Baba Ghasi Ram

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Statue of Shrinathji at Nathdwara

Baba Ghasi Ram (बाबा घासीराम) (born:1629 - death:18 June 1684 AD) hailed from village Akola,the the famous village of chahar Jats, situated in Agra district in Uttar Pradesh. He devoted his life opposing the oppressions of Mugal rule in India and protection of Hinduism. During 17th centiry , unsuccessful in his attempts to convert Hindus to Islam, the fury of Mughal Emperor Aurangzeb was directed towarsds a massive destruction of the Hindu temples. At this moment the black marble statue of Shrinathji was brought from Mathura by Baba Ghasi Ram to save it from the fanatic inconoclasm of Aurangzeb. The statue has one of its arms raised, giving an impression of Lord Krishna holding the Govardhan Mountain. The other arm seems to be giving a blessing as well as holding a dance posture. The place where this statue of Shrinathji was installed has developed into popular Hindu pilgrimage known as Nathdwara temple.

A monumental temple in his name is built as Shree Ghasi Baba Jat Mandir Akola, Agra, Uttar Pradesh.

बाबा घासीराम का जीवन परिचय

महा पराक्रमी बाबा घासीराम का जन्म पौष बदी नवमी मंगलवार संवत १६८६ (सन १६२९) को हुआ. बाल्य काल से ही उन्हें गौ-सेवा, सत्संग, पहलवानी, बल प्रदर्शन, साधू सेवा से बहुत लगाव था. वे पंचायत व्यवस्था के पूर्ण हिमायती थे.

महावीर की उपाधि

आगरा शहर के दक्षिण में २० किमी दूर जंगल में ५ नवंबर १६५३ को दो समूहों में सशस्त्र भिडंत हुई. इनमें एक समूह चाहर वाटी के प्रमुख गाँव अकोला से लेकर रिठौरी गाँव तक के १०-१२ गाँवो के चाहर गोत्र के जाट थे, तो दूसरी और राजपूतों के प्रमुख गाँव अयेला एवं निकटवर्ती १५-२० गांवों के सिकरवार गोत्र के राजपूत थे.

जाट और राजपूत की यह लडाई एक तालाब को लेकर थी. यह तय हुआ कि जो युद्ध में जीतेगा तालाब उसी का होगा. घासी राम के नेतृत्व में २०० जाट योद्धा लगभग २५० राजपूत योद्दाओं के समक्ष आ डटे. घासी राम को छोड़कर सभी जाट पैदल थे. जबकि सामने ६ घुड़सवार योद्धा भी थे. घासी राम में जाटों को पूरा भरोसा था. घासी राम ६ फ़ुट लम्बा, छरहरे शारीर का सुडौल , सुदर्शन, नौजवान था. २४ वर्ष आते आते उसने ब्रज के पहलवानों में अच्छा स्थान बना लिया था. उसने आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया था. कई घंटे संघर्ष चला. घासी राम का घोड़ा जिधर से निकलता काई सी फट जाती थी. शाम होने को थी. जाटों का पक्ष कमजोर नजर आ रहा था. उन्होंने १८-२० पहलवान योद्धाओं को घुड़ सवारों पर वार करने का निर्देश दिया. दुश्मन के एक घुड़स्वार पर तीन योद्धा नियत किये. एक योद्धा दुश्मन के घोड़े के पैरों में लात मारेगा, जिससे घोड़ा सवार सहित गिर जायेगा या बिदक जायेगा. दूसरा घुड़सवार पर वार करेगा. तीसरा पहले दो योद्धाओं की सुरक्षा करेगा. यह योजना सफल रही, दुश्मन के पांच सवार नीचे गिरा लिए गए. एक घुड़ सवार मैदान से भाग गया. सूर्यास्त होते होते जाट विजयी रहे. अकोला की चौपाल पर पंचायत ने मल्ल घासी राम का अभूतपूर्व सम्मान किया. उन्हें 'महावीर' की उपाधि से विभूषित किया गया. धीरे-धीरे वह चाहरों के २४२ गांवों में भीम की भांति शक्ति के प्रतीक बन गए.

सन १६६८ का काल ब्रज के लिए प्रलयकारी था. औरंगजेब का धर्मांध शासन रोजी-रोटी , इज्जत और धर्म का लुटेरा हो गया था. उसकी कट्टर धार्मिक नीतियों के कारण हिन्दुओं की मान-मर्यादा और पूजा स्थलों का अस्तित्व ही खतरे में था. मुसलमान कसाइयों ने चाहरवाटी के गायों के झुंड को मुग़ल हकीमों की शह पर जबरदस्ती ग्वालों से छीन लिया था. महावीर घासीराम को यह सूचना मिली तो आगरा और मथुरा के मध्य 'फरह' पर १२ कसाइयों को मार भगाया. घासीराम उस समय ३८ वर्ष के हो गए थे.

सन्यास लिया

घासीराम ने पिछले वर्ष अपने ब्रह्मण मित्र परदमुनी के साथ सुप्रसिद्ध महात्मा ब्रह्म्वेता तपसी बाबा से गुरु-दीक्षा लेकर सन्यास ले लिया था. वह अब 'घासी बाबा' नाम से प्रसिद्द थे. विष्णव संप्रदाय के सिद्ध 'तपसी बाबा' भगवान श्री कृष्ण के अनन्य भक्त थे. वह वीर गोकुला के प्रसंशक थे और उनके किस्से वह अपने शिष्यों को सुनाते रहते थे. पिछले वर्षों में बाबा से प्रेरणा लेकर एवं चाहर वाटी पंचायत की और से महावीर घासी राम ने गोकुला के कई अभियानों में बढ़ चढ़ कर भाग लिया था. गोकुला भी इनको जानते थे.

महावीर घासी राम से 'घासी बाबा' बनने के बाद अब उनकी दिनचर्या कुछ बदल गयी थी. गाँव के बाहर दक्षिणी मंदिर में उनका निवास था. घर परिवार त्याग चुके थे. अब वे युवाओं को अखाड़ों में दांव पेंच सिखाते थे. बाकी समय भगवत भक्ति में लीन रहते थे.

हर माह शुक्ल पक्ष की चौदस को बाबा अकेले ही अकोला से वृन्दावन के लिए निकलते थे. दूसरे दिन प्रथम स्नान करके गोविन्द देव जी के दर्शन करते थे. मंदिर के पुजारी बाबा की भक्ति और शक्ति से प्रभावित थे. गोविन्द देवजी का मंदिर जयपुर के राजा मान सिंह द्वारा निर्मित किया गया था. यह हिन्दू संस्कृति एवं शिल्प का अनुपम नमूना था. बाबा घासी राम मंदिर के दर्शन करके मुख्य मार्ग पर आये तो शाही फौज से घिरे रस्सों से बंधे एक युवक को देखा. दिसम्बर १९६९ में अंतिम सप्ताह में ठिठुरते दिनों में भी उस तेजस्वी युवक के शरीर से पसीना बह रहा था. उस गर्वीले युवक को देख कर घासी राम को विश्वास नहीं हुआ कि वह गोकुल सिंह थे. गोकुल सिंह की हालत देख कर बाबा की रोष और क्रोध से भुजाएं फ़ड़्फड़ाने लगी. मंदिर में आकर बाबा ने नागा एवं गुसाइयों से बात की.एक छोटी सी टोली तैयार गो गई जो गोकुल सिंह को ले जारही सेना की टुकड़ी पर तलवार से टूट पड़ी. शाही सेना की ताकत के समक्ष गोकुल सिंह को छुड़ाना आसान न था. गोकुल सिंह से बाबा की नजर मिली. उन्होंने नजरों में ही बाबा को जाने के लिए कहा.

धर्म रक्षा

मंदिर के गर्भगृह में मुख्य पुजारी, नागा, गुसाईं और विठ्ठल संप्रदाय के मनीषियों के मध्य गंभीर चर्चा हुई. अब यह निश्चित था कि गोकुल सिंह के युद्ध में बंदी बनाये जाने के बाद ब्रज भूमि सुरक्षित नहीं है. गोकुल सिंह के भय के कारण मथुरा, वृन्दावन और दाउजी के मंदिर अब तक सुरक्षित थे. मंदिर निर्माता राजा-महाराजाओं के वंशज भी इस समय अपने को असहाय पा रहे थे. बचने का कोई रास्ता नहीं सूझ रहा था. काफी सोच विचार के बाद निर्णय लिया कि मंदिर को तो नहीं बचाया जा सकता , किन्तु मंदिर की अन्य मूर्तियों को ही खंडित होने से बचाया जाये. मूर्तियों को मंदिर से हटाकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाना आसान काम न था. श्रीनाथ जी की मूर्तियों को जतीपुरा गोपालपुर से अन्यत्र स्थानांतरण के लिए हर दृष्टि से घासी बाबा को उपयुक्त समझा. घासी बाबा ने इसे अपना सोभाग्य मानते हुए सहर्ष स्वीकार किया. घासी बाबा ने विक्रम संवत १७२६ आश्विन शुक्ला १५ शुक्रवार को श्रीनाथजी की मूर्ति लेकर ब्रज से प्रस्थान किया. [1]

उसी दिन रात्रि के तीसरे पहर में गोविन्द देव मंदिर के पिछले दरवाजे से निकल कर बगीचे की दक्षिणी चार दिवारी की और टोकरी सर पर उठाये एक ग्रामीण निकला, उसके पीछे ८-१० लोग निकले, जो कि चार दिवारी तक आकर रुक गए. सभी ने हाथ जोड़कर नमस्कार किया. कई रोने लगे. चार दिवारी का छोटा दरवाजा निःशब्द खोल दिया गया और वह ग्रामीण दीर्घकाय पुरुष बाहर निकले. घासी बाबा ने गोवर्धन पर्वत के दर्शन किये. ऊँचे स्थान पर टोकरी राखी और नित्यकर्म से निवृत हो राधाकुंड में स्नान किया. सर पर गोपालजी बैठे ही थे, उनके ध्यान में तुंरत यात्रा प्रारंभ की. टोकरी में लगुन सम्बन्धी सामान रखा था ताकि कोई पूछे तो बता दें की नाई लगुन लेकर जा रहा है. गांवों एवं मुख्य मार्गों से बचते-बचाते हुए १४ दिन निकल चुके थे. उस समय वे कहीं चित्तोड़ और उदयपुर की पहाडियों में विचरण कर रहे थे. १५ वें दिन उन्हें ऐसा आभाष हुआ कि वह स्थान आ गया है जहाँ तक उन्हें पहुँचना था. दोपहर को चलते-चलते उन्हें यकायक टोकरे का वजन कई गुना अधिक लगने लगा. कुछ दूर चलने के पश्चात उन्होंने टोकरा एक स्वच्छ शिला पर रख दिया. मूर्तियाँ वहीँ जंगल में स्थापित कर दी. इस जगह का नाम सिंहाड़ था. कई माह तक अराध्य देव कृष्ण की पूजा-अर्चना की. बाद में पुजारियों के वृन्दावन से आ जाने पर पूजा का कार्य उन्हें सौंप दिया. उन्होंने अपने कुछ वंशज बुलाकर मंदिर और पुजारियों की सुरक्षा के लिए बसा दिए. बाद में यही स्थान राजस्थान के प्रसिद्द नाथद्वारा मंदिर के नाम से प्रसिद्द हुआ.

नाथद्वारा की चर्चा राजस्थान की जनता और राजवंशों में होने लगी और वृन्दावन की भांति यहाँ भी दर्शनार्थी आने लगे.

अंतिम समय

नाथद्वारा से निश्चिंत होकर बाबा अकोला में अपने मंदिर पर रहने लगे. घासी बाबा भी वर्ष में एक बार अपनी घोडी से श्रीनाथ जी के दर्शन करने अवश्य जाते थे. एक बार गाँव में खटिकों के घर में आग लगी. बाबा अपने शिष्यों के साथ आग बुझाने दोडे. एक घर में बच्चा सोता रह गया. परोपकारी बाबा से न रुका गया. वे बच्चे को बचाने आग में कूद पड़े. बच्चे को सुरक्षित बचा लाये परन्तु वे खुद बहुत जल गए थे. उन्होंने उपचार करने से भी मना कर दिया और कहा कि मेरी आयु अब पूर्ण हो चुकी है.

वह सात दिन तक धार्मिक ग्रंथों को सुनते रहे. समस्त क्षेत्र के लोग दर्शन करने आते रहे. १८ जून १६८४ के दिन उन्होंने अपने प्राण त्यागे.

चाहर वाटी क्षेत्र में हर जाती के लोगों की उनमें बहुत आस्था है. उनके नाम से महिला एवं पुरुष मनौतियाँ मांगते हैं.

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सन्दर्भ


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