Amrit Kalash/Chapter-4

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स्वतंत्रता सेनानी प्रसिद्ध कवि एवं समाज सुधारक - चौ. धर्मपाल सिंह भालोठिया - अमृत कलश (भजनावली),

लेखक - सुरेंद्र सिंह भालोठिया और डॉ स्नेहलता सिंह, बाबा पब्लिकेशन, जयपुर


अध्याय – 4: विश्व की दशा

भजन-20 आग लगी आकाऽऽऽश में

।। दोहा ।।

धरती माता पर चढ़ा, अति पाप का भार ।

ज्वालामुखी फटने लगे, भू काँपे कई बार ।।

भजन – 20 (विश्व के वर्तमान हालात)

तर्ज:-गंगाजी तेरे खेत में, घले रे हिन्डोले चार ........

आग लगी आकाऽऽऽश में, झड़-झड़ पड़ें अंगार ।

मेरे परमाऽऽऽत्मा, आज तुही बचावणियांऽऽऽ ।। टेक ।।

अमरीका और रूस दोनों, आकाश में रहे दौड़ ।

नये नये हथियारों की, आपस में लगी है होड़ ।

आग बिखेरें दुनिया में और कीमत लें कई सौ करोड़ ।।

रात-दिन वायुमण्डल में, गूँजती सुने आवाज ।

आग लेकर घूम रहे, हजारों हवाई जहाज ।

ऐसे लक्षण दीख रहे, सारी दुनिया जले आज ।

इलाज नहीं कोई पाऽऽऽस में, नहीं बसावे पार ।।

मेरे परमाऽऽऽत्मा ...............।। 1 ।।

एशिया महाद्वीप यूरोप, उत्तरी अमरीका जले ।

दक्षिणी अमरीका, आस्ट्रेलिया और अफ्रीका जले ।

सातवाँ महाद्वीप भी पूरा, अंटार्कटिका जले ।

धरती में सुरंग बिछी, ऊपर आसमान जले ।

सवारी के साधन रेल, रोडवेज विमान जले ।

गाँव कस्बा शहर पशु, पक्षी और इन्सान जले ।

प्राण जलें हर सांऽऽऽस में, हो रही धुआँधार ।।

मेरे परमाऽऽऽत्मा ...... ।। 2 ।।

उग्रवादी अंगारों में आज, सारा जहान जले ।

बाग बगीचा कोठी बंगला, महल आलीशान जले ।

कहाँ पर छुपावेगा सिर, गरीब की छान जले ।

जैन, बौद्ध, सिक्ख, ईसाई, हिन्दू मुसलमान जले ।

गिरजाघर, गुरूद्वारा, मस्जिद, मन्दिर में भगवान जले ।

बाइबिल, गुरूग्रन्थ, गीता, वेद और कुरान जले ।

ज्ञान जले इतिहाऽऽऽस में, फैलेगा अन्धकार ।।

मेरे परमाऽऽऽत्मा ............।। 3 ।।

अब तो मेरी आप से ही, अर्ज है परमात्मा ।

आप ही करोगे आग, लगावणियों का खात्मा ।

ऋषि दयानन्द जैसा, भेजो कोई महात्मा ।

घूमकर सारी दुनिया में, वेदों का बजा दे डंका ।

अंधविश्वास और पाखण्ड की जलादे लंका ।

भालोठिया कहे ऊँच और नीच की मिटादे शंका ।

पक्का मेरे विश्वाऽऽऽस में, सुखी रहे संसाऽऽऽर ।।

मेरे परमाऽऽऽत्मा............।। 4 ।।

भजन-21 दुनिया में कैसी गजब की आँधी

भजन – 21 (परिवर्तन की आँधी)

तर्ज-सांगीत- मरण दे जननी,मौका ये ठीक बताया .......

दुनिया में कैसी गजब की आँधी आई ।। टेक ।।

धुआँधार धमधम करती हुई,पल में सिर पे आन चढ़ी ।

बाल्य अवस्था नहीं बुढ़ापा,बन बिल्कुल नौजवान चढ़ी ।

अपनी ताकत अजमाने को, ले पूरा सामान चढ़ी ।

मौत और जिन्दगी का युग में,लेकर एक तूफान चढ़ी ।

दुनिया वाले होश करो अब,करती ये ऐलान चढ़ी ।

भरे समुद्र सुखा दिये,पहाड़ों से कर मैदान चढ़ी ।

अपने और पराये की, करके पूरी पहचान चढ़ी ।

कितनों को जीवन दे गई और कितनों के ले प्राण चढ़ी ।

दिन दूनी और रात चौगुनी होती गई सवाई ।। 1 ।।

इस आँधी में भारत वर्ष से, अंग्रेजों का राज उड़ा ।

काफिर नीच गुलाम कुली और काले का इल्फाज उड़ा ।

हराम का खाने वालों का, चक्की चूल्हा छाज उड़ा ।

चिड़िया नहीं उड़ी, चिड़िया खाने वाला बाज उड़ा ।

भारतीयों पर लागू था, वह अंग्रेजी कानून उड़ा ।

इग्लैंड से बन कर आता, वह पूरा मजमून उड़ा ।

जुल्म से जनता का पिया था,आज वह सारा खून उड़ा ।

कन्ट्रोल से मिलने वाला ,चीनी कपड़ा चून उड़ा ।

जिसने पैर जमाया उसकी, पल में शान उड़ाई ।। 2 ।।

जनता से नफरत करते,वह मिस्टर और जनाब उड़े ।

गर्भ के अन्दर आते थे,वह राज ताज के ख्वाब उड़े ।

पीढ़ी दर पीढ़ी बनते वह,राजे और नवाब उड़े ।

वोट से राज चलेगा अब वह,जन्म के गलत हिसाब उड़े ।

राजाओं के बाद में, जागीरदारों की जागीर उड़ी ।

मस्तक में लिखवाकर लाये, वह सब की तहरीर उड़ी ।

गरीबों पर चलने वाली,जालिम की शमशीर उड़ी ।

सेवा नहीं उड़ी, आलसी बन्दों की तकदीर उड़ी ।

जिसको दी फटकार, नहीं दुनिया में मिली दवाई ।। 3 ।।

फिजूलखर्ची करने वालों की, बेढंगी चाल उड़ी ।

सुलफा और शराब अमल, रंडी भाण्डों की ताल उड़ी ।

गाय व बकरी उड़ी नहीं और घोड़ों की घुड़साल उड़ी ।

लाठी जेली उड़ी नहीं, बर्छी भाले और ढ़ाल उड़ी ।

छान झोंपड़ी उड़ी नहीं,कोठी बंगले गढ़ हाल उड़े ।

छप्पन भोग लगा करते वह,सोने चांदी के थाल उड़े ।

बिना भूख खाये जाते वह, तरह तरह के माल उड़े ।

निर्दोषों को फंसाने वाले,पारधियों के जाल उड़े ।

देशद्रोही गद्दारों की, करदी लोग हँसाई ।। 4 ।।

मृत्यु कर के बनते ही,लक्ष्मी होकर आजाद उड़ी ।

तिजोरियों में बन्द पड़ी रहने की आज मियाद उड़ी ।

बड़े बड़े पूंजीपतियों की, सम्पति जायदाद उड़ी ।

ईश्वर के दरबार से जालिम,जुल्मी की फरियाद उड़ी ।

साम्प्रदायिकता फैलाने वालों के प्रचार उड़े ।

अनुचित बातें लिखने वाले,कितने ही अखबार उड़े ।

छुआछूत बिमारी के आज,रोगी बेशुमार उड़े ।

धर्म नहीं उड़ने वाला, पर धर्म के ठेकेदार उड़े ।

स्वार्थी उड़ने लगे, धर्म की देने लगे दुहाई ।। 5 ।।

आँधी मतना समझ बावले,इन्कलाब की छाया है ।

परिवर्तन है विश्व में, आँधी का रूप बनाया है ।

जन जागृति का युग के, घर घर में बिगुल बजाया है ।

जिसने इसको नहीं पहचाना,वही आज पछताया है ।

युग को पलटा खाता देखकर, परिवर्तन भूगोल हुआ ।

किसी की बात अधूरी रह गई,किसी का पूरा कौल हुआ ।

किसी का वक्त बुरा आया,किसी के लिये अनमोल हुआ ।

किसी की जड़ पाताल गई, किसी का बिस्तर गोल हुआ।

धर्मपालसिंह वक्त मुताबिक, शोभा दे कविताई ।। 6 ।।

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