Varahaka

From Jatland Wiki
Jump to navigation Jump to search

Varahaka (वराहक) was a Nagavanshi king. Vārāhaka (वाराहक) is a mountain situated near Rajgir in Bihar, India.

Variants

Jat Gotras

Varaha (वराहा) - Varaha (वराहा) gotra Jats live in Nimach district in Madhya Pradesh and Chhoti Sadri tahsil in Chittorgarh district in Rajasthan.

Mention by Panini

History

Sandhya Jain[1] writes that tribal elements can be traced to the very core of Hindu dharma. Vishun's incarnation as Varaha and Narasimha bear the strong impress of the forest and reinforce tribal inputs into classical dharma. A L Basham[2] believes Varaha probably came from the people of eastern Malwa. Through out the tribal belt , Varaha and Narasimha are worshipped as uniconical symbols.


Varaha (वराहा) people mentioned in Mahabharata and Ramayana may be identified with Jat Gotra - Varaha (वराहा).

In Mahabharata

Varahaka (वराहक) is mentioned in Mahabharata: (I.52.17).


Adi Parva, Mahabharata/Book I Chapter 52 mentions the names of all those Nagas that fell into the fire of the snake-sacrifice. Varahaka (वराहक) is listed in Nagas of race of Dhritarashtra, verse (I.52.17). [3]....Varahaka, Varanaka, Sumitra, Chitravedaka, Parashara, Tarunaka, Maniskandha and Aruni.

वाराहक

वाराहक (AS, p.845): वाराहक बिहार में राजगृह के निकट स्थित एक पहाड़ी है। (दे.राजगृह-1)[4]

राजगृह

विजयेन्द्र कुमार माथुर [5] ने लेख किया है ...1. राजगृह (AS, p.779) = राजगीर: बुद्ध के समकालीन मगध नरेश बिंबिसार ने शिशुनाग अथवा हर्यक वंश के नरेशों की पुरानी राजधानी गिरिव्रज को छोड़कर नई राजधानी उसके निकट ही बसाई थी। (दे. गिरिव्रज). पहले गिरिव्रज के पुराने नगर से बाहर उसने अपने प्रासाद बनवाए थे जो राजगृह के नाम से प्रसिद्ध हुए। पीछे अनेक धनिक नागरिकों के बस जाने से राजगृह के नाम से एक नवीन नगर ही बस गया। गिरिव्रज में महाभारत के समय में जरासंध की राजधानी भी रह चुकी थी। राजगृह के निकट वन में जरासंध की बैठक नामक एक बारादरी स्थित है जो महाभारत कालीन ही बताई जाती है। महाभारत वनपर्व 84,104 में राजगृह का उल्लेख है जिससे महाभारत का यह प्रंसग बौद्धकालीन मालूम होता है, 'ततो राजगृहं गच्छेत् तीर्थसेवी नराधिप'। - महाभारत वनपर्व 84,104. इससे यह सूचित होता है कि महाभारत काल में राजगृह तीर्थस्थान के रूप में माना जाता था। आगे के प्रसंग से यह भी सूचित होता है कि मणिनाग तीर्थ राजगृह के अन्तर्गत था। यह संभव है कि उस समय राजगृह नागों को विशेष स्थान था (दे. मणियार मठ, मणिनाग). राजगृह का बौद्ध जातकों में कई बार उल्लेख है। मंगल जातक (सं. 87) में उल्लेख है कि राजगृह मगध देश में स्थित था। राजगृह के वे स्थान जो बुद्ध के समय में विद्यमान थे और जिनसे उनका संबद्ध रहा था, एक पाली ग्रंथ में इस प्रकार गिनाए गए हैं- गृध्रकूट, गौतम-न्यग्रोध, चौर प्रपात, सप्तपर्णिगुहा, काल शिला,

[p.779]: शीतवन, सर्पशौंडिक प्राग्भार, तपोदाराम, वेणुवनस्थित कलंदक, तड़ाक, जीवन का आम्रवन, मर्दकुक्षि, मृगवन

इनमें से कई स्थानों के खंडहर आज भी देखे जा सकते हैं। बुद्धचरित 10,1 में गौतम का गंगा को पार करके राजगृह में जाने का वर्णन है--' स राजवत्सः पृथुपीन वक्षास्तौसव्यमंत्राधिकृतौ विहाय, उत्तीर्य गंगां प्रचलत्तरंगां श्रीमदगृहं राजगृहं जगाम'।- बुद्धचरित, 10,1

जैन ग्रंथ सूत्र कृतांग में राजगृह का संपन्न, धनवान और सुखी नर-नारियों के नगर के रूप में वर्णन है। एक अन्य जैन सूत्र, अंतकृत दशांग में राजगृह के पुष्पोद्यानों का उल्लेख है। साथ ही यक्ष मुदगरपानि के मंदिर की भी वहीं स्थिति बताई गई है। भास रचित स्वप्नवासवदत्ता' नामक नाटक में राजगृह का इस तरह उल्लेख है- ' ब्रह्मचारी, भी श्रूयताम्। राजगृहतोअस्मि। श्रुतिविशेषणार्थ वत्सभूमौ लावाणकं नाम ग्रामस्तत्रोषितवानस्मि'।

युवानच्वांग ने भी राजगृह में कई स्थानों का वर्णन किया है जिनसे गौतम बुद्ध का सम्बंध बताया गया है। (दे. सोनभंडार, पाण्डव, मर्दकुक्षि, पिप्पलगिरि, सप्तपर्णिगुहा, ऋषिगिरि, पिप्पलिगुहा).

वाल्मीकि रामायण में गिरिव्रज की पांच पहाड़ियों का तथा सुमागधी नामक नदी का उल्लेख है - "एषा वसुमती नाम वसोस्तस्य महात्मनः एतेशैलवराः पंच प्रकाशन्ते समंततः। सुमागधीनदी रम्या मागधान् विश्रुताअययौपंचानां शैलमुख्यानां मध्ये मालेव शोभते।" इन पहाड़ियों के नाम महाभारत में ये है - पांडर, विपुल, वाराहक, चैत्यक, मांतग.

पालि साहित्य में इन्हें वेभार, पांडव, वेपुल्ल, गिज्झकूट और इसिगिलि कहा गया है (दे. ए गाइड टु राजगीर, पृ.1), {दे. महाभारत सभा. 21, दाक्षिणात्य पाठ- पांडरे विपुले चैव तथा वाराहकेअपि च, चैत्यक च गिरिश्रेष्ठे मांतगे च शिलोच्चये' (दे. चैत्यक)}. किंतु महाभारत सभा. 21,2 में इन्हीं पहाड़ियों को विपुल, वराह, वृषभ, ॠषिगिरि तथा चैत्यक कहा गया है-- वैहारौ विपुलो शैलो वराहो वृषभस्तथा, तथा ॠषिगिरिस्तात शुभाश्चैत्यक पंचमा।- महाभारत, सभा. 21,2

इनके वर्तमान नाम ये हैं- वैभार, विपुल, रत्न, छत्ता, सोनागिरि

जैन कल्पसूत्र के अनुसार महावीर ने राजगृह में 14 वर्षकाल बिताए थे।

References

  1. Sandhya Jain:Adideo Arya Devata, A Panoramic view of Tribal-Hindu Cultural Interface, Delhi, 2004, p.8
  2. A L Basham:The Wonder That was India, Indian ed., 1963
  3. वराहकॊ वारणकः सुमित्रश चित्रवेदकः, पराशरस तरुणकॊ मणिस्कन्धस तथारुणिः (I.52.17)
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.845
  5. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.779-781

External links

References