Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Jhunjhunu Jile Ke Gandhi

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

द्धितीय खण्ड - सम्मत्ति एवं संस्मरण

21. झुंझुनू जिले के गाँधी जी

चन्द्रसिंह एडवोकेट, नवलगढ़

"होनहार बिरवान के होत चिकने पात" श्री करणीराम जी जब छोटे ही थे और स्कूल में पढ़ते थे, तभी सच्चाई और सादगी में बहुत विश्वास रखते थे। इनके मामा जी श्री मोहनराम जी चौधरी अजाड़ी की प्रशंसा करनी पड़ेगी कि उन्होंने इस रत्न को बचपन में ही पहचान लिया था और अपने पुत्रों से भी ज्यादा स्नेह व प्यार करणीराम जी को दिया तथा उनकी तमाम शिक्षा का प्रबन्ध किया। बाद में तो यह पूर्णतया साबित हो गया था कि मोहनराम जी ने अपना पूरा प्यार इन पर निछावर कर दिया।

इस समय यह किसको पता था, कि यही बच्चा एक दिन झुंझुनू जिले में ही नहीं अपितु समस्त राजस्थान में प्रसिद्धि प्राप्त कर लेगा।

करणीराम जी ने वकालत आरम्भ की उसके कुछ समय बाद ही टी.बी.के असाध्य रोग से ग्रसित हो गये। उन दिनों टी.बी.लाइलाज रोग माना जाता था और जिसके टी.बी.हो गई उसकी मृत्यु तो निश्चित ही मानी जाती थी। उन्हें जब अंग्रेजी व आयुर्वेदिक दवाओं से लाभ नहीं हुआ तब प्राकृतिक चिकित्सा आरम्भ की। अजाड़ी में खेत में टापी बनाकर एकान्त में जीवन बिताने लगे और प्राकृतिक उपचार किया, पर इससे भी ठीक न होने पर उन्हें जयपुर टी.बी. अस्पताल में भर्ती कराया, जहां से ठीक होकर वापस झुंझुनू लौट आये।

झुंझुनू में आकर फिर वकालत शुरू की। वैसे उन दिनों झुंझुनू में बड़े


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नामी वकील भी थे, जैसे श्री चन्द्रभान जी भार्गव,जो बाद में राजस्थान उच्च न्यायालय के न्यायाधीश भी रहे। श्री नरोत्तम लाल जी जोशी, जो बाद में राजस्थान के न्याय मंत्री भी रहे और राजस्थान राज्य विधान सभा के अध्यक्ष भी रहे। श्री विद्याधर जी कुल्हरि जो अब भी झुंझुनू के प्रमुख वकील हैं। श्री मदनलाल जी शाह, श्री गिरधरगोपाल जी भार्गव आदि प्रभावशील वकील थे, परन्तु श्री करणीराम जी की वकालत कुछ और ही तरह की थी। उनका यह नियम था कि वे झूठे मुकदमें नहीं लेते थे। मुकदमा लेने से पहले ही वे उसकी पूरी छान बीन कर लेते थे और जब उन्हें विश्वास हो जाता था, कि यह मामला सही और सच्चा है तभी उस मुकदमें को हाथ में लेते थे।

समझौता कराने के बहुत पक्ष में थे और बहुधा दोनों पक्षों को समझा कर उनमें राजीनामा करवा देते थे। उन्होंने वकालत के पेशे को गरिमा प्रदान की। अदालतों में यह प्रसिद्ध हो गया था कि करणीराम जी जिस मुकदमें में वकील होते थे वह झूंठा नहीं हो सकता। बहस के वक्त तो कई बार ऐसा भी होता था, कि अदालत करणीराम जी से ही पूछ लेती थी, कि आप ही बतलाइये कि सही पक्ष कौनसा है। कभी भी अवसर नहीं आया, जब करणीराम जी का कहना झूंठा हो। इतना विश्वास प्राप्त कर लेना बहुत बड़ी बात है।

करणीराम जी गरीबों के दास थे। कोई भी गरीब उनके पास आता था, तो वकालत की फीस लेने का तो प्रश्न ही नहीं उठता बल्कि उसके मुकदमें का तमाम खर्चा अपने पास से लगाते थे, तथा उसके खाने पीने का खर्चा भी स्वयं ही उठाते थे।

वे कांग्रेस के वास्तविक कर्मठ कार्यकर्त्ता थे। उनकी कथनी और करनी में कभी भी कोई अन्तर नहीं आया। छुआछूत का तो कहीं नामोनिशान भी नहीं था। उस जमाने में जबकि देश की आजादी का संघर्ष चल रहा था, बहुत से कार्यकर्त्ता हरिजन के हाथ का खाना नहीं खाते थे परन्तु करणीराम जी के यहाँ झुंझुनू में ऐसा प्रबन्ध था, कि जो भी मुकदमे वाले आते थे, वे सब उनके यहीं खाना खाते थे।


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करणीराम जी ने रसोइया एक हरिजन रख रखा था। वह ही खाना बनाता व पानी पिलाता था। इस तरह से जितने भी करणीराम जी के यहाँ आते थे, वे सब उसी हरिजन के हाथ का खाना खाते थे व उसी के हाथ का पानी पीते थे। ऐसा उदाहरण बहुत ही दुर्लभ था।

करणीराम जी के यहाँ मुकदमे वालों की बहुत भीड़ रहती थी,वे फीस के बारे में किसी को कुछ नहीं कहते थे परन्तु फिर भी उनको लोग फीस कई कई मामलों में अच्छी भी देते थे। एक बार हमने उनकी फीस व खर्चे का हिसाब लगाया तो उनके एक महीने की फीस 3200/- रूपये आई, जो उस जमाने में बहुत अच्छी फीस थी परन्तु जब हमने उनके खर्चे का हिसाब लगाया तो उस माह का खर्चा 3600/- रूपये था। अब आप सोच लीजिये कि वह कितने दरियादिल आदमी थे। उनका स्वयं पर कोई खर्चा नहीं था। तमाम पैसा लोगों के खाने पीने में खर्च होता था।

करणीराम जी सादगी के प्रतीक थे। "सादा जीवन उच्च विचार" के वे आदर्श थे। वे पेंट भी नहीं पहनते थे तथा गर्म कोट भी नहीं रखते थे। अदालत के लिये एक काला कोट और वह भी ठण्डा ही रखते थे। उनके पास पोशाक के लिए केवल दो धोती, दो कुर्ते व एक जाकिट होते थे, इसके अलावा पहनने को और कुछ नहीं रखते थे। ठण्ड के मौसम के लिये एक काला कम्बल रखते थे।

बात उन दिनों की है, जब उदयपुरवाटी भोमियों व जागीरदारों के जुल्मों से त्रस्त था। काश्तकारों का वहां जीना दूभर था। लाग बाग इतनी अधिक थी कि काश्तकारों के पास कुछ भी नहीं बचता था, और उन्हें बोहरों (महाजनों) से उधार लाकर अपना काम चलाना पड़ता था। इतनी दयनीय दशा से करणीराम जी बड़े चिन्तित थे। काश्तकारों के झुण्ड के झुण्ड उदयपुरवाटी से आकर करणीराम जी को अपनी दुःखद कहानी कहते थे, तो वे द्रवित हो जाते थे और अन्त में उन्होंने उनके उद्धार के लिए अपनी कमर कस ली। उदयपुरवाटी जाकर काश्तकारों के प्रतिनिधियों व कार्यकर्ताओं की एक मीटिंग बुलाई। वहां सब बातों पर विचार विमर्श हुआ।


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करणीराम जी ने देखा कि वहां के जागीरदार भी बहुत थोड़ी थोड़ी भूमि के थे, उनकी हालत भी कोई बहुत अच्छी थी, नहीं परन्तु वे अपने जुल्म ज्यादतियों के लिए मशहूर थे, फिर भी करणीराम जी के दिमाग में उनके भी भले की योजना थी। उन्होंने काश्तकारों व कार्यकर्ताओं से कहा कि "मैं एक शर्त पर ही आप लोगों का आन्दोलन अपने हाथ में ले सकता हूँ। जब मैं कहूंगा तब आप लोगों को अपनी भूमि में से चौथे हिस्से की जमीन छोड़नी पड़ेगी।" इस पर काफी बहस भी हुई, परन्तु अन्त में काश्तकार इसके लिए तैयार हो गये। करणीराम जी का मानना था कि जागीरदारी समाप्त होगी, तो ये जागीरदार (भोमियाँ) कहाँ जायेंगे। इनको भी भरण पोषण से लिए जमीन चाहिये और उस समय यह चौथे हिस्से की जमीन उनको काश्त के लिए दे दी जायेगी। ऐसी उच्च भावना व दूरदर्शिता करणीराम जी में थे, परन्तु भौमियां इस बात को समझ ही नहीं सके और उन्होंने अपनी गलती से अपना ही खात्मा कर लिया।

सन 1951 में जब उदयपुरवाटी से कांग्रेसी उम्मीदवार विधानसभा के लिए खड़ा करने का प्रश्न आया, तो उदयपुरवाटी से चुनाव लड़ने का कोई साहस नहीं कर सका,क्योंकि एक तो यह इलाका खुंखार और बदनाम था,दूसरे यहां से चुनाव जीतने का तो प्रश्न ही नहीं था। जब 1944 में प्रतिनिधि सभा के चुनाव हुए थे, तो इस क्षेत्र से तीन हजार मतों में से कांग्रेस को केवल एक ही मत मिला था, अन्त में करणीराम जी को ही इस क्षेत्र से टिकट देने का निश्चय किया। क्योंकि करणीराम जी इस क्षेत्र की हालत से काफी चिन्तित थे,इसलिए इस इलाके को और नजदीक से देखने को लोगों से सम्पर्क स्थापित करने का माध्यम मान कर इस टिकट रुपी जहर को भी भगवान शिव की तरह स्वीकार किया।

चुनाव के दौरान एक मीटिंग तो झाझड़ में करने का प्रोग्राम बनाया। उन दिनों झाझड़ के लिए यह मशहूर था, कि वहां कांग्रेस की मीटिंग का तो सवाल ही क्या था। उस गाँव से कोई सफेद टोपी पहन कर भी नहीं निकल सकता था, परन्तु करणीराम जी ने इतने आंतक के बाद भी वहां सफलतापूर्वक मीटिंग की। करणीराम जी के सौम्य व्यक्तित्व व सरल स्वभाव व मीठी वाणी के सामने कोई भी विरोधी कुछ नहीं बोला।


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चुनाव के सिलसिले में ही दिसम्बर 1951 में पौंख में कांग्रेस की एक सभा आयोजित करने का कार्यक्रम बना। यह क्षेत्र "आठों ढहर" के नाम से मशहूर है, जिसमें पौंख, गुढा, नेबरी, चंवरा, दीपपुरा, किशोरपुरा, कंकरानागढला शामिल है। इन ढ़हरों के काश्तकारों की हालत सबसे खराब थी। यहां जागृति नाम की कोई चीज नहीं थी और यहां के काश्तकार बड़े आतंकित थे, तथा भौमियों के साथ संघर्ष करना तो दूर ये उनके सामने खड़े भी नहीं हो सकते थे।

इन सब गाँवों में भी पौंख व दीपपुरा अगुवा थे। इसलिए यह निश्चय किया गया कि लोगों का भय दूर करने के लिए एक सभा पौंख में अवश्य की जाये, ताकि लोगों में कुछ चेतना आये, चूँकि यह क्षेत्र आतंक पूर्ण था और वहां उपद्रव होने की पूरी स्थिति थी। इस कारण सरकार ने विशेष सशस्त्र पुलिस का प्रबंध कर रखा था। दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में दोपहर के बाद सभा आयोजित की गई। सशस्त्र पुलिस का पूरा प्रबंध था, तथा तत्कालीन एस. डी.एम.श्री रामेश्वर दयाल जी गुप्ता भी मौजूद थे।

पौंख सब तरफ से पहड़ियों से घिरा हुआ था, तथा वहां जाने व आने का एक ही रास्ता था। पौंख में सान्दी के पास यह सभा हुई। आसपास के किसान काफी मात्रा में आये, परन्तु भौमियों ने इस सभा को भंग करने का बड़ा अजीबो गरीब तरीका अपनाया। भौमियों के डावड़े (नौजवान) मीटिंग में आये और मीटिंग में बैठे किसानों से आँखों में आँखे डाल कर उन्हें वहां से उठकर चले जाने का इशारा किया। इस क्षेत्र के लोग भौमियों के डर से बड़े आतंकित थे, इस वास्ते उनके इशारों पर धीरे-धीरे उठकर जाने लगे। आश्चर्य की बात थी कि धीरे-धीरे लगभग सभी किसान वहां से उठकर इन डावड़ों के पीछे चले गए।

जब करणीराम जी बोलने खड़े हुए तो उस सभा में उस क्षेत्र के किसानों की उपस्थिति नगण्य थी, परन्तु करणीराम जी ने अपने भाषण में कहा कि भौमियान चाहे अपने आंतक से सुनने वालों को डरा कर ले जायें, परन्तु पौंख की दीवारें मेरा संदेश सुनेंगी और यह जुल्म ज्यादती व आंतक समाप्त होकर रहेगा। करणीराम जी जब फिर बोलने से न रुके तो उन्होंने ऊंचाई पर से शस्त्रों का प्रदर्शन किया और ऐसा आतंक फैलाया कि सभी भौमियां हथियार लेकर हमला


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करने वाले है, मन्दिर के पुजारी बड़े भयभीत हो रहे थे और वे बार=बार हाथ जोड़कर कह रहे थे कि सभा खत्म कर दो, नहीं तो यहां खून खराबा हो जायेगा परन्तु करणीराम जी ढृढ़ थे और उन्होंने अपना भाषण जारी रखा और वे काफी देर तक बोलते रहे।

इस सभा से उस क्षेत्र में कांग्रेस पक्ष में बड़ी हवा फैली और चुनाव में हालांकि वहां करणीराम जी का एजेंट भी नहीं बैठ पाया, परन्तु फिर भी लोगों ने उनके पक्ष में काफी वोट डाले। हालांकि यह तो निर्विवाद था, उस क्षेत्र से करणीराम जी के जीतने का प्रश्न ही नहीं था, परन्तु आशा से विपरीत मुकाबला बड़ा जबरदस्त रहा और करणीराम जी इस स्थिति में भी केवल करीब पन्द्रह सौ वोटों से ही हारे।

इस चुनाव के हारने के बाद लोगों की आम धारणा यह थी कि अब भौमियों का आतंक और भी तेज होगा, परन्तु करणीराम जी ने चुनाव हारने के बाद और भी तेजी से इस क्षेत्र में काम करना शुरू कर दिया और काश्तकारों में ऐसी जागृति फैलाई कि भौमियान भी हक्के बक्के रह गए। जिस तरह से महात्मा गाँधी ने बिहार में चम्पारन का आन्दोलन चलाया उसी तरह से करणीराम जी ने उदयपुरवाटी का आन्दोलन चलाया। उस समय के चम्पारन में जनता का दमन होता था, उससे भी अधिक दमन उदयपुरवाटी में था, परन्तु प्रातः स्मरणीय करणीराम जी ने जनता में नवजीवन पैदा कर दिया और ऐसी स्थिति पैदा कर दी कि भौमियों के दमन के विरुद्ध जनता उठ खड़ी हुई।

करणीराम जी की यह जागृति की कहानी अपूर्ण रहेगी, यदि इसमें श्री रामदेव जी का उल्लेख न होगा। श्री रामदेव इस क्षेत्र की जागृति के अगुवा थे और वे छाया की तरह करणीराम जी के साथ थे। रामदेव जी में संगठन की अद्भुत शक्ति थी। कहा जाता था कि रामदेव जी ऐसे नेता थे, जो पानी में भी आग लगा सकते थे, और उन्होंने गाँव गाँव व घर घर घूम कर जागृति व आजादी का अलख जगाया।


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करणीराम जी को यह पूर्वाभास था, कि इस क्षेत्र में बलिदान हुए बिना यह यज्ञ पूरा नहीं होगा। कुछ विशिष्ट कार्यकर्ताओं की छोटी सी मीटिंग बुला कर उन्होंने स्पष्ट कहा था, कि हममें से किसी को अपना खून देना पड़ेगा तभी उदयपुरवाटी में जागृति आयेगी। उन्होंने कहा कि यह सोचना निर्मूल होगा कि उदयपुरवाटी के काश्तकार स्वयं बलिदान देने के लिए खड़े हो जायेंगे।

सब तरफ से करणीराम जी व रामदेव जी को यह सूचना मिल गई थी कि भौमियां उन्हें मारेंगे, परन्तु वे तो जनता का उद्धार करने के लिए कटिबद्ध थे। इस वास्ते जीवन का मूल्य उनके सामने नगण्य था। धन्य है इस क्षेत्र की माटी को जिसने करणीराम जी व रामदेव जी जैसे रत्न पैदा किए और जिन्होंने जनता की सेवा में अपने प्राण निछावर कर भारत माता का गौरव बढ़ाया।

उस करणीराम जी के साथ कार्यकर्ताओ की बहुत बड़ी फौज इकठ्ठी हो गई थी। करणीराम जी झुंझुनू से ऊंट गाड़ी में रात को चलते थे और सवेरे उदयपुरवाटी पहुंच जाते थे, परन्तु जनता को क्या पता कैसे इसका पता चल जाता कि वे हजारों की संख्या में उदयपुरवाटी में करणीराम जी के पास मौजूद मिलती। करणीराम जी में कोई विशेष आकर्षण शक्ति थी, जिससे लोग उनकी तरफ खींचे आते थे और एक बार जो उनसे मिल गया, वह उन्हीं का होकर रह गया।

करणीराम जी के उस समय के साथियों में रामदेव जी हरदम साथ रहते थे। श्री शिवनाथ सिंह जो बाद में एम.पी.बने, श्री कन्हैया लाल जी जो बाद में एम.पी.बने, श्री भागीरथ मल जी एडवोकेट जो बाद में नवलगढ़ पंचायत समिति के कई बार प्रधान बने तथा श्री हनुमानप्रसाद बावलिया वकील उदयपुरवाटी उनके विशिष्ट कार्यकर्ताओं में थे। इसके अलावा श्री रामदेव जी का तो पूरा परिवार व गीला की ढाणी के सब निवासी बहुत सक्रिय थे।

श्री करणीराम जी ने तमाम कार्यकर्ताओं का बड़ी अच्छी ढंग से मार्ग दर्शन किया और तमाम आन्दोनल को बड़े अच्छे ढंग से चलाया। श्री करणीराम जी में नेतृत्व के जन्मजात गुण थे। यह इस क्षेत्र का व राजस्थान का दुर्भाग्य था कि ऐसे कुशल व सर्वमान्य नेता को कुछ बिगड़े दिमाग के लोगों ने अपने निहित


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स्वार्थ हेतु असमय में ही हमसे अलग कर दिया,नहीं तो करणीराम जी जैसे आदमी इस क्षेत्र के ही नहीं बल्कि सारे प्रान्त की ही काया पलट कर देते। मुझे भी उनके साथ रहने का व काम करने का सौभाग्य मिला था और ऊपर की सब बातें अपने स्वयं के अनुभव के आधार पर लिखी हैं। ऐसा महापुरुष सदियों के बाद ही पैदा होता है। वे सच्चे अर्थो में इस क्षेत्र के गांधी थे।


"मैं नहीं जानता कि मैं कर्मयोगी हूँ या और कोई योगी, मैं बस इतना जानता हूँ कि मैं काम के बिना जीवित नहीं रह सकता।"


महात्मा गाँधी


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