Amrit Kalash/Beti Ke Do Shabd

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search
पुस्तक की विषय सूची पर वापस जावें

स्वतंत्रता सेनानी प्रसिद्ध कवि एवं समाज सुधारक - चौ. धर्मपाल सिंह भालोठिया - अमृत कलश (भजनावली),

लेखक - सुरेंद्र सिंह भालोठिया और डॉ स्नेहलता सिंह, बाबा पब्लिकेशन, जयपुर


बेटी के दो शब्द

कभी कभार पीछे मुड़ कर अतीत में क्षण भर झांक लेती हूँ तो मानो किसी गहराई में ही कहीं गुम हो जाती हूँ । मन बाहर निकलने ही नहीं देता है । कुछ प्रभावी व्यक्तित्व और आधी सदी से भी अधिक समय पूर्व, सामाजिक पूर्वाग्रहों से उनका दमदार संघर्ष का चलचित्र मेरे चित्त पटल पर छा जाता है । लगता है कि एक महान सामाजिक युद्ध का हिस्सा रही हूँ और इसके एक अहम बाल-गवाह के रूप में ही मेरा विकास हुआ है । जब से होश सम्भाला, समाज में चारो तरफ लड़कियों के प्रति माता पिता और परिजनों द्वारा उन्हें कमजोर माने जाते हुए देखा । शिक्षा एवं अन्य अधिकारों के मामलों में अभिभावकों द्वारा लड़कियों के साथ भयंकर लैंगिक भेदभाव की बातें ही सुनती और देखती थी । परन्तु जब स्वयं अपने साथ, अपने परिवार में उसे महसूस करने की कोशिश करती तो कुछ भी नजर नहीं आता था। सुनती थी कि कस्बों, शहरों में रहने वाले पढे लिखे अभिभावक भी अपनी बच्चियों को कोमल एवं कमजोर मानते थे एवं कस्बों में ही स्थित शिक्षण संस्थानों में बच्चियों को पढाने लिखाने से भी बचते थे। बच्चियों की शिक्षा को उनकी उन्नति का साधन मानने की बजाय उनके बिगड़ने का ही एक रास्ता मानते थे परन्तु अपने खुद के ठेठ ग्रामीण परिवार में इसका ठीक उलट ही पाती थी। ग्रामीण बच्चियों की तो बात ही छोड़िये, जिस वातावरण में कस्बों तक की लड़कियां भी स्कूल दर्शन से वंचित रहती रही हों, वहीं एक ठेठ ग्रामीण अपनी छह वर्ष की बेटी को हरियाणा के महेंद्रगढ जिले के गांव से बहुत दूर..... पांच सौ किलोमीटर दूर राजस्थान के महाजन (बीकानेर) कस्बे के एक आवासीय कन्या विद्यालय में दाखिला करवा कर दशकों बाद के उन्नत भविष्य का सपना आँखो में भरता था तो लोग उसका पीठ पीछे उपहास उड़ाते नजर आते थे। तत्कालीन महिला शिक्षा के प्रति प्रतिकूल सामाजिक सोच के विरूद्ध निडरता से खड़े रहकर बेटी पर पूरा विश्वास जताते हुए उच्च शिक्षा तक के सफर को बिना किसी अवरोध पूरा करवाना एक आम पिता के बूते की बात तो कतई नहीं थी।

जी हाँ, यह सिर्फ बच्चों की शिक्षा तक ही सीमित व्यक्तित्व नहीं बल्कि सम्पूर्ण जीवन के प्रति आम सामाजिक सोच से दूर….. बहुत दूर…… एक अलग ही…. कुछ विशिष्ट प्रकार की बगावती सोच थी जो कि आम सामाजिक परम्पराओं को खुले रूप में, सिरे से ही नकार डालती थी। सड़ चुकी सामाजिक मान्यताओं को खुले रूप से चुनौती दे डालना परिवार के लिये सामाजिक उपहास के साथ साथ भय पूर्ण स्थिति भी पैदा कर देती थी। बाद में यह बात समझ आयी कि 1948 में अपनी शादी से बहुत पहले ही समाज सुधार और आजादी आंदोलन मे कूद चुके पिताजी के सामाजिक कुप्रथाओं पर निर्मम प्रहार प्रभावशाली ठेकेदारों को रास न आते थे परन्तु कुछ कर भी न पाते थे। मेरा स्पष्ट मत है कि उनके दमदार नैतिक बल के पीछे उनके जीवन के आदर्शों को सबसे पहले अपने चरित्र तथा परिवार में उतारने के पश्चात, सामाजिक स्तर पर चर्चा करने की स्पष्ट सोच का ही सबसे बड़ा योगदान रहा है। पर्दा प्रथा का विरोध किसी दूसरे से नहीं बल्कि स्वयं की शादी से शुरू करना एवं अपनी पुत्री के विवाह में भी इसे वर्जित करने के प्रण ने सत्तर वर्ष पूर्व तत्कालीन रूढीवादी समाज एवं धार्मिक ठेकेदारों में खलबली पैदा कर डाली थी। असहाय ठेकेदार अपनी नैतिक निर्बलता के चलते पिताजी का सामना तो न कर पाते थे परन्तु पीठ पीछे, बिटिया की शादी पर आदर्शों के छिन्न भिन्न हो जाने की सम्भावनाओं के साथ उपहास जरूर उड़ाते थे। पुत्री के रिश्ते के लिये आदर्शों के चलते उत्पन्न अवरोध बहुत कुछ ठेकेदारों की आशंकाओं को सही भी साबित करते मगर माँ तो असलियत जानती थी । उसे पता था कि यह चट्टान हिलने वाली नहीं....

खैर होनी को कुछ और, शायद कुछ बेहतर ही मंजूर था जब पिलानी के बिड़ला कॉलेज से पढे लिखे समान सोच वाले युवक ने इनके आदर्शों का सम्मान किया। शादी के उपरांत मुझे पूर्व की भांति शैक्षणिक अवसर प्राप्त हुए एवं एक सम्माननीय शिक्षक का जीवन नसीब हुआ। अपने शिक्षण क्षेत्र में बेहतर कार्यों के चलते राज्य स्तरीय शिक्षक सम्मान के पीछे इन्ही दो व्यक्तित्वों का ही योगदान है। लोग कहते हैं कि एक सफल पुरूष के पीछे किसी नारी का हाथ होता है पर मेरा मानना है कि किसी सफल महिला के पीछे दो सकारात्मक सोच वाले पुरूषों का महत्वपूर्ण योगदान होता है। कई बार सोचती हूँ कि आखिर साहस क्या चीज होती है ? आज आजादी मिले हुए चौहत्तर वर्ष बीतने के बाद भी समाज में पुलिस के नाम से ही लोग भयभीत हो उठते हैं वहीं एक नवयुवक के रूप में मेरे पिता बीकानेर के गावों में राजा के दमनचक्र के खिलाफ “राजा डाकुओं का सरदार, छोटे डाकू बेशुमार” जैसे नारे लिखने, पुस्तक में छपवाने का साहस कहाँ से ले आते थे ? कैसे स्वामी केशवानन्द जी एवं अन्य सेनानियों के साथ मिलकर सामाजिक चेतना के साथ साथ दमनकारी हुकूमत के खिलाफ खड़े होकर आजादी की अलख जगा पाते थे। निश्चय ही अजब गजब साहस, जज्बा और जुनून था जो कि एक गरीब परिवार में जन्मे मेरे पिता की एक अनोखी शख्शियत का निर्माण करते थे। मैंने अधिस्नातक स्तर पर इतिहास एवं हिन्दी साहित्य के अध्ययन के पश्चात हिंदी साहित्य का अध्यापन किया है और पाया है कि किसी व्यक्ति के अदम्य ऊर्जा का असली स्रोत उस व्यक्ति के ह्र्दय की गहराइयों में छुपा हुआ कलाकार मन ही होता है। यह कलाकार मन ही उसे एक संवेदनशील, सृजन कारक और साहसी ऊर्जा से भरा व्यक्तित्व देकर लोककल्याण की तरफ धकेलता है। पिताजी भी एक समाज सुधारक, गायक और लेखक के रूप में अपनी संवेदनशीलता को अपने व्यक्तित्व में निखारते रहे और ताउम्र समाज के लिये एक प्रेरणादायी उपयोगी व्यक्ति के रूप में कार्य करते रहे। जैसा कि शुरू में ही कहा एक बार अतीत में उतरना तो आसान है परन्तु वापिस निकलना उस महान पिता की स्मृतियों को पीछे छोड़ना असम्भव है। लगता है कि एक बार लिखने बैठी तो 70 वर्षों के अनंत जीवन संस्मरणों को दो शब्दों में कैसे बांध सकूंगी अत: यहीं विराम देती हूँ।

शकुन्तला सिंह

सेवानिवृत व्याख्याता

जयपुर