स्वामी ओमानन्द सरस्वती का जीवन-चरित/सप्‍तम अध्याय

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स्वामी ओमानन्द सरस्वती

(आचार्य भगवानदेव)

(१९१०-२००३) का


जीवन चरित


लेखक
डॉ० योगानन्द
(यह जीवनी सन् १९८३ ई० में लिखी गई थी)



सप्‍तम अध्याय


प्रचार-कार्य

अण्डेमान निकोबार में आचार्य भगवानदेव जी का नागरिकों द्वारा हाथी से अभिनन्दन करते हुए - 1966

स्वामी जी महाराज का अधिकांश जीवन आर्यसमाज के प्रचार व समाज-सुधार में व्यतीत हुआ है । न केवल भारत में अपितु विदेशों में भी इन्होंने प्रचार-कार्य किया । यौवन-काल में रात्रि पाठशालायें चलाकर तथा सहभोजों का आयोजन कर तथा राष्ट्रीय कांग्रेस के मंच से स्वतन्त्रता के लिये जो महनीय उद्योग किया वह आपके जीवन का एक गौरवमय इतिहास है । सन् १९४२ के बाद गुरुकुलों के माध्यम से विद्वान् स्नातक प्रचारक तैयार करने की दिशा में आप जुटे । साथ-साथ प्रचार-कार्य भी आपका चलता रहा । कई बार तो जीवन में ऐसा समय भी आया जब आपको दिन में कई-कई बार उपदेश व व्याख्यान देना होता था । देश का शायद कोई ही कोना शेष होगा जहां आप प्रचार के लिये न गये हों । यहां तक कि अण्डमान निकोबार द्वीप समूह में भी आपने २० दिन प्रचार-कार्य किया । वहां मैंने देखा आप प्रतिदिन कई-कई सत्संगों में बोलते थे । वहां आप १९६६ ई० में गये थे । वहां के लोगों पर आपके प्रचार का इतना गहरा असर पड़ा कि आज तक वे लोग आपको बुलाते रहते हैं किन्तु अधिक व्यस्तता के कारण आप वहां पुनः नहीं जा सके परन्तु आपने वहां अपने शिष्य श्री ब्र० सत्यव्रत वसु (स्वामी सुधानन्द सरस्वती) दयानन्दमठ दीनानगर को प्रचारार्थ भेजा । उन्होंने वहां महीनों रहकर प्रचार-कार्य किया । अण्डमान निकोबार से अनेक लोगों ने उनके प्रचार-कार्य की प्रशंसा के पत्र स्वामी जी को लिखे हैं । वे अत्यधिक कर्मठ और योग्य हैं । इन्हीं को आपने अफगानिस्तान में प्रचार के लिये भेजा । इन्होंने वहां तीन मास लगातार प्रचार-कार्य किया । वहां से ये जर्मनी आदि कई योरोपीय देशों में भी प्रचार के लिये गये ।


स्वामी जी महाराज की व्याख्यान व उपदेश की अपनी निराली शैली है । हृदय से निकले उनके शब्द श्रोता के रोम-रोम को पुलकित कर देते हैं । इनके भाषणों में कठोर सत्य होता है जो लोगों के जीवन में जीवनदायिनी संजीवनी का काम करता है । इनकी वाणी में कड़क और मुखमण्डल पर अत्यधिक तेज है । इनके चेहरे का आभामण्डल कुछ ऐसा तेजोमय है कि इन्हें देखने वाला एकदम प्रभावित हो जाता है । यह बात हमें विदेश में भी देखने को मिली । इनसे सर्वथा अनजान और अपरिचित व्यक्ति भी इनके प्रथम दर्शन से ही अत्यधिक प्रभावित हो जाता है ।


रामलीला मैदान में आर्यसमाज स्थापना शताब्दी समारोह पर ध्वजारोहण करते हुए स्वामी ओमानन्द जी महाराज

जम्मू कश्मीर में भी स्वामी जी का अत्यधिक प्रभाव है । सन् १९६६ ई० में स्वामी जी एक मास तक वहां वेदकथा करके आये । ब्र० विरजानन्द जी तब इनके साथ थे । अब भी स्वामी जी वहां समय समय पर वेद-प्रचार के लिये जाते हैं । हैदराबाद तथा गुजरात में भी आप प्रचार के लिये अनेक बार गये हैं । महाराष्ट्र के तो आपके गुरुकुल में दर्जनों विद्यार्थी पढ़कर स्नातक होकर गये हैं । अगस्त १९७९ में भी आप लातूर (उस्मानाबाद) आदि में एक मास प्रचार-कार्य करके आये हैं । इस समय देशभर में जगह-जगह पर आपके शिष्य प्रचार-कार्य कर रहे हैं । श्री ब्र० देशपाल जी (महाराष्ट्रवाले) आजीवन ब्रह्मचर्य का व्रत धारण कर बिहार के संथाल परगना क्षेत्र तथा उड़ीसा में प्रचार-कार्य कर रहे हैं । आपके ही स्नातक व शिष्य स्वामी धर्मानन्द सरस्वती (पूर्व नाम ब्र० धर्मदेव नैष्ठिक) भी उड़ीसा के कालाहांडी में नये गुरुकुल की स्थापना कर उस क्षेत्र में शिक्षा व जनजागृति का महान् कार्य कर रहे हैं । हरयाणा, उत्तरप्रदेश, राजस्थान और मध्यप्रदेश में तो अनेक स्थानों पर गुरुकुलों का संचालन आपके शिष्य कर रहे हैं । भारतभर में शायद ही कोई गुरुकुल होगा जहां आपके स्नातक सेवा-कार्य में न जुटे हों । दूसरी ओर आपके दर्जनों स्नातक विश्वविद्यालयों, महाविद्यालयों और स्कूलों में संस्कृत तथा राष्ट्रभाषा और इतिहास का अध्यापन कार्य कर रहे हैं । आपके अनेक स्नातक व शिष्य ऐसे हैं जो समाज के पिछड़े वर्गों से आकर गुरुकुलों में पढ़े और स्नातक होकर ऊंचे पदों पर पहुंचे । श्री दिलीप वेदालंकार आदि कई सज्जनों के आग्रह पर आपने अमेरिका में आर्यसमाज एवं भारतीय संस्कृति के प्रचार के लिये जाने की योजना बनाई ।


स्वामी ओमानन्द जी इंग्लैंड में

इसी योजना के अन्तर्गत अगस्त १९८० में होने वाले सार्वभौम आर्य महासम्मेलन में श्री स्वामी ओमानन्द जी लन्दन गये । वहां सार्वजनिक यज्ञ, विद्वत्सम्मेलन, शिक्षासंस्कृति सम्मेलन, राष्ट्रमेधयज्ञ, यूथफोर्म, योग सम्मेलन, कवि सम्मेलन, सार्वभौम आर्य महासम्मेलन, विदेशी प्रतिनिधि सम्मेलन, विश्वधर्म सम्मेलन तथा संगीतकला सम्मेलन इत्यादि विशेष सम्मेलनों में भाग लिया । इसके अतिरिक्त श्री धर्मपाल जी, श्री जयसिंह जी आदि अनेक सज्जनों के परिवारों में पारिवारिक सत्संग और यज्ञ भी कराये । इस प्रकार इंगलैंड में १५ दिन रहकर अमेरिका के लासएंजलेस आदि नगरों में यज्ञ और प्रचार-कार्य किया ।


अमेरिका में श्री डॉ. सुधीर आनन्द ने स्वामी जी की यात्रा और भोजन संबन्धी सभी सुविधाओं का विशेष ध्यान रखा । डॉ. सुधीर की माता जी श्रीमती सुशीला आनन्द ग्रेटर कैलाश (दिल्ली) भी इसी भांति श्रद्धापूर्वक आतिथ्य करती हैं । श्री स्वामी जी अमेरिका से लौटकर पुनः इंगलैंड आये और लगभग दो मास तक वैदिकधर्म का प्रचार यज्ञ और व्याख्यान आदि के द्वारा किया । लन्दन में एक नये आर्यसमाज जी भी स्थापना की जिसमें श्री धर्मपाल जी डूडी आदि विशेष रुचि ले रहे थे । विशेष जानकारी के लिये स्वामी जी की "विदेश-यात्रा - मैंने इंगलैंड में क्या देखा" नामक पुस्तक पढ़ें ।

राजकीय सम्मान

हरयाणा के राज्यपाल बी.एन. चक्रवर्ती साहित्यिक सेवाओं के लिए आचार्य जी को सम्मानित करते हुए


स्वामी ओमानन्द (आचार्य भगवानदेव) जी ने संस्कृत भाषा की महती सेवा की है । आपके दोनों गुरुकुलों - गुरुकुल झज्जर व कन्या गुरुकुल नरेला से संस्कृत के हजारों विद्वान् स्नातक स्नातिकायें बनकर देश के विभिन्न भागों में संस्कृत तथा राष्ट्रभाषा का प्रचार प्रसार कर रहे हैं । स्वामी जी ने इन दोनों संस्थाओं के प्रकाशन विभागों की ओर से महाभाष्य और काशिका तथा छन्दःशास्‍त्र आदि दर्जनों संस्कृत के बड़े ग्रन्थों का प्रकाशन करवाया है । पुरातत्त्व तथा इतिहास के क्षेत्र में तो आपकी सेवायें बेजोड़ हैं । आपकी इन्हीं सेवाओं के कारण हरयाणा सरकार के भाषा विभाग की ओर से १९६८-६९ ई० में चण्डीगढ़ में एक भव्य समारोह में आपका राजकीय सम्मान किया गया । हरयाणा सरकार की ओर से दिया गया यह पहला राजकीय सम्मान था । आपके साथ इस वर्ष हिन्दी के लिये पं० मौलीचन्द्र शर्मा तथा उर्दू के लिये श्री ख्वाजा अहमद अब्बास को राजकीय सम्मान मिला । समारोह में आपको हरयाणा के राज्यपाल श्री बी. एन. चक्रवर्ती ने एक प्रशस्ति पत्र, एक शाल तथा पांच सौ रुपये भेंट किये ।


दिल्ली के उपराज्यपाल द्वारा ताम्रपत्र भेंट

इसके बाद दिल्ली अलीपुर के श्रद्धानन्द कालिज में चौ० हीरासिंह जी की अध्यक्षता में २८ अगस्त १९६९ को एक भव्य स्वागत समारोह का आयोजन हुआ जिसमें दिल्ली के तत्कालीन उपराज्यपाल श्री आदित्यनाथ झा ने इनके संस्कृत पांडित्य का सम्मान करने हेतु एक ताम्रपत्र भेंट कर दिल्ली राज्य की ओर से आचार्य जी का सम्मान किया । इस अवसर पर उप-राज्यपाल महोदय ने आचार्य (स्वामी) जी की प्रशस्ति में स्वयं बनाया हुआ श्‍लोक सुनाया ।



इस प्रकार हरयाणा और दिल्ली राज्यों की ओर से स्वामी जी महाराज की सेवाओं का आदर किया गया ।

राष्ट्रीय पंडित

राष्‍ट्रपति वी.वी. गिरि द्वारा राष्‍ट्रीय पण्डित की उपाधि से विभूषित करने के उपरान्त आचार्य भगवानदेव जी

इससे पूर्व आपकी सेवाओं का मूल्यांकन करते हुये भारत सरकार के शिक्षा-मंत्रालय की संस्तुति पर भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति महामहिम श्री वाराहगिरि वेंकटगिरि ने आचार्य जी को भारत के स्वतन्त्रता दिवस (१५ अगस्त १९६९) पर राष्‍ट्रीय-पण्डित की उपाधि से विभूषित किया । आपको यह अलंकरण राष्‍ट्रपति भवन में एक भव्य स्वागत समारोह में दिया गया और राष्‍ट्र ने आपकी सेवाओं को राजकीय आदर प्रदान किया । यद्यपि आपका कार्य इन सम्मानों से कहीं अधिक है तथापि शासन की ओर से इस कार्य को मान्यता मिल जाना आपके लिये नहीं, राष्ट्र के लिये गौरव की बात है ।



साहित्य-सृजन

साहित्य और जीवन दोनों 'सत्' हैं । जब-जब भौतिक सत्य और चेतन सत्य का संयोग हुआ तब-तब साहित्य का सृजन हुआ है । मम्मट साहित्य के आनन्द को ब्रह्मानन्द रस सहोदर कहता है । साहित्य शब्द के भावों में बहकर समुद्र में जाना और क्षाररूप में परिवर्तित हो जाना असत्य तो नहीं, किन्तु भाप बनकर बरसना क्या वाल्मीकि को ही अभिप्रेत था ? इसीलिये कहा है -


"वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान ।"


आह ! दीन-दुःखियों के कष्ट से या परपीड़ा के परिताप से अथवा समाज के अधःपतन के दुःख को देखकर प्रकट हुई हो, कोई भिन्नता नहीं है ।


साहित्य की स्थिति चेतनसत्य के अनुभव एवं व्यवहार के पश्‍चात् दृष्ट सत्य को सुरक्षित रखने में होती है । उस सुरक्षित सत्य से ही समाज अनुप्राणित होकर अपना लक्षय प्राप्‍त करता है । यदि 'साहित्य' शब्द को लोभी वैश्यों के सदृश वैयाकरणों की तुला पर तोलें (जो कि अपने पक्ष को प्रबल रखकर विजयी मुद्रा में ग्राहक या भाषा का गला घोटे रखता है) तो पायेंगे कि वे भी हमारे उद्देश्य की पूर्ति में सहयोग कर रहे हैं । सहितस्य भावः साहित्यम् - जिसमें हित की भावना निहित हो । व्यवहार के पश्‍चात् साहित्य का निर्माण होता है अतःएव उसमें परोपकार की भावना विद्यमान होनी ही चाहिये । जिससे कष्ट का निवारण हो गया हो वह हित है । कष्ट, दुःख, पीड़ा आदि का तिरोहित कर देना जिस साहित्य का उद्देश्य हो वह ही साहित्य कहलाता है ।


साहित्य की अबाधगति मनुष्यों को बांध लेती है । ऐसे बन्धन में कौन नहीं बंधना चाहता जिस के बंधनों में तो सुख मिले ही, बन्धनोपरान्त भी सुख मिलता रहे । प्रगति को गति मिले, विचार-तरंगें अपने किनारों को तोड़ डालें, नये आयाम स्थापित हों और बार-बार पुनरीक्षण में नई ईक्षणशक्ति को जन्म मिले । ऐसा अमर साहित्य युगों तक युगान्तकारी कहकर स्मरण किया जाता है ।


स्वामी दयानन्द सरस्वती के द्वारा आर्यसमाज नामक समाज-सुधारक संस्था ने १९वीं शताब्दी में जन्म लेकर पराधीन भारत में नये खून का संचार किया । आर्यसमाज तथा स्वामी दयानन्द के द्वारा शिक्षा और साहित्य के रूप में मानव समाज की जो सेवा की गई है, वह इतिहास का एक स्वर्णिम और क्रान्तिकारी परिच्छेद है किन्तु स्वर्णिम परिच्छेद को शिक्षा के क्षेत्र में स्वार्थ के राजनैतिक धुयें ने काला कर दिया और साहित्य सेवा की भावना को क्षुद्र, संकीर्ण भावों के बाजार में नीलामी में भी बोली न पाकर लावारिस होना पड़ा । इसी लावारिस साहित्यसेवा के यत्किंचित् वारिस बिना बोली दिये ही परोपकार भावना से प्रेरित स्वामी ओमानन्द सरस्वती हैं । यह अतिशयोक्ति नहीं, यथार्थ है । व्यापारिक लाभ के बिना साहित्यप्रकाशन, सामान्य जनता के लिये साहित्य का सृजन एवं अध्ययन अध्यापन की आर्ष-प्रणाली को इस अर्थप्रधान युग में भी अपनाकर साहित्य की जो सजीव सुरक्षा स्वामी जी ने की है वह अन्यत्र दुर्लभ है । भौतिक रूप में साहित्य की सुरक्षा का भी कार्य उपरोक्त तीनों प्रकारों के साथ-साथ किया है । कभी मनुष्य साहित्य का सृजन मात्र ही करता है । कभी अर्थ-लाभ की दृष्टि से प्रकाशन मात्र एवं कभी परोपकार भावना से उसको प्रचारित करने का उपक्रम मात्र करता है किन्तु स्वामी जी ने परोपकार भावना से इनका समन्वय अपने जीवन में करके एक अनुपम साहित्य-सेवा का रूप हमारे सामने रक्खा है जिसके सामने हमारा सिर श्रद्धावनत है और रहेगा ।


जहां श्री स्वामी ओमानन्द जी महाराज भाषण और उपदेश द्वारा जन-सुधार और जनजागृति करते हैं वहां प्रचार को स्थायित्व प्रदान करने के लिये अपने ज्ञान को लिपिबद्ध करके नये साहित्य का सृजन, प्रकाशन और प्रसारण भी करते हैं । इनके द्वारा विरचित साहित्य में चार प्रकार के ग्रन्थ हैं ।


१. कुरीतिनिवारण और समाज-सुधार सम्बंधी ग्रन्थ



२. आयुर्वेद विषयक ग्रन्थ



३. इतिहास परक ग्रन्थ
  • १. भारत के प्राचीन मुद्रांक
  • २. भारत के प्राचीन लक्षणस्थान
  • ३. हरयाणा का संक्षिप्‍त इतिहास
  • ४. हरयाणा के वीर यौधेय
  • ५. वीरभूमि हरयाणा
  • ६. हरयाणा की संस्कृति
  • ७. भारत के प्राचीन शस्‍त्रास्‍त्र
  • ८. वीर हेमू
  • ९. शेरशाह सूरी
  • १०. आर्यसमाज के बलिदान
  • ११. महारानी सीता (अप्रकाशित)


४. यात्रा संस्मरण
  • १. कालापानी यात्रा
  • २. रूस में १५ दिन
  • ३. जापान यात्रा
  • ४. मेरी विदेश यात्रा
  • ५. नैरोबी यात्रा
  • ६. विदेश यात्रा - "मैंने इंगलैंड में क्या देखा"
  • ७. यूरोप यात्रा (अप्रकाशित)

स्वामी जी द्वारा प्रकाशित विशिष्ट साहित्य

जहां स्वामी जी ने अपना साहित्य प्रकाशित किया है, वहां 'हरयाणा साहित्य संस्थान' प्रकाशन विभाग की स्थापना करके सैंकड़ों अन्य पुस्तकों का प्रकाशन भी किया है ।


१. सामवेदसंहिता २. सामपदसंहिता ३. उपनिषत्समुच्चय ४. षड्दर्शन आर्यभाष्य (८ जिल्द) ५ निरुक्तभाष्य (२ जिल्द) ६. छन्दःशास्‍त्रम् ७. काव्यालंकारशास्‍त्रम् ८. अष्‍टाध्यायी सूत्रपाठ ९. व्याकरण महाभाष्य (५ जिल्द) १०. काशिका ११. लिंगानुशासनवृत्ति १२. फिट्सूत्रप्रदीप १३. सत्यार्थप्रकाश १४. संस्कारविधि १५. कुलियात आर्य मुसाफिर ।


१. आचार्य मेधाव्रत कविरत्‍न द्वारा विरचित संस्कृत साहित्य

२. पण्डित बस्तीराम कृत भजन साहित्य ।

३. स्वामी वेदानन्द वेदवागीश कृत रचनायें ।

४. वैद्य बलवन्तसिंह विरचित चिकित्सा साहित्य ।

५. मुनि देवराज विद्यावाचस्पति कृत पुस्तकें ।


इस प्रकाशन संस्था का कार्य करते हुये अन्य प्रकाशकों द्वारा प्रकाशित साहित्य का भी बहुत प्रचार प्रसार किया है । इनमें कुछ के नाम इस प्रकार हैं –


१. सार्वदेशिक सभा दिल्ली ।

२. गोविन्दराम हासानन्द दिल्ली ।

३. राजपाल एन्ड सन्स दिल्ली ।

४. दयानन्द संस्थान दिल्ली ।

५. आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली ।

६. द्राक्षादेवी प्यारेलाल परोपकारी ट्रस्ट दिल्ली ।

७. परोपकारिणी सभा अजमेर ।

८. आर्य साहित्य मण्डल अजमेर ।

९. विरजानन्द शोध संस्थान गाजियाबाद ।

१०. समर्पणानन्द शोध संस्थान दिल्ली ।

११. आचार्य प्रकाशन रोहतक ।

१२. रामलाल कपूर ट्रस्ट बहालगढ़ ।

१३. आर्यसमाज चौक प्रयाग ।

१४. चौखम्भा प्रकाशन वाराणसी ।

१५. तारा पब्लिकेशंस वाराणसी ।

१६. सत्य प्रकाशन मथुरा ।

१७. गुरुकुल प्रभात आश्रम टीकरी (मेरठ)।

१७. गुरुकुल कांगड़ी हरद्वार ।

१८. उपदेशक विद्यालय यमुनानगर ।


इसके अतिरिक्त जयपुर, जोधपुर, आगरा आदि के अनेक प्रकाशकों से भी विशेष साहित्य का आदान प्रदान चलता रहता है ।


साहित्य की सुरक्षा

शिक्षा के द्वारा साहित्य की सुरक्षा के रूप में श्री स्वामी जी द्वारा किया गया कार्य आश्‍चर्यजनक परिणामों का देने वाला है । गुरुकुल झज्जर और कन्या गुरुकुल नरेला के सैंकड़ों स्नातक स्नातिकाओं ने अपने अध्ययन अध्यापन के द्वारा नवचेतना पाकर भावी समाज के लिये जो मार्ग प्रशस्त किया है वह साहित्य की गतिशीलता को ही नहीं बनाये रखेगा अपितु उसे और भी विस्तृत एवं सुरक्षित करेगा ।


श्री स्वामी जी ने प्राचीन संस्कृत और उड़िया साहित्य की ४०० से अधिक हस्तलिखित पुस्तकों का संग्रह करके उनकी जो भौतिक सुरक्षा की है, वह भी साहित्य के प्रति इनकी गहरी निष्ठा एवं श्रद्धा की परिचायिका है । साहित्य की गरिमा को दृष्टिगत रखकर ही स्वामी जी ने सत्यार्थप्रकाश जैसे अद्‍भुत ग्रन्थ को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराने का गुरुतर कार्यभार सिर पर ले रखा है । यह भी भावी पीढ़ी के लिये साहित्य को दीर्घकाल तक सुरक्षित और चिरस्थायी रखने का अर्थसाध्य एक विशिष्ट साधन है ।


- डॉ० योगानन्द, नई दिल्ली



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Digital text of the printed book prepared by - Dayanand Deswal दयानन्द देसवाल


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