों के घर के द्वार पर बने मेहराब का डिजाईन, पिपल के पत्ते के सदृश होता था। पीपल का वृक्ष बौध्द धर्म में पविञ वृक्ष माना जाता है। इसी तरह जाटों के पुराने घरों के ऊपर लोहे के बने हुए 'मोर' को भी लगाया जाता था, जो हवा में घुमते थे। तिब्बती बुध्दज्म में मोर को अमरता का प्रतिक माना जाता है और मौर्य (मोर) बौध्द राजाओं के झण्डे पर भी 'मोर' छपा हुआ करता था।


[p.36]: जाटों की भाषा में जो ब्राह्मणों के खिलाफ मुहावरे है वे भी बौध्दधम्म की वजह से है। जैसे-लुगाई बिना ढूण्ढ़ (घर) नही, ब्राह्मण बिना भूण्ड नही; काल बागड़ से उपजै, नाश ब्राह्मण से होय; जाट बढिया खाना खाने पर कहता है 'बामण से पीट दिए'। जाट मुसीबत से पीछा छूटने पर कहता है ' पाण्डया छूट्या' अर्थात बामण छूट्या। जाटों में ब्राह्मण का मतलब ही मुसीबत है। जाटों में अगर सुबह कोई ब्राह्मण दिख जाए तो कहते है आज का दिन तो भूण्डा जागा, और सुबह सुबह चूहडे के दर्शन को शुभ माना जाता है।

डा० (सरदारनी) के०के० सिध्दू ने बुध्द धम्म के जापानी दस्तावेजो के आधार पर बुध्द धम्म के Lotus sutra को व्याख्याखयित किया है। डा० सिध्दू के मुताबिक lotus sutra के अनुसार; ब्राह्मण के गले में मोटा पत्थर बांधकर नजदीक से नजदीक तालाब में फेक देना चाहिए 'यही अस्ली बुध्दिज्म है। भारत में प्रतिक्रान्ति के दौर में ब्राह्मणों ने बुध्द धम्म के गस्तावेजों को नष्ट अथवा प्रक्षिप्त कर दिया, लेकिन जापानी दस्तावेज आज भी बौध्द धम्म की सही व्याख्या करते है। इसी lotus sutra पर अमल करके जाटों ने अपने कई गांवों में ब्राह्मणों को जिन्दा जला दिया था।

अस्थल बोहर (बौध्द विहार स्थल) गांव, रोहतक; सिवाद, पानीपत; नगूरां, जिन्द; खरक बराह, जीन्द मे ब्राह्मणों को मारा गया था और जिन्दा जलाया गया था। सांगवान गौञ के संस्थापक दादा सग्रामसिंह ने भी ब्राह्मणो को जिन्दा जलाया था। उपरोक्त चर्चा से शीशे की भान्ति स्पष्ट होता है कि जाटों ने ब्राह्मणवाद के खिलाफ संघर्ष में पूरे ऐशिया में बुध्द धम्म की लहर पैदा की थी, जिस लहर की संभावना से घबराया हुआ ब्राह्मण आज भी


[p.37]: झल्लाहट(frustration) में कहता है कि ब्राह्मणों ने इक्कीस बार धरती को छञियों (जाटों) से विहीन कर दिया था। इक्कीस बार धरती को जाटों से विहीन करने की बात कहकर ब्राह्मण आत्म संतोष महसूस करता है, जब्कि कोई इनसे पूछे कि फिर ये थारे फूफा जाट कहा से पैदा हो गए।

5

बुध्द धम्म की क्रान्ति से विदेशी वैदिक आर्य यहूदी ब्राह्मण की खाट खडी हो गई थी। पूरी दूनिया का यहूदी ब्राह्मण भारत में बुध्द धम्म का भट्ठा बिठाने के लिए योजनाएं बनाने लगा और भारत में बसे ब्राह्मणों को फंडिग भेजने लगा। सुनियोजित योजना के तहत ब्राह्मण बौध्द संघों में घुस गए।

अपने दुश्मन को जाटों ने बार बार अपने संघों (organizations) में शामिल करने की गलतियां की है। राखीगढ़ी में ब्राह्मण आर्य बनकर अर्यों के बीच घुसा था, अब ब्राह्मण भिक्षु बनकर बौध्द संघो में घुसने लगा। जाटों को भी लगा होगा अच्छा ही है भिक्षुओ की सख्या बढ़ रही है, ब्राह्मण अगर सुधर रहा है तो किसको क्या एतराज है। लेकिन जाट भूल गए 'विष विषमेव सर्वकालम्' विष सदा ही विष रहता है।

मुझे परिनिर्वाण प्राप्त जाट चिंतक ओमप्रकाश पत्रकार कहा करते थे कि जाट को तलवार, तीरों से नही मारा जा सकता, जाट को पड़यंञ रचकर भी नही मारा जा सकता, क्योंकि जाट भी षडयंत्रकारी है। जाट जब भी मरेगा, दोस्ती की ही बिसात पर मरेगा। उन्होने मुझे बताया था कि हर


[p.38]: मोहरा पिटता है दोस्ती की बिसात पर ,इसलिए दोस्ती सोचसमझ कर करनी चाहिेए। मैने यहा सुनारियां जेल में भी अन्य कैदियों से जो मर्डर आदि केसों में बन्द है से पूछा कि जेल में कैसे आए तो ज्यादातर ने यही जवाब दिया कि भाईसाहब हमने अपने लिेए कभी मर्डर नही किया, दोस्ती में मर्डर किया। मैनें पूछा अब दोस्त कहा है तो जवाब मिलता कि कभी मिलाई पर भी नही आए।

जाट तो ऐसी दोस्ती करता है और ऐसे फद्दू दोस्त बनाता है तथा इसी से नुकसान उठाता है। जाटों के इस भोलेपन का फायदा भी ब्राह्मण, बनिए, अरोडा, खञी बहुत उठाते है। ये उदारचित्त जाट के साथ दारू पीनें बैठ जाते है और जाट को खूब चढाते है। जाट भी इन शहरियों के मुखारवृंद से अपनी प्रशंसा सुनकर बांस के पेड पर चढ़ जाता है और इन शहरियों से अपनी पगडी बदलने की बात कहने लगता है, जब्कि ये शहरी जाट से तो पगडी बदलवा लेते है मगर अपनी गांधी टोपी कभी दिखाते भी नही।

अस्तु जाटों की इसी कमजोरी का फायदा उठाकर ब्राह्मण बौध्द संघों में घुस गए। ब्राह्मण बौध्द संघों में घुसे तो अगले चरण में ब्राह्मण जाटों के सत्ता प्रतिष्ठानों में भी घुस गए। सत्ता प्रतिस्थानो में घुसे तो सत्ता के अन्दरूनी गलियारों में भी घुस गए। अन्दरूनि गलियारों में घुसे तो जाट राजाओं की किचन कैबिनेट (kitchen cabinet) का हिस्सा बन गए। ऐसे ही क्रमश: पैठ बनाकर एक ब्राह्मण पुश्यमिञ शुग; सम्राट अशोक मोर (मौर्य) के दसवें पोते और उत्तराधिकारी सम्राट ब्रहदरथ का सेनापति


[p.39]: बन गया था। इस ब्राह्मण सेनापति पुष्यमिञ शुंग ने मौका पाकर सम्राट बृहदरथ की हत्या कर दी और खुद राजा बन बैठा। सत्ता स्थापित करके पुष्यमिञ शुंग ने बौध्द जाटों के खिलाफ जबरदस्त दमनचक्र चलाया। हर गंजे सिर पर सोने की अशर्फियों के ईनाम रख दिए गए।

बौध्द धम्म, बौध्द संघों में ब्राह्मणों के घुसने के कारण 'बोदा' तो पहले ही हो चुका था मगर अब इन ब्राह्मणों ने बौध्द स्तूपों को, बौध्द मठों को तोडना शुरू कर दिया। जब भी कोई मठ टूटता, “मठ मर गया”। जाट मठों को एक जिन्दा ईकाई मानते थे, क्योंकि मठों से जीवन का स्फुरण होता था। आज भी जाट नुकसान होने पर 'मठ मर गया' कहते है। पुष्यमिञ शुंग के दमनचक्र से गंजे सिर वाले बौध्द भिक्षु जंगलों में चले गए और निर्वासित जीवन जीनें पर मजबूर हुए। सैकड़ों बौध्द भिक्षु तिब्बत, चीन, इंडोनेशिया, जापान, सिलोन, जैसे अन्य बौध्द देशों में शरणागत हुए। पुष्यमिञ शुंग के काल में ब्राह्मणों ने बुध्दों के लिए अपमानजनक शब्दों को प्रचारित किया।

बुध्द को बुध्दू, भंते को भौन्दू, बार्हियान बौध्द संप्रदाय को वाहियात कहा जाने लगा। ञिशरण और पंचशील की चर्चा करने को तीन पांच करना या तिया पांचा करना, तीन पांच में रहना अर्थात कुटिलता की बातें करना, कहा जाने लगा। ब्राह्मणों ने बौधि वृक्ष पीपल के बारे में अफवाह फैलाई कि पीपल में भूत रहते है, इसके बावजूद भी बौध्दों की पीपल से आस्था नही डिगी तो ब्राह्मणों ने पीपल के पेड़ की जड़ो में श्रध्दा के नाम पर दूध और लस्सी (मट्ठा) डालनी शुरू की जिससे पीपल की जड़ों में किडीयां लग जाए और पीपल का नुकसान हो।


[p.40]: ब्राह्मणों ने बुध्दों के 'हाथी' को 'गणेश' बना दिया, ठीक वैसे ही जैसे’अर्य’ को’आर्य’ बना दिया गया था। जाट बौध्द राजाओं के महलो को ब्राह्मण ने भूतों के महल बताना शुरू किया, जिससे हम अपने इतिहास में झांके भी नही। इस रणनीति से इन्होने हमारे महलों को हमारी स्मृति से दूर किया और बाद में इन्हे अपने पूर्वजों का बता कर कब्जा कर लिया।

ब्राह्मणों ने बौध्द मठों पर कब्जा करके, इन्हे मन्दिर बना दिया और इनसे कमाई करने लगे। तिरूपति बालाजी का मन्दिर पहले बुध्द मठ था, इसमें आज भी जिस मूर्ति को तिरूपति भगवान की मूर्ति बताकर पूजवाया जाता है, वह मूर्ति वास्तव में बुध्द की मुर्ति है जिसको ब्राह्मण श्रंगार करके छिपाने कि कोशिश करता है। काशी, अयोध्या, हरिद्वार की नगरी बौध्दों की नगरी थी । चारों धाम बौध्दों के मठ थे, बावन शक्तिपीठ बौध्दों के मठ थे।

आज भी जो बहुजन समाज के लोग बार बार मना करने पर भी इन मन्दिरों में जाते है, उसका कारण केवल मानसिक गुलामी न होकर जैविक (Biological) भी है। इनके डी० एन० ए० मैमोरी में आज भी कही न कही यह बात संरक्षित है कि इन मन्दिरों का निर्माण इनके महान पूर्वजों ने करवाया था जिन पर कालांतर में दुष्ट ब्राह्मण ने कब्जा कर लिया।

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[p.41]:जाट सम्राट बृहदरथ की हत्या के बावजूद जैसे तैसे जीवन गुजारते रहे और अच्छे दिनों की आशा में संघर्षरत रहें। जो बौध्द भिक्षु आपातकाल में जंगलों में चले गए थे, वे भी बीच बीच में सही समय बिचास कर गांवों और बस्तियों में वापसी करने लगे।

जंगलों में ये गंजे सिर गए थे, लेकिन अब ये बढ़ी हुई जटाओं के साथ बाहर निकले। नमो बुध्दाय का नारा देने की परिस्थितीयां अभी अनुकुल नही हुई थी, सो इन्होने सिंधु घाटी के राजा शंबर के नाम पर नमों शिवाय कहकर अलख जगानी शुरू की।

ये शिव भक्त सिध्द एंव नाथ कहलाते थे और इनका संप्रदाय नाथ संप्रदाय था। सिध्द बाबा गौरखनाथ इनके लिडर थे। 'सिध्द' शब्द सिध्दार्थ गौतम बुध्द के सिध्दार्थ से बना था और नाथ शब्द का मतलब ही तथागत है जोकि बुध्द का ही एक नाम है। गौरख (गौरक्षक) नाम गौ हत्या विरोध के नारे की हुंकार भरता था, क्योंकि ब्राह्मण ने फिर से वैदिक युग की तरह गौ मांस भक्षण शुरू कर दिया था। ये नाथ हाथ में ञिशुल और मोटा सोटा रखते थे, जिससे मौका पड़ने पर परेशान करने वाले मनुवादियों का सिर फोडा जा सकें।

ब्राह्मण इन नाथों की बढ़ती ताकत से घबरा गया था और इन्होने सिध्द बाबा गोरखनाथ के आन्दोलन को बदनाम करने के वास्ते 'गोरखधंधा' शब्द भी समाज में प्रचलित किया था, जिससे बहुजनों में गोरख क्रांति, जो बुध्द की ही क्रान्ति का संस्करण थी के खिलाफ नफरत पैदा हो सकें।


[p.42]: तत्कालीन समाज शैव बनाम ब्राह्मण में ध्रुवीकृत होने लगा था। जाटों ने गांव गांव में शिवाले बनवाने शुरू कर दिए थे, जिनमें किसी भी पुरोहित (ब्राह्मण) को नही बिठाया जाता था। शिवाले ब्राह्मण रहित पूजास्थल थे। समाज के इस सही दिशा में जा रहे ध्रुवीकरण को गति देने के लिए भारत के आखिरी जाट बौध्द सम्राट महाराजा हर्षवर्धन ने जिनकी राजधानी थानेश्वर हरयाणा थी, शैव धर्म में दिक्षा ले ली थी। इन्होने 7वी सदी में शैवशधर्म की दिक्षा ली थी तथा खाप पंचायतों का पुर्नगठन किया था, जोकि बौध्द और शैव परंपराओं का मिश्रण थी। महाराजा हर्षवर्धन के शैव बनने पर ब्राह्मण कैंप में खलबली मच गई थी। उत्तर भारत के ब्राह्मणों ने इस उभरती ज्वाला को शांत करने के लिए दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों से मदद मांगी।

इस योजना में उत्तर भारत के ब्राह्मणों ने महाराजा हर्षवर्धन की हत्या करवा गी और शैवधर्म के क्रान्तिमयी रुप को खत्म करके और इसे हाईजैक करने के लिए दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों से एक नवयुवक आदि शंकराचार्य को शिव का अवतार बताकर पूरे भारत में मिशन पर भेज दिया। इस ब्राह्मण ह्दय सम्राट शंकराचार्य ने खुद को शिव का अवतार बता कर शैव धर्म में दरार टाल दी। महाराजा हर्षवर्धन की हत्या के बाद समाज में फिर से निराशा घर करने लगी। हालांकि दो जाट बौध्दों ने, जिनको महर्षि दयानंद सरस्वती ने 'सत्यार्थ प्रकाश ' में जैन लिखा है आदिशंकराचार्य की हत्या करके सम्राट हर्षवर्धन की हत्या का बदला भी ले लिया था; ठीक उसी तरह जिस तरह आप्रेशन बलू स्टार करके स्वर्ण मंदिर में नापाक कदम रखने वाली इन्दिरा ब्राह्मणी से सरदार सतवन्त सिंह और बेअंत सिंह ने बदला लिया था। आदिशंकराचार्य की हत्या करने


[p.43]: वालों को दयानन्द ने जैन इसलिए लिखा है क्योंकि दयानन्द जैन धर्म और बौध्द धर्म को एक ही धर्म मानते थे और इन्होने सत्यार्थ प्रकाश में यह लिखा भी है कि जैन और बुध्द एक ही धर्म है। शंकराचार्य का मिशन आठवी सदी का है, जिसे ब्राह्मण ईसा पूर्व 508 या 476 वर्ष का बताकर बुध्द से पहले का सिध्द करने का झूठा प्रयास करते है। शंकराचार्य का जन्म केरल प्रान्त में पूर्णानदी के तट पर कालाड़ी ग्राम में नम्बूदरी ब्राह्मण श्री शिवगुरू व सुभद्रा के घर हुआ था। श्री शिवगुरू तैत्तरीय शाखा के यजुर्वेदी थे। यह आदिशंकराचार्य ही था, जो उत्तर भारत के मंदिरों में दक्षिण भारत के नारियल को लाया था , जिसे देखकर उत्तर भारत के ब्राह्मण की हौसंला अफजाई होती रहे कि दक्षिण भारत का ब्राह्मण भी उसके साथ है। भारत के आखिर बौध्द सम्राट हर्षषवर्धन जाट की हत्या के बाद शंकराचार्य की मुहिम से ब्राह्मणों ने शैवधर्म के प्रमुख शिवालों पर कब्जा कर लिया और इन पुरोहित रहित शिवालों मे पुरोहित बनकर बैढ गए। इन्होने शिव के नाम पर झूठे ब्राह्मण समर्थित ग्रन्थ तैयार किए।

जे०पी० नम्बूदरी ने अपनी पुस्तक 'हिमालय तीर्थ' में जिसका प्रकाशक रनजु चक्रवर्ती, कल्कत्ता है; में शिव रहस्य; ब्राह्मणीय पुस्तक के हवाले से लिखा है:-

कलौगतेत्तिसाहस्ञे वर्षाणां शकरो यति:।
बौद्ध मीमांसक मतं जेनुमाबिर्बभूवह ।।

अर्थात:- कलियुग के तीन हजार वर्ष व्यतीत होने पर बौध्द मीमांसको के मत पर विजय प्राप्ति के लिए शंकर यति के रूप में अविर्भूत होगें।


[p.44]: शंकराचार्य जी के दर्शनों के उपरान्त भगवान बदरीश्वर के मंदिर के समक्ष शंकराचार्य जीकी दिव्य संगमरमर की मूर्ति है। अस्तु, ब्राह्मणों ने शैवधर्म के सभी प्रमुख शिवालों को लूट के अड्डों में तबदील कर दिया। इन्ही में से एक लूट का बड़ा अड्डा गुजरात का सोमनाथ का मंदिर था, जिसमें शिव के नाम पर ब्राह्मण पूरी लूट मचा रहा था।

जब भारत की लचर हो चुकी राजव्यवस्था और इन ब्राह्मणों द्वारा कब्जाए जा चुके शिवालों में रखे हुए विशाल खजाने की खबरें अरब के लुटेरों के पास पहुंची तो वे भी भारत के इन मन्दिरों पर हमला करने के लिए आने लगे।

महमूद गजनवी द्वारा सोमनाथ के मंदिर में की गई लूट, एक ऐसी ही बड़ी लूट थी। ब्राह्मणों ने जाटों को लूटा था, गजनी ने ब्राह्मणों को लूटा था। हालांकि यह भी सच है कि जब गजनी सोमनाथ को लूट कर वापिस जा रहा था, तब पंजाब के खोखर जाटों ने गजनबी को कड़ी टक्कर दी थी और उसका काफी खजाना भी लूट लिया था। जाटों ने गजनवी को कहा था कि जंहा तक सोमनाथ को लूटने की बात है तो इसमें तुमने ठीक किया क्योंकि ब्राह्मण लूटेरे हमें लूट रहे थे, लेकिन जंहा तक बात खजाने की है, वह हम तुम्हे लेकर नही जाने देगे क्योंकि यह खजाना हमारा है। सोमनाथ को तोडना भी देश हित में था अब इस खजाने को देश से बाहर नही लेकर जाना भी देशहीत में है। सोमनाथ की लूट ने ब्राह्मणों को धाव दिया था, लेकिन जाटों द्वारा गजनी से की गई लूट ने, ब्राह्मणों के धाव पर नमक छीडक दिया था।


[p.45]:ब्राह्मणों ने आपस में रोना पीटना शुरू किया कि इससे तो अच्छा था कि सारे खजाने को महमूद गजनवी ही लूट कर चला जाता; जाट तो गजनी से भी बड़े राक्षस है।

जाटों की इस लूट पर ब्राह्मणों ने जाटों को लुटेरा कहना शुरू किया, जिस पर विपिनचन्द्र, ब्राह्मण इतिहासकार ने NCERT की सरकारी पाठ्यपुस्तकों में, आठवी कक्षा की इतिहास की पुस्तक में जाटों को लुटेरा लिखकर मुहर भी लगा दी।


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