Jodha Singh

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Genealogy of the Faridkot rulers

Jodha Singh Singh (d.1767) (जोधासिंह) was a Barar-Jat Chief of the erstwhile Faridkot State. Thakur Deshraj has given a detailed account of the history of Faridkot which is produced as such in the following pages.

जाट इतिहास:ठाकुर देशराज

जोधासिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

जोधासिंह, हमीरसिंह

शेखासिंह के दो रानियां बताई जाती हैं। बड़ी से जोधासिंह जी और छोटी से हमीरसिंहवीरसिंह जी का जन्म हुआ। नियम के अनुसार कोट कपूरा स्टेट की राजगद्दी जोधासिंह जी को मिली। जोधासिंह जी भाइयों के साथ प्रेम का व्यवहार करते थे, किन्तु दरबारी लोगों ने भाइयों में फूट का बीज बो दिया। इस फूट की बेल को सींचने का दरबारियों को एक और भी मौका मिल गया। ईसाखां के शाही कार्यकर्त्ताओं ने सरदार जोधासिंह जी को बुलावा भेजा था। उन्होंने वीरसिंह जी को ईसाखां के पास भेज दिया। वीरसिंह सैलानी-मिजाज के आदमी थे। शाही कर्मचारियों से मुलाकात करके इधर-उधर घूमते रहे। उन्होंने एक दिन नदी में जर्द रंग का मेंढक देखा। उसकी विचित्रता पर मुग्ध होकर वीरसिंह ने उसे हंडिया में बंद कर लिया और जब राजधानी में वापस आये तो ईसाखां के समाचार सुनाने के बाद जोधासिंह जी से कहा कि मैं आपके लिए एक बढ़िया सौगात लाया हूं। हंडिया खोल कर रखी गई। उसमें से मेंढक निकला। सरदार जौधासिंह ने वीरसिंह को फटकारा - पागल! यह क्या सौगात है? बस, दरबारियों को वीरसिंह के लिए भड़काने का साधन मिल गया। वीरसिंह नालायक दरबारियों की बहक में इतना आया कि खुल्लम-खुल्ला जोधासिंह को मारने की धमकियां देने लगा। इस पर जोधासिंह ने भाई वीरसिंह को कैद में डाल दिया और दरबारियों की राय से हमीरसिंह को आज्ञा दी कि वह दिन भर दरबार में रहा करें और रात को मौजा हरी में चले जाया करें। भाइयों को इस तरह दमन करने के बाद जौधासिंह निश्चिन्त अवश्य हो गये, किन्तु उन्हें अभिमान ने आ घेरा। वह अभिमान इस अनुचित तरीके तक बढ़ा कि पटियाला के राजा आलासिंह को भी वह हेय समझने लगे। अपने घोड़े का नाम आलासिंह और घोड़ी का नाम फत्तो (धर्मपत्नी आलासिंह) रख लिया। आलासिंह इस अनुचित अपमान का शीघ्र ही बदला लेने की चेष्टा करते, किन्तु उनके यहां भी बाप-बेटों में चल रही थी।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-447


सरदार जोधसिंह यहां तक राजधर्म से च्युत हुए कि उनकी जनता भी उनसे बिगड़ गई। उनके मुंह जोधसिंह नाम का सरदार लगा हुआ था। वह सर्वेसर्वा था। अन्य लोगों की बढ़ती को देखना यह कभी पसन्द नहीं करता था, न यह चाहता था कि सरदार के पास अन्य किसी की पहुंच हो। सैनिक विभाग में मुहरा नाम का सरदार भी अपनी पहुंच मालिक तक रखता था। नियम उन दिनों ऐसा था कि राजा को सरदार लोग किसी खास अवसर पर भेंट में घोड़ा दिया करते थे। मुहरा ने एक बछेड़ा भेंट के लिए पाल-पोस कर तैयार किया, किन्तु जोन्दा ने मुहरा की अनुपस्थिति में बछेड़े को जोधासिंहजी के वास्ते मंगा लिया। दरबार में जब मुहरा ने इस तरह घोड़ा मंगाने की शिकायत की तो जोन्दा ने मुहरा का और भी अपमान किया। करमां नाम का जाट सरदार भी मुहरा का साथी बन गया। प्रजाजन तंग आकर कोट-कपूरा को छोड़कर भागने लगे। निदान करमां की सलाह से, जोधासिंह को नेस्तनाबूद करने का षड्यन्त्र रचा गया। निर्णय यह हुआ कि हमीरसिंह को साथ मिलाया जाए, और उन्हें ही राज का मालिक बनाया जाए। हमीरसिंह भी इन लोगों के साथ विचार-विमर्श के बाद शामिल हो गये। निश्चय हुआ कि फरीदकोट के किले पर कब्जा कर लिया जाए। कब्जा किस प्रकार हो इसके साधनों को खोज निकालने का काम मुहरा के जिम्मे छोड़ा गया। फरीदकोट में उस समय एक थानेदार और कुछ सिपाही रहते थे। वहां प्रत्येक बृहस्पति को मेला लगता था। थानेदार मेले में आकर किले से बाहर चौसर खेला करता है। इस तरह उस दिन किला खाली रह जाता है। यह बात मुहरा को बैला फकीर से मालूम हो गई। इतनी बातें मालूम करने के बाद मुहरा ने Hamir Singh of Faridkot|हमीरसिंहजी]] को सलाह दी कि आप शिकार की तैयारी करके फरीदकोट पहुंचें और हमारे साथी सवार होकर किले के आस-पास जा पहुंचें। निदान ऐसा ही हुआ। मेले में थानेदार को किला दिखाने पर राजी करके हमीरसिंह मय साथियों के किले में घुस गए और अधिकार जमा लिया। लाचार थानेदार ने कोट-कपूरा खबर पहुंचाई कि हमीरसिंह ने धोखा देकर किले पर कब्जा कर लिया है। पहले तो जोधासिंह ने कुछ सेना किला खाली कराने को भेजी, किन्तु यह सेना कामयाब न हुई तो यह कहकर सन्तोष कर लिया - हमीरसिंह भाई है, वह ऐंठ बैठा है तो ऐसा ही करने दो। आखिर एक दिन खर्च-पानी से तंग आकर ठीक हो जायेगा। इधर हमीरसिंह निश्चिन्त होकर अपनी शक्ति बढ़ाने में लगे रहे। साथ ही अलग रियासत बनाने की सनद भी सूबा सरहिन्द से प्राप्त कर ली। इस तरह हमीरसिंह ने फरीदकोट1 की रियासत जोधासिंह से अलग कायम कर ली। कुछ दिन बाद जोधासिंह को पता


1. कहते हैं कि इस किले को राजा मोकलहर ने बनवाया था। फरीद नाम के फकीर के नाम से इसका नाम फरीदकोट रखा था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-448


चला कि हमीरसिंह बिना झगड़े-रट्टे के काबू में न आयेगा इसलिये खुद सेना लेकर फरीदकोट पर चढ़ाई की। कई महीने तक लड़ाई होती रही। इधर पटियाला वाले राज्य पर छापा मार के लूट-मार कर रहे थे, इसलिए जोधासिंह को वापस लौटना पड़ा। किन्तु लौटते ही उन लोगों के स्त्री-बच्चों को कैद कर दिया जो कि हमीरसिंह के साथ फरीदकोट चले गये थे और उसके साथी बन गए थे।

इस खबर को सुनकर हमीरसिंह और उसके साथी बड़े चिन्तित हुए। सलाह-मशविरा हुआ तो तय पाया कि जेल के अफसर मिट्ठा चूहड़ा से मिल-मिलाकर, कैदियों को छुड़ाया जाये क्योंकि दिल से मिट्ठा जोधासिंहजी का साथी नहीं है। कुछ आदमी मिट्ठासिंह के पास पहुंचे और उसे एक अंधेरी रात में हमीरसिंह के पास ले आए। हमीरसिंह ने प्रलोभन देकर मिट्ठा को इस बात पर राजी कर लिया कि वह अमुक दिन, रात के समय, कैदी स्त्री-बच्चों को बाहर निकाल देगा। उसने किया भी यही, जेल के पीछे की दीवार के सहारे सीढ़ी लगाकर उन कैदी स्त्री-बच्चों को बाहर निकाल दिया, जिनकी हमीरसिंह को जरूरत थी। किन्तु कुछ अभाग्यवश भूल से निकालने से रह भी गए। उनमें से कुछ को फांसी पर लटकाकर, कुछ को भूखा-प्यासा रखकर जोधासिंह ने मरवा डाला। इधर हमीरसिंह भी चुप नहीं बैठे थे। इधर-उधर पेंठ-गोठ मिलाने में कोई कसर बाकी न रख रहे थे। उन दिनों उनके नजदीक में निशानवालिया मिसल का जोर था। उसका एक सरदार मुकाम जीरा में रहता था। हमीरसिंह ने एक लाख रुपया देने का पैगाम सरदार मुहरसिंह जीरा के पास इस आशय से भेजा कि मिसल के लोग उसकी सहायता जोधासिंह के विरुद्ध करें। मुहरसिंह ने हमीरसिंह के साथियों को कन्हैया, भंगी और फैजुल्ला-पुरिया मिसल के सरदारों से मिलाया और उनका उद्देश्य भी बता दिया। मिसल वालों ने सहायता देना स्वीकार कर लिया। बहुत से सवार, पैदल तथा तोपखाना मुहरसिंह की कमान में देकर फरीदकोट को रवाना कर दिया। इस जबरदस्त सहायता को पाकर हमीरसिंह ने सरदार जोधासिंह पर चढ़ाई कर दी। उधर जोधासिंह भी अपनी सेना लेकर किले कोटकपूरा से बाहर निकल आया। दोनों भाइयों की फौजों में घमासान लड़ाई हुई। दिन भर हथियार खटकते रहे, दोनों ओर से हजारों आदमी मारे गए। यह युद्ध मौजा सिन्धुवां में हुआ। शाम के समय जोधासिंह की फौज पीछे को हट गई और किले में घुस गई। हमीरसिंह के साथियों ने मौजा सिन्धुवां को जी भर कर लूटा तथा बरबाद किया।

सरदार वीरसिंह भाई की जेल से रिहाई पाकर मुक्राम माड़ी को चला गया। जोधासिंह बड़ी घबराहट में था, कारण कि वह जानता था कि हमीरसिंह के सहायक मिसल वाले लोग बड़े कट्टर व बहादुर हैं। उनसे विजय पाना कठिन है। इसलिए जोधसिंह फिर किले से लड़ने को न निकला। इधर हमीरसिंह भी फरीदकोट को वापस लौट आये और मिसल वालों को काफी धन देकर विदा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-449


किया और अपने राज्य के बढ़ाने तथा शक्ति-संपन्न करने में जुट पड़े। वीरसिंह के साथियों ने उधर उसे समझाया कि माड़ी के इलाके को वह अपना मुल्क समझे और भाई उसके साथ छेड़-छाड़ करें तो मिसल वालों से मदद ली जाये। इस तरह से सरदार जोधसिंह तीन ओर से आफतों में फंस गये। पटियाला से शत्रुता, इधर दोनों भाई हमीरसिंह और वीरसिंह का घरेलू युद्ध। लेकिन यह अपनी गलती पर पछताने के बजाय हिम्मत के साथ आपत्तियों का मुकाबला करता रहा। हर ओर कसम-कश थी। हमीरसिंह अधिक उन्नति पर थे। उन्होंने अपने किलों की मरम्मत कराई। जगह-जगह की पुरानी खतरनाक गढ़ियों को मिसमार कराया। कोट करोड़ को कब्जे में करके उसके गढ़ को तुड़वा-फुड़वा डाला। कहा जाता है कि उसमें 35 तोपें और बहुत सा खजाना मिला, जो फरीदकोट लाये गये। बहुत से इलाके झोक, भक, धर्मकोट आदि अपने राज्य में मिला लिये। आबादी बढ़ाने की भी कोशिश की।

कुछ ही दिनों में सरदार जोधसिंह की शक्ति बहुत कम हो गई। उसके पास कोटकपूरा के अलावा केवल पांच ही गांव रह गये और राज्य तीन हिस्सों में बंट गया जिसमें से अधिकांश हमीरसिंह यानि फरीदकोट के पास रहा। सर लेपिल ग्रिफिन इसका कारण इस तरह से लिखते हैं कि - मिसल के जाट सिखों ने आकर हमीरसिंह और वीरसिंह का पक्ष लिया और रियासत को वे तीन हिस्सों में बांट गये, मांडी के आस-पास के गांवों का सरदार वीरसिंह को बना दिया। तीनों भाइयों को सिख-धर्म की दीक्षा (पोहिल) देकर मिसल वाले चले गये। “आइना वराड़ वंश” का लेखक लिखता है कि - हमीरसिंह ने खुद अपने बाहुबल से फरीदकोट के राज्य को बढ़ाया, जाट सिखों (मिसलों) के बल पर नहीं बढ़ा। बात इतनी अवश्य सही है कि हमीरसिंह को मिसल वालों से सहायता अवश्य लेनी पड़ी।

इतने पर भी लड़ाई-झगड़े मिटे नहीं थे। मौजा कोट सेखा पर दोनों भाइयों में फिर लड़ाई हुई किन्तु जोधासिंह को हार कर लौटना पड़ा। इन्हीं दिनों उसको सरदार जोन्दासिंह फरीदकोट वालों ने मार डाला और उसका सिर फरीदकोट में घुमाया गया। कुछ ही दिनों बाद अमरसिंह रईस पटियाला ने हमीरसिंह और वीरसिंह को अपने साथ मिलाकर कोट-कपूरा पर चढ़ाई की। दुर्भाग्य से उस समय जोधासिंह अपने पुत्र रणजीतसिंह या चेतसिंह1 के साथ हवाखोरी के लिए निकला हुआ था। दुश्मनों ने मौका पाकर उन्हें घेर लिया। सरदार जोधासिंह ने बड़ा डटकर मुकाबला किया, बहुतों को खत्म किया। अन्त में अपने लड़के समेत


1. 'वराड़ वंश' का लेखक इस लड़के को मुसलमान औरत के उदर से उत्पन्न लिखता है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-450


युद्धभूमि में सदैव के लिए सो गया। अमरसिंह इस जीत के बाद पटियाला को लौट गया। सरदार जोधासिंह का कोट-कपूरा में संस्कार हुआ, समाधि बनाई गई जो अब तक जोधा बाबा की समाधि के नाम से मशहूर है।

References


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