Sant Singh Gill

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Brigadier Sant Singh Gill, MVC Bar

Sant Singh Gill (Brigadier) (12.07.1921 - 09.12.2015) played very important role of bravery in Junagarh operation-1947, Indo-Pak War-1965 and Indo-Pak War-1971. He was twice awarded Mahavir Chakra for his acts of bravery. He retired in 1973 as Brigadier. He died on 09.12.2015. He was from Panjgrain Kalan village in tahsil and district Faridkot of Punjab. Unit - 5 Sikh Light Infantry

लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह गिल

लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह गिल

12-07-1921 - 09-12-2015

महावीर चक्र बार

यूनिट - 5 सिख लाइट इंफेंट्री

चुह-ए-नार का युद्ध

भारत-पाक युद्ध 1965

लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह का जन्म ब्रिटिश भारत में 12 जुलाई 1921 को एक जट्टसिख परिवार में सरदार ए.एस. गिल के घर में हुआ था।वह फरीदकोट रियासत के पंजग्रेन कलां गांव के निवासी थे। द्वितीय विश्व युद्ध के समय जुलाई 1941 में उन्हें फरीदकोट स्टेट फोर्सेज इंजीनियर फील्ड कंपनी में क्लर्क के रूप में भर्ती किया गया था।

एक नेता के रूप में उनकी योग्यता को देखते हुए, उनके ब्रिटिश कमांडिंग ऑफिसर ने अधिकारी आयोग के लिए संत सिंह की अनुशंसा की थी। 16 फरवरी 1947 को, उन्हें आपातकालीन कमीशन अधिकारी के रूप में 14 पंजाब रेजिमेंट की 1 बटालियन में नियुक्त किया गया था। विभाजन के समय, इस रेजिमेंट को पाकिस्तान को आवंटित कर दिया गया और सैकिंड लेफ्टिनेंट संत सिंह को 2 सिख लाइट इंफेंट्री बटालियन में स्थानांतरित कर दिया गया था।

नवंबर 1947 में जूनागढ़ ऑपरेशन में, बटालियन के गोपनीय अधिकारी के रूप में सैकिंड लेफ्टिनेंट संत सिंह ने अपने व्यक्तिगत संकट पर, जूनागढ़ सैन्यबलों की गतिविधियों से संबंधित महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान की, जिसके परिणामस्वरूप लगभग रक्तहीन अधिग्रहण हुआ और जूनागढ़ का सरलता से भारतीय संघ में विलय हो गया था।

वर्ष 1964-68 तक संत सिंह ने लेफ्टिनेंट कर्नल के रूप में 5 सिख लाइट इंफेंट्री बटालियन की कमान संभाली थी। वर्ष 1965 में समस्त संभावित बाधाओं के होते हुए भी, 3 नवंबर 1965 की प्रातः बटालियन ने बालनोई शिखर पर सबसे दुर्जेय, सर्व-विरोधी और अति सुरक्षित चुह-ए-नार स्थिति पर अधिकार किया था।

चुह-ए-नार एक प्रमुख विशेषता है, जो पुंछ सेक्टर में मेंदाहा-बलनोई मार्ग के दक्षिण-पश्चिम में स्थित है। 1956 तक इसे भारतीय सैनिकों द्वारा एक सीमा चौकी के रूप में प्रयोग किया गया था। इसके पश्चात, यह स्थिति रिक्त रही। 10 अगस्त 1965 को यह ज्ञात हुआ कि पाकिस्तानियों ने न केवल इस स्थिति पर अधिकार कर लिया है अपितु इसे एक सुदृढ़ रक्षित क्षेत्र के रूप में भी विकसित कर लिया है। संयुक्त राष्ट्र पर्यवेक्षकों के माध्यम से पोस्ट रिक्त कराने का प्रयास किया गया क्योंकि 22 सितंबर से युद्धविराम लागू हो गया था।

यह क्षेत्र भींबर गली, मेंढर और बलनोई के मध्य नियंत्रण रेखा पर प्रभावी है और पाकिस्तानी सेना द्वारा इस के अधिकार के परिणामस्वरूप बालनोई को मेंढर और कृष्णा घाटी से पूर्ण रूप से अलग-थलग कर दिया जाएगा। अतः चुह-ए-नार को किसी भी मूल्य पर अधिकृत करना था। चूँकि यह एक वृहद युद्धविराम उल्लंघन होगा, अतः पुनः युद्ध आरंभ होने का संकट भी था। किंतु इस स्थिति के महत्व को देखते हुए युद्ध करना स्वीकार्य माना गया।

चुह-ए-नार से शत्रु को खदेड़ने के लिए पुंछ स्थित 93 ब्रिगेड की पूर्व की दो बटालियनों के प्रयास सफल नहीं हुए थे। आक्रमण, पलटवार और आंशिक सफलताएं और असफलताएं अक्टूबर 1965 के आरंभ में में हुऐ और एक माह से अधिक समय तक चलते रहे, हताहतों की संख्या बढ़ती गई और कोई अंतिम परिणाम नहीं निकला। अंततः, नवंबर के प्रथम सप्ताह में, चुह-ए-नार पर अधिकार करने का असंभव सा लगने वाला कार्य 5 सिख लाइट इंफेंट्री बटालियन को सौंप दिया गया।

2/3 नवंबर 1965 की रात्रि को, 5 सिख लाइट इंफेंट्री के कमांडिंग ऑफिसर लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह को एक उद्देश्य को रिक्त कराने का कार्य दिया गया था, जिस पर युद्धविराम के उपरांत भी, पाकिस्तानी बलों ने अतिक्रमण कर लिया था। यह एक कठिन स्थिति थी और शत्रु द्वारा इसका दृढ़ता से रक्षण किया गया था। शत्रु की भूमिगत खदानों, मशीन गनों की गोलीबारी और तोपखाने की प्रचंड गोलाबारी के होते हुए भी, लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह ने आक्रमण को दबा दिया।

जब आक्रमणकारी प्लाटून उद्देश्य से लगभग 200 गज के अंतर पर थी, उसी समय लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह की जांघ पर मशीनगन की गोलियां लगीं और वे गिर गए। उनके रेडियो ऑपरेटर ने कहा, 'साहबजी तुहाडा जखम तन खतरनाक लगदाए। तुसी ऐथे ही पै जाओ। मैं हुन्ने ही जीतंत (एडजुटेंट) साहब नू दस्स दिन्ना। मेडिकल वाले आ के तुहानु एफयूपी दे पीछे लै जांगे'। [श्रीमान, आपके घाव अति गंभीर लग रहे है। आप यहीं लेट जाओ। मैं ही जीतंत (एडजुटेंट) को सूचित करूंगा। चिकित्सा दल आपको FUP के पीछे ले जाएगा]। और कमांडिंग ऑफिसर ने जो उत्तर दिया वो उत्कृष्ट था।

'बच्चे! रेहन दे ते नहीं दसना किसे नु कुछ वी। काका, ओह एफयूपी नी, ओह तन बाबा दीप सिंह जी दे खंडे नाल खिंची लकीर ऐ। उस्तों पीछे फतेह हासिल कीते बिना नी जाएदा... हुन जे दर्द है तन चुह-ए-नर दे टॉप ते ही जा के पावंगा। 'तू फिकर ना कर.' [बेटा, किसी को बताने की आवश्यकता नहीं है। यह मात्र एक FUP नहीं अपितु एक रेखा है जो बाबा दीप सिंह जी की तलवार से खींची गई है। विजय नहीं होने तक कोई वहां से पीछे नहीं हटता। मैं अब चुह-ए-नार के शिखर पर पहुंचकर ही विश्राम करूंगा। तुम तनिक भी चिंतित मत होओ।]

लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह ने अपनी पगड़ी के नीचे से अपना पटका निकाला, उसे कसकर घाव पर बांध लिया। वह अपने रेडियो ऑपरेटर की सहायता से उठे और तीव्रता से आगे बढ़ते हुए आक्रमण में सम्मिलित हो गए। आधे घंटे के निकट के और आमने-सामने के संघर्ष के पश्चात शत्रु अपने मृतकों और घायलों को वहीं छोड़कर पीछे हट गया।

लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह ने उद्देश्य पर अधिकार होने का और सफलता का लाभ लेने के लिए, त्वरित अपने सैनिकों के एक कंपनी के संख्याबल को संगठित किया और निकट की एक स्थिति जिस पर पाकिस्तानी सेना ने अतिक्रमण कर लिया था। उस पर भी आक्रमण किया। शत्रु की निरंतर स्वचालित गोलीबारी और तोपखाने की गोलाबारी में भी, सैनिक आगे बढ़े, शत्रु को एक-एक बंकर से बाहर खींच लिया और निकट की स्थिति को भी रिक्त करा दिया गया। आगे चलकर चुह-ए-नार को ओपी हिल नाम दिया गया। इस कार्रवाई में पूर्ण समय, लेफ्टिनेंट कर्नल संत सिंह ने विशिष्ट वीरता और उच्च कोटि के नेतृत्व का प्रदर्शन किया। उन्हें महावीर चक्र से सम्मानित किया गया।

छः वर्ष पश्चात, जब 1971 का युद्ध हुआ, उस समय संत सिंह ब्रिगेडियर के पद पर पदोन्नत हो गए थे। ऑपरेशन 'कैक्टस लिली' में, उन्होंने पुनः पूर्वी पाकिस्तान में वीरता प्रदर्शित की और उन्हें महावीर चक्र बार (द्वितीय समय पुरस्कार) दिया गया। दो बार महावीर चक्र से सम्मानित, ब्रिगेडियर संत सिंह को संत सिपाही कहा जाता था। तीन दशकों से अधिक समय का अपना सैन्य कार्यकाल पूर्ण कर वर्ष 1973 में वह सैन्य सेवा से सेवानिवृत्त हुए थे।

9 दिसंबर 2015 को उनका निधन हुआ था।

शहीद को सम्मान

चित्र गैलरी

स्रोत

बाहरी कड़ियाँ

संदर्भ


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