Sarkar ka Kisan Virodhi Ravaiya

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लेखक : प्रो. एचआर ईसराण, पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राजस्थान

सरकार का किसान विरोधी रवैया

एक ज़माना था, जब हमारे देश में खेती को सबसे उत्तम कार्य माना जाता था। महाकवि घाघ की एक प्रसिद्ध कहावत है-- उत्तम खेती, मध्यम बान।  निषिद्ध चाकरी, भीख निदान।

अर्थात खेती सबसे अच्छा कार्य है। व्यापार मध्यम है, नौकरी निषिद्ध है और भीख मांगना सबसे बुरा कार्य है। लेकिन आज हम अपने देश की हालत पर नजर डालें तो आजीविका के लिए खेती घाटे का सौदा साबित हो रही है। किसान बड़ी मेहनत और ईमानदारी से अनाज उपजाकर देश का पेट भरता आया है, मगर देश उन्हें सम्मानजनक आमदनी देने में नाकाम रहा है। आज की खेती से किसान अपने परिवार के लिए न्यूनतम साधन भी नहीं जुटा सकता।

हमारे देश की देह के दिल ( दिल्ली ) की बॉर्डर पर किसान ( देश का अन्नदाता ) केंद्र सरकार के नए कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ प्रदर्शन कर रहे हैं। सिंघु बॉर्डर पर दिल्ली-चंडीगढ़, टीकरी बॉर्डर पर दिल्ली-रोहतक और गाजीपुर की सीमा पर दिल्ली-गाजियाबाद मार्ग पर बड़ी संख्या में किसान डटे हुए हैं। उनकी मांग है कि इन क़ानूनों को निरस्त किया जाए या फिर क़ानून बनाकर न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को सबके लिए लागू किया जाए।

किसान अपनी मांगों के समर्थन में 26 नवम्बर से कड़कड़ाती ठंड में डटे हुए हैं। संवेदनहीन और निष्ठुर सरकार उनके आत्मसम्मान पर चोट करने में कोई कसर नहीं छोड़ रही है। दिल्ली तक पहुंचने से रोकने के लिए हरियाणा सरकार ने जनता की कमाई और मजदूरों के पसीने से बनी सड़क को खोदकर और रास्ते में अवरोध उत्पन्न कर किसानों को आगे बढ़ने से रोकने का अभूतपूर्व कारनामा किया। सरकार का फर्ज़ सार्वजनिक संपत्ति की रक्षा करना होता है। ये पहली सरकार है जो ख़ुद सार्वजनिक संपत्ति पर बुलडोजर चला रही है। सरकार के सारे हथकंडे असफल होने के बाद बुराड़ी मैदान में किसानों को घेरकर बंद करने की चाल चली गई है। पर किसानों ने रामलीला मैदान या जंतर मंतर पर प्रदर्शन करने की ठान रखी है। मरता क्या नहीं करता? बूढ़े किसानों का का बुढापा कई हथियारबंद व बख्तरबंद जवानों की जवानी से टक्कर ले रहा है।

लोकतंत्र में धरना प्रदर्शन कर अपनी बात कहने के अधिकार हेतु किसान डटे हुए हैं। सरकार ठंड के मौसम में बैरिकेड, आंसू गैस, वाटर कैनन की बौछारें, रेत से भरे ट्रक, कंटीली तारों के बाड़े और पत्थरों के साथ किसानों का हौसला तोड़ने की नित नई कोशिश कर रही है। 

याद आती है गोरख पाण्डेय की छोटी -सी कविता 'उनका डर' , जो डरी हुई सरकार के डर को बख़ूबी बयां करती है और सोने वालों को जागते रहने का आह्वान करती है--

वे डरते हैं

किस चीज़ से डरते हैं वे

तमाम धन-दौलत

गोला-बारूद पुलिस-फ़ौज के बावजूद ?

वे डरते हैं

कि एक दिन

निहत्थे और ग़रीब लोग

उनसे डरना

बंद कर देंगे ।


किसान आंदोलित क्यों हैं?

सरकार ने नए कृषि कानूनों के ज़रिए किसानों के नाम पर कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने का काम किया है। लुटेरों की, लुटेरों के द्वारा, लुटेरों के हितसाधने के लिए चल रही लुटेरी सरकार ने आपदा में अवसर तलाशते हुए किसान-कमेरों की रोजी रोटी की जीवन रेखा जमीन को विकास के नाम पर कॉरपोरेट घरानों से लुटवाने का षड्यंत्र रचा है। अध्यादेशों का शॉर्ट कट अपनाकर और फिर आनन फानन में संसद में बिल पास करवाकर सरकार धनपतियों को आत्मनिर्भर भारत की आड़ में जल-जंगल- जमीन सौंप रही है। 

किसानों को उनकी उपज का उचित मूल्य नहीं मिल रहा है और इस प्रकार किसानों का जो शोषण हो रहा है इसके लिये कोई समाधान निकालने के बजाय सरकार खुद ही इस शोषण का एक उपकरण बन गयी है। न सिर्फ किसान अपने उत्पाद के उचित मूल्य से वंचित हैं, बल्कि उनके उत्पाद की जमाखोरी से बिचौलिए भरपूर लाभ कमा रहे हैं और इसका सीधा असर उपभोक्ताओं की जेब पर पड़ रहा है। सरकार ने इन्हीं कृषि कानूनों के अंतर्गत आवश्यक वस्तु अधिनियम (Essential Commodities Act) को संशोधित कर आम जरूरत की कृषि जिंसों की स्टॉक लिमिट ख़त्म कर दी है। इससे जमाखोरी करने वालों को कालाबाज़ारी की खुली छूट मिल गई है। इसका असर आवश्यक वस्तुओं की कीमतों पर पड़ रहा है।

नए कृषि कानून के कारण बाजार पर आधारित कृषि विपणन व्यवस्था पर बाजार के दलालों और बिचौलियों का वर्चस्व हो गया है। न्यूनतम समर्थन मूल्य (Minimum Support Price) अब केवल फ़र्ज़ अदायगी बन कर रह जाएगा और सरकारी मंडियां एक-दो साल में ही अपनी उपयोगिता और प्रासंगिकता खो देंगी। कृषि उत्पादों के व्यापार पर कॉरपोरेट घरानों के शिंकजा कस जाएगा। इन्हीं सब कारणों से देश भर के किसान आंदोलित हैं और वे नए कृषि कानूनों के खिलाफ हैं। सरकार एमएसपी की सिर्फ़ बात करती है। जब किसान मांग करते हैं कि एमएसपी से कम कीमत पर कृषि उपज की खरीद को कानूनन दंडनीय अपराध बना दिया जाय तो, सरकार एक खामोशी ओढ़ लेती है।

सरकार का रवैया न केवल किसान विरोधी है, बल्कि वह खुल कर पूंजीपतियों के पक्ष में है। इसी से किसान आंदोलित हैं और वे एक निर्णायक आंदोलन की ओर बढ़ रहे हैं।

सरकार और गोदी मीडिया की बेहूदा दलील है कि किसानों के दिल्ली में प्रवेश करने से आमजन को आवागमन में परेशानी उत्पन्न होती। जब सरकार आए दिन ख़ुद बार- बार झूठी वाह- वाही लूटने के लिए रैलियां आयोजित करती है और अमित शाह, योगी व भोगी रोड शॉ करते हैं तब गोदी मीडिया को आमजन की परेशानी क्यों नहीं दिखाई देती?

किसान कौन?

किसान का सीधा सा अर्थ है कृषि उत्पादक। किसानों के स्वाभाविक स्वरूप को परिभाषित करने के लिए तीन तत्वों का समावेश आवश्यक है। पहला तत्व तो यही है कि किसान वही है जिसे कृषि भूमि से अटूट लगाव है; अपने खेतों से चिपका होना तथा पेड़- पौधों से रागात्मक संबंध रखना उसका स्वाभाविक चरित्र है। किसान विकट परिस्थितियों में अधिक परिश्रम करने तथा अपनी आवश्यकताओं में किफायत बरतने का आदि होता है। दूसरा तत्व, पारिवारिक खेती है जो किसानों की बुनियादी इकाई है। किसान शोषक नहीं होता। यदि वह शोषण करता है तो अपना और अपने परिवार का करता है। तीसरा, किसान का अस्तित्व ग्रामीण व्यवस्था से जुड़ा होता है। खेतिहर सभ्यता में किसान ने ही धरती को मां के रूप में पहचाना क्योंकि शैशवकाल के बाद सभी जीवों की भूख धरती ही शांत करती है।

किसान वर्ग एक शाश्वत वर्ग है क्योंकि खेती मानव समाज के लिए अपरिहार्य है और इस काम के लिए सिर्फ किसानों पर ही भरोसा किया जा सकता है। खेती के काम के लिए धैर्य, दूरदर्शिता और विश्वास की आवश्यकता होती है। व्यापारी वर्ग या कोई अन्य वर्ग खेती को सिर्फ व्यावसायिक मुनाफा के लिए ही अपना रहा है, जिस दिन उससे ज्यादा मुनाफा देने वाला व्यवसाय उसको मिल जाएगा उसी दिन वह खेती छोड़ देगा। किसान वर्ग के कठिन शारीरिक परिश्रम के सहारे देश की पूरी आबादी के लिए खाद्य पदार्थ और उद्योगों के लिए कच्चा माल पैदा होता है। दुःखद स्थिति ये है कि इसके बावजूद भी किसान विपन्नता का शिकार है।

खेती बनी अब घाटे का सौदा

खेती-किसानी में रात- दिन कमर तोड़ मेहनत करने के बावजूद किसान को खेती में नुकसान उठाना पड़ रहा है। यंत्रीकरण एवं बीज-पेस्टीसाइड की आकाश छूती कीमतों के कारण वर्तमान में खेती बहुत महंगा सौदा साबित हो रही है। प्रदूषण और जैव- विविधता के क्षरण के कारण प्रकृति भी खेती पर कहर बरपा रही है।

हमारे देश में 85% छोटे-सीमान्त किसान हैं (2 हेक्टेयर से कम वाले), आज की पूँजी आधारित खेती में कम उत्पादकता, अधिक श्रम, बीज/खाद आदि की अधिक लागत, कम जोत में ट्रैक्टर आदि यन्त्र ख़रीदने या किराये पर लेने में पड़ने वाली ज़्यादा लागत, साहूकारों-आढ़तियों से सूद पर ली गयी पूँजी, सरकारी तन्त्र का बाज़ार के लुटेरों के साथ खड़े होना आदि कई कारणों से खेती घाटे का सौदा है, आगे और भी ज़्यादा होने वाला है।

मवेशियों के व्यापार पर पिछले सालों में लगायी गयी सरकारी रुकावटें और मवेशी व्यापारियों पर पुलिस-प्रशासन के संरक्षण में तथाकथित 'गौभक्तों' के हमले और पिटाई ने खेती के साथ पशुपालन की कमर तोड़ दी है। बड़ी संख्या में किसान और खेत मज़दूर अतिरिक्त आमदनी के लिए बिक्री के लिए पशु पालते रहे हैं। साथ ही अनुत्पादक पशुओं की बिक्री भी किसानों के लिए ज़रूरत के समय सहायक होती थी। लेकिन वर्तमान सरकार ने सत्ता पर काबिज़ होकर ऐसे कानून-क़ायदे बनाए हैं कि पशु व्यापार ध्वस्त हो गया है। इससे किसानों-खेत मज़दूरों के जीवन में मुसीबत-तकलीफ़ और बढ़ गई है।

ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में पर्यावरण राजनीति के प्रोफेसर जॉर्ज मोनबियोट ठीक कहते है: "If wealth was the inevitable result of hard work and enterprise, every woman in Africa would be a millionaire."  'अगर कड़ी मेहनत और उद्यम का अंतिम परिणाम धन प्राप्ति होता तो अफ्रीका की हर महिला करोड़पति होती।' यही बात भारत के किसान वर्ग पर लागू होती है।

किसानों के शोषक तो बदलते ज़माने के साथ बदलते रहते हैं पर उनके रोजमर्रा के जीवन से जिन बिचौलियों से वास्ता पड़ता है, उनकी स्थिति अपरिवर्तित रहती है। वर्तमान व्यवस्था में किसान की खून-पसीने की कमाई के मुख्य अपहर्ता प्रायः सामने नहीं होते हैं। वे बदलते रहते हैं। प्रशासन, न्याय, ऋण और व्यापार के पूरे तंत्र पर इस गिरोह का ऑक्टोपसी नियंत्रण कायम है।  किसान की त्रासदी यह है कि सामन्ती शोषण से मुक्त होकर वह पूंजीवादी शोषण के जाल में फँस गया है।

जीवनयापन का और कोई विकल्प नहीं होने के कारण किसान घाटा सहकर भी खेती करता है। उम्मीद का दामन मज़बूती से पकड़े रखता है। दिलेरी से हर संकट का सामना करता है। किसान तीनों रूपों में --उत्पादक, उपभोक्ता और श्रमिक-- लूटा जा रहा है। उत्पादक के रूप में उसे सरकार से वे सुविधाएं नहीं मिलती हैं जो उद्योगों के मालिकों और मजदूरों को मिलती हैं। किसान द्वारा उत्पादित वस्तुओं की कीमत भी आमजन के हित के नाम पर कम रखी जाती है। अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य को कानूनी जामा पहनाने की ज़ायज़ मांग को भी सरकार नहीं मान रही है। उपभोक्ता के रूप में किसान को बाजार से बढ़ती कीमतों पर औद्योगिक वस्तुएं खरीदनी पड़ती है क्योंकि वह उद्योग के आर्थिक विकास के लिए अनिवार्य माना जाता है। श्रमिक के रूप में किसान को सबसे कम पारिश्रमिक मिलता है।

भारत की विशाल आबादी के पास काम नहीं है और भारत में सबसे अधिक प्रसार वाला कोई उद्यम अगर है, तो कृषि ही है। कृषि को लाभप्रद बनाते ही तीन सबसे बड़ी समस्याएँ सुलझ जाएँगी। पहली, गाँव में ही लोगों को काम मिलने लगेगा; दूसरी, काम मिलने के साथ अपने इलाके को छोड़कर जाना यानी पलायन बन्द होगा क्योंकि पलायन का सबसे बड़ा कारण काम की तलाश ही होता है और इसी के साथ तीसरी समस्या यानी शहरों पर दबाव कम हो जाएगा। 

पिछली सदी में हुए किसानों के आंदोलनों के बाद राजनीतिक दलों को पता चल गया कि किसान कितनी बड़ी ताक़त हैं। इस एकता को तोड़ने के लिए राजनीतिक दलों ने किसानों के बीच जाति और धर्म के नाम पर फूट डालनी शुरू की। किसान इस जाल में फँस गए। यही वजह है कि किसानों की आवाज़ संसद और विधानसभाओं में ठीक तरह से नहीं उठ पाती। ताली-थाली-टाली बजाने वाले वर्ग की यह वर्तमान सरकार तो किसी भी आंदोलन को गोदी मीडिया के ज़रिए बदनाम करने में माहिर है। सरकार से सवाल पूछने और आंदोलन करने वाले सब तत्काल राष्ट्रद्रोही घोषित कर दिए जाते हैं। किसी भी विरोध प्रदर्शन को बदनाम करने के लिए प्रदर्शनकारियों को पाकिस्तान समर्थक घोषित कर दिया जाता है। इस किसान आंदोलन में सिख समुदाय की सशक्त भागीदारी होते ही इसे खालिस्तान समर्थकों का आंदोलन कह कर बदनाम किया जाने लगा है।

अगर ये किसान अपने गले में भगवा अंगोछा धारण कर 'मोदी-मोदी' या 'जय श्री राम' के नारे लगाते या फिर कांवड़ियों की तरह सड़कों पर हुड़दंग करते चलते तो इन पर पुलिस के आला अधिकारी लाठियों और ठंडे पानी की बौछार की जगह हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा करते। सत्ता को ख़ुश करने के लिए पुलिस अफसरों ने ऐसी नई परिपाटी शुरू की है। कावड़ यात्रा के दौरान ये सब हमने देखा है।

किसानों की व्यथा से कोई सरोकार नहीं रखने वाली सरकार की कारस्तानियों को देखकर 20 वीं सदी के प्रख्यात आयरिश कवि डब्लू. बी. येट्स की चर्चित कविता Sailing to Byzantium की प्रारंभिक पंक्तियां ज़हन में बरबस कौंध रही हैं, जो कि बुढ़ापे से लाचार इंसान को केंद्रबिंदु में रखकर लिखी गईं थीं।  'That is no country for old men...

An aged man is but a paltry thing, A tattered coat upon a stick...'

इन पंक्तियों में प्रयुक्त शब्द old men की जगह poor peasants शब्द प्रयुक्त करते हुए हमारे देश के किसान वर्ग की दारूण दशा को इन शब्दों में व्यक्त किया जा सकता है:

ये देश कंगाल कमेरों का नहीं... ये देश है अब अमीर लुटेरों का

सत्ता की नज़र में किसान है भी क्या? लकड़ी पर टंगा हुआ चिथड़ा/ फटा-पुराना कोट आदमी की शक़्ल में अड़ुवा मात्र ।

अहंकारी सत्ता से सद्बुद्धि की कोई उम्मीद नहीं कि जा सकती है। प्रधानमंत्री लेज़र शो का आनंद ले रहे हैं। चुटकी बजा रहे हैं। थिरक रहे हैं। आपदा में अवसर ढूंढने के संदेश दे रहे हैं। आंदोलनों से उनके आनंद-प्रमोद में कोई ख़लल नहीं पड़ना चाहिए।


✍️✍️ हनुमानाराम ईसराण

पूर्व प्राचार्य, कॉलेज शिक्षा, राज.

दिनांक: 30 नवम्बर, 2020