Kisano ke Sangharsh ki Jeet

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किसानों के संघर्ष की जीत

-- आखिरकार मोदी सरकार को किसानों की संगठित शक्ति के सामने झुकना पड़ा है। 19 नवम्बर 2021 को सुबह 9 बजे देश के नाम संबोधन में  प्रधानमंत्री मोदी ने तीनों कृषि कानून वापस लेने का ऐलान किया।

कृषि सुधार के नाम पर किसानों की कमर तोड़ने और कॉरपोरेट घरानों को कृषि सेक्टर में घुसकर लूट मचाने की खुली छूट देने की नीयत से बनाए गए तीन काले कृषि कानूनों को वापिस लेने (repeal) का ऐलान करने के लिए प्रधानमंत्री मोदी को मजबूर होना पड़ा है। यह किसान वर्ग की संगठित शक्ति की जीत है। वस्तुतः ये कानून किसानमार तो थे ही, साथ में जनता मार भी थे। सिर्फ कॉरपोरेट घरानों को उपकृत करने की नीयत से बनाए गए थे।

आंदोलन को दबाने-कुचलने के लिए क्या क्या नहीं किया गया? कड़कड़ाती ठंड में किसानों पर वाटर कैनन चलाई, गोलियां चलाई, लाठी चार्ज किया, किसानों के रास्तों में खाइयां खुदवाईं, कीलें गडवाईं, कंटीले तार लगाये, पत्थरों की ऊंची-चौड़ी दीवारें खड़ी करवाईं, पीने के लिए पानी तक बंद किया, मुट्ठीभर लोग, नकली किसान, देशद्रोही, खालिस्तानी, आतंकवादी, मावोवादी, नक्सली, आंदोलनजीवी, परजीवी जैसे तरह-तरह के विशेषणों की बौछार करके किसानों को बदनाम किया गया। इस दौरान कई मौसम आए और चले गए। चिलचिलाती गर्मी, हाड़-मांस को कंपा देने वाली सर्दी, आंधी तूफान के थपेड़े, घनघोर बारिश का प्रहार-- यह सब किसानों ने खुले में सहा। मोर्चे पर डटे रहे। खेतों में फसलें बोई और काटी गई। बहुत कुछ बदला। पर कुछ बदला नहीं तो किसान का इरादा। वो तंग हुए, कष्ट सहे, पुलिस की लाठियां खायीं, सहादतें दीं, धरने पर होने वाले प्रतिदिन के खर्च को सहन किया, खेत भी सम्भाले और आंदोलन भी, बहुत अपशब्द सुने, पर डटे रहे। अपनी हिम्मत से लड़ाई के मोर्चे पर डटे रहे। अपनी जुबान पर क़ायम रहे। एक तानाशाही सरकार को झुका दिया और कृषि कानून वापसी का ऐलान करने पर मजबूर कर दिया । इस एक साल में किसानों ने बॉर्डर पर वक्त किन मुश्किल हालात में गुजारा है बस किसान ही जानते हैं। सरकार के अहंकार और हठ से 700 से अधिक किसानों की शहादत हुई है।

इस आंदोलन की शुरूआत साल 2020 में हाड़-मांस को गला देनी वाली ठंड से हुई, उसके बाद शीतलहर, लू और घमासान आँधी-पानी जैसी सैकडों परेशानी को झेलते हुए आज फिर ठंड के साथ लाखों किसान इस आंदोलन को जारी रखते हुए दिल्ली की सीमाओं पर अपने दमखम पर बनाए गए मोर्चों पर जमे हुए हैं। यह जीत उन सभी किसान परिवारों की अकथ पीड़ाओं की क़ीमत पर मिली है। हमें इन क़ुर्बानियों को भूलना नहीं चहिए। उन शहीद किसानों की कुर्बानी व्यर्थ नहीं गयी। यह लड़ाई अब कृषि कानूनों से कहीं आगे निकल चुकी है और अब आगे भी जारी रहेगी। किसानों ने अपना वर्ग शत्रु पहचान लिया है।

केंद्र सरकार ने 5 जून 2020 को कृषि सुधार के नाम पर तीन अध्यादेश अधिसूचित किए थे। सरकार ने इनसे सम्बन्धित बिल 17 सितम्बर को लोकसभा में तथा 20 सितम्बर को राज्यसभा में दो बिलों को भारी हंगामे के बीच ध्वनिमत से पारित करवा लिया। आवश्यक वस्तु (संशोधन) विधेयक 2020 को लोकसभा ने 15 सितंबर को और राज्यसभा ने 22 सितंबर को मंजूरी दे दी। राष्ट्रपति की मंजूरी के साथ ही ये नए कानून बन गए। यह सब कोविड-19 महामारी की आपदा में अवसर झपटने की नीयत से हड़बड़ी में किया गया। हक़ीक़त तो यह है कि खोटी नीयत के अधिकांश कृत्य आपदा को अवसर मानकर ही कारित किए जाते रहे हैं। कोरोना काल में केंद्र सरकार द्वारा बिना किसी सोच विचार के देश भर में थोपे गए लॉकडाउनज में जनता घरों में कैद थी, उस समय मनमाना फैसला थोपना सरकार की निरंकुशता थी, गैर-जिम्मेदाराना हरक़त  थी।

सरकार और सरकारी संरक्षण में पल रहे कुछ समूहों/ संगठनों तथा गोदी मीडिया ने किसान आंदोलन को बदनाम करने में कोई कसर नहीं छोड़ी, आंदोलनकारियों को भड़काने की ख़ूब चालें चलीं लेकिन संयुक्त किसान मोर्चे की समझदारी और आंदोलनकारी किसानों के संयम की बदौलत गत 14 महीने से चल रहा यह किसान आंदोलन शांतिपूर्ण रहा है। जीत की ओर अग्रसर हुआ है। गांधी के अंहिसा के अस्त्र की ताकत इससे प्रमाणित हुई है।

भारत का किसान आंदोलन - 2020 एक अभूतपूर्व शांतिपूर्ण आंदोलन के रूप में इतिहास में दर्ज हो गया है।आजाद भारत का सबसे लंबा शांतिपूर्ण एवं अहिंसक आंदोलन जिसके आगे अहंकारी सत्ता को आखिरकार झुकना पड़ा है। किसानों ने सत्ता के अन्याय का प्रतिकार गांधी के अहिंसा के अस्त्र से किया। अहिंसक और शांतिपूर्ण आंदोलन की ताकत को दुनिया देखा है। इसकी ताकत आज प्रमाणित भी हुई है। किसानों ने पूरे दमखम से लड़ाई लड़ी और अहंकारी सत्ता को झुकाया। यह बात सबको समझ में आ जानी चाहिए कि किसान मुश्किल हालातों में जिस तरह खेत में डटा रहता है, उसी तरह वह लड़ाई के मैदान में भी डटा रहता है। झुकता नहीं, अन्यायी को झुकाता है।


दुनिया में शायद ही इतना लंबा और शांतिपूर्ण संघर्ष कभी चला हो। आजादी के आंदोलन के दौरान खुद गांधी जी की अगुवाई में विभिन्न कालावधियों में चलाये गए कई तरह के सिविल नाफरमानी आंदोलनों की अवधि भी निरंतरता में इतनी लंबी नहीं रही। वे कई चरणों में संचालित हुए।

सत्ता के मद में मदहोश मोदी सरकार ने किसान आंदोलन को कुचलने, साम-दंड- भेद से तोड़ने, फूट डालने के कई कुत्सित प्रयास किए पर पार नहीं पड़ी। राज्यसभा में संसदीय परंपरा को ताक पर रख कर, मत विभाजन की मांग को निर्लज्जतापूर्वक दरकिनार कर के, सभापति ने ध्वनिमत से इसे पारित घोषित कर दिया। ऐसा करके सरकार द्वारा संवैधानिक प्रक्रियाओं की सरेआम निर्मम हत्या की गई।

किसानों की राहों में कांटे, कीलें बिछाई गईं,गड्ढे खोदे गए,भीषण ठंड में पानी उछाला गया, सीमेंट की दीवारें खड़ी की गईं। एक साल से गोदी मीडिया व आईटी सेल की प्रोपेगैंडा मशीनरी द्वारा किसानों को खालिस्तानी, माओवादी, नक्सली, आतंकी, पाकिस्तान परस्त, चीनी फंड खाने वाले, देशद्रोही, गद्दार कहकर जलील किया गया। इन सब मामलों में प्रधानमंत्री की मौन सहमति रही। लिखिमपुरी खीरी में शांतिपूर्वक प्रदर्शन कर अपने घरों की ओर लौट रहे किसानों को केंद्र सरकार के एक राज्य मंत्री के बेटे ने अपनी गाड़ी से कुचलकर और गोलियों से छलनीकर उनकी हत्या की गई। यह जघन्य अपराध था। पर प्रधानमंत्री का दिल नहीं पसीजा। लखीमपुर खीरी के तिकुनिया नरसंहार के सूत्रधार अजय मिश्रा टेनी आज भी मोदी सरकार में है।

सरकार को आखिर क्यों झुकना पड़ा?

तीन कृषि कानूनों को प्रधानमंत्री मोदी ने वापस लेने का ऐलान दो ठोस कारणों के चलते किया: किसानों का अभूतपूर्व आंदोलनात्मक दबाव और उत्तरप्रदेश-पंजाब का बिगड़ता चुनावी समीकरण! पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में बीजेपी नेता कोई कार्यक्रम नहीं कर पा रहे थे। वहां जबरदस्त विरोध हो रहा है। हाल ही में पूर्वी उत्तर प्रदेश में प्रधानमंत्री की कई सभाएं आयोजित की गईं। शासन- प्रशासन ने सभाओं में भीड़ जुटाने के लिए मेहनतकश जनता का पैसा पानी की तरह बहाया और पूरी ताकत झोंक दी। फिर भी भीड़ जुटाने में असफल रहे। इससे बीजेपी को अपनी औकात पता चल गयी। राज्यों के उपचुनाव में बीजेपी को तगड़ा झटका लगा उसका सूपड़ा साफ हो गया। आने वाले महीनों में तीन राज्यों में चुनाव होने हैं तो इन चुनावों में पार्टी को होने वाले नुकसान को ध्यान में रखते हुए  इन कानूनों की वापसी हुई है।  किसानों से हमदर्दी में नहीं बल्कि किसान आन्दोलन के ताप से अपनी कुर्सी बचाने के लिए तथा पांच राज्यों में आसन्न चुनाव के मद्देनजर कानून वापसी की गयी है।

किसानों के संघर्ष के आगे एक अहंकारी और निर्दयी सरकार का झुकना इस बात का सबूत है कि अगर मेहनतकश जनता की दिशा सही और संकल्प अडिग हो तो जनता की संगठित शक्ति के आगे तानाशाहों को भी झुकना पड़ता है। इस अभूतपूर्व आन्दोलन ने यहां भी इतिहास लिख दिया। जो यह जोरशोर से कहते थे कि मोदी सरकार ने जो कर दिया सो कर दिया, मोदी अपना आगे बढ़ाया गया कदम पीछे नहीं खींचता है। कहते थे कि 56 इंच का सीना है। किसी भी कीमत पर ये कानून वापस नहीं लिए जाएंगे। तो आंख खोलकर देख लीजिए। मोदी जी को मेहनतकश जनता के अनवरत संघर्ष ने तीनों कानूनों को वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया है। इससे स्पष्ट हो गया है कि प्रतिरोध, आंदोलन और संघर्ष काम करते हैं, व्यर्थ नहीं होते, बशर्ते प्रतीकात्मक और रस्मअदायगी वाले न हों।

जो तीन कृषि कानून बनाये गये थे उसमें एक प्रावधान ये भी था कि निजी कंपनियां असीमित भंडारण कर सकती हैं। उन्हें कानूनन ये अधिकार दिया गया था कि वो किसानों से सीधे उपज खरीदें और उसका भंडारण करें।

काले कृषि कानूनों में आम उपभोक्ताओं के लिए काला क्या था? शहरी जनता ने किसानों को कोसने और मोदी सरकार के कसीदे पढ़ने में कोई कसर नहीं छोड़ी है। इन कानूनों में आम उपभोक्ता के लिए काला क्या था, यह भी जान लीजिए। अभी तक भारत में निजी क्षेत्र को असीमित भंडारण की छूट नहीं है। जो ऐसा करता है उसके खिलाफ कालाबाजारी कानून के तहत कार्रवाई होती है। लेकिन नये कानून के तहत कंपनियों को ये छूट दी गयी थी कि जितना चाहो, उतना खरीदो और भंडारण करो।

इसके दीर्घालिक गंभीर दुष्परिणाम हो सकते थे। अगर से कानून रहता तो विकास देश में दो चार मोन्सेन्टों और करगिल जैसी कंपनियां पैदा करता और सारा अन्न भंडारण उनके पास होता।

इसकी सजा कौन भोगता? छोटे किसान? नहीं। सामान्य ग्रामीण लोग? नहीं। इसकी सबसे बड़ी कीमत चुकाता वही अर्बन मिडिल क्लास जिसे कॉरपोरेट राज भी चाहिए और सस्ता अनाज भी। ऐसे में सबसे बड़ा नुकसान इन्हीं का होना था। किसानों ने इस मिडल क्लास की लड़ाई लड़ी है और यह मिडल क्लास किसानों को बदनाम करने और गाली देने में सबसे आगे रही है।

किसान और किसान आंदोलनों की बात

मार्च 2021 में मैंने 'राजस्थान के किसान आंदोलन' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी थी। इस पुस्तक के प्रारंभ में 'किसान और किसान आंदोलनों की बात' को भूमिका के रूप में लिखा था। उसके कुछ अंश यहां प्रस्तुत कर रहा हूं।

वास्तविक भारत गांवों में बसता है और खेती-किसानी से जुड़ा हुआ है। देश की सत्ता तथा प्रशासनिक बागडोर शहरों में पले- बढ़े और पूंजीपतियों की सरपरस्ती वाले अफ़सरों के हाथों में सिमटी हुई है जो न तो गांवों की समस्याओं से परिचित हैं, न ही उनकी जरूरतों तथा ग्रामीणों के मनोविज्ञान को समझते हैं। विडंबना है कि गमलों में उगे हुये कांटेदार 'केक्टस' छायादार व फलदार 'दरख्तों' के लिये कानून बनाते हैं ! 

किसान आंदोलनों का समृद्ध इतिहास

आजादी से पहले राजस्थान में किसान आंदोलन का गौरवपूर्ण इतिहास रहा है और यह किसानों के शौर्य एवं बलिदान से भरा पड़ा है। इसकी कथा जन- जन के स्मरण में है। किसान आंदोलनों से जो पगडंडी निकली, वही आगे चलकर स्वतंत्रता आंदोलन का राजपथ बन गई। राजस्थान में किसान आंदोलनों ने ही स्वतंत्रता संघर्ष का मार्ग प्रशस्त कर आमजन को मानवाधिकारों के प्रति जागृत किया। 

राजा- महाराजाओं के महलों, जागीरदारों के गढ़ों को देखकर सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि इनमें रहने वाले धन- वैभव, भोग- विलास, ठाठ- बाठ और शान- शौकत से ज़िंदगी गुजारते थे। मेहनतकश जनता का खून चूसकर परजीवी बनकर मजे से ज़िंदगी का लुत्फ़ उठा रहे थे। उस समय उन्होंने कभी ऐसा अनुमान भी नहीं किया होगा कि जमाना करवट लेगा और उनके सारे ठाठ-बाट सदा के लिए समाप्त हो जाएंगे और उन्हें भी प्रजा की कतार में खड़ा होना पड़ेगा।

किसानों ने सदियों पुराने सामंतवाद को खुली चुनौती दी। सत्ता तिलमिला उठी। खूब ज़ुल्म ढहाए। आंदोलनकारी किसान और आन्दोलनजीवी मैदान में डटे रहे। लड़े, भिड़े और जीते। सफलता ने उनके पांव चूमे। आंदोलन की बदौलत ही यहां के गांवों के खेत-खलिहान और घरों का नया स्वरूप उभरकर सामने आ सका।

स्वतंत्रतापूर्व के किसान आंदोलनों का प्रारंभ में उस इलाके की बहुसंख्यक किसान जाति की पंचायतों द्वारा संचालित किए गए। मसलन, बिजौलिया किसान आंदोलन के प्रारंभिक चरण में धाकड़ जाति पंचायत ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिजौलिया के धाकड़, बूंदी के गुर्जर, शेखावाटी के जाट व इसी प्रकार अन्य जातियों के संगठन बने, लेकिन जल्द ही आर्थिक आधार पर वर्ग चेतना का संचार होने पर ये जातियां अन्य सामान शोषित जातियों के साथ एक रूप हो गईं, घुलमिल गईं। एकता की माला में मोतियों की तरह बींध गईं। बिजौलिया में धाकड़ किसानों की पंचायत बाद में किसान पंचायत बन गई। बिजौलिया किसान आंदोलन को बदनाम करने के लिए तत्कालीन राजसत्ता ने इसे धाकड़ जाति का आंदोलन सिद्ध करने के प्रयास किए। अन्य जाति के किसानों को इस आंदोलन से अलग करने का प्रयास किया गया। किंतु इस समय तक यह आंदोलन जातीय सीमाओं को लांघ कर वर्गीय एकता में परिवर्तित हो चुका था। इसी तरह शेखावाटी किसान आंदोलन में शेखावाटी की जाट पंचायत 1934 ई. में किसान पंचायत के रूप में परिवर्तित हो गई। किसान आंदोलनों से जुड़े नेताओं ने भलीभांति समझ लिया था कि जात-पांत नहीं बल्कि वर्ग चेतना वक़्त की ज़रूरत है। 

भारत में वर्तमान में राष्ट्रीय स्तर पर कई महीनों से चल रहे अखिल भारतीय किसान आंदोलन पर सरकार और गोदी मीडिया ने धार्मिक, क्षेत्रीय, जातीय आंदोलन का टैग लगाकर इसे बदनाम करने की ख़ूब कोशिश की है और कर रही है। यह कोई नहीं बात नहीं है। राजशाही और सामन्तशाही के दौर में भी किसान आंदोलनों के साथ यही सब कुछ हुआ था। फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की पंक्तियां ज़हन में कौंध रही हैं-- 'यूं ही हमेशा उलझती रही है ज़ुल्म से ख़ल्क़ न उनकी रस्म नई है, न अपनी रीत नई यूं ही हमेशा खिलाए हैं हमने आग में फूल न उनकी हार नई है न अपनी जीत नई।'

साम्राज्यवाद व सामंतवाद की जगह वर्तमान में निजीकरणवाद व कॉरपोरेटवाद ने हथिया ली है। कॉरपोरेट्स अब नव सामंत की भूमिका में आकर हर जगह अपना वर्चस्व स्थापित कर रहे हैं। दरअसल यह निजीकरण नहीं बल्कि सत्ता और पूंजी के संपूर्ण केंद्रीकरण की प्रक्रिया है। 

उद्योग और व्यापार इन दो क्षेत्रों पर पूंजीपतियों एवं कॉरपोरेट घरानों का पहले से ही एकाधिकार रहा है। कृषि क्षेत्र अभी तक कॉरपोरेट सेक्टर के शिकंजे से दूर था। सरकार की मेहरबानी से प्राकृतिक संसाधनों, उद्योग और व्यापार पर तो कॉरपोरेट घरानों ने पहले ही कब्जा कर रखा है। अब खेती पर कब्जा करना चाहते हैं ताकि अपने उद्योगों के लिये कच्चा माल और दुनिया में व्यापार के लिये जरूरी उत्पादन अपनी सुविधाओं के अनुसार कर सकें। खेती की जमीन, कृषि उत्पादन, कृषि उत्पादों की खरीद, भंडारण, प्रसंस्करण, विपणन, आयात- निर्यात आदि सभी पर कॉरपोरेट्स अपना नियंत्रण करना चाहते हैं।

स्वतंत्र भारत में भी किसान कई प्रकार के शोषण का शिकार होते रहे हैं। आंदोलन के लिए अनुकूल परिस्थितियां मौजूद रही हैं, लेकिन किसान अपने गौरवपूर्ण संघर्ष के इतिहास को भूलकर राजनीति के दुष्चक्र में फंसे रहे। किसान सभाओं को संगठित तथा विकसित करने में नाकामयाबी के चलते पूरे देश के पैमाने पर किसान आंदोलन सशक्त एवं संगठित स्वरूप में उभर कर सामने नहीं आया था। इस कमी की पूर्ति वर्तमान में चल रहा किसान आंदोलन- 2020 कर रहा है। यह आंदोलन अब अन्न और जन का आंदोलन बन चुका है।

किसान आंदोलनों के इतिहास से क्या सीखें?

किसान आंदोलनों की प्रमुख सीख यही है कि किसानों को वर्ग दुश्मन को पहचानना होगा। ज़रूरत है राष्ट्रीय स्तर पर किसान वर्ग के एकता के सूत्र में बंधकर आंदोलन को गतिमान रखने की। वर्ग चेतना के फलीभूत होने से आंदोलन की धमक दूर तक गूंजती है। इस बात को भी रेखांकित करना जरूरी है कि वैचारिक रूप से समृद्ध और स्वस्थ सोच के धनी बुद्धिजीवियों का महत्व किसी भी आंदोलन में कम करके आंका नहीं जाना चाहिए। बिना वैचारिक धरातल के कोई भी आंदोलन दीर्घकाल तक टिक नहीं सकता, असामयिक मौत का शिकार हो जाता है।

एक बात और भी ध्यान में रखने की है। किसी भी जन आंदोलन की सफलता का श्रेय जनशक्ति को जाता है। दीर्घकालिक आंदोलन का नेतृत्व हमेशा संयुक्त होता है।  चंपारण में गांधी जी आए और किसानों को नेतृत्व देकर इनके आंदोलन को राष्ट्रीय आंदोलन से जोड़ दिया। बाहरी और स्थानीय नेताओं का तालमेल आंदोलन को व्यापकता प्रदान करने के लिए जरूरी होता है। मानी हुई बात है कि जब परिस्थितियां जनता के लिए असह्य हो जाती हैं जो स्वयं उनके बीच से नेतृत्व उभरता है और वह परिस्थिति के अनुकूल अपनी दिशा तय करता है। पहले के किसान आंदोलन इस बात को सिद्ध करते हैं।

स्वतंत्रतापूर्व के किसान आंदोलनों में किसानों द्वारा सामूहिक रूप से उठाए गए क़दम प्रभावी सिद्ध हुए थे, जिनका विवरण पुस्तक में यथास्थान दिया गया है। वर्तमान किसान आंदोलन के संदर्भ में भी ऐसे क़दम विचारणीय होते जा रहे हैं। किसान वर्ग को यह बात सदैव याद रखनी चाहिए कि बिना संगठित हुए सरकार उनके शोषण व दमन करने पर उतारू रहेगा। सत्ता क्रूर थी, है और रहेगी। Power was cruel there; power is cruel and will stay cruel.

किसान की त्रासदी यह है कि वह सामंती शोषण से मुक्त होकर अब पूंजीवादी शोषण के जाल में फंस गया है। किसान तीनों रूपों में-- उत्पादक, उपभोक्ता और श्रमिक-- लूटा जा रहा है। उत्पादक के रूप में उसे सरकार से वे सुविधाएं नहीं मिलती हैं जो उद्योगों को मिलती हैं। किसानों द्वारा उत्पादित वस्तुओं की कीमत भी आमजन के हित के नाम पर कम रखी जाती है। उपभोक्ता के रूप में किसान को बाजार से बढ़ती कीमतों पर वस्तुएं खरीदनी पड़ती हैं। श्रमिक के रूप में किसान को सबसे कम पारिश्रमिक मिलता है।

आजादीपूर्व के किसान आंदोलनों की ध्वनि आज भी प्रासंगिक है। बात सीधी- सी है कि अत्याचार, अन्याय, दमन और शोषण का विरोध संगठित होकर ही किया जा सकता है। 

किसी आंदोलन में सफल नेतृत्व के लिए कई प्रकार के गुणों की आवश्यकता होती है। विद्रोही तेवर और सफल संगठनकर्ता होना एक बात है। ज्यादा बोलने से कोई सफल नेता नहीं बनता। बौद्धिक कौशल, चतुराई, और संवाद कौशल के बल पर विरोधी पक्ष ( अधिकांश मामलों में सरकार) से सफलतापूर्वक बातचीत की टेबल पर बात करना दूसरी बात होती है। तार्किक रूप से विरोधी पक्ष की बोलती बंद करने में सक्षम होने से ही बात-सी बात बनती है। एक बात और भी है कि अगर कई संगठन या समूह मिलकर कोई आंदोलन चलाते हैं तो उनका प्रवक्ता एक ही होना चाहिए। मुद्दों की समुचित समझ से वह सुसम्पन्न होना चाहिए तथा उसकी कम्युनिकेशन स्किलस् परिष्कृत होनी चाहिएं। उसमें हाज़िर-जवाबी और शिष्टता होनी चाहिए।

वर्तमान किसान आंदोलन की सफलता की शुभकामनाएं.. 

✍️✍️ एच. आर. ईसराण पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान


संदर्भ