जाट समाज के गोत्र

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गोत् प्रणाली

गोत्र एक सनातनी वैवाहिक प्रथा है। जोकि वैज्ञानिक दृष्टि से भी सही मानी जाती है । गोत्र शब्द या प्रथा कितनी प्राचीन है। इसके बारे में सटीक रूप से नहीं कहा जा सकता है। फिर भी यह अति प्राचीन कालीन प्रथा है। संस्कृत में गोत्र के लिए गोष्ठ शब्द का प्रयोग हुआ है। सनातनी धर्म और उसके सम्प्रदाय (सिख, विश्नोई )और कुछ भारतीय मुस्लीम जातियो जैसे मेव ,गद्दी,कायमखानी में आज भी प्रचलित है हालांकि मुस्लिम धर्म में गोत्र प्रथा नहीं जिन मुस्लिम जातियो में यह गोत्र प्रथा है उसका कारन उन मुस्लिम जातियो का सनातनी हिन्दू मूल होना है। समय के साथ इन मुस्लिम जातियो में भी गोत्र प्रथा खत्म होती जा रही है। यह प्रायः शुद्ध रूप से सनातनी हिन्दू और उसके सम्प्रदायो में ही प्रचलित है।


एक ही गोत्र में विवाह भारतीय हिन्दू संस्कृति में हमेशा एक विवाद एक विवाद का विषय रहा है व नयी ओर पुरानी पीड़ी में टकराव का कारण है | सामाजिक दृष्टि से सगोत्र विवाह अनुचित है क्योकि एक ही गोत्र में जन्मे स्त्री व पुरुष को बहिन व भाई का दर्जा दिया जाता है | वैज्ञानिक दृष्टीकोण भी इसके पक्ष में है कि एक बहिन व भाई के रिश्ते में विवाह सम्बन्ध करना अनुचित है | विज्ञान का मत है आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाना यदि स्त्री व पुरुष का खून का सम्बन्ध बहुत नजदीकी है | स्त्री व पुरुष में खून का सम्बन्ध जितना दूर का होगा उतना ही कम सम्भावना होगी आनुवंशिकी दोषों एवं बीमारियों का एक पीड़ी से दूसरी पीड़ी में जाने कि | दूसरे शब्दों में होने वाले बच्चे उतने ही स्वस्थ व बबुद्धिमान होंगे | शायद भारत के ऋषि मुनि वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने बिना यंत्रो के ही यह सब जन लिया था तथा यह नियम बना दिया था खून का सम्बन्ध जितना दूर का हो उतना उतम |विजातीय विवाह भी एक तरह से गोत्र छोडकर विवाह करने जैसा है व उचित है | सगोत्र विवाह अनुचित ही नहीं परिवार का अंत करने वाला कदम होता है नयी पीड़ी को इसे समझना चाहिए |


गोत्र और वंश की विवेचना

गोत्र एक वंश को परिभाषित करता है । एक गोत्र का मतलब एक व्यक्ति या समूह का प्रतिनिधित्व करने वाले एक रक्त सम्बन्धि लोगो से है। एक वंश में एक से अधिक गोत्र हो सकते है जाटों में मुख्य रूप से तीन ही वंश माने गए है

  • 1 सूर्यवंश
  • 2 चन्द्रवंश
  • 3 नागवंश

बाद में चार और वंश का चलन हुआ

  • 1 यदुवंश -यदु एक चंद्रवंशी राजा था।
  • 2अग्निवंश -- इस वंश की उत्पत्ति आबू पर हुए यज्ञ से मानी जाती है।
  • 3 कश्यपवंशी -कश्यप ऋषि सूर्यवंशी माने जाते है इस आधार पर कशीव जाट कहलाये
  • 4 शिवि वंश -शिव भगवान के वंशज जाट शिवि कहलाये इस वंश से ही नागवंश की उत्पत्ति मानी जाती है

एक वंश में एक से अधिक गोत्र होते है । और एक वंश के गोत्र का आपस में वैवाहिक सम्बन्ध होते है। जैसे चन्द्रवंश में तोमर ,भट्टी,सिनसिनवार लेकिन एक गोत्र के दो वंश या कुल ऋषि नहीं हो सकते है।


सूर्यवंश - आर्यों में क्षत्रिय जो सूर्य की पूजा करते थे तथा संवत के चलन में काल गणना सूर्य की गति के आधार पर करते थे वे सूर्यवंशी कहलाये. ब्रह्मा के पुत्र मारीच से कश्यप ऋषि पैदा हुए. कश्यप की पत्नि आदिति (दक्ष की पुत्री) से विवस्वान (सूर्य) पैदा हुए एवं उसके पुत्र मनु से इक्षवाकु पैदा हुए जिनसे सूर्यवंश चला. राम और लक्ष्मन का जन्म सूर्यवंश में हुआ.। सूर्यवंश में बहुत से जाट गोत्र सम्मलित किये जाते है इनका विस्तृत वर्णन आगे किया जायेगा


चन्द्रवंश चंद्रवंशी ययाति शक्तिशाली और विजेता सम्राट् हुआ तथा अनेक आनुश्रुतिक कथाओं का नायक भी। उसके पाँच पुत्र हुए - यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, अनु और पुरु। इन पाँचों ने अपने अपने वंश चलाए और उनके वंशजों ने दूर दूर तक विजय कीं। आगे चलकर ये ही वंश यदु, तुर्वसु, द्रुह्यु, आनव और पौरव कहलाए। ऋग्वेद में इन्हीं को पंचकृष्टय: कहा गया है।

यदु राजा एक चंद्रवंशी क्षत्रीय था उसका कुल वंश ही यदुवंशी कहलाते है जिसमे भगवान श्री कृष्ण का जन्म हुआ था।


गोत्र उन लोगों को संदर्भित करता है जिनका वंशज एक आम पुरुष पूर्वज से अटूट क्रम में जुड़ा है.आज भी यदि कहीं संयुक्तपरिवार देखने को मिलते हैं तो जाट समाज में सामाजिक व्यवस्था की खासियत ही यही रही कि इसमें हर समूह को एक खास पहचान मिली। हिन्दुओं में गोत्र होता है जो किसी समूह के प्रवर्तक अथवा प्रमुख व्यक्ति के नाम पर चलता है। सामान्य रूप से गोत्र का मतलब कुल अथवा वंश परंपरा से है। गोत्र को बहिर्विवाही समूह माना जाता है अर्थात ऐसा समूह जिससे दूसरे परिवार का रक्त संबंध न हो अर्थात एक गोत्र के लोग आपस में विवाह नहीं कर सकते पर दूसरे गोत्र में विवाह कर सकते, जबकि जाति एक अन्तर्विवाही समूह है यानी एक जाति के लोग समूह से बाहर विवाह संबंध नहीं कर सकते।


एक गोत्र और वंश के व्यक्ति आपस में भाई बहिन होते है ।उनके मध्य विवाह सम्बन्ध जाटों में वर्जित होता है। जाटों में गोत्र पितृवंशीय होता है। अर्थात जाटों में व्यक्ति को गोत्र उसके पिता से मिलता है। सामान्य रूप से जाटों के एक गाव में एक ही गोत्र निवास करता है। लेकिन पश्चिमी राजस्थान में जाटों के एक गोत्रीय गाँव कम संख्या में है।

हरयाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में गाँव की सीमा से सटे गाँवो को गुहांड बोला जाता है और गुहाण्ड में विवाह सम्बन्ध नहीं होते है। सामाजिक समरसता बनाय रखने के लिए यदि एक गाव में जाटों के एक से अधिक गोत्र निवास करते है । तो उन में यानि उन सभी गोत्र से न तो लड़की ली जाती है न ही लड़की दी जाती है अर्थात् विवाह सम्बन्ध नहीं होते है । गॉव के सभी गोत्र के लोग आपस में भैयाबंधि रखते है। इस से गाव में समरसता का माहोल बनता है।

जाटों में लड़की का गोत्र विवाह के बाद उसके पति का गोत्र होता है। और विवाह से पहले उसके पिता का गोत्र

जाटों में विवाह के अवसर पर मुख्य रूप से चार गोत्र छोड़ने का नियम है। स्वयं यानि पिता का ,माता का(नाना का),दादी का(पिताकी माँ) , नानी का(माँ की माँ) कुछ जगहों पर जाटों में जिस गोत्र में बहिन की शादी होती है उस गोत्र में भाई की शादी भी नहीं करते है। लेकिन यह प्रथा बहुत कम प्रचलन है। गोत्रों का महत्व: जाति की तरह गोत्रों का भी अपना महत्व है।

  • 1. गोत्रों से व्यक्ति और वंश की पहचान होती है।
  • 2. गोत्रों से व्यक्ति के रिश्तों की पहचान होती है।
  • 3. रिश्ता तय करते समय गोत्रों को टालने में सुविधा रहती है।
  • 4. गोत्रों से निकटता स्थापित होती है और भाईचारा बढ़ता है।
  • 5. गोत्रों के इतिहास से व्यक्ति गौरवान्वित महसूस करता है और प्रेरणा लेता है।

गोत्र का उत्पति का सिद्धान्त

व्याकरण के प्रयोजनों के लिये पणिनी ने की गोत्र परिभाषा है

'अपात्यम पौत्रप्रभ्रति गोत्रम्' (4.1.162)

अर्थात 'गोत्र शब्द का अर्थ है बेटे के बेटे के साथ शुरू होने वाली संतान्. गोत्र का संबंध रक्त से है, जाटों में एक गोत्र विवाह करना निषेध है जाटों में एक गोत्र के पुरुष और स्त्री आपस में भाई बहिन माने जाते है एक गोत्र में विवाह करना ना तो सामजिक रूप से और नहीं वैज्ञानिक रूप से ठीक है

महाभारत के शांति पर्व (296,17,18) में चार गोत्रो का वर्णन है

  • 1अग्रिश
  • 2भृगु
  • 3वशिष्ठ
  • 4 कश्यप

का वर्णन है जो चारो गोत्र कुल ऋषि के नाम पर है बाद में अगस्त्य ,जमदाग्नि,विश्वामित्र ,अत्रि ऋषि के नाम जुड़ने से यह संख्या 8 हो गयी जो कालान्तर में बड कर् हज़ार से ज्यादा हो गयी।

सभी जातियों के गोत्रों की उत्पत्ति के निम्न आधार है

लोगों ने अपने कुल ऋषि को सम्मान देने के लिए ऋषि गोत्र का उपयोग करने लगे बाद में गोत्र व्यक्ति,गांव ,पैड ,व्यक्ति के विशेष गुणों के ऊपर शुरू होने लगे


1. परिवार के मूल निवास स्थान के नाम से गोत्रों का नामकरण हुआ ।

2. कबीला के मुखिया के नाम से गोत्र बने ।

3. परिवार के इष्ट देव या देवी के नाम से गोत्र प्रचलित हुए ।

4. कबिलों के महत्वपूर्ण वृक्ष या पशु-पक्षियों के नाम से गोत्र बने ।

सगोत्र

सगोत्र विवाह, सपिण्ड विवाह,समरक्ता या निकट विवाह एक ही बात है। सगोत्र विवाह का मतलब एक ही पूर्वज को संतानो के आपस में विवाह करने से है। जिसको जाटू भाषा में एक भाई और बहिन की शादी भी कहा जा सकता है। जाट समाज में इस विवाह पर पूर्ण रूपसे प्रतिबंध है। कुछ लोग सगोत्रीय और समरक्ता विवाह के पक्ष में है। पर जाट समाज सगोत्रीय विवाह के पक्ष में नहीं है। क्योंकि जाटों में एक गोत्र को रक्त भाई माना जाता है।जो वैज्ञानिक रूप से भी सिद्ध है। जाट चाहे हिन्दू हो या सिख सम्प्रदाय का एक गोत्र विवाह पर पाबंदी है। जाट समाज के बुजुर्गो और ऋषि मुनियो में वैज्ञानिक ज्ञान उच्च कोठी का था। भारत के जाट निवास करने वाले क्षेत्रो में ही गोत्र प्रथा का चलन है। जाट समाज भारत में कही भी बसा हो उसमे गोत्र प्रथा पायी जाती है। जबकि अन्य जातियो में ऐसा नहीं है जैसे दक्षिण के ब्राह्मणों में गोत्र प्रथा नहीं है। उनमे मामा और बुआ के बच्चों के रिश्ते होते है। हिन्दू मैरिज एक्ट 1955 के अनुसार सिर्फ सेज बजे बहिन में रिश्ते पर ही रोक है। जबकि निकट सम्बन्धि या एक गोत्र विवाह पर रोक नहीं है। इसके पीछे का कारन इस एक्ट का ड्राफ्ट दक्षिण के ब्राह्मण हिन्दुओ ने तैयार किया था । आज निकट विवाह बहुत से देशो में प्रतिबंधित है।

सगोत्रीय विवाह धार्मिक ,सामाजिक और वैज्ञानिल रूप से भी गलत है। इसके तर्क की चर्चा नीचे की गयी है।

सगोत्रीय विवाह पर धार्मिक मत

सगोत्रीय यानि सपिण्ड विवाह वैदिक काल से पाप और निंदनीय कार्य समझ जाता रहा है ऋग्वेद के 10 वे मंडल के 10 वे सूक्त में यम और यमी नामक भाई बहिन के मध्य हुए संवाद में सपिण्ड विवाह को निंदनीय कार्य बताया है यमी अपने भाई यम से विवाह करके संतान उत्पन्न करने की तीव्र इच्छा प्रकट करती है यम उसको समझाता है ऐसा करना प्रकृति के नियमो के विरुद्ध है। ऐसा करना घोर पाप है

  • 1 ऋग्वेद में कहा है 10/10/2

"संलक्षमा यदा विषु रूपा भवाती" अर्थ सहोदर बहिन से पीड़ाप्रदय संतान उत्पन्न होने को सम्भावना होती है ।

  • 2 ऋग्वेद में कहा है 10/10/12

"पापमहुर्यः सस्वरा निगच्छति "

अर्थ -सपिण्ड भाई बहिन जो इस प्रकार संतान उत्पन्न करते है उनको भद्रजन पापी कहते है।

  • 3 सपिण्ड पर मनु ने(मनु5/60) कहा है

"सपिण्डता तु पुरुषे सप्तमे विनिवर्तर्त! समानोदक भावस्तु जन्मनाम्नोर्वेदन!![1]

अर्थ सगापन तो सातवी पीढ़ी में समाप्त हो जाता है और घनिष्ठपन जन्म और नाम के ज्ञात नहीं रहने पर छुट जाता है।

  • 4 मत्स्यपुराण (4/2) में संगोत्रीय शतरूपा के विवाह पर आश्चर्य और खेद प्रकट किया गया है।
  • 5 गौतम धर्म सूत्र (4/2) में भी असमान गोत्र विवाह का निर्देश दिया गया है।

"असमान प्रवरैर्विगत"

  • 6 आपस्तम्ब धर्मसूत्र कहता है- "

‘संगोत्राय दुहितरेव प्रयच्छेत्’

अर्थ---समान गोत्र के पुरूष को कन्या नहीं देना चाहिए।


इस विषय पर स्पष्ट जानकारी पाणिनी कालीन भारत से भी मिलती है.

  • 7 अष्टाध्यायी के अनुसार “ अपत्यं पौत्र प्रभृति यद गोत्रम् “,

एक पुरखा के पोते,पडपोते आदि जितनी संतान होगी वह एक गोत्र की कही जायेगी. यहां पर सपिण्ड का उद्धरण करना आवश्यक हो जाता है.

  • 8 ओशो का कथन है कि स्त्री-पुरुष जितनी अधिक दूरी पर विवाह करते हैं उनकी संतान उतनी ही अधिक प्रतिभाशाली और गुणी होती है। उनमें आनुवंशिक रोग होने की संभावनाएं कम से कम होती हैं। उनके गुणसूत्र बहुत मजबूत होते हैं और वे जीवन-संघर्ष में परिस्थितियों का दृढ़ता के साथ मुकाबला करते हैं।
  • 9 बोधायन के हिसाब से अगर कोई व्यक्ति भूल से भी संगौत्रीय कन्या से विवाह करता है, तो उसे उस कन्या का मातृत्वत् पालन करना चाहिए

संगौत्रचेदमत्योपयच्छते मातृपयेनां विमृयात्।

गौत्र जन्मना प्राप्त नहीं होता, इसलिए विवाह के पश्चात कन्या का गौत्र बदल जाता है और उसके लिए उसके पति का गौत्र लागू हो जाता है।

  • 10 अपर्राक कहता है कि जान-बूझकर संगौत्रीय कन्या से विवाह करने वाला जातिच्युत हो जाता है।


  • 11 निर्णय सिंधुÓ हिन्दू धर्म का सबसे बड़ा सगोत्रीय ग्रन्थ है। उसमें उल्लेख है कि 100 पीढ़ी तक गोत्र को टाला जाना चाहिए। यह ग्रन्थ सगोत्रीय विवाह या समरक्त विवाह की स्वीकृति नहीं देता।
  • 12 निरूक्‍त (3/4) में लिखा है कि कन्‍या का नाम दुहिता इस कारण से है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नही1

सगोत्र पर वैज्ञानिक मत पर :

निकट सम्बन्धियों में शादी से इनब्रीडिंग होती है । इनब्रीडिंग से आगामी पीढ़ियों पर विपरीत प्रभाव पड़ता है । इसलिए इसे वैज्ञानिक तौर भी पर अनुमति नहीं होती । भारत के ऋषि मुनि वैज्ञानिक भी थे जिन्होंने बिना यंत्रो के ही यह सब जन लिया था तथा यह नियम बना दिया था खून का सम्बन्ध जितना दूर का हो उतना उतम | आधुनिक जेनेटिक अनुवांशिक विज्ञान के अनुसार inbreeding multiplier अंत:प्रजनन से उत्पन्न विकारों की सम्भावना का वर्धक गुणांक इकाई से यानी एक से कम सातवीं पीढी मे जा कर ही होता है.

गणित के समीकरण के अनुसार,अंत:प्रजनन विकार गुणांक= (0.5)raised to the power N x100, ( N पीढी का सूचक है,) पहली पीढी मे N=1,से यह गुणांक 50 होगा, छटी पीढी मे N=6 से यह गुणांक 1.58 हो कर भी इकाई से बडा रहता है. सातवी पीढी मे जा कर N=7 होने पर ही यह अंत:पजनन गुणांक 0.78 हो कर इकाई यानी एक से कम हो जाता है.मतलब साफ है कि सातवी पीढी के बाद ही अनुवांशिकरोगों की सम्भावना समाप्तहोती है. यह एक अत्यंत विस्मयकारी आधुनिक विज्ञान के अनुरूप सत्य है जिसे हमारे ऋषियो नेसपिण्ड विवाह निषेध कर के बताया था.

सगोत्र विवाह से शारीरिक रोग ,अल्पायु , कम बुद्धि, रोग निरोधक ,क्षमता की कमी, अपंगता,विकलांगता सामान्य विकार होते हैं. भारतीय परम्परा मे सगोत्र विवाह न होने का यह भी एक परिणाम है कि सम्पूर्ण विश्व मे भारतीय सब से अधिक बुद्धिमान माने जाते हैं.

सपिण्ड विवाह निषेध भारतीय वैदिक परम्परा की विश्व भर मे एक अत्यन्त आधुनिक विज्ञान से अनुमोदित व्यवस्था है.

  • पुरानी सभ्यता चीन, कोरिया, इत्यादि मे भी गोत्र /सपिण्ड विवाह अमान्य है. परन्तु मुस्लिम और दूसरे पश्चिमी सभ्यताओं मे यह विषय आधुनिक विज्ञान के द्वारा ही लाया जाने के प्रयास चल रहे हैं.
  • आधुनिक अनुसंधान और सर्वेक्षणों के अनुसार फिनलेंड मे कई शताब्दियों से चले आ रहे शादियों के रिवाज मे अंत:प्रजनन के कारण ढेर सारी ऐसी बीमारियां सामने आंयी हैं जिन के बारे वैज्ञानिक अभी तक कुछ भी नही जान पाए हैं
  • यदि हम भारत के विषय में बात करे तो इसका सबसे अच्छा उदाहरण पारसी लोग है यह लोग एक गोत्र में शादी करते जिस के कारण आज इनकी नस्ल लुप्त होने के कगार पर पहुच चुकी है पारसियों में थैलेसेमिया और नि:सन्तान होने का कारण वैज्ञानिक इसी वर्जना को न अपनाने को बताते हैं।

पारसी समाज ने इस समस्या का हल निकाले के लिए सूरत से मुहीम शुरू कि और हर पारसी जोड़े को शादी के बाद आर्थिक मदत की

  • दूसरा उदाहरण एक टीवी सर्वे का जिसके अनुसार भारत में मुख्य रूप से किन्नर (हिजड़े ) सिर्फ उन्ही जाति या धर्मो के लोगो के घर में जन्म लेते है जहां पर सगोत्री विवाह होता है
  • वैज्ञानिक शोध से यह बात भी सामने आई की भारत में बाघो की संख्या में कमी का एक कारन इनब्रीडिंग भी है।
  • अफ्रीका में इनब्रीडिंग को रोकने के लिए शेरो की नशबंदी भी की जाती है।
  • अघरिया जनजाति में बहुत से परिवारों के बीच जागरूकता के अभाव में वास्तविक एक ही गोत्र, जो कि मूलतः परिवार के रक्त समूह पर आधारित रहा है, अगरिया में ज्ञान के अभाव में एक गिटार में विवाह होंते रहे है जिससे अघरिया समाज में सिकल सेल एनीमिया नामक घातक बिमारी के लक्षण पाए जा रहे है। वर्तमान में अघरिया समाज में सगोत्रीय व विजातीय विवाह पूर्णत प्रतिबंधित है जिसके उल्लंघन पर सामाजिक दंड का प्रावधान है।
  • भारत में बैंगलूर में हुए अध्ययन में यह बात सामने आयी है कि समरक्त (एक गोत्र) दम्पतियों के बच्चों में आनुवांशिक विकृतियां होती हैं। इस अध्ययन के दौरान 30 फीसदी बच्चे समरक्त दम्पतियों के थे। इनमें 44 बच्चों में आनुवांशिक विकृतियां पायी गईं।
  • मिशीगन विश्वविद्यालय के आनुवांशिक वैज्ञानिक जेम्स नील के अनुसार यदि समरक्त (एक गोत्र) पति-पत्नी में हानिकारक जीन मौजूद हैं, तो बच्चे को उस जीन से सम्बंधित बीमारियां होने की आशंका बहुत अधिक रहती है। उनके अनुसार पति-पत्नी दोनों में हानिकारक और रोग जनित जीन मौजूद होने से आनुवांशिक रूप से विकृत भ्रूण के ठहरने की स्थिति में गर्भावस्था के शुरू में ही गर्भपात हो जाता है। सिर्फ 50 फीसदी ही ऐसे भ्रूणों का विकास हो पाता है और समय पर बच्चे का जन्म हो पाता है। नील के अनुसार समरक्त दम्पतियों की कई पीढिय़ों के बाद ये जीन उनकी आनुवांशिक शृंखला से बाहर हो जाते हैं और अधिक अनुपात में समरक्त असहोदर भाई-बहन में समरक्त सम्बंध स्थापित होने पर हानिकारक जीन धीरे-धीरे नष्ट हो जाते है।
  • ब्रिटिश सांसद ऐन क्रायर का कहना है कि उनके निर्वाचन क्षेत्र में ऐसे अनेक बच्चे हैं जो इस तरह के विवाहों की उपज हैं और गंभीर रूप से बीमार के शिकार है। इस सांसद ने सगोत्रीय और समरक्ता विवाह पर रोक लगाने की मांग की है।

जाट वंश और गोत्रो का वर्णन

जाटों में वंश परम्परा सनातम धर्म पर आधारित है। सनातम धर्म के देव सूर्य और चंद्रमा के नाम पर दो वंश माने गए है।

सृष्टि निर्माण के बारे में कहा जाता है।की जब चार भुजाधारी भगवान विष्णु के भीतर जब सृष्टि रचना की इच्छा हुई तो उनकी नाभि से चतुर्भुज ब्रह्माजी का जन्म हुआ। ब्रम्हाJ के हाथों में चार वेद क्रमशः 'ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्वेद' थे।

ब्रह्माजी ने विष्णु जी की आज्ञानुसार विश्व के प्राणियों को चार वर्गों 'अण्डज, जरायुज, स्वेदज एवं उदभिज' में बांटा और उन प्राणियों की जीवन व्यवस्था को भी चार अवस्थाओं में बांट दिया। जिनमें 'जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति एवं तुरीय में की।'

इसके बाद उन्होंने काल को चार युगों 'सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलयुग में बांट दिया।' विष्णु जी ने सृष्टि की रचना अपने चार मानस पुत्रों 'सनक, सनंदन, सनत्कुमार तथा सनातन' से प्रारंभ की, लेकिन वे चारों मानस पुत्र भगवान के चार धामों 'बदरीनाथ धाम, रामेश्वरधाम, द्वारकाधाम और जगन्नाथ धाम' में भगवान विष्णु की भक्ति करने चले गए।

जब इन चारों मानस पुत्रों से सृष्टि रचना का कार्य पूर्ण नहीं हुआ तो ब्रह्माजी ने चार वर्ण 'ब्रह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र बन' जिनसे चार आश्रमों 'ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास' का निर्माण हुआ, इस तरह सृष्टि का कार्य सुचारू रूप से चलने लगा।

भगवान विष्णु के चतुर्भुजरूप धारण कर भक्तों को चार पदार्थ 'धर्म, अर्थ, काम, और मोक्ष' देने पड़े। इस लिए भगवान विष्णु को चतुर्भुजरूप धारण करना पड़ा। यही कारण है कि उनकी चार भुजाएं होती हैं।


हमारे धर्म ग्रन्थों ने वर्ण की उत्पत्ति की विस्तार से व्याख्या की है। प्राचीन आदर्श वर्ण व्यवस्था यद्यपि आज पूर्णतया विकृत हो चुकी है और आज इसका समाज में कोई अस्तित्व नहीं है। वर्ण व्यवस्था के सम्बन्ध में ऋग्वेद के ‘पुरुषसूक्त’ में निम्नलिखित श्लोक मिलता है - “ब्राह्मणों स्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः। ऊरु तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत।।” 1 अर्थात् ईश्वर ने स्वयं चार वर्णों की सृष्टि की। इन वर्णों का जन्म उसके शरीर के विभिन्न अंगों से हुआ, मुख से ब्राह्मण की, बाहु से क्षत्रिय की, ऊरु से वैश्य की और पैंरों से शूद्र की उत्पत्ति हुई।

गीता’ में श्रीकृष्ण ने एक स्थल पर कहा है कि ‘मैंने गुण और कर्म के आधार पर चार वर्णो का निर्माण किया है। पुराणों में भी अनेक स्थानों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र को क्रमशः शुक्ल, रक्त, पीत और कृष्ण कहा है।

बृहदारण्यकोपनिषद में मानव जाति के चारों वर्णों की उत्पत्ति का आधार ब्रह्मा द्वारा रचित देवताओं के चार वर्ण बताए गए हैं। इन्द्र, वरुण, सोम, यम आदि क्षत्रिय देवताओं, रुद्र, वसु, आदित्य, मरुत आदि वैश्य देवताओं, पुशान आदि शूद्र वर्ण के देवताओं की सृष्टि ईश्वर द्वारा की गई

भृगु संहिता में भी चारों वर्णों की उत्पत्ति का उल्लेख इस प्रकार है कि सर्वप्रथम ब्राह्मण वर्ण था, उसके बाद कर्मों और गुणों के अनुसार ब्राह्मण ही क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण वाले बने है।


मनु’ने ‘मनुस्मृति’ में बताया है – “शूद्रो बा्रह्मणतामेति ब्राह्मणश्चेति शूद्रताम्। क्षत्रियाज्जात्मेवन्तु विद्याद् वैश्यात्तथैव च।।” 3 अर्थात् शूद्र कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण, क्षत्रिय के समान गुण, कर्म स्वभाव वाला हो, तो वह शूद्र, ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाता है। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य कुल में उत्पन्न हुआ हो, उसके गुण व कर्म शूद्र के समान हो, तो वह शूद्र हो जाता है, वैसे ही क्षत्रिय या वैश्य कुल में उत्पन्न होकर ब्राह्मण व शूद्र के समान होने पर, ब्राह्मण व शूद्र हो जाता है। ऋग्वेद में भी वर्ण विभाजन का आधार कर्म ही है। निःसन्देह गुणों और कर्मो का प्रभाव इतना प्रबल होता है कि वह सहज ही वर्ण परिवर्तन कर देता है वर्ण व्यवस्था धीरे धीरे कमजोर होकर लुप्त होने के कगार पर है। वर्ण के हिसाब से जाट क्षत्रीय वर्ण में आते है। इसका प्रमाण जाटों की शारीरिक रूप से बलिष्ठ और स्ववाभिक रूप से वीर और न्याय प्रिय बहादुर होना है। क्षत्रियों में सूर्यवंश ,चन्द्रवंश मुख्य वंश है।

*1सूर्यवंश

भारत में सूर्य वंश की वंशावली मिलती है। वैवस्वत मनु से सूर्य वंश की शुरुआत मानी गई है। महाभारत में पुलस्त्य ने भीष्म को सूर्य वंश का विवरण बताते हुए कहा कि वैवस्वत मनु के दस पुत्र थे- 1.इल, 2.इक्ष्वाकु, 3.कुशनाम, 4.अरिष्ट, 5.धृष्ट, 6.नरिष्यन्त, 7.करुष, 8.महाबली, 9.शर्याति और 10.पृषध पुत्र थे।

इल की कथा : मनु ने ज्येष्ठ पुत्र इल को राज्य पर अभिषिक्त किया और स्वयं तप के लिए वन को चले गए। इल अर्थसिद्धि के लिए रथारूढ़ होकर निकले। वह अनेक राजाओं को बाधित करता हुआ भगवान शिव के क्रीड़ा उपवन की ओर जा निकले। उपवन से आकृष्ट होकर वह अपने अश्वारोहियों के साथ उसमें प्रविष्ट हो गए। पार्वती द्वारा विदित नियम के कारण इल और उसके सैनिक तथा अश्वादि स्त्री रूप हो गए। यह स्थिति देखकर इल ने पुरुषत्व के लिए भगवान शिव की स्तुति आराधना की। भगवान शिव शंकर प्रसन्न तो हुए परन्तु उन्होंने इल को एक मास स्त्री और एक मास पुरुष होने का विधान किया। स्त्री रूप में इस इल के बुध से पुरुरवा नाम वाले एक गुणी पुत्र का जन्म हुआ।

इसी इल राजा के नाम से ही यह प्रदेश ‘इलावृत्त’ कहलाया। इसी इल के पुरुष रूप में तीन उत्कल गए और हरिताश्व-बलशाली पुत्र उत्पन्न हुए।

अन्य पुत्र के पुत्र : वैवस्वत मनु के अन्य पुत्रों में से नरिष्यन्त का शुक्र, नाभाग (कुशनाम) का अम्बरीष, धृष्ट के धृष्टकेतु, स्वधर्मा और रणधृष्ट, शर्याति का आनर्त पुत्र और सुकन्या नाम की पुत्री आदि उत्पन्न हुए। आनर्त का रोचिमान् नामक बड़ा प्रतापी पुत्र हुआ। उसने अपने देश का नाम अनर्त रखा और कुशस्थली नाम वाली पत्नी से रेव नामक पुत्र उत्पन्न किया। इस रेव के पुत्र रैवत की पुत्री रेवती का बलराम से विवाह हुआ।

इक्ष्वाकु कुल : मनु के दूसरे पुत्र इक्ष्वाकु से विकुक्षि, निमि और दण्डक पुत्र उत्पन्न हुए। इस तरह से यह वंश परम्परा चलते-चलते हरिश्चन्द्र रोहित, वृष, बाहु और सगर तक पहुंची। राजा सगर के दो स्त्रियां थीं-प्रभा और भानुमति। प्रभा ने और्वाग्नि से साठ हजार पुत्र और भानुमति केवल एक पुत्र की प्राप्ति की जिसका नाम असमंजस था।

यह कथा बहुत प्रसिद्ध है कि सगर के साठ हजार पुत्र कपिल मुनि के शाप से पाताल लोक में भस्म हो गए थे और फिर असमंजस की परम्परा में भगीरथ ने गंगा को मनाकर अपने पूर्वजों का उद्धार किया था। इस तरह सूर्य वंश के अन्तर्गत अनेक यशस्वी राजा उत्पन्न हुए

सूर्यवंश की वंशावली विष्णु पुराण के अनुसार ब्रह्मा के 7 पुत्र माने गये है। 1 मरीचि 2 अंगिरस 3 पुलत्स्य 4 अत्रि 5 दक्ष 6 पुलह 7क्रतु

  • ब्रह्मा

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  • मरीची

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  • कश्यप

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  • विवस्वान

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  • मनु

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  • इक्ष्वाकु इस के 100 पुत्र थे मुख्य तीन पुत्र विकुछि,ढंड ,निमि
विकुछि ढंड निमि
पुरंजय मीथी
अनया जनक
पृथु उदवसु
विष्टराष्व नन्दिवर्धन
चंद्र सुकेतु
युवराष्ट देवरात
श्रवास्त बह्र्दत
केवलयावश्व महावीर
प्रसेनजित सुधुति
युवनावशव घृष्ठकेतू
मांधाता हर्यश्व
पुरुकृत्य मरू
त्रसाददस्यू प्रतिन्धक
अनरण्य कीर्तिरथ
पृपदशव देव्
हर्यश्व विदुध
हस्त महाध्रक
सुमना कीर्तिरात
त्रिधनवा महारोमा
श्र्य्यारुणि स्वर्णरोमा
सत्यव्रत हस्वरोम
हरिश्चन्द जनक
रोहिताश्व
हारीत
चुन्चु
विजय
रुस्क
वृक
सगर
असमजय
अंशुमान
दिलीप
भगीरथ
सुहोत्र
श्रुति
नाभाग
अम्बरीय
सिन्धुद्वीप
आयुतायु
ऋतुपर्ण
सर्वकाम
सुदास
सौदास
अश्मक
मूलक
दशरथ
इलिविल
विश्वसह
खट्वांग
दीर्घबाहु
रघु- जिसके नाम पर रघुवंश चला
अज
दशरथ
दशरथ
रामचंद्र लक्ष्मण भरत शत्रुधन
रामचंद्र
लव कुश

कुश से ब्रह्दत्त तक की वंशावली'


कुश
अतिथि
निषध
अनल
नभ्
पुण्डरीक
क्षेमधन्वा
देवलोक
अहिनक
रुरु
परित्रयक
देवल
बच्छल
उत्क
शंखरग
युषिताश्व
विश्वसह
हिरण्यनाभ
पुण्य
ध्रुवसन्धि
सुर्दशन
अग्निवर्ण
शीघ्रग
मरू
प्रसुश्रुत
सुसन्धि
अमर्ष
सहस्वान
विश्वभव
ब्रह्दत्त


महाराजा दशरथ के तीन रानियाँ कौशल्या ,कैकयी,सुमित्रा थी। अग्नि देव की कृपा से कौशल्या के राम कैकयी के भरत सुमित्रा लक्ष्मण और शत्रुधन हुए। राजा जनक की पुत्री सीता से राम जी का विवाह हुआ।


रामजी के दो पुत्र लव और कुश हुए। कुश को दक्षिणी कौशल का राजा बनाया गया। विंध्यांचल के पास कुशवती उसकी राजधानी थी। लव को उत्तरी कौशल का राजा बनाया गया।

लक्ष्मण का विवाह उर्मिला के साथ हुआ। उनके अंगद और चन्द्रकेतु नाम के दो पुत्र हुए। लक्ष्मण के पुत्र अंगद ने पश्चिम में कारुपथ बसाया जिसकी राजधानी अंगदिय थी।चन्द्रकेतु ने हिमालय के पास राज्य किया उसकी राजधानी चंद्रावती थी।


भरत का विवाह जनक राजा के भाई कुशध्वज कीपुत्री मांडवी के साथ हुआ। जिस से उनको पुष्कल और तक्ष नाम के पुत्र हुए। भरत पुत्रो ने गन्धर्वो पर राज्य किया। उनकी राजधानी तक्षशिला और पुष्कलावती थी

शत्रुधन का विवाह भी कुशध्वज कीपुत्री श्रुतिकीर्ति से हुआ । उनके सुबाहु और शुरसेन नाम के दो पुत्र हुए। शत्रुधन ने शूरसेन राज्य की स्थापना की जिसकी राजधानी मथुरा थी।

सूर्यवंशी जाट गोत्र

सूर्यवंश के अंदर मुख्य रूप से लव के वंश और कुश के वंश जाट है। लव के वंशज लव, लौर लउर, खत्री ,लोहखाना, बड़गोत्री, लालर,लाम्बा ,चौहान तो कुश के वंशज कुशवाहा,कछवाहा, कुश, कसवा कहलाये

सूर्यवंशी जाट कुश,कुशवाहा,कुशमान,कसवां, कासनवार ,लउर, लूर ,लौर,लालर, खत्री ,बडगोती ,लाम्बा, मकरान ,ठुकरेले , चौहान ,खूँगा, भयान ,जागलान ,नोहवार,गावर,डीण्डेय, लेगा ,बूबुरड़क,पलसनिया,लेगा,मान,दलाल,देशवाल,ठुकरान,काकरान, हेरुकिया ,बछेछा, मोटसरा,बैरड, ढाका, बरडवाल, गरेड, आदि मुख्य गोत्र

चंद्रवंशी

चंद्रमा और तारा का एक पुत्र हुआ जिसका नाम बुध रखा गया बुध और इला से ही चन्द्रवंश का निकास हुआ इला वास्तिवक रूप में एक राजा सुधूम्न था जो शिवजी के श्राप से नर से मादा बन गए तब राजा सुधूम्न ने शिव के चरणों में गिर पड़े और बोले, ‘यह अच्छी बात नहीं है। मैं एक राजा हूं। मैं पुरुष हूं। मेरा एक परिवार है। मैं यहां सिर्फ शिकार करने आया था और आपने मुझे स्त्री बना दिया। मैं इस रूप में कैसे वापस जा सकता हूं?’ शिव बोले, ‘मैंने जो कर दिया, उसे मैं पलट नहीं सकता, मगर उसे थोड़ा सा सुधार जरूर सकता हूं । जब चंद्रमा का आकार घट रहा होगा, उस समय तुम स्त्री रूप में होगे। जब चंद्रमा बढ़ रहा होगा, तो तुम पुरुष बन जाओगे।’ राजा वन में रहने लगे एक दिन उनकी मुलाकात स्त्री रूप में बुध से हुईं जिस से उनके कई पुत्र हुए जिनको इल कहा जाने लगे यही वंश चन्द्रवंश कहलाए '’'मत्स्य पुराण ,पदम् पुराण और वायुपुराण के अनुसार ययाति की वंशवाली ब्रह्मा-भरिच अत्रि-कश्यप-विवस्वान-वैवस्वत-इला बुध-पुरखा-आयु-नहुष-ययाति

  • ययाति के दो पत्नी देवयानी और शमृष्टा और पाँच पुत्र थे
  • 1-तुर्वषु ,*2 यदु *3अनु *4द्रुहु *5 पुरु

पहली पत्नी देवयानी के यदु और तुर्वसु नामक 2 पुत्र हुए और दूसरी शर्मिष्ठा से द्रुहु, पुरु तथा अनु हुए। ययाति की कुछ बेटियां भी थीं जिनमें से एक का नाम माधवी था।

  • 1 तुर्वषु से तोमर वंश चला तुर्वशु के वाहि -गोभनु -करघम-मरुत और पुरु हुए

सम्पूर्ण वंशवाली का वर्णन तोमर वंशवाली वाले अध्य्याय में किया जायेगा।

  • 2द्रुहु के वंशज द्रविड़ कहलाये

द्रुहु-वरभु-सेतु-अनद और घुर्स फिर दुर्गय और प्रचेता हुए

  • 3अनु के वंशज आनव कहलाए
  • 4यदु के वंशज यदुवंशी कहलाए


यदुवंश

महाराज यदु से यादव वंश चला। उनके कितने पुत्र थे इस विषय में विभिन्न धर्म ग्रन्थ एकमत नहीं हैं। कई ग्रंथों में उनकी संख्या पाँच बताई गई है तो कई में चार। श्रीमदभागवत महापुराण के अनुसार यदु के सहस्त्रजित, क्रोष्टा, नल और रिपु नामक चार पुत्र हुए। उनका वंश वृक्ष नीचे दिया गया है:-

महाराज यदु के सहस्त्रजित, क्रोष्टा,नल और रिपु नामक चार पुत्र थे। उनके ज्येष्ठ पुत्र का नाम सहस्त्रजित था। सहस्त्रजित के वंशज हैहयवंशी यादव क्षत्रिय कहलाये। इस वंश में आगे चलकर सहस्त्र भुजाओं से युक्त अर्जुन नामक एक राजा हुए, जो बहुत बलशाली थे। यदु के दूसरे पुत्र का नाम क्रोष्टा था। क्रोष्टा के वंश में आगे चलकर सात्वत नामक एक राजा हुए। सात्वत के भजमान,.भजि , दिव्य, वृष्णि , देवावृक्ष, महाभोज ,और अन्धक नामक सात पुत्र थे । भगवान श्रीकृष्ण का अवतार वृष्णि वंश में हुआ था वसुदेव और नन्द दोनों वृष्णि वंशी यादव थे तथा दोनों चचेरे भाई थे। अक्रूर भी वृष्णि -वंशी यादव थे। वे भगवान कृष्ण के चाचा थे।

वृष्णि के दो पत्नियो से 5 पुत्र हुए जिनके नाम समित्र ,युधर्जित,देवमीढुष,अनमित्र, शिनि हुए

  1. मनु स्मृति 5/60