Shekhawati Ke Gandhi Amar Shahid Karni Ram/Shri Karni Ram Ek Amar Jyoti

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पुस्तक: शेखावाटी के गांधी अमरशहीद करणीराम

लेखक: रामेश्वरसिंह, प्रथम संस्करण: 2 अक्टूबर, 1984

द्धितीय खण्ड - सम्मत्ति एवं संस्मरण

शिवनाथ सिंह
10. श्री करणीराम: एक अमर ज्योति

शिवनाथ सिंह

भूतपूर्व सांसद।

भ्र्ममय एवं नश्वर संसार

इस संसार को भ्र्ममय एवं नश्वर कहा गया है। सृष्टि के अस्तित्व में आने के समय से लगातार अनुसंधान व खोज का कार्य होता आया है कि वास्तविकता क्या है, अनेक ऋषि मुनियों ने अपना सम्पूर्ण जीवन इस तथ्य को जानने में लगा दिया कि जो कुछ हम देख या समझ रहे हैं क्या यह सत्य है या इससे भी परे कोई और शक्ति है जो इस सबको संचालित कर रही है। श्री कृष्ण जैसे महायोगी हो चुके है जिन्होंने अपनी ज्ञान शक्ति से समस्त प्राणी मात्र को कुछ समझाने की चेष्टा की छुपे-रहस्य का अर्जुन को ज्ञान करवाने का प्रयत्न किया और एक ऐसी स्थिति पैदा करने की चेष्टा की कि जो कुछ हम देख रहे समझ रहे है वह सब मिथ्या है झूठा व भुलावा है वास्तविकता कुछ और ही है और इसी मान्यता के आधार पर पृथ्वी से पाप को समूल नष्ट कर धर्मराज कायम करने की अभिलाषा से महाभारत जैसा महायुद्ध रचा दिया। लेकिन परिणामों का विश्लेषण जब करते है तो श्री कृष्ण का यह प्रयोग भी महा असफलता को प्राप्त हुआ। महाभारत के युद्ध के बाद की स्थिति को देखकर कृष्ण स्वयं आत्मग्लानि से भर गए और उन्होंने पाया कि क्या सोच कर यह विध्वंस कराया गया था और परिणाम कितना भयंकर विपरीत निकला। पाण्डव आत्मग्लानि की ज्वाला से नहीं बच सके और निराशा होकर राजपाट सब छोड़ गये। और भी अनेक महान विभूतियां अवतरित हो चुकी है जिन्होंने सत्य की खोज में अपना सर्वस्व समर्पित कर दिया मगर सम्पूर्ण सत्य का ज्ञान नहीं कर पाये।

इस संसार को भ्र्ममय कहा गया है और सब का सार यही निकलता है कि संसार को जैसा है उसी रूप में माना जाकर अपना कर्म करते रहना चाहिए। यही सबसे बड़ा ज्ञान है। अनेक पराक्रमी हुए है जिन्होंने अथक परिश्रम किये हैं यह मानकर कि हम सर्वशक्तिमान हैं और हमेशा हमेशा के लिए जो कुछ हमारे पास है या जो प्राप्त करेंगे उसकी अनन्त समय तक खोज करते रहेंगे। लेकिन उनकी मान्यता भी उन्हीं के जीवन काल में अन्त को प्राप्त हो गई और उन्हें अपने अंतिम समय में ही इस बात का ज्ञान हो गया कि उनकी मान्यता मिथ्या थी। इस संसार में स्थाई कुछ भी नहीं है और जो आया है उसे समय पाकर जाना ही पड़ेगा।


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दर्शनशास्त्र की मान्यता

हमारे दर्शनशास्त्र इसी मान्यता को आधार मानकर इस संसार में रहते हुए सद्जीवन की शिक्षा देते है लेकिन बहुत कम लोग इस मान्यता को अपने जीवन में उतार पाते हैं। यह जानते हुए भी कि हमें यहां से जाना है, जीवन के मोह में लिपटे रहते है और जाने की कल्पना मात्र से ही विचलित हो जाते है। बहुत कम लोग ऐसे होते हैं जो जमाने की मान्यता में अपने मन का मैल बैठा पाते है और हमे एक दिन जाना है। इस विचार से विचलित नहीं होते हुए संसार में सद्कर्म करते हुए बिचरते रहते हैं। उनकी मान्यता होती है कि जिस रोज जाना है चले जायेंगे उसकी चिन्ता क्या है। जब तक जीवित है अपना कर्म करना चाहिए। इस प्रकार के लोग महापरुषों की संज्ञा पाते हैं। मृत्यु का भय उन्हें सताता नहीं है। दैनिक अन्य दिनचर्या की भांति ही वे मौत को भी स्वीकार करते हैं। मृत्यु की कल्पना मात्र से तड़प उठने वाली श्रेणी के लोगों से इनकी श्रेणी ऊँची होती है। मृत्यु के आने पर वे लोग सदभाव से मौत का सत्कार करते हैं लेकिन इससे भी आगे की एक श्रेणी और होती है जहां मौत का स्वागत ही नहीं मौत को आमन्त्रित किया जाता है। यह जानते हुए भी कि अमुक रास्ते को अपनाने से मृत्यु का सामना करना पड़ सकता है। वे उस रास्ते से अलग नहीं हटते हैं और अपने कर्तव्य निर्वाह के लिए बराबर उस रास्ते पर अग्रसर होते रहते हैं। इस तैयारी के साथ कि किसी भी क्षण मौत का सामना हो सकता है। इसको मृत्यु का आना नहीं कहकर मृत्यु का वरण करना कहा जाता है। यह श्रेणी जहां मृत्यु का वरण किया जाता है आलिंगन किया जाता है बलिदान की सर्वश्रेष्ठ व सर्वोच्च सीढ़ी है। इस प्रकार के महापुरुष अपना बलिदान देकर देश व समाज का कष्ट हरण करते हैं,एक ज्योति जलाते हैं जो हमेशा हमेशा के लिए समस्त मानव समाज का पथ-प्रदर्शन करती है।

करणीराम जी व रामदेव सिंह जी का बलिदान

श्री करणीराम जी व श्री रामदेव सिंह जी का बलिदान इसी श्रेणी में आता है। 13 मई 1952 को जब आतताई उन पर गोलियों की बौछार कर प्राण हरण करने आ रहे थे तो काफी समय पहले उन्हें इस स्थिति का ज्ञान हो गया था। आती हुई भीड़ दूर से दिखलाई पड़ गई थी। श्री सेडू राम गुर्जर की लड़की ने उन्हें आगाह ही नहीं बार बार उनसे अनुनय विनय किया कि वे जिस छप्पर में लेटे हुए थे वहां से भाग जाएं क्योंकि उन्हें खत्म किया जाएगा। वे दोनों वीर भी आने वाली स्थिति से अनभिज्ञ नहीं थे। वे समझ गए थे कि क्या परिणाम होने वाला है और वे चाहते तो उठकर जा सकते थे तथा अपने प्राण बचा सकते थे। लेकिन उन्होंने ने तो मृत्यु का आलिंगन करने का निर्णय ले रखा था। उनके सामने एक तरफ कर्तव्य खड़ा था। दूसरी तरफ मौत खड़ी थी। उन्होंने अपने प्राण बचाने से कर्तव्य पालन श्रेष्ठ समझा और मृत्यु का वरण किया। उनकी मान्यता थी कि प्राण तो यहां से भागने पर बच जाएंगे लेकिन जो जागृति वह लाना चाहते थे वह हमेशा


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हमेशा के लिए समाप्त हो जाएगी। यही वजह थी कि उन्होंने बार-बार उठ कर चले जाने का अनुनय विनय स्वीकार नहीं किया और शांति से अपनी चारपाई पर लेटे रहे। आताताई आए, फौलादी बंदूके सीनों पर तानी। उसी स्थिति को जरा सोचिए जब बंदूक की नाल सामने तनी हो और क्षण भर में ही आग में सनी फौलादी गोली छूटने वाली हो तो मन की क्या स्थिति होगी। बड़े से बड़े योगी पराक्रमी सिद्ध व ज्ञानी पुरुष को भी दृश्य एक क्षण के लिए विचलित कर सकता है लेकिन धन्य है उन दोनों वीरों को, महान आत्माओं को जिन्होंने फौलादी गोलियों को मुलायम से मुलायम फूल से भी अधिक सहजता से स्वीकार किया। फूल भी जब किसी की तरफ फेंका जाता है तो शरीर से अनचाहे ही कोई प्रतिक्रिया हो जाती है अपने बचाव की लेकिन बंदूक की गोली भी उन वीरों के मन से कोई गति उत्पन्न नहीं कर सकती शांत भाव से लेटे लेटे ही अपने सीने पर उन्होंने गोलियों का स्वागत किया और अमर शहीद हो गए।

करणीराम जी की शादी

श्री करणीराम जी की शादी हमारे घर हुई थी। अपने बहुत बाल्यकाल से उन्हें मैं देखता आया हूं। शुरू से ही करणी राम जी मुझे बहुत ऊंचाई पर बैठे हुए लगते थे। यह वह काल था जब ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का नाम भी नहीं लिया जाता था । बहुत हुआ तो चटशालाओ तक की पढ़ाई करके इति श्री मान ली जाती थी। उस समय कानून की पढ़ाई पढ़कर वकालत करने की कल्पना ही एक किसान परिवार के सदस्य के लिए बहुत बड़ी बात मानी जाती थी। बाल्यकाल में जब श्री करणी राम जी के बारे में यह चर्चा सुनता था, क्यों पढ़कर वकील बनेंगे तो मन में बहुत उल्लास होता था। उन्हीं की प्रेरणा से ही मैं तथा श्री राम देव सिंह जी पढ़ने के रास्ते को अपना पाये। यह कहूं तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। श्री करणी राम जी से बहुत नजदीक का संपर्क रहा और उनके जीवन के आखिरी दिनों में तो वकालत के केस में उनके सहायक वकील के रूप में काम करने का अवसर भी मिला। उनको बहुत नजदीक से देखा और समझा है। श्री करणी राम जी में महान गुण थे। उनके कथनी व करनी में कोई फर्क नहीं था सादा जीवन तथा उच्च आदर्श के नमूने थे, अजाड़ी के बहुत संपन्न परिवार में उनका लालन-पालन हुआ था उसी काल का शेखावटी का यह सबसे संपन्न घर था। आर्थिक दृष्टि से कोई कमी नहीं थी लेकिन श्री करणी राम जी ने अपने परिवार की महिलाओं को चरखा कातने की प्रेरणा दी और घर पर कती हुई तथा गांव के जुलाहे से बनाई गई खादी पहनने का अपने परिवार में प्रचलन अपने छात्र जीवन में ही उन्होंने चालू किया। जिंदगी भर श्री करणी राम जी में अपने घर की कती हुई और गांव के जुलाहे से बनी खादी ही पहनी। उनके पास ऊनी कपड़े के रूप में सिर्फ एक जैकेट थी। इतना बड़ा वकील जिसके पूरे इलाके में मान्यता थी और इतना संपन्न परिवार होते हुए भी कोई अपना सादा जीवन व्यतीत कर सकता है यह सोचा ही नहीं जा सकता है।


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गांधी जी के आदर्शों का अनुसरण

गांधी जी के आदर्शों को उन्होंने जीवन में उतारने का पूरा प्रयत्न किया। श्री रेखाराम हरिजन को उन्होंने अपने घर में सेवक रखा जो खाना बनाने पानी भरने तथा घर का सब काम करता था। हरिजन को नौकर तो बहुत लोग उदारता वश रख लेते हैं, लेकिन रसोईया रखा गया हो यय श्री करणी राम जी के अलावा उस काल में दूसरा उदाहरण नहीं मिलता था। श्री करणी राम जी सादेपन के अलावा करुणामय भी बहुत थे। पंडितों को राहत पहुंचाने के लिए उनकी आत्मा तड़प उठती थी, स्वयं दुख झेल कर भी दूसरे की मदद करते थे और अगले को यह अहसास नहीं होने देते थे कि उसकी मदद की जा रही है। शहर से कचहरी जब जाते थे तो घोड़ा तांगा ही काम में लेते थे। जितने भी तांगे होते थे उनमें सबसे कमजोर घोड़े वाले के तांगे में वे सवार होते थे और कचहरी पहुंचने पर चार आने की बजाय एक रुपया उसको किराया देते थे। उनका कहना था कि सब लोग अच्छे घोड़े के तांगों में बैठना चाहते थे। इन कमजोर घोड़े वाले को कम सवारी मिलती है अतः इनकी मदद करनी चाहिए, क्या फर्क पड़ता है। यदि रास्ते में कुछ समय ज्यादा लग जाता है तो।

श्री करणी राम जी को कई बार झुंझुनू से उदयपुरवाटी कचहरी में मुकदमों की पैरवी के सिलसिले में जाना पड़ता था, यदि मौसम प्रतिकूल नहीं होता तो वे बस की बजाए इतनी लंबी यात्रा ऊंट तांगे में किया करते थे। हालांकि समय अधिक लगता था तथा रुपया कई गुना ज्यादा होता था। वे कहा करते थे रास्ते में लोगों से मिलना जुलना भी होता रहता है और इस बेकारी के समय यदि एक परिवार की भी मदद हो सकती है तो अच्छा ही है। क्या फर्क पड़ता है थोड़ा समय ज्यादा लग जाएगा।

एक बार श्री करणीराम जी को झुंझुनू से जयपुर पैरवी पर जाना था। जाड़े के दिन थे। प्रथम श्रेणी का टिकट लेकर रेल में बैठने लगे। गांव के बने ऊनी कंबल का खोयला कर रखा था। मोटी खादी की धोती तथा मोटा कमीज पहन रखा था। बिल्कुल देहाती रिवाज था। डिब्बे में घुसते ही कंडक्टर ने आगे जाने से मना कर दिया। कहने लगा बाबा यह प्रथम श्रेणी का डिब्बा है। तुम दूसरे पास वाले डब्बे में जाओ इसमें नहीं बैठ सकते। श्री करणीराम जी भी विनोद में आ गए कहने लगे भाई यही एक कोने में बैठ जाऊंगा। यह तो सब खाली पड़ा है। पास वाले डिब्बे में जगह नहीं है काफी देर बातचीत होने के बाद जब श्री करणीराम जी ने उसे असलियत बताई तो कंडक्टर को बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस वेशभूषा में भी कोई वकील हो सकता है क्या। उसने माफी मांगी और आदर पूर्वक बिठाया, इतना सादा कोई व्यक्ति अपने जीवन में रह नहीं सकता। उदयपुरवाटी की अदालत में कई बार लोग उनके साथ जाने वाले उनके क्लर्क भगवान सिंह जी को वकील कहकर


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संबोधित कर दिया करते थे और श्री करणी राम जी को क्लर्क समझ लेते थे। क्योंकि उनका क्लर्क पैंट वगेरा में रहता था और श्री करणीराम जी धोती कमीज में रहते थे। अंजान लोग वेश-भूषा से ही व्यक्तियों का मापदंड करने के आदी हैं।

श्री करणीराम जी जैसा संवेदनशील व्यक्ति मिलना कठिन है। पर-पीड़ा को सहन नहीं कर पाते थे, उदयपुरवाटी के किसान वर्ग तथा अन्य लोगों की स्थिति जब उन्होंने चुनाव के दौरान देखी तो उनका हृदय द्रवित हो गया, चुनाव परिणाम की परवाह नहीं करते उदयपुरवाटी के लोगों में अंग बन गए, वकालत छोड़ी, आराम छोड़ा और घर-घर अलख जगाने में लग गए. इनका स्वास्थ्य खराब होते हुए भी पता नहीं कौन सी देवी शक्तियों ने अथक परिश्रम करने का बल दे रही थी। एक ही तमन्ना मन में लिए हुए थे कि शोषण का अंत करके छोडूंगा, स्वाभिमान की जिंदगी जीना सिखाऊंगा और लोगों में उनकी नि:स्वार्थ सेवा के प्रति बड़ी श्रद्धा उत्पन्न हो उठी। चुनाव के समय तो सभी लोग जाते हैं लेकिन चुनाव में हारने के बाद कोई राजनैतिक नेता इस प्रकार की सेवा का प्रण लेकर लोगों में जावे ऐसा उदाहरण और नहीं मिलता। उनकी आत्मा उनको बार-बार प्रेरित करती रहती थी कि बहुत बड़ा काम तुम्हारे सामने करने को पड़ा है एक पल का विलंब भी असह्य है। श्री करणीराम जी बड़े ही सरल हृदय तथा निडर भाव के व्यक्ति थे, किसी के प्रति उनके मन में देष भाव कभी देखा नहीं गया, बड़े से बड़े विवादास्पद मामले को श्री करणीराम जी के दोनों पक्ष खुशी खुशी छोड़ दिया करते थे। काफी पहले एक विद्यार्थी भवन झुंझुनू के प्रबंध को लेकर विवादास्पद स्थिति बन गई थी। श्री करणीराम जी बीमार चला करते थे। झुंझुनू में ही रहकर इलाज करवा रहे थे, विवाद इस बात पर समाप्त हो गया था कि आज से श्री करणीराम जी इसके प्रबंध की देखभाल अपने ऊपर ले लेवे।

श्री करणीराम जी ने वकालत के पेशे का भी मान बढ़ाया। अदालतों पर इस बात की छाप थी कि करणीराम जी जो तथ्य रख रहे हैं वे सत्य हैं। उनके लिए ये कभी सोचा ही नहीं गया कि श्री करणीराम जी किसी झूठी बात की भी पैरवी कर सकते है क्या' उन्हें असत्य बात कहने की बजाय मुकदमे की पैरवी छोड़ना ज्यादा पसन्द था,बहुत से लोगों को वे मना कर देते थे कि वे उनके पक्ष की पैरवी नहीं कर सकते क्योंकि उनकी नजर में वह पक्ष सत्य प्रतीत नहीं होता था।


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वकालत के पेशे को उन्होंने अर्थ लाभ के लिए नहीं अपना कर सेवा भाव से ही अपनाया। अनेकों गरीब लोगों की पैरवी बिना फ़ीस लिए श्री करणीराम जी करते थे।

श्री करणीराम जी का जीवन निर्मल तथा निष्कलंक था। वर्तमान आर्थिक युग की आपाधापी से बिल्कुल दूर थे, अर्थ संग्रह करना उनके संस्कारों में था ही नहीं। बहुत अच्छी वकालत चलती थी लेकिन जितना आता था खर्च कर दिया करते थे। अनेकों गरीब छात्र उनके यहां से आर्थिक सहायता प्राप्त करते थे। इस संसार को त्यागते समय उनके पास स्वयं की अर्जित संपत्ति के नाम पर कुछ भी नहीं था, स्वयं की अर्जित संपत्ति के नाम पर सिर्फ कीर्ति और लोगों की श्रद्धा व अपार स्नेह ही अपने पीछे छोड़ कर गए है।

रामदेव सिंह व करणीराम की अजीब जोड़ी

श्री रामदेव सिंह जी व श्री करणीराम जी की अजीब जोड़ी थी, दो अजीब विपरीत स्वभाव वाले व्यक्ति एक साथ मिलकर लोगों को कितना क्या दे गए एक आश्चर्यजनक स्थिति लगती है--- करणीराम जी से ठीक विपरीत श्री राम देव सिंह जी जलती आग का धधकता गोला थे। बड़े ही क्रियाशील व्यक्तित्व के धनी थे--- जागीरी जुल्मों को आंख से देखा था और भुगता था--- जागीरी अत्याचारों के खिलाफ खुले विद्रोही की साक्षात मूर्ति थे। बड़े अच्छे संगठनकर्ता थे, जिस भी गांव में जाते मिनटों में एक अच्छी खासी कार्यकर्ताओं की फौज खड़ी कर देते थे। लोग कहा करते थे कि कितनी शक्ति है इस व्यक्ति में कि जहां से निकल जाता है वहीं आग सी लग जाती है। बालकपन से ही उग्र स्वभाव के थे, अन्याय से समझौता करना उनकी कृति में नहीं था। डटकर हर अत्यचार का मुकाबला करते थे। भय नाम की चीज उनके लिए थी ही नहीं। जंहा भी देखते अन्याय हो रहा है छाती खोलकर मुकाबले को खड़े मिलते थे।

श्री रामदेव सिंह जी उम्र में तीन साल बड़े थे लेकिन पढ़ना लिखना हम दोनों ने करीब-करीब एक साथ ही शुरू किया था। बचपन में उनकी नटखटता के कारण मुझे कई बार परेशानियों का शिकार होना पड़ता था। स्कूल में जाते आते बहुधा तंग किया करते थे लेकिन दूसरे बच्चों द्धारा मुझे कभी परेशान नहीं करने दिया----एक ढाल समान मेरी रखवाली करते थे, हम दोनों साथ-साथ हिंदी वर्नाक्युलर फाइनल परीक्षा साथ-साथ पास की। उन्होंने राजपूताना शिक्षा मंडल स्कूल में


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अध्यापक का कार्य अपना लिया और मुझे आगे पढ़ाने का निर्णय लेकर आगे पढ़ाई चालू करवा दी। विधि स्नातक बनाने योजना थी।

श्री रामदेव सिंह जी अध्यापक का कार्य कुछ ही समय कर पाये। उनका मन सार्वजानिक क्षेत्र में कार्य करने का था। अध्यापन कार्य छोड़कर सरदार हरलाल सिंह जी के संपर्क में आ गए और जिले की राजनैतिक गतिविधियों में भाग लेने लगे। उदयपुरवाटी इलाके के कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने तथा विद्यार्थी भवन झुंझनू के प्रबंध को हाथ लिया। विद्यार्थी भवन धन संग्रह में अग्रणी भाग लेते हुए जिले के अन्दर तथा बाहर अहमदाबाद आदि स्थनों से काफी धन संग्रह करवाया। विद्यार्थी भवन को अपनी कर्मस्थली बनवाया व जन जागृति के कार्य गए। 1952 के आम चुनाव आये, श्री करणीराम जी ने उदयपुरवाटी से कांग्रेस प्रत्याशी के रूप चुनाव लड़ने का निर्णय लिया। बड़ी विकट स्थिति उदयपुरवाटी के उस समय थी। सम्पूर्ण क्षेत्र जागीरदारों के बुरी तरह से प्रभाव में था। मनुष्य को मनुष्य नहीं समझा जाता था। किसानों से मनचाहा लगान लिया जाता था----लगान की कोई दर निश्चित नहीं थी -- जो भी जागीरदार की मर्जी में आया, तय कर लिया और ले गये। अनेक प्रकार की लागबाग चालू थी। किसान की सम्पूर्ण पैदावार जागीरदार के लगान--बोहरे की तुलाई--धुँआबाज--खूंटा बंधी आदि में चली जाती थी। बेगार ऊपर से लेनी पड़ती थी---खलिहान से किसान के घर अनाज का एक दाना भी नहीं पहुंच पाता था। इस पर भी जमीन की सुरक्षा नहीं थी--मनचाहे जब बेदखल किया जा सकता था--सम्पन्न सम्मान पूर्वक जिंदगी बसर करने की बात तो सोचना ही असम्भव था।

जागीरदारों का इतना आंतक था कि कोई जबान भी खोल नहीं पाता था। बहु-बेटियों की इज़्ज़त जागीरदारों के हाथों आये दिन लुटती थी। ऐसे आतंकपूर्ण वातावरण में चुनाव लड़ना कोई आसान बात नहीं थी। कार्यकर्ताओं को लोगों के पास पहुंचने नहीं दिया जाता था। श्री करणीराम जी तथा श्री रामदेव सिंह जी अपने साथी कार्यकर्ताओं को साथ लेकर रात दिन गाँवों में घूमने लगे। लोगों में कुछ साहस आया। वातावरण में कुछ बदलाव आने लगा। जागीरदारों व कांग्रेस कार्य-कर्ताओं में आपस में विवाद खड़े होने लगे। वह समय ऐसा ही था। सम्पूर्ण राजस्थान की जागीरी क्षेत्रों में यही हाल था। श्री जयनारायण जी व्यास राजस्थान


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के मुख्यमंत्री के पद पर रहते हुए सन 1952 के चुनाव लड़ रहे थे। उनको भी जागीरदारों ने अपने प्रभाव वाले क्षेत्रों में घुसने तक नहीं दिया और ऐसा लोकप्रिय नेता जो दो स्थानों से चुनाव लड़ रहा था, दोनों ही स्थानों से चुनाव हार गया।

जैसे तैसे चुनाव माहौल समाप्त हुआ। श्री करणीराम जी व श्री रामदेव जी चुनाव का परिणाम निकलते ही फिर अपने क्षेत्र में लग गये, लोगों में अब जाने आने लगे और काश्तकार-जागीरदार संघर्ष अपनी चरम सीमा को पहुंच गया। जगह-जगह भिड़ंत होने लगी। समय बलिदान मांग रहा था। 13 मई 1952 को दोनों नेताओं ने अपने प्राणों की बलि देकर इस बलिदान यज्ञ की पूर्णाहुति दी। गोलियां दागी गई थी इनकी दो की छाती पर और लगी जागीर प्रथा के पेट पर। 13 मई 1952 के बाद उदयपुरवाटी क्षेत्र के किसी जागीरदार ने अपने जागीरी अधिकारों का उपभोग नहीं किया।

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संसार में अपना पराया कुछ भी नहीं है जो जिसको अपना समझता है वही अपना है और जो जिसको पराया समझता है वह अपना होते हुए भी पराया है। ........रविन्द्रनाथ टैगोर


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