Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Prastavana

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

जगन्नाथ पहाड़िया

प्रस्तावना


जगन्नाथ पहाड़िया

सदस्य

विधान सभा

सच्चे वीर आत्म बलिदान के लिए किसी बड़े अवसर की प्रतीक्षा नहीं करते। वह बड़े लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किसी छोटे से अवसर को ही अपने प्रयोजन से महान बना देते हैं और बलिदान का वह क्षण युग प्रवर्तक बनकर इतिहास में अमरता प्राप्त कर लेता है। हुतात्मा श्री करणीराम जी ऐसे ही सच्चे व्यक्ति थे, जिन्होंने उदयपुरवाटी के किसानों को शोषण और उत्पीड़न से मुक्ति दिलाने के लिए अन्याय से लोहा लिया और एक स्फुलिंग की तरह से चलकर आने वाली पीढियों का पाठ आलोकित कर गए। प्रस्तुत पुस्तक उन्हीं का पुण्य स्मरण मात्र है।

कहने को रियासती जनता सीधे विदेशी हुकूमत के अधीन नहीं थी। रियासतों मैं राजा महाराजाओं का वंश परंपरागत शासन था जो उसी भूमि की संतान थे। उनकी रगों में भी भारतीय लहू ही दौड़ता था पर वास्तविकता यह थी कि उस निरंकुश दोहरी शासन प्रणाली के दम घोटू वातावरण में खुलकर सांस लेना भी कठिन था, यहां कानून का नहीं केवल एक व्यक्ति की स्वेच्छाचरिता का राज था, जिसकी ना कहीं सुनवाई थी व न्याय की गुंजाइश और फिर जयपुर रियासत के शेखावटी- तोराबाटी प्रदेश में तो ठिकानेदारों, जागीरदारों इशरत-मुरारदारों व भोमियाओं का इतना दबदबा और आतंक था कि उनके सामने जबान खोलना तो दूर आंख उठाकर देखना भी कोताही मानी जाती थी। लागबाग और


भेंट-बेगार के जुए के नीचे किसान पिसता जा रहा था पर इसके खिलाफ उफ़ तक करना इन सरमायेदारों को असह्य था। यद्यपि जयपुर रियासत में बहुत पहले राजस्व व्यवस्था लागू हो चुकी थी और लालबाग बेगार को गैरकानूनी घोषित किया जा चुका था, किंतु यह आदेश केवल खालसा या सीधे रियासत के आधीन क्षेत्रों में ही लागू थे। जो प्रदेश ठिकाने दार या भोमियाओं के अधिकार में थे वहां उनका कथन ही कानून था । वर्षों से चाही जमीन पर खेती करने वालों का ना कोई रिकॉर्ड रखा जाता था, ना कभी बंदोबस्त होता था।

किसान के परिश्रम के बलबूते पर फसल कटकर खलिहान में आती थी कि उस पर जागीरदार का पहरा बैठ जाता था। अनाज व चारा का आधा हिस्सा जागीदार ले जाता था । आधे हिस्से का बंटवारा भी पटेल पटवारी करते थे जिनकी फीस या मेहनताना किसान को अपनी आधी उपज में से देना होता था। चौकीदार, नाई, राज-बलाई आदि जो नौकरी तो जागीरदार की करते थे उन्हें भी लाभ के रूप में किसान की उपज में से हिस्सा दिया जाता था, यहां तक कि कई जगह जो जागीरदार के कुंवर और कुमारी के लिए सुबह के नाश्ते के नाम पर किसान से लागबाग वसूल की जाती थी।

कल्पना की जा सकती है कि ऐसे माहौल में किसानों को विरुद्ध संगठित करने और उन्हें उन्हें अपने अधिकार दिलाने के प्रयासों का निहित स्वार्थों द्वारा कितना विरोध किया गया होगा। स्वर्गीय श्री करणीराम जी ने यह चुनौती स्वीकार की और अपने कुछ गिने-चुने साथियों को लेकर किसान और हरिजन जागरण का बिगुल बजाया। सरकार के आदेश थे कि किसानों से उनकी उपज का छठा भाग ही लगान के रूप में लिया जाए जबकि भोमियों और जागीरदार आतंक और लाठी के जोर से उपज का आधा हिस्सा लेने पर उतारू थे। परंतु सदियों से शोषित और पीड़ित किसान वर्ग ने अपने मसीहा के साथ अहिंसक विद्रोह का झंडा ऊंचा किया, किंतु जैसा कि ऐसे मसीहाओं का अंत तो होता है, श्री करणीराम और उनके अन्यतम विश्वस्त सहयोगी श्री रामदेव सिंह गीला, चंवरा ग्राम के निकट एक ढाणी में आतंकियों की गोली के शिकार हुए।

पर कभी क्रांतिकारी का बलिदान व्यर्थ नहीं जाता उनकी शहादत भी रंग लाई और इस किसान जागृति का ही परिणाम था की जागीरदारी और जमीदारी उन्मूलन के लिए कानून बनाने वालों में अग्रणी होने का गौरव राजस्थान को मिल गया।


पुस्तक के लेखक राजस्थान संवर्ग के भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ अधिकारी है और झुंझुनू जिले के किसान परिवार के होने के कारण किसानों की पीड़ा को उन्होंने निकट से भोगा-देखा है। श्री करणीराम जी के बलिदान से उनके मानस पर जो श्रद्धा छाप पड़ी है उसी से प्रेरित होकर उन्होंने यह सराहनीय प्रयास किया है। पुस्तक में सम-सामायिक सामग्री के आधार पर तत्कालीन राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों की तस्वीर पेश करने के अतिरिक्त स्वर्गीय श्री करणीराम जी के समकालीन नेताओं व कार्यकर्ताओं के जीवंत स्मरण देने से पुस्तक और भी उपादेय और रोचक बन गई है ।

यद्यपि श्रद्धालु किसान कार्यकर्ताओं की लगन से झुंझुनू में स्वर्गीय श्री करणी राम जी का स्मारक बनाया गया है किंतु कहने की आवश्यकता नहीं है कि जन-विशेषकर नई पीढ़ी तक हुतात्मा श्री करणीराम जी के जीवन और बलिदान का संदेश वाहक होने के कारण प्रस्तुत पुस्तक उनका सार्थक और साझे में स्मृति चिन्ह के रूप में स्वागत योग्य होगी।

(जगन्नाथ पहाड़िया)


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