Lalbujhakkar
(यह लेख महर्षि दयानन्द के लघुग्रन्थ व्यवहारभानु से उद्धृत किया गया है)
यह बात महामूर्खता की है । जैसे किसी ग्राम में एक लालबुझक्कड़ रहता था कि जिसको पांच सौ ग्राम वाले महापण्डित और गुरु मानते थे । एक रात में किसी राजा का हाथी उसी ग्राम के समीप होकर कहीं स्थानान्तर को चला गया था, उसके पग के चिह्न जहां तहां मार्ग में बन रहे थे, उसको देख के खेती करनेहारे ग्रामीण लोगों ने परस्पर पूछा कि भाई । यह किसका खोज है ? सबने कहा कि हम नहीं जानते, हम नहीं जानते । फिर सब की सम्मति से लालबुझक्कड़ को बुला के पूछा कि तुम्हारे विना कोई भी दूसरा मनुष्य इसका समाधान नहीं कर सकता । कहो यह किसके पग का चिह्न है ? जब वह रोया और रोकर हंसा तब सबने पूछा कि तुम क्यों रोये और हँसे ? तब वह बोला कि जब मैं मर जाऊंगा तब ऐसी ऐसी बातों का उत्तर विना मेरे कौन दे सकेगा और हँसा इसलिए कि इसका उत्तर तो सहज है, सुनो -
- लालबुझक्कड़ बूझिया और न बूझा कोई ।
- पग में चक्की बांध के हिरणा कूदा होई ॥
जब वह लालबुझक्कड़ ग्राम की ओर आता ही था इतने में एक ग्रामीण की स्त्री ने जंगल से बेर लाके जो अपना लड़का छप्पर के खम्भे को पकड़ के खड़ा था, उसको कहा कि बेटा ! बेर ले । तब उसने हाथों की अंजलि बांध के बेरों को ले लिया परन्तु जब छप्पर की थूनी हाथों के बीच में रहने से उसका मुख बेर तक नहीं पहुंचा, तब लड़का रोने लगा । लड़के को रोते देखकर उसकी मां भी रोने लगी कि हाय रे मेरे लड़के को खम्भे ने पकड़ लिया रे ! तब उसका बाप सुनकर आया, वह भी रोने लगा कि हाय रे ! थूणी ने मेरे लड़के को सचमुच पकड़ लिया । तब उसको सुनके अड़ौसी पड़ौसी भी रोने लगे कि हाय रे दय्या ! इसके लड़के को खम्भे ने कैसा पकड़ लिया है, कि छोड़ता ही नहीं । तक किसी ने कहा कि लालबुझक्कड़ को बुलाओ, उसके विना कोई भी लड़के को नहीं छुड़ा सकेगा । जब एक मनुष्य उसको शीघ्र बुला लाया, फिर उसको पूछा कि यह लड़का कैसे छूट सकता है तब वह वैसे ही हँस और रो के स्वमुख से अपनी बड़ाई करके बोला कि सुनो लोगो ! दो प्रकार से यह लड़का छूट सकता है । एक तो यह है कि कुहाड़ा लाके लड़के का एक हाथ काट डालो अभी छूट जायगा, और दूसरा उपाय यह है कि प्रथम छप्पर को उठा के नीचे धरो फिर लड़के को थूनी के ऊपर से उतार ले आओ । तब लड़के का बाप बोला कि हम दरिद्र मनुष्य हैं, हमारा छप्पर टूट जायेगा तो फिर छावना कठिन है, तब लालबुझक्कड़ बोला कि लाओ कुहाड़ा, फिर क्या देख रहे हो । कुहाड़ा लाके जब हाथ काटने को तैयार हुए तब एक दूसरे ग्राम से एक बुद्धिमती स्त्री भी हल्ला सुनकर वहां पहुंच कर देख कर बोली कि इसका हाथ मत काटो । देखो ! मैं इस लड़के को छुड़ा देती हूँ । तब वह खम्भे के पास जाके लड़के की अञ्जलि के नीचे अपनी अञ्जलि करके बोली कि बेटा मेरे हाथ में बेर छोड़ दे । जब वह बेर छोड़ के अलग हो गया फिर उसको बेर दे दिये, खाने लगा । तब तो बहुत क्रुद्ध होकर लालबुझक्कड़ बोला कि यह लड़का छः महीने के बीच मर जायगा, क्योंकि जैसा मैंने कहा था वैसा करते तो न मरता । तब तो उसके मां बाप घबरा के बोले कि अब क्या करना चाहिये । तब उस स्त्री ने समझाये कि यह बात झूठ है और हाथ के काटने से तो अभी यह मर जाता तो तुम क्या करते ? मरण से बचने का कोई औषध नहीं, तब उनका घबराहट छूट गया ।
वैसे जो मनुष्य महामूर्ख हैं वे ऐसा समझते हैं कि सत्य से व्यवहार का नाश और झूठ से व्यवहार की सिद्धि होती है परन्तु जब किसी को कोई एक व्यवहार में झूठा समझ ले तो उसकी प्रतिष्ठा प्रतीति और विश्वास सब नष्ट होकर उसके सब व्यवहार नष्ट होते जाते और जो सब व्यवहारों में झूठ को छोड़कर सत्य ही करते हैं उनको लाभ ही लाभ होते हैं हानि कभी नहीं । क्योंकि सत्य व्यवहार करने का नाम 'धर्म' और विपरीत का 'अधर्म' है । क्या धर्म का सुख के लाभरूपी और अधर्म का दुःखरूपी फल नहीं होता ? प्रमाण –
- इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि ॥१॥ यजु. अ. १, मं. ५॥
- सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः ।
- येनाक्रमन्त्यऋषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम् ॥२॥
- मुण्ड. ३ । खं. १ मंत्र ६ ॥
- न सत्यात्परो धर्म्मो नानृतात्पातकं परम् ॥३॥ इत्यादि
अर्थ - मनुष्य में मनुष्यपन यही है कि सर्वथा झूठ व्यवहारों को छोड़कर सत्य व्यवहारों का ग्रहण सदा करे ॥१॥ क्योंकि सर्वदा सत्य ही का विजय और झूठ का पराजय होता है, इसलिये जिस सत्य से चल के धार्मिक ऋषि लोग जहां सत्य की निधि परमात्मा है उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें ॥२॥ यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है ॥३॥ इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही करते और झूठ से युक्त कर्म किञ्चित्मात्र भी नहीं करते ।