Ray Bahadur Chaudhary Amar Singh

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Ray Bahadur Chaudhary Amar Singh (Sirohi) (10.4.1879 - 17.06.1935), OBE, was an educationist and social reformer from village Palipartapur in Bulandshahr district of Uttar Pradesh. He was the founder trusty of Amar Singh Jat College Lakhaoti, District Bulandshahr UP. It is basically Agriculture Degree College. Contact no.05732-236660. He had donated his 600 bigha land for this college.

Variants of name

Genealogy

Ray Bahadur Chaudhary Amar Singh was born in the family of Sirohi Jat Sh. Narayan Singh and Smt Lakshmi. From his second wife Smt. Sukhraj Kunwari he had son: Kunwar Brijendra Singh and three daughters.

Kunwar Brijendra Singh had five sons and two daughters. His sons are:

1. Retd. Wing Commander Kr. Yogendra Singh is settled at Gurugram. His son is Anurag Officer in Hyundai, Gurgaon.

2. Colonel Kr. Shailendra Singh is settled in Bulandshahr. He has two sons: (i) Maj Pushkar Singh, (ii) Maj Vikas Singh

3. Late Kunwar Pradyuman Singh (Palipartapur). He has two daughters: (i) Mrs Atula, (ii) Mrs Misha, both married

4. Kunwar Shindhul Singh (Palipartapur). He has (i) son Kr. Apoorva Singh, B.Sc. , HM, DOB: 22.8.1998, (ii) daughter Miss Aparna Singh, B.Com, MBA, DOB:23.8.1992

5. Late Kunwar Raghvendra Singh (Govt Contractor) settled in Bulandshahr. He has (i) son Sushmit Sirohi, MBA and (ii) daughter Arti Sirohi, Graduate

Kunwar Brijendra Singh had two daughters:1. Smt. Mahima Singh, 2. Smt. Sangya Singh.

Source - Laxman Singh Sirohi, Ex Subedar Major 9074161503 & Ranvir Singh Tomar, Gwalior, 94251 37463

Haveli of Ray Bahadur Chaudhary Amar Singh

Amar Singh Jat College Lakhaoti

Amar Singh Jat College Lakhaoti, District Bulandshahr UP, Founded in 1941. It is basically Agriculture Degree College. Contact no.05732-236660. Email - mail@aspgcollege.com It is on the name of Shri Amar Singh Jat who donated his land for this college. Notable persons passed out from this college include:

जीवन परिचय

राय बहादुर चौधरी अमरसिंह का जीवन परिचय

[p.39]: राय बहादुर चौधरी अमर सिंह साहब का जन्म 10 अप्रैल 1879 को उत्तर प्रदेश में जनपद बुलंदशहर के ग्राम पाली प्रतापपुर के जमींदार घराने में हुआ था. इनके पिताश्री का नाम श्री (डिप्टी) नारायण सिंह एवं माताश्री का नाम श्रीमती लक्ष्मी जी था. जमीदार परिवार में पालन-पोषण होने के बावजूद भी इस महापुरुष में अपने क्षेत्र के गरीबों वह अन्य पिछड़े लोगों के प्रति हमदर्दी एवं सहृदयता का बीज अंकुरित हुआ और उन्होंने अपने अल्प आयु में ही किसानों, मजदूरों, गरीबों और समाज के पिछडे लोगों के उत्थान के लिए शिक्षा के क्षेत्र में क्रांतिकारी प्रयास किया. उनका कहना था कि आजादी के लिए प्रतीक्षा की जा सकती है परंतु शिक्षा के लिए नहीं क्योंकि शिक्षित समाज अपने लक्ष्य को आसानी से पा सकता है. ग्रामीण क्षेत्र में उन दिनों शिक्षकों का अभाव था तथा शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूर शहरों में जाना पड़ता था. जो साधन विहीन आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए मुश्किल ही नहीं सर्वथा असंभव था. चौधरी साहब स्वयं मिडिल पास थे जो 19वीं सदी में एक बड़ी शैक्षिक योग्यता समझी जाती थी. अत्यंत पिछड़े ग्रामीण परिवेश से अपने जीवन की लंबी यात्रा करने वाले इस पुरोधा ने क्षेत्र के समग्र विकास के लिए बीड़ा उठाया और उस लक्ष्य की प्राप्ति हेतु अपना सर्वस्व निछावर कर दिया.

अपने सपने को साकार करने के लिए इस महा विभूति ने बीसवीं सदी के प्रारंभ में सन 1905 ई. में अपने निवास स्थान (पाली) पर एक प्राथमिक पाठशाला के रूप में शिक्षण संस्था प्रारंभ की तथा समस्त प्रवेशित छात्रों को मुफ्त शिक्षा देने का संकल्प लिया. छात्रों की बढ़ती हुई संख्या को दृष्टिगत रखते हुए सन् 1910 में प्राथमिक पाठशाला को वर्तमान स्थल लखावटी गांव में स्थानांतरित किया गया जहां ब्रिटिश मिशनरियों द्वारा प्राथमिक विद्यालय चलाया जा रहा था. इस कार्य में उन्हें तत्कालीन ब्रिटिश हुकूमत का विरोध भी आड़े आया लेकिन उस महान व्यक्ति ने क्षेत्रीय जनता के सहयोग से सन 1910 ई. में किंग एडवर्ड मेमोरियल स्कूल की स्थापना की, साथ ही साथ देश की आजादी के लिए जनता को जागरूक करने का शुभारंभ भी किया. चौधरी साहब के अथक प्रयासों से सन 1913 में जूनियर हाई स्कूल व सन 1916 में हाई स्कूल के रूप में सरकार से मान्यता प्राप्त हुई. कालांतर में जिसकी सन 1931 में इंटर कृषि एवं इंटरमीडिएट कला के रूप में उन्नयन हुआ.

[p.40]: इसी क्रम में 1 अप्रैल 1930 को संयुक्त प्रांत के तत्कालीन गवर्नर सर विलियम मार्शल हैले ने हैले छात्रावास की आधारशिला रखी जहां अल्प अवधि में ही 52 वृहत कक्षों के भव्य छात्रावास का निर्माण हुआ. इस छात्रावास के निर्माण में क्षेत्रीय जमीदारों ने भी अपना बहुमूल्य योगदान दिया. चौधरी साहब के अथक प्रयासों से ही महाविद्यालय में विशाल व भव्य मुख्य-द्वार का लार्ड मैकेंजी के नाम पर निर्माण हुआ. यह महाविद्यालय का मुख्य द्वार अपने आप में एक कला का नमूना आज भी लोगों के आकर्षण का केंद्र बना हुआ है. यही संस्था सन 1941 में कृषि महाविद्यालय के रूप में आगरा विश्वविद्यालय से संबद्ध हुई और इस प्रकार इस कॉलेज को उत्तर प्रदेश के ग्रामीण क्षेत्र में प्रथम कृषि महाविद्यालय होने का गौरव प्राप्त हुआ. वर्ष 1963 में इसमें कृषि विषयों में स्नातकोत्तर व वर्ष 1985 में कला संकाय में स्नातकोत्तर कक्षाएं प्रारंभ हुई. आज यह संस्था देश की एक अग्रणी कृषि संस्था के रूप में विख्यात है जिसका विस्तार प्रदेश से बढ़कर अन्य प्रदेशों तक पहुंचा है.

विगत वर्षों में जम्मू कश्मीर से लेकर आंध्र प्रदेश, हिमाचल प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश, उत्तराखंड, हरियाणा, बिहार, मणिपुर तक के छात्र-छात्राएं इस महाविद्यालय में शिक्षा ग्रहण कर अनेक क्षेत्रों में कीर्तिमान स्थापित कर चुके हैं.

इस संस्था के लिए इस युग-पुरुष ने अपने जमींदारी के 600 बीघा भूमि मुफ्त में दान दी जिसका वर्तमान मूल्य लगभग एक अरब है. साथ ही साथ जीवन पर्यंत इस संस्था का समस्त व्यय स्वयं वहन किया. अपने निजी संसाधनों से जो आय प्राप्त होती थी उससे संस्था का संचालन किया जाता था. साथ ही क्षेत्रीय जनता के अल्प आर्थिक सहयोग को भी संस्था के विकास में लगाया जाता था. शहरी बड़े-बड़े धन्ना सेठों की अपेक्षा ग्रामीण क्षेत्रों में धनाभाव था. लेकिन इस महापुरुष ने कभी भी धन को संस्था के विकास में आड़े नहीं आने दिया. यही कारण था कि सन् 1920 के आसपास हाई स्कूल में छात्रावास सुविधा सुलभ थी तथा इंटर होते-होते 2 छात्रावास उन्होंने स्वयं अपने धन से बनवाए थे. सन 1922-24 में विद्युत आपूर्ति हेतु एक जनरेटर भी विद्यालय में सुलभ था. जहां तक शिक्षकों का प्रश्न है जिनके बारे में भी अच्छे शिक्षक होने का पता उनको होता था उन्हें किसी भी कीमत पर अपने विद्यालय में नियुक्त कर लेते थे. इसी प्रकार क्षेत्र में घूम-घूम कर शिक्षा से वंचित योग्य छात्रों को प्रवेश हेतु लाया जाता था और इस प्रकार योग्यता के क्रांतिकारी पुरुषार्थ के परिणाम स्वरूप इस महाविद्यालय के अनेक छात्र देश-विदेश में शीर्ष पदों पर विराजमान हुए और यह क्रम जारी है और रहेगा. चौधरी साहब द्वारा इस संस्था का निर्माण इंग्लैंड से लाए एक मानचित्र के अनुसार कराया गया था तथा उनका संकल्प था कि यह संस्था विश्वविद्यालय के रूप में स्थापित हो लेकिन 17 जून 1935 को उनके आकस्मिक निधन के कारण यह सपना अधूरा रह गया.

[p.41]: आज जहां शिक्षण संस्थाएं अपने निजी लाभ के लिए खोली जा रही हैं इसके विपरीत राय बहादुर साहब ने अपने आय का एक बड़ा भाग सदैव इस संस्था के विकास में व्यय किया. चौधरी साहब अपने विद्यालय के छात्रों को अपनी संतानों के रूप में देखते थे तथा प्राय: अपने बाग से आम आदमी मंगवा कर उन्हें मुफ्त बटवाए जाते थे.

आप अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे तथा आपके पिताजी स्वयं तत्कालीन सरकारी व्यवस्था में डिप्टी थे और एक बड़े जमीदार भी थे. परिवार में संपन्ता थी जिसका प्रमाण आज भी उनके ग्राम पाली में खड़ी विशाल अद्भुत हवेली है. राय बहादुर साहब का प्रारंभिक जीवन वैभव पूर्ण था. जनपद में प्रथम निजी कार रखने का गौरव भी उन्हीं को मिला था.


राय बहादुर चौधरी साहब अमर सिंह के दो विवाह हुए तथा उनकी दूसरी पत्नी का नाम श्रीमती सुखराज कुँवरी था. रायबहादुर साहब के एक सुपुत्र श्री कुंवर बिजेंद्र सिंह व तीन पुत्रियां थी. श्री बिजेंद्र सिंह को समस्त जनता कुंवर साहब के नाम से सम्मान देती थी. चौधरी साहब के स्वर्गवास के पश्चात कुंवर बिजेंद्र सिंह व माता श्रीमती सुखराज कुंंवरी ने महाविद्यालय में विशेष योगदान दिया.

रायबहादुर की उपाधि

ओ बी ई (रायबहादुर) की उपाधि: ब्रिटिश राज में सन 1911 में किंग एडवर्ड तथा सन 1922 में महारानी विक्टोरिया के निमंत्रण पर चौधरी साहब ने महाराजा जोधपुर के साथ इंग्लैंड की यात्राएं की. सन 1922 में चौधरी अमर सिंह साहब को ओ बी ई (रायबहादुर) की उपाधि से अलंकृत किया गया. यह उपाधि उनकी इस क्षेत्र में लोकप्रियता, निर्भीकता एवं सिद्धांतवादिता के प्रति दिया गया सम्मान था जिसका उपयोग आगे चलकर जनकल्याण के लिए किया गया. उनके परिवार का कोई भी व्यक्ति इस ओहधे से कभी लाभान्वित नहीं हुआ.

भरतपुर सप्ताह: सन 1929 में दिसंबर के अंतिम दिनों में भरतपुर सप्ताह मनाने का आयोजन हुआ. सारे भारत के जाटों ने भरतपुर के दीवान मैकेंजी और मियां नाकी की अनुचित हरकतों की गांव-गांव और नगर-नगर में सभाएं करके निंदा की. राय बहादुर चौधरी छोटूराम जी रोहतक, राव बहादुर चौधरी अमरसिंह पाली, ठाकुर झम्मन सिंह एडवोकेट अलीगढ़ और कुंवर हुकम सिंह जी रईस आंगई जैसे प्रसिद्ध जाट नेताओं ने देहातों में पैदल जा जाकर जाट सपताह में भाग लिया. गांव-गांव जाकर ब्रिटिश शासकों के विरुद्ध जनजागरण ही नहीं किया बल्कि स्वतंत्रता आंदोलन को एक नई दिशा देकर राजस्थान व आसपास के समस्त लोगों को उस में सक्रिय किया और अंत में यह आंदोलन महाराजा भरतपुर के नेतृत्व में देशव्यापी एक विशाल जन अभियान के रूप में परिवर्तित हुआ और स्वतंत्रता प्राप्ति में इस आंदोलन का उल्लेखनीय योगदान माना जाता है.

राय बहादुर चौधरी अमर सिंह साहब जिला परिषद बुलंदशहर के प्रथम अध्यक्ष पद पर आसीन रहे और इस प्रकार जनपद के विकास में उनका विशेष योगदान रहा. वे जीवन पर्यंत मजिस्ट्रेट के पद पर भी आसीन रहे तथा इस पद पर रहकर वे अपनी गांव वाली हवेली में ग्रामीण जनता के मुकदमों की सुनवाई कर न्याय किया करते थे.

समाज सुधार कार्य: राय बहादुर साहब ने क्षेत्र में पेयजल व सिंचाई हेतु जल के अभाव को दूर

[p.42]: करने के लिए भागीरथ प्रयास किया और सर्वप्रथम गहरे कुएं (डीप-वेल) का प्रथम बोरिंग कराया तथा समस्त क्षेत्र में इसे लोकप्रिय बनाने के लिए आर्थिक सहायता दी.

चौधरी साहब की गंगा मैया के प्रति अगाध श्रद्धा थी. आप सदैव गंगाजल मिश्रित जल से स्नान करते थे तथा स्नान के उपरांत गायत्री साधना भी किया करते थे. यहां तक कि इंग्लैंड यात्रा के दौरान भी गंगाजल पात्र साथ लेकर जाना नहीं भूले थे.

उस समय बुलंदशहर (उत्तर प्रदेश) के इस क्षेत्र में दूर-दूर तक कोई अस्पताल नहीं था. क्षेत्रीय जनता छोटी-बड़ी बीमारियों के लिए नीम-हकीमों के ऊपर निर्भर करती थी अथवा उनकी अकाल मृत्यु हो जाती थी. इस समस्या के समाधान हेतु चौधरी साहब ने लखावटी गांव में बने अपने निज प्रयोग में आने वाले आवास को डिस्पेंसरी में परिवर्तित किया और वहां पर डॉक्टर व कंपाउंडर आदि की नियुक्ति कर जनता को इलाज की मुफ्त सेवा प्रदान की. अस्पताल को कालांतर में विद्यालय से ही जोड़ दिया गया और उसका संपूर्ण व्यय विद्यालय से एवं अल्प सरकारी अनुदान से किया जाता रहा.

गरीबों और मजदूरों के लिए उनके मन में बेहद टीस थी. इसके लिए वे सदैव क्षेत्र में भ्रमण कर लगान माफी, अनाज और वस्त्र वितरण आदि कार्यक्रम आयोजित किया करते थे. अपने समकालीन समाज में उन्हें गरीब लोग अपना मसीहा मानते थे. उनके दर पर जो भी जन जाता खाली हाथ नहीं लौटता था.

जाति एवं धर्म की संकीर्णता से वे ऊपर थे. उनके परिवार में एक हरिजन उनका रसोइए का कार्य करता था. अल्पसंख्यकों में भी उनका बहुत सम्मान था. जनपद व समस्त संयुक्त प्रांत में आम जनता, जमीदारों व राजघरानों में उनका नाम बड़े सम्मान के साथ लिया जाता था.

रायबहादुर चौधरी अमर सिंह का परिवार: आप अपने माता-पिता की इकलौती संतान थे. रायबहादुर चौधरी अमर सिंह साहब के पिताश्री का नाम श्री (डिप्टी) नारायण सिंह एवं माताश्री का नाम श्रीमती लक्ष्मी जी था. राय बहादुर चौधरी साहब अमर सिंह के दो विवाह हुए तथा उनकी दूसरी पत्नी का नाम श्रीमती सुखराज कुँवरी था. रायबहादुर साहब के एक सुपुत्र श्री कुंवर बिजेंद्र सिंह व तीन पुत्रियां थी. उनके 5 पौत्र हैं जिनमें 1. विंग कमांडर कुंवर योगेंद्र सिंह, 2. कर्नल कुमार (स्वर्गीय) शैलेंद्र सिंह, 3. कुंवर प्रद्युम्न सिंह, 4. कुंवर सिंदुल सिंह, व 5. कुँवर स्वर्गीय राघवेंद्र सिंह तथा दो पौत्री श्रीमती महिमा सिंह श्रीमती संज्ञा सिंह हैं जो उनके आदर्शों विरासत को आगे बढ़ाने के लिए सदैव प्रयासरत रहे हैं.

यह कहना कोई अतिश्योक्ति नहीं होगा कि शिक्षा के क्षेत्र में चौधरी साहब द्वारा स्थापित संस्था से एक क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ है. आज भी देश विदेश में शिक्षण-संस्था का बड़ा नाम है. ऐसे युग-पुरुष सर्व त्यागी, क्रांतिकारी, समाजसेवी, परोपकारी व गरीब नवाज पुरुष विरले ही मिलते हैं जो इस संसार में अल्प अवधि के लिए आते हैं और समाज को शिक्षा की मशाल देखकर जीवन की सही दिशा दिखाते हैं और अपना जीवन भी धन्य करते हैं.

देहान्त: आपका आकस्मिक निधन 17 जून 1935 को हुआ.

स्रोत: लेखक: डॉ. निरंजन लाल शर्मा, 'जाटों के महापुरुष', पृ.39-42

External links

References

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