Spirituality And Science

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Author:Ranvir Singh Tomar

Spirituality And Science
अध्यात्म और विज्ञान

अध्यात्म – अपने अन्दर के चेतन तत्व को जानना, मनना और दर्शन करना ही अध्यात्म है । अपने कर्तव्यों का निर्वहन करना धर्म है और परमचेतन को अनुभव करने की ललक आध्यात्मिकता है । जो आध्यात्मिक होता है वो धार्मिक भी होता है और जो धार्मिक होता है वह धीरे – धीरे आध्यात्मिक बन जाता है ।

आध्यात्मिक रुचि रखनेवाला कोई किसी उपासना – पद्धति का आग्रह नहीं करेगा, जबकि किसी विशिष्ट उपासना – पद्धति का पालन/आग्रह करने वाला व्यक्ति आध्यात्मिक ही हो, यह आवश्यक नहीं ।

अध्यात्म पारलौकिक विश्लेषण या दर्शन नहीं है । अध्यात्म का शाब्दिक अर्थ है – ‘स्वयं का अध्ययन – अध्ययन – आत्म । जो अपने भाव अर्थात प्रत्येक जीव की अपनी – अपनी सत्ता है, वही अध्यात्म है । स्वाभिमान, स्वभाव, स्वार्थ और स्वयं की विशिष्टिता के कारण ही स्वभाव पर प्रभाव की जीत नहीं होती है । स्वभाव अजर अमर है ।

ईश्वर विषयक चर्चा, विचार – वेदान्त दर्शन – ईश्वर, सांख्य दर्शन – अध्यात्म

आत्मा, परमात्मा का अंश है, ईश्वर अंश जीव अविनाशी,

स्व – अपनी काया/देह, मन, बुद्धि, विवेक, दृष्टि, विचार

भीतरी जगत में निजी अनुभूति, प्रीति, रीति,

भाव से स्व भाव – निजता की रक्षा, निजता के प्रति विशेष संरक्षण, सतर्क भाव ही स्वाभिमान कहलाता है । परहित सरस धर्म नहीं भाई, अध्यात्म कोरी ईश्वरीय चर्चा नहीं है, यह स्वभाव को जानने की कला है ।

”अध्यात्म – शरीर का स्वामी, उपभोक्ता । “ अथ अध्यात्म मिदभेद “ यह ब्रह्म की वह प्रावस्था है जो वैयक्तिक बनती है ।” यहां ब्रह्म चेतना वैयक्तिक चेतना बन गया है । ब्रह्म बना या कोई और, असली बात वैयक्तिक चेतना ही है । वैयक्तिक चेतना का गहन अध्ययन विवेचन-अध्यात्म ही मूल तत्व तक पहुंचाएगा ।

आध्यात्म की विस्तृत चर्चा श्रीमद भगवत गीता, रामचरित मानस, वृहदारण्यक उपनिषद, छंदोग्य उपनिषद, वेद (ऋगवेद) के ॐ – प्रणव, जड़ – पदार्थ विज्ञान और चेतन – आत्मा, परमात्मा का अध्ययन अध्यात्म, आदि में की गई है ।

अध्यात्म – अध्ययन – आत्म, स्वयं का अध्ययन । यह तभी संभव है जब स्वयं के विषय में अध्ययन करे या दूसरे स्वयं अध्ययन करे, दोनों अलग - अलग हैं । स्वयं अध्ययन करना स्वाध्याय है, लेकिन अध्यात्म – आत्मा, परमात्मा से संबन्धित स्वयं अध्ययन करना है । स्वाध्याय से अध्यात्म का अध्ययन किया जा सकता है परंतु हर स्वाध्याय अध्यात्म नहीं हो सकता । अध्ययन से ही पता चलता है ज्ञान इंद्रियों के बारे में – आँख, नाक, कान, जिव्हा, और त्वचा, जो सामान्यत: सभी के पास होती हैं । इन्हीं से बनते हैं विषय इसलिए ये विषय इंद्रियाँ कहलाई – रूप, गंध, शब्द, रस, और स्पर्श । ये विषय इंद्रियाँ ही अपने स्वभाव या प्रेरणा से कर्म के लिए प्रोत्साहित करती हैं । कर्म इंद्रियाँ – हाथ, पैर, लिंग (मूत्र द्वार), गुदा (मल द्वार), और वाणी के द्वारा ही कर्म हो पाता है । विज्ञान (साइंस) – क्रम बद्ध ज्ञान ही विज्ञान है । विस्तृत ज्ञान ही विज्ञान है । जड़ पदार्थ की विस्तृत जानकारी विज्ञान है । पहले हम कह चुके हैं कि ज्ञान के स्रोत – ज्ञान इंद्रियाँ (आँख, नाक, कान, जिव्हा, और त्वचा) हैं जिनसे हम ज्ञान प्राप्त करते हैं । ज्ञान से साकार - निराकार का बोध होता है ।

साधारणत: निराकार (चेतना, स्वभाव, विचार) को अध्यात्म मान लिया और साकार को भौतिक मानकर उसे विज्ञान सम्मत मान लेते हैं । जबकि दोनों एक दूसरे के पूरक हैं ।

जैसे – एक मानव वाणी के द्वारा दूसरे मानव से कुछ वार्तालाप करता है । ठीक उसके विपरीत भी यही स्थिति बनती है । दोनों मानव – साकार हैं, भौतिक हैं परंतु वाणी निराकार हैं जिसे साकार ही बोल रहा है और साकार ही सुन रहा है । वाणी ध्वनि आत्मक है । चेतना, स्वभाव, विचार भौतिक शरीर (साकार) से ही प्रकट होते हैं । शरीर – स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर, मनोमय शरीर, ज्ञान/विज्ञानमय शरीर और आनन्दमय शरीर – जड़ और चेतन स्वरूप हैं ।

वेद वाक्य – अहम ब्रह्मास्मि – मैं ब्रह्म हूँ, I am the Universe.

GODISNOWHERE – God is nowhere and God is now here .

कविता –

1 - सेष, महेश, गनेश, दिनेश, सुरेशहु जाहि निरन्तर गावें ।
      जाहि अनादि, अनन्त, अखंड, अच्छेद, अभेद, सुभेद बतावें । 
         नारद से सुख व्यास रटें, पचिहारे ताहि पुनि पार न पावें ।
       ताहि अहीर की छोहरिया छछिया भर छाछ पर नाक नचावें । 
2 – गोधन, गजधन, बाजधन और रतनधन खान ।
   जब आवे संतोष धन, सब धन धूर समान ॥ 

साकार – निराकार/दृश्य – अदृश्य –

1 – अति पास और अति दूर की वस्तुएँ – आँख में लगा काजल स्वयं को नहीं दिखता, जब तक दर्पण में न देखें । अति दूर क्षितिज की स्थिति – जमीन और आकाश का मिलना दिखता है, पर वास्तव में नहीं ।

2 – जड़वादी/भौतिकवादी ईश्वर को नहीं मानता, क्योंकि वह दिखता नहीं है, परंतु परमाणु के अंदर न्युट्रोन, प्रोटोन और इलेक्ट्रॉन जो दिखते नहीं हैं उनको मानता है । दूध के अंदर दधि और घृत नहीं दिखते हैं । रोटी में नमक या शक्कर का मिला होना, हर पीला रंग का सोना नहीं होना भी तो परीक्षण के बाद ही पता चलते हैं । क्या यह अनुभव नहीं है, आध्यात्म नहीं है ।

भाषा – जहां ज्ञान शिक्षा की परंपरा कायम रहती है । वहाँ ज्ञान कायम रहता है और जहां परंपरा टूट जाती है वहाँ ज्ञान नष्ट हो जाता है । इसलिए बिना सीखे ज्ञान नहीं होता, ज्ञान के लिए भाषा भी अपेक्षित होती है, क्योंकि ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं होता जिसमें सूक्ष्म का अनुवैधन न हो, भाषा ही सीखकर बोली जाती है । माता – पिता, कुटुंबियों की बोलचाल सुनकर ही प्राणी बोलता है । गुरु बिन ज्ञान न होई, गुरु शिष्य परंपरा । वाणी को ध्वनित्माक व वर्णात्माक कहा है । ध्वनित्माक वाणी – परा – नाभि स्थान, पश्यंती - हृदय स्थान, मध्यमा – कंठ स्थान तथा वैखरिणी – मुख, जिव्हा स्थान बताया जाता है । अन्य मतानुसार संत, ऋषि मुनियों ने मानव के विभिन्न स्थानों (मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा और सहस्त्राधार) चक्रों से उत्पन्न ध्वनि से अक्षर बने हैं । महर्षि पार्णिनि द्वारा संस्कृत भाषा में व्याकरण के 14 सूत्रों का उल्लेख किया है । कुछ इन्हीं को शंकर जी के डमरू से उत्पन्न करते हैं । श्रुति को याद करना – स्मृति कहा है । यही श्रुति – स्मृति है । ध्वनित्माक भाषा को आकारित करने को ही वर्णनात्मक (रूपात्मक) कहते हैं । यही लिपि है ब्रह्म (देवनागिरी) लिपि, जिसके द्वारा ही भाषा को ध्वनित्माक निराकार से वर्णनात्मक (रूपात्मक) साकार किया गया है । लेखन क्रान्ति ने शब्द को कालजयी बनाया । शब्द पहले शिलाओं पर उतरे, फिर क्रमश: धातु (पत्थर, तांबा व लोहा आदि) चर्म, पर्ण, भोजपत्र, ताडपत्र और अंत में कागज पर अंकित किए जाने लगे । जब स्मृति और कल्पना शक्ति का उपयोग नहीं होगा तो उसके भौंतरा होने को रोकना संभव नहीं होता । संगणक (कैलकुलेटर) तथा मोबाइल इस आग में घी का काम कर रहे हैं । कागज पर लिखे से दृश्य के प्रभाव अर्थात आंखों से देखने की प्रामाणिकता तो कबीर ने स्वीकार की है । लेकिन उनकी आंखों देखी काट चर्म चक्षुओं के देखने से नहीं अपितु उनका तात्पर्य अनुभूति से है । वे कहते है – तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखिन की देखी ।

एक कहावत है – कोस – कोस पर पानी बदले, पांच कोस पे बानी ।

स्वामी रामसुखदास जी द्वारा लिखित साधक संजीवनी श्रीमद भगवद गीता में कहा है मानव द्वारा ध्वनि उत्पन्न करने के चार तरीके हैं – बाल से (सारंगी, एकतारा), खाल से (तबला, गोलक, मृदंग, डमरू), ताल से (हथेलियों से, समान को आपस में टकराने से जैसे चिमटा, मजीरे) और गाल - हवा से, फूंक से (बंशी, बीन, हारमोनियम) । कुछ ऋषि, महर्षि कहते है कि एकांत, शांत वातावरण में स्वयं के शरीर से उत्पन्न ध्वनि के कंपन से ही हिन्दी के वर्णमाला के अक्षरों की उत्पत्ति कही है । ये स्थान मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्धि, आज्ञा चक्र और सहस्त्राधार कहें हैं । संतों ने ही वाणी को पुन: विभाजित किया - परा, पश्यंती, मध्यमा और वैखरिणी । परा - वाणी का नाभि स्थान (मूलाधार), पश्यंती - वाणी का स्थान हृदय (अनाहत), मध्यमा – वाणी का गला (विशुद्धि) और वैखरिणी वाणी का स्थान मुख कहा है । सुनने की क्षमता केवल मध्यमा और वैखरिणी से ही है । ध्वनि आध्यात्म है, जब इसे पढ़ने और समझने के लिए लिपिबद्ध तरीके से आकारित कर दिया तो वह रूप की साकार है । उसको साकारित किया तो उसका जीवन/उम्र/आयु है । एक समय सीमा में नष्ट होना निश्चित है । यही साकार और निराकार का युग – युगों से चल रहा है और चलता रहेगा, यही श्रुति और स्मृति कहलाता है । श्रुति और स्मृति अध्यात्म हैं और उनको लिपबद्ध करना, आकारित करना ही साकार/भौतिक है । कुछ विद्वान इसी को शंकर जी के डमरू से निकले ध्वनि के 14 सूत्रों को ही महर्षि पार्णिनि ने व्याकरण का रूप दिया है । अहम ब्रह्मास्मि, वाक्य भी यही कहता है कि अ से ह तक अक्षर ज्ञान ही ब्रह्म ज्ञान है, इसमें क्ष, त्र और ज्ञ को संयुक्त अक्षर माना गया है, क्ष (क + छ), त्र (त + र) और ज्ञ (ग + य) हैं । समस्त जानकारी अ से ह तक अक्षरों में ही समाहित है । विस्तृत ज्ञान को ही विज्ञान कहा है । दूसरे ज्ञान का मानव हित के लाभकारी/उपयोगी दृष्टि से ही विज्ञान कहा है । विज्ञान का उपयोग आध्यात्म से ही संभव है जो एक निरंतर प्रक्रिया है ।

ज्ञान – ज्ञान (नोलिज) मानव को 5 ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख – देखना, कान – सुनना, नाक – सूंघना, जिव्हा – स्वाद और त्वचा – स्पर्श) के द्वारा होता है । तब वह कर्म व कर्मेन्द्रियाँ (हाथ – करना, पैर – चलना, लिंग – मूत्र द्वार – मूत्र त्याग, गुदा – मल द्वार – मल त्याग, और वाणी – बोलना) से करता है । कर्म से ज्ञान होना, ज्ञान से कर्म करना दोनों ही स्थिति हैं । लेकिन ज्ञान योग की अपेक्षा कर्म योग को किसी प्रकार से कम नहीं मानना चाहिए । कर्म योगी शरीर को संसार का ही मानकर उसको संसार की ही सेवा में लगा देता है । जबकि ज्ञान जब तक उपयोग न किया जाय तो किसी की ही सेवा नहीं हो सकती । इसलिए कर्म से संबन्धित रामचरित मानस में कहा है कि – “ कर्म प्रधान विश्व करि राखा “ गीता में कहा है कि – “ कर्मण्येवा धिकारस्ते मा फलेषु कदाचन, संस्कृत में कहा है कि – “ उध्यमेन हि कार्याणि सिद्धन्ति न मनोरथे, नहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रवशन्ति मुखे मृगा, हिन्दी में कहा है कि – “ कर्म ही पूजा है, और अंग्रेजी में Work is worship.“ (वर्क इज वरशिप) सभी कर्म प्रधानता को मानते हैं । कर्म में साकार (सगुण/जड़/क्षर) की प्रधानता है, जहां ज्ञान में निराकार (निर्गुण/चेतना/अक्षर) की मुख्यता है, अक्षर (जीवात्मा) की प्रधानता है ।

विज्ञान क्रमबद्ध ज्ञान ही विज्ञान है । विज्ञान में साकार (सगुण) की मुख्यता तथा कर्मयोग क्षर (संसार) की प्रधानता है । ज्ञान (निर्गुण/निराकार/चेतना – आध्यात्म) का विज्ञान (साकार/सगुण/जड़) के माध्यम से कार्यक्षेत्र में उपयोग इंजीनियरिंग (अभियांत्रिकी) के माध्यम से हो रहा है । वर्तमान में प्रौद्यौगिकी (टेक्नोलोजी/तकनीकी) का उपयोग इंजीनियरिंग से निम्न बिन्दुओं पर विचार करने हेतु प्रेरित करता है । टेक (TECH - टीईसीएच) का, 1 - टी (T) – टाइम/समय, 2 - ई (E) – एनर्जी (शक्ति), 3 – सी (C) कोस्ट (लागत/कीमत/मूल्य) और 4 – एच (H) – हारमोनी (स्वीकारना/पसंद) का महत्वपूर्ण योगदान है । किसी भी उत्पाद के उत्पादन में समय, शक्ति, कीमत में समानता होने पर भी ग्राहक की पसंद रंग आदि (जैसे एक ही मॉडल की कार, कपड़ा अथवा अन्य उत्पाद) से विक्रय होता है न कि विक्रेता से । यही कारण है कि प्रबंधक/उत्पादनकर्ता ग्राहक की पसंद (स्वीकारता) का अध्ययन करते हुए उत्पाद तैयार कराते हैं न कि स्वयं की सोच अनुसार । यही अध्ययन आध्यात्म हैं स्व – रुचि जो व्यक्ति विशेष पर निर्भर करती है ।“ “वसुधैव कुटुंबकम” “ के लिए विश्व बंधुत्वीकरण (ग्लोबलाइज़ेशन), उदारीकरण (लिबरलाइजेशन), प्रतिस्पर्धा (कंपटीशन) तथा पारदर्शिता (ट्रांसपेरेंसी) इस सभी पहलुओं के साथ कार्य करना पड़ता है ।

मानव शरीर से कर्म योग होता है, हृदय से भक्ति योग होता है, तथा मस्तिष्क से ज्ञान योग होता है । साकार जिसे दृश्य कहते हैं, उसे नेत्रों के द्वारा देखा जाता है । निराकार को हृदय में स्मरण किया जाता है, ध्वनि जो निराकार उसे कानों के द्वारा सुना जाता है । याददास्त – 25 प्रतिशत पढ़ने से, 35 प्रतिशत सुनने से, 50 प्रतिशत देखने से, 60 प्रतिशत बोलने से और 75 प्रतिशत करने से होती है । इसलिए कर्म प्रधानता को वरीयता दी जाती है । अन्न से ¼ मन, ¼ रक्त, ¼ शुक्र और ¼ मल बनता है ।

इसलिए कहा भी है कि –

भक्ति रहित ज्ञान अहंकार है । ज्ञान रहित भक्ति अंध विश्वास है । पाँच भूतों और तीन (सत, तम, और रज) गुणों को मिलाकर अष्टधा प्रकृति बनी है । इसी को दृश्य कहते हैं । कर्म से अहम शुद्ध होता है, ज्ञान से अहम मिटता है, भक्ति से अहम परिवर्तित होता है । मनुष्य शरीर केवल कर्म करने का साधन है, और कर्म केवल संसार के लिए ही होता है । मनुष्य योनि ही कर्म योनि है, पुराने कर्मों का फल भोग और नया पुरुषार्थ ।

संत विनोबा भावे की गीतानुसार - मनुष्य को वर्ण धर्म (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, और शूद्र) है और आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास) धर्म है । वर्ण धर्म बदलता नहीं है (बकरी का बकरीपन, स्त्री का स्त्रीपन, पुरुष का पुरुषपन) आश्रम धर्म बदलता है (ब्रह्मचर्य से गृहस्थ से वानप्रस्थ से सन्यास) बचपन – शिक्षा, व्यवसाय, सेवा आदि । आत्मा चेतन है उसकी आवश्यकता धर्म के सहारे उपलब्ध होगी, शरीर भौतिक है उसके सुविधा साधन भौतिक विज्ञान के सहारे जुटाए जा सकते हैं । ज्ञान के दो पक्ष विचारणा व संवेदना होते हैं ।

वैज्ञानिक अध्यात्मवाद : -

वैज्ञानिक अध्यात्मवाद को समझने के लिए हमें इस तथ्य पर ध्यान देना होगा कि हमारे समक्ष जो विश्व ब्रह्माण्ड है, वह मूलतः दो सत्ताओं से मिलकर बना है - एक जड़ व दूसरा चेतन । जड़ सत्ता अर्थात् पदार्थ का अध्ययन विज्ञान का विषय है जबकि चेतन सत्ता(आत्मा - परमात्मा) का अध्ययन अध्यात्म का विषय है । अतः इस ब्रह्माण्ड को पूरे तौर से समझने के लिए हमें इन दोनों ही सत्ताओं को ध्यान में रखना होगा ।

भारतवर्ष में अध्यात्म और विज्ञान का सदा से समन्वय रहा है । वेद एवं वैदिक वाग्म्य विज्ञान और अध्यात्म को साथ - साथ लेकर चलते हैं, फिर चाहे आयुर्वेद हो अथवा वास्तु । पश्चिमी देशों में भी एक लम्बे अर्से तक विज्ञान एवं अध्यात्म साथ - साथ रहे । प्रत्येक वैज्ञानिक ग्रन्थ में परमात्मा की चर्चा पाई जाती थी । सर आइजेक न्यूटन ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘प्रिन्सपिया’ में परमात्मा की चर्चा करते हुए लिखा है कि परमात्मा ने इस ब्रह्माण्ड की रचना की और इसे एक संवेग प्रदान किया, जिसके कारण वह गतिशील है । उन्होंने यह भी लिखा कि ब्रह्माण्डरूपी नाटक के मंच पर जब कोई विकृति पैदा होती है, तो परमात्मा स्वयं उसे ठीक करता है । यह भाव कुछ इसी तरह का है जैसा की गीता में कहा गया है -

‘‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।।
परित्रणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे युगे।।“

सामान्यतः किसी भी विषय का अध्ययन न तो केवल भौतिक है और न ही केवल अध्यात्मिक । सत्य की खोज के लिए हमें, विज्ञान एवं अध्यात्म दोनों पर विचार करना होगा और यही वैज्ञानिक अध्यात्मवाद का मूल है । विज्ञान और अध्यात्म में बुनियादी अंतर है जिसे समझने की जरुरत है विज्ञान अध्ययन का विषय है और जो अध्यात्म तो सुनने और समझने और अनुभव ही है ।

अध्यात्म वह ज्ञान, वह शक्ति है जो सृष्टि के आदि से पहले, मध्य में और अंत के बाद भी रहने वाला है । जो ईश्वरीय है, वह अध्यात्मिक है । अध्यात्म ईश्वरीय सत्ता की विवेचना और उसके ज्ञान से भी ऊपर आनंद मार्ग है । जो ज्ञान है, जो अज्ञान है वही विज्ञान है क्योंकि वह हमेशा अपनी यात्रा को एक सीमा प्रदान करता है । पाने, खोजने, ढूंढने की लालसा ही तो विज्ञान है । अध्यात्म ज्ञान - अज्ञान से परे है, खोजने - पाने की लालसा का अंत है । विश्व के प्राचीनतम ग्रंथ, चारों वेदों से ही समस्त उपनिषदों और शास्त्रों की उत्पत्ति हुई है । समस्त चराचर जगत से संबंधित गूढ़ से गूढ़तम विषयों का ज्ञान इन वेदों में निहित है । दुर्भाग्यवश यह समस्त ज्ञान जो हमारी सनातन संस्कृति में, परंपरागत रूप से समाज और जीवन में स्वतः संप्रेषित थी, वह आक्रांताओं द्वारा लूट ली गई और जब विदेशों से किन्ही किन्ही सिद्धांतों के नाम से आने लगीं, तो उसके ज्ञान ने हमें विज्ञानी बना दिया ।

अनंत शास्त्रों और विधाओं से भरपूर हमारे वेदों का ज्ञान, प्रथम युग - सतयुग से ही ऋषि मुनियों द्वारा गुरुकुल में समभाव से, राजा हो या रंक, उनकी संतानों को समान रूप से दिया जाता था। शरीर, मन, आत्मा के संतुलन हेतु योग सिखाया जाता था । अपनी मातृभूमि और संस्कृति के प्रति मस्तक तो क्या सदैव प्राण भी नतमस्तक होते थे । जीवन में आत्मनिर्भरता हेतु समस्त विधाओं को अनेक शास्त्रों के नाम से उचित समय पर सिखाया जाता था । इन्हीं लुप्त विधाओं में से कुछ को यत्र - तत्र से एकत्रित कर अत्यंत प्राथमिक ज्ञान को ही विज्ञान नाम से पूरे संसार में सिरमौर बना दिया गया । हम मानें या ना मानें हम शाश्वतरूपीय आध्यात्मिक हैं क्योंकि हम ईश्वरीय हैं । ईश्वर अंश जीव अविनाशी, किंतु वैज्ञानिक होने के लिए हमें कुछ मानना तो पड़ता है, प्रमाण देना तो पड़ता है ।

विस्मयकारी तो तब होता है जब आज पूरा संसार विज्ञान के राग अलाप रहा है, तो यह क्यों नहीं पता चल पाता कि मनुष्य की औसत आयु इतनी सुविधा संपन्न होते हुए भी कम क्यों हो गई? कुछ लोग वातावरण, पर्यावरण, खानपान, प्रदूषण इत्यादि के नाम गिना सकते हैं । तो क्या यह विज्ञान की देन नहीं है? चलो ठीक है, कोई ऐसा विज्ञान नहीं आ पाया जो मनचाही संतति दे सके औसत आयु 100 वर्ष की । हां, किंतु अध्यात्म इसे दे सकता है, वह भी बुद्धि, मेधा और प्रज्ञा के अतुल्य प्रकाश के साथ ।

एक औसत सफल जीवन जीने के लिए महज हमारे सोलह संस्कार ही विज्ञान की हर एटोमिक (Atomic) मोलीक्युलर थ्योरी (molecular theory) और प्रिन्सीपिल्स ऑफ लाइफ (principles of life) को चुनौती देते हैं ।

विज्ञान ने जिन साधनों को तैयार किया है, उसने समाज को आलस्य प्रमाद से ही भरा है और उसकी आत्मनिर्भरता, परिष्करण, आत्म, विवेचना, मानवीय मूल्यों का हरण कर लिया है । हमने जीवन को सुंदर आत्मयात्रा से फास्ट फॉरवर्ड लाइफ (fast - forward life), रफ्तार की जिंदगी में बदल दिया है । मनुष्य के गुणों की तुलना उसके आत्म साक्षात्कार से, आत्मा की यात्रा के पथ पर बढ़ते कदम के स्थान पर, उसने कितना अर्थ संचय किया या कौन सा लौकिक पद पा लिया, इससे होने लगी है । क्योंकि परम पद का ज्ञान विरासत में ही नहीं मिला है । मिला तो बस एक ज्ञान रफ्तार का, भागने दौड़ने का, आगे बढ़ने का, इस बात से अनभिज्ञ कि मार्ग कौन सा है ? वास्तव में जो हमारा प्राचीन विज्ञान है, जिसकी उत्पत्ति वेदों से हुई है, उससे हमारे पास उच्चतम तकनीक और दुर्गमता को सुगमता में बदलने के उत्कृष्टतम साधन थे । किंतु आधुनिक विज्ञान ने मनुष्य को व्यक्ति में बदल डाला है । हमारी यात्रा को दौड़ में, शांति को सफलता में, सुख को प्रमाद में, संतुष्टि को संचय में बदल दिया है । वास्तव में आध्यात्मिक विज्ञान में स्थूल और सूक्ष्म शरीर में भेद हैं, यद्यपि वह एक साथ ही रहते हैं । और हमारी सारी आत्मशक्ति इसी सूक्ष्म शरीर में निहित है, जो जीवंत अवस्था में भी शरीर से निकलकर ब्रह्मांड की यात्रा करने में अत्यंत सक्षम है । इसके अनेक प्रामाणिक तथ्य योगियों ने हमें विरासत में दिए हैं । आधुनिक विज्ञान मृत शरीर को भी जीवन रक्षक प्रणाली तंत्र पर रखकर अर्थ संचय में विश्वास करता है और उसी मार्ग पर चलने की प्रेरणा भी देता है ।

जो पुरातन है, चिरंतन है, आदि मध्य और अंत से परे है, सत्य - सनातन है, जीवन में शांति कारक है, वही अध्यात्म है । जो नश्वर है, आदि मध्य और अंत से किसी भी रूप में संबंधित नहीं है, आत्मीय तत्वों से परे है, वह विज्ञान है । एक अलौकिक पारलौकिक है तो दूसरा लौकिक है । एक प्रेम, शांति, आनंद से परिपूर्ण यात्रा पथ है तो दूसरा खोजने पाने की होड़ है, अंतहीन दौड़ है ।

विज्ञान और भगवान के बीच कोई आपसी टकराव नहीं है । दोनों अपने अपने यथास्थान पर स्थित हैं और अगर हम अपनी सोच का स्तर थोडा ऊँचा करके देखेंगे तो हम पाएंगे कि विज्ञान और भगवान दोनों एक दूसरे के पूरक हैं । ब्रह्माण्ड में जितने भी ग्रह नक्षत्र तारे बल उर्जा है । सारे कहीं न कही एक दूसरे से जुड़े हुए हैं । मगर विषय के तौर पर दोनों भिन्न हैं विज्ञान प्रमाणिक आधारो पर मिलने वाले वास्तविक ज्ञान का संग्रह है जबकि ईश्वर अध्यात्म, धर्मशास्त्र और आस्था का विषय है ।

भारत की विशेषता अध्यात्म है और पाश्चात्य जगत की विशेषता विज्ञान है ।

अध्यात्मिक दृष्टि से पुरुष और नारी अभेद हैं अथवा कह सकते हैं कि अध्यात्म में लिंग भेद नहीं होता । वैसे भी ईश्वर साक्षात्कार का अधिकार प्रत्येक को है । पुरुष संतों की भांति हमारे देश में स्त्री संतों की लंबी परम्परा है । स्त्री संतों ने अपनी आध्यात्मिक साधना के बल पर स्वनुभावों को पदों और गीतों में उतारा है । भारतीय ज्ञान परम्परा – ऋषि – मुनियों की कृपा से श्रुति, स्मृति, वेदांग, चौदह महाविद्या और चौंसठ कलाओं के मूल तथ्यों का ज्ञान हो सकता है । भारतीय ज्ञान परंपरा के मूल स्रोत हैं – वेद । वेद भारतीय धर्म, दर्शन, संस्कृति, साहित्य के मूल स्रोत हैं ।

वैदिक साहित्य का विकास चार चरणों में हुआ । वे संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद कहलाते हैं । मंत्रो और स्तुतियों के संग्रह को संहिता कहते हैं । ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद मंत्रों की संहिता ही हैं । इनकी भी अनेक शाखाएँ हैं । वेद मंत्रों में जीवन के प्रति आस्था तथा जीवन का उल्लास ओतप्रोत है ।

वेदों में मंत्र प्राचीन भारतीयों के संगीतमय लोककाव्य के उत्तम उदाहरण हैं । ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद ग्रन्थों में गद्य की प्रधानता है, यद्यपि उनका यह गद्य भी लययुक्त है । ब्राह्मण ग्रन्थों में यज्ञों की विधि, उनके प्रयोजन, फल आदि का विवेचन है । आरण्यक ग्रन्थों में आध्यात्मिकता की ओर झुकाव दिखाई देता है । जैसा कि नाम से ही विदित होता है, ये वानप्रस्थियों के उपयोग के ग्रंथ हैं । उपनिषदों में आध्यात्मिक चिंतन की प्रधानता है ।

उपनिषदों का दर्शन आध्यात्मिक है । ब्रह्म की साधना ही उपनिषदों का मुख्य लक्ष्य है । आत्मा, विषय जगत, शरीर इंद्रियाँ, मन, बुद्धि आदि सभी अगम्य तत्वों से परे एक अनिर्वचनीय और अतीन्द्र तत्व है, जो चित्स्वरूप, अनंत और आनदमय है । आत्मा ही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप है । उसका साक्षात्कार करके मनुष्य मन के समस्त बंधनों से मुक्त हो जाता है । अद्वैत भाव की पूर्णता के लिए आत्मा अथवा ब्रह्म से जड़ जगत की उत्पत्ति कैसे होती है, इसकी व्याख्या के लिए माया की अनिर्वचनीय शक्ति की कल्पना की गई है । किन्तु सृष्टिवाद की अपेक्षा आत्मिक अद्वैत भाव उपनिषदों के वेदान्त का अधिक महत्वपूर्ण पक्ष है । यही अद्वैत भाव भारतीय संस्कृति में ओतप्रोत है । दर्शन के क्षेत्र में उपनिषदों का यह ब्रह्मवाद आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि के उत्तरकालीन वेदान्त मतों का आधार बना ।

वेदों का अंतिम भाग होने के कारण उपनिषदों को “ वेदान्त “ भी कहते हैं । उपनिषदों का अभिमत ही आगे चलकर वेदान्त का सिद्धान्त और संप्रदायों का आधार बन गया । 

वेद और उपनिषद के बाद भारतीय साहित्य के महत्वपूर्ण ग्रंथ हैं – पुराण, भागवत, रामायण, महाभारत, गीता इत्यादि ।

इसलिए मैथिलीशरण गुप्त ने कहा है –

जिसको न निज गौरव तथा निज देश का अभिमान है ।
वह नर नहीं नर पशु निरा है और मृतक समान है ॥

विडम्बना – आज हम भारतीय भी अंग्रेजी कलेंडर से अपना जन्म दिन आदि मनाते है, फिर भी भारतीय पर्व होली, रक्षाबंधन, दशहरा दिवाली पर्व भारतीय पंचांग से ही मनाते हैं ऐसा क्यों ? यह भारतीय गणना का ही कमाल है, क्योंकि होली व रक्षाबंधन पूर्णमासी, दशहरा दशमी और दिवाली अमावस्या तिथि को ही मनाते हैं । यह सत्य नहीं होता कि हर माह अमुख तिथि को ये त्यौहार आएँ ।

सामान्यत: पश्चिम और पूर्व की विचार धारा और जीवन पद्धति का अंतर यही है । भारत ने पूर्व काल में साधन संपन्नता, सुखोपभोग और ऐश्वर्य का अनुभव ही नहीं लिया था अपितु चरमोत्कर्ष के शिखर को प्राप्त करने के बाद जीवन की सफल – सम्पूर्ण व परम संतुष्टि का मार्ग निर्धारित किया था । सब कुछ प्राप्त कर लेने और उसका यथेष्ट उपभोग करने के पश्चात भारतीयों ने यह जान लिया था कि भौतिक सुख का उपभोग जीवन का एक अंश मात्र है, अंतिम लक्ष्य नहीं है । यह सही है कि रोटी, कपड़ा, मकान और सुरक्षा मनुष्य जीवन की अनिवार्य आवश्यकताएं हैं । इसके बिना मनुष्य शरीर जीवित नहीं रह सकता । ये आवश्यकताएं मनुष्य के शरीर भर की है । लेकिन मनुष्य केवल शरीर नहीं है, उसमें अंत: करण – मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार होता है । जो मनुष्य केवल शरीर के स्तर पर जीता है वह मनुष्य के रूप में पशु होता है । मनुष्य और पशु में अंतर भी यही है । पशु शरीर स्तर पर जीता है और मनुष्य मन – बुद्धि के स्तर पर जीवन जीता है, कहा गया है –

येषांम विद्या न तपो न दानम, ज्ञानम न शीलम न गुणो न धर्मा । ते भू भार भूता, मनुष्य रुपेण मृगाश चरंती । आहार निंद्रा भय मैथुन च सामान्य मेतत पशुर्भिनराणाम ।

शरीर की आवश्यकताओं की तरह मन और बुद्धि की अपनी आवश्यकताएं होती है । सम्पूर्ण संतुष्टि के लिए उन आवश्यकताओं की पूर्ति होना भी जरूरी होता है । तब तक मनुष्य को चैन नहीं मिलता । मन और बुद्धि की आवश्यकताओं में आध्यात्म, कला, साहित्य, जीवन के उद्देश्य को जानने की इच्छा आती है ।

कहावत है कि एक दूसरे के माथे पर ठीकरा (पूर्व, पश्चिम) फोड़ कर अपनी खाल बचाने से काम नहीं होगा । चुनौतियां, समस्याएं, कठिनाईयां सदैव रही हैं एवं भविष्य में भी रहेंगी । उनका सामना करना ही होता है । बुद्धिमता व कुशलता सही ढंग से सामना करने में है । कहा जाता है कि मनुष्य जो चाहता है वह पूरा होता है । बस विश्व शान्ति और विश्वबंधुत्व की आड़ में देश को न भुलाया जाय क्योंकि जब देश नहीं होगा तो फिर शेष क्या बचा ? एक आर्थिक आतंक भी है जिसके विस्तार में बहुराष्ट्रीय कंपनियों का विशेष योगदान है । हमारी आवश्यकता, रहन – सहन, रुचि, सामर्थ्य का ध्यान रखकर वस्तुओं का उत्पादन तथा वितरण न कर अपने उत्पाद को खपाने का कुचक्र व उसके लिए हर प्रकार का षडयंत्र करना इस श्रेणी में आता है । वैश्वीकरण व बाजारवाद के साये में उपभोक्तावाद खूब फल - फूल रहा है । धुआंधार विज्ञापनों के ज़ोर पर गैरजरूरी सामान मनमाने मूल्य पर बेचा जाता है । परिणाम में सामर्थ्य से अधिक व्यय एवं सामाजिक प्रतिबद्धता के कारण दूसरे की बराबरी करने के फेर में लोग कर्ज – बाजारी हो रहे हैं । फिर इसकी पूर्ति के लिए सब प्रकार के धतकर्म होते हैं । इसी कारण अनैतिक आचरण, भ्रष्टाचार, रिश्वत आम बात हो गई है । विडम्बना ही है कि जीवन का अनैतिक व भ्रष्टाचारी होना अब व्यक्ति में अपराध बोध नहीं जगाता अपितु ईमानदार ही अपराध बोध व कुंठा से ग्रस्त दिखाई देता है ।

(इंजी - रनवीरसिंह, सेवानिवृत्त अति मुख्य अभियन्ता विद्युत विभाग)

(Er. Ranvir Singh, Retired Add. Chief Engineer Electricity department) Email: - er.rsingh55@gmail.com