Jat History Thakur Deshraj/Chapter VII Part I (ii)

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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सप्तम अध्याय भाग-एक (ii): पंजाब और जाट

महाराज रणजीतसिंह का स्वर्गवास

महाराज को इतनी बड़ी सल्तनत कायम करने में उचित से अधिक परिश्रम करना पड़ा। इस परिश्रम से उनका शरीर पिस गया था। उन को इतने राजाओं, नवाबों और खानों को परास्त करना पड़ा था जितने शायद ही किसी एक शासक ने किए हों। उन्हें अपने राज्य की खराबियों और कमजोरियों को दूर करना पड़ा, उन्हें सेना जुटानी पड़ी, उन्हें लड़ना पड़ा और उन्हें अपनी थोड़ी-सी जिन्दगी में इतनी चिन्ताओं का सामना करना पड़ा। इस सबसे यह अनुभव किया जा सकता है कि वह असाधारण शक्ति, साहस तथा प्रतिभा के व्यक्ति थे।

जब वे बीमार हुए तो उपचार के लिए सब प्रकार के इलाजों का प्रयोग किया गया। लाहौर और अमृतसर के सभी वैद्य, हकीम, जोगी, ज्योतिषी बुलाए गए। मोतियों की माजून तैयार की गई। किन्तु सभी परिश्रम, सभी प्रयोग निष्फल सिद्ध हुए। दो सप्ताह तो वे अत्यधिक बीमार रहे। 1839 ई० की 20वीं जून (?) को भारत के इन महाप्राण ने इस संसार से विदा ली। जिन महावीर का प्यारा नाम स्मरण करते ही पंजाब वासियों की आज भी कमजोर नसें फड़क उठती हैं, संसार विजयी अंग्रेजों को जिन्हें पंजाब केसरी की गौरवमय उपाधि देकर उनके नाम की पूजा करनी पड़ी थी, उन पंजाब राज्य के प्रतिष्ठाता, वर्तमान युग के एकमात्र


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-300


सुप्रसिद्ध राजनीतिज्ञ, वीर चूड़ामणि महाराज रणजीतसिंह जी का देहान्त हो गया। दस लाख रुपये के चबूतरे पर महाराज को सुलाया गया। उसी चबूतरे के ऊपर शालों पर लेटे हुए महाराज ने प्राण छोड़े। प्राण छोड़ने से पूर्व हजारों का दान पुण्य किया गया। महाराज की मृत्यु के समाचार ने पंजाब को स्तब्ध कर दिया। वृद्ध, युवा, बालक, स्त्री-पुरुष सभी ने उनके शोक में आंसू बहाए। जिसने सुना उसी ने एक लम्बी आह ली। महाराज के शरीर को इत्रों से स्नान कराया गया। रेशमी वस्त्रों और रत्न-जटित आभूषणों से सजाया गया। चार रानियां और सात दासियां जो कि उनके साथ सती होना चाहती थीं, उनके सिरहाने खड़ी हो गईं। भगवद-गीता उनकी छाती पर रक्खी गई। राजा ध्यानसिंह ने उस पर हाथ रखकर खड़गसिंह से वफादारी की शपथ ली। नाव के आकार का एक स्वर्ण खचित विमान बनवाया गया। रेशमी वस्त्रों से विमान को सजाया गया। इसी विमान पर महाराज को रखकर किले से बाहर निकाला गया। लाखों आदमियों की भीड़ विमान के साथ थी। रानियां सफेद वस्त्र पहने हुए नंगे पैरों महलों से बाहर निकलीं। रानियों ने अपने सब वस्त्र और गहने गरीबों में बांट दिए। प्रत्येक रानी से दो-तीन कदम आगे एक-एक मर्द अपने हाथ में दर्पण लिए हुए था। दर्पण उनके हाथों में इस तरह से था को रानियां उसमें अपना मुंह देखती रहें, और यह जान लें कि सती होने के रंज से उनके चेहरे भयभीत नहीं हुए हैं। इन रानियों में राजा संसारचन्द्र की बेटी भी थी। रानियों के पीछे दासियां थीं। डॉक्टर हांगवरगर कहते हैं कि - हमारे दिल सबसे ज्यादा उन बेचारियों के लिए धड़कते थे जिन्होंने अपने भाग्य का फैसला खुद कर लिया था। नक्कारों की आवाज रंज और राम की थी। गायक शोकपूर्ण गीत गाते जा रहे थे। उनके साजों की आवाज भी दिल में दर्द पैदा करती थी। लाखों आदमी उनके शव के जुलूस में हिलकियां भरते हुए जा रहे थे।

छः फीट लम्बी उनकी चिता बनाई गई। उनके शरीर के वस्त्र और आभूषण उतार कर गरीबों में बांट दिए गए। गुरुओं और ब्राह्मणों ने पाठ किया। आध घण्टे के बाद सरदारों और वजीरों ने उनके शव को चिता पर रख दिया। चारों रानियां चिता पर महाराज के सिर को अपने गोद में लेकर बैठीं। दासियां पैरों की ओर बैठ गईं। इन सबको बांस की चटाइयों से ढ़ांप दिया गया जिनमें बहुत सा तेल डाला गया था। राजा ध्यानसिंह भी महाराज की चिता में कूदा पड़ता था किन्तु लोगों ने पकड़ लिया। चिता पर तेल, इतर और घी डाले गए। खड़गसिंह ने अग्नि-संस्कार किया। एक क्षण में आग की लौ में महाराज और रानियां भस्म हो गईं।

तीसरे दिन राख संभाली गई और उसे हरद्वार भेजा गया। महाराज और रानियों की राख अलग-अलग पालकियों में डालकर किले से निकाली गयी. हाथी


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घोड़े, सेना, सरदार, मन्त्री आदि साथ थे। महाराज की राख का यह जुलूस शहर के बड़े-बड़े कूचों और बाजारों में घुमाया गया। छतों, सड़कों और रास्तों में दर्शक खचाखच भरे हुए थे। सब ने पालकियों पर फूलों की वर्षा की। राजा ध्यानसिंह महाराज की पालकी पर चौर करता जाता था। नगर से जुलूस के बाहर निकलते ही तोपों की सलामी दी गई। जब महाराज की राख अंग्रेजी इलाके से गुजरी तो वहां भी तोपों से सलामी हुई। सभी जगह उनकी राख का सम्मान हुआ। भारत के सभी प्रान्तों के राजाओं ने उनके लिए शोक प्रदर्शित किया। 13वें दिन महाराज के नाम पर बहुत सा दान-पुण्य हुआ।

महाराज ने अपने मरने से पहले ही खड़गसिंह को पंजाब का महाराज बना दिया था - उसे अपने हाथ से ही राजतिलक कर दिया था और राजा ध्यानसिंह को मंत्री बना दिया था। इस बात की सूचना समस्त सूबों में पहुंचा दी थी।

महाराज रणजीतसिंह की वंशावली

Genealogy of Maharaja Ranjit Singh
महाराज शालवहन (शालिवाहन)

जौनधर (भटिंडा का राजा) → सधवा → सहस्य → लखनपाल → धरी → उदयरथ → उदारथ → जायी → पातु → डगर → करुत (कीर्ति) → वीरा → बध्या → कालू → जोंधोगन → वीतू या सट्टू → राजदेव → वाप्ता → प्यारा → बुद्धा (d.1716) → विद्धा (विधसिंह)/नौध (d.1752) → चरतसिंह (d.1774) → महासिंह (d.1792) → रणजीतसिंह (b.1780-d.1839) →1


1. यह वंश-वृक्ष हमने पंजाब केसरी (ले० नन्दकुमार देव शर्मा) से उद्धृत किया है। पे० परि० (ग पे०) 249-251 ।

इतिहास गुरुखालसा में लिखा है कि महाराज शालिवाहन ने स्यालकोट में राज्य स्थापित किया था। वि० सं० 135 में इसने विक्रमाजीत राजा को देहली में परास्त करके उसका सिर काट था। दिल्ली ही में इसने शक संवत् चलाया था। राजा विक्रम 300 वर्ष जीवित रहे थे, ऐसा कहा जाता है। एक इतिहास में शालिवाहन यदुवंशी था जो कि गजनी से लौट कर आया था, ऐसा लिखा है। एक शालिवाहन दक्षिण के शातिवाहनों में भी था, किन्तु यह शालिवाहन यदुवंशी ही जान पड़ता है। इसी के वंश में पूर्णभक्त और रसालु हुए हैं ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-302


खड़गसिंह (1839-1840) + शेरसिंह (1841-1843)+ तारासिंह+ पिशोरासिंह+ काश्मीरासिंह+ मुल्तानसिंह+ दिलीपसिंह (b. d.1893)
नौनिहालसिंह, फतहसिंह, जगतूसिंह, विक्टर, प्रताप, सहदेव
पुरुषसिंह, किशनसिंह, केसरीसिंह, अर्जुनसिंह, दिलीप, सुखदेव (बहराइच में रहा)
खड़गसिंह (d.1840)नौनिहालसिंह (1840)
शेरसिंह → बखसिंह + परताबसिंह + देवासिंह + शहदेवसिंह + नारायणसिंह + ठाकुरसिंह + करमसिंह
दिलीपसिंह → विक्टर

महाराज खड़गसिंह-नौनिहालसिंह

महाराज रणजीतसिंह ने खड़गसिंह को अपना उत्तराधिकारी बना तो दिया था, किन्तु वह राज्य-शासन संचालन के सर्वथा अयोग्य साबित हुए। थोड़े ही दिनों पीछे राजा ध्यानसिंह में और उनमें मन-मुटाव हो गया और धीरे-धीरे वे एक दूसरे के प्राण-शत्रु हो गए। दोनों ही महाराज के अन्तिम आदेश को भूल गए। महाराज खड़गसिंह ने अपने कृपा-पात्र चेतसिंह को मंत्री बना लिया और आप ऐश-आराम में फंस गए। राज-भवन में शराब के फव्वारे छूटने लगे। चेतसिंह के मंत्री बनाये जाने के बाद राजा ध्यानसिंह और भी चिढ़ गए और महाराज की अमंगल-कामना के लिए भयानक षड्यंत्र रचने लगे। उन्होंने सिख-सैनिकों और सरदारों में प्रकट किया - महाराज खड़गसिंह ने अंग्रेजों की आधीनता स्वीकार कर ली है। वे अंग्रेजों को अपनी राज्य-आय में से प्रति रुपया छः आना देंगे। अब पंजाबी सेना में सिखों के स्थान पर अंग्रेजी अफसर और सैनिक रक्खे जायेंगे। सिख अंग्रेजों की वक्र-दृष्टि से शंकित तो थे ही, उसकी यह युक्ति काम कर गई। उन्होंने ध्यानसिंह की बात को सही मान लिया। राजा ध्यानसिंह ने महाराज खड़्गसिंह की रानी और उनके पुत्र नौनिहालसिंह के हृदय में भी यही भाव पैदा कर दिए। अपने बाप की विलासिता से कुंवर नौनिहालसिंह शंकित तो पहले ही से थे, उसकी शंका निर्मूल भी न थी। शेरसिंह इस समय अंग्रेजों से सहायता प्राप्त करने की प्रार्थना इसलिए कर रहे थे कि पंजाब का राज्य मुझे मिले। शेरसिंह का कहना था कि मैं महाराज रणजीतसिंह का ज्येष्ठ पुत्र हूँ। एक दिन राजा ध्यानसिंह ने कई सरदारों की सहायता से चेतसिंह को मरवा डाला। चेतसिंह था भी दुश्चरित्र और दुष्ट स्वभाव का। महाराज खड़गसिंह को एक तरह से बन्दी बना लिया गया। कर्नल वेड ने इस समय यह दिखाया कि हम महाराज खड़गसिंह के सम्मान की पूर्ण रक्षा करेंगे। वे वास्तव में ऐसी बात सिख-साम्राज्य हित के लिए नहीं, किन्तु अपनी भलाई के लिए कर रहे थे। चेतसिंह को ध्यानसिंह, गुलाबसिंह और सिंधान वाले सरदारों ने जिस समय कत्ल किया, वह छिप गया था पर ढ़ूंढ़ लिये जाने पर स्त्रियों की तरह गिड़गिड़ाने लगा। फिर भी उसे मार डाला गया। महाराज खड़्गसिंह


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को किले के बाहर नजरबन्द करने पर 8 अक्टूबर 1839 को विशाल सिख-साम्राज्य का अधीश्वर उनके बेटे नौनिहालसिंह को बनाया गया। उनकी अवस्था इस समय केवल 21-22 वर्ष की थी। इस प्रवीण युवक महाराज की गम्भीरता देखकर लोगों ने इन्हें दूसरा रणजीतसिंह विचारा था। स्वयं महाराज रणजीतसिंह जी ही इनकी प्रखर बुद्धि और रणकौशल से मोहित होकर कहा करते थे - 'मेरी मृत्यु के बाद पंजाबवासी इस लड़के को ही अपना सच्चा राजा पाएंगे।' युवक महाराज नौनिहालसिंह को राज्य की यह शोचनीय अवस्था देखकर आंसू गिराने पड़े। उन्होंने विचार किया था कि कुटिल मंत्री चेतसिंह और अंग्रेजी स्वार्थ चाहने वाले कर्नल वेड के रहते हुए पिता की गतिमति सुधरने की संभावना नहीं है। इसीलिए उन्होंने अपने विरोधी राजा ध्यानसिंह की शरण ली थी। इस तरह शत्रु से शत्रु का वध कराकर कुमार नौनिहालसिंहजी ने कर्नल वेड को अपने यहां से अलग करने की दरख्वास्त सिखों के जरिये लाट साहब के पास पहुंचाई। लार्ड आकलैंण्ड ने सिखों को खुश रखने की इच्छा से सन् 1840 में कर्नल वेड को वापस बुलाया और मि० क्लर्क को उसकी जगह लाहौर भेज दिया। कर्नल वेड को बदलवाने में भी कुमार नौनिहालसिंह जी ने अपने बुद्धिमत्ता का परिचय दिया था। लेकिन कर्नल क्लर्क भी वेड की नीति का पालन करने लगा। इससे सिखों ने समझ लिया कि सभी गोरे एक होते हैं। अपने स्वार्थ के लिए वे एक ही नीति पर चलते हैं।

नौनिहालसिंह अपने प्रपिता महाराज रणजीतसिंह जी की तरह ही उच्चाशयी, निडर और सैनिक जीवन में रुचि वाले व्यक्ति थे। उनके दिल में यह पक्का विचार हो गया था कि वह अफगानिस्तान से लेकर बनारस तक राज करेंगे। यहीं तक नहीं, पहले से ही उन्होंने अपने सरदारों को इन इलाकों की मौखिक सनदें दे दी थीं। क्योंकि उनको यह पक्का विश्वास हो गया था कि एक दिन वहां तक उनका राज होगा। अपने पिता पर उन्हें सन्देह था कि वह अंग्रेजों को यहां बुलाना चाहता है। इसलिए अपने पिता खड्गसिंह से उन्हें कोई हमदर्दी नहीं थी। वे अंग्रेजों से दिली नफरत करते थे, क्योंकि वे समझते थे कि एक दिन अवश्य ही ये सिख-राज्य को हड़प कर जाएंगे। महाराज खड्गसिंह नौ माह की बीमारी से 5 नवम्बर सन् 1840 ई० को मर गए। उनके साथ उनकी दो रानियां और 11 दासियां सती हुईं।

कुमार नौनिहालसिंह जिस समय अपने पिता का अन्त्येष्टि संस्कार करके लौट रहे थे कि दरवाजा उनके ऊपर गिर पड़ा। मूर्छितावस्था में राजा ध्यानसिंह उन्हें उठाकर अपने मकान पर ले गया। मिलने वाले सरदारों से कहता रहा महाराज नौनिहालसिंह के दिल को चोट पहुंची है, वे अच्छे हो जायेंगे, घबराने की कोई जरूरत नहीं। यहां तक कि इनकी मां चांदकौर को भी उनसे नहीं मिलने


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दिया। तीन दिन के बाद, महारानी को अपने यहां बुलाकर कहा कि कुंवर तो मर गये। अब तुम शासन को संभालो, पर अभी किसी पर यह मत प्रकट करो कि कुंवर मर गये। रानी चांदकौर धोखे में आ गई। इसी समय राजा ध्यानसिंह ने शेरसिंह को लाहौर में बुला लिया जो कि पहले से ही राज का दावेदार बनकर अंग्रेजों से प्रार्थना कर रहा था। लोगों का और कई इतिहास लेखकों का यह भ्रम है कि नौनिहालसिंह को मारने में ध्यानसिंह का हाथ था। कारण कि वह समझता था कि इस योग्य लड़के के आगे वह सिक्ख-राज्य का सर्वेसर्वा नहीं बना रह सकता। नौनिहालसिंह की मृत्यु से सारे पंजाब में शोक छा गया।

शेरसिंह यकरियों से लाहौर की तरफ कुछ फौज लेकर आ गया। वह सुन्दर था, किन्तु सिखों जैसी वीरता से हीन था। मदिरा तथा वेश्याओं का गुलाम था। भला सिख जाति ऐसे अपात्र को नेता स्वीकार कर सकती थी? किन्तु अपना मतलब साधने के लिए ध्यानसिंह उसे राजा बनाना चाहता था। अंग्रेज सरकार ने भी मंजूरी दे दी थी।

इधर रानी ने हरद्वार से सिन्धान वाले सरदार अतरसिंह को बुला लिया, वह स्वयं सिंहासन पर बैठना चाहती थी। उसने घोषित किया कि नौनिहालसिंह की स्त्री हामला है, इसलिये गद्दी की हकदार उसकी संतान ही होगी। शेरसिंह राजा नहीं बनाया जा सकता। राजा ध्यानसिंह ने सिक्खों को समझाया कि स्त्री को इतने बड़े राज्य की बागडोर नहीं दी जानी चाहिये। रानी चांदकौर कैसी भी योग्य हों, आखिर हैं तो स्त्री ही। अधिकांश सिक्ख महारानी के पक्षपाती थे। इसलिये राजा ध्यानसिंह ने दूसरी चालाकी यह चली कि महारानी को पंजाब की अधीश्वर और शेरसिंह को शासन-सभा का प्रधान-मंत्री बना दिया और स्वयं मंत्री बन गया। इस तरह से दोनों पार्टियों में बाहरी मेल करा दिया। महारानी ने सिन्धान वाले अतरसिंह को अपना प्राइवेट मंत्री बना लिया। इतना हो जाने पर राजा ध्यानसिंह बराबर अपने षड्यंत्र में लगे रहे, वे रानी को शासन के अयोग्य एवं शेरसिंह को पूर्ण योग्य सिद्ध करते रहे। धीरे-धीरे सिक्ख-सैनिक और सरदारों को अपने पक्ष में करते रहे। फिर भी इस बीच में खालसा-सेना राजा से स्वतंत्र होकर अपने विरोधियों को जो यत्रतत्र खड़े होते थे, कुचल देती थी। नीलसिंह जो अंग्रेजी सेना को पंजाब में लाने के इरादे में था1, को सिक्ख सेना ने मार डाला। अंग्रेजों ने शेरसिंह को लिखा कि हम तुम्हारी विद्रोही एवं उद्दंड सेना का दमन करने को बारह हजार सैनिक लेकर आने को तैयार हैं, किन्तु इसके बदले तुम्हें 40 लाख रुपया और सतलज के दक्षिण के इलाके हमें देने होंगे। लेकिन शेरसिंह ने इस प्रस्ताव को अस्वीकार करते हुए लिखा कि - यदि सिक्खों को यह बात मालूम हो


1. सिख युद्ध पे० 13 (बंगवासी प्रेस द्वारा प्रकाशित)।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-305


गई तो मेरा प्राण लेते उन्हें तनिक भी देर न लगेगी। इसी समय अफगानिस्तान स्थित अंग्रेज ने घोषणा की कि सिक्ख-साम्राज्य से हमारी सन्धि टूट गई। पेशावर को हम अफगानों के सुपुर्द करेंगे। इस समय पेशावर सिखों के अधीन था, वे इस घोषणा से बड़े चकित हुए। राजा ध्यानसिंह इन्हीं दिनों जम्बू चले गये, उन्होंने बीमारी का बहाना किया था। शेरसिंह भी बटाले चले गए थे। रानी चांदकौर माई का खिताब धारण करके पंजाब का शासन करने लगी। उन्होंने चार सरदारों की कौंसिल बनाई। राजा गुलाबसिंह रानी के पक्ष में हो गया। किन्तु लाहौर में राजा ध्यानसिंह के एजेन्ट षड्यन्त्र में लगे हुए थे, उन्होंने बहुतेरे सिख सरदारों को फोड़ लिया और उनसे वचन ले लिया कि जब राजा शेरसिंह और ध्यानसिंह लाहौर पर हमला करेंगे, तो शेरसिंह का वे लोग साथ देंगे। कुछ दिन बाद शेरसिंह तीन सौ आदमी साथ लेकर लाहौर के निकट शालार बाग में आ गया। कुछ सिख सरदारों ने जाकर उसे राजा मान लिया और उसे किले पर चढ़ा लाये। इधर रानी चांदकौर के कहने से राजा गुलाबसिंह ने किले के फाटक बन्द कराकर युद्ध कराया। राजा सुचितसिंह और जनरल वेन्तूरा शेरसिंह से जा मिले, उनकी संख्या सत्तर हजार हो गई। रात में शेरसिंह ने कई दिन की कठिनाई के बाद किले पर कब्जा कर लिया।

18 जनवरी सन् 1841 ई० को शेरसिंह महाराजा बना। सिन्धानवाला सरदार को छोड़कर उसे सबने सलाम किया। इस ताजपोशी में 4786 आदमी 610 घोड़े और पांच लाख रुपयों को स्वाहा करना पड़ा। रानी चादकौर को जम्बू के इलाके में 9 लाख की जागीर दी गई। ध्यानसिंह को प्रधान-मंत्री बनाया गया। अतरसिंह और चेतसिंह अंग्रेजों के पास भाग गये, उनकी जायदाद जब्त कर ली गई। लहनासिंह गिरफ्तार होकर लाहौर लाया गया।

जितना इनाम सैनिकों को रानी चांदकौर के खिलाफ लड़ने पर देने को कहा गया था, जब उन्हें न दिया गया तो वे बागी हो गये, अफसरों को लूटने खसोटने लगे। एक अंग्रेज अफसर कत्ल कर दिया गया, जनरल कोट भाग गया। यह बगावत सूबों में भी पहुंच गई। अयोग्य राजा उन्हें काबू में न ला सका। काश्मीर में जनरल महीसिंह को लूट लिया गया। पेशावर का सूबेदार अवीतापला डर के मारे जलालाबाद भाग गया।

शेरसिंह बड़ा निकम्मा था। मदिरापान खूब करता था। नाच-तमाशे खूब देखता था। उसकी इच्छा थी कि रानी चांदकौर उससे चादर डालकर शादी कर ले। रानी भी तैयार हो जाती, किन्तु गुलाबसिंह ने रानी को बहका दिया। किसी


1. गुलाबसिंह लाहौर को छोड़ते समय 16 छकड़े खजाने से ले गया। तारीख पंजाब पे० 471।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-306


ने शेरसिंह से कहा कि रानी आपसे घृणा करती है। वह कहती है कि आप रणजीतसिंह के औरस पुत्र नहीं हैं। उसने रानी की दासियों को रानी से इस अपमान का बदला लेने के लिए षड्यन्त्र किया और खुद वजीराबाद चला गया। रुपये की लोभिन बांदियों ने रानी का सिर ईंटों से फोड़ डाला। इस तरह रानी चांदकौर का जीवनान्त हो गया। राजा ध्यानसिंह ने इन बांदियों को कोतवाली पर नाक-कान से रहित करा दिया। हाथ भी कटवा दिए। रावी पार निर्वासित कर दिया।1 अंग्रेजों की सिफारिश पर महाराज ने सिन्धान वालों को वापस बुला लिया। वे बड़े चाटुकार थे। जब उन्होंने अपनी चाटुकारी से अंग्रेजों को वश में कर लिया, तो शेरसिंह की तो बात ही क्या थी। थोड़े ही दिनों में शेरसिंह उनकी खुशामद से उन पर लट्टू हो गया। वे दिन-रात उसी के साथ घिरे रहने लगे। राजा ध्यानसिंह को ये बातें बुरी लगतीं थीं, इसलिए वह महाराज रणजीतसिंह के छोटे राजकुमार दिलीप को प्यार करने लगे। सिन्धान वाले दोनों ही से जलते थे। वे चाहते थे कि ध्यानसिंह शेरसिंह दोनों का सर्वनाश हो जाए। एक दिन बातों ही बातों में, उन्होंने शेरसिंह से कहा कि राजा ध्यानसिंह का इरादा अब दिलीपसिंह को तख्त पर बैठाने का है। इसके लिए उसने एक दिन हम से शपथ लेकर कहा था कि शेरसिंह के मारने पर तुम्हें 60 लाख की जागीर दी जा सकती है, किन्तु हम अपने मालिक से दगा नहीं कर सकते हैं। राजा शेरसिंह उनके जाल में फंस गया और उसने हुक्म दिया कि यदि तुम ध्यानसिंह को मार दोगे तो वह उनके लिए सब कुछ करने को तैयार है। उसने शेरसिंह से हुक्मनामा भी लिखाया। फिर वही हुक्मनामा उन्होंने ध्यानसिंह को जा दिखाया। ध्यानसिंह बड़ा क्रोध में आया और क्रोधावेश में ही उसने भी उनको बड़े लोभ पर शेरसिंह को मारने का वारण्ट लिख दिया।

शुक्र के दिन राजा शहर से बाहर निकला। ध्यानसिंह और दीनानाथ उसके साथ थे। शेरसिंह का साथी बुधसिंह भी उनके संग था। बारहदरी में राजा शेरसिंह मल्लों को इनाम दे रहे थे कि सिन्धान वाले अजीतसिंह ने उस समय उनके पास आकर एक बन्दूक दिखाई और कहा - महाराज! यह मैंने चौदह हजार में खरीदी है और तीस हजार में भी बेचने को तैयार नहीं हूं। महाराज ने उसे देखने के लिए ज्यों ही हाथ बढ़ाया कि उसने उनको गोली मार दी। वह इतना बोला - यह...के...दगा... और मर गया। बुधसिंह ने लपक कर अजीतसिंह के दो साथियों को मार गिराया, लेकिन उसकी तलवार टूट गई। दूसरी तलवार लेना चाहता था कि उसका पैर फिसल गया और वह भी मार डाला गया। इन कातिलों ने बाग में जाकर शेरसिंह के पुत्र प्रतापसिंह को, जब कि वह पाठ करके दान-पुण्य


1. तारीख पंजाब पे० 472 ।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-307


कर रहा था, जा घेरा। उसने हाथ जोड़ कर क्षमा चाही, किन्तु उसे भी मार डाला गया। इस समाचार से शहर में सनसनी फैल गई। बाजार बन्द हो गये। दो सरदार अपने दो चार सिपाही लिये हुए आए। रास्ते में अधवर में उन्हें राजा ध्यानसिंह मिला। अजीतसिंह ने उसे बताया, काम तमाम हो गया है। तुरन्त उसे दोनों सिर दिखाये। ध्यानसिंह ने कहा - 'तुमने बच्चे को मार कर अच्छा नहीं किया'। अजीतसिंह ने कहा जो कुछ हो गया सो हो गया, अब क्या है। ध्यानसिंह चिन्तातुर अवस्था में किले में आया। दरवाजे पर पहुंचते ही ध्यानसिंह को रोक दिया गया। ध्यानसिंह को सन्देह हुआ, पीछे फिर कर देखा तो उसके साथी बहुत थोड़े थे। अजीतसिंह ने पास आकर पूछा कि अब राजा किसे बनाया जायेगा? ध्यानसिंह इसके सिवाय क्या कह सकता कि राज्य के हकदार दिलीपसिंह हैं। अजीतसिंह ने इस पर कहा - अच्छा, दिलीप तो राजा हो जाएगा और तुम हो जाओगे मंत्री, हम खाक चाटते फिरें? गुरमुखसिंह ने क्रोध के साथ कहा - इसे भी साफ करो। अजीतसिंह ने इशारा किया, पीछे से सांय-सांय गोली की आवाज हुई। ध्यानसिंह गिर पड़ा। ध्यानसिंह के अर्दली एक मुसलमान ने सामना किया, उसे भी मार कर ध्यानसिंह के साथ तोपखाने में फेंक दिया। जब लहनासिंह आया तो अजीतसिंह की जल्दबाजी पर उसे फटकारने लगा। वह चाहता था कि जम्बू का सारा परिवार जब इकट्ठा होता, तब इनका काम किया जाता, अभी गुलाबसिंह, सुचेतसिंह और हीरासिंह बाकी हैं।

ध्यानसिंह के पुत्र हीरासिंह उस समय पेशावर के हाकिम फ्रांसीसी विटेवल के मकान पर राजा शेरसिंह की हत्या की चर्चा सुनकर दुःख प्रकट कर रहे थे। कुछ ही समय बाद, जब उन्हें अपने पिता के निधन का समाचार मिला तो वह मूर्छित हो गए। पृथ्वी पर लेट कर हाथ-पैर पीट-पीट कर रोने लगे। किन्तु उनके भाई केसरीसिंह ने कहा - क्या बच्चों और रांडों की तरह रोते हो, मर्द बनो और अपने पिता का बदला लो। हीरासिंह के हृदय में प्रतिहिंसा की ज्वाला धधक उठी। उन्होंने बड़ी प्रार्थना के आथ खालसा सरदारों को अपने स्थान पर इकट्ठा किया। सबके आने पर अपनी गर्दन उनके सामने झुका दी और कहा - या तो मेरी गर्दन काट कर मुझे मेरे पिता के पास पहुंचा दीजिये या पितृ-हन्ता से बदला लेने में मेरी सहायता कीजिये। बालक प्रतापसिंह की हत्या से लोग वैसे ही विचलित थे, वे इस दगाबाजी को महानीचता समझते थे। फिर हीरासिंह की अपील ने उन्हें और भी उत्तेजित किया, वे भड़क उठे और प्रतिज्ञापूर्वक बोले - 'हम तुम्हारी मदद करेंगे, दगाबाज को मजा चखा देंगे।' इधर तो यह हो रहा था, उधर सिन्धान वाले सरदारों ने दलीप को महाराज और अजीतसिंह को मंत्री घोषित कर दिया। साथ ही सरदारों को बुलाकर राजभक्ति की शपथ लेने लगे। किन्तु किले से बाहर निकलना उन्होंने बन्द कर दिया। हीरासिंह के पास चालीस हजार सिख इकट्ठे हो गये।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-308


उसने शाम के चार बजे आकर लाहौर को घेर लिया। सारी रात किले पर गोले बरसते रहे। हीरासिंह ने सरदारों के सामने प्रतिज्ञा की कि जब तक मैं अपने महाराज और पिता के हत्यारों के सिर कटे हुए न देख लूंगा, तब तक अन्न-चल ग्रहण न करूंगा। सैनिकों ने इतने जोर से हमला किया कि विजय प्राप्त हो गई। अजीतसिंह दीवार से उतर कर भागा, लेकिन एक मुसलमान सैनिक ने उसका सिर काट लिया। हीरासिंह की सौतेली मां अजीतसिंह के सिर को देखकर भारी प्रसन्न हुई और अपने पति राजा ध्यानसिंह के शव को लेकर मय दासियों के सती हो गई। वह अब तक इसीलिए रुकी हुई थी कि पति के मारने वालों का नाश देख ले। इसके पश्चात् सरदार लहनासिंह की तलाश हुई। वह तहखाने में छिपा हुआ मिला। उसका सिर काटने वाले को हीरासिंह ने दस हजार रुपया इनाम में दिया। अतरसिंह भाग कर अंग्रेज सरकार की मदद में चला गया, क्योंकि वह उस समय लाहौर में मौजूद न था। शत्रुओं से बदला लेने के बाद हीरासिंह ने महाराज दिलीपसिंह के पैर चूमे और राजभक्ति प्रकट की। खालसा ने हीरासिंह को मंत्री नियुक्त किया और उसे विश्वास दिलाया कि सिन्धान वालों के साथियों को मौत की सजा दी जायेगी। हीरासिंह शिक्षित था, उसने अंग्रेजी भी पढ़ी थी। महाराज रणजीतसिंह खुद उसे बहुत प्यार करते थे। इस समय इसकी अवस्था पच्चीस साल की थी।

पंजाब के राज्य-सिंहासन पर बैठते समय दिलीपसिंह की अवस्था केवल पांच साल की थी। दिलीप महाराज के विषय में अंग्रेज इतिहासकारों ने कहा है कि इनकी पांच वर्ष की अवस्था से ही तेज बुद्धि का परिचय मिलता था। बड़े होकर यदि राज्य करने का सौभाग्य उन्हें प्राप्त होता, तो वह पिता के योग्य पुत्र सिद्ध होते। लेकिन दैव ने उन्हें अवसर ही नहीं दिया। महाराज के बालक होने के कारण उनके राज्य की निरीक्षक महारानी झिंदा, जो उन्हीं की माता थीं, नियुक्त हुईं। वे महाराज रणजीतसिंह की परम प्रिय रानी थीं। वह उनको महबूबा सम्बोधन से सदा सम्मानित करते थे। रणजीतसिंह जी ने उनसे वृद्धावस्था में विवाह किया था। उनके पिता का नाम कन्नासिंह था जो कि महाराज की सेना में घुड़्सवार था। मुसलमान लेखकों के आधार पर कुछ अंग्रेज लेखकों ने भी महारानी झिंदा के आचरण पर सन्देह किया है। किन्तु यह बात इसीलिए तत्कालीन अंग्रेज शासकों तथा मुस्लिम वर्ग की ओर से फैलाई गई होगी कि सिख वीरों के हृदय से उनके प्रति भक्ति कम हो जाए। घर के अनेक खास सिख भी स्वार्थवश महारानी से द्वेष करते थे। किन्तु महारानी झिन्दा पवित्रता की देवी थीं। उनके कट्टर निन्दाकारियों ने भी इस बात को स्वीकार किया है कि महारानी झिन्दा की गम्भीरता के कारण, उन दिनों पंजाब दरबार का रौब खूब जमा हुआ था। यहां तक कि यूरोप की राज-सभाओं में भी उनकी प्रशंसा हुई थी।

राजदरबार में जल्ला नाम के एक पण्डित की भी खूब चलती थी। हीरासिंह


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उसे अपना गुरु समझते थे। सारा कार्य हीरासिंह जल्ला की सम्मति से ही करता था। जल्ला मंत्र-तंत्रों पर भी पूरा विश्वास रखता था। हीरासिंह भी इन मामलों में अन्धविश्वासी था। इस समय पंजाब का शासन अच्छी तरह से होने लगा था, किन्तु पंजाब के भाग्य में सुख-शान्ति न थी। थोड़े ही दिनों में हीरासिंह से भी लोग डाह करने लगे। दलीपसिंह के मामा तथा अचकई सरदारों ने हीरासिंह से मंत्रिपद छीन लेने का चेष्टा की थी। स्वयं हीरासिंह का ताऊ सुचेतसिंह उससे डाह करने लगा। कुछ इतिहासकारों का कहना है कि महारानी झिन्दा की इच्छा भी यही थी कि हीरासिंह की जगह सुचेतसिंह दीवान हो। जवाहरसिंह जो कि रानी झिन्दा के भाई थे, एक दिन राजा सुचेतसिंह को खालसा सेना में महाराज दिलीपसिंह समेत ले गए। वहां सुचेतसिंह की सम्मति से जवाहरसिंह ने खालसा से कहा कि हीरासिंह महाराज को बहुत कष्ट देता है, यदि आप लोग महाराज की रक्षा न करेंगे, तो मैं उन्हें अंग्रेजों की शरण में ले जाऊंगा। हीरासिंह ने पहले ही यह अफवाह उड़ा रक्खी थी कि जवाहरसिंह महाराज को अंग्रेजों के हवाले करना चाहता है। अब जब कि खालसा ने खुद जवाहरसिंह के मुंह से ही यह बात सुनी तो वे आगबबूला हो गए। खालसा सेना ने रात भर जवाहरसिंह समेत सबको पहरे में रक्खा, सवेरे हीरासिंह के पास खबर पहुंचाई। हीरासिंह ने जवाहरसिंह को तो कैद कर लिया और सुचेतसिंह की सेना की दोनों पलटनों जो उस समय किले में कैद थीं, के हथियार छीन कर किले से बाहर निकाल दिया। इस बात से सुचेतसिंह को बड़ा रंज हुआ, लेकिन राजा गुलाबसिंह समझा-बुझा कर अपने साथ जम्बू ले गए। महाराज दिलीप के शहर में आने पर सौ तोपों की सलामी हुई। उस दिन से खालसा सेना राजा सुचेतसिंह को लाहौर दरबार का दुश्मन समझने लगी। इस तरह से हीरासिंह ने जवाहरसिंह और सुचेतसिंह का दमन करके कुछ दिनों के लिए शान्ति स्थापित कर दी, किन्तु अशान्ति की ज्वाला भीतर ही भीतर धधकती रही।

उस समय सिख साम्राज्य के प्रत्येक सरदारों को राज-शक्ति प्राप्त करने की इतनी लालसा लगी हुई थी कि उनके हृदय में भले-बुरे का विचार करने की भी शक्ति का अभाव हो गया था। प्रत्येक सरदार, निज स्वार्थ के लिए, कुछ-न-कुछ ऐसी चाल चलता था, जिससे पुराने बखेड़े शांत होने तो दूर रहे, नए और खड़े हो जाते थे। हीरासिंह के सलाहकार पंडित जल्ला ने एक और षड्यंत्र यह रचा कि दलीपसिंह को राज्य से हटा कर शेरसिंह के पुत्र को पंजाब का महाराज बना दिया जाए। परन्तु महारानी झिन्दा को जल्ला की चालाकी का पता लग गया। उसने महारानी झिन्दा के आचरण पर भी आपेक्ष करने आरम्भ कर दिए।

उधर जम्बू पहुंच कर गुलाबसिंह भी शान्ति से बैठा न रहा। उसने लाहौर दरबार में एक जाली पत्र भिजवाया कि रणजीतसिंह के दोनों पुत्र काश्मीरसिंह


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और पिशौरासिंह सिन्धान वाले अतरसिंह से मिलकर राज्य हड़पने की तैयारी कर रहे हैं। गुलाबसिंह के साथ इस चालाकी में हीरासिंह स्वयं शामिल था। हीरासिंह ने उन दोनों के दमन करने के लिए सेना भेज दी। खालसा सेना महाराजा रणजीतसिंह के लड़कों की इज्जत करती थी। इस खबर को सुनकर एकदम से वह क्रोधित हो उठी। उसने हीरासिंह को उसी के बाप की हवेली में कैद कर लिया। हीरासिंह ने सेना को वचन दिया कि काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह दोनों राजकुमारों के प्राण और संपत्ति की रक्षा की जाएगी और आगे से जल्ला पंडित को राजकाज में भाग लेने से अलग कर दिया जाएगा। गुलाबसिंह की सेना ने उधर उन दोनों राजकुमारों के दमन के लिए सेना भेजी किन्तु वे दोनों सेना के हाथ न आए। सेना ने उनकी जागीर जब्त कर ली। थोड़े दिनों बाद, गुलाबसिंह ने उन्हें दम दिलासा देकर जम्बू बुला लिया और कैद कर लिया। साथ ही उनसे कहा कि यदि एक लाख रुपया दो तो तुम्हें छोड़ दिया जाएगा। जब खालसा सेना को इस बात का पता लगा तो उसने राजकुमारों का पक्ष लिया। इसलिए गुलाबसिंह ने दोनों से बीस हजार रुपया लेकर छोड़ दिया। फिर भी खालसा सेना संतुष्ट न हुई।

राजधानी में अराजकता से सूबेदार भी खूब अन्धा-धुन्धी में लगे हुए थे। खुद गुलाबसिंह ने भी पिछले कई वर्ष से राज-कर अदा नहीं किया था। सावनमल का बेटा मुलतान का सूबेदार मूलराज, राजस्त्र-कर देना बन्द कर चुका था। उसने घोषणा कर दी कि मुलतान लाहौर का करद राज्य नहीं, किन्तु स्वतंत्र राज्य है। इस समय तक खालसा सेना को वेतन भी नहीं मिला था। खालसा सेना वेतन न पाने से असंतुष्ट तो थी ही, काश्मीरासिंह और पिशौरासिंह के साथ गुलाबसिंह के किए गए व्यवहार ने उसे और भी असंतुष्ट कर दिया।1 इसलिए उसने सुचेतसिंह को दीवान बनने के लिए तैयार किया। वह तो यह पहले से ही चाहता था। सन् 1843 की 28वीं मार्च को वह थोड़ी सी सेना के साथ शाहदरा के पास पहुंच गया। इस खबर को सुनकर हीरासिंह बहुत घबराया और खालसा सेना में पहुंचकर उसने बड़े मार्मिक शब्दों में भाषण दिया। उसमें उसने सिख सैनिकों से अपील की -

खालसा सेना के बहादुरो! आपके पुराने मंत्री राजा ध्यानसिंह का पुत्र और आपके श्रद्धेय महाराजा रणजीतसिंह का दत्तक पुत्र आपके सामने खड़ा है। अगर इसने कोई अपराध किया है, यह लो तलवार, इससे इसका सिर अलग कर दो, किन्तु मुझे फिरंगियों के दोस्त सुचेतसिंह के हवाले मत करो। मैं खालसा के बहादुर सैनिकों द्वारा मरना अपने पतित ताऊ सुचेतसिंह के हाथ से मरने की अपेक्षा अच्छा समझता हूं।

इसके अलावा, उसने प्रत्येक सिपाही


1. राज्य की आर्थिक परिस्थिति की जांच के लिए जल्ला पंडित को नियुक्त किया था । उसने कई यूरोपियन कर्मचारियों को अलग कर दिया।


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को सोने का कड़ा और प्रत्येक अफसर को सोने का कण्ठा देने का वचन दिया। खालसा सेना पर उसका यह मोहनी-मंत्र काम कर गया। जो खालसा सेना उसके विरुद्ध थी, अब उसकी सहायक हो गई। सुचेतसिंह के पास खालसा सेना तथा हीरासिंह की ओर से लौट जाने की खबर पहुंचाई गई, किन्तु उसने कहला भेजा कि यदि खालसा मेरे साथ विश्वासघात करना चाहता है तो करे। पहले उसने मुझे बुलाया है, अब इस तरह मेरा अपमान किया जाता है। उसके 400 सिपाहियों में से केवल उसके पास 40 ही रह गए। हीरासिंह ने उसे जहां कि वह एक मस्जिद में ठहर रहा था, चौदह हजार सवारों के साथ घेर लिया। उसके दो साथी, राय केसरसिंह और बसन्तसिंह बड़ी बहादुरी से लड़े।1 जो आशरों पर खेल जाता है, वह सब कुछ कर गुजरता है। 160 सिखों को मारने के बाद, ये 40 आदरी काम आए। लड़ाई खतम होने पर हीरासिंह ने सुचेतसिंह की लाश को ढुंढ़वाया। लाश को देखकर हीरासिंह खूब रोया। उसका सम्मान-पूर्वक दाह-संस्कार किया गया।

राज सुचेतसिंह की मृत्यु के बाद जवाहरसिंह कुछ दिन के लिए दब गया। किन्तु फिर भी पूरी शांति नहीं हुई थी। वह लाहौर में अपना वश न चलता देखकर अमृतसर चला गया। क्योंकि सुचेतसिंह लावारिस मरा था, इसलिए उसकी सम्पत्ति और जायदाद सिख कानून के अनुसार सिख-राज्य में शामिल कर ली गई। किन्तु अंग्रेजों ने बिना ही कारण इस मामले में हस्तक्षेप किया। सिख-दरबार को अंग्रेज सरकार की ओर से कहा गया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर दखल पाने न पाने का निबटारा ब्रिटिश अदालत में होना चाहिए। स्वाधीन राज्य के साथ अंग्रेजों की ऐसी लिखी-पढ़ी एकदम अनधिकार चेष्टा थी। सिख-दरबार ने इस हस्तक्षेप को अस्वीकार कर दिया। फिर अंग्रेजी अदालत में विचार हुआ। अदालत ने फैसला दिया कि राजा सुचेतसिंह की जायदाद और सम्पत्ति पर कब्जा कर लेने का सिख-साम्राज्य को अधिकार है। फिर हठी अंग्रेज कर्मचारियों ने सिख-दरबार को लिखा कि यदि सुचेतसिंह के भाई राजा गुलाबसिंह और भतीजा हीरासिंह अपनी मर्जी से यह सम्पत्ति महाराज दिलीप को देना चाहते हैं, तो हमें कोई ऐतराज नहीं है। लेकिन सिख-दरबार ने इस बेहूदी चिट्ठी का कोई जवाब नहीं दिया। आखिर सुचेतसिंह की जो सम्पत्ति अंग्रेजी इलाके में थी, उसे वे हड़प गए। करीब यह 15 लाख थी। इस बखेड़े के बाद खालसा पर हीरासिंहजी


1. केसरीसिंह ने घायल अवस्था में ही हीरासिंह से जयदेव कहकर पीने को पानी मांगा, किन्तु हीरासिंह ने यह अमानुषी उत्तर दिया कि - “पानी पहाड़ों में से पियो।”


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का अच्छा असर पड़ा, क्योंकि इस बखेड़े में उसने बड़ी दिलेरी के साथ अंग्रेजी हस्तक्षेप का विरोध किया था।

जवाहरसिंह अमृतसर पहुंच कर हीरासिंह के विरुद्ध षड्यन्त्र रचने लगा। उसने अकाली भैया, बाबा और पुरोहितों तथा गुरुओं से मिलकर षड्यन्त्र की तैयारी की। इस कार्य में लालसिंह भी जो राजा ध्यानसिंह का प्रिय पात्र और हीरासिंह का मित्र था, शामिल हो गया। मित्र के प्रति विश्वासघात करने के लिए लालसिंह की पापी आत्मा ने जवाहरसिंह से सम्बन्ध स्थापित कर लिया। वैसे यह लालसिंह जल्ला पंडित का भी मित्र बन चुका था, पर कपट उसके हृदय में खेलता था।

माझा में एक व्यक्ति बाबा वीरसिंह नामक रहता था। उसने 1500 सवार इकट्ठे कर लिए थे। यह कहता फिरता था कि पंजाब की हुकूमत गुरु गोविन्दसिंह की है, दिलीपसिंह बच्चा है। हीरासिंह भी अयोग्य है। इस साम्राज्य के लिए खालसा को कोई अपना आदमी नियुक्त करना चाहिए। साथ ही सिन्धान वालों के पक्ष में प्रचार आरम्भ किया। इसी उद्देश्य से सब सरदारों को चिट्ठियां भी लिखीं। काश्मीरसिंह और पिशौरासिंह भी इस विद्रोह में शामिल हो गए, क्योंकि वे गुलाबसिंह के दुर्व्यवहार और हीरासिंह की चालाकी से जलते थे। लाहौर दरबार की ओर से इस दल को दमन करने के लिए फौजें भेजी गईं। घनघोर युद्ध हुआ। इस युद्ध में भाई वीरसिंह, अतरसिंह सिन्धान वाला और काश्मीरसिंह मारे गए। कुंवर पिशौरासिंह घटना से एक दिन पहले लाहौर चले आए थे, इससे वे बच गए। हीरासिंह ने लाहौर में उनका बड़ा आदर-सत्कार किया था। उनकी जागीर वापस कर दी थी। हीरासिंह ने इस बनावटी आव-भगत से लाहौर में रहते समय तक पिशौरासिंह को यह न मालूम होने दिया कि युद्ध में सिन्धान वाले तथा काश्मीरासिंह आदि मारे गए हैं। अपनी वाक्-चातुरी, राजनैतिक बुद्धि से हीरासिंह ने अपने सभी विरोधियों का दमन कर दिया था। खालसा सेना पर भी काफी दिनों तक प्रभाव रक्खा, किन्तु वह समय भी धीरे-धीरे आने लगा, जब हीरासिंह के प्रति असन्तोष की मात्रा इतनी बढ़ गई थी कि उसका दमन न हो सका।

जल्ला, यद्यपि विद्वान् और राजनीतिज्ञ था, वह लाहौर के शासन में विदेशियों का हस्तक्षेप भी नाजायज समझता था, उसने कुछ यूरोपियन कर्मचारियों को भी अलग किया था, किन्तु वह भी गृह-युद्ध में एक पात्र बन गया। यों तो उसने अपने रूखे स्वभाव से सारे सिख-सरदारों को चढ़ा दिया था, किन्तु साथ ही वह महारानी झिन्दा की भी निन्दा किया करता था। आगे चलकर ऐसी अफवाह फैली कि जल्ला पंडित और हीरासिंह दीवान महारानी को व्यभिचार के हेतु अपने चंगुल में फंसाने के लिए उन्हें तंग करते हैं। फिर क्या था, खालसा सेना भड़क उठी। उसने जल्ला पंडित को मारने का निश्चय कर लिया। 18 दिसम्बर सन् 1844 को,


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एक दिन, रात के समय, राजा हीरासिंह दीवान और जल्ला पंडित लाहौर से भागने की तैयारी कर रहे थे कि उन्हें सेना ने गिरफ्तार कर लिया, और दोनों को मार डाला। हो सकता है कि इनके विरोधियों ने यह झूठी अफवाह फैलाई हो, किन्तु यह बात भी सही है कि महारानी झिन्दा इन दोनों ही से खुश न थी। जल्ला का सिर गली बाजार और मुहल्लों में घुमाया गया। फिर उसे कुत्तों को खिला दिया गया। जम्बू के राजा गुलाबसिंह के लड़के मियां सोहनसिंह का सिर मोरी दरवाजे पर और हीरासिंह दीवान का सिर लाहौरी दरवाजे पर टांग दिया गया। कुछ दिन के बाद इन सिरों को राजा ध्यानसिंह की हवेली में फेंक दिया गया।

हीरासिंह की मृत्यु के पश्चात् खालसा ने जवाहरसिंह को मन्त्री बनाया। खालसा और उनके सैनिकों को प्रसन्न करने के लिए जवाहरसिंह ने तोशाखाने के सोने के बर्तनों को गलवा कर कन्धे बनवाकर सिपाहियों में बतौर इनाम के बांट दिए, इसलिए खालसा के सैनिक बड़े प्रसन्न हुए। पिछले कई वर्ष से गुलाबसिंह जम्बू ने खिराज देना बन्द कर दिया था। उसकी तरफ तीस करोड़ रुपये निकलते थे। इसलिए खालसा फौज ने जम्बू पर चढ़ाई कर दी। लड़ाई में सरदार फतेसिंह काम आया। गुलाबसिंह इतना डरा कि हाथ जोड़कर खालसा के सामने हाजिर हुआ और अपने किए के लिए माफी मांगने लगा। तीन लाख रुपया उसने खालसा के सैनिकों में बांटा। इस तरह से खालसा सैनिकों ने अधिक उपद्रव नहीं किया और गुलाबसिंह को लाहौर ले आए। महारानी झिन्दा राजा गुलाबसिंह की खुशामद से प्रसन्न हो गई और उनकी यह भी इच्छा हो गई कि उनको दरबार का मन्त्री बना दिया जाए, किन्तु वह डरता था कि उसकी भी गति ध्यानसिंह और हीरासिंह की सी न हो, इसलिए उसने जम्मू जाना ही उचित समझा। महारानी ने उस पर छः लाख अस्सी हजार रुपया जुर्माना करके जम्बू जाने की आज्ञा दे दी और उसकी बहुत जागीर भी अपने राज्य में मिला ली। यहां से लौटने पर उसने पिशौरासिंह को मन्त्री जवाहरसिंह के खिलाफ उकसाया। जवाहरसिंह भी योग्य आदमी न था, शासन-सूत्र भी उससे चलना कठिन हो रहा था और उधर खालसा की शक्ति बढ़ी हुई थी। रणजीतसिंह के साम्राज्य का कर्त्ता-धर्त्ता खालसा ही था। खालसा जिसे चाहता था, राजा बनाता था और जिसे चाहता मन्त्री। जवाहरसिंह के कुछ एक कृत्यों से खालसा नाराज भी था। क्योंकि एक समय जवाहरसिंह ने महाराजा दिलीपसिंह को अंग्रेजों के पास ले जाने की धमकी दी थी। जवाहरसिंह ने अपनी बहन महारानी झिन्दा के परामर्श से बहुत वायदे करके खालसा को फौरन अपनी ओर मिलाने की चेष्टा की इसलिए उस समय तो खालसा ने लाहौर आए हुए पिशौरासिंह की कोई मदद नहीं की और उसे अपनी जागीर में जाने को कह दिया। पिशौरासिंह ने लाहौर से चलकर पठानों की मदद से अटक को अधिकार में कर लिया और साथ ही अपने को पंजाब का राजा घोषित कर दिया ।


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सारे पंजाब पर अधिकार करने के लिए वह काबुल के अमीर दोस्त मुहम्मदखां से लिखा-पढ़ी करने लगा। उसकी ऐसी कार्यवाही देखकर लाहौर से जकसर ने खालसा फौजें उसको दमन करने के लिए भेजीं। लेकिन खालसा ने पिशौरासिंह के खिलाफ लड़ने के लिए इनकार कर दिया। चूंकि वह अपने महाराज रणजीतसिंह के पुत्र पर हाथ उठाना नहीं चाहते थे, तब जवाहरसिंह ने सरदार चरतसिंह अटारी वाले को नौशेरा से और फतहखान बटाना को डेरा इस्माइल खां से पिशौरासिंह के दमन के लिए अटक भेजा। इन लोगों ने मुकाबले की हिम्मत न देखकर सुलह से काम लिया। बहुत सी चिट्ठी-पत्री के बाद निर्णय हुआ कि पिशौरासिंह किला खाली करके बाहर आ जाए तो महारानी झिन्दा से उसे कुछ रुपए की जागीर और दिला दी जाएगी। वह इन लोगों के दम दिलासे में आ गया और किला खाली करके बाहर निकल आया। लेकिन इन लोगों ने विश्वासघात करके उसे कैद कर लिया और गला घोंटकर उसका प्राणांत कर दिया। जब यह खबर लाहौर पहुंची तो जवाहरसिंह ने बड़ी खुशियां मनाईं और तोपों से सलामी दी गई और रात को रोशनी की गई। पिशौरासिंह की मृत्यु के उपलक्ष्य में, जवाहरसिंह द्वारा इस तरह खुशियां मनाए जाने पर खालसा सेना क्रोध से उत्तेजित हो उठी और उसने दूसरे ही दिन किले को घेर लिया। जवाहरसिंह खालसा की नाराजगी से घबरा गया, उसके सैनिकों को बहुत सा इनाम देने के प्रलोभन दिए, परन्तु उसने एक न सुनी। लाचार होकर अपनी बहन की सलाह से, बालक महाराज को साथ लेकर, खालसा सरदारों की सेवा में हाजिर हुआ। सैनिकों ने उसे देखते ही बिगुल बजाना शुरू कर दिया और जबरदस्ती उसे हाथी पर कस लिया। सैनिक इतने उत्तेजित थे कि उन्होंने जवाहरसिंह की गोद से महाराजा दिलीपसिंह को छीन लिया और उसे संगीनों से छेद डाला और साथ ही उसके सलाहकार रतनसिंह और भाई जद्दू को कत्ल कर दिया। यह घटना 21 सितम्बर 1845 ई० की है।

महारानी के पास से भी बहुत सी नकदी और सोना ले लिया और महारानी को रात भर खेमों में रक्खा। वहां वह रात भर रोती रही। सवेरे उन्हें उनके भाई जवाहरसिंह की लाश दिखलाई। महारानी अपने भाई की मृत्यु से इतनी दुःखी हुई कि अपने सिर के बाल नोचने और अपने शरीर के कपड़े फाड़ने लग गई। बड़ी मुश्किल से लाश उनसे वापस ली गई जिसे भस्ती दरवाजे के बाहर जलाया गया। जवाहरसिंह के साथ उनकी दो रानियां और तीन दासी सती हुईं। रानी नित्यप्रति अपने भाई की समाधि पर जाकर रोती थी। खालसा के सरदारों ने बड़ी प्रार्थनायें और खुशामदें करके उन्हें प्रसन्न किया और यह तय हुआ कि जवाहरसिंह के हत्यारों को महारानी के सुपुर्द कर दिया जाएगा। राजा सुचेतसिंह का मंत्री जवाहरमल जो कि जवाहरसिंह के षड्यंत्र में शामिल था, महारानी के सुपुर्द कर


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-315


दिया गया तथा कुछ और भी डोगरे राजदूत पकड़े गये। इन सबको रात के समय शहर छोड़ने की आज्ञा दी गई।

जवाहरसिंह के मारे जाने के पीछे पंजाब में पूरी अशान्ति छा गई। कोई भी संरक्षक न रहा। गुलाबसिंह और तेजसिंह से मंत्री होने के लिए कहा गया। लेकिन उन्होंने खालसा के डर की वजह से नामंजूर किया। उस समय पंजाब की मन्त्रित्व की कुर्सी तप्त तवे के समान थी। मंत्री वही हो सकता था जिसमें खालसा सेना को वश में रखने की शक्ति हो। समस्त पंजाब में उस समय कोई भी माई का लाल मंत्रित्व ग्रहण करने के लिए तैयार नहीं दिखाई देता था। लाचार दशहरे के दिन महारानी Regend of State यानी प्रतिपालक नियुक्त हुईं और वे दीवान दीनानाथ, भाई रामसिंह तथा मिश्रलालसिंह आदि के परामर्श से राजकार्य चलाने लगीं। एक बार महारानी ने मंत्री पद के लिए पांच आदमियों के नाम की गोली डलवाई। गोली लालसिंह के नाम की निकली। लेकिन खालसा ने उसे स्वीकार नहीं किया। फिर भी महारानी ने लालसिंह को राजा की उपाधि दी और तेजसिंह को सेनापति बना दिया। लेकिन अन्तिम निर्णय खालसा के हाथ था। अब आगे वह हाल दिया जाएगा जिसमें सिख-साम्राज्य का, गृह-कलह के कारण, नष्ट होने का चित्र है।

सिख-साम्राज्य और अंग्रेज

अंग्रेज व्यापारी बनकर भारत में आए थे। लेकिन उन्होंने अपनी मक्कारी और भारतीय राजघरानों की विवेकहीनता के कारण सारे देश पर अपना अधिकार जमा लिया। महाराज रणजीतसिंह के समय में अंग्रेजी-कम्पनी के कर्मचारियों की इतनी हिम्मत न हुई कि वे पंजाब पर हाथ डालें। यदि महाराज रणजीतसिंह से अंग्रेजों की ठन जाती तो आज भारत का इतिहास दूसरी ही भांति लिखा जाता। महाराज रणजीतसिंहजी इस बढ़ते हुए अंग्रेज-शाही अजगर से शंकित न हों, सो बात नहीं। एक बार जब उन्हें एक अंग्रेज ने भारतवर्ष का नक्शा दिखाते हुए लाल रंग की भूमि को अंग्रेजी राज्य बताया तो उन्होंने बड़े अफसोस के साथ, दीर्घ निश्वास छोड़ते हुए कहा था - हां ! एक दिन यह सारा लाल हो जायेगा, किन्तु वे भी भीतरी शक्तियों को वश में करने में लगे हुए थे, इसलिए कर क्या सकते थे। उस समय के अंग्रेज अधिकारी भी महाराज की गतिविधि का पूरा ख्याल रखते थे। वे महाराज के बढ़ते हुए वैभव को देखकर प्रसन्न होते हों सो बात नहीं। ज्यों ही उन्हें पटियाला, नाभा आदि को अपनी ओर मिलते देखा, त्यों ही उन्होंने महाराज को सतलज के पार बढ़ने से रोक दिया। किन्तु नैपोलियन, फ्रांसीसी तथा रूस के बादशाह के डर ने उन्हें इस बात के लिए बाध्य किया कि वे शीघ्र महाराज रणजीतसिंह से सन्धि कर लें। अपनी चतुरता, राजनीतिमत्ता से सन् 1808 ई० में उन्होंने


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सिख-साम्राज्य के कर्त्ता-धर्त्ता महाराज रणजीतसिंह को अपना दोस्त बना ही लिया। महाराज जब तक जिन्दा रहे बड़ी इज्जत और दृढ़ता के साथ अंग्रेजों ने सन्धि को निभाया। यदि न भी निभाते तो वे कर क्या सकते थे। प्रकृति ने रणजीतसिंह को इसीलिए बनाया था कि उसके विरुद्ध होने वाले को सजा भुगतनी पड़े। एक बात यह भी थी कि रणजीतसिंह के भय से किसी भी सरदार जागीरदार की इतनी हिम्मत न होती थी कि वह गृह-कलह का बीज बो दे। भारत का इतिहास इस बात का साक्षी है कि विदेशियों ने खास कर अंग्रेजों ने गृह-कलह से भारत में बड़ा लाभ उठाया है। पंजाब में भी यही हुआ। महाराज रणजीतसिंह के स्वर्गवास होते ही गृह-कलह आरम्भ हो गया। महाराज के अयोग्य पुत्र खड़गसिंह के समय में ही षड्यन्त्र होने लग गए थे। सबसे पहले इन षड्यन्त्रों में डोगरा राजपूत सरदार राजा ध्यानसिंह ने भाग लिया। यह सही है कि खड्गसिंह ने चेतसिंह जैसे निकम्मे और चरित्रहीन व्यक्ति को अपना प्रधानमंत्री बना कर गलती की, किन्तु ध्यानसिंह ने जो निराधार अफवाह उनके सिखों तथा स्त्री, पुत्रों में फैलाई, यह सर्वथा उसके अयोग्य थी। राजा ध्यानसिंह जिसे महाराजा रणजीतसिंह ने नाचीच से इतना बड़ा बनाया था, उसने सिख-साम्राज्य की हित-चिन्ता की अपेक्षा अपने मानापमान को अधिक समझा। केवल अपना स्थान और गौरव बनाये रखने के लिए उसने सब कुछ किया। उसने वे कृत्य किये, जिन्हें कोई भी राष्ट्र-हितैषी घृणित कह सकता है। हो सकता है कि नौनिहालसिंह की मृत्यु में उसका हाथ न रहा हो, लेकिन इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि नौनिहालसिंह की मृत्यु के पीछे अवश्य ही उसके हृदय में दगाबाजी थी। नहीं तो क्या कारण था कि शेरसिंह को वह राज्य दिलाने के लिए उकसाता। सिर्फ इसीलिए कि शेरसिंह के राजा होने पर उसका मन्त्रित्व और गौरव रजिस्टर्ड हो जायेगा। इसके भाई सुचेतसिंह, गुलाबसिंह और पुत्र हीरासिंह सभी ने गृह-कलह में भाग लिया। गुलाबसिंह ने तो यहां तक धृष्टता की कि जम्मू को जो कि महाराज ने इसे सूबेदारी में दिया था, सिख-साम्राज्य से अलग ही करने की चेष्टा की।

कहा जा सकता है कि ये लोग गैर सिक्ख अथवा गैर जाट थे, किन्तु सबसे बड़ा पाप सिन्धान वालों ने किया जिन्होंने मंत्रीपद की प्राप्ति के लिए अपने जातीय नरेश और उसके बच्चे (महाराज शेरसिंह और कुं० प्रतापसिंह) को कत्ल कर दिया।

कुंवर काश्मीरासिंह, पिशौरासिंह, महारानी जिन्दा और उसके भाई खालसा तथा प्रान्तीय शासक सभी ने गृह-कलह में आहुति दी। लेकिन यह मानना पड़ेगा कि खालसा ने गृह-युद्ध में भाग लिया सही फिर भी महाराज रणजीतसिंह के वंशजों के प्रति उसकी अपूर्व भक्ति रही। खालसा स्वतंत्रता-प्रिय दल था। वह यह कदापि बर्दाश्त नहीं कर सकता था कि पंजाब का कोई भी अधिकारी तथा राज परिवारीजन


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अंग्रेजों के हाथों में पंजाब को सौंपने की कौशिश करे। खालसा को किसी भी व्यक्ति के विरुद्ध भड़काने के लिए इतना कह देना काफी था कि अमुक व्यक्ति अंग्रेजों को पंजाब के शासक बनने में उकसाता है या सहायता देना चाहता है। महाराज खड़गसिंह से लेकर जवाहरसिंह तक सभी के विरुद्ध खालसा को इसी एक कुमंत्र ने कर दिया।

शासन के सूत्रधारों की परस्पर ईर्षा, राज्य-परिवार के सदस्यों का आपसी विरोध और खालसा की उद्दंडता के समय अंग्रेज भला कब तक चुपचाप बैठे रह सकते थे? वे तो ऐसे मौके की तलाश में थे ही। उन्होंने इस अवसर को हाथ से न जाने देने का निश्चय कर लिया। पंजाब-दरबार के विद्रोहियों को तो वे शरण देने लग ही गए थे, किन्तु शेरसिंह के पंजाब नरेश होते ही इन्होंने उन्हें लिखा कि हम उद्दंड खालसा को सबक देने के लिए बारह हजार सवारों के साथ तैयार हैं। बदले में तुम्हें सतलज के दक्षिण के इलाके तथा 40 लाख रुपया देना होगा। किन्तु शेरसिंह ने इस सहायता के लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया। लेकिन अंग्रेज निराश होने वाले न थे। उन्हीं दिनों अफगानिस्तान स्थित अंग्रेज एजेण्ट मि० ऐवट ने घोषित किया कि अब से पंजाब से की हुई हमारी सन्धि भंग हो गई है और पेशावर को हम सिक्खों से छीन कर अफगानों को देंगे। यह अंग्रेजी मनोवृत्ति की पहली सूचना थी, जिसने एक बार में सिक्खों की आंखें खोल दीं। वे भौंचक्के हो गए। जिन अंग्रेजों को वे मित्र समझते थे, उन्हीं के एजेण्ट की ऐसी घोषणा! उन्होंने समझ लिया, निकट भविष्य में अंग्रेज उनसे झगड़ा करेंगे और अवश्य करेंगे।

यद्यपि सिख अंग्रेजों से शंकित रहने लगे थे, फिर भी उन्होंने अंग्रेजों की आपत्ति के समय रक्षा की। दोस्त मुहम्मदखां अमीर काबुल के बहादुर शाहजादे अकबरखां ने बालाहिसार में रहने वाले अंग्रेज-दूत मकनाटन तथा अनेक गोरे सैनिकों को विश्वासघात करके मार डाला। अकबरखां से बदला लेने के लिए अंग्रेजों ने अफगानिस्तान पर चढ़ाई की। सहायता के लिये लाहौर-दरबार से प्रार्थना की। महाराज शेरसिंह ने कुछ सैनिक भेज दिये। विजय हो जाने पर जो कि सिखों की वीरता से हुई थी, अंग्रेज जनरल ड्यूक ने लूट के समय सिख-सैनिकों को लूट करने से रोक दिया और अंग्रेजी सेना काबुल को लूटती रही। इस बात का भी सिखों पर बुरा प्रभाव पड़ा। वे अंग्रेजों की आन्तरिक भावना को ताड़ गये। साथ ही अंग्रेजों के मि० ब्रांडफुट साहब ने 1 अपनी सेना को सिख-राज्य में से अफगान ले जाकर अपनी-अंग्रेजों की उस प्रतिज्ञा को तोड़ दिया, जो उन्होंने 27


1. ब्रांडफुट ने सिखों के साथ और भी नटखटीपन यह किया कि कार्यवश आगे से निरस्त्र सिख सेना पर उन्होंने अपने सैनिकों को दौड़ाया और पेशावर पहुंच कर उन्होंने अटक नदी का पुल तुड़वा दिया। इस पर भी सिख शान्त रहे। फिर


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जून सन् 1838 को (शाहशुजा को काबुल की गद्दी पर बैठा कर वापस आते समय) अपनी फौज को सिख-राज्य में से ले जाते समय 'भविष्य में सिख राज्य में होकर अंग्रेजी सेना न ले जाने की थी।'

इन बातों के अलावा अंग्रेज सन् 1809 ई० की सन्धि के विरुद्ध भी आचरण कर रहे थे। उस समय उन्होंने प्रतिज्ञा की थी कि सिख-साम्राज्य के निकट छावनी नहीं बनायेंगे। पर पीछे अंग्रेज लोग इस प्रतिज्ञा को भूल गए, लाहौर के निकट ही लुधियाने में उन्होंने अंग्रेजी छावनी बना ली। इसके सिवाय नैपाल-युद्ध के पश्चात् सबथू में पुलिस रक्षा के बहाने पर, एक पलटन रक्खी - फिरोजपुर जो कि एक तरह से सिख साम्राज्य के अन्तर्गत था, अंग्रेजों ने उसे अपने राज्य में मिला लिया।1 वहां पर बारह हजार सेना रखते समय अंग्रेजों ने कहा था कि सेना यहां केवल एक वर्ष रहेगी, किन्तु एक क्या दो वर्ष पीछे भी सेना वहां से नहीं हटाई और स्थायी छावनी बनवा दी। ये ही क्यों, अंग्रेजों ने सिख-साम्राज्य के निकट अम्बाले तथा पहाड़ी भूखंडों में भी सैनिक टुकड़ियां रखकर छावनी बना दीं। सीमा प्रान्त में ढाई हजार से आठ हजार (लार्ड आकलैंड के समय में), चौदह हजार (लार्ड ऐडनवरा के समय में) और फिर बत्तीस हजार (लार्ड हार्डिंग के समय में) फौज बढ़ा दी गई। छः तोपों के स्थान पर 68 तोपें कर दी गईं। इसके सिवाय मेरठ में तोप और सेना की स्थापना कर दी गई। इतनी तैयारियों के देखने से सम्भवतः सिखों के हृदय में यह आशंका घर कर गई कि अंग्रेज यह तैयारी अपनी रक्षा के लिए नहीं, किन्तु सिख-साम्राज्य हड़पने के लिए कर रहे हैं।2

सिखों की आशंका को बढ़ाने के लिए अंग्रेजों की ओर से नित नई घटनायें होती थीं। अफगान-युद्ध के बाद अंग्रेजों ने बम्बई में सतलज का पुल बांधने के लिए तैयारी कर दी। पुल का सामान ढ़लने लगा और मुलतान पर आक्रमण करने के लिए सिंध में पांच सेना इकट्ठी होने लगीं। हालांकि अंग्रेजों ने सतलज का पुल


अफगान प्रजा को ब्रांडफुट सिखों के विरुद्ध उकसाने लगे। यही क्यों, सड़क पर चलते हुए कुछ सिख सिपाहियों को ही कैद कर लिया।

1. रणजीतसिंहजी के समय में फिरोजपुर विधवा तथा निस्सन्तान रानी लक्ष्मणकौर के अधीन था। महाराज रणजीतसिंह ने लक्ष्मणकौर के राज्य की उस समय रक्षा की थी जबकि उसे एक राज्य लोभी हड़प लेना चाहता था। इस प्रकार वह सिखों का रक्षित राज्य था।

2. इन बातों के अलावा सिखों के हृदयों में एक बात और भी सन्देह पैदा कर रही थी। वह यह कि कुं० नौनिहालसिंह के समय में कुछ अंग्रेजों ने यह प्रस्ताव किया था कि रणजीतसिंह के पौत्र के मरने के बाद पेशावर को पंजाब से अलग करके अंग्रेजों के दोस्त शाहशुजा को दे दिया जाए।


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बांधने तथा मुलतान पर आक्रमण करने की सूचना सिख-दरबार को नहीं दी थी, तथापि इन तैयारियों की खबर इतने जोर से फैली कि सिखों को भी इसकी सच्चाई में खास तौर से पूर्व व्यवहारों के कारण सन्देह न रहा।

अपनी स्वाधीनता के अपहरण होने के भय से जबकि सिख लोग इस प्रकार चिन्तित हो रहे थे, उन्हीं दिनों घोर सिख-विरोधी और महाक्रोधी तथा अविचारी मि० ब्राडफुट ने दो वर्ष पहले सिखों के हृदय में अंग्रेजों के प्रति आशंका के अंकुर पैदा किये थे, उसी को एजेण्ट बना कर भेजना, सिखों की नजर में अंग्रेजों की भली नीयत का परिचायक न था। ब्राडफुट ने भी कार्य-भार संभालते ही “पटियाला, नाभा, आदि सतलज के पार के राज्यों को अंग्रेजों के रक्षित बताया और साथ ही यह भी प्रकट किया कि इन राज्यों के अधिकारी महाराज दिलीप की मृत्यु के बाद तथा उनके गद्दी से अलग होने पर अंग्रेजों के अधीन हो जायेंगे।” अंग्रेजी सेना की लगातार वृद्धि और अंग्रेज कर्मचारियों की बिना बात की छेड़छाड़ भला किस सिख के हृदय में क्रोध उत्पन्न न करती होगी? फिर भी सिख शान्त थे। वे सहनशीलता की हद कर रहे थे। मेजर ब्राडफुट के कमीनेपन की हद यहीं तक नहीं हुई। आपने उन सिख घुड़सवारों के ऊपर भी गोली चलवा दी जो कि पंजाब-दरबार की आज्ञा से, फिरोजपुर के पास सतलज को पार करके कटकपुरा नामक (सिख अधीनस्थ) स्थान को छुट्टी पर गये हुए सैनिकों की जगह पर जा रहे थे। सन् 1809 की सन्धि के अनुसार, वे सिख घुड़सवार फिरोजपुर के पास से सतलज पार कर सकते थे। किन्तु ब्राडफुट तो रार मचाने पर ही तुला हुआ था। उन सवारों के नायक ने बड़ी सहनशीलता से काम लिया, वरना उनकी भुजाओं में ब्राडफुट को दण्ड देने की शक्ति थी।1

मि० ब्राडफुट ने संग्राम रचने के साधनों में कोई कसर न छोड़ी। बम्बई में जिन नावों के बनाने की खबर पहले सिखों को मिली थी, वे ही नावें उसने घमंड के मारे एक बड़ी सेना के साथ फिरोजपुर की ओर मंगवाई। मानो वह सिखों को युद्ध की चेतावनी देना चाहता था। सिखों ने इन सब घटनाओं को देखकर भी सहन किया, किन्तु अंग्रेजों के छोटे-छोटे जहाज बिना रक्षक के सतलज के जल को चीरते हुए सिख-सीमा में चला करते थे। एक जहाज तो फिल्लोर किले के पास ही जहां कि सिखों की गगन-विदारी तोपें मौजूद थीं, लंगर डाले बहुत दिनों तक पड़ा रहा। सिखों को चाहिये तो यह था कि उसे तुरन्त किले के पास से हट जाने को कहते,


1. कुछ ऐतिहासिकों का मत है कि अंग्रेज सरकार इस झगड़ीले एजेण्ट की कार्यवाहियों से प्रसन्न न थी। लेकिन उसे रोका न गया। यह भूल अंग्रेज सरकार की भीतरी इच्छाओं पर दूसरा प्रकाश डालती है।


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किन्तु उन्होंने तो उनके साथ सद्व्यवहार किया। कनिंघम सरीखे अंग्रेज ऐतिहासिकों ने स्पष्ट लिखा है कि मेजर ब्राडफुट के एजेण्ट बनने ही के कारण सिख-युद्ध बहुत ही शीघ्र सम्भावित हुआ।

अन्य प्रमाणों की आवश्यकता नहीं। मूलराज के पत्र पाने पर ब्राडफुट ने जो आयोजन किया, वह उस जैसे अंग्रेजों की इच्छा की कलई खोल देता है। मुलतान के दीवान मूलराज ने लाहौर-दरबार को खिराज देना व उसकी आज्ञा मानना बन्द कर दिया था। इसलिए उसका दिमाग ठीक करने को लाहौर से सिख-सेना भेजे जाने की तैयारी होने लगी। उस समय मूलराज ने मि० ब्राडफुट को एक गुप्त चिट्ठी लिखने की कमीनी हरकत की। चिट्ठी का अभिप्राय यही था कि जब सिख-सेना मुलतान पर चढ़ाई करे तो अंग्रेज उसकी मदद करें। मेजर ब्राडफुट को चाहिए तो यह था कि इस चिट्ठी को वापस लौटा देता, क्योंकि अंग्रेजों की सिख-दरबार से मित्रता थी और मूलराज था सिखों का अधीनस्थ शासक। लेकिन ब्राडफुट ने अंग्रेज कर्मचारियों को समझाया कि बहुत संभव है सिख सेना अंग्रेजी साम्राज्य पर भी हमला करने की हिम्मत करे। इसलिए हमें अभी से सावधान हो जाना चाहिए और सिन्ध-विजेता मि० नैपियर को चिट्ठी लिख दी कि वह मूलराज की सहायता करे।

मि० नैपियर ब्राडफुट का भी चाचा निकला। सन् 1845 की गर्मियों में कुछ सिख सवार डाकुओं का पीछा करते हुए सिन्ध-प्रदेश की सीमा तक पहुंच गया। तब तक सिन्ध प्रदेश और पंजाब के मध्य अंग्रेजी-राज्य और सिख-राज्य की सरहद मुकर्रर न हुई थी। किन्तु फिर भी नैपियर ने यह दुहाई देकर कि सिख अंग्रेजी सीमा में घुस आए हैं, उन सवारों के पीछे अपनी फौज दौड़ाई। आगे चलकर वह खुल्लम-खुल्ला कहने लगा कि अब पंजाब पर हमला करना अंग्रेजों के लिए बहुत जरूरी हो गया है। इन दोनों अंग्रेजों के कृत्यों ने सिखों के हृदय में 'युद्ध होगा' की ध्वनि व्याप्त कर दी। इसके अतिरिक्त तत्कालीन अंग्रेजी समाचार पत्र 'सिख-युद्ध निकट भविष्य में होगा' की खबरें और टिप्पणियां प्रति सप्ताह देकर सिखों के हृदय में उथल-पुथल कर रहे थे। उन्हीं दिनों ब्राडफुट ने एक अन्याय पूर्ण कृत्य और कर डाला। उसने लुधियाने के पास के दो सिख प्रदेशों को अंग्रेजी-राज्य में मिला लिया। इस अन्धा-धुन्धी का कारण बताया गया कि इन स्थानों में अंग्रेजी-राज्य के अपराधी जाकर छिप जाते हैं। यदि यह बहाना सच भी हो तो भी सन्धि-पत्र के विरुद्ध था। मित्र-राष्ट्रों में ऐसे अपराधियों को पकड़ने के लिए जो साधन काम में लाए जाते हैं, वे ही यहां भी लाने चाहिए थे। स्वाधीन सिख-राष्ट्र के साथ एक अदना अंग्रेज कर्मचारी ने जो धृष्टता की थी, अंग्रेज सरकार को चाहिए था कि वह उसका प्रतिकार करती, उन प्रदेशों को लौटा देती। किन्तु यह कुछ भी न हुआ। अब सिखों को सोलहों आना विश्वास हो गया कि इसी भांति सारे सिख-


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साम्राज्य को अंग्रेज हड़प लेंगे। सिखों की भुजा दुर्बल न थी। अस्त्रों में भी जंग न लगा था। केवल सन्धि-मात्र के लिहाज से वे इतने दिनों तक अंग्रेजों की कुचेष्टताओं को बर्दाश्त कर रहे थे?

इधर सिक्खों का खून उबल रहा था, उधर सिक्ख-साम्राज्य में देशद्रोहियों की कमी न थी। उनकी इच्छा थी कि सिक्ख सेना शक्तिहीन हो जाए, कारण कि सिक्ख-साम्राज्य की बागडोर सिक्ख-सेना-खालसा के अधिकार में थी। खालसा जिसे चाहता, उसे मन्त्री बना देता था। मन्त्री लोग निरंकुशता चाहते थे। स्वयं महारानी जिन्दा भी खालसा से भयभीत थी। खजाना खाली था। सैनिकों को वेतन भी समय पर न मिल रहा था। कोई-कोई सिक्ख सरदार कहते थे कि हमें शेरसिंह के लड़के को गद्दी पर बिठाना पड़ेगा। इन्हीं कारणों से पंजाब के मन्त्री और महारानी चाहते थे कि खालसा का ध्यान दूसरी ओर बंट जाए। निदान यही उचित समझा गया कि अंग्रेजों से खालसा को भिड़ाया जाए। खालसा के सरदार इतने मूर्ख न थे कि वे यों ही किसी के बहकाने में आ जाते, किन्तु अंग्रेजों के कृत्य उन्हें पहले से ही उत्तेजित कर रहे थे। वे महाराज रणजीतसिंह की संचित की हुई जाटशाही अथवा सिक्ख-साम्राज्य को सहज में ही नष्ट नहीं होने देना चाहते थे। चूंकि गोला-बारूद की कमी थी, इसलिए लड़ाई कुछ दिनों के लिए टलती रही। लाहौर से हटाकर दरबार अमृतसर में होने लगा। बेगम बाग के राजभवन से राजकीय सूचनायें प्रकाशित होती रहती थीं। सन् 1845 के नवम्बर में दरबार फिर लाहौर आ गया और उसके अधिवेशन शालीमार बाग में होने लगे। खालसा को उत्तेजित करने के लिए अंग्रेजों के विरुद्ध कुछ झूठी अफवाहें भी उड़ाई जाने लगीं। कभी कहा जाता अंग्रेज सेना सतलज के दक्षिण-पूर्व की ओर बढ़ रही हैं। कभी उन प्रान्तों के सिक्ख शासकों की नकली चिट्ठियां दिखाई जातीं। यह सब प्रचार इस ढ़ंग से किया जाता था कि सिख सेना का खून उबल पड़े। लाहौर अंग्रेजों के आने के भय से सशंकित हो गया। घरू शत्रुओं की ओर से भी वही किया जा रहा था जिसे अंग्रेज चाहते थे। अंग्रेजों ने यदि युद्ध के लिए आग जलाई थी, तो घरू दुश्मनों - लालसिंह, तेजसिंह जैसे नमक हरामियों ने उसमें आहुतियां दीं।

नवम्बर सन् 1845 में लालसिंह ने खालसा सरदारों तथा समस्त सिक्ख पंचायतों का एक संयुक्त अधिवेशन किया। शालीमार बाग में यह ऐतिहासिक अधिवेशन किया गया था। आरम्भ में दीवान दीनानाथ ने एक चिट्ठी पढ़कर सुनायी जिसमें लिखा था कि सतलज पार के इलाकों में अंग्रेजों ने अपनी हुकूमत कायम कर ली है। वे सिक्ख प्रजा से कर मांगते हैं और उसे तंग करते हैं। काश्मीर और पेशावर के शासक बागी हो गए हैं। वहां से राजस्व-कर के नाम पर एक कौड़ी भी नहीं मिली है। समस्त सिक्ख साम्राज्य में अराजकता का बोलबाला है।


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आपके महाराज बालक हैं। सिक्ख जाति अपने कर्त्तव्य को स्वयम् पहचानती है। आज सिक्ख-साम्राज्य के ऊपर आपत्ति के काले बादल मंडरा रहे हैं। इस लम्बी स्पीच के बाद दीनानाथ ने महारानी जिन्दा, मंत्री लालसिंह, सेनापति का प्रस्ताव रखते हुए कहा कि - “हे सिक्ख वीरो ! विदेशियों द्वारा पंजाब का पवित्र सिक्ख-राज्य क्रमशः लुट रहा है। अब तुम क्या करना चाहते हो?” इस पर सिक्ख-सेना के महावीर वीरों ने उत्तर दिया - “हम हृदय का रक्त बहाकर, मातृभूमि की स्वाधीनता अटल रखेंगे।”

जब कि सिक्ख-सेना में ऐसी प्रबल युद्धाग्नि जल रही थी, उसी समय गवर्नर जनरल ने अंग्रेजी राज्य की सीमा पर जहां से कि सिक्ख-राज्य निकट ही था, दलबल सहित डेर आ जमाए। बस, फिर क्या था, सिक्खों ने समझ लिया कि अब देर करना अपने लिए हानिकर होगा। युद्ध के लिए तैयारी होने लगी। लाहौर युद्ध की प्रतिध्वनि से गूंज उठा। सिक्ख लोग महाराज रणजीतसिंह जी की समाधि पर इकट्ठे हुए। खालसा के समस्त सरदारों और पंचों ने ग्रन्थ-साहब तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों को छू कर शपथ ली कि हम महाराज दिलीपसिंह के राज-भक्त रहेंगे और युद्ध में लालसिंह तथा तेजसिंह की आज्ञा पालन करेंगे।

सन् 1845 ई० की 17वीं नवम्बर को सिक्ख-दरबार की ओर से निम्नलिखित चार कारणों का हवाला देकर अंग्रेजों के प्रति युद्ध की घोषणा कर दी गई - (1) अंग्रेजों ने अपने सेना दल को पहले सतलज की ओर बढ़ाया है और लड़ाई करने की तैयारी की है, (2) फिरोजपुर के अंग्रेजी खजाने में राजा सुचेतसिंह का अठारह लाख रुपया जमा है, उसे दरबार के मांगने पर अंग्रेज कर्मचारियों ने देने से इनकार कर दिया है, (3) मृत राजा सुचेतसिंह की सम्पत्ति पर लाहौर दरबार का स्वत्व है, (4) सतलज के दक्षिण खालसा के अधीन जो स्थान हैं, उन में ब्रिटिश गवर्नमेंट ने सिक्ख-सेना को आने-जाने से रोक दिया है।

चेलैंज दे दिया गया। दोनों ओर से लड़ाई की तैयारी होने लगी। फ्रांसीसी नैपोलियन को कैद कर लेने, भारतीय मरहठों को मटियामेट कर देने, राजपूती-रज्जु का बल निकाल देने के पश्चात्, अंग्रेज सैनिक और सेनापतियों का दिमाग आसमान पर चढ़ा हुआ था। उनसे पठान कांपते थे, गोरखे पानी भरते थे और बिलोच बलैयां लेते थे। अब बाकी थे तो केवल गुरु के लाड़ले, रणजीत के बहादुर जाट, जननी के सपूत और खालसा के वीर सिपाही सिक्ख। अंग्रेज सिक्ख-सैनिकों के बल को नापना चाहते थे। उनके दिल में बहुत दिनों से ख्वाहिश थी। ये मौके की तलाश में थे। देशद्रोहियों की कृपा से उन्हें मौका भी शीघ्र ही मिल गया। इधर सिक्ख-वीरों के मन में भी अंग्रेजों से दो-दो हाथ कर लेने की लगी हुई थी, क्योंकि उनकी भुजाओं में भी वह बल था, जिससे राजपूत उनके नरेश पर चंवर करते थे, गोरखा गुफाओं में गुजर करते थे और पठान मांगते थे पनाह (शरण)।


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उन्हें अंग्रेजों से तनिक भी भय न था, चूंकि उन्हें मालूम था, भरतपुर में उनके थोड़े से ही भाइयों ने उनको नाक चने चबा दिए थे। किन्तु सिख-जाटों को, खालसा को - यह कब मालूम था कि भरतपुर की भांति गृह-कलह उन्हें भी नीचा दिखाना चाहता है।

युद्ध

1845 की 17वीं नवम्बर को युद्ध की घोषणा हुई थी और 11वें दिसम्बर को सिक्ख सेना सतलज के पार उतर आई। सतलज पार आने के पश्चात् 16वीं दिसम्बर को अंग्रेजों को अपने आगमन की सूचना दी। अंग्रेज पहले से ही सावधान थे। वेलिंगटन के ड्यूक विलायत से पहले ही भारत आ चुके थे। ड्यूक ने नैपोलियन को जीता था, इससे उनका सम्मान तथा दिमाग बहुत बढ़ा हुआ था। अंग्रेजों की भारत-स्थिति सेना के जनरल सेनापति मि० गफ ने इस युद्ध का भार ड्यूक के सुपुर्द कर दिया। अंग्रेजों ने भी सिक्खों की घोषणा का उत्तर घोषणा द्वारा ही दिया। कारण चाहे जो रहे हों, किन्तु उन्होंने कलंक के भागी सिक्खों को ही ठहराया। उनकी घोषणा का भाव इस प्रकार था -

"सिक्ख-सेना ने बिना कारण अंग्रेजी-राज्य पर हमला किया है। इसलिए ब्रिटिश-राज्य का सम्मान अटल रखने के लिए सन्धि भंग करने वालों को उचित शिक्षा देनी पड़ती है। अब से सतलज के बाईं ओर के प्रदेश जो महाराज दिलीपसिंह के अधीन हैं, ब्रिटिश-राज्य में सम्मिलित समझे जायेंगे।"

अंग्रेजों ने केवल घोषणा ही सिक्खों से पीछे प्रचारित की थी। युद्ध की तैयारी तो पहले से ही कर रक्खी थी। अम्बाले से सतलज तक 32479 सैनिक पहले से ही उपस्थित थे। सिक्ख-दरबार की समस्त खबरें उन्हें प्रति-क्षण मालूम होती ही रहतीं थीं। ज्यों ही उन्होंने सुना कि सिक्ख फौजें लाहौर से चल पड़ी हैं, त्यों ही अम्बाला, लुधियाना और फिरोजपुर के अंग्रेजों ने अपनी-अपनी सेनायें रवाना कर दीं। कहा जाता है अंग्रेजों की सेना में सत्तरह हजार सैनिक और 69 तोपें थीं। अंग्रेज इतिहासवेत्ताओं ने सिक्ख सेना की संख्या 25-26 हजार और किसी-किसी ने 30 हजार तक लिखी है। किन्तु मि० कनिंघम ने अपने इतिहास में लिखा है कि शत्रु की सेना को अपने से अधिक बताने में लड़ने वाले अपनी प्रशंसा समझते हैं।

सेना चाहे सिक्खों की अंग्रेजी सेना से अधिक रही हो या बराबर, किन्तु इसमें सन्देह नहीं, उन्होंने अंग्रेजों की सारी शेखी को धूल में मिला दिया था। कारण कि वे इस समय भारी उत्साह में थे। प्रत्येक सिक्ख इस युद्ध को अपनी स्वाधीनता का युद्ध समझता था। वह अपनी मां की आन के लिए अपना जीवन अर्पण करना चाहते थे। खालसा-सेना के सैनिकों ने इस समय अपने व्यक्तिगत मान-अपमान को झुका दिया था। वे प्रसन्नतापूर्वक छोटे-बड़े सभी कामों को खुद अपने आप करते


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थे। घोड़ों के बदले उन्होंने स्वयं ही तोपें खींची थीं। कुलियों के अभाव में, गाड़ियों पर अपने हाथ से रसद का सामान लादा था। नावों पर अपने ही आप सामान लादा था और अपने ही आप उसे उतारा था। प्रत्येक कार्य को बिना किसी की आज्ञा की बाट देखे वे स्वयं करते थे।

उत्साह और देश-प्रेम से इस भांति मतवाली खालसा-सेना को भी अंग्रेज उपेक्षा की दृष्टि से देख रहे थे। यद्यपि अफगान-युद्ध में उन्होंने सिक्खों के युद्ध कौशल का अद्भुत साहस देख लिया था, खुद उन्हें कभी सिक्खों के भुजबल का सामना नहीं करना पड़ा था। अंग्रेज समझते थे कि सिक्ख घमंडी हैं। वे इतने वीर नहीं हैं कि युद्ध-क्षेत्र में हमारे सामने ठहर सकें। हमारी सेना के थोड़े से ही हिन्दुस्तानी सिपाही तथा गोरे उन्हें मार भगायेंगे। साथ ही अंग्रेजों को पता था कि खालसा-सेना सेनापति विहीन है। उसके संचालक हमारा साथ देंगे। इसलिए अंग्रेजों ने उन पर्वत-विदारी सिक्ख महावीरों का सामना करने को खिलवाड़ समझकर केवल 17 हजार सैनिक और 69 तोपें लेकर युद्ध-भूमि में पदार्पण कर दिया था। अंग्रेज कहते थे कि हम देखते ही देखते हिन्दुस्तानी भेड़ों को भगा देंगे। केवल सेना सहित एक बार उनको आकाश हिलाने वाली ब्रिटिश तोपों की गर्जन सुनानी है। गोरे लोगों के लाल चेहरे देखते ही सिक्खों की अकल ठिकाने आ जाएगी। उनकी सेना के हमारे थोड़े से सिपाही धुर्रे उड़ा देंगे।

किन्तु रणभेरी बजते ही सेनापति वेलिंगटन के ड्यूक को विलक्षण अनुभव हुआ। वह अचकता कर देखने लगा कि भारत उसकी केवल-कल्पित भावनाओं के विरुद्ध सच्चे सिंहों की जन्मभूमि है। प्रत्येक सिक्ख नेपोलियन की प्रतिमूर्ति है और अनन्त वीरता के साथ मातृभूमि के लिए हृदय का रक्त बहाने का अति पवित्र उछाह इन अकालियों की नस-नस में घुसा हुआ है। बेचारे अपनी पूर्व-संचित प्रतिष्ठा को बनाए रखने के लिए ईश्वर को याद करने लगे।

खालसा वीरों की वीरता और उत्साह में कुछ भी कसर न थी, कसर तो उनके कमीने और पाजी सेनापतियों की थी। जाटशाही अथवा सिक्ख-साम्राज्य की रक्षा के लिए सिक्ख-सैनिक सर्वस्व गंवाने को उद्यत थे। किन्तु उनके सेनापति लालसिंह और तेजसिंह का उद्देश्य तो उन्हें अंग्रेज सेना से पिटवा कर सीधा करने का था। वे कब चाहते थे कि खालसा के वीर सैनिकों की विजय हो, पंजाब का गौरव रहे। वे अंग्रेजों की सहायता से पंजाब पर शासन करने के इच्छुक थे। दुःख है राजमाता जिन्दा भी इन कुचक्रियों के षड्यंत्र में फंसी हुई थीं। लालसिंह और तेजसिंह आदि हजार अयोग्य होते हुए भी पंजाब में उच्च स्थान प्राप्त करना चाहते थे। पंजाब की रक्षा के लिए लड़कर नहीं, केवल खालसा को तबाह करके। क्योंकि प्रचंड खालसा सेना की महिमा प्रेरित स्वदेश हितैषिता से उनका अभीष्ट सिद्ध नहीं होता था। अपनी कल्पित इच्छा को पूरी करने के लिए महाराज रणजीतसिंह


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के राज्य की नींव रूपी इस संसार प्रसिद्ध सेना को नीचा दिखाने में ये दुष्ट तनिक न चूके। जितने दिन इतिहास रहेगा, जितने दिन मनुष्यों में घृणा रहेगी, उस अनन्तकाल तक इन मनुष्य-चर्म युक्त सर्पों को घृणा की दृष्टि से देखती रहेगी। इन्हीं की साजिश से महाराज रणजीतसिंह के अपरिमिति बलवीर्य से संचय किया हुआ विशाल जाट-साम्राज्य जो कि संसार के नेत्रों को अपनी ओर आकर्षित करने वाला था, मिट्टी में मिल गया। गुरु के बांके वीर सब कुछ बलिदान करके भी उसकी रक्षा न कर सके।

सिक्ख सैनिक जिस उत्साह से इस युद्ध में सम्मिलित हुए थे, उनके प्रति उतना ही विश्वासघात का परिचय उनके सेनापतियों ने दिया था। सिक्ख-सेना के सतलज के इस पार आते ही सेनापति लालसिंह ने अंग्रेज एजेण्ट मि० निकलसन को एक गुप्त पत्र लिखा -

“आप जानते होंगे मैं अंग्रेजों का मित्र हूं। मैं सिक्ख सेना समेत सतलज पार उतर आया हूं। अब कहिए मुझे क्या करना चाहिये?”

इसका उत्तर निकलसन ने यह दिया -

“यदि आप अंग्रेजों के मित्र हैं तो फिरोजपुर पर आक्रमण मत कीजियेगा। जितने दिन की देरी हो सके, उतनी देरी कीजिए और जैसे बने, वैसे अपनी सेना को गवर्नर-जनरल के सामने ले जाइयेगा।”

लालसिंह ने गुलाम की भांति इस आज्ञा को माना। फिरोजपुर बच गया। उस समय फिरोजपुर में केवल आठ हजार सेना थी। लालसिंह तथा तेजसिंह - ये दोनों यदि एक मते से अंग्रेजी हित के लिए सिक्खों का अनिष्ट कराने पर तुले न होते और सिक्ख-सेना को फिरोजपुर पर आक्रमण करने की आज्ञा दे देते, तो बिना निश्चय अनायास ही फिरोजपुर के धर्रे उड़ जाते। फिरोजपुरी फौज का सर्वनाश होने से तथा लुधियाने और अम्बाले पर एक ही समय में आक्रमण करने से विजय-श्री निसन्देह सिक्खों के पक्ष में होती। किन्तु इन सेनापतियों का अभिप्राय तो अंग्रेजी सेना से खालसा सेना को भस्म करा देना था। सिक्ख-सेना आक्रमण करने के लिए सेनापतियों से बार-बार आज्ञा प्रदान करने के लिए आग्रह करती थी। किन्तु उसके कलंकी सेनापति केवल उसकी सामयिक प्रसन्नता के लिए कहते रहे - “हम अंग्रेजों के प्रधान सेनापति से लड़ना चाहते हैं। किसी दूसरे से लड़ना अपनी बेइज्जती मानते हैं। यदि तुमने गवर्नर-जनरल को पकड़ लिया या मार डाला तो इससे तुम्हारे खालसा की कीर्ति विश्वव्याप्त हो जायेगी।” बेचारे भोले-भाले सिक्ख-सैनिक उनके झांसे में आ गए। अंग्रेज इतिहासकार सर चार्ल्स नैपियर की “चिट्ठी-पत्री” से मालूम होता है कि विश्वासघाती लालसिंह सिक्ख-सेना को फिरोजपुर के आक्रमण से न रोकता और उसके बाद ही आठ हजार सेना मात्र से रक्षित गवर्नर जनरल हार्डिंग पर हमला कर देता तो अवश्य ही अंग्रेज हारते।1 लाडलो साहब के इतिहास से भी


1. (Sir Charles Napiers Correspondence Vol IV P. 669)


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मालूम होता है कि इन दोनों आक्रमणों के हो जाने के बाद सिक्ख सेनापतियों के हजार विश्वासघात करने पर भी अंग्रेज लोग अपने सर्वनाश से कदापि अपनी रक्षा न कर सकते।2 एक और इतिहासकार ने लिखा है - यदि इस समय रणकौशली रणजीतसिंह जीवित होते तो सतलज पार करके अंग्रेजी प्रदेशों में लूट-मार मचा देते। इसी हेतु से अंग्रेजों को सन्धि के लिए छटपटाना पड़ता। मकग्रेगर ने सिक्खों के इतिहास में लिखा है -

यदि लालसिंह सिख-सेना को एक स्थान में आवद्ध न रख कर इधर-उधर फैला देता तो उस दशा में भी इस लड़ाई के शान्त होने में बड़ी देर लगती। किन्तु देशद्रोही लालसिंह ऐसा काम करने वाला न था जिसमें खालसा की मान-मर्यादा रह जाती और भारतीय युद्धवीरों की उज्जवल कीर्ति में बट्टा न लगता !

निदान सन् 1845 ई० की 18वीं दिसम्बर को मुदकी नामक स्थान पर सिख और अंग्रेजों का युद्ध छिड़ गया। प्रायः 11 हजार अंग्रेजी सेना के मुकाबले में 2 हजार सवार 8-9 सौ पैदल सिख सिपाहियों को भिड़ा कर लालसिंह ने विश्वासघात करना आरम्भ कर दिया। फिर भी सिख वीर 'सत श्री अकाल', 'वाह गुरुजी का खालसा' और 'वाह गुरुजी की फतह' से आकाश को गुंजाते हुए मातृभूमि की रक्षा के लिए अंग्रेजों पर अग्नि-वर्षा करने लगे। चतुर अंग्रेज सेनापतियों द्वारा संचालित अंग्रेज-सेना ने भी बड़ी तैयारी के साथ मोर्चा लिया। मुगल, पठान, मरहठे, यहां तक कि यूरोप के दुर्द्धर्ष वीर फ्रान्सीसियों को सिंह-विक्रमी अंग्रेजों का लोहा मानना पड़ा था, किन्तु आज उन्हीं के मुकाबले में सिखों ने वह भीम-विक्रम दिखाया कि अंग्रेजों के प्रधान सेनापति गफ आश्चर्य के साथ देखने लगे कि सिख-सेना में सेनापति नहीं है, केवल लड़ाके सैनिक अड़े हुए हैं। लड़ाई की आज्ञा देने वाला और समय-समय हर पैंतरे बदलने का संकेत करने वाला नहीं है, फिर भी सिपाही मर मिटना चाहते हैं। वे इस भयंकरता से युद्ध करते हैं कि प्रत्येक आक्रमण में अंग्रेजी सेना के दिल दहला देते हैं और अंग्रेज सैनिकों को पीछे भाग-भागकर जान बचानी पड़ती है। अंग्रेज सिपाहियों को पुनः-पुनः युद्ध-स्थल में उपस्थित करने में अंग्रेज सेना-नायकों को बड़ी-बड़ी दिक्कतें झेलनी पड़ती हैं। सिखों की अपूर्व स्फूर्ति से अंग्रेज सैनिक मोहित हो गए। कहा तो यहां तक जाता है कि उनमें सिखों की मारकाट से इतनी घबराहट पैदा हुई कि वे आपस में ही अपने साथियों पर घबराहट में गोली चलाने लग गए। इस गड़बड़झाले से बचने के लिए अंग्रेज सेनापतियों को आज्ञा देनी पड़ी कि अंग्रेजी सेना संगीन तानकर सिख सेना पर हमला कर दे। अंग्रेजी सेना ने प्रचण्ड वेग के साथ संगीन तानकर सिखों पर आक्रमण किया। इस समय सिख क्या करते, इस कर्त्तव्य को


2. (History of British India Vol. II P. 142)।


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उनका सेनापति ही बता सकता था, किन्तु हरामी सेनापति तो सबसे पीछे आराम कर रहा था। फिर भी वीर सिख सैनिक भागे नहीं। अस्वाभाविक वीरतापूर्ण धीरता से अंग्रेजी सेना के सम्मुख अपनी छाती तानकर क्रमशः (बचाव के लिए) पीछे हटने लगे। इस संकट-काल में भी वे तितर-बितर न हुए। ढ़ाई कोस तक व्यूह के ज्यों के त्यों रूप में पीछे हटे। यही क्यों, पद-पद पर अपनी प्रचण्ड वीरता की अग्नि का अंग्रेजों को अनुभव कराया। सभी देशों के इतिहास में यह अपूर्व घटना है कि सेनापति-हीन सेना ने इस भांति शत्रु का सामना किया हो। आखिर रात्रि हो गई और उस दिन का युद्ध खतम हुआ। आज के युद्ध में 872 आदमियों को बलि चढ़ाकर अंग्रेजों ने सिखों की 17 तोपों पर कब्जा किया। प्रसिद्ध अंग्रेज वीर सर राबर्टसेल और सेनापति कसकिल सिखों की कृपाण की धार से सदा के लिए मैदान में सो गए। सिखों की हानि अंग्रेजों से बहुत थोड़ी हुई। अंग्रेज अभिमानपूर्वक नहीं कह सकते थे कि मुदकी के मैदान में उनकी विजय हुई। उस दिन रात में अंग्रेजों ने यह काम किया कि कुल सेना को लिटलर की सेना में मिला दिया।

अंग्रेजों को भारत में अनेक युद्ध करने पड़े थे। सभी युद्धों में शत्रुओं के व्यवहार की, जो उनके साथ हुआ, घोर निन्दा की है। सिराजुद्दौला की कालकोठरी के सम्बन्ध में तो उन्होंने सदैव के लिए उसकी यादगार अमिट कर दी है। उन्हीं अंग्रेजों को अपने सिख शत्रुओं के व्यवहार की जो उनके साथ युद्ध में सिखों की ओर से हुआ था, मुक्त-कण्ठ से प्रशंसा करनी पड़ी है। एक दो घटना अंग्रेज इतिहासकारों की कलम से लिखी हुई हम यहां उद्धृत करते हैं -

लेफ्टिनेण्ट विडलफ को मुदकी युद्ध में सिख-सैनिकों ने गिरफ्तार कर लिया। जब उसे नायक के सामने पेश किया गया तो उसने विडलफ की उदारतापूर्वक बेड़ियां कटवा दीं और हंसते-हंसते यह कहकर छोड़ दिया कि “शत्रुओं से हम यहां बदला नहीं लिया करते हैं। आप अपनी सेना में बिना बखेड़े पहुंचकर लड़ने के लिए तैयार हो जाइए। युद्ध-क्षेत्र में बदला लिया जाएगा।” एक सिख सिपाही अफसर की आज्ञा से उसे अपने दल से पांच कोस की दूरी पर जाकर छोड़ आया। सिक्खों के ऐसे उदार व्यवहार से लार्ड हार्डिंग पर इतना प्रभाव पड़ा कि उन्होंने विडलफ को फिर सिखों के विरुद्ध लड़ाई में नहीं जाने दिया। मुदकी की लड़ाई के बाद एक बार और कुछ अंग्रेज सैनिक रास्ता भूलकर सिखों की छावनी में जा पहुंचे। उनके साथ भी सिखों ने सद्व्यवहार ही किया। यहीं तक नहीं, किन्तु उन्हें राह खर्च के लिए एक एक रुपया भी दे दिया। वे सिखों की प्रशंसा करते हुए अपने दल में जा पहुंचे। दलित शत्रुओं के साथ भी ऐसा सुन्दर व्यवहार किसी अन्य जाति के इतिहास में शायद ही मिले।

फीरोजपुर में लिटलर की अध्यक्षता में आठ हजार सेना थी। वह युद्ध के लिए


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तैयार होकर आ रही थी। 21 दिसम्बर को मि० गफ ने अपनी सेना को उसी सेना में मिला दिया। इस तरह अब अंग्रेजी सेना की संख्या 18 हजार हो गई। इस सेना के साथ 65 तोपें थीं। इस प्रकार विराट आयोजन करके अंग्रेजी सेना फिरोजपुर शहर पर आक्रमण करने को चली। इस युद्ध के लिए कितनी प्रबल तैयारी की गई थी, उसका पता इस बात से चल जाता है कि समस्त अंग्रेजी-भारत के शासनकर्ता लार्ड हार्डिंग खुद भी अपने ऊंचे पद की परवाह न करके लड़ने को तैयार हुए और अपनी सेनायें मि० गफ को समर्पित करके उनके नीचे सेनाध्यक्ष बन गए। यह भी अंग्रेजी इतिहास में (भारत में) नई बात थी, जिसे लार्ड हार्डिंग ने अपनी सेना का उत्साह बढ़ाने की गर्ज से घटित किया था।

मुदकी के पश्चात् फिरोजपुर शहर में रणचंडी का ताण्डव नृत्य हुआ। सिख वीर भी अदम्य उत्साह से इस युद्ध में सम्मिलित हुए। विजय प्राप्त करना अथवा समर-क्षेत्र में रणचंडी को प्रसन्न करने के लिए आत्मबलि देना उनका उद्देश्य था। इसलिए उन्होंने कठिन व्यूह की रचना की। अंग्रेजी सेना पहाड़ सदृश सिख-व्यूह पर टूट पड़ी। जिस अग्नि-वर्षा को करती हुई ब्रिटानियां की वीर संतान सिखों के ऊपर झपटने लगी, उस समय का दृश्य बड़ा ही भयानक था। किन्तु बार-बार धावा करने पर सर्वग्रासी अंग्रेजी सेना सिखों का बाल भी न उखाड़ सकी। अंग्रेजी सेना ने जितनी बार हमले किए, उसे हानि उठानी पड़ी। अंग्रेजों को इससे पहले कभी भी किसी एशियाई लड़ाई में इतना बेइज्जत नहीं होना पड़ा था। सिखों की अग्नि-वर्षा से अंग्रेजों की तोपें नष्ट होने लगीं। रसद से भरी हुई गाड़ियां ध्वंश कर दी गईं। बारूद के ढ़ेर में तोप के गोले से आग लगाकर सिखों ने अंग्रेजी सेना में हाहाकार मचवा दिया। फिर भी अंग्रेजी सेना इस विपत्ति से तनिक भी विचलित नहीं हुई। उसने रणक्षेत्र से पीठ न दिखाई। अंग्रेजों ने पीठ न दिखाई पर सिखों के अनन्त भुजबल से उनकी स्वाभाविक धीरता तथा ब्रिटिश सेनाओं की जगत् प्रसिद्ध सुदृढ़ श्रंखला में इतना बट्टा लगा कि शायद ही किसी और लड़ाई में भारत-विजयी अंग्रेजों को इतनी विपत्ति झेलनी पड़ी होगी। सिपाही, अफसर, घुड़सवार, पैदल, कुली, गोलन्दाज सब निज-निज स्थान से विचलित होकर घिर गए। गोलियां चलाई जाती हैं पर छोड़ने वालों को पता नहीं है किधर किन पर चला रहे हैं? गोले दगते हैं, किन्तु गोलन्दाजों की शत्रु-सेना की ओर लक्ष्य करने की शक्ति खत्म हो गई है। अफसर लोग इधर-उधर फिरते तो हैं किन्तु हानि अपनी हो रही है अथवा शत्रु की, इसे तत्काल जान लेने की बुद्धि निकम्मी हो गई है। सेनापति हुक्म देना चाहता है पर हुक्म किसे दें, किससे वह तामील हो, इसी विचार में उनके माथे से पसीना टपक रहा है। इसी घबराहट के कुअवसर में रात्रि आई। किन्तु सिखों से इस रात्रि के अन्धकार में भी निस्तार नहीं मिला। सिख लड़ना और लड़ के मरना ही जानते हैं। लड़ाई के आरम्भ से खेत में सो जाने तक थकावट उन्हें क्यों


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आने लगी। खालसा सेना ने थकावट की शिक्षा कभी पाई ही नहीं थी। रात्रि का अन्धकार उनकी तोपों से निकली हुई अग्नि-शिखा से दूर हो रहा था। रात्रि के आते-आते ही अंग्रेजी-व्यूह का बायां भाग बिगड़ गया और मि० लिटलर को अपनी आधी सेना समेत भागना पड़ा।1 बालस साहब की दो पलटनों ने गिलवर्ट की सेना के व्यूह के दक्षिण भाग में जाकर प्राण बचाए। इसी व्यूह भाग में मि० गफ और जनरल हार्डिंग युद्ध-कौशल देख रहे थे। लार्ड हार्डिंग को अपनी सेना की इस कुदशा पर बड़ा क्षोभ हुआ। उन्होंने अपने हाथ की घड़ी और तमगे अपने पुत्र को देकर प्रतिज्ञा की कि या तो प्राण देंगे या अंग्रेजों की प्रतिष्ठा रखेंगे। वे सामान्य सिपाही की भांति सेना में घूमने लगे। जहां कहीं दुर्बलता दिखाई देती थी, वहां लाट-साहब दौड़ कर पहुंचते थे। एक सिख तोप आग उगल कर अंग्रेजी सेना का ध्वंश कर रही थी। लार्ड हार्डिंग अपनी जान की परवाह न करके, कई साथियों समेत, उसी तोप की ओर दौड़े। कीलों से उसका मुंह बन्द करके अपनी सेना की रक्षा की।

विश्वासघाती और देशद्रोही (सिक्ख-सेना के) संचालक फिरोज शहर में भी अपनी नीचता का परिचय दिए बिना नहीं रहे। युद्ध-भूमि के निकट ही एक सिक्ख-दल खड़ा था। यदि यह दल युद्ध में डटी हुई सेना में मिला दिया जाता, तो इसमें सन्देह नहीं कि अंग्रेजी सेना का एक भी सैनिक बच नहीं पाता। पाजी लालसिंह ने इस समय भी अपनी फौज को लड़ने की इजाजत नहीं दी। सिक्ख वीरों को बताया गया कि इस सेना पर भी अंग्रेज हमला करना चाहते हैं।

दूसरे दिन प्रातःकाल फिर युद्ध आरम्भ हुआ। इस समय अंग्रेजी सेना ने लालसिंह की सेना पर धावा बोल दिया। उस सेना की बड़ी दुर्गति हुई। किन्तु पास ही खड़े हुए तेजसिंह ने अपने अधीन सेना को उस सेना की सहायता के लिए आज्ञा दी। अंग्रेजी सेना के एक नए दल ने फिर सिख-सेना पर आक्रमण किया। अब की बार तेजसिंह की सेना अधिक उत्तेजित हुई। इसलिए उसे आज्ञा देनी पड़ी। दोनों सिख-सेनाओं के सम्मिलित होते ही अंग्रेजी सेना के होश उड़ गए। बहुत शीघ्र ही विजय-लक्ष्मी सिखों को ही प्राप्त होने वाली थी कि तेजसिंह भाग खड़ा हुआ। साथ ही सैनिकों को भी भागने का संकेत किया। उधर अंग्रेजी सेना भाग रही थी और सिख उसका पीछा कर रहे थे। जब अंग्रेजों ने तेजसिंह की नीचता के इस अभिनय को देखा तो वे मैदान में डट गए और भागती हुई सिख-सेना पर आक्रमण करके विजय प्राप्त कर ली। जो सिख-सेना विजय-महत्वाकांक्षा से मदमत्त होकर शत्रुओं का हनन कर रही थी, उसे क्षण भर में ही अपने विश्वासघाती


1. लार्ड हार्डिंग ने 21 दिसम्बर की रात्रि के युद्ध की चर्चा अपने उस पत्र में की है जो उन्होंने इंग्लैंड के प्रधानमंत्री सर राबर्ट पील को लिखा था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-330


सैनिकों की चाल के कारण विजय लाभ से हाथ धोने पड़े! भागी हुई अंग्रेजी सेना की विजय हो गई। सिख-इतिहास के सुप्रसिद्ध लेखक मि० कनिंघम ने इस युद्ध का हृदय द्रावक वर्णन इस प्रकार किया है -

“यह घटना ऐसी थी कि जिससे सच्चे हृदय के मनुष्य को युद्ध करने का उत्साह बढ़ता। पर विश्वासघाती सिख-सेनापति तेजसिंह के ऊपर इसका उलटा असर हुआ। उन्होंने तोपें बन्द करवा दीं और अपने घोड़े को मोड़कर सतलज की ओर जितना जल्दी उनसे हो सका, उतनी जल्दी वह भागा। यह उन्होंने ऐसे समय में किया, जब उन्हें विजय प्राप्त होने वाली थी, क्योंकि उस समय ब्रिटिश-सेना का कुछ भाग फीरोजपुर से पीछे हट रहा था।”1
“इस युद्ध में अंग्रेजों को विजय प्राप्त हुई, यह माना जा सकता है, किन्तु यह विजय उन्हें महंगी बहुत पड़ी। सिखों की 70 तोपें और कुछ स्थान अंग्रेजों के हाथ लगे। किन्तु अंग्रेजी सेना का सातवां हिस्सा इस युद्ध में खत्म हो गया। सेना की इस भारी क्षति से अंग्रेज क्रोध से जल रहे थे। वे सिखों से बदला लेने के लिए व्याकुल हो रहे थे। सेना बढ़ाई जाने लगी, किन्तु बारूद और तोपों की कमी से तत्काल युद्ध न हो सका। अंग्रेजों की इस शिथिलता को देखकर सिख दूने उत्साह के साथ युद्ध करने की इच्छा से फिर सतलज के पार उतर आए। यह देखकर अंग्रेज बहुत ही चिन्तित हुए, क्योंकि पंजाब की सीमा पर उन दिनों उनकी हालत बड़ी नाजुक थी। थोड़े दिन पहले जिन सिख-सरदारों के राज्य को कलम की रगड़ से अपने अधीन बताया था, अब वे सिख-राज्य अंग्रेजों की कुछ भी सहायता न कर सके।”
“आज तक कोई देशी सेना जिसकी संख्या कुछ ही अधिक रही हो, अंग्रेजों से ऐसी नहीं लड़ी जैसे सिख लड़े थे। जिनकी वीरता के कारण फिरोज शहर के युद्ध का परिणाम ही सन्देहजनक रहा और यदि अंग्रेजों को निश्चित रूप से विजय लाभ भी हुई है तो भी इस विषय में समतभेद रहा कि यदि सिख-सेना के सेनापति योग्य होते और सिख-सेना को अपनी पूरी योग्यता प्रकट करने का अवसर देते तो न मालूम युद्ध का क्या परिणाम होता है?......”

आगे दोनों लिखते हैं -

“भारत में आज तक जितने प्रकार के सैनिकों का सामना करना पड़ा है, उनमें सिख सैनिक सबसे बढ़कर दक्ष, भीषण और दुर्जय प्रतीत हुए।”

वे सब सरदार अब सिखों से मिलकर अंग्रेजों के विरुद्ध खड़े होने की नीयत दिखा रहे थे।


1. सन् 1897 ई० में जनरल सर चार्ल्स गफ V.C.G.B. और आर्थर डी, इनेन्स M.A. की The Sikhs and the Sikh wars (सिख और सिख-युद्ध) नामक पुस्तक प्रकाशित हुई थी। इसमें इस युद्ध के सम्बन्ध में लिखा हुआ है।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-331


जिन्होंने यकायक खुला-खुली मिलने की हिम्मत न भी की, वे गुप्त रीति से सिखों के हितों के लिए उत्सुक हुए। अंग्रेजों की प्रधान छावनी फीरोजपुर ऐसे ही सरदारों से घिरी हुई थी। इन शत्रुओं के कारण अंग्रेजों को फीरोजपुर की सेना के लिए रसद मुहैया करने में बड़ी कठिनाई प्रतीत होने लगी। इससे फीरोजपुर स्थित अंग्रेजी सेना की दशा संकट-सम्पन्न थी। पंजाब सीमा के प्रायः प्रत्येक स्थान में अंग्रेजों की दशा आशंका-जनक थी। बादवाल के जागीरदार अजीतसिंह को अंग्रेजों ने मार भगाया था। अब सरहद में अंग्रेजों की स्थिति डांवाडोल देखकर अजीतसिंह ने सिखों की सहायता से लुधियाने में अंग्रेजों की छावनी जलाकर बादवाल को अपने कब्जे में कर लिया।

गढ़मुक्तेश्वर कुछ समय पहले अंग्रेजों ने अपने अधीन कर लिया था, किन्तु अब वहां के लोग सिक्खों के सहायक बनने की चेष्टा कर रहे थे। धर्मकोट आदि जैसे छोटे-छोटे किलेदार भी जो कि अंग्रेजों की अधीनता स्वीकार कर चुके थे, अब उनके विरुद्ध होकर सिक्खों को सहायता देने लग गए। रसद तो ये लोग अंग्रेजों के लिए संग्रह होने ही नहीं देते थे, साथ ही उधर आने वाली अंग्रेज सेनाओं से भी छेड़छाड़ करते थे। इन्हीं दिनों अंग्रेजों ने तोप, बारूद तथा रसद के साथ कुछ सेना फीरोजपुर भेजी। चूंकि अंग्रेजों को सन्देह था कि सिक्ख अथवा अन्य विद्रोही सरदार इस रसद को रास्ते में लूट लेंगे, इसलिए एक ब्रिगेड सन् 1846 ई० की 17वीं जनवरी को मि० हैरीस्मिथ के साथ धर्मकोट की विजय के लिए भेजी। क्योंकि वे समझते थे कि सिक्ख अथवा विद्रोही सरदार इस लड़ाई के झंझट में फंस जायेंगे और रसद सुरक्षित ढ़ंग से फीरोजपुर पहंच जाएगी। धर्मकोट सहज ही हैरी के हाथ लग गया। अंग्रेजों को आशा हो रही थी कि रसद आदि सामान बिना विपद के ही फीरोजपुर पहुंच जाएगा। इसलिए हैरीस्मिथ भी शीघ्र ही धर्मकोट छोड़कर लुधियाने की ओर सेना समेत बढ़ा। उसे यह भी मालूम हो चुका था कि रणजोरसिंह की अधीनता में सिक्ख सेना लुधियाने पर हमला करना चाहती है और वह इस समय लुधियाने के पच्छिम ओर है और जगरांव से 9 कोस पर बादबाल स्थान में रणजोर ने सेना भेजी है। अतः साहब ने तुरत-फुरत जगरांव में डेरा जा लगाया और रात के बारह बजे अपनी सेना को लुधियाने की ओर रक्षार्थ बढ़ाया। वह चाहता था कि बादबाल में ठहरी हुई सिक्खों की दस हजार सेना से मुठभेड़ न हो। उसकी 4 रिजमट, पैदल रिजमट घुड़सवार, 18 तोप और बहुत सी सामग्री यदि लुधियाने पहुंच जाती तो लुधियाने स्थित अंग्रेज-सेना शक्ति-सम्पन्न हो जाती। इसलिए हैरी रसद आदि को दहनी ओर रखकर इस भांति से लुधियाने की ओर चला कि बादबाल की सिक्ख-सेना यदि उस पर आक्रमण भी करे तो भी रसद लुधियाने पहुंच जाए। उसका अनुमान ठीक न हुआ क्योंकि सिक्खों को पहले ही उसकी रसद के रास्ते और सेना के रास्ते का पता लग गया था।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-332


उन्होंने बांयी ओर से रसद पर हमला कर दिया और हैरी को बादबाल के बराबर ही घेर लिया। अंग्रेजों ने चाहा कि पैदल सेना को सिक्खों से लड़ाते रहें और सवारों के साथ रसद को लुधियाने भेज दें। किन्तु उनकी यह चालाकी बेकार हुई। सिक्खों ने उनकी पीठ पर तोपें लगाकर उन्हें घेर लिया। 9 घण्टे घमासान लड़ाई हुई। सैंकड़ों गोरे वहां जल कर राख हो गए। आखिरकार रसद गोले और तोपों को छोड़कर लुधियाने की ओर भाग गए। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि रणजोरसिंह ने भी लालसिंह, तेजसिंह की भांति सिख सैनिकों के साथ विश्वासघात किया। वर्ना वह चाहता तो मैदान में डटा रहकर सिख-सेना को भागते अंग्रेजों पर हमला कराके उनका भारी नुकसान कर सकता था। सैनिक बेचारे रसद आदि ही लूटने में लगे रहे। रणजोरसिंह की स्वजाति अहित-कामना के कारण अंग्रेज एक भारी आफत से बच गए। इसके सिवाय उसने एक और भी कलंक लगाने वाली बात यह कर दी कि अंग्रेजों का कुछ सामान, कुछ तोपें दिल्ली की ओर से आ रहीं थी। सिखों को इसका पता लग गया। वे इस सारे सामान को लूट लेना चाहते थे। वे सहज ही लूट भी लेते, क्योंकि उस सामान के साथ थोड़े से ही रक्षक थे। किन्तु रणजोर ने सिखों को इजाजत न दी और उन्हें सतलज के किनारे लिए पड़ा रहा।

इस बादबाल के युद्ध के बाद, सिख-सेना 22वीं जनवरी (1846) को वहां से रातों रात चलकर लुधियाने से 35 मील हट गई। इसका कारण कुछ इतिहासकार यह बताते हैं कि रणजोरसिंह ने अंग्रेजों के फायदे के लिए ही अपनी फौज को हटा लिया था। कुछ का कहना है कि सर हैरी स्मिथ और लुधियाने की सेना मिलाकर इतनी हो गई थी कि सिख-सेना अपने को उससे कम शक्ति-सम्पन्न समझकर अपने हित के खयाल से हट गई थी। लेकिन स्मिथ ने इस मौके से भी लाभ उठाया। उसने तुरन्त सिखों द्वारा छोड़ी हुई जमीन कर कब्जा कर लिया और ग्यारह हजार सेना के साथ सिख-सेना पर धावा करने की तैयारी कर दी। उधर सिख-सेना अंग्रेजी सेना की लापरवाही करके रणजोर ही की अधीनता में बुन्द्री और अलीवाल गांवों पर अधिकार जमाने लगी। अलीवाल में अंग्रेजी सेना से युद्ध छिड़ गया। यह याद रखने की बात है कि अलीवाल में रणजोर के साथ पूरी सेना न थी। बहुत सी सेना अन्य स्थानों की रक्षा के लिए छोड़ दी गई थी। जो कुछ भी सेना था, उसमें भी अशिक्षित, युद्ध के तरीकों से अनभिज्ञ, पहाड़ी लोग शामिल थे जो युद्ध आरम्भ होते ही रणजोर के साथ रफूचक्कर हो गए। केवल थोड़े से सिख गोलन्दाज रणक्षेत्र में स्थिर रहकर शत्रुओं का सामना करने लगे। यह बेजोड़ युद्ध कब तक चलता? किन्तु बहादुर सिखों में से जब तक एक भी आदमी जीवित रहा, तब तक लड़ाई चलती रही। सचमुच ही अन्त में एक सिपाही रह गया। जब इस एक गोलन्दाज को अंग्रेजों ने आ घेरा तो उसने कहा - “जान रहते तोप न


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दूंगा”। इस एक आदमी से तोप हस्तगत करने के लिए अंग्रेजों को उसे काट देना पड़ा। इस लड़ाई में हैरी की जीत तो हुई, किन्तु जब लाशें देखी गईं तो सिखों से अंग्रेजों की लाशें अधिक मिलीं। इस युद्ध के सम्बन्ध में एक बात यह और प्रसिद्ध है कि पटर नामक एक अंग्रेज गोलन्दाज कुछ समय पहले, सिखों के यहां नौकर हो गया था। बादबाल के युद्ध के बाद उसने अंग्रेजी खेमे में आकर अंग्रेजों से फिर प्रार्थना की थी कि उसे नौकर रख लिया जाए, किन्तु उससे कहा गया था कि तुम सिखों में रहकर ही जाति का हित करो। अलीवाल युद्ध के बाद उसने अंग्रेजी सेना में जाकर बताया था कि मैंने सिखों की तोपें इतनी उंची लगाई थीं कि उनके गोले अंग्रेजों पर न गिरें। तहकीकात करने पर यह बात सही पाई गई।1

अलीवाल युद्ध के बाद सोवरॉव में अंग्रेजों से सिखों की भिड़न्त हुई। हालांकि अलीवाल में विजय हो जाने से अंग्रेज मारे प्रसन्नता के फूले नहीं समाते थे। फिर भी उनकी हिम्मत न होती थी कि सिखों का पुनः मुकाबला करें, किन्तु सिखों ने इसी बीच एक और भूल की। उन्होंने अपने पैरों में अपने आप ही कुल्हाड़ी मार ली। वह इस तरह कि पंजाब के मंत्रित्व की गद्दी पर जम्बू के सूबेदार गुलाबसिंह को बिठा दिया। उन्होंने यह नहीं सोचा कि 'चोर का भाई गिरहकट होता है।' उसने सिखों से कहा - मैं मंत्री बनता हूं केवल उस समय के लिए, जब तक कि अंग्रेजों से युद्ध है और मंत्रित्व का कुल कार्य जम्बू में रहते हुए ही करूंगा। यद्यपि सिख गुलाबसिंह से घृणा करते थे, फिर भी उसकी बहादुरी, राजनीतिज्ञता से लाभ उठाने के लोभ से उन्हें मंत्री बना दिया। सिखों ने समझा डूबते हुए को तिनके का सहारा मिला, पर बात इसके बिलकुल विरुद्ध हुई। उसने लार्ड हार्डिंग से जो भावी सिन्ध-युद्ध की चिन्ता से घुले जा रहे थे, एक गुप्त-सन्धि कर ली। गुलाबसिंह ने सन्धि के अनुसार अंग्रेजों से प्रतिज्ञा की कि युद्ध के समय सिख-सेना के संचालक उनसे अलग हो जाया करेंगे और जब सिख-सेना हार जायेगी, तो उसे निकाल दिया जायेगा। जिससे सतलज पार करके राजधानी में आने में अंग्रेजी सेना को कोई रुकावट न रहेगी। इस तरह गुलाबसिंह सिखों के लिए लालसिंह और तेजसिंह से भी अधिक खतरनाक सिद्ध हुआ।

सिख अलीवाल युद्ध में अपनी पराजय के कारण तिलमिला रहे थे। सर्वस्व अर्पण करने पर भी पराजय होते देखकर निराशा-सागर में डूबे हुए थे, किन्तु एक जाट केसरी ने सिंह-गर्जन करके उन्हें फिर उत्साहित किया। वह महाराज रणजीतसिंह के बचपन के साथी तथा वीर-श्रेष्ठ कुं० नौनिहालसिंह के श्वसुर श्यामसिंह जी अटारी वाले थे। बुढ़ापे में भी सरदार श्यामसिंह की सूखी हड्डियों में अपनी जन्मभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए खून दौड़ने लगा। उन्होंने


1. ‘सिख युद्ध’। पेज 67। लेखक चक्रवर्ती।


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ओजस्वी वाणी से सिख वीरों को सम्बोधित करते हुए कहा - “आओ वीरो! आओ। खालसा के वीर सरदारो आओ!! मातृभूमि की स्वाधीनता की रक्षा के लिए फिरंगियों से तुम्हारे साथ लड़कर तथा प्राण देकर मैं भी स्वर्ग सिधारूंगा। हृदय के गर्म-गर्म लहू को बहाकर गुरु गोविन्दसिंह की आत्मा को प्रसन्न करूंगा और खालसा का गौरव बढ़ाऊंगा।” साथ ही सरदार श्यामसिंह ने सिखों के पवित्र ग्रन्थ-साहब को छूकर प्रतिज्ञा की कि प्राण रहते कभी भी युद्ध-स्थल से पीछे नहीं हटूंगा। इस भीषण प्रतिज्ञा के बाद उन्होंने रणभूमि की तैयारी की। उनकी सफेद दाढ़ी, सफेद मूंछ, साथ ही अंगरखी और पगड़ी भी सफेद थी। यही क्यों, जिस समय वे सफेद घोड़ी पर सवार हुए, उनकी सुन्दरता जाग उठी। युद्ध को प्रस्थान करते हुए उन्होंने खालसा सेना से कहा - आओ खालसा के पुत्रो! पराधीन होने की अपेक्षा अस्त्र-शय्या पर सदा के लिए सो जायें। खालसा-सेना के हृदयों को यह मार्मिक अपील पार कर गई। वे सिंहनाद से गर्जते हुए उठ खड़े हुए। उन्होंने भीम-गर्जन के साथ ‘वाह गुरु की फतह’ के नारे लगाये।

सिखों ने अंग्रेजों के साथ युद्ध करने के लिए सोवरांव पर दखल करके सुदृढ़ व्यूह बना लिया। 67 तोपों के साथ 15 हजार सिक्ख मर मिटने के लिए तथा मार-काट करने के लिए अंग्रेजी सेना के आने की प्रतीक्षा करने लगे। इधर तो सिक्ख वीर इस तरह मर मिटने को तैयार थे, उधर नमकहराम लालसिंह ने अंग्रेजों को यहां के सब समाचार लिख भेजे -

“इस युद्ध का सेनापति तेजसिंह है। पर वह चेष्टा अंग्रेजों के हित की ही करेगा। मेरे संचालन में घुड़सवार सेना है, जिसे मैंने तितर-बितर कर रक्खा है। सिक्ख छावनी का दक्षिण भाग कमजोर है, उधर व्यूह की दीवार भी मजबूत नहीं बन सकी है1।”

इस समाचार के पाने से अंग्रेजों को बड़ी प्रसन्नता हुई। अंग्रेजों ने सर राबर्ट डिक की अधीनता में सबसे पहले उसी दक्षिणी हिस्से पर आक्रमण करने की आज्ञा दी। साथ ही अन्य भागों पर भी 120 तोपें लगा दीं। सर वाल्टर डिक के दाहिने भाग में और हैरी वाल्टर के दाहिने भाग में इस भांति खड़े हुए कि एक के बाद एक परस्पर सहायता देते रहें। इस प्रकार तीनों भागों में 16 हजार राजपूत मिश्रित गोरे नियुक्त किए गए। चाहे लालसिंह ने अंग्रेजों को अपना सारा भेद बता दिया था, किन्तु अंग्रेज सशंकित उससे भी थे। इसलिए उनकी निगाह रखने के लिए भी कुछ घुड़सवार सैनिक नियुक्त कर दिए। ठीक है जो अपनों के साथ विश्वासघात कर सकता है, उसका विश्वास करना महापाप है। आपत्ति के समय सहायता देने के लिए दो


1. एडवर्ड साहब ‘सिख युद्ध’ पे० 73। लेखक चक्रवर्ती।


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पल्टनें अंग्रेजों ने फीरोजपुर में नियुक्त कर दीं। सामने छाती से छाती भिड़ाकर अंग्रेज सिक्खों से दो बार लड़ चुके थे। उन्हें यकीन हो गया था कि सिक्खों से मुकाबले में फतह नहीं पा सकते। इसलिए (9 फरवरी सन् 1846 ई० की रात को) चुपके से सिक्ख-सेना पर आक्रमण किया, फिर मुठभेड़ होते समय तक सूर्य निकल आया। सदा के फुर्तीले सिक्खों ने तुरन्त रणभेरी बजा दी। ठीक साढ़े छः बजे अंग्रेजों की सैंकड़ों तोपें सिखों पर गोले बरसाने लगीं। कभी सिखों की हथियारों से भरी हुई गाड़ियां तोपों के गोलों से नष्ट होती थीं, कभी बालू से बनाई उनकी दीवार गिरती थी। कभी गोले फटकर पृथ्वी में दरारें कर देते थे। सिखों की लोथों पर लोथ बिछ रही थीं, किन्तु इस पर भी सिख वीरों का धीरज न छूटा।

खालसा सेना अंग्रेजों के प्रत्येक आक्रमण का उत्तर स्वाभाविक फुर्ती से देकर अंग्रेजी सेना में प्रतिक्षण हाहाकार मचा देती थी। भारत में अंग्रेजों को अनेक युद्ध करने पड़े हैं। किन्तु अन्यत्र कहीं भी सोवरॉय की भांति दुर्ज्जय वीरों की भीषण समर-लीला देखकर कहीं इतना भयभीत नहीं होना पड़ा।

ज्यों-ज्यों सूर्य भगवान् ऊपर को चढ़ने लगे, युद्ध की भयंकरता भी बढ़ने लगी। अब तक की गोलाबारी से अंग्रेज अपने अभीष्ट को पूरा न कर सके। उन्होंने समझा था कि सिखों की असावधानी में गोलावारी करके उन्हें तुरंत ही जीत लिया जायेगा। किन्तु सिखों ने अपनी फुर्ती से उनकी इस इच्छा को पूरा न होने दिया। अतः उन्होंने लालसिंह के बताए दक्षिण भाग पर सर राबर्ट डिक की अधीनता में बढ़ना शुरू किया। किन्तु सिख अंग्रेजों की चालाकी को ताड़ गए और बड़े धैर्य के साथ उस हिस्से पर बड़ी संख्या में जाकर इकट्ठे हो गए और आती हुई अंग्रेजी सेना पर ऐसा छापा मारा कि अंग्रेज भाग खड़े हुए और उनके सेनापति डिक सख्त घायल हो गए। यह देखकर पहले से स्थित मि० गिलवर्ट ने अपनी सेना को सिखों पर आक्रमण करने को बढ़ाया। डिक की भागती हुई सेना भी रुक गई और दोनों मिलित सेनाओं ने सिखों पर आक्रमण किया। किन्तु बलिहारी सिक्ख वीरों की जननियों को जिन्होंने ऐसे सिंहों को पैदा किया था। वे दोनों सेनाओं के सामने अड़कर वार सहन करने लगे। उन्होंने भीषण वेग से तोपों की वर्षा करके अपनी तो रक्षा कर ही ली, साथ ही अंग्रेजी सेना को पीठ दिखाकर भागना पड़ा। एक दो और तीन बार अंग्रेजों ने सिक्खों पर नूतन तैयारी के साथ हमला किया। किन्तु उसे हर बार पूरी तरह हार खाकर वापस लौटना पड़ा। तीसरी बार के आक्रमण में अंग्रेजों के तीनो वीरों - डिक, गुलवर्ट, और हैरी ने सिक्खों से लोहा लिया था, पर वे सिक्खों का कुछ भी न बिगाड़ सके। सिक्खों ने आक्रमण करते और भागते दोनों ही समय अंग्रेजों को हानि पहुंचाई।


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यद्यपि अंग्रेज अभी तक पराजित हो रहे थे, किन्तु उन्होंने साहस नहीं छोड़ा। यही उनका ऐसा उत्तम गुण था, जिसके बल पर भूमंडल के सबसे अधिक भाग पर छा गए थे। उन्होंने अपनी हार से भी सबक लिया। पुनः आक्रमण के लिए वे फिर बल-संचय करने लगे। उधर सिक्ख-सेना की हालत पर दृष्टिपात करने से आंसू बहाना पड़ता है। सैनिक बिचारे स्वयम् प्रबन्ध करते हैं। उन्होंने अपने बायें ओर मध्य भाग को मजबूत बनाने के लिए दाहिने भाग को फिर निर्बल बनाया। विश्वासघाती लालसिंह यह सारा तमाशा देख रहा था। अधीन सेना ने उसे दाहिने भाग की कमजोरी कई बार बताई। किन्तु क्यों ध्यान देने लगा? चौथे आक्रमण के समय डिक-सेना ने उसी दाहिने भाग पर हमला किया। उसने बड़े वेग के साथ चलकर उस स्थान पर कब्जा कर लिया। मध्य-भाग की ओर गिलवर्ट-सेना बढ़ रही थी। उसे डिक-सेना ने बड़ी सहायता पहुंचाई। इन दोनों सेनाओं ने सिक्खों की कई तोपों को छीन लिया। इसी समय हैरी-स्मिथ-सेना ने भी सिक्खों पर आक्रमण किया। शत्रुओं के इस भीषण आक्रमण का उत्तर देने के लिए सिक्ख सिंहों की भांति अंग्रेजी दल पर झपटे। अगणित अंग्रेज सैनिक उन्होंने काट कर गिरा दिये। आगे की सेना पीछे वालों पर गिरने लगी। पर इतनी हानि होने पर भी गिलवर्ट-सेना ने डिक की सेना के सहारे सिक्ख-सेना पर हमला किया। यह दृश्य अपूर्व था। कभी अंग्रेजी सेना सिक्खों को भगाकर आगे बढ़ती, कभी सिक्ख सेना अंग्रेजी-सेना का ध्वंस करती। इसी तरह की कश्मकश में अंग्रेजों की सेना एक बार के हमले में सिक्ख-सेना के भीतर घुस गई और उसके दायें-बायें अंश अंग्रेज-सेना ने घेर लिए। इसी समय अंग्रेजी तोपों ने सिक्ख-व्यूह की दीवार पर गोले बरसाने आरम्भ कर दिये। थोड़ी देर में दीवार गिर पड़ी और अंग्रेजी सेना ने सिक्खों पर चारों ओर से हमला कर दिया। यही अवसर सेनापतियों के रण-कौशल दिखाने का था। किन्तु बेचारी सिक्ख-सेना के सेनापति तो विश्वासघातक थे। उन नराधमों ने गोलन्दाजों को बारूद देना बन्द कर दिया। जो तोपें कुछ समय पहले अग्नि वर्षा करके अंग्रेजों के दिल दहला रही थी, वे अब बिना बारूद के दगने से बन्द रह गईं। अंग्रेज सैनिक उन पर कब्जा करने लगे। उनकी नीचता की हद यहीं खतम नहीं हुई। स्वजाति-द्रोही तेजसिंह ने एक बड़ी सेना के साथ भागना शुरू कर दिया, उसने सतलज के पुल को भी तुड़वा दिया। वह चाहता था कि भागकर भी सिक्ख-सेना प्राण न बचा सके। अब सिक्ख-सेना इसके सिवाय क्या कर सकती थी कि जन्मभूमि के हित डटकर लड़े और लड़ते-लड़ते ही प्राणों का उत्सर्ग करे। उनके लड़ने के भी साधन नष्ट किए जा चुके थे। गोला-बारूद के बिना तोप-बन्दूकें बेकार साबित हो रहीं थीं। अब सिखों ने अपनी चिर-संचिनी तलवार को सम्भाला और अटारी के भीम-विक्रमी बूढ़े सरदार श्यामसिंह की उत्तेजना से, मदमत्त हस्तियों की भांति, अंग्रेजी सेना पर आक्रमण किया। सरदार


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श्यामसिंह सेना के प्रत्येक भाग में आक्रमण करके अपने साथियों का उत्साह बढ़ाने लगे। अन्त में जब उन्होंने देखा कि अब सर्वनाश होने में देरी नहीं है, तब उन्होंने सिख-वीरों से ललकार-पूर्वक कहा - 'क्षत्राणियों के पुत्रो! आओ कुछ करके मरें। अंग्रेजों की 50वीं रेजीमेंट पर आक्रमण करो।' वे बड़े वेग से हवा में तलवार घुमाते हुए घोड़े को एड़ लगाते हुए अंग्रेजी रिसाले पर टूट पड़े। 50 अन्य सिख वीरों ने भी प्राणों का कुछ मोह न करके श्यामसिंह का साथ दिया। अंग्रेज सैनिकों के गोल ने उन पर गोलियों की बौछार कर दी। श्यामसिंह के सात गोलियां शरीर में लगकर पार हो गईं। किन्तु प्राण रहने तक श्यामसिंह लड़ते रहे। वे अंग्रेज-सिक्ख वीरों की लाशों के ढ़ेर के ऊपर सदैव के लिए सो गए।

सिख-सेना पीछे हटी, किन्तु बड़ी सावधानी के साथ। उसने पीठ न फेरी। अंग्रेजी फौज के सामने मुंह करके लड़ती हुई उल्टे पैरों वापस लौटी। यदि सतलज का पुल उसके विश्वासघाती सेनापतियों ने तोड़ न दिया होता, तो सिख वीर लड़ते हुए भी अपने इलाके में पुल पार करके वापिस पहुंच जाते। उन दिनों सतलज चढ़ी हुई थी। अब इसके सिवा उपाय ही क्या था। या तो वे नदी में कूदकर प्राण दें अथवा शत्रु के सामने छाती अड़ाकर अपने जीवन का निर्णय करें। वे तलवार के सहारे ही शत्रुओं का सामना करते हुए लड़कर मरने लगे। अंग्रेज आश्चर्य करते थे। इस तरह जीवन से निराश होने पर भी, उनमें से एक भी सिख, माफी मांगने के लिए तैयार नहीं है। उस सम्पूर्ण सिख-दल के रक्त से सतलज का जल रक्त-वर्ण हो गया। पानीपत के युद्ध के बाद, इतनी नर-हत्या सोमरांव युद्ध में ही हुई थी। प्रायः 8 हजार सिख उस दिन मां की आजादी की रक्षा के लिए रणखेत में शत्रु के हाथों से वीरगति को प्राप्त हुए। इतना होते हुए भी उन्होंने अंग्रेजी-सेना के दो हजार चार सौ तिरासी आदमियों को इस लोक से विदा कर दिया था। अंग्रेजों की विजय हुई। पर क्या कोई अभिमानी योद्धा यह कह सकता है कि सिख अंग्रेजों से हार गये थे?1

सिख-राज्य की काया-पलट

सोवरांव युद्ध के बाद अंग्रेज निश्चिन्त नहीं बैठे। थोड़े दिनों के बाद सतलज पार करके वे सिख-राज्य में आ धमके। दूसरे दल के साथ लार्ड हार्डिंग भी आ पहुंचे। कसूर में डेरा डालकर 1846 ई० की 20वीं फरवरी को उन्होंने एक घोषणा प्रकाशित की जिसका आशय यह था -

“अंग्रेजों का विचार पंजाब-राज्य को अपने राज्य में मिलाने का नहीं है, किन्तु

1. सोवरांव युद्ध के बाद ही हार्डिंग और गफ को लार्ड की उपाधि विलायत से मिल गई।


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सिखों ने जो सन्धि तोड़ी है, उसकी उन्हें सजा देने के लिए पंजाब अंग्रेजों के हाथ में रहेगा। भविष्य में शान्ति रखने तथा युद्ध का खर्च वसूल करने के लिए सिक्ख-साम्राज्य के कई प्रदेश अंग्रेजी शासन के आधीन रहेंगे। यद्यपि लाहौर दरबार को सन्धि भंग करने की पूरी सजा मिलनी चाहिए, तथापि लाट साहब दरबार और सरदारों को राज्य के सुधारने का मौका देना चाहते हैं। दरबार और सरदारों की सहायता से अंग्रेजों के परम मित्र महाराज रणजीतसिंह के पुत्र की आधीनता में निर्दोष सिख-राज्य को स्थापित करने की ही उनकी प्रबल लालसा है। पर यदि सिख-जाति को अराजकता से बचाने का यह नवीन उपाय स्वीकृत न हुआ और फिर अंग्रेजों से लड़ाई ठानने की तैयारी की जायेगी तो जिस ढ़ंग से पंजाब का शासन करने में अंग्रेजों की भलाई होगी, उसी ढ़ंग से लाट-साहब शासन का प्रबन्ध करेंगे।”

इस घोषणा से सारे पंजाब में सनसनी फैल गई। यह किसे विश्वास था कि सोवरांव के युद्ध के पीछे ही अंग्रेज पंजाब में घुस आयेंगे। जिन देशद्रोहियों के कुकृत्यों के कारण पंजाब में घुसने की अंग्रेजों में सामर्थ्य हुई थी, वे भी अब पछताने लगे। वे चाहने लगे कि किसी भी भांति इनका आना पंजाब में रुके। राजा गुलाबसिंह खुद रोते-झींकते कसूर पहुंचे और लार्ड हार्डिंग से लाहौर न जाने की प्रार्थना की। लाट ने एक न सुनी। गुलाबसिंह दुबारा फिर लाट साहब के पास गए और महाराज दिलीप को भी साथ ले गए। लाट साहब ने बालक महाराज दिलीप का आदर सत्कार किया और गुलाबसिंह आदि सरदारों से कहा -

“पंजाब को हम अंग्रेजी राज्य में नहीं मिलाना चाहते हैं। अपने पिता के राज्य के मालिक दिलीपसिंह ही रहें, पर ब्यास और सतलज के बीच के समस्त प्रदेश अंग्रेजों को देने होंगे। इसके सिवाय डेढ़ करोड़ रुपया युद्ध के खर्चे का भी हम (अंग्रेज) लाहौर दरबार से लेंगे। किन्तु यह सन्धि भी लाहौर राजधानी में चल कर ही हम करेंगे, अन्य स्थान पर नहीं।”

20 फरवरी को अंग्रेज दल लाहौर पहुंचा। दिलीपसिंह को अंग्रेजों ने फिर से गद्दी पर बिठाने की रस्म अदा की। अंग्रेज पंजाब निवासियों को बता देना चाहते थे कि अंग्रेज उदारतापूर्वक महाराज को पंजाब का राज्य दे रहे हैं। वास्तव में अब पंजाब पहले का पंजाब नहीं रहा। लोगों ने शायद यही समझा हो, किन्तु बात इसके साथ कुछ और भी थी, जिसने लार्ड हार्डिंग को इतना उदार बना दिया था। वास्तव में वह बड़े दूरदर्शी थे। अब भी अमृतसर की ओर सिखों की बीस हजार सेना मौजूद थी और वह चाहती थी कि उसे अंग्रेजों से लड़ने का मौका दिया जाए। यदि कोई योग्य सेनापति उन्हें मिल जाता तो वे अंग्रेजों से सोवरांव का पूरा बदला ले लेते। लार्ड हार्डिंग पंजाब को भला कैसे अपने राज्य में मिला सकते थे। कसूर की मुलाकात में गुलाबसिंह ने भी कहा था कि आज मेरी बात नहीं सुनी जाती है, किन्तु मैं चाहता तो सोमराव के युद्ध को समाप्त न


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होने देता। तनिक से इशारे पर 60-70 हजार सैनिक तैयार थे। इन्हीं शंकित देशद्रोहियों में से कोई बगावत खड़ी कर देता तो अंग्रेजों को लेने के देने पड़ जाते। आखिर नवीन सन्धि हुई। बीस हजार पैदल और बारह हजार सवार रखने की इजाजत लाहौर दरबार को इस सन्धि के अनुसार मिली। शेष सेना वेतन चुका कर अलग कर दी गई। तोपों को अंग्रेजों ने हथिया लिया। आगे से 30 तोप रखने का अधिकार लाहौर दरबार को रहा। यह सन्धि 9 मार्च को हुई थी और ललियाना-सन्धि कहलाती थी क्योंकि इसका मस्विदा पहले ललियाना में ही तैयार हुआ था। इस सन्धि के अनुसार व्यास और सतलज के दक्षिण ओर के सम्पूर्ण प्रदेशों को चिरकाल के लिए अंग्रेजों के सुपुर्द कर देना पड़ा। युद्ध-खर्च का डेढ़ करोड़ रुपया उस समय अदा कर देने में असमर्थ होने के कारण एक करोड़ के बदले काश्मीर और हजारा सहित, व्यास और सिन्ध के बीच के समस्त प्रदेशों को हवाले करना पड़ा। शेष पच्चीस हजार रुपया लाहौर दरबार ने कुछ दिन पीछे देने का वचन दिया। सन्धि में यह लिखा जा चुका था कि अंग्रेज सरकार सिख-दरबार के भीतरी मामलों में हस्तक्षेप न करेगी, किन्तु गवर्नर जनरल आवश्यकतानुसार शासन कार्य में उसे परामर्श अवश्य दे सकेंगे। शान्ति बनाए रखने के लिए, एक साल तक लाहौर में अंग्रेजी सेना रहेगी, तब तक सिख-सेना बाहर रहेगी।

अंग्रेजों के बाकी रहे हुए पचास लाख का प्रबन्ध लाहौर दरबार ने इस तरह से किया कि अधीनस्थ समस्त सरदारों से सहायता मांगी गई। उनमें से अनेक ने यह भी कहा कि हमारी सारी सम्पत्ति नष्ट हो चुकी है, तब कहां से दे सकते हैं? किन्तु अटारी वाले चतरसिंह जैसे सिख-राज हितैषी सरदारों ने काफी सहायता दी जिससे यह रकम चुका दी गई।

जहां राजनैतिक ज्ञान की कमी होती है, वहां के लोग यह सोचने में किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाते हैं कि उनका मान-अपमान किस मार्ग पर चलने में अधिक सुरक्षित रहेगा। ऐसी ही दशा घरेलू झगड़ों ने महारानी जिन्दा के दिमाग की कर दी थी। केवल भाई की हत्या का बदला लेने के अभिप्राय से उन्होंने देश के रक्षक खालसा वीरों का सर्वनाश कराया और अब भी उन्हीं खालसा सैनिकों से भयभीत होकर गवर्नर से रक्षा की याचना करती हैं कि मुझे और मेरे पुत्र को पंजाब में सिखों के हाथ में रखने की अपेक्षा ब्रिटिश-राज्य की सीमा में रखना अथवा अपने साथ गवर्नमेण्ट हाउस में ले जाना हमारे हक में अच्छा होगा। इसके पश्चात् एक पत्र बालक दिलीपसिंह के दस्तखत से रामसिंह, लालसिंह, तेजसिंह, दीनानाथ आदि के द्वारा गवर्नर-जनरल के पास पहुंचाया गया। उसमें लिखा था - “लाहौर के इस नवीन प्रबन्ध में किसी तरह की गड़बड़ न हो। इसका कुछ प्रबन्ध अंग्रेज सरकार अवश्य करे। इसके लिए कुछ अंग्रेजी सेना लाहौर में रहनी चाहिए जो बालक महाराज की रक्षा कर सके।”

कमीने षड्यंत्रकारियों ने रानी जिन्दा को कितना


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-340


बहका रक्खा था! भला जो खालसा वीर, पिशोरासिंह को भी सिर्फ इसीलिए कि वह महाराज रणजीतसिंह का घोषित पुत्र है, अपने हाथ से न मार सके थे, वे क्या महाराज दिलीपसिंह को नुकसान पहुंचा सकते थे? राज-परिवार की सारी हत्याएं गैर जाटों अथवा गैर सिखों के षड्यंत्र से हुई थीं। सिन्धान वाले अवश्य ऐसे पाजी निकले थे, जिन्होंने जाट अथवा सिख होते हुए, महाराज शेरसिंह पर हाथ उठाया था। किन्तु वे खालसा की सलाह से तो इस काम के करने में प्रवृत्त नहीं हुए थे। 9 मार्च की एक सम्मिलित मीटिंग में गवर्नर ने महारानी जिन्दा के प्रस्ताव को मंजूर कर लिया।

मार्च महीने की 11वीं तारीख को सन्धि में एक बात और हुई कि पुरानी सिख-सेना (खालसा) कतई तोड़ दी गई और नई भर्ती की गई। पूर्व सिख राज्य को पूर्णतः समाप्त करने के बाद, अंग्रेजों द्वारा जो नया सिख-राज्य स्थापित हुआ, लालसिंह को उसका प्रधानमंत्री (अंग्रेजों ने) बनाया। गुलाबसिंह के लिए यह बात अखरी, क्योंकि मत्रित्व के लिए ही तो उन्होंने खालसा के साथ विश्वासघात किया था। गुलाबसिंह को सन्तुष्ट रखने के लिए अंग्रेजों ने उसे कश्मीर का इलाका 75 लाख रुपये में बेचकर, वहां का स्वतन्त्र राजा मान लिया। तेजसिंह को भी कुछ देना था, क्योंकि कौमी गद्दारी उसने क्या कम की थी? इसलिए उसे स्यालकोट के इलाके का राजा अंग्रेजों ने बना दिया। इसी प्रकार अंग्रेजों की तरफ से उन सभी लोगों को पुरस्कार देकर कृतज्ञता प्रकट की गई, जिन्होंने अपने जाति भाइयों के साथ विश्वासघात करके युद्ध के समय अंग्रेज-हित की चिन्ता की थी।

कुछ दिनों बाद इमामुद्दीन नामक एक व्यक्ति ने कुछ आदमी इकट्ठे करके गुलाबसिंह के विरुद्ध बगावत खड़ी की। किन्तु अंग्रेजों की सहायता से उसे दबा दिया गया। नवीन प्रबन्ध से उस समय देखने भर को पंजाब में शान्ति दिखाई देती थी, किन्तु वास्तव में वह शान्ति न थी।

लालसिंह जाति-विद्रोह करके अथवा खालसा को नष्ट करके पंजाब का मंत्री हुआ सही, किन्तु वह अयोग्य था, विषयी था और था साथ ही दुर्बल प्रकृति का आदमी। उसके कुशासन से प्रजा हैरान होने लगी। राज्य के धनवानों से कर उगाह कर वह अपनी विलासिता में खर्च करने लगा। तबले की ठनाठन, सारंगी की गुनगुन और मृगनयनियों के घुंघरुओं की छुनछुन में मन्त्री-भवन की शोभा बढ़ने लगी। मदिरा के मधुर प्रवाह से रहस्य और भी खिलने लगा। किन्तु हजार दुराचारी होते हुए भी वह अंग्रेजों को प्रसन्न रखने में कोई कोर-कसर न रखता था। फिर भी उसके भाग्य ने साथ नहीं दिया। अंग्रेजों ने उसके ऊपर इलजाम लगाया कि इमामुद्दीन जिसने कि जम्बू नरेश गुलाबसिंह के विरुद्ध बगावत की थी, उसे लालसिंह ने उभाड़ा था। 65 सिखों के सामने अंग्रेज-कमीशन ने जांच की और


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उसे अपराधी साबित करके दो हजार रुपये की मासिक पेन्शन पर आगरा भेज दिया।

लालसिंह को देश निकाला देने के बाद, सन् 1846 की 16वीं दिसम्बर को भैरवाल नामक स्थान में लार्ड हार्डिंग ने एक नयी सन्धि की जिसके अनुसार तय हुआ कि गवर्नर जनरल लाहौर में अपना एक अंग्रेज प्रतिनिधि रखेंगे जो रेजीडेण्ट कहलायेगा, जिसे राज-कार्य में पूरी तरह अपनी शक्ति प्रकट करने का अधिकार रहेगा। कई एक योग्य व्यक्ति उनकी सहायता के लिए नियुक्त होंगे। पंजाब निवासियों के जातीय तथा धार्मिक रिवाजों सम्बन्धी रीति-नीति पर पूरा ध्यान रखकर कार्य किया जाएगा। इस कार्य के लिए तेजसिंह अटारी के शेरसिंह, दीवान दीनानाथ, फकीर नूरुद्दीन, भाई विधानसिंह, अतरसिंह, शमशेरसिंह आदि कई सरदारों की एक प्रतिनिधि सभा होगी जो रेजीडेण्ट की सहायता किया करेगी। बिना रेजीडेण्ट की आज्ञा के, इन प्रतिनिधियों में किसी भांति का हेर फेर न होगा। महाराज की रक्षा तथा राज्य में शांति-स्थापना के लिए आवश्यक सेना गवर्नर-जनरल की मंजूरी से रखी जायेगी। यह सेना यथावश्यक लाहौर अथवा सिख-राज्य के किसी भी स्थान पर रहेगी। राजमाता महारानी जिन्दा तथा उनकी सखी-सहेलियों के भरण-पोषण के लिए अब से डेढ़ लाख सालाना, राज्य-कोष से दिया जाएगा। सन् 1854 की चौथी दिसम्बर को महाराज की अवस्था 16 वर्ष की होने पर सन्धि की ये पाबन्दियां नहीं रहेंगी। यदि इससे पहले भी दरबार तथा अंग्रेजी सरकार को सन्धि-भंग करने की आवश्यकता हुई, तो गवर्नर-जनरल वह भी कर सकेंगे।

सोवरांव युद्ध की समाप्ति के एक वर्ष में इस तरह साह की सन्धियों के होने से पंजाब निवासियों को प्रतीत होने लगा कि अंग्रेज अब अंगुली पकड़कर पहुंचा पकड़ना चाहते हैं। भैरवाल की इस सन्धि के अनुसार, सर हेनरी लारेन्स जो कि लार्ड हार्डिंग के परम विश्वासी थे, पंजाब के रेजीडेण्ट नियुक्त हुए। लारेन्स राजनीति-पटु और नियाहत योग्य थे। हिन्दुस्तान निवासियों पर दया दिखाना, कोमल स्वभाव रखना, सुख-शान्ति की उत्कट इच्छा रखना आदि उनके गुण थे। इतना होने पर भी वे अंग्रेज थे। उनके रेजीडेन्ट काल में पंजाब का स्वरूप ब्रिटिश भारत का जैसा होना आरम्भ हो गया। सिख जाति का सद्‍भाव छूटने लगा। उसके हृदय में लड़ाई के भाव लोप होने लगे। कुछ ही दिन पहले सिख-सेना अंग्रेजों से लड़ी थी, उसी सेना के अनेक लोग अब तलवार के बदले हल की मूंठ थामकर लड़ाई के बदले खेत जोतने लगे। दीवानी-फौजदारी के विभाग नये तरीके से


1. इतिहास तिमिर नाशक, द्वितीय भाग, ओरियन्टल थिओग्राफिकल डिक्शनरी पेज 226।


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स्थापित हुए। सिख-राज्य में अंग्रेजी कानून चलने लगा। क्रमशः सिखों की मनोवृत्ति बदलने लगी। चन्द दिन पहले, जो सिख अंग्रेजों के लाट को भी अपने राज्य में देखकर क्रोध में आंखें लाल करके म्यान पर हाथ रखते थे, वे छोटे से छोटे अंग्रेज को भी देखकर इज्जत के साथ सलाम करके, बीसियों कदम पीछे हटने लगे।

सन् 1847 की तीसरी जुलाई को गवर्नर-जनरल ने एक चिट्ठी पंजाब-दरबार के नाम लिखकर रेजीडेण्ट की शक्ति को और भी बढ़ा दिया। लाट साहब ने लिखा -

“भैरवाल सन्धि के अनुसार लाहौर के अंग्रेज रेजिडेण्ट, राज्य के सम्पूर्ण विषयों में इच्छानुसार कार्य करने का पूर्ण अधिकार रखते हैं। रेजीडेण्ट बहादुर के लिए प्रतिनिधि सभा के देशी सभासदों के साथ एक मत से कार्य करना बहुत ही अच्छी बात है; किन्तु वास्तव में वे रेजीडेण्ट के पूरे मातहत हैं। वह चाहें तो उनमें से चाहे जिसे अलग कर सकते हैं और उसके स्थान पर दूसरों को भर्ती कर सकते हैं।”

23वीं अक्टूबर को लाट साहब ने एक और चिट्ठी लिखी -

महाराज दिलीपसिंह की नाबालिगी तक, हम लोगों को याद रखना चाहिए कि सन् 1846 की सन्धि के अनुसार सिख-राज्य बिलकुल स्वतन्त्र नहीं है। राज्य का कोई भी कर्मचारी अथवा सरदार युद्ध अथवा सन्धि करने अथवा छोटी से छोटी भूमि बेचने वा बदलने का अधिकारी नहीं है। हमारी बिना आज्ञा के ऐसा कोई भी कार्य नहीं हो सकेगा, औरों की बात छोड़ दीजिये, स्वयम् महाराज भी हमारे आधीन हैं। उनको भी अपने मन से कोई काम करने का अधिकार नहीं है।”

लाट साहब की इस प्रकार की चिट्ठी-पत्रियों से पंजाब के निवासियों के कान खड़े होने लग गये थे। वे समझने लग गये थे कि 'दाल में काला' है। उनके हृदय में, भीतर ही भीतर, आग सुलगनी आरम्भ हो रही थी। ऐसे ही समय रेजीडेण्ट सर हैनरी लारेन्स ने महारानी जिन्दा के नाम एक चिट्ठी लिखी जिसका सारांश यह है -

“भैरवाल सन्धि के अनुसार पंजाब के राज्य-कार्य में हस्तक्षेप करने का महारानी को कोई अधिकार नहीं है। स्वतन्त्रता-पूर्वक आनन्द से वह अपना जीवन निर्वाह कर सकें, इसके लिये उनकी डेढ़ लाख रुपये वार्षिक की वृत्ति नियत कर दी गई है। किन्तु ऐसी अफवाह है कि महारानी कभी 15 और कभी 20 सरदारों को निमन्त्रण देकर घर में बुलाती हैं और उनसे परामर्श करती हैं और कोई-कोई सरदार तथा कर्मचारी छिपकर उनसे मुलाकात करते हैं। यह भी सुना जाता है कि पिछले महीने से महारानी नित्य राज-महल में पचास ब्राह्मणों को भोजन कराती हैं, स्वयं उनके पैर धोती हैं। इसके अतिरिक्त पर मंडल में भी 100 ब्राह्मणों के भेजने की खबर सुनी जाती है। महाराजा रणजीतसिंह के परिवार की मान-मर्यादा के उत्तरदायित्व का भार मेरे ऊपर है। इसलिये कहना पड़ता है कि ये सब काम महारानी के स्वरूप के अनुकूल नहीं हैं, उनकी प्रतिष्ठा में बट्टा लगाने वाले हैं।

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“आगे से महारानी अपनी सखी-सहेली तथा दास-दासियों के अलावा किसी से मुलाकात न किया करें। इससे उनकी इस समय भी और भविष्य में भी भलाई है। इसीलिये यह मैं महारानी को लिख रहा हूँ। यदि महारानी की इच्छा दरिद्र तथा धार्मिक व्यक्तियों को भोजन कराने की हो तो प्रत्येक मास की प्रथम तिथि को अथवा शास्त्र-सम्मति से किसी अच्छे दिन यह कार्य करें। सारांश यह है कि महाराज रणजीतसिंह के उदाहरण पर महारानी को चलना चाहिये। यदि किसी सरदार को महारानी के प्रति सन्मान प्रकट करने और अभिवादन करने के लिये महारानी से भेंट करने की आवश्यकता हो तो महारानी को स्त्रियों के समान नम्रता और शीलता के अनुसार मिलना चाहिये। किसी महीने में पांच अथवा छः सरदार से अधिक एक समय में महारानी भेंट न करें। इन सरदारों से मिलते समय महारानी को जोधपुर, जयपुर और नेपाल की राजकुमारियों की भांति परदे में रहकर भेंट करनी चाहिये। यदि महारानी कृपा-पूर्वक महल के भीतर किसी अपरिचित व्यक्ति को नहीं आने देंगी तो भविष्य में सरदारों तथा अन्य राज-कर्मचारियों को शासन सम्बन्धी कार्यों में बहुत कम परिश्रम करना पड़ेगा।”

सोवरांव युद्ध के पश्चात् पंजाब की जैसी अवस्था हो गई थी, उसका परिचय रेजीडेण्ट की इस चिट्ठी से मिल जाता है। महाराज रणजीतसिंह की परम प्यारी महारानी जिन्दा (महबूबा) ने रेजीडेण्ट की इस आज्ञा के सामने बिना किसी संकोच के सिर झुका लिया। 9 जून को उन्होंने इस चिट्ठी का उत्तर लिखा -

“मैंने आपका पत्र आदि से इति तक ध्यान-पूर्वक पढ़ा। आपने मुझे बताया है कि राज्य-कार्य में हस्तक्षेप करने का मेरा कोई अधिकार नहीं है। मैंने ब्रिटिश-राज्य और सिख-राज्य दोनों में मित्रता होने के कारण, राज-विद्रोही कर्मचारियों को दबाये रखने को महाराज से अपनी तथा प्रजा की रक्षा के लिये लाहौर में अंग्रेजी सेना और अंग्रेज कर्मचारियों के रहने की प्रार्थना की थी। किन्तु राज्य-कार्य में मेरा कोई सम्बन्ध नहीं रहेगा, ऐसा उस समय कुछ भी तय नहीं हुआ था। हां, यह बात अवश्य तय हुई थी कि राज्य-कार्य में मेरे कर्मचारियों से परामर्श जरूर लिया जायेगा। जितने दिन तक बालक दिलीपसिंह पंजाब के नृपति हैं, उतने दिन तक मैं पंजाब की अधीश्वरी हूं। किन्तु इतने पर भी राज्य की भलाई के लिए, नवीन सन्धि के अनुसार यदि और कोई प्रबन्ध किया गया हो तो मैं इसमें भी सन्तुष्ट हूं।
“मुझे अपनी डेढ़ लाख वार्षिक वृत्ति के सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना है कि अब इस विषय की चर्चा करना व्यर्थ है। कारण यह है कि मनुष्य की जैसी परिस्थिति हो जाती है, उसी के अनुसार अपने दिन काटता है। फिर इसके जानने से मतलब ही क्या है कि उसका जीवन किस प्रकार से बीतता है? तिस पर भी

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“महाराज के बालिग होने तक यह प्रबन्ध राज्य की भलाई के लिए किया गया है, इससे मैं इसमें भी संतुष्ट हूं।
“सरदारों से एकान्त में मिलने और परामर्श करने के सम्बन्ध में असली बात यह है कि मैंने केवल दो चार सरदारों को बुलाकर परामर्श किया था। एक बार अमृतसर से लाहौर आते समय मैंने उनको यह सम्मति दी थी कि लाहौर में परमा के आने में कोई भलाई नहीं है। दूसरी बार महाराज के निज-खर्च सम्बन्धी परामर्श के लिए मैंने सरदारों को बुलाया था। इसके सिवाय मैं कभी-कभी सरदार तेजसिंह और दीवान दीनानाथ को भी बुला लेती हूं। भविष्य में आपके परामर्श के अनुसार पांच-छः सरदारों को ही बुलाया करूंगी। मेरे अधीन चार-पांच विश्वासी नौकर हैं। मैं उन्हें परित्याग नहीं करूंगी। उस दिन मुलाकात करते समय मैंने आपसे यह कह भी दिया था कि सिवाय इन लोगों के मुझे और किसी से मुलाकात करने की आवश्यकता नहीं है।
“आपने पचास ब्राह्मणों के भोजन कराने और उनके पैर धोने के सम्बन्ध में लिखा है। इस विषय में मुझे इतना ही कहना है कि शास्त्रों की रीति के अनुसार यह एक मामूली कार्य है। इस महीने में और इसके पहले महीने में मैंने यह कार्य किया था। पर जिस दिन से आपका पत्र मिला है, उस दिन से मैंने यह कार्य छोड़ दिया है। आगे से आपके नियत समय पर ही मैं दान-पुण्य किया करूंगी। परमंडल के ब्राह्मण-भोजन के सम्बन्ध में भी यही कहना है कि वह स्थान अत्यन्त पवित्र कहा जाता है, इसलिए वहां ब्राह्मण भेजे गए थे।
“आप लिखते हैं कि आप पंजाब में सुव्यवस्था करने के, महाराज रणजीतसिंह के परिवार और हमारे सम्मान की रक्षा के विशेष प्रयासी हैं। हमारी प्रतिष्ठा के लिए अंग्रेज सरकार जो कुछ उपाय करेगी, उसके लिए हम अंग्रेजों के कृतज्ञ रहेंगे।
“आपने जयपुर, जोधपुर और नैपाल की राजकुमारियों के समान मुझे भी पर्दे में रहने के लिये कहा है। इसके सम्बन्ध में केवल इतना ही कहना है कि वे राजकुमारियां राज्य-कार्य में भाग नहीं लेती हैं। अतःएव उनका पर्दे में रहना सहज है। उनके राज्य में स्वामिभक्त, बुद्धिमान और विश्वासी राजकर्मचारी अपने राजा की भलाई की प्राण-पण से चेष्टा करते हैं। किन्तु यहां जिस राजभक्ति से राज-कर्मचारी काम करते हैं सो आपसे अविदित नहीं है। आप यह विश्वास रखियेगा कि कोई अपरिचित व्यक्ति हमारे यहां जनाने में नहीं आता है और आगे भी कोई अपरिचित व्यक्ति नहीं आयेगा। इस पर भी मेरी आप से यह प्रार्थना है कि आप ऐसे विश्वस्त सरदार नियुक्त कर दीजिये जो आपको मेरे सम्बन्ध में समाचार देते रहें। किन्तु दरबार का कोई भी सरदार इस काम के लिये नियुक्त न किया जाए। यह बड़ी खुशी की बात है कि महाराज रणजीतसिंह

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“अंग्रेजों के साथ मित्रता कर गये हैं जिसका अमृत-फल मैं और बालक महाराज दिलीपसिंह दोनों भोग रहे हैं। जब कभी आवश्यक समझें मुझे शिक्षा देने से चूकियेगा नहीं।”

कई इतिहास लेखकों ने इस पत्रोत्तर को महारानी की कूटनीतिज्ञता बताया है। हम उनके विचार पर टिप्पणी नहीं करते। किन्तु इतना कहना अवश्य चाहते हैं कि महारानी ने अपनों (खालसा) से बैर और गैरों (लालसिंह आदि) से प्रेम करने का जो अपराध किया था, उसका फल उन्हें तुरन्त भोगना पड़ा कि उन्हें राज्य-कार्य से अलग रहने ही को नहीं कहा गया, किन्तु पुण्य-धर्म करने तथा पर्दे से बाहर रहने पर भी हिदायतें सुननी पड़ीं। हैनरी की चिट्ठी “जिसकी लाठी तिस की भैंस” के सिवाय क्या हो सकती है? धीरे-धीरे अंग्रेजी विज्ञप्तियों ने वह वातावरण पैदा कर दिया था, जिससे मूर्ख भी समझने लग गये थे कि अंग्रेज पंजाब को हड़पना चाहते हैं। अंग्रेजों को महारानी के दान-पुण्य के तरीके में भी षड्यंत्र की गंध आने लगी। यही क्यों, रेजीडेण्ट हैनरी को महारानी के प्रत्येक कार्य में षड्यंत्र की बू आती थी। मुलतान से महारानी की एक सहेली सफेद गन्ने लाई थी। रेजीडेण्ट ने गन्ने में भूत देखा। वह यह कि महारानी मुलतान के दीवान मूलराज से मिलकर विद्रोह का झंडा खड़ा करना चाहती हैं। उन्हीं दिनों परमा नामक व्यक्ति ने तेजसिंह की हत्या की कौशिश की थी। इस साजिश में महारानी के सेक्रेट्रियों को भी गिरफ्तार किया गया और महारानी पर मुकद्दमा लार्ड हार्डिंग के आगे चलाया गया। किन्तु लार्ड साहब ने महारानी को निर्दोष सिद्ध कर दिया। इतना करके भी हैनरी चुप न रहा। उसने महारानी पर दोषारोपण किया कि वे बालक महाराज को बिगाड़ती हैं।

7वीं अगस्त सन् 1847 को अच्छा काम करने के उपलक्ष्य में अंग्रेज सरकार की ओर से सिख सरदारों को उपाधियां दी गईं। तेजसिंह को राजा की उपाधि मिली थी। सिख-दरबार का परम्परागत नियम था कि जिस किसी को यह उपाधि दी जाती थी, पंजाब-नरेश उसके स्वयं टीका करते थे। किन्तु उस दिन महाराज दरबार में देर से पहुंचे। हैनरी साहब ने महाराज से तेजसिंह के टीका कर देने को कहा। बालक महाराज ने अपने छोटे-छोटे हाथों को पीछे की ओर हटा कर टीका करने से मना कर दिया। रेजीडेण्ट हैनरी ने सिख पुरोहित से टीका करवा दिया। रात को प्रसन्नता में आतिशबाजी के खेल हुए। महाराज वहां भी नहीं गये। रेजीडेण्ट ने समझ लिया कि यह सब काम महारानी साहिबा के हैं।

लार्ड हार्डिंग, सर हैनरी आदि सभी के दिल में यह बात समा गई कि यदि दिलीपसिंह अपनी माता के पास बहुत दिनों तक रहेंगे तो बिल्कुल अयोग्य हो जाएंगे। इसलिए महारानी के प्रभाव से महाराज को अलग रक्खा जाना उचित है। इसी विचार के अनुसार लार्ड हार्डिंग ने 16वीं अगस्त को सर हैनरी लारेंस को


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लिखा कि “महारानी को लाहौर से निर्वासित करने के सम्बन्ध में दरबार में स्पष्ट रूप से सम्मति ली जाए।” अंग्रेजों के मनोनीत सभासद भला लाट साहब के प्रस्ताव के खिलाफ बोल सकते थे? उनके लिए लाहौर से 16 कोस की दूरी पर शेखपुरा में चार हजार मासिक की वृत्ति पर नजरबंद रहने का प्रस्ताव पास हो गया। महारानी साहिबा को लाहौर से निर्वासित करते समय बालक दिलीपसिंह को शालामार बारा में भेज दिया गया था। रात को आपको वहीं रखा गया। सवेरे लाहौर लौटने पर उन्हें मालूम हुआ कि उनकी माता निर्वासित कर दी गई हैं। मातृ-वियोग में वे बड़े दुखी हुए। उन्होंने अपने नित के स्थान समन-बुर्ज में रहने की मनाही कर दी और तख्तगाह के पास के कमरों में रहने लगे। कुछ दिन के बात आपकी माता ने आपके पास कुशल-समाचार भेजे। खाने को मिठाई तथा खेलने को तोते भेजे। उन्हें पाकर महाराज बड़े प्रसन्न हुए। पर आगे से रेजीडेण्ट ने माता-पुत्र के बीच पत्र-व्यवहार को भी बन्द कर दिया।

लाहौर छोड़ने से पहले महारानी एक बार रेजीडेण्ट से मिलना चाहती थीं। किन्तु रेजीडेण्ट ने मिलने से इनकार कर दिया। अलबत्ता उनसे कहा गया कि वे अपने जेवर आदि सब साथ ले जा सकती हैं और यदि साथ न ले जाएं तो अपने नौकरों के पास जिन पर उन्हें विश्वास हो, छोड़ सकती हैं। तेजसिंह ने कहा था कि महारानी अपने साथ छः लाख के करीब के आभूषण तथा जवाहरात ले गई थीं। पंजाब में उन दिनों यह भी अफवाह उड़ी थी कि महारानी साहिबा को शेखूपुरा जाने के लिए जबरदस्ती से केश पकड़ कर के निकाला गया है। किन्तु सरकारी कागज-पत्रों से मालूम हुआ है कि हैनरी साहब ने उन्हें सम्मानपूर्वक शेखूपुरा पहुंचाया था। 19वीं अगस्त को महारानी शेखूपुरा पहुंची थी। यह स्थान मुस्लिम आबादी के बीच में था। उनकी रखवाली का भार भूरसिंह नामक व्यक्ति पर सौंपा गया था।

इस घटना के थोड़े ही दिन पीछे हैनरी साहब का स्वास्थ्य खराब हो गया। इसलिए वे डॉक्टरों की सलाह से अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए इंग्लैंड चले गए। उनके स्थान पर सर फ्रेडिक कैरी पंजाब के नये रेजीडेण्ट मुकर्रिर हुए। लार्ड हार्डिंग के शासन के भी दिन पूरे हो चुके थे। उनके स्थान पर मारक्किस आफ डलहौजी भारत के गवर्नर जनरल नियुक्त हुए। लार्ड हार्डिंग ने लार्ड डलहौजी को चार्ज संभालते हुए कहा था कि भारत में अगले सात वर्ष तक गोली चलाने की किञ्चित भी आवश्यकता न रहेगी। किन्तु प्रत्येक अंग्रेज वही करता है जिसे वह अपने देश के लिए हितकर समझता है। लार्ड डलहौजी नहीं चाहते थे कि भारत के देशी राज्य बने रहें। उन्होंने अपनी बुद्धिमानी के अनुसार पंजाब के साथ भी वही सलूक किया जो वे उचित समझते थे।

पंजाब के नये रेजीडेण्ट ने 6 अप्रैल सन् 1847 को गवर्नर जनरल को लिखा


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था कि समस्त पंजाब में पूर्ण शान्ति है। सर्व-साधारण वर्तमान अवस्था से संतुष्ट हैं। लार्ड डलहौजी स्वयं भी इसके पूर्व ही विलायत कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स को लिख चुके थे कि पंजाब में किसी प्रकार का उपद्रव नहीं है। वहां पूरी तरह से शान्ति है। महारानी जिन्दा के निर्वासन से पंजाब निवासी क्षुब्ध थे किन्तु फिर भी वे कोई झगड़ा मचाना पसन्द नहीं करते थे। एक बात और भी थी कि पुराने खालसा के सैनिक और सरदार अब लाहौर की सेना में नहीं थे, न खालसा का अब वह जोर था। नहीं तो यह हो नहीं सकता था कि महारानी इस तरह निर्वासित कर दी जातीं। खालसा में चाहे उद्दण्डता रही हो, राजनैतिक ज्ञान की कमी रही हो, किन्तु राज-परिवार के प्रति उसके हृदय में कूट-कूट कर शक्ति भरी हुई थी।

मुलतान-विद्रोह

मुलतान लाहौर दरबार के नीचे एक सूबा था। महाराज रणजीतसिंह के समय में वहां का दीवान सावनमल था। उसके मरने पर उसका बेटा मूलराज दीवान हुआ। मूलराज ने राजधानी लाहौर में गृह-कलह देखकर खालसा-दरबार को खिराज देना बन्द कर दिया और अपने लिए खुद-मुख्तार शासक घोषित कर दिया। इसलिए उस पर सन् 1845 ई० में लाहौर-दरबार ने चढ़ाई कर दी थी और इस युद्ध के उपरान्त उसने लाहौर दरबार को अठारह लाख रुपया देना मंजूर कर लिया; किन्तु इसी बीच अंग्रेजों से सिख-दरबार की लड़ाई छिड़ जाने के कारण मूलराज रुपया अदा करने से चुपकी लगा गया। युद्ध समाप्त होने पर मंत्री लालसिंह ने सिख-सेना मूलराज के विरुद्ध युद्ध करने को भेजी; किन्तु इस सेना को मूलराज ने हरा दिया। सर हैनरी लारेन्स ने मध्यस्थ बनकर, झगड़ा मिटाने के लिए, यह फैसला किया कि एक तो मूलराज झंग को छोड़ दें और अब तक का बकाया कुल खिराज तथा दीवानी प्राप्त करने का नजराना दरबार को दे। इसके पूरा करने के लिए मालगुजारी और चुंगी बढ़ा दी जाए। दूसरे, मुलतान के दीवानी-फौजदारी के मामलों की अन्तिम अपील लाहौर-दरबार में हुआ करें। इस निर्णय के अनुसार मूलराज को पन्द्रह लाख सत्ताईस हजार के बजाय सोलह लाख अड़सठ हजार देना पड़ता था। निर्णय के समय तो मूलराज बहुत प्रसन्न हुआ; किन्तु पीछे मालगुजारी की उगाही में कठिनाई आने के कारण, घबराहट पैदा हुई और इसीलिए उसने सन् 1847 ई० में लाहौर आकर अपने पद से इस्तीफा दे दिया। कारण उसने यह बताये कि मालगुजारी बढ़ाई जाने के कारण वसूली में कठिनाई पड़ती है। दूसरे उनके यहां के अभियोगों की अपील लाहौर होने से प्रजा पर से उनका प्रभाव कम हो गया है। इस्तीफा के साथ ही मूलराज ने यह भी प्रार्थना की कि गुजारे के लिए उसे कोई जागीर दे दी जाए। साथ ही इस्तीफा को दरबार से गुप्त रक्खा जाए।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-348


जिस समय यह इस्तीफा पेश हुआ, उस समय लाहौर में रेजीडेण्ट सर हैनरी लारेन्स न था, वह विलायत चला गया था। सर फ्रेडिक कैरी के आने तक हैनरी का छोटा भाई जौन लारेन्स कार्य कर रहा था। उसने मूलराज को इस्तीफा वापस लेने के लिए समझाया। मूलराज ने मंजूर कर दिया और वह वापस मुलतान आ गया। फिर मि. जौन लारेन्स ने उसे लिखा कि इस्तीफा वापस लेना चाहो तो अभी वापस दिया जा सकता है, लेकिन मूलराज रजामन्द न हुआ। जब मि० फ्रेडिक कैरी पंजाब का रेजीडेण्ट होकर आ गया तो उसने भी मूलराज को त्यागपत्र वापस लेने के लिए लिखा, किन्तु मूलराज की कुछ समझ में न आया। इस पर रेजीडेन्ट कैरी ने मूलराज को लिख भेजा कि इस्तीफा मंजूर होने पर उन्हें कोई जागीर न दी जाएगी, किन्तु पिछले दस बरस का हिसाब और देना होगा। मूलराज ने इसके उत्तर में लिख भेजा कि - “मैं किसी-न-किसी भांति अपने बाप के समय के कागज-पत्र इकट्ठा करूंगा। लेकिन उन सब कागजों को दीमक खा गई है। उससे आपका कोई मतलब हल न होगा। मैं तो सब तरह से आपके आधीन हूं।” मूलराज के इस उत्तर के आने पर रेजीडेण्ट ने सरदार काहनसिंह को सूबेदार मुकर्रर करके मुलतान को भेजा1 और उसके साथ बारेन्स अगन्यू और लेफ्टीनेन्ट अन्डरसन की मातहती में 6 तोपें तथा कुछ फौज भी भेजी। मूलराज ने इनके मुलतान में पहुंचने पर बड़ी इज्जत के साथ इनका स्वागत-सत्कार किया। दूसरे दिन हिसाब-किताब हुआ जिसमें अंग्रेजी अफसरों और मूलराज के बीच कुछ अनबन हो गई। किन्तु आखिर में सब ठीक हो गया। तीसरे दिन मूलराज ने काहनसिंह और दोनों अंग्रेज अफसरों को किले के समस्त स्थान दिखा कर कुंजियां उनके हवाले कर दीं। इसी समय गोरखों की पलटनें किले में नियुक्त हो गईं। किले के पहले के कर्मचारियों को भी उनके स्थान पर ज्यों का त्यों मुकर्रर रक्खा गया। इसके बाद काहनसिंह और दोनों अफसर अपने डेरे पर जाने के लिए किले से बाहर निकले। दीवान मूलराज भी उनके साथ था। किले के दरवाजे के बाहर निकलते ही किसी ने अगन्यू पर बर्छे से वार किया। कुछ दूरी पर चलकर अण्डरसन पर भी ऐसा ही वार हुआ।2 हमला करने वाले सिपाही तो भाग गए। सरदार काहनसिंह और मूलराज के साले ने उनको उनके डेर पर पहुंचा दिया। इस तरह से मुलतान में विद्रोह आरम्भ हो गया। मूलराज के साले रंगराम ने मूलराज को विद्रोहियों के साथ मिलने से रोका और उन्हें अंग्रेजों की शरण में जाने को


1. सिख-युद्ध (बंगवासी स्टीम प्रेस से मुद्रित) मे लेखक ने काहनसिंह के स्थान पर खानबहादुरखां लिखा है। पृ० 96 2. Edward - a Year on the Punjab Frontier में लिखा है कि मूलराज ने इन दोनों अंग्रेजों की रक्षा का उपाय नहीं किया।


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तैयार किया। मूलराज भी अंग्रेजों से मिलने को तैयार था, किन्तु विद्रोहियों ने रंगाराम को इसी बात पर घायल कर डाला। इससे मूलराज को डर के कारण विद्रोहियों में मिल जाना पड़ा। विद्रोही कहते थे - इन अंग्रेजों ने लाहौर-दरबार की स्वाधीनता हर ली है और अब हमारे ऊपर शासन करने यहां आये हैं। मूलराज के विद्रोहियों में मिलते ही मुलतान के चारों ओर विद्रोह खड़ा हो गया। दूसरे दिन प्रातःकाल अंग्रेजी सेना पर गोले बरसने लगे। सरदार काहनसिंह को विद्रोहियों ने उसके पुत्र सहित गिरफ्तार कर लिया। अंग्रेजों के अधीन की भी प्रायः समस्त सेना संध्या तक विद्रोहियों में जा मिली। केवल 30 आदमी अंग्रेजों के साथी रहे। मि० अगन्यू और अण्डरसन ने पहली बार घायल होते ही बन्नू में स्थित मेजर एड्वार्डिस को अपने ऊपर बीती विपत्ति की चिट्ठी लिख भेजी थी। चिट्ठी के मिलते ही एडवार्डिस साहब 2 तोपें, 20 गोलन्दाज, 12 सौ पैदल, 350 घुड़सवार लेकर मुलतान की ओर चल दिया था। किन्तु अगन्यू और अण्डरसन को एडवार्डिस के रवाना होने की खबर सुनने से पहले ही विद्रोहियों के हाथ से इस लोक से कूंच कर देना पड़ा था।

मुलतान की ओर कूंच करने के साथ ही एडवार्डिस ने लाहौर स्थित रेजीडेण्ट को अपने मुलतान जाने के समाचार की सूचना दे दी थी। साथ ही रेजीडेण्ट से सहायतार्थ सेना भेजने की भी प्रार्थना की। उस प्रार्थना-पत्र में लिखा था कि यदि विद्रोहियों में पहाड़ी जातियां मिल गईं तो परिस्थिति बड़ी भयंकर हो जाएगी। परन्तु रेजीडेण्ट ने उनकी बातों की ओर कुछ भी ध्यान नहीं दिया।

लाहौर में इस विद्रोह के ज्यों ही समाचार पहुंचे त्यों ही प्रतिनिधि सभा के समस्त सिख सरदारों ने एक स्वर से रेजीडेन्ट साहब से प्रार्थना की कि मुलतान विद्रोह को दबाने के लिए सिख सेना न भेजी जाए, क्योंकि सिख सेना सोवराव युद्ध के बदले के भाव तथा पंजाब की वर्तमान दशा के कारण अंग्रेजों से जल रही है। पूरी संभावना है कि सिख सेना मुलतान जाते ही विद्रोहियों में मिल जाएगी। इसलिए अंग्रेजी सेना भेजकर विद्रोह को शांत कीजिए। रेजीडेण्ट को चाहिए था कि सिख सरदारों की प्रार्थना पर ध्यान देते, क्योंकि पहले ही सन्धि के अनुसार पंजाब-दरबार की सहायता करना उनका फर्ज था। दूसरे, आजकल पंजाब के वे कर्ता-धर्ता थे। प्रतिनिधि सभा तो उनकी आज्ञा पर कार्य करती थी। यदि उनके समय में सिख साम्राज्य में कोई गड़बड़ी कहीं भी होती है तो यह उनकी जिम्मेदारी है। किन्तु उन्होंने न सिखों की प्रार्थना सुनी, न सन्धि के नियम का पालन किया और न अपने उत्तरदायित्व को निवाहा। अंग्रेजी सेना मुलतान में भेजने से उन्होंने साफ इन्कार कर दिया। आश्चर्य तो इस बात का है कि अपने दो अंग्रेजों के वध का बदला लेने की गर्ज से भी उन्होंने अंग्रेजी सेना न भेजी। खेद के साथ लिखना पड़ता है कि लार्ड डलहौजी को भी रेजीडेण्ट की ही बात उचित जंची। इस प्रकार


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की उपेक्षा से यह सन्देह होना क्या गलती की बात है कि अंग्रेज पंजाब को अपने राज्य में मिला लेने के लिए इस विद्रोह को सारे पंजाब में बढ़ने देना चाहते थे। लार्ड हार्डिंग की वह चिट्ठी भी इसी सन्देह को सही कर देने वाली है, जो उन्होंने रेजीडेण्ट कैरी को विलायत से लिखी थी1। अंग्रेजी सेना के कमाण्डर-इन-चीफ तक मुलतान विद्रोह को दबाने के लिए सेना भेजने को राजी न थे। उन्होंने कहा था कि - “इस समय मुलतान में एक ब्रिगेड भेजना भी ठीक न होगा।” यह विद्रोह बरसात के समय आरम्भ हुआ था। गफ साहब जाड़े के दिनों में सेना भेजने को अवश्य कहते थे। लार्ड डलहौजी ने कहा था - “इसमें सन्देह नहीं कि अंग्रेजी सेना के न भेजने से मुलतान विद्रोह दबेगा नहीं और समस्त पंजाब में फैल जाने की भी सम्भावना है। किन्तु इस पर भी हम पंजाब की रक्षा के लिए अंग्रेजी सेना नहीं भेज सकते हैं क्योंकि वर्षा ऋतु में अंग्रेजी सेना का स्वास्थ्य बिगड़ जाने की सम्भावना है।” कैसी विचित्र युक्ति है! उनकी इस निराली युक्ति पर उन्हीं के देशवासी क्या कहते हैं, वह भी जानना आवश्यक है। इवान्सवेल मेजर ने कहा था - “गवर्नर जनरल और प्रधान सेनापति को जानना चाहिए था कि गर्मी और बरसात में एक ब्रिगेड सेना भेजने से जो हानि होती, उससे कहीं बढ़ कर समस्त पंजाब में विद्रोह उत्पन्न होने से अंग्रेज और देशी सेनाओं तथा पंजाब प्रजा की होती2।” सर हैनरी लारेन्स ने लिखा है कि3 - “शीतकाल में स्वयं लार्ड डलहौजी शिकार खेलने को जाने वाले थे। इसी से सेना भेजने में विलम्ब हो रहा है।” आगे उन्होंने लिखा है कि - “यदि हम भारत की प्रत्येक ऋतु को सहन नहीं कर सकते तो वहां हम कदापि नहीं ठहर सकते हैं।” (Trotar's History of India Vol. I. Page 134 में) मेजर इवान्सावेल का कथन है कि - “यदि सेना भेजने की यह देरी सरल अन्तःकरण से हुई हो तो मैं इसको अराजनैतिक और भ्रमात्मक कहूंगा और यदि इस नीयत से सेना भेजने में देरी हुई हो कि समस्त पंजाब में अराजकता छा जाने से ब्रिटिश गवर्नमेण्ट रणजीतसिंह् के राज्य को जब्त कर लेगी तो मैं इस चाल को घृणित और कलंकित कहूंगा।”

अंग्रेजों के बड़े-बड़े अधिकारी तो राजनैतिक दाव-पेचों में गोते लगा रहे थे, किन्तु मेजर ऐडवार्डिस डेरागाजी में स्थित जनरल कोर्टलेण्ड की सेना की सहायता


1. 1847 के अप्रैल में हार्डिंग ने रेजीडेण्ट कैरी को लिखा था - “इंग्लैण्ड में जिस प्रकार से आन्दोलन हो रहा है, उससे निश्चय है अंत में पंजाब जब्त किया जाएगा।” 2. Retrospects and prospects of Indian Policy, P. 196-7 3. Marohman's History of India, Vol. II, P. 658.


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लेकर, मुलतान के विदोहियों को दबाने के लिए तैयार हो गए। कोर्टलेण्ड की सेना में सुवानखां की कुछ सेना व 6 तोपें भी थीं । यह भी ऐडवार्डिस ने साथ ले लीं और सन् 1848 ई० की 11 मई को मानग्रोटा किले पर कब्जा कर लिया। कुछ ही समय पश्चात्, कोर्टलेण्ड ऐडवार्डिस का साथ छोड़ गया, क्योंकि रेजीडेण्ट की आज्ञा उसे वापस लौटने की थी। फिर भी ऐडवार्डिस विद्रोह को दबाने में लगे रहे। उन्होंने प्रायः 500 विद्रोहियों से हथियार ले लिए और उन्हें काबू में कर लिया। 16 मई को अपनी ही जिम्मेवारी पर नवाब बहावलपुर से सहायता की प्रार्थना की। इसी बीच उन्हें पता लगा कि कुछ विद्रोहियों ने पीरावालो पहुंच कर उत्पात करने की ठानी है। एडवार्डिस ने 32 मील के लम्बे सफर को तय करके, पीरावालो में पहुंच कर, कोर्टलेंड को सहायता दी। किन्तु विद्रोहियों ने कुछ उत्पात न किया था। कौराखां भी आकर एडवार्डिस से मिल गया। इसने विद्रोहियों को दबाने में खूब बहादुरी दिखाई थी। यह अंग्रेजों का मित्र और खौस लोगों का सरदार था। बहावलपुर के नवाब की 12 हजार सेना की सहायता तथा अन्य जमींदारों की सहायता से एडवार्डिस विद्रोह को दबाने की कोशिश करने लगे।

विद्रोही-दल ने रंगाराम के संचालन में, कनेरी के घाट पर, एडवार्डिस से घोर युद्ध किया। बहावलपुर की सेना ने इस युद्ध में विशेष बहादुरी का कोई भी काम नहीं किया। मि० एडवार्डिस के पांव उखड़ गए। वह भागना ही चाहता था कि इतने में कोर्टलैण्ड की भेजी हुई कुछ सेना आ गई। इससे विद्रोहियों के पांव उखड़ गए और वे अपनी 8 तोपें छोड़कर भाग गए। इस हार के कारण मूलराज के हाथ से सिन्ध और चिनाव के बीच के इलाके निकल गए। बहावलपुर के नवाब ने इस समय और भी सहायता एडवार्डिस की यह की कि उसने सहायतार्थ पचास हजार रुपये दिए। लाहौर दरबार की ओर से इमामुद्दीन चार हजार सेना लेकर इसी समय आ गया। इस तरह से एडवार्डिस के पास 22 तोपें और अठारह हजार सेना हो गई। एडवार्डिस इन सेनाओं को लेकर मुलतान की ओर बढ़ा। मूलराज ने, जब कि ये लोग मुलतान से केवल 8 मील दूर रहे थे, ग्यारह हजार सेना और 10 तोपों के साथ आक्रमण किया। मूलराज की सेना ने इस समय अद्भुत वीरता दिखाई कि अंग्रेजी सेना के पांव उखड़ गए। किन्तु इसी समय दुर्घटित घटना ने रंग बदल लिया। मूलराज के हाथी के ऊपर तोप का एक गोला गिरा, जिससे वह हौदे से नीचे गिर पड़ा। मूलराज की सेना उसे मरा हुआ जान कर भाग खड़ी हुई। मूलराज तुरन्त घोड़े पर सवार होकर 281 आदमियों को खेत में छोड़कर मुलतान दुर्ग में भाग गया। यह युद्ध पहली जुलाई सन् 1848 ई० को हुआ था।

एडवार्डिस की यह विजय कुछ विशेष लाभकारी न हुई, क्योंकि उसे मुलतान


1. Kaye's Lives of Indian Officers Vol ii, P. 397-8


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जीतना आसान दिखाई न देता था। उसके लिए बड़े-बड़े इंजीनियरों की आवश्यकता थी। मुलतान का दुर्ग लेना वास्तव में टेढ़ी खीर थी। मूलराज ने किले में बैठकर तैयारी करनी शुरू कर दी। सिख लोग अंग्रेजों के कृत्यों से रात-दिन अधिकाधिक कुढ़ते जा रहे थे। इसीलिए वे दल के दल विद्रोही सरदार मूलराज की सहायता के लिए इकट्ठे होने लगे। मि० एडवार्डिस ने अपने इतिहास में लिखा है कि - “सिख सेना से सहायता पाने के भरोसे मूलराज बागी नहीं हुआ था, किन्तु ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के द्वारा उसे न दबाने के कारण वह सिख सेना को विद्रोही बनाने में सफल हुआ।” उसने अपने इतिहास में एक अन्य स्थान पर लिखा है - “मैं पंजाब के दूसरे अंग्रेजों के साथ स्थिर विश्वास रखता हूं कि यदि मुलतान-विद्रोह शीघ्र दबा दिया जाता, तो कभी भी उससे दूसरा सिख-युद्ध न उभड़ता। यदि सन् 1843 ई० के जून में या जुलाई में मुलतान ब्रिटिश सेना द्वारा उससे छीन लिया जाता, तो कभी भी रणजीतसिंह के राज्य को डुबा देने का मौका नहीं मिलता।”

महारानी जिन्दा के निर्वासन के कुफल

यह पहले ही लिखा जा चुका है कि महारानी जिन्दा शेखपुरा में नजरबन्द कर दी गई थीं। नया रेजीडेण्ट सर फ्रेडरिक कैरी महारानी की प्रत्येक हलचल पर ध्यान रखता था। वह उन्हें सन्देह की दृष्टि से खाली न देखता था। कैरी को समाचार मिला कि महारानी से लालसिंह का एक अर्दली साहबसिंह गुप्त रूप से मिला है। उसने तुरन्त महारानी को भविष्य में इस प्रकार न मिलने की आज्ञा दी और साहबसिंह को डांट बताई कि भविष्य में शेखपुरा दुर्ग के निकट भी देखा गया तो उसे दंडित किया जाएगा। इस घटना के पश्चात् महारानी ने अपने किले के पहरेदारों को साठ-साठ रुपये की कण्ठी इनाम में दी। कैरी ने आज्ञा दी कि यदि कोई भी सैनिक और सेनापति महारानी से पुरस्कार स्वरूप कोई वस्तु लेगा तो उसे सजा दी जाएगी। पहरेदारों से वे कंठियां भी वापस करा दीं। इतने पर भी कैरी को सन्तोष न हुआ और पुराने पहरेदारों को हटा कर नये नियुक्त किये गए, जो कि अधिकांश में महारानी से द्वेष रखने वाले थे। इसके पश्चात् रेजीडेण्ट कैरी को समाचार मिला कि महारानी ने महाराज दिलीपसिंह और राजा गुलाबसिंह के पास एक-एक आदमी भेजा है, किन्तु यह बात साबित न हो सकी। फिर भी महारानी की निगरानी और भी कठोर हो गई। रेजीडेण्ट ने यह भी नृशंस आज्ञा दी कि महारानी अपनी सेविकाओं व सेवकों के सिवाय किसी से बातचीत न किया करें। वे अपने पत्रों को जो उन्हें बाहर भेजने हों, पहले किलेदार को दिखा दिया करें। उनको अपने राज्य में ही गैरों द्वारा इस तरह से अपमानित और दुखित किया जा रहा था, इससे सिख लोगों की आन्तरिक ज्वाला


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और भी धधकने लगी। महारानी ने लाचार होकर अपनी शोचनीय अवस्था का ज्ञान कराने के लिए, अपने वकील जीवनसिंह को लार्ड डलहौजी के पास कलकत्ता भेजा।

सन् 1848 ई० की दूसरी फरवरी को जीवनसिंह ने कलकत्ता पहुंच कर लार्ड डलहौजी से निवेदन किया कि मैं महारानी की ओर से वकील नियुक्त होकर सेवा में हाजिर हुआ हूं। उनके साथ जो निष्ठुर और अन्यायपूर्ण व्यवहार हो रहा है, उससे वे बहुत दुखी हैं। वह कौन सा अपराध है जिसके लिए उन्हें ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की ओर से ऐसी यातनाएं दी जा रही हैं? इसकी निष्पक्ष जांच होनी चाहिए क्योंकि महारानी इस समय अंग्रेजों के संरक्षण में हैं। जब तक इस विषय की तहकीकात न हो जाए, तब तक उनके साथ राज-माता और राज-रानी के समान व्यवहार होना चाहिए और उन्हें तब तक अपने हितैषियों, सम्बन्धियों और सलाहकारों से भेंट करने से न रोका जाए। वास्तविक बात क्या है, इसकी शीघ्र जांच होनी चाहिए। लार्ड डलहौजी की सरकार ने जीवनसिंह को जो उत्तर दिया, वह बिलकुल अनुचित और अन्यायपूर्ण था - “सरकार जीवनसिंह को महारानी का वकील नहीं मानती है। महारानी को जो कुछ कहना हो, वह रेजीडेण्ट द्वारा कहलाएं।” यह डलहौजी की सरकार का उत्तर था। जिसके विरुद्ध शिकायत थी, उसी के द्वारा शिकायत की जाए! क्या खूब? यह उत्तर जीवनसिंह को 18 फरवरी को मिला था। उन्होंने 23 फरवरी को फिर गवर्नमेण्ट से प्रार्थना की -

“जहां शेखूपुरा में महारानी को कैद किया गया है, वह साधारण कैदियों का कैदखाना है। जिन सरदारों को वहां रखवाली के लिए रक्खा गया है, उन सरदारों के पकड़ने के कारण ही महारानी ने अपनी तथा अपनी संतान की रक्षा के लिए पहले ब्रिटिश सेना की सहायता मांगी थी। इस समय महारानी अपने किसी भी हितचिन्तक से, यहां तक कि अपने धर्मगुरु से भी नहीं मिल सकती हैं। अधिक क्या, जो थोड़ी सी बांदी-दासियां उनके पास हैं, वे भी उनके शत्रुओं की रखी हैं। महारानी के साथ यहां तक कठोर बर्ताव किया जाता है कि उनकी इच्छानुसार खाने-पीने की भी चीजें नहीं मिलती हैं। लाहौर में महारानी के जो भाई-बन्धु हैं, वे यहां तक डर गये हैं कि उनकी समझ में रेजीडेण्ट से महारानी की कठोर यातना की कोई भी बात कहने से उन्हें भी रेजीडेण्ट का कोपभाजन होना पड़ेगा। अच्छा हो कि गवर्नमेण्ट महारानी की रक्षा का भार किसी ब्रिटिश कर्मचारी के सुपुर्द कर दे।”

इसके उत्तर में लार्ड डलहौजी ने जीवनसिंह को जो उत्तर दिया था, वह एकदम से उनकी बदनीयत को जाहिर करने वाला तो है ही, साथ ही वह इतना अनुचित भी है कि कोई भी ईमानदार और योग्य आदमी इस उत्तर की दाद नहीं दे सकता। डलहौजी ने कहा -“महारानी ने अपने आपको रणजीतसिंह की विधवा और मौजूदा महाराज की मां कहकर दरख्वास्त की है, इसलिए वह मुझसे किसी किस्म


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की उम्मेद न करें”1 क्या महारानी जिन्दा रणजीतसिंह की विधवा न थीं और क्या महाराज दिलीप की मां जिन्दा के बजाय विलायत की कोई भिखमंगी मेम थी? इसमें उन्होंने अपराध ही क्या किया था?

इसके दो-तीन मास पश्चात् मई महीने में रेजीडेण्ट को पता लगा कि मुलतान की बगावत में साजिश पाई जाती है, और इस साजिश में महारानी जिन्दा का भी हाथ है। क्योंकि उनके वकील गंगाराम और कई अन्य व्यक्तियों के शामिल होने का सबूत हो चुका था। गंगाराम को एक सिख समेत फांसी पर चढ़ा दिया गया और दो आदमियों को देश निकाले की सजा हुई। विचार यह किया जाने लगा कि खुली अदालत में महारानी का अभियोग सुना जाए। वाह रे अंग्रेज जाति तेरी हिम्मत! जिस महारानी के पति रणजीतसिंह के लिए तथा खुद जिनको बादशाह तक भेंट भेजते थे, उन्हीं की प्राण प्यारी महबूबा पर जुर्म लगाकर खुली अदालत में फैसला किया जाए! आखिर कुछ सोच समझ कर मुकद्दमा न चलाया गया और निर्णय हुआ कि महारानी साहिबा को पंजाब के बाहर कर दिया जाये। इस आज्ञा पर कौंसिल के तीन मेम्बरों के दस्तखत कराये गये, जिनमें एक राजा तेजसिंह, दूसरा हजारा केशरसिंह का भाई गुलाबसिंह था। इस फैसले में यह भी लिखा गया कि यदि काशी में महारानी के किसी और साजिश में शामिल होने की खबर लगी, तो उन्हें चुनार में बन्द करके कैद को बहुत सख्त कर दिया जायेगा। 14 जून को रेजीडेण्ट ने महारानी को एक चिट्ठी लिखी जिसमें लिखा था कि - “मैं कप्तान लिमिडन और लेफ्टीनेण्ट हडसन के साथ कुछ सरदार भेजता हूं। ये लोग शेखूपुरा से बाहर जाने के सम्बन्ध में आप से कुछ कहें, आप उस पर अमल करने में देरी न करें। ये लोग आपको इज्जत से ले जायेंगे। आपको किसी भी भांति का शारीरिक कष्ट देने का ख्याल नहीं है।” इस चिट्ठी पर बालक महाराज दिलीपसिंह जी की भी मुहर लगवा दी। और यह भी नाटक का एक विचित्र सीन था कि महारानी के देश निकाले पर उसके बेटे की मुहर! सो भी उस हालत में जब कि बेचारे दिलीप नाबालिग हैं, राज-काज में उनका कोई भी दखल नहीं है।

इस पत्र को लेकर रेजीडेण्ट के आदमी शेखूपुरा पहुंचे। जब उन्होंने महारानी के हाथ में देश निकाले का आज्ञा-पत्र दिया तो उन्होंने बड़े धैर्य का परिचय दिया। अविचलित दृश्य से महारानी ने केवल इतना ही पूछा - “मुझे कहां ले चलोगे?” कप्तान ने जवाब में कहा - “यह बात महारानी को बताने में मैं असमर्थ हूं। केवल इतना कह सकता हूं कि महारानी को किसी प्रकार का कष्ट न होगा और न उन्हें अपमानित ही होना पड़ेगा।” महारानी ने समझा कि शायद लाहौर लिये जा रहे हैं। लेकिन जब लाहौर से भी उन्हें आगे ले जाया गया तो उन्होंने कप्तान को बुला


1. तारीख पंजाब। भाई परमानन्दजी। पे० 525


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कर पूछा - मैं तुमसे फिर पूछती हूं मुझे कहां लिये जा रहे हो? क्या मेरे देश से बाहर ब्रिटिश-भारत में लिए जा रहे हो? मेरी ओर से रेजीडेण्ट से कहना कि उन्होंने मुझे अंग्रेजी राज्य में रखा है इसके लिये मैं उनकी कृतज्ञ हूं।

बनारस पहुंचने पर मेजर मेकग्रेगर उनके रक्षक नियुक्त हुये। बनारस में उनसे उनके कुल जेवर जो कि पचास लाख कीमत के थे, और दो लाख रुपये नकद सरकार अंग्रेज ने ले लिए। साथ ही उनकी मासिक-वृत्ति भी चार हजार से घटा कर एक हजार मासिक कर दी गई। महारानी जी से जेवर और रुपये छीन लेने के सम्बन्ध में रेजीडेण्ट ने लिखा था - “कुछ षड्यन्त्र सम्बन्धी चिट्ठियां मिली हैं। किन्तु कहा नहीं जा सकता कि ये सही हैं या नहीं। यदि सही हैं तो महारानी बड़े घृणित षड्यंत्र में फंसी हैं। लाहौर में जो कागज-पत्र मिले हैं उनमें महारानी की कुछ असली चिट्ठियां भी हैं। पंजाब से अकस्मात् उनका निर्वासन किये जाने के कारण वे चिट्ठियां उनको नहीं दी गई हैं।” सन् 1848 ई० की जुलाई को इसी अपराध के आक्षेप में उनके कुल जेवर ले लिये गये।

महारानी के निर्वासन के उपरांत पंजाब के रेजीडेण्ट मि० कैरी ने लिखा था - “सौभाग्यवश पंजाब में महारानी के निर्वासित होते समय किसी प्रकार का झगड़ा-बखेड़ा न हुआ। किसी ने भी मेरे विरुद्ध जबान नहीं हिलाई। यहां तक कि महारानी के नौकर-चाकर भी शिष्टता के साथ कार्य करते रहे। इसका कारण यह मालूम होता है कि कुछ दिन पहले अपराधियों को फांसी आदि की कठोर सजाएं दी गई थीं, उससे दूसरे लोग भी समझने लगे कि कहीं हमारे साथ भी ऐसा न हो।” आगे कैरी ने महारानी के सम्बन्ध में लिखा था - “मालूम होता है महारानी को यह डर हो गया था कि कहीं उनकी भी ऐसी ही दशा न हो।”

यह सही है कि अंग्रेज महारानी की भी ऐसी दशा कर सकते थे, किन्तु उन्होंने ऐसा मेहरवानीपूर्वक नहीं किया, यह कहना कठिन है। हम तो यही समझते हैं कि खालसा के डर से, पंजाब में महारानी के साथ, बनारस जैसा दुर्व्यवहार नहीं किया गया था। क्योंकि रेजीडेण्ट कैरी ने उस समय वाइसराय को लिखा - “राजा शेरसिंह के खेमे से खबर आई है कि खालसा सेना महारानी के देश निकाले के समाचार से बड़ी अधीर हुई है। सेना ने कहा है कि महारानी खालसा की माता हैं। जब कि वही देश से निकाली गई और बालक महाराज हमारे हाथ में नहीं हैं, तो हम अब दूसरे किस की रक्षा करें? हमें किसी के लिए लड़ने का प्रयोजन मालूम नहीं होता है। हम लोग अब मूलराज के विरोधी न होकर अपने सेनापति और सरदारों को कैद करके मूलराज के पक्ष में हो जायेंगे।” तत्कालीन सरकार के पत्रों से जाना जाता है - “सन् 1848 ई० की 24वीं नवम्बर को शेरसिंह एवं अन्य सरदार लोग इसे स्पष्ट कर चुके थे कि महारानी के निर्वासन से शासन-कार्य कठिनाइयों से करना पड़ता है।” अतः यह कहना गलत था कि महारानी और


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सिक्ख सरदार डर गये थे। इस असन्तोष का विस्फोट भी कुछ काल बाद का दूसरा सिक्ख-युद्ध था।

महारानी के साथ किए गए दुर्व्यवहार पर “इंगलिश मैन” ने जो भारत का कट्टर विरोधी था, 1848 ई० की 27 जनवरी के अंक में लिखा था - “महारानी की कैद और देश-निकाला बड़े भयावने अत्याचार के कार्य हैं।.......इस नारी के साथ जैसा कठोर बर्ताव किया है, वह हमारे जातीय कलंक का एक उदाहरण है।”

महारानी के कष्टों की सीमा न रही। वह न किसी से मिल सकती थी और न कोई और उनसे मिल सकता था। जीविका के लिए एक हजार मासिक कम थे। उनका कोई अपराध भी न था। मेकफेयर द्वारा वायसराय को लिखा गया पत्र इसका प्रमाण है - “तेतीस पत्र मिले हैं, पर इनमें विद्रोह-सूचक कुछ भी नहीं है।” बलिहारी है ऐसे न्याय की!

जीवनसिंह ने महारानी के 1000) से गुजारा न होने की वकालत के लिए न्यूमार्च को कलकत्ते पहुंच, नियुक्त किया। न्यूमार्च ने महारानी से मिलने की प्रार्थना की। वकील हैसियत से अकेले बनारस में मिलने की आज्ञा मिली। बनारस पहुंच न्यूमार्च आठ दिन रहे और कई बार मुलाकात की। खर्च के सभी ब्यौरों का अनुसन्धान किया और अत्यन्त विनीत शब्दों में केवल 1000) मासिक रकम व्यय की और बढ़ाने की प्रार्थना की गई। महारानी ने जवाहरात और सम्पत्ति की भी सूची मांगी और यह भी पूछा कि लाहौर-दरबार और दूसरे कौन-कौन इस सम्पत्ति के किस-किस अंश में दावेदार हैं?

महारानी को 5वीं नवम्बर को लाट-साहब का उत्तर मिला - “इस समय जो रकम महारानी के खर्च के लिए मिल रही है, उससे वे अच्छी तरह अपना निर्वाह कर सकती हैं।” इस भांति सब ओर से महारानी को निराश होना पड़ा। दुबारा जांच की प्रार्थना की गई पर वहां भी महारानी का अभाग्य अड़ बैठा और मेजर मेकग्रेगर ने सन् 1848 की 18वीं नवम्बर को सूचना दी - “गवर्नर जनरल महारानी के विषय में फिर तहकीकात करने की कोई आवश्यकता नहीं देखते, इसलिए उन्होंने महारानी के आवेदन को स्वीकार नहीं किया है।” कलकत्ते का सुप्रीम-कोर्ट का दरवाजा भी खटखटकाया, पर वहां भी कुछ ध्यान न दिया गया।

सब ओर से निराश होकर न्यूमार्च साहब ने इंग्लैंड में कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स-सभा में महारानी की कष्ट-कथा रखने के लिए 25000) मांगे! पर भला जहां एक-एक हजार के लिए प्रार्थना की जाती थी, वहां 25000) कहां? हां, शेखूपुरा में रहते अवश्य प्रबन्ध हो सकता था, क्योंकि उस समय महारानी के पास पचास लाख का तो गहना था और दो लाख नकद थे। पर यहां (बनारस में) तो सर्वस्व हरण हो चुका था - निर्लज्जता की हद हो चुकी थी। उनकी तलाशी तक ले ली


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गई थी। यहां 25000) कहां? अतः यह विचार होकर ही रह गया और महाराज रणजीतसिंह की महबूबा अनन्त दुःख सहन करती रही।

हजारा विद्रोह

महारानी जिन्दा के निर्वासन से ही सिख-जाति में विद्रोह की आग धधकने लगी थी। उस समय वह अपमान के कड़वे घूंट पीकर तिलमिला उठी थी। इसके साथ ही हजारा के सरदार चतरसिंह के साथ किए गए विश्वासघातकर्त्ता ने अग्नि में घी का काम किया। सरदार चतरसिंह हजारा-भूमि के शासनकर्त्ता थे। वे पूरे राजभक्त थे। उनके लड़के सिक्ख-सेना के सेनापति थे और विश्वासपात्र होने के कारण ही अंग्रेजी-सेना के साथ मेजर एडवार्डिस के संग मुलतान में विद्रोहदमन के लिये गये थे। इससे जाना जा सकता है कि यह सरदार-परिवार कितना विश्वासी और अंग्रेज-भक्त था?

चतरसिंह की लड़की से महाराज दिलीपसिंह का ब्याह निश्चित हुआ था और चतरसिंह बूढ़ा भी हो चला था, अतः जीते जी कन्यादान के पुण्य का भागी हो जाये इस इच्छा ने जोर मारा और अपने पुत्र शेरसिंह की मार्फत रेजिडेण्ट साहब को लिखा -

राजा शेरसिंह से कल मेरी गुप्त बातें हुई हैं। उनकी बहन की शादी महाराज दिलीपसिंह से हो यह उनके पिता की वाञ्छा है। उनकी दो काम करने की हार्दिक इच्छा है और वे दोनों ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की अनुमति से हो सकते हैं। आपकी इच्छा अगले वर्ष ही विवाह कर देने की न हो तो चतरसिंह यह आज्ञा चाहते हैं कि हजारा का शासन-भार दो वर्ष के लिए छोड़ तीर्थ कर आयें और यदि इसी वर्ष महाराज दिलीपसिंह का विवाह करना हो तो यह प्रार्थना है कि आपके परामर्श से दरबार एक ज्योतिषी नियत कर दे और वह ज्योतिषी कन्या-पक्ष के ज्योतिषी से मिलकर अच्छा महीना, दिन तय कर ले। राजा शेरसिंह के पिता इस विवाह में दहेज देना चाहते हैं, उसके तैयार करने में एक वर्ष लग जायेगा। दस दिन के भीतर इसका उत्तर मिल जाये, यही आपसे विनय है। ”

उपर्युक्त सिफारिश के साथ ही मेजर साहब ने राज्य की हितचिन्तना के साथ बुद्धिमत्ता-पूर्ण एक सुन्दर सलाह भी लिखी थी कि -

“इस समय विद्रोह और सैनिकों की अशान्ति के कारण पंजाब के निवासियों में यह अफवाह फैल रही है कि बालक दिलीप का राज्य अंग्रेज लेना चाहते हैं। यदि इस विचार से देखा जाये तो इस विवाह का दिन ठहर जाने से राज्य-हरण का सन्देह भी दूर हो जायेगा।”

निःसन्देह उस समय पंजाब में जो ऐसी अशान्ति थी, अगर शादी करने की बात तय हो जाती तो बहुत कुछ अंग्रेजों के प्रति सिख-जनता की सहयोग-भावना की वृद्धि होती, परन्तु मेजर साहब की सलाह का कुछ भी ख्याल न कर इस प्रकार


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गोल-माल उत्तर दिया गया कि तत्कालीन अशान्ति के कारणों में एक और वृद्धि हो गई। उत्तर में इस प्रकार राजनीतिक भाषा(!) थी -

“विवाह सम्बन्धी सभी प्रबन्ध होगा। साधारणतः विवाह का दिन कन्या पक्ष की ओर से तय किया जाता है, किन्तु महाराज के सम्बन्ध में कोई भी बात रेजीडेण्ट की सम्मति और स्वीकृति के बिना नहीं होगी। विवाह का दिन रेजीडेण्ट दरबार के सभासदों से गुप्त परामर्श करके स्थिर करेंगे। पीछे वर और कन्या दोनों ओर के सम्मानानुकूल यह कार्य होगा। उस कार्य को ब्रिटिश गवर्नमेंट करेगी। इस विषय में शेरसिंह को निश्चिन्त रहना चाहिये।”

चतरसिंह के छोटे पुत्र गुलाबसिंह ने जो दरबार में रहते थे और रेजीडेण्ट से बिना किसी रुकावट मुलाकात करते थे, रेजीडेण्ट से विवाह के सम्बन्ध में हुई बातें, अपने पिता चतरसिंह और भाई शेरसिंह को लिख भेजीं। गुलाबसिंह के पत्र से समाचार जान कर चतरसिंह और भी जल उठा। फिर भी विद्रोह करने के भाव न उग सके, हां, जमीन अवश्य तैयार हो गई।

हजारा कट्टर मुसलमानों का केन्द्र था और उस समय आर्यसमाजियों की भांति सिक्ख भी मुसलमान बन गए हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः मुसलमान शासकों की नजरों में खटकते थे। यद्यपि हजारा में एबट साहब के जाने के पूर्व किसी अशान्ति का पता नहीं चलता पर तो भी हजारा के शासन में सहायता करने - सम्मति देने के लिए रेजीडेण्ट ने अपने सहकारी कप्तान एबट को नियुक्त किया। एबट के दोषों के सम्बन्ध में कई प्रमाण हैं। स्वयं पूर्व रेजीडेण्ट सर हेनरी लारेन्स ने लिखा था - “कप्तान एबट हर एक मामले में कुटिल अर्थ लगाकर न्याय को अन्याय सुझाने में सदा उत्सुक रहते हैं। ज्वालासाही की भांति अच्छे सज्जन रईस के साथ अत्याचार करना उनके उसी हठ-धर्म का परिचय है।” कप्तान एबट ने ही झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में कुछ लोगों के विद्रोही होने के सन्देह में, झण्डासिंह को भी दोषी ठहराया था। इस पर नये रेजीडेण्ट फ्रेडरिक ने लिखा था - “झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में यद्यपि कुछ लोग विद्रोही हो गये हैं। पर सरदार झण्डासिंह इस विषय में बिल्कुल निर्दोष हैं। किन्तु एबट कहते हैं झण्डासिंह भी शामिल हैं। उनका विश्वास है कि सरदार विद्रोहियों को मूलराज की सहायता के लिए मुलतान भेजना चाहते हैं।” इसी प्रकार रेजीडेण्ट ने एबट को भी लिखा था कि - “सरदार झण्डासिंह के बारे में आपकी राय बेजोड़ है। क्योंकि यह सरदार हमारे कहने के मुताबिक काम करता है।” एबट के गुणों का वर्णन रेजीडेण्ट कैरी ने गवर्नर-जनरल को इस प्रकार लिखा था - “आपने एबट के चरित्र को भली-भांति समझ लिया होगा। किसी षड्यंत्र की अफवाह सुनते ही वे सत्य मान लेने के लिये तत्पर हो जाते हैं। पास के या दूर के, यहां तक कि स्वयं नौकरों पर भी सन्देह बना रहता है और अपनी समझ


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पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता है कि बार-बार उनको उनकी भूल बताने पर भी, उन्हें अपनी भूल प्रतीत नहीं होती है।”

राजा चतरसिंह के शासन में सहायतार्थ एबट जैसे शंकालु और चालाक को भेजा गया। भोले स्वभाव के निष्कपट वृद्ध चतरसिंह भी एबट के सन्देह-स्वभाव से बच न सके। चतरसिंह की पल्की की सेना में कुछ सैनिक बदलकर मूलराज विद्रोही की सेना से मिलने के इरादे करने लगे थे। यद्यपि चतरसिंह मय अफसर लोगों के विद्रोहियों को दबाने का प्रयत्न कर रहे थे, पर एबट जैसे बहमी दिमाग के लिए यह बहुत था। उसने सोचा इसका कारण चतरसिंह ही हैं। उसके दिल में समा गई कि चतरसिंह विद्रोही है और शीघ्र ही अंग्रेजों को पंजाब से निकाल बाहर करेगा। लाहौर के अंग्रेजों पर शीघ्र ही हमला होने वाला है। इन सन्देहों से घबड़ा कर राजधानी से निकल 16 मील सिरवां नाम के स्थान पर पड़ाव डाल दिया।

सरल स्वभाव के राजा चतरसिंह अपने सहकारी की चाल को कुछ न समझ पाये। इसके लिये अपने वकील को एबट के पास भेजा। एबट ने टका-सा जवाब दिया - “मैं तुम्हारे राजा (चतरसिंह) का विश्वास करता हूं।” ऐसा ऊंटपटांग उत्तर सुनकर भी चतरसिंह ने अपने शान्त स्वभाव, शीलता एवं धीरता का परिचय दिया और एबट को कहला भेजा कि - “यदि आपको सिरवां में रहना मंजूर हो तो मुझे अथवा मेरे पुत्र अतरसिंह को अपने पास रहने की आज्ञा दीजिए जिससे शासन-कार्य में त्रुटि न रहने पाये।” भ्रम-भूत के शिकार एबट द्वारा यह प्रार्थना भी अस्वीकृत हुई। एबट चतरसिंह को विद्रोही कह कर ही शान्त न हुए, बल्कि उनके विरुद्ध मुसलमानों को भड़काने लगा।

अंग्रेज मुसलमानों में सिखों के प्रति कटुता का भाव पैदा कर रहे थे। अतः सन् 1848 ई० की 6 अगस्त को झुण्ड के झुण्ड मुसलमान चतरसिंह के निवास स्थान हरिपुर में इकट्ठे होने लगे। हरिपुर में पहुंच विद्रोही मुसलमान दलों ने नगर घेर लिया। सरदार चतरसिंह ने इस आकस्मिक हमले के सम्बन्ध में कुछ न समझा और नगर-रक्षक सेना को तोप के साथ सामना करने को भेजा। चूंकि सिख सेना पल्की में थी और एबट के सवनी में जाने से उसका रास्ता रुक गया था, अतः वह सहायतार्थ आने में असमर्थ थी।

विपत्ति काल अकेला नहीं आता। इसी तरह सरदार चतरसिंह के लिए भी एक साथ कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। सिक्ख सेना तो आ ही न सकती थी। नगर-रक्षक सेना में अमेरिका का कनोरा नामक एक आदमी तोपखाने का अध्यक्ष था। युद्ध में जाने के लिए जब उससे कहा गया तो उसने कहा - “मैं कप्तान एबट की आज्ञा बिना नहीं जा सकता।” कनोरा को आजकल के फौजी कानून के अनुसार सरदार की आज्ञा न मानने के अपराध में उसी वक्त गोली से उड़ा दिया


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जाना चाहिये था। परन्तु यदि गुड़ के प्रयोग से ही काम निकल जाये तो जहर की क्या आवश्यकता है। यह सोच सरदार चतरसिंह ने समझाया कि तोप लेकर युद्ध के लिये जाओ नहीं तो सहज ही में शत्रु अधिकार कर लेंगे और इस तरह दुखद अन्त हो जायेगा। परन्तु कनोरा ने तोप भर कर बीच में खड़ा हो, उत्तर दिया - “जो कोई मेरे पास आयेगा उसी को गोली से उड़ा दूंगा।” पैदल सेना के दो दलों को सरकार साहब ने आज्ञा दी कि तोप ले आओ। कनोरा सिपाहियों को आते देख बिगड़ उठा। उसने एक सिक्ख हवलदार को गोला बरसाने की आज्ञा दी। पर हवलदार ने साफ इन्कार कर दिया। कनोरा ने क्रोध में उन्मुक्त होकर सिख सरदार का सिर धड़ से अलग कर दिया। स्वयं तोपों की बत्ती सुलगा दी। दैवात् तोपों का निशाना खाली गया। कनोरा क्रोध में पागल हो गया। शीघ्र ही पिस्तौल से सरदार की सेना के दो सिपाही मौत के घाट उतार दिये। इसी समय पैदल सेना में से किसी ने कनोरा का सर तलवार से काट डाला। यही कनोरा की मृत्यु सरदार के अभियोग का खास कारण हुई।

एबट ने कनोरा की अनुशासनहीनता की उपेक्षा करके, उसके वध का दोषी चतरसिंह को ठहराया और रेजीडेण्ट को लिख भेजा - “कनोरा की हत्या सरदार चतरसिंह ने पिशोरासिंह की हत्या के समान ही की है और इसके सम्बन्ध में पहले ही सोच लिया गया था।” चतरसिंह ने भी सच्ची कैफियत रेजीडेण्ट की सेवा में लिख भेजी। पर रेजीडेण्ट ने अपनी मंगाई हुई दोनों सरदार और एबट की कैफियत देखकर एबट को लिखा कि -

“कनोरा की हत्या के सम्बन्ध में आप तथा चतरसिंह दोनों ने मुझे लिखा है। उसको पढ़कर मैंने यह परिणाम निकाला है कि सरदार की बार-बार आज्ञा का उल्लंघन करने तथा उनके भेजे हुए सैनिकों पर विरुद्धाचरण करने के कारण कनोरा की हत्या हुई है। इस सम्बन्ध में जो कुछ आपने कहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूं। सरदार चतरसिंह हजारा के दीवान और सामरिक शासन-कर्त्ता हैं। इसलिए सिख-सेना के अफसर को उनका मान करना चाहिये। इस विषय की अधिक चर्चा न करके मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आपने कनोरा की हत्या, पिशोरासिंह की हत्या के समान कैसे ठहराई है?”

इसी पत्र में आगे एबट की प्रत्येक बात का खण्डन करते हुए सरदार चतरसिंह के कार्य को आत्मरक्षार्थ बतलाया है।

एबट जैसे व्यक्ति पर, जिसे कई बार झूठा कह कर उसकी बातों का खण्डन कर दिया हो, उक्त पत्र का क्या प्रभाव पड़ सकता था? उसने उल्टा चतरसिंह को लिखा - “यदि कनोरा की हत्या करने वाले को मुझे सौंप दिया जाये तो सरदार साहब की सेना और जागीर बनी रह सकती है।” एक दूसरे पत्र में फिर एबट ने लिखा - “कनोरा के हत्यारे को मुझे सौंप दो, क्षण भर में हजारा में शान्ति स्थापित कर दूंगा।” पाठक सोच सकते हैं किसी ऐसे ढ़ांचे का यह विद्रोह था कि


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जिसका रोकना और चलाना एबट के मिनट भर का काम था। इससे साफ हो जाता है कि सिखों के विरुद्ध मुसलमानों के विद्रोह की जड़ में अंग्रेजों की नीति थी।

इस प्रकार सरदार चतरसिंह की गति सांप छछुन्दर की सी हो गई। वह करे तो क्या करे? वह जानता था कि एबट के विरोध का फल अच्छा नहीं भले ही सरकार पत्र-व्यवहार में एबट की बातों पर अविश्वास करती हो। पर कनोरा के मारने वाले को भी वह कैसे सौंप सकता था, जिसने कनोरा को मारकर तत्काल की भारी क्षति को बचाया था। क्योंकि कनोरा तोप के निशानों में सफल हो जाता तो मुसलमानों के पहले वही सरदार को पंगु बना देता। इसकी हत्या के साहसिक कार्य के लिये तो सरदार साहब ने इनाम दिया था। चतरसिंह ने एबट से मिलकर इस सम्बन्ध में समझौता करने एवं भ्रम मिटाने की तजवीज भेजी। परन्तु एबट का दिमाग तो सातवें आसमान पर था और उसमें भीतरी हाथ से गहरी राजनैतिक चाल थी। उसने कहा - “कनोरा की हत्या के पापी से मैं नहीं मिलना चाहता।” एबट इससे भी सन्तुष्ट न हुआ और रेजीडेण्ट को 13वीं अगस्त को एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था - “चतरसिंह सिक्ख-सेना को विद्रोह करने के लिए उत्तेजित कर रहे हैं। उन्होंने जम्मू-नरेश को चिट्ठियां भेजी हैं।” बात यह थी कि सरदार चतरसिंह ने मुसलमानों को दबाने के लिये जम्बू-नरेश को तीन-चार पलटन भेजने के लिये लिखा था। वही पत्र एबट के हाथ लग गया था। पर निकलसन ने दोनों पत्रों को देखकर उनमें किसी तरह के विद्रोह के कारण नहीं पाये। भला उनमें विद्रोह कहां दबा रखा था? सरदार चतरसिंह जिस पर अब तक कितने ही आक्षेप लग चुके थे, इस समय तक पक्का अंग्रेज-भक्त था। जिन पत्रों का सबूत सरदार साहब के बागी होने का किया वे ही निर्दोष होने का प्रमाण हुये।

सरदार चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष हैं, यह वाक्य कहने वाले निकलसन ने ही रंग बदला। कनोरा के हत्यारे के सुपुर्द करने का बहाना मिल गया। कुछ समय बाद ही चतरसिह को लिखा गया - “कनोरा के हत्यारों के साथ अविलम्ब मेरे यहां हाजिर होइये। इस अवस्था में आपके मान और जीवन की रक्षा का भार ले सकता हूं। अब आप अपनी निजामत और जागीर की आशा न रखें।” निकलसन ने इस पत्र की बातें गुप्त रख, उस समय ही रेजीडेण्ट को भी लिखा - “मुझे आशा है कि आप मेरे इस मत से सहमत होंगे कि चतरसिंह को जागीर और निजामत से अलग कर देना ही उचित दण्ड है।” पंजाब के सरकारी कागज-पत्रों से ज्ञात होता है कि रेजीडेण्ट भी दुरंगी चाल चल रहा था। उसने एक ही तारीख में व एक ही दिन के अन्तर से कैसे-कैसे विचार प्रकट किये थे! देखिये -

1858 ई० 23 अगस्त को रेजीडेण्ट ने मेजर एडवार्डिस को लिखा - “चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष है। कप्तान एबट इस पूरे अनर्थ की एकमात्र जड़ हैं।”


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इसी 23वीं तारीख को निकलसन को आज्ञा दी कि “चतरसिंह की जागीर और निजामत छीनकर उसे उचित दंड दीजिये।” और 24 अगस्त अर्थात् चतरसिंह के सर्वनाश के एक दिन पहले ही एबट को डांटते हुये लिखा - “तुम्हारा कार्य अन्यायपूर्ण है। कनोरा की उचित सजा को तुम हत्या नहीं कह सकते।”

उपर्युक्त पत्रों के उद्धरणों से न्याय-अन्याय का अन्दाजा पाठक सरलतापूर्वक कर सकते हैं। पहले तो एबट की नियुक्ति ही 'मान न मान मैं तेरा मेहमान' वाली कहावत के अनुसार थी, परन्तु इस सब में भेद-नीति काम कर रही थी। एक ओर कुछ पत्र-व्यवहार हो रहा है तो एक ओर कुछ ही चाल चली जा रही थी। आखिरकार चतरसिंह को यह दुखदाई समाचार दिया गया। पर सरदार साहब की समझ में न आया कि अपराध क्या है? उन्होंने विनय-पूर्वक प्रार्थना-पत्र भेजा - “मेरे जैसे अंग्रेजों के परम भक्त के साथ क्यों ऐसी सख्ती की जाती है? यदि कोई सन्देह उपस्थित हुआ हो तो कहिये, मैं उसे बिना विलम्ब दूर कर दूं।” पर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा।

बूढ़ा चतरसिंह भावी दुखद आशंका से कांप उठा। उसने कभी नहीं सोचा था कि एबट को उसके अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए फटकारने वाला इब्ट्सन भी उसको छोड़कर निर्दोषी चतरसिंह को दोषी मान लेगा। उसके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। अपना सब कुछ देकर भी उसे दोषी होना अच्छा न लगा। अपराधी होने का कलंक उसके मन में विद्रोह के भाव जमा बैठा। उसने सोच लिया, इस जीने से तो मरना ही अच्छा है। अपनी मान-रक्षा के लिये, इस तीर्थ-यात्रा की उमर में, उस बूढ़े शेर ने बगावत की तैयारी करनी शुरू कर दी। दल के दल सिख उनके झण्डे के निकट आकर इकट्ठे हो गये। महारानी जिन्दा के निर्वासित हुए क्षुभित युवक प्रतिहिंसा के लिए मर मिटने को तत्पर हो गये। जो चतरसिंह कुछ दिन पहले अंग्रेजों का पूरा भक्त था, वही अनुचित अपमान, अत्याचार के कारण विद्रोहियों का नेता बन गया।

मुलतान युद्ध

पीछे कहा जा चुका है कि मूलराज ने मुलतान किले में जाकर अपना संगठन करना शुरू कर दिया था। उसकी शक्ति बढ़ने लगी। देश, धर्म और मान-रक्षा के हितार्थ लोग इकट्ठे होने लगे। यद्यपि जन-साधारण में अंग्रेजों के प्रति असन्तोष बढ़ता जा रहा था, परन्तु सभी प्रधान जागीरदार (सरदार) सब अंग्रेजों के आज्ञाकारी और मददगार थे। सरदारों में से बहुतों ने कई विद्रोह भी दबाए थे, जैसे साहबदयाल नाम के एक सिक्ख राज्य के कर्मचारी ने 1848 ई० में महाराजसिंह के विद्रोह को दबाया था। स्वयं सरदार चतरसिंह का बड़ा लड़का शेरसिंह मेजर एडवर्डिस के साथ मुलतान युद्ध में था।


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यह सही है कि उस समय सरदार लोग अंग्रेजों के साथी थे। परन्तु उनके अधीनस्थ सेना उनके वश की न थी। रेजीडेण्ट कैरी के धमकाये जाने पर कि तुम्हें मुलतान जाना पड़ेगा, उन्होंने विनीत शब्दों में कहा भी कि - “हम मुलतान जाने और मूलराज से लड़ने के लिए तैयार हैं। पर दुख है कि सिख-सेना हमारा कहना नहीं मानेगी। महारानी जिन्दा के देश निकाले से वे अंग्रेजों के विरुद्ध हो गये हैं। हम लोगों को अंग्रेजों के प्रेमी होने से देशद्रोही, धर्मद्रोही मानते हैं। समय आने पर या तो वे हमें मार डालेंगे या हमें अपने साथी बनने को बाध्य करेंगे और मूलराज की सेना के सामने पहुंच करके विशेषतः विद्रोही बन जाएंगे।” पर इन बातों को कुछ न सुना गया और उन सबको सिख-सेना के साथ युद्ध के लिए मुलतान जाना पड़ा। सरदार चतरसिंह के पुत्र शेरसिंह की सेना के लोग बागी विचारों के बनने लगे। पर शेरसिंह विद्रोहियों को दंड देने में बड़ा कड़ा था। जिससे प्रसन्न होकर उनकी अंग्रेज-भक्ति पर मेजर एडवार्डिस ने सेना के रेजीडेण्ट से कहा था कि - “सरदार लोग हमारे पूरे पक्षपाती हैं। यद्यपि शेरसिंह की सेना का अधिकांश भाग अविश्वासी हो गया है, तो भी राजा शेर का ऐसा प्रभाव है कि उनमें से किसी को चूं तक भी करने की हिम्मत नहीं होती। वह तुरन्त उसे कड़ी सजा देकर सब को डरा देते हैं।”

मूलराज ने मेजर एडवार्डिस के साथ अब के बहुत से सरदारों को देखा। उसकी दृष्टि इस नरसिंह शेर पर भी पड़ी। वह डरा कि अबकी बार तो महावीर से सामना करना है। पर उसने सोचा अगर यह वीर अपने में आ जाए तो विजयलक्ष्मी अवश्य हमारी होगी। शेरसिंह को मिलाने के लिए उसने दूत भेजा। पर शेर ने दूत को अनादर के साथ रवाना कर दिया। दूत की दुर्गति हुई जान मूलराज जान गया कि शेरसिंह इस तरह अपने कब्जे में नहीं आ सकता तो इसे मरवा ही दिया जाए तो यह बला टल सकती है। पर इस षड्यंत्र में भेजे कुछ व्यक्ति भी पकड़े गये और तोपों के सामने रख उड़ा दिए गये। शेरसिंह की सेना के सिपाहियों के मन तो बदले हुए थे ही। इस घटना से और भी असन्तोष बढ़ा जिसे संभालना शेरसिंह के लिए भी कठिन हो गया। पर शेरसिंह के इतने अंग्रेज-भक्ति के कार्य करने पर भी बाहरी लोगों को यह सन्देह ही रहा कि इन सब की जड़ शेरसिंह ही है।

अंग्रेजों का जबर्दस्त प्रेमी शेरसिंह इस बात से अनभिज्ञ था कि उस पर बाहरी लोग अविश्वास करते हैं। वह मेजर साहब द्वारा समय-समय पर की गई बड़ाइयों पर कृतज्ञता से दबा जा रहा था। वह एबट द्वारा अपने पिता पर किए गए अभियोगों की खबर पाकर भी वैसा ही बना रहा, क्योंकि उसे मालूम हुआ था कि पत्रों द्वारा इसके पिता को निर्दोष साबित कर दिया गया है। उस समय सिर्फ उसने मेजर एडवार्डिस के सामने एबट के अन्याय और पिता के न्यायों की ही चर्चा की। यही


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नहीं, पहली सितम्बर को, एडवार्डिस की सेना के, मूलराज जी की सेना के सामने छक्के छूटने की खबर पाकर बड़ी होशियारी से उन्हें बचाया और तीसरी जून को युद्ध में बड़ी बहादुरी से मूलराज को मार भगा दिया और अंग्रेजों के प्रति अपने अपूर्व प्रेम का परिचय दिया। इस दिन की लड़ाई से प्रसन्न होकर मेजर साहब ने रेजीडेण्ट को लिखा - “शेरसिंह ने अब तक अंग्रेज-प्रेम का उज्जवल उदाहरण दिखाया है। उसका कार्य देखकर स्पष्ट ही मालूम होता है कि बिना इच्छा के वह ऐसा काम नहीं कर सकता। मुलतान में आने के बाद विनय से, भय से अथवा सजा देकर किसी न किसी प्रकार उन्होंने सेना को भक्त बनाए रखा है। राजा शेर ने अपनी सेनाओं का विद्रोह दबाने के लिए इस प्रकार प्रयत्न किया है कि सिख-सेना के लोग उससे चिढ़कर उनको सिख नाम की ग्लानि तथा मुसलमान का जना तक कहते हैं।” दसवीं सितम्बर के पत्र में लिखा - “राजा शेरसिंह और उनके अधीन सरदार लोग विद्रोही सिक्खों के दबाने में कटिबद्ध हैं।” इस तरह सिक्ख सरदार और शेरसिंह बराबर अंग्रेजों की ओर से जी जान से लड़ते रहे।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि सेना की अवस्था का बहाना कर लार्ड डलहौजी ने सेना भेजने में देरी कर मूलराज के बल एवं विद्रोही सिपाहियों के बढ़ने में काफी मदद की। चौथी सितम्बर को मुलतान का किला घेरने के लिए तोपें पहुंचीं। अब तक सेनापति ह्वीस 8041 पैदल सेना, 1516 घुड़सवार, 44 तोपों के साथ किला घेरने को तैयार हुए। मदद के लिए एडवार्डिस की 9718 पैदल सेना, 3113 घुड़सवार, 23 बड़ी और 25 छोटी तोपों के साथ थे और इनके अलावा बहावलपुर के नवाब की 5100 पैदल सेना, 1900 घुड़सवार सेना, 14 तोपें राजा शेरसिंह की 909 पैदल सेना, 3382 घुड़सवार और 12 तोप थीं। और भी कुछ दूरी पर इसके अतिरिक्त सेना थी।

9 सितंबर को लेफ्टीनेण्ट पेटडन ने कुछ अंग्रेजी और देशी सेना को लेकर धावा बोल दिया। लेफ्टीनेण्ट की बहुत चेष्टा करने पर भी विजय मूलराज की हुई। उसके पास दस हजार सेना और 59 तोपें थीं। इस विजय से मूलराज की हिम्मत बढ़ गई और किले को और भी मजबूत बना लिया। अब तक अंग्रेजी सेना के 255 सैनिक और 25 घोड़ों का अन्त हो चुका था। परन्तु शेरसिंह, जिसने मूलराज को भयभीत कर दिया था, की मदद से अंग्रेजी सेना आगे बढ़ने लगी। यहां तक कि 12 तारीख तक किले से 800 गज के फासले पर जा पहुंची। शेरसिंह की वीरता से लड़ने की प्रशंसा उस समय सभी अफसरों ने की है। निस्संदेह वह अंग्रेजों की विजय का हृदय से इच्छुक था।

इधर तो शेरसिंह का यह हाल था और उधर उनके पिता के साथ अन्याय की हद पार कर दी गई थी, जिसका वर्णन हम पहले कर आये हैं। शेरसिंह को पिता के साथ किए गए निष्ठुर व्यवहार का पता मिलते ही वे एकदम से बदल गए। पिता


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के अपमान का प्रतिकार करने की तीव्र इच्छा हो गई। रानी जिन्दा के देश निकाले और बहन के विवाह के लिए गोलमाल उत्तर की याद आने पर उसके हृदन में शूल से चुभने लगे। अब तक जिस हृदय में अंग्रेजों की विजय-इच्छा थी, वही अंग्रेजों से लड़ने के लिए तैयार हो गया। जिस मूलराज के दूत की उसने बेइज्जती की थी, उसी मूलराज का शेरसिंह पक्ष-समर्थक बन गया। जो प्रतिकार की भयंकर आग उस समय उसके हृदय में जल रही थी, उसका अनुमान उनके छोटे भाई गुलाबसिंह को लिखे गए पत्र से अच्छी तरह लगता है। वे लिखते हैं - “सिंह साहब, पिताजी मुझे बार-बार लिखते थे कि मैं कप्तान एबट की सदा आज्ञा पालन करता हूं। किन्तु उस कर्मचारी (एबट) ने हजारा के मुसलमानों से मिलकर बड़ा अन्याय किया है और पिताजी को अत्यन्त दुख और क्लेश दिया है। अधिक क्या कहा जाए, वह अंग्रेज कर्मचारी सिख-सेना के नाश करने का भी प्रबल प्रयत्न कर रहा है। अब तक कप्तान एडवार्डिस मेरे साथ प्रेम-पूर्वक व्यवहार करते थे, पर पिछले सप्ताह से उनके मन का भाव भी बदल गया है। इसलिए कल मैंने सिंह साहब (पिताजी) से मिलने की दृढ़ प्रतिज्ञा कर ली है। यदि सिंह साहब की आज्ञा और मेरी सम्मति पर तुम्हें कुछ भी श्रद्धा हो तो इस पत्र को पाते ही सिंह साहब के पास चले जाना और नहीं तो शीघ्र ही जम्बू अथवा और कहीं चले जाना। इसे पढ़ किञ्चित्-मात्र की भी देरी न करना और यदि तुमको मेरी सम्मति स्वीकार न हो, तो तुम्हारी जो इच्छा हो, करना। किन्तु याद रखना पिता की आज्ञा मानना सन्तान का परम कर्त्तव्य है। यह जीवन दो दिन का है। अब तुम मेरे दूसरे पत्र की राह मत देखना। यदि जीवित रहे तो फिर मिलेंगे, नहीं तो जो ईश्वर को मंजूर है, वही होगा।” शेरसिंह ने उपर्युक्त पत्र भाई को भेजकर घोषणा की - “सम्पूर्ण पंजाब निवासी एवं अन्य किसी से यह बात छिपी नहीं है कि स्वर्गीय महाराज रणजीतसिंह की विधवा पर फिरंगियों ने जिस तरह अत्याचार किया है - उसका जो अपमान किया है तथा प्रजा के प्रति फिरंगियों ने जिस प्रकार का निष्ठुर व्यवहार किया है, वह किसी से अविदित नहीं है - पहले, पंजाबियों की माता स्वरूप महारानी जिन्दा को निर्वासित करके सन्धि भंग की है। दूसरे, रणजीतसिंह की सन्तान के समान हमने सिक्खों के प्रति अन्याय और अत्याचार किया है कि हम धर्मच्युत हो गये हैं। तीसरे, राज्य का पहला गौरव भी लुप्त हो गया है। बस, अब क्या देखते हो? आओ! सर्वस्व की रक्षा के लिए तैयार हो जाएं।” यह घोषणा कर शेरसिंह ने अंग्रेजी-सेना से अलग होकर मूलराज से मिलने के लिए पत्र लिखा कि 'मैं आपसे मिलना चाहता हूं।'

पंजाब-वासियों, खासकर सिख-धर्म का दुर्भाग्य! मूलराज को विश्वास नहीं हुआ। नहीं तो सिख-साम्राज्य का एक और ही अध्याय लिखा जाता - पंजाब का इतिहास आज दूसरा ही होता। मूलराज ने सोचा शेरसिंह कपट चाल में है, इस


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तरह से मुझे धोखा दिया जा रहा है। उसका यह सन्देह निराधार नहीं था क्योंकि शेरसिंह के पहले कृत्य इसके प्रमाण थे। यह विश्वास करना वास्तव में कठिन था कि ऐसा अंग्रेज-प्रेमी, उन पर पूर्ण विश्वासी शेरसिंह में इतने क्रान्तिकारी परिवर्तन आ सकते हैं। मूलराज जबरदस्त प्रबन्ध के साथ मिला। मिलने पर भी वह सन्देह को नहीं हटा सका और एक मन्दिर में ले जाकर ग्रन्थ-साहब को हाथ में दे के प्रतिज्ञा कराई कि “मेरे साथ किसी तरह विश्वासघात तो नहीं किया जाएगा।” ग्रन्थ-साहब को छू प्रतिज्ञा कर लेने पर भी मूलराज का सन्देह-भूत दूर न हुआ। वह शेरसिंह के हृदय को न समझ पाया। हारकर शेरसिंह करीब चार हजार विद्रोहियों का मुखिया बन पिता से मिलने चल दिया।

अंग्रेजी सेना का शेरसिंह के चले जाने से एक दृढ़ स्तम्भ टूट गया। यद्यपि अन्य सरदार अंग्रेजी सेना के पूरे सहायक थे और मूलराज से लड़ने के लिए तत्पर रहे थे पर तो भी अंग्रेजों की मुलतान दुर्ग पर चढ़ाई करने की हिम्मत न हुई और शेष सितम्बर मास सोच-विचार में ही चला गया। इधर मूलराज को अपने शक्ति दृढ़ करने का अवसर मिल गया और जहां तेरहवीं सितम्बर को उसके पास दस हजार सेना थी, उसकी संख्या 13150 हो गई और उसने उधर काबुल के दोस्त-मुहम्मद से सहायता की प्रार्थना की। फलस्वरूप उसने अपने पुत्र को एक सेना देकर मूलराज की सहायता को भेज दिया।

चौथी तारीख नवम्बर के दिन जनरल ह्वीस ने विद्रोहियों की सेना पर तोपें दाग दीं। भयंकर अग्नि-वर्षा हुई, पर मूलराज की सेना टस से मस न हुई। तोपों से काम चलता न देख, ह्वीस ने संगीनों पर हमला करने का निश्चय किया। छठी तारीख को धावा बोल दिया गया। इस हमले में बहावलपुर के नवाब और दीवान जवाहरसिंह की सेना बहुत बहादुरी से लड़ी। मुलतानी सेना ठहर न सकी। विजय अंग्रेजों की हुई। मूलराज को आज की पराजय से हानि उठानी पड़ी पर फिर भी वह लड़ता ही रहा। 23 दिसम्बर को जब अंग्रेजों की सहायता के लिए बम्बई से और फौज आ गई, तो अंग्रेजों का साहस बहुत बढ़ गया। इस नयी सेना के साथ मुलतान-दुर्ग पर आक्रमण बोल दिया गया। इस समय ह्वीस के पास 15648 सैनिक, 3012 घोड़े और 91 तोपें थीं। 27 दिसम्बर को यह युद्ध छिड़ा। इस विकट युद्ध में किले का बहुत सा भाग अंग्रेजों के अधिकार में आ गया। मूलराज बन्दी सा हो गया। ता० 29 को दो हजार मुलतानियों ने अंग्रेजी सेना पर धावा बोल दिया था, पर इतनी बड़ी सेना के आगे इनका ठहरना मुश्किल था।

30वीं दिसम्बर का दिन मूलराज की हिम्मत तोड़ देने वाला था। एक गोला बारूदखाने में जा गिरा। उस 5000 मन बारूद में गोला गिरते ही आग लग गई। भयंकर अंधकार छा गया। अंधेरे की ऐसी रात सी हुई कि एक-दूसरे को देखना मुश्किल था। बारूद के इस काण्ड में 500 सैनिक लापता हुए। सन्


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1849 ई० की दूसरी जनवरी को अंग्रेजी सेना दिल्ली दरवाजे तक पहुंच गई। इसी समय बम्बई से बंगाल सेना भी आ मिली, जिससे विजय और भी सरल हो गई। मूलराज ने यह देखकर कि अंग्रेजों ने शहर पर अधिकार कर लिया तो वह अपनी तीन हजार सेना के साथ किले में चला गया। 3 जनवरी को विजय से प्रसन्न अंग्रेजी सेना नगर में घुस गई। उस समय के बारे में एडवार्डिस के शब्दों में ही - “प्रतिहिंसा का ऐसा भयानक चित्र मैंने कभी कहीं नहीं देखा था।”

मूलराज के चारों ओर से घिर जाने पर आत्मसमर्पण के सिवाय और चारा ही क्या था। उसने एडवार्डिस के जरिये आत्मसमर्पण के लिए कहा! पर उत्तर मिला - “जिसका अनुरोध मुझसे किया है वह होना असम्भव है। जब तक आप स्वयं न आयेंगे, कोई बात न सुनी जाएगी।” स्वाभिमानी मूलराज को यह उत्तर मान्य न हुआ। उसने फिर साहस किया और 12 तारीख को अंग्रेजी सेना पर आक्रमण कर दिया, पर भाग्य ने साथ न दिया, वह हारता ही गया। 19 जनवरी को एक विश्वासी द्वारा पुनः आत्मसमर्पण का प्रस्ताव भेजा, परन्तु उत्तर में सिर्फ यही था कि “तुम कल आठ बजे तक आत्मसमर्पण कर दो।” मूलराज उत्तर पाकर चुप रहा, करता ही क्या? आखिरकार 21 जनवरी को सवेरे ही जनरल ह्वीस ने सेना को दुर्ग पर अधिकार करने की आज्ञा दी। मूलराज भयंकर विपत्ति में फंस गया। उसने जनरल ह्वीस को कहला भिजवाया कि मैं इसी समय आत्मसमर्पण को तैयार हूं। इसका निपटारा करने के लिए मैं अपने वकील को आपके पास भेज रहा हूं। सादर प्रार्थना है कि “मेरे प्राणों तथा स्त्रियों के सतीत्व की रक्षा की जाए।” जनरल ने उत्तर दिया कि “समर समाप्ति पर आपके जीवन की रक्षा अथवा नाश की कुछ भी शक्ति मुझमें नहीं है। इसकी क्षमता गवर्नर जनरल पर ही है। पर हां, आपकी स्त्रियों की रक्षा करना मैं यथाशक्ति स्वीकार करता हूं।” उसके बाद ह्वीस की सेना रात भर दुर्ग पर गोलाबारी करती रही। दूसरे दिन जब दुर्ग पर अधिकार कर लेने की तैयारी थी, दीवान मूलराज ने आत्मसमर्पण कर दिया। लगातार 27 दिन के युद्ध के बाद किला अंग्रेजों के अधिकार में आया।

दीवान मूलराज लाहौर लाये गये। तीन अंग्रेजों ने मिलकर दीवान मूलराज के मामले पर विचार किया। मूलराज को दोषी करार पाया और उसे फांसी की सजा दी गई। पीछे यह सजा काले पानी में बदल दी गई और काले पानी जाते हुए ही जहाज पर उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार अंग्रेजों के विद्रोहियों का एक नेता तो संसार से चल बसा। अंग्रेजों की मुलतान-विजय विद्रोहियों को और भी बुरी लगी और अंग्रेजों के प्रति असन्तोष की वृद्धि होती ही गई।

दूसरा सिख-युद्ध

महारानी जिन्दा का निर्वासन और हजारा के चतरसिंह के साथ हुए अत्याचार


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के कारण क्रोधित सिख, मुलतान-विद्रोह का समाचार पाकर और भी जोर-शोर से विद्रोह की तैयारी में उद्यत हो गए। महाराज चतरसिंह की संरक्षता में सिख वीर अपने धर्म की रक्षा के लिए इकट्ठे होने लगे। शेरसिंह की घोषणा को सुनकर सिख-सेना अंग्रेजों के खून की प्यासी हो गई। यहां तक कि पेशावर की सेना ने तो अपने शासकों के विरुद्ध तलवार ले ली। अंग्रेजों ने सोचा कि अब बचना मुश्किल है, तो खैबर-घाटी की ओर प्राण बचाने चले गये। पर सब पंजाब-वासी अंग्रेजों को निकाल बाहर करना चाहते थे। सरदार लोग अभी तक पूरा साथ दे रहे थे। स्वयं रेजीडेण्ट के कथनानुसार “चौथी अक्टूबर से पहले कोई सिख-सरदार बागियों में शामिल नहीं हुआ था।” चार लाख पंजाबियों में से सिर्फ 60 हजार बागियों के पक्ष में थे।

अंग्रेजों में यह विशेष गुण है कि वे एक बार की गलती की पुनरावृत्ति नहीं होने देते, परन्तु यहां तो गलती के पीछे गलती हो रहीं थीं। पहले तो मूलराज का कहना न मानने की गलती शेरसिंह ने की और फिर उसकी पुनरावृत्ति स्वयं मूलराज ने शेरसिंह के प्रति सन्देह कर के की। हम ऊपर कह आये हैं कि अंग्रेज एक बार की हुई भूल को दूसरी बार सुधार लेते हैं। लार्ड डलहौजी ने जहां मुलतान-युद्ध में सेना भेजने में देरी की, वहां अब की बार तत्काल घोषणा की कि “जो अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार न उठायेगा उसे अभयदान दिया जाएगा।” साथ ही अंग्रेजी-सेना को रसद आदि सब तरह से सहायता पहुंचाने का सरदारों को भी आदेश था। लार्ड डलहौजी ने इस घोषणा का समर्थन किया।

इधर बागी सिख-सेना भी निरन्तर बढ़ रही थी। शेरसिंह की सेना भी लगभग 4291 हो गई थी। सिख-सेना अपने सरदारों को छोड़ छिन्न-भिन्न हुई फिरती थी। प्रतिहिंसा की आग से वे जले जा रहे थे। वे सभी चाहते थे कि आज ही रणद्वन्द्व मच जाए। महाराज रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह का राज्य अन्याय पूर्वक ले लिया है और महारानी जिन्दा के साथ भारी अत्याचार किए गए हैं। सिख-धर्म की बेइज्जती की है। ये बातें हर एक विद्रोही इस तरह कहता कि सुनने वालों के रोंगटे खड़े हो जाते, बुड्ढों की नसों में भी खून खौलने लगता। वे छाती फुला-फुलाकर पुकार उठते - धर्म की रक्षा के लिए मर जाओ! महारानी जिन्दा, खालसा-मां जिन्दा के अपमान का बदला लो! फिरंगियों को निकाल बाहर कर दो और अपने महाराज दिलीप को सिंहासनासीन कर दो!

सन् 1848 की 22वीं नवम्बर को प्रधान सेनापति ब्रिगेडियर ने कौलिन कम्बल और कोर्टियन को आज्ञा दी कि रामनगर जाकर अपनी सेना से सिखों पर धावा बोल दो। पर रामनगर पहुंचने पर इन्हें सिख-सेना का नाम भी न मिला। उनकी समझ में न आया यह सेना क्या हुई! बहुत ढूंढ़ने पर उन्हें सिख-सेना दिखलाई पड़ी। दूर से ही गोले छोड़े गए। पर ये गोले व्यर्थ हुए। निकट पहुंचकर


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जब अंग्रेजी सेना ने गोले छोड़ने शुरू किए भी न थे, कि सिख-सेना की ओर से एकदम अग्नि-वर्षा हुई। जिस तरह ज्वालामुखी पर्वत के फट पड़ने से आस-पास के गांवों का तो पता ही नहीं चलता बल्कि दूर के गांवों में भी खलबली पड़ जाती है, इसी तरह सिक्खों की तोपों की भयंकर गर्जना और गोलाबारी ने अंग्रेजी-सेना के होश भुला दिए। अंग्रेजी-सेना इधर-उधर भागने लगी। दो तोपें और रसद कितने ही छकड़े छोड़ जान बचाकर अंग्रेजी-सेना भाग निकली।

सेनापति लाट गफ को प्रथम बार ही भारी क्षति उठानी पड़ी। वैसे तो सेना के डर से भाग जाना ही बतलाता है कि अंग्रेज सैनिक बुरी तरह घबरा गए थे। डरे हुए अंग्रेज अफसरों की सलाह से छावनी छोड़ सेनापति गफ को भाग जाना भी अनुचित न लगा। भागी हुई अंग्रेजी सेना का पीछा सिख सेना ने किया और युद्ध के लिए ललकारा। कुछ अंग्रेज वीर वापस भी हुए जिनमें विलियम हैबलाक नामक अंग्रेज भी था। यह वीर वाटरलू के युद्ध में वीरता प्रकट कर चुका था। वीर हृदय से रुका न गया, अपने कुछ साथियों के साथ सिख-सेना से लोहा लेने लगा। पर इधर भी सिख इनसे किसी तरह भी कम न थे। सिख-सेना ने जबरदस्त गोलाबारी के साथ हैवलाक और उसके साथियों का सदा के लिए अन्त कर दिया। रामनगर के इस युद्ध में अंग्रेजों के 230 सैनिक काम आए और कितने ही अंग्रेज शेरसिंह के बन्दी हुए। बन्दी अंग्रेजों के साथ शेरसिंह का बर्ताव प्रेमपूर्ण था। उसने उनको किसी प्रकार तकलीफ न दी और भोजन करवा के उनके डेरे पर पहुंचा दिया। दूसरी ओर अंग्रेज थे, जो कमीना काम करने में चूकते न थे।

सेनापति गफ ने प्राण-रक्षा करके एक सप्ताह बाद रामनगर से 96 मील की दूरी पर छावनी का प्रबन्ध किया। बड़ी-बड़ी तोपें मंगाई गईं। शेरसिंह की खालसा सेना पर 2 दिसम्बर को धावा बोलने का निश्चय हुआ। वे शेरसिंह के खेमे पर आक्रमण करने की तैयारी करने लगे। निश्चय हुआ कि मेजर जनरल सर जोसफ थाकवेल तो चिनाव नदी पार करके बाईं ओर से हमला कर दें और शेरसिंह के सामने खुद प्रधान सेनापति गफ होंगे। भारतीय सैनिकों को धन का लोभ देकर मिलाने का षड्यंत्र भी सोचा गया। दूसरे दिसम्बर को थाकवेल अपने मंजे-मंजाये सात हजार सैनिकों को ले चिनाव पार कर वजीराबाद के पास पहुंच गया और उसने प्रातःकाल होने पर सिख सेना पर आक्रमण करने के लिए तैयार रहने का आदेश किया। शेरसिंह अंग्रेजी सेना के साथ रहकर लड़ चुका था। वह सब चालों को जानता था। थाकवेल के इस षड्यंत्र का उसे पता लग गया और वह कुछ सेना गफ से सामना करने के लिए छोड़ रामनगर से थाकवेल से लड़ने चल दिया। उस समय किसी देशद्रोही ने शेरसिंह के आने का समाचार दिया। थाकवेल ने घबराकर बड़ी सावधानी से सेना को आगे बढ़ने की आज्ञा दी और समाचार


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प्रधान सेनापति के पास भेज दिए। गफ ने लिखा कि ब्रिगेडियर गोडवी सेना सहित तुम्हारी मदद को आते हैं। जब तक ये न पहुंचें, सिखों से युद्ध न करना।

इधर वीर शेरसिंह सिख योद्धाओं के साथ निकट पहुंच चुका था। थाकवेल अस्थिर विचार हो गया। प्रधान सेनापति की आज्ञा भी है कि जब तक मदद न पहुंचे, धावा न करना। यह ख्याल आने पर वह सेना सहित भाग चला। शेरसिंह ने फुर्ती से पीछा किया और सादुल्लापुर के पास थाकवेल की सेना से जा जुटा। धड़ाधड़ गोले बरसाये जाने लगे। थाकवेल ने एक गन्ने के खेत का सहारा लिया। वहां से वह अपना बचाव करता रहा। अंग्रेजी सेना ने 2 घण्टे तक सिख-सेना की मार सही। इस बीच अंग्रेजी-सेना ने भी विकराल धावा किया, पर सिखों को कुछ भी घबराहट न हुई। अंग्रेजी-सेना को ही बहुत सी हानि उठानी पड़ी। शाम हो गई थी। थाकवेल को रात को और भी भय की आशंका था और गोड़वी के आने का भी कोई चिह्न दिखलाई न पड़ता था। अतः थाकवेल ने चल देने में ही भलाई समझी। शेरसिंह भी रात होने से समस्त सेना और तोपों के साथ झेलम के दक्षिण की ओर चला गया।

यद्यपि युद्ध में अंग्रेजों को काफी नुकसान उठाना तथा भागना पड़ा, फिर भी 'सादुल्लापुर' की विजय-लाभ का प्रचार किया गया। किन्तु मार्शमैन ने इतिहास में साफ लिखा है कि “युद्ध में शेरसिंह को ही फायदा रहा है, क्योंकि वह अंग्रेजों के इरादे तोड़कर सुभीते के स्थान पर पहुंच गया था और दरअसल शेरसिंह ने गफ के सब मनसूबों पर पानी फेर दिया और अंग्रेजी-सेना के दोनों बार की हार ने दिल तोड़ दिए थे। क्योंकि सादुल्लापुर के बाद सवा महीने तक लार्ड गफ चढ़ाई करने का साहस न कर सका और लूसरी नामक स्थान पर समय काटते रहा।” पाठक सोच सकते हैं कि लार्ड गफ की यह कैसी विजय थी? भला विजयी सेना भी इस तरह कभी शत्रु को अपनी शक्ति बढ़ाने का अवसर दे सकती है?

लार्ड गफ ने 12 जनवरी को डिंघी नामक स्थान में पहुंचकर बड़ी भारी सेना के साथ छावनी बनाई। वहां से 8 मील पर ही शेरसिंह भी सेना तैयार कर रहा था। सिख-छावनी का स्थान इस प्रकार का था कि पीछे तो झेलम बह रही थी और सामने एक छोटा-सा जंगल था, जिससे शत्रु-सेना के संगठन का पता न चलता था। दाहिने और बायें ओर से भी पूरा प्रबन्ध था। सिख-सेना की सुरक्षित छावनी को देखकर अंग्रेज सेनापति गफ चकित हो गया। किसी-न-किसी तरह आक्रमण कर देने की योजना करने लगा। निश्चय किया गया कि पीछे से रास्ता रोक दिया जाए और बांये भाग पर हमला किया जाए, जिससे शत्रु भाग न सकें। 13 जनवरी को अंग्रेजी सेना शत्रु-सेना पर निश्चयानुसार चढ़ाई करने को आगे बढ़ी और 14 जनवरी को हमला कर देने की पूर्णतः तैयारी कर ली। सिख सेनापति चतुर शेरसिंह अचेत न था। वह सब गतिविधि का पता रखता था। उसने चुपचाप


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अपना स्थान छोड़कर आक्रमण कर दिया। शेरसिंह की चतुरता से गफ साहब के सब निश्चय धूल में मिल गए। यह देखकर अंग्रेजी सेना क्रोधातुर हो उठी! बड़ा भयानक धावा बोला गया। अग्नि-वर्षा की जाने लगी। दो घण्टे तक सिख-सेना पर अंग्रेजी सेना ने तेजी से गोले बरसाये। गोलों का कोई फल न देख गफ ने सेना के आगे बढ़ने का हुक्म दिया। ब्रिगेडियर जनरल कौलिन कोम्बल ने सबसे आगे धावा किया। पैदल सेना के दो भाग थे - एक, कोम्बल की अध्यक्षता में हगन द्वारा और दूसरा पेनकुहक से संचालित होता था। इन वीर सैनिकों ने बड़ी दृढ़ता से आक्रमण किया। ये तलवारों की चमचमाहट से तोपों की भयावनी गड़गड़ाहट को चीरते हुए तोप चलाने वाले सिखों के पास पहुंच गए। तोपों के पास पहुंच कर तोप चलाने वालों को एक-एक कर गिराने लगे और कई तोपों के मुंह पर कीलें जड़ दीं। किन्तु इस समय सिक्खों ने भी कम वीरता का परिचय न दिया। तोपों के मुंह से कीलें उखाड़ फेंकी और उसी प्रकार गोले बरसाने लगे। तोपों के मुंह बन्द करने वालों के पास अपनी तलवार के बल से पहुंच कर हाथ दिखाने लगे। इस समय दोनों ओर से भयानक युद्ध हो रहा था। स्वयं कोम्बल भी पैदल सेना के साथ आगे बढ़ आया था। एक सिक्ख सैनिक ने उस पर भी तलवार छोड़ी। अगर बीच में एक अंग्रेज की तलवार आड़ी न आती तो उस का अन्त होने में देर न थी। पर तो भी वह घायल तो हो ही गया। अंग्रेजी सेना के 36 एवं 46 रेजीमेण्ट की देशी पैदल सेना ने इस युद्ध में अत्यन्त वीरता दिखाई। उसके जख्मी होने की कोई बात नहीं, विजय उनकी हुई और साथ ही सिक्ख-सेना की चार तोपें हाथ आईं।

इस ओर कोम्बल ने तो विजय प्राप्त की, परन्तु उधर उनके सहकारी पेनकुहक का बुरी तरह अन्त हुआ। वह अपने पांच सौ सैनिकों के साथ खेत रहा। अंग्रेजी झंडा सिक्खों के हाथ लगा। ब्रिगेडियर ने सेना को दो दलों में विभक्त कर दो ओर से सिक्ख सेना पर हमला किया और इसी समय दो अन्य स्थानों पर गिलबर्ट की पैदल सेना ने भी आक्रमण किया। ब्रिगेडियर की सेना का सामना सिक्खों ने धैर्य-पूर्वक किया। तोपों की भयंकर आवाज से कान फटने लगे। गोडवी की सेना अधिक वेग से बढ़ने लगी। अब सिक्ख न ठहर सके। वे लड़ाई के मैदान से भाग खड़े हुए। चार तोपें अंग्रेजों के हाथ लगीं। गिलबर्ट ने सिक्खों का पीछा न कर घायल सैनिकों को सम्हालना उचित समझा।

सिक्खों ने अवसर पाकर पीछे से आक्रमण कर दिया। अंग्रेज सैनिकों के भागने के मार्ग भी रोक दिए गए। गिलबर्ट अधिक देर तक संकट में रहा। उसकी मदद के लिए सेना के साथ कप्तान डेन पहुंच गया। यदि डेन न आता तो गिलबर्ट का निश्चय ही बुरा हाल होता। मदद पहुंचने पर गिलबर्ट के सैनिकों का साहस बढ़ गया। कप्तान डेन और गिलबर्ट की सेना ने भयंकर गोले दागे। प्रलयकाल


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दिखाई पड़ने लगा। युद्ध-भूमि मृत सैनिकों की लाशों से भर गई। जो सिख गिलबर्ट की दुर्दशा करने आये थे, बड़ी बुरी तरह फंस गए। जहां गिलबर्ट के लिए संकटापन्न की सोची जा रही थी, वहां सिक्खों को लेने के देने पड़ गए। वे इस तेज धावे को न सह कर भाग खड़े हुए और अंग्रेजों के हाथ सिक्खों की 3 तोपें और आ गईं। गिलबर्ट ने भी उधर 5 तोपें सिखों से छीन ली थीं। कहना न होगा कि सिख दो बार हार कर तोपों को अंग्रेजों के हाथ दे चुके थे, परन्तु यह नहीं कि वे लड़ने में निर्बल रहे। सिखों ने लड़ाई में बड़े धैर्य और साहस से काम लिया। उन्होंने अंग्रेजी सेना पर भयंकर अग्नि बरसाई जिसके सामने गौडवी की सेना युद्ध में न जम सकी। महाराजपुर के युद्ध के झंडे जो कि अंग्रेजों के पास थे, सिखों के हाथ आये। सेना की दुर्दशा देख इनकी पैदल सेना मदद को आ पहुंची, किन्तु सिख वीरों की मार वे भी न सह सके। इस लड़ाई में 19 अंग्रेज अफसर, छः सौ सिपाही मरे और घायल हुए।

मेजर जनरल सर जोसफ धाकवेल ने, जो पेनिनसुला के युद्ध में बड़ी बहादुरी पा चुका था,सिखों की घुड़सवार सेना के अध्यक्ष अतरसिंह की सेना पर हमला किया। इसी सैन्यदल में रणवीर शेरसिंह भी थे। थाकवेल ने पांचवीं और तीसरी घुड़सवार सेना से यूनेट को आक्रमण करने की आज्ञा दी। यूनेट ने, जो कि थाकवेल के अधीन एक अफसर था, लड़ाई के व्यूह को तोड़ना चाहा, पर सिखों का मुकाबला कम न था। सिख सैनिकों की दीवारें मिट्टी की न थीं, वे वज्र से भी कड़ी थीं। यूनेट के आक्रमण को सिख-सैनिकों ने निष्फल कर दिया। कितने ही अंग्रेज सैनिक लड़ाई में मारे गए। यूनेट खुद मैदान में काम आया! सिखों ने इस वक्त अद्वितीय लड़ाई लड़ी। वे गाजर-मूली की तरह अंग्रेजों को काट रहे थे। स्वयं थाकवेल ने पंजाब-युद्ध का इतिहास लिखा है। उसमें वह लिखता है - “मुझे मालूम हुआ कि मेरी सेना में एक भी मनुष्य जिन्दा नहीं।”

इस हानि और पराजय के होने पर भी अंग्रेजों ने साहस न छोड़ा। सेना के दाहिने भाग से लार्ड गफ ने लेफ्टीनेण्ट कर्नल पोप को 4 घुड़सवार रेजीमेंट लेकर लड़ने को भेजा। भालाधारी घुड़सवारों की भी इनमें पलटन थी। सिखों ने बहादुरी से इस हमले का सामना किया। इतने में भालाधारी पलटन भाले चलाने लगी। भालों की चोटों को सिखों ने दृढ़ता-पूर्वक ढ़ालों पर रोका और अपनी तलवारों से चतुरतापूर्वक घुड़सवारों को घोड़े समेत काट कर गिराने लगे। थाकवेल का इतिहास बताता है कि सिखों के एक-एक पैदल सिपाही द्वारा तीन-तीन घुड़सवार धराशायी हुये। बड़ा भयानक युद्ध था। सिख लोग चुन-चुन कर शत्रुओं को यमपुर पहुंचाने लगे। लेफ्टीनेण्ट कर्नल पोल भी युनेट की भांति मैदान रहे। अंग्रेजों की घुड़सवार सेना पोप के बिना सेनापति-विहीन हो गई। सैनिक छिन्न-भिन्न होकर भागने लगे। पर सिक्खों ने पीछा किया। जहां कहीं जो अंग्रेजी


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सेना का सैनिक या डाक्टर कोई भी मिला, मौत के घाट उतार दिया गया। अंग्रेजी सेना रसद का सामान इधर-उधर बिखड़ा छोड़ प्राण ले भागने की धुन में लग गई। पर भागे हुओं में से बहुत कम ही जान बचा पाये। महावीर सिक्खों ने दौड़-दौड़ कर हाथ साफ किये! मेजर क्रिष्टी तोपों को बचाकर ले भागना चाहता था पर मेजर साथियों समेत सदा के लिये तोपों को छोड़कर चला गया। सिक्खों ने क्षण भर में उन सब को पृथ्वी पर सुला दिया। गोलन्दाजों की मदद के लिये कुछ अंग्रेज संगीन लेकर दौड़े, परन्तु बेचारे संगीनों को लिए हुए जमीन नापने लगे। सिक्खों के एक झोंके ने ही उन्हें मदद की फिकर से हमेशा के लिये दूर कर दिया।

प्रधान सेनापति गफ को भी खतरे का संदेह हुआ। यह असम्भव न था कि बढ़ती हुई सिक्ख-सेना का रुख होते देर लगे। अतः कुछ लोग उन्हें भागने की सलाह देने लगे। क्योंकि पता न था भूखे सिंह की भांति सिह कब टूट पड़ें? परन्तु गफ भागा नहीं। गफ के शरीर-रक्षकों ने बड़े वेग से तोप से गोले बरसाये। विजयी घुड़सवार सिक्ख-वीर शत्रु की सेना को भगाकर, अंग्रेजी तोपों को लेकर, अपनी छावनी में आ गये।

लार्ड गफ ने हिम्मत तब भी न छोड़ी और एक अन्तिम उद्योग करना उचित समझा। ब्राइण्ड और ह्वाइट को सिक्खों के दाहिनी ओर हमला करने का हुक्म दिया। वे तोपों की गर्जना के साथ आगे बढ़े। शत्रु-सेना छिन्न-भिन्न देखकर अतरसिंह के तोपखानों ने कुछ देर के लिए गोला छोड़ना बन्द कर दिया। ब्राइड ने सोचा कि मेरी मार के डर से अतरसिंह ने तोपें बन्द कर दीं हैं। ब्राइड इस कल्पना में मग्न था कि शत्रु की तोपें आग उगलने लगीं। अंग्रेजों की कुगति हुई। सारे दिन सिखों से पिटने के बाद, शाम को अतरसिंह से मार खाकर और अपनी रसद को छोड़कर सेनापति गफ चिलियानवाला भाग गया।

यह सिखों की विजय का दिन था। नेपोलियन को हराने वाला वीर उनका सामना करने में असफल रहा था। सिखों ने भागते गफ का पीछा न करके घायलों की देखभाल और मृतकों का संस्कार करना उचित समझा। जीतकर लाया गया अंग्रेजों का झण्डा भी सिखों के हाथ लगा।

हारकर भागते हुये भी गफ ने जीत के बाजे बजवाये, तोपें चलवाईं। डलहौजी ने तो झूठी जीत में प्रत्येक तोप चलवाई। यह केवल एक चाल थी, लोगों को डराने तथा धोखे में रखने की, ताकि जनता विद्रोह में शामिल न हो। अंग्रेजों की हार का पता लेकिन ग्रिफिन की पुस्तक पंजाब राजाज के उद्धरणों से लगता है। उसने लिखा था - “चिलियानवाला का युद्ध अफगानिस्तान की महाहत्या के समान ही अंग्रेजों के लिये भयानक हुआ।” कलकत्ता रिव्यू में एक अंग्रेज ने लिखा - “भारत में अंग्रेजों ने जितने युद्ध किये हैं, चिलियानवाला का युद्ध उनमें से अति भयानक था।” वो भी सिपाही रिवोल्ट नामक पुस्तक में लिखता है - “चिलियानवाला युद्ध


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में ब्रिटिश तोपें छीन ली गईं। सिखों के हाथ ब्रिटिश झण्डे लगने से उनका गौरव बढ़ा। ब्रिटिश घुड़सवार सिखों के डर से भेड़-बकरियों की तरह भागने लगे।” कनिंघम भी इस युद्ध की तुलना सिकन्दर और पोरस के युद्ध से करता है।

चिलियानवाला की हार से इंग्लैंण्ड में भी हाय-तोबा मच गई। गफ को अयोग्य समझकर हटा देने की बात सोची गई। पर गुजरान-युद्ध की विजय का श्रेय मिल जाने से वह बच गया।

इस युद्ध की हार के बाद 25 दिन तक गफ ने लड़ाई बन्द करके युद्ध की तैयारियां कीं। सिख भी तैयार होने लगे। युद्ध के दो दिन बाद ही चतरसिंह भी शेरसिंह तथा अतरसिंह से आ मिला। अंग्रेज बन्दी मेजर लारेंस लेफ्टीनेण्ट हरबर्ट और बोर शेरसिंह के तम्बू में लाये गये। उनके साथ उदारता का व्यवहार किया गया। उनको सिख-सैनिक छावनी में घूमने और सैनिकों से बात करने तक की आजादी दे दी गई। शत्रु को इतनी आजादी देना घातक हुआ। इन्होंने सिखों की शक्ति और कमजोरी की पूरी सूचना अंग्रेजों को दे दी। इन्होंने सूचना दी थी कि सिख केवल अंग्रेजी तोपों से डरते हैं। अतः अंग्रेज सेनापति तोपें इकट्ठी करने लगा।

दूसरी गलती शेरसिंह ने यह की थी कि सन्धि की चर्चा भी कैदी अंग्रेजों के माध्यम से चलानी चाही। इससे उसकी कमजोरी का पता भी अंग्रेजों को लग गया।

अंग्रेज लड़ाई की तैयारी में लग गये, उधर शेरसिंह को सन्धि के चक्कर में उलझा दिया। वह सन्धि की संभावना में, युद्ध की तैयारी करने से उदासीन हो गया। 25 दिन बाद, जब सन्धि न करने का उत्तर उसके पास आया, तब उसको अपनी गलती का अनुभव हुआ।

सन् 1849 ई० की 6 फरवरी को पता लगा कि सिख-सेना रसूलपुरा चली गई है। सेनापति ने खुद जाकर सिखों के पड़ाव को देखा। वे देखकर स्तंभित हो गए कि ऐसे सुरक्षित स्थान को सिख कैसे छोड़कर चले गये। उन्हें बड़ी प्रसन्नता भी हुई कि सिक्खों के ऐसे सुदृढ़ स्थान को छोड़ देने से विजय आसानी से हो सकती है और अगर इस स्थान पर सिख-सेना रहती तो विजय पाना असंभव नहीं तो अत्यन्त कठिन था। पर यह प्रसन्नता थोड़ी ही देर ठहर सकी, क्योंकि उन्हें पता चला कि शेरसिंह 60 तोपों के साथ लाहोर की ओर चला गया है। इस समाचार को पाकर सेनापति गफ को घबराहट का सामना करना पड़ा। वह स्थिरचित्त होकर शेरसिंह को रोकने की तैयारी करने लगा और रास्ते में ही रोक लेने के उपाय में लगा। निस्संदेह अगर शेरसिंह लाहौर पहुंच जाता तो पंजाब क्या, भारतवर्ष में से भी अंग्रेजों को भाग जाना पड़ता और सिख वीरों की विजय-ध्वजा भारतवर्ष पर फहराती। उस समय के कलकत्ता के रिव्यू पत्र से


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जाना जाता है कि इस यात्रा में पंजाब का संपूर्ण सार भूखंड और दिल्ली से लाहौर तक की राह सिखों के हाथ लगी।

चतरसिंह द्वारा किए बन्दियों को अंग्रेज शिविर में पहुंच जाने से प्रधान सेनापति गफ को मालूम हो गया था कि सिक्खों के पास बड़ी-बड़ी तोपों की कमी है और तोपों की बढ़ोतरी से ही युद्ध में कामयाबी हो सकती है। 14 फरवरी को गुजरात में इन्हीं भयंकर तोपों का इस्तेमाल किया गया। बड़ा भीषण संग्राम हुआ। सिख-सैनिकों ने जान की बाजी लगा दी। सरदार चतरसिंह के पास 3600 सेना और 59 तोपें थीं। दोस्तमुहम्मद की काबुल से भेजी हुई मदद भी पहुंच गई थी। दोस्तमुहम्मद ने 1500 अफगान सैनिक भेजे थे और खुद मय बेटों के सिक्खों की सहायता के लिए आये थे। चतरसिंह कटक का किला उनके हवाले सौंप शेरसिंह से आ मिले थे।

सेनापति गफ की सहायता के लिये भी जनरल ह्वीस 12 हजार सैनिकों के साथ मुलतान-युद्ध हो चुकने से पहुंच गया था। और वह अपने साथ 100 तोपें भी लाया था। गफ का साहस ह्वीस और सैनिकों की सहायता से द्विगणित हो गया। वह नए उत्साह के साथ लड़ने लगा।

सन् 1849 की 21 फरवरी का दिन सिक्खों के दुर्भाग्य का दिन था। सवेरे से ही तोपों की घनघोर गड़गड़ाहट से कान फटने लगे। अंग्रेजी सेना ने तोपों से अग्निवर्षा कर दी। सिक्खों के पास केवल छोटी 59 तोपें थीं। भला वे इन तोपों के सामने कैसे ठहर सकतीं? परन्तु सिक्ख-योद्धाओं ने हिम्मत नहीं छोड़ी। वे तलवार चलाने लगे। उस समय अंग्रेजी फौज में तोपों की देख-रेख स्वयं सेनापति गफ कर रहा था। चिलियानवाला युद्ध की हार ने उनके हृदय में प्रतिकार की आग सुलगा दी थी। अंग्रेजों की तोपें लगातार गोले छोड़ रही थी, जिससे तोपों को भारी नुकसान पहुंच रहा था।

सिक्ख-सैनिकों ने तलवार से भयंकर धावा किया। वे आगे तक बढ़ते ही गए। यहां तक कि गफ तक जा पहुंचे। सेनापति को आपत्ति में देख शरीर रक्षकों ने भयंकर गोले छोड़े जिससे वे सिक्ख सैनिक रणस्थली में लेट गये। उधर थैवल की घुड़सवार सेना ने दोस्तमुहम्मद के भेजे हुए सैनिकों पर विजय प्राप्त कर ली। दोस्तमुहम्मद के भेजे हुए 1500 अफगान सिपाही दहनी ओर थे। इनके भागते ही सिक्खों की सेना का व्यूह भंग हो गया। टूटे हुये भाग की ओर से अंग्रेजी-सेना की घुसपैठ हो गई, तो भी सिख सैनिकों ने अलौकिक साहस और धीरता का परिचय दिया। अंग्रेज सैनिक संगीनों से आक्रमण कर रहे थे। सिख सैनिकों ने पैंतरे बदल-बदल कर बाएं हाथ से संगीनों को रोक तलवार के अद्भुत हाथ दिखाये। पर खाली तलवारों से ये वीर क्या कर सकते थे? सेना-व्यूह टूट चुका था। तोपें बेकार हो चुकी थीं। अंग्रेजों की तोपों से अग्निवर्षा बराबर हो रही थी। आखिरकार ऐसे


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समय जो होता है, वही हुआ। सिख-सेना को भागना पड़ा और जो भागने से अच्छा रणक्षेत्र में बलिदान होना सौभाग्य समझते थे, वे वीर बराबर लड़कर अपने को सदा की नींद सुलाते जा रहे थे। कितने ही सिख-सैनिक भय से पेड़ों पर चढ़ गए, परन्तु वे बुरी तरह से मारे गए। निहत्थे सैनिकों को भी बन्दी न कर बड़ी दुर्गति के साथ मारा गया। क्रूर अंग्रेजों ने शेरसिंह द्वारा बंदियों के साथ किए गए मानवीय व्यवहार के ठीक विपरीत आचरण किया।

चतरसिंह और शेरसिंह की हार हुई। गुजरान-युद्ध में विजय अंग्रेजों को मिली। वास्तव में इस पराजय का कारण शेरसिंह की उदारता थी। सिखों के मैदान छोड़ भाग जाने से 56 तोपें और बहुत सी रसद तथा लड़ाई का सामान अंग्रेजों के हाथ लगा। रणक्षेत्र से भागने पर भी जनरल गिलबर्ड ने पीछा किया। पन्द्रह हजार सेना और तीस तोपों को लेकर गिलबर्ट दौड़ पड़ा। कैम्बल द्वारा रोहितासगढ़ का दुर्ग सिखों से जीता गया। पहले बताया जा चुका है कि सिखों की सेना में कुछ अंग्रेज बन्दी भी थे, जिनमें कई स्त्रियां भी थीं। उनमें जार्ज लारेन्स की पत्नी भी थी। छठी मार्च को इन कैदियों को रिहा कर दिया गया था। बन्दी स्त्रियों और पुरुषों के साथ पूर्णतः भद्र व्यवहार किया था और उनके साथ छोड़ने तक किसी प्रकार कड़ाई नहीं की गई। क्या अंग्रेजों के इतिहास में ऐसी आदर्श शत्रुता की मिसाल मिल सकती है?

सिख सरदारों की इस हृदयता, दयालुता की कहानी पढ़ने के बाद अब सभ्यता में ऊंची जाति के बर्ताव की भी कथा सुन लीजिए! रसद की और हथियारों की कमी के कारण शत्रु-सेना से घिरकर सिख-सरदारों ने आत्म-समर्पण कर दिया। युद्ध-सामग्री के बिना और दूसरा रास्ता ही न था। पर अब भी इन स्वाभिमानी सरदारों के चेहरे से वीरता झलकती थी। शेरसिंह ने सेनापति गिलबर्ट की दाहिनी ओर खड़े होकर शस्त्र रखते हुए निर्भयता से कहा -

“अंग्रेजों के अनेक अत्याचारों से ऊबकर हमने यह युद्ध किया था। हमारे देश की रक्षा के लिए हमने यह युद्ध किया था। अब हमारी यह दुर्दशा हो गई है कि हमारी सेना के योद्धा रणभूमि में सदा के लिए सो गए हैं। हमारी तोपें, हमारे अस्त्र-शस्त्र हमारे हाथ से निकल गए हैं। हम इस समय अनेक अभावों के कारण आत्मसमर्पण करते हैं। हमने जो कुछ अब किया है, शक्ति होने पर कल भी वही करेंगे।”

सब सैनिकों ने हथियार रख दिए, परन्तु सिक्ख शिरोमणि भाई महाराजसिंह और रिछपालसिंह ने हथियार न रखे। उस समय प्रत्येक सिख की आंखों से आंसू बह रहे थे। आंसू भरे हुए गम्भीर मुख से सब कह उठे - “आज वास्तव में महाराज रणजीतसिंह की मृत्यु हुई।”

इन आत्म-समर्पण किए गए वीरों के सम्मान की रक्षा न हुई। उनकी वीरता


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का अपमान किया गया। अंग्रेज सेनापति ने इजहार किया कि निहत्थे सिख-सैनिकों को कुछ धन दिया जायेगा। स्वाभिमानी सिख-सरदारों ने घृणापूर्वक रुपये लेना अस्वीकार कर दिया। वे चांदी के टुकड़ों पर अपनी आत्मा को न बेच सकते थे। पराजय की आत्मग्लानि के कारण ही उनकी आंखों से लगातार आंसू बह रहे थे। दुःख की श्वास छोड़ वे आंसू बहाते हुए वहां से चले गए। वास्तव में यह रौद्र-शान्ति का भयानक दृश्य था। इस प्रकार सिखों का यह दूसरा युद्ध समाप्त हुआ। सिखों के भाग्य का इस प्रकार पटाक्षेप हुआ। चतरसिंह-शेरसिंह बन्दी बन कर कलकत्ते पहुंचा दिए गए!

पंजाब-हरण

इस युद्ध की समाप्ति के बाद पंजाब में अंग्रेजों का विरोध करने वाला कोई न था। डलहौजी की नजर पंजाब पर पहले से ही थी। अतः पंजाब में अशांति के नाम पर ही अपनी इच्छा पूरी करने को ठानी गई।

यद्यपि दूसरे युद्ध में शेरसिंह-चतरसिंह ही विद्रोही हुए थे। बाकी के सरदार बराबर अंग्रेजों की मदद करते थे। लाहौर दरबार की प्रतिनिधि-सभा में आठ सिख सरदार थे जिनमें शेरसिंह ने तो अपने पिता के साथ किए अन्याय से उत्तेजित होकर विद्रोह किया था। दूसरे, रणजोरसिंह को अंग्रेज सरकार द्वारा और दोषी पाया गया था। शेष सरदार अंग्रेजों की ही तरफ थे। राज-कर सम्बन्धी नये नियम बनने पर सिख-सरदार कर-संग्रह करने में पूरी शक्ति से लगे थे। इसमें सन्देह नहीं कि बिना सरदारों की सहायता से अंग्रेज कर वसूल नहीं कर सकते। यह ही नहीं जिस समय पंजाब में रण-चण्डी नृत्य कर रही थी, लाहौर-दरबार ने पूरी सहायता देकर मदद की थी। सर हैनरी लारेन्स खुद मंजूर करते हैं कि “विद्रोही सेना में बहुत कम सिख थे, जो लोग अंग्रेजी राज्य से अप्रसन्न थे, उनमें से ही उनमें से ही विद्रोहियों का साथ दिया था। सर्व-साधारण सिख इस विद्रोह में शामिल नहीं हुए थे। सिखों में अनेक विश्वासी और सिखों के हितैषी थे।” किन्तु इतने पर भी महाराज रणजीतसिंह का सिख-राज्य डलहौजी की हड़प नीति से न बच सका।

इस बात को कौन स्वीकार नहीं करेगा कि लाहौर-दरबार का इस विद्रोह से कुछ भी सम्बन्ध नहीं था, जब कि महारानी जिन्दा अंग्रेजों की कैद में थी और लाहौर-दरबार में से, शेरसिंह को छोड़, कोई बागी न हुआ था। अंग्रेजी रेजीडेण्ट द्वारा पंजाब-केसरी महाराज रणजीतसिंह के राज्य का शासन हो रहा था। रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह अंग्रेज-सरकार की देखरेख में थे। तब पंजाब-खालसे किए जाने का विचार करना 'स्वार्थ के लिए अन्याय' के सिवा और क्या था?


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जहां स्वार्थ होता है, वहां न्याय-अन्याय का ख्याल नहीं किया जाता। लार्ड डलहौजी ने कुछ भी विचार नहीं किया कि इसमें बालक शेरसिंह का क्या दोष है? बालक दिलीप का इस विद्रोह से क्या सम्बन्ध है? महाराज रणजीतसिंह से क्या सन्धि की गई थी? उन्होंने गवर्नमेंट ऑफ इंडिया के सेक्रेटरी मि० हैनरी इलियट को, लाहौर-राज्य की प्रतिनिधि-सभा से ईस्ट-इंडिया कम्पनी के पास पंजाब खालसा कराने की बातें तय करने को भेजा। सन् 1849 ई० को इलियट लाहौर पहुंच गए।

किसी भी सिख-सरदार को यह स्वप्न में भी न आया था कि जिन अंग्रेजों को उन्होंने सहायता दी है और पूरे भक्त रह कर साथ दिया है, उनके सामने पंजाब-खालसा करने का प्रस्ताव आयेगा। और तो और, हैनरी लारेन्स भी इससे सहमत न थे कि पंजाब ईस्ट-इंडिया कम्पनी के आधीन कर लिया जाये। इलियट ने उस समय लिखा था कि - मैंने लाहौर आकर, जिस कार्य के लिए आया था, सर हैनरी लारेन्स और मि० जौन लारेन्स से लिखा पढ़ी की। मुझे दुःख हुआ कि ये दोनों अफसर (सर हैनरी और जौन लारेन्स) इस बात पर तुले हुए थे कि प्रतिनिधि सभा के सभासद अपने देश में पहले ही पहली सन्धि के कारण बदनाम हो रहे हैं। इस पर मैंने उनसे प्रार्थना की कि कौंसिल के दो प्रभावशाली सभासदों को प्राइवेट कॉनफ्रेंस में शीघ्र ही बुलाया जाए। मेरे प्रस्ताव के अनुसार राज तेजसिंह और दीवान दीनानाथ बुलाए गए। राजा तेजसिंह ने पहले तो अस्वस्थ होने का बहाना बनाया और आना स्वीकार नहीं किया। मैं राजा के घर चला जाता, पर मुझे खटका था कि पंजाब जब्त करने की विशेष उत्सुकता प्रकट करने से कहीं तेजसिंह मेरा प्रस्ताव अस्वीकृत न कर दे। अतः मैंने पुनः राजा तेजसिंह को कहला भेजा कि आपके आए बिना यह काम पूरा नहीं हो सकता है। इस पर राजा तेजसिंह, दीवान दीनानाथ के साथ मेरे पास आए। उनकी शक्ल देखने से किसी बीमारी का चिह्न नहीं दीख पड़ता था। प्रथम भेंट में ही मैंने अपने पंजाब आने का जो उद्देश्य था, कह दिया। मैंने कहा कि अब पंजाब ब्रिटिश-राज्य में मिलाया जायेगा। किन्तु इस बात का निर्णय करना, प्रतिनिधि-सभा के सभासदों की इच्छा पर निर्भर है कि मैं जो शर्त आप लोगों के सामने पेश करता हूं, उनके अनुसार पंजाब मिलाया जाये अथवा किसी अन्य ढ़ंग से। यह सुनते ही राजा तेजसिंह कुछ डरे और घबराए। उन्होंने राजा शेरसिंह तथा अन्य विद्रोहियों की निन्दा की। साथ ही यह स्वीकार किया कि गवर्नमेंट को इस विषय में पूरा अधिकार है। वह जैसा उचित समझे, करे। उन्होंने यह भी कहा कि किसी प्रकार की शर्त पर कौंसिल के दस्तखत किए बिना ही जब्ती की घोषणा कर देनी चाहिए। इस पर गफ ने कहा - यदि प्रतिनिधि-सभा के सभासद गवर्नर जनरल की उन शर्तों को


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स्वीकार नहीं करेंगे, जो उनके तथा महाराज के लिए हैं, तो मेरी इच्छा होगी वही करूंगा। मुझे यह कहने का कुछ भी अधिकार नहीं है कि कौंसिल के सभासदों को जीवन-निर्वाह के लिए कुछ वृत्ति दी जायेगी या नहीं? यह सुनकर दीवान दीनानाथ ने तेजसिंह की भांति दुर्बलता जाहिर की! उन्होंने कड़ी शर्तों का प्रतिवाद किया और लाहौर से महाराज दिलीपसिंह तथा लाहौर के किले से महाराज के घराने की स्त्रियों को हटाने का भी घोर विरोध किया और कहा कि इसमें महाराज रणजीतसिंह की भारी बदनामी होगी।

इलियट के पत्र से अच्छी तरह जान पड़ता है कि उस समय उन्हें कितने विरोध का सामना करना पड़ा था। परन्तु कोई भी तनिक-सा प्रतिवाद करते ही डाट दिया जाता था। इतनी उस समय किसके पास शक्ति थी कि सामना करता? बेबश सबको चुपचाप इलियट की भेड़ बनना पड़ा। तेजसिंह और दीवान दीनानाथ के पूछने पर कि हमारी जागीर रहेंगी या नहीं, इलियट ने उत्तर दिया - “आप लोगों को जागीर अथवा वेतन से अलग करने का विचार नहीं है। पर इसके बदले में जब कभी ब्रिटिश-गवर्नमेंट को जरूरत पड़े तो आप निःसंकोच सहायता अथवा परामर्श दें, और यदि आप की हुई शर्तें स्वीकार नहीं करेंगे तो आपके प्रति किसी प्रकार की दया न दिखाई जायेगी।” दीवान दीनानाथ के पूछने पर कि आगे जागीर पर हमारी सन्तान का भी अधिकार रहेगा या नहीं, इलियट ने कहा - “क्यों नहीं, यदि जागीर सदैव के लिए है तो रहेगी और इसकी जांच करने के लिए शीघ्र ही एक अफसर नियुक्त होगा। इस बात पर आप लोग स्वतंत्रतापूर्वक विचार कर लें कि संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करें या नहीं।” राजा तेजसिंह और दीवान दीनानाथ दोनों ने सोच लिया कि पंजाब तो खालसे हो ही गया भले ही हम संधि-पत्र पर हस्ताक्षर करें या न करें और यदि हम हस्ताक्षर नहीं करेंगे तो हमारी कुशल नहीं। उन दोनों ने रोते हृदय से ठंडी सांस के साथ हस्ताक्षर कर दिए। तेजसिंह और दीनानाथ के हस्ताक्षर हो जाने के बाद इलियट ने फकीर नूरुद्दीन और भाई शेरसिंह को बुलाया। ये दोनों उस समय समय सिख-धर्म के प्रधान नायक थे। इनसे भी वे ही बातें हुईं। इन लोगों ने भी अन्त में संधि-पत्र पर हस्ताक्षर कर दिए। इसके बाद प्रतिनिधि-सभा के बाकी सभ्यों ने भी दस्तखत कर दिए और यह निश्चय कर लिया कि कल प्रातःकाल सात बजे दरबार कर संधि की शर्तों पर महाराज की मंजूरी करा ली जाए। इसके बाद सब लोग चले गए।

महाराज दिलीपसिंह

महाराज दिलीपसिंह

सन् 1849 ई० 29 मार्च को प्रातःकाल महाराज रणजीतसिंह के राजभवन में आखिरी दरबार लगा। रणजीतसिंह के लाहौर, पंजाब में सूर्योदय का भी यह आखिरी दिन था और उसी दिन पंजाब केसरी वीरवर रणजीतसिंह के पुत्र, अंग्रेजों के संरक्षत्व में रहने वाले बालक महाराज दिलीपसिंह भी अन्तिम बार अपने पैतृक सिंहासन पर बैठे। दरबार महाराज के समय में भी लगता था, पर उस


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दरबार की रौनक और आज के दरबार की उदासी बराबर थी। वह उगता हुआ सूर्य था तो यह अस्त होता हुआ। शीघ्र ही दिलीपसिंह के सर्वनाश का समय आ गया। मिस्टर इलियट, सर हेनरी लारेन्स और रेजीडेंसी के अनेक कर्मचारी दरबार में आ पहुंचे। इनके साथ सेना का पूरा प्रबन्ध था। वैसे तो दरबार में पहले ही सेना का पूरा इन्तजाम था पर इनके साथ शरीर-रक्षक सैनिक आए थे। उनकी तादाद बहुत ज्यादा थी। महाराज दिलीपसिंह तथा अन्य सरदार स्वागत के लिए राजभवन के फाटक पर आये।

दोनों ओर से अभिवादन होने पर दरबार में पहुंचे। दिलीपसिंह अपने पैतृक सिंहासन पर अन्तिम बार बैठा। कहते हैं बालक दिलीपसिंह में इस समय कुछ भी बालोचित चंचलता न थी। वह गम्भीरतापूर्वक सिंहासन पर बैठे हुए थे। धीरज और शान्ति उसके चेहरे से टपकी पड़ती थी। बाईं ओर सिख-सरदार बैठे हुए थे और दाहिनी तरफ फौज हथियारों से लैस खड़ी थी। दरबार में अन्य लोग भी इस दुखद अन्त के अवलोकनार्थ पहुंच गए थे। दरबार का हाल खचाखच भरा हुआ था। यद्यपि महाराज रणजीतसिंह की जागीर के हकदार उनके पुत्र दिलीपसिंह बाल्यावस्था में थे पर सम्भवतः वे इस दरबार के कारण को जान गए थे। नियत समय पर इलियट ने भाषण किया और इसके बाद एक मौलवी ने फारसी में पंजाब को कम्पनी के अधीन किए जाने की घोषणा पढ़ सुनाई। पीछे उसका तरजुमा हिन्दी में सुनाया गया। भला बालक दिलीप इस घोषणा का अभिप्राय क्या समझता! कुछ देर के लिए दरबार में सन्नाटा छा गया। पर दीवान दीनानाथ हृदय के उठते हुए भावों को न रोक सके। उनकी आंखों से अश्रु-धारा बह रही थी, हृदय फटा जाता था। उन्होंने पंजाब खालसा किए जाने की शर्त-सूची का घोर विरोध किया। दीवान साहब ने रुंधे हुए स्वर से नम्रता के साथ कहा - “इस समय अंग्रेज सरकार को अपनी कुछ उदारता दिखानी चाहिए। जिस तरह बोनापार्ट ने फ्रांस को जीत करके उसके असली शासक को सौंप दिया था, उसी तरह पंजाब महाराज दिलीपसिंह को क्यों न दे दिया जाए?”... पर दीवान साहब को बुरी तरह डांट दिया गया। इलियट गर्म होकर बोले - “शान्त रहो! नहीं तो काले पानी भेज दिए जाओगे। अब उदारता और दया का समय नहीं है। मैं गवर्नर जनरल की ओर से संधि को स्वीकृत करवाने आया हूं जो कल कौंसिल ने तय कर दी है।” इलियट के शब्द सुनकर दीनानाथ चुपचाप अपने स्थान पर बैठ गए। भय के मारे सब दरबारी शान्त हो गए। किसी ने चूं करने तक की भी हिम्मत न की।

जिस कार्य के लिए दरबार किया गया था, वही काम शुरू किया गया। संधि-पत्र पर सरदारों से हस्ताक्षर लिए जाने लगे और पश्चात् बालक महाराज दिलीपसिंह के सन्मुख संधि-पत्र दस्तखत के लिए रख दिया। पता नहीं आजकल की अदालतों में प्रचलित बालिग-नाबालिग का क्या मतलब है? दिलीपसिंह के


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नाबालिग होने पर भी पता नहीं क्यों हस्ताक्षर लेना आवश्यक समझा गया? महाराज के पास रहने वाले मियां की मां के कहने पर महाराज ने नन्हें-नन्हें हाथों से शीघ्रता से हस्ताक्षर कर दिए। बेचारा अबोध बालक दिलीप क्या समझता था कि इस नाटक के अन्त का तेरे भाग्य से क्या सम्बन्ध है? दरबार शेष हो गया। महाराज रणजीतसिंह के किले पर ब्रिटिश-ध्वजा रोप दी गई और तोपें छोड़ी गईं। पंजाब खालसा किए जाने का घोषणा-पत्र निम्न प्रकार था -

  • 1. महाराज दिलीपसिंह और उनके उत्तराधिकारी-गण पंजाब-राज्य सम्बन्धी समस्त स्वत्व, दावा और क्षमता परित्याग करते हैं।
  • 2. लाहौर-दरबार की जो सम्पत्ति है, उस पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का अधिकार होगा।
  • 3. महाराज रणजीतसिंह ने शाहशुजा से जो कोहनूर नामक हीरा लिया था, अब वह लाहौर के महाराज को इंगलैंण्ड की महारानी की भेंट करना पड़ेगा।
  • 4. महाराज दिलीपसिंह, उनके परिवार तथा नौकरों के जीवन-निर्वाह के लिए ईस्ट इंडिया कम्पनी अधिक से अधिक पांच लाख रुपये प्रतिवर्ष या कम से कम चार लाख रुपये दिया करेगी।
  • 5. महाराज दिलीपसिंह के प्रति सम्मान का व्यवहार किया जाएगा। उनकी पदवी महाराज दिलीपसिंह बहादुर रहेगी। यदि वे भविष्य में ब्रिटिश गवर्नमेण्ट के अधीन रहें तो यावज्जीवन उन्हें ऊपर लिखी हुई वृत्ति अथवा उसका कुछ अंश जिस समय जितना आवश्यक समझा जाएगा, उतना उन्हें मिलता रहेगा। उनके रहने के लिए गवर्नर जनरल जिस स्थान को पसन्द करेंगे, उस स्थान में ही उन्हें भविष्य में रहना पड़ेगा।

लार्ड डलहौजी ने पता नहीं अबोध दिलीपसिंह का क्या अपराध था कि उनकी पैतृक जागीर जब्त कर ली? उसके इस कार्य की किसी भी इतिहासकार ने आज तक पुष्टि नहीं की। स्वयं अंग्रेज लेखक इस कठोर कार्य की निन्दा करते हैं। लार्ड ले ने लिखा है - “हम (अंग्रेज) चौड़े में दिलीपसिंह के रक्षक थे, सन् 1854 ई० में कहीं दिलीपसिंह बालिग होते। हम सन् 1448 नवम्बर की 19 तारीख को राज्य की रक्षा के लिए आगे बढ़े थे। राज्य-रक्षा की हमने घोषणा भी की थी।1 विद्रोहियों को दण्ड देना और शासन-सभा के प्रति जो विद्रोह हुआ था, उसको दमन करना ही हमारा मुख्य उद्देश्य था। किन्तु 5 मास में ही इतना परिवर्तन हो गया


1. लार्ड हार्डिंग ने सन् 1846 की 20वीं फरवरी की घोषणा में लिखा था - “दरबार और सरदारों की सहायता से अंग्रेजों के परम मित्र महाराज रणजीतसिंह के पुत्र की अधीनता में निर्दोष सिख-राज्य को स्थापित करने की हमारी इच्छा है।”


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कि बालक दिलीप का राज्य जब्त कर लिया गया। हमने यह 'विलक्षण-रक्षा की।' सन् 1849 की 24 मार्च को पंजाब-राज्य के अन्त करने की घोषणा कर दी गई और हमने अपने रक्षाधीन बालक की सब सम्पत्ति और राज्य छीनकर 'विलक्षण-रक्षा' का परिचय दिया।”

पंजाब जब्त करने का सारा दोष लार्ड डलहौजी का नहीं था। इस सम्बन्ध में भीतरी नीति सबकी यही थी। अकेला डलहौजी इतना साहस कर सकता था? खालसे हो जाने के बाद पंजाब का शासन सर हेनरी लारेन्स को सौंपा गया। पाठक पीछे पढ़ चुके हैं कि हेनरी लारेन्स पंजाब खालसा करने के मत से सहमत न थे। यह सहृदय अंग्रेज केवल असहमत ही नहीं हुए, बल्कि इन्होंने पंजाब को अंगेजी-राज्य में मिलाने का घोर विरोध किया था। पर इनके विरोध का कुछ फल न हुआ।

लार्ड डलहौजी ने सोचा कि ऐसे ही व्यक्ति को इस समय पंजाब का शासन-भार देना चाहिए। क्योंकि क्षुब्धित पंजाब में शान्ति के लिए उस समय ऐसा ही अफसर आवश्यक था, जिसके प्रति प्रजा के सुन्दर भाव हों। चूंकि हेनरी लारेंस ने पंजाब की जब्ती का विरोध कर कुछ समवेदना प्राप्त कर ली। वास्तव में लारेंस महोदय हृदय से इसके विरोधी थे। पंजाब के शासक होने का उच्च पद भी इन्हें अच्छा न लगा, पर कुछ मित्रों के अनुरोध से यह पद इन्होंने छोड़ा नहीं। उदार और अनुदारों का सम्बन्ध बहुत दिन तक चलना असम्भव है। कहते हैं पंजाब में भूमि-कर बढ़ाना लारेंस के रहते संभव न था। उसके रहते हुए कर-वृद्धि में कठिनाई पड़ती थी। इसी पर लार्ड डलहौजी और सर हेनरी लारेंस की नहीं बनी और वह पंजाब से हटा दिए गए और पंजाब का शासन-भार जौन लारेंस (ये हेनरी लारेंस के भाई ही थे) को सौंपा गया।

महाराज दिलीपसिंह के निरीक्षक और अभिभावक डाक्टर लेगिन नियुक्त हुए। इनका वेतन 1200) मासिक था। दिलीपसिंह के रहने का स्थान और डाक्टर लेगिन का स्थान निकट-निकट ही था। कुछ दिन बाद मकान के पास ही मकान बना लिया गया। दिलीपसिंह इस समय 12 वर्ष के न हुए थे, परन्तु फारसी भाषा का उन्हें अच्छा ज्ञान हो गया था। उन्हें अंग्रेजी सीखने का भी उसी समय शौक हुआ। डाक्टर लेगिन को इससे बड़ी प्रसन्नता हुई। डाक्टर साहब का व्यवहार बड़ा अच्छा था जिसके सबब से दिलीपसिंह की भी काफी मुहब्बत हो गई थी। उन्हें (दिलीपसिंह को) बाज पक्षी से अन्य पक्षियों का शिकार कराने में बड़ा आनन्द मिलता था। वे पढ़ने के साथ कुछ चित्रकारी भी सीखते थे। इतनी उम्र में भी दिलीपसिंह की बुद्धि बड़ी तेज थी। वे दूसरे व्यक्तियों के चरित्र की आलोचना इस प्रकार करते कि जिसे सुनकर डाक्टर लेगिन चकित हो जाते। लेगिन के कथनानुसार इस उम्र में इतना चतुर कोई अंग्रेज बालक भी कहीं नहीं देखा गया। डाक्टर लेगिन दिलीपसिंह की शिक्षा और देखरेख के अलावा राज्य के परिवार और पंजाब


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के प्रबन्ध का भार भी लिए हुए थे। लाहौर-राज्य के परिवार में महाराज रणजीतसिंह की 17 हिन्दू रानियां और 4 मुसलमान स्त्रियां थीं। और इसके अलावा रणजीतसिंह के वारिस खडगसिंह, नौनिहालसिंह, शेरसिंह आदि की स्त्रियां और बाल-बच्चे थे। 130 दासियां तीन दल काश्मीरी और देशी नाचने वाली वेश्याओं के अतिरिक्त पांच दल गाने-बजाने वालियों के थे।

कोहिनूर हीरा
Throne of Maharaja Ranjit Singh (now in Victoria & Albert Museum, London)

महाराज रणजीतसिंह के खजाने में उस समय अटूट धन-राशि और रत्न-राशि भरी हुई थी। यही नहीं, संसार प्रसिद्ध कोहनूर हीरा महाराज के यहां था। बहुत से सोने-चांदी के बर्तन, बहुमूल्य पोशाकें, रत्न-जटित शस्त्र, कवच और कितनी ही अन्य बेशकीमती वस्तुएं थीं। सिक्ख गुरुओं की खड़ाऊं, जामा, लकड़ी, प्रार्थना-पुस्तकें आदि-आदि कई चीजें थीं। इनके अतिरिक्त रणजीतसिंह के पिता महासिंह के विवाह-काल की अमूल्य पोशाकें थीं।

महाराज रणजीतसिंह का खजाना कोई छोटे-मोटे राजा का खजाना न था। उनका स्वर्ण-सिंहासन, रत्न-जटित बहुमूल्य काश्मीरी शालों का पट-मण्डप बेजोड़ थे। उक्त सम्पत्ति डा० लेगिन की देखरेख में कुछ दिन रही। पश्चात् ईस्ट इंडिया कम्पनी के खजाने में पहुंच गई। कोहनूर हिन्दुस्तान छोड़ इंगलैण्ड पहुंच गया। महाराज रणजीतसिंह के बड़े परिश्रम से इकट्ठे किए हुए बहुत से पदार्थ नीलाम पर चढ़ा दिए गए। विधि की गति कौन जानता है! जिन वस्तुओं को रणजीतसिंह के अधीन रहते बड़े-बड़े लोग देखने को भटकते थे, उनकी कैसी दशा हुई। महाराज दिलीपसिंह का खर्च घटाया जाने लगा। डाक्टर लेगिन ने टोमस लैम्बट बारलो नामक युवक को दिलीपसिंह का अध्यापक बनाया। डाक्टर लेगिन ने बातों-बातों में यह भी सुझा दिया था कि अब लाहौर छोड़ना पड़ेगा।

1849 ई० सितम्बर मास की 4 तारीख दिलीपसिंह का जन्म दिवस था। इस दिन महाराज दिलीपसिंह की वर्षगांठ थी। वे 11 वर्ष समाप्त कर बारहवें में पदार्पण कर रहे थे। गवर्नमेंट की आज्ञानुसार महाराज दिलीपसिंह की जन्म-तिथि के उपलक्ष में डाक्टर लेगिन ने एक लाख रुपये की जवाहिरात कोष में से उनकी (दिलीपसिंह की) भेंट की। महाराज सदा की भांति बहुमूल्य वस्त्र और गहने पहने हुए थे, पर कोहनूर हीरा इस वर्ष वाहु पर न था। डाक्टर लेगिन से दिलीपसिंह ने पूछा कि - गतवर्ष जो कोहनूर हीरा मैंने पहना था, वह अब कहां है? अबोध बालक को क्या मालूम, अब वह अपनी जन्म-भूमि भारत छोड़ इंगलैण्ड पहुंचा दिया गया है।

मातृ-भूमि-विद्रोह

मनुष्य के पराधीन हो जाने पर उसका खाना-पीना, उठना, बैठना, बोलना सब दूसरे के इंगित पर हो जाता है। इस अवस्था में जो कुछ भी हो जाए असम्भव


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नहीं। हमारी इस बात के प्रमाण के लिए आप संसार के छोटे-छोटे बन्दियों का नहीं, बड़े-बड़े योद्धाओं का इतिहास देख लीजिये - महावीर नेपोलियन बोनापार्ट जैसे वीरों को बन्दी होने पर कितनी यंत्रणायें सहनी पड़ी थीं।

सन् 1849 ई० के सितम्बर महीने में लार्ड डलहौजी लाहौर आये। तब उन्होंने [Maharaja Dalip Singh|[महाराज दिलीपसिंह]] से भी भेंट की। भेंट करने के समय डाक्टर लेगिन का सिखाया हुआ वाक्य “I am happy to meet you my Lord!” दिलीपसिंह ने उच्चारण किया। अर्थात् - 'प्रभो, मैं आपके दर्शन से कृतकृत्य हुआ हूं।' गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी ने दिलीपसिंह की पीठ पर हाथ फेरा। 15 दिन रह कर वाइसराय लाहौर से विदा हो गए। डलहौजी के चले जाने के कुछ दिन बाद ही दिलीपसिंह को यात्रा करने के लिए तैयार होने को कह दिया गया। पर कहां जाना होगा, यह गुप्त रखा गया।

सन् 1849 ई० दिसम्बर मास की 11 तारीख को दिलीपसिंह के सम्बन्ध में डाक्टर लेगिन को गवर्नर जनरल की ओर से पत्र मिला, जिसका आशय यों था -

“अब दिलीपसिंह को पंजाब छोड़कर लाहौर जाना होगा। वहां उनके रहने के लिए स्थान का प्रबन्ध हो गया है। आपको (डाक्टर लेगिन को) भी दिलीपसिंह के साथ जाना पड़ेगा। उनके 1200) रुपये मासिक वेतन में 600) सरकार और 600) दिलीपसिंह की वार्षिक वृत्ति में से मिलेगा। दिलीपसिंह के बालिग होने तक निरीक्षण और शिक्षा की देख-रेख का भार आप पर रहेगा। महाराज शेरसिंह के पुत्र और महाराज रणजीतसिंह के पौत्र सहदेव भी दिलीपसिंह के साथ ही फतेहपुर जाएंगे...।”

उक्त आज्ञा पाते ही डाक्टर लेगिन यात्रा करने को तैयार थे, परन्तु बालक सहदेवसिंह जिसकी आयु सिर्फ साढ़े छः बरस की थी, को इतनी छोटी अवस्था में ले जाना मुश्किल था, इसलिए सहदेवसिंह की माता के भी साथ ही चलने का प्रबन्ध किया गया। 21 दिसम्बर सन् 1849 ई० को 9 बजे महाराज दिलीपसिंह अपने भतीजे सहदेवसिंह और उसकी माता को लेकर डाक्टर लेगिन के साथ लाहौर से विदा हो गए।

फरवरी मास सन् 1850 ई० को डाक्टर लेगिन सहित दिलीपसिंह फतेहगढ़ पहुंचे। पहले इनके रहने के लिए गंगा के किनारे एक स्थान तय हुआ था, परन्तु यह स्थान पसन्द न होने पर डाक्टर लेगिन ने कुछ भूमि खरीद कर एक अलग मकान बनवा दिया। खास महाराज दिलीपसिंह के रहने के लिए भी गवर्नर जनरल की आज्ञानुसार एक मकान बनवाया गया। किसी समय लाहौर के सुविशाल राजभवनों में रहने वाले राजकुमार गांव के साधारण मकान में रहने लगे! यद्यपि महाराज पूर्णतः देख-रेख में थे, पर तो भी यह मकान फतेहपुर के किले और छावनी के मध्य में बनाया गया था और रात-दिन कितने ही सिपाही पहरा देते थे। जब महाराज बाहर निकलते तो एक सिपाही साथ रहता था। मानों वे कोई


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चीज हैं जो अकले रहने से आस-पास की प्रकृति को भी विद्रोही बनायेंगे जिससे ब्रिटिश शासन खतरे में पड़ जाएगा।

फतहगढ़ पहुंचने पर डाक्टर लेगिन को हेनरी लारेन्स का एक पत्र मिला जिसमें इस सहृदय, उदार अंग्रेज सज्जन ने कुशल-क्षेम के सिवाय दिलीपसिंह के शिक्षा और स्वास्थ्य के ध्यान रखने की आशा प्रकट की थी। लेकिन डलहौजी उनको राजा की तरह नहीं, साधारण आदमी की तरह रखना चाहता था। अतः उसने लेगिन को लिखा था - “आपने महाराज के रहने का जिस प्रकार आयोजन किया है इसमें विशेष खर्चा पड़ता है। क्या आप समझते हैं कि उसका (दिलीपसिंह) जीवन राजाओं के समान होगा! मुझे यह पसन्द नहीं है।” लेगिन साहब के लिए यह ईश-वाक्य से बढ़कर था। उन्होंने इसका अनुसरण किया।

दिलीपसिंह पर अंग्रेजी शिक्षा और सभ्यता ने असर डालना शुरू किया। वे सिखों के से लंबे केश न रखकर छोटे-छोटे अंग्रेजी बाल रखने लगे। अंग्रेजी बालों के हेल-मेल से कोट, पतलून, टोप का पहनना शुरू हो गया। सहदेवसिंह की माता को इससे धारणा होने लगी कि मेरा बेटा सिख-साम्राज्य का अधिकारी होगा। उस बेचारी को क्या खबर थी कि सिख-राज्य मिट चुका है और ऐसे विचार करना भी भयंकर अपराध समझा जाता है। लार्ड डलहौजी को सहदेव की माता की उपर्युक्त धारणा मालूम पड़ी तो सन् 1851 की 23 तारीख को डाक्टर लेगिन को लिखा -

“आप शेरसिंह की रानी को कह दीजियेगा कि पंजाब में सिख-राज्य की सदा के लिए समाप्ति हो गई है। इस समय पंजाब पर अपने लड़के तथा अन्य किसी व्यक्ति के बैठने की आशा करना सिवाय राज-विद्रोह के कुछ नहीं है। यही शिक्षा उन्हें अपने लड़के सहदेव को देनी चाहिए। यदि आगे से शेरसिंह की रानी वर्तमान अवस्था से भिन्न अपने लड़के के लिए पंजाब के राज्य लेने अथवा और उच्चपद प्राप्त करने की आशा करेंगी तो उनके लड़के सहदेवसिंह के लिए अच्छा न होगा।”

यह सन्देश लेडी लेगिन ने सहदेव की माता को सुना दिया।

एक दिन लेडी लेगिन के साथ महाराज दिलीपसिंह रानी से मिलने गए। रानी ने इस बात की परीक्षा करने के लिए कि दिलीपसिंह का धर्म के प्रति कितना विश्वास है, एक चाल चली। रानी शर्बत बनाने में मशगूर थीं। शर्बत तैयार करके गिलास में लाकर दिलीपसिंह के सामने रख दिया। लेडी लेगिन के लिए दूसरा गिलास न आने से दिलीपसिंह ने अपने सामने का गिलास लेडी लेगिन को दे दिया। श्रीमती लेगिन ने सोचा कि दिलीपसिंह के लिए अन्य बर्तन में शर्बत आता होगा। थोड़ा सा पीकर गिलास रख दिया। सहदेव की माता ने न तो वह झूठा शर्बत नीचे डाला और न उसे साफ किया। उसी शर्बत में और शर्बत डाल कर दिलीपसिंह के सन्मुख रख दिया। लेडी लेगिन ने कहा भी कि - “महाराज यह शर्बत नहीं पीएंगे।” पर महाराज ने मना करते-करते भी वह शर्बत का गिलास पी लिया और तत्काल


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बाहर चले आए। रानी यह देखकर बड़ी विस्मित हुई। अनन्तर लेडी लेगिन ने भी रानी साहिबा से विदा ली और बाहर आने पर दिलीपसिंह से झूठा शर्बत पी जाने का सबब पूछा। उन्होंने कहा - “क्या मैं उस समय शर्बत न पीकर आपका अपमान करता? मैं आपका आदर करता हूं और इसमें मुझे अपनी जाति से च्युत भी होना पड़े तो कोई शरम की बात नहीं है।” इस तरह दिलीपसिंह के विचार नये सांचे में ढल रहे थे। सन् 1851 ई० के दिसम्बर महीने में जब लार्ड डलहौजी और लेडी डलहौजी फतेहगढ़ पधारे, दरबार किया। दिलीपसिंह ने इसमें शामिल होने से इनकार कर दिया क्योंकि वे देशी राजा-महाराजाओं से अपने को अलग ही रखने की इच्छा रखते थे। डेरे पर पहुंच कर दिलीपसिंह ने गवर्नर जनरल से भेंट की।

सन् 1852 ई० के आरम्भ में दिलीपसिंह ने भारतवर्ष के मुख्य-मुख्य स्थानों को देखने की इच्छा प्रकट की और इस यात्रा का इन्तजाम भी हो गया। परन्तु किसी प्रकार की विशेष धूमधाम नहीं की गई। यात्रा में दिलीपसिंह, डाक्टर लेगिन, लेडी लेगिन, सहदेव तथा कुछ नौकर-चाकर साथ थे। साथ सहदेवसिंह की माता पीहर पहुंच गई थी। रास्ते में जहां कहीं भी सिखों को पता लगता, वहीं देखने के लिए इकट्ठे हो जाते। उन्होंने इस भ्रमण में कुछ रुपये गरीबों को भी बांटे थे। राजधानी देहली में कुछ कीमती आभूषण भी खरीदे थे। आगरे में उन्होंने लाल किला और प्रसिद्ध इमारत ताजमहल को देखा। यहां पर अंग्रेजों ने उन्हें दावत दी। आगरे में वे प्रेस और तारों को देखकर बड़े प्रसन्न हुए। अन्य स्थानों को देखते हुए उन्हें हरद्वार देखने की भी लालसा हुई। ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने गुप्त रीति से हरद्वार दिखाने की तजवीज की। इसका सबब यह था कि उस समय पंजाब तथा और आस-पास के गांवों के लोग भी मेले में आए हुए थे। इसीलिए उन्हें खुल्लम-खुल्ला चौड़े में हरद्वार दिखाना भय का काम समझा गया। इतना सब कुछ होने पर भी कुछ सिखों को पता लग ही गया कि हाथी पर हमारे महाराज पंजाब-केसरी रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह हैं। वे हाथी को घेरकर खड़े हो गए और महाराज दिलीपसिंह की शुभकामना के नारे लगाने लगे। आखिरकार किसी तरह दिलीपसिंह डेरे पर आ गए तब कहीं अंग्रेज कर्मचारियों के जी में जी आया। वर्षा ऋतु आ जाने के कारण यह काफला मंसूरी चला गया। मंसूरी पर्वत-श्रेणियों को देखकर दिलीपसिंह बड़े प्रसन्न हुए। यहां आने पर अंग्रेज बालकों के साथ-साथ भ्रमण करने लगे और इन लोगों से अधिक व्यवहार करने के कारण अंग्रेजी में कुछ अच्छी योग्यता भी प्राप्त कर ली। दिलीपसिंह पाश्चात्य सभ्यता में तो फतेहगढ़ रहते हुए ही फंस गए थे।

फतेहगढ़ पहुंचने पर दिलीपसिंह की इच्छा ईसाई हो जाने की हुई। डॉक्टर लेगिन ने इसके लिए गवर्नर-जनरल से आज्ञा मांगी और गवर्नर-जनरल की


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स्वीकृति आ जाने पर 1853 ई० 8 मार्च को दिलीपसिंह ने अपने पवित्र धर्म को छोड़कर ईसाई धर्म की दीक्षा ली। ईसाई बन जाने पर बहुत से देश-विदेश के सभी ईसाई मत वालों ने बधाई के पत्र भेजे। लार्ड डलहौजी ने बाइबिल की एक सुन्दर प्रति उपहार में भेजी और उसमें लिखा था -

“To His Highness Maharaja Daleep Singh, this Holy Book in which he has been led by God's grace to find an inheritance riches by far than all earthly kingdoms, is presented with sincere respect and regard by his faithful friend Dalhousie. April 5, 1854”

अर्थात् “महाराज दिलीपसिंह की सेवा में महाराज के विश्वस्त मित्र डलहौजी ने इस पवित्र पुस्तक को जिसे ईश्वर की कृपा से महाराज संसार के समस्त राज्यों से बढ़कर समझने लगे हैं, सादर समर्पित किया। 5 अप्रैल 1854।” गजब की भेंट है और साथ ही त्याग भी समस्त संसार के राज्यों के समान और वह भी धर्मत्याग! लार्ड डलहौजी की मित्रता भी खूब थी। भैंस के बदले बांसुरी पकड़ा दी।

वैसे तो दिलीपसिंह की विलायत जाने की पहले ही इच्छा थी, परन्तु ईसाई हो जाने के बाद तो उनकी मंशा को और भी सहायता मिली। विलायत जाने से पहले डलहौजी ने निम्न पत्र दिलीपसिंह को लिखा -

“मेरे प्यारे महाराज, आपके हिन्दुस्तान से जाने के पहले, मैं आपको बिदाई के उपलक्ष में वह वस्तु भेंट करना चाहता हूं जो भविष्य में मेरा स्मरण कराती रहेगी। जब आप छोटे बच्चे थे और सार्वजनिक घटनाओं ने आपको मेरे अधीन कर दिया था, तब से मैं आपको कुछ अंशों में अपने पुत्र के समान समझता रहा हूं। इसलिए मैं आपसे उस पुस्तक के स्वीकार करने के लिए प्रार्थना करता हूं जो मैंने अपने लड़के को दी होती। क्योंकि यह सब उपहारों से उत्तम उपहार है। इस संसार के अथवा भविष्य के संसार के समस्त सुखों की कुंजी अकेली इसी पुस्तक में मिलेगी। प्यारे महाराज, मैं आपको अन्तिम प्रणाम करता हूं और सदैव मेरा विश्वास कीजिए, यह आपसे प्रार्थना करता हूं। विश्वस्त मित्र डलहौजी 8 अप्रैल 1954”

क्या खूब! बाइबिल की भेंट किए बिना भला दिलीपसिंह कभी डलहौजी को कैसे याद रखते! याद रहे, उसी डलहौजी ने महाराज के लिए गार्डन लगाने की आज्ञा तक नहीं दी थी।

31 मार्च सन् 1854 को लार्ड डलहौजी ने महाराज दिलीपसिंह को विलायत जाने के लिए बोर्ड-आफ-डाइरेक्टर्स की मंजूरी की खबर दी और सन् 1854 ई० की गर्मियों में लखनऊ, काशी होकर दिलीपसिंह कलकत्ता पहुंचे। काशी में एक मद्रासी ब्राह्मण नेमीगोरा से जो कि हिन्दू-धर्म से ईसाई धर्म में आ गया था, दिलीपसिंह की जान-पहचान हुई। इससे दिलीपसिंह का बहुत कुछ प्रेम हो गया


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था। यहां तक कि यह सज्जन विलायत तक साथ गया। 19 अप्रैल 1854 ई० को महाराज दिलीपसिंह अपनी जन्मभूमि को छोड़ जहाज में सवार हुए।

दिलीपसिंह को सैर का बड़ा शौक था। वे भारत के विभिन्न स्थानों की सैर गत वर्ष कर चुके थे। विलायत जाते हुए रास्ते में उन्होंने मिश्र के पिरामिडों को देखा और वहां की राजधानी काहिरा (कैरो) की सैर की। कैरो में उन्हें मार्किन के देशी अनाथालय को देखकर बड़ी प्रसन्नता हुई। जून मास में वे इंग्लैण्ड की राजधानी लण्डन शहर में पहुंच गए। उनके ठहरने का प्रबन्ध क्लेरिज होटल (Claridges Hotel) में किया गया। कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स ने उनके मकान बनाने के व्यय को स्वीकार किया था। जब तक दिलीपसिंह के रहने का स्थान न बना, वे होटल में ही रहे। कोर्ट आफ डाइरेक्टर्स के सदस्यों को दिलीपसिंह के सज्जनता पूर्ण व्यवहार को देखकर अत्यन्त विस्मय हुआ। महारानी विक्टोरिया और उनके पति ने महाराज दिलीपसिंह को राजमहल में बुलाकर भेंट की। दिलीपसिंह के व्यवहार से महारानी विक्टोरिया अत्यन्त सन्तुष्ट हुई।

विलायत पहुंचकर दिलीपसिंह स्वदेश-प्रेमी अंग्रेजों को देखकर वेश-भूषा में बहुत कुछ पलट गए। वहां पर वे अधिकतर पंजाबी पोशाक धारण करते। काश्मीरी कुर्ता और काम किया हुआ मखमल का अंगरखा, सिर पर पंजाबी पगड़ी रखते थे, जिसमें एक रत्नजटित सरपेच रहता था। कोर्ट-आफ-वार्ड्स में भी ये इसी पोशाक में जाते थे। महारानी विक्टोरिया के राजमहलों में भी बहुधा लेडी लेगिन के साथ दिलीपसिंह जाते रहते थे। महारानी के पति प्रिंस अलबर्ट इनकी वाक्-चातुरी से अत्यन्त प्रसन्न होते थे। इसलिए ये भी महाराज दिलीपसिंह को प्रायः महलों में बुला लिया करते थे। एक दिन महारानी ने लेडी लेगिन से पूछा कि - “क्या दिलीपसिंह कभी कोहनूर की चर्चा करते हैं? वे कोहनूर के लिए दुखी तो नहीं हैं?” लेडी लेगिन ने कहा - भारतवर्ष में तो इस सम्बन्ध में वह पूछताछ करते थे, परन्तु इंग्लैण्ड आये पीछे उन्होंने कोहनूर का कोई जिक्र नहीं किया। इसके बाद महारानी विक्टोरिया ने लेडी लेगिन से कहा कि - अबकी बार दिलीपसिंह राजमहल में आएं तो उनकी हार्दिक इच्छा देखना कि वे कोहनूर के लिए उत्सुक हैं कि नहीं? लेडी लेगिन ने दूसरी बार राजमहल में आने के एक दिन पूर्व घूमते हुए दिलीपसिंह से पूछा कि - क्या आप कोहनूर देखना चाहते हैं? दिलीपसिंह ने कहा - हां। लेडी लेगिन ने फिर पूछा - उसको देखकर क्या करेंगे? अबके दिलीपसिंह सोच विचार में पड़ गया। थोड़ी देर सोचने के उपरान्त कहा - एक बार मैं उसे फिर अपने हाथ में देखना चाहता हूं। लेडी लेगिन ने पूछा - क्यों? अब आप उसको अपने हाथ में लेकर क्या करेंगे? दिलीपसिंह ने जवाब दिया - “इस बार मैं अपने हाथ से महारानी विक्टोरिया को कोहनूर भेंट देना चाहता हूं। क्योंकि जिस समय सन्धि हुई थी उस समय मैं कम उम्र का था और इन बातों के सोचने की


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मुझ में सामर्थ्य नहीं थी।” दूसरे दिन जब लेडी लेगिन के साथ दिलीपसिंह राजभवन में पहुंचे, तब लेडी लेगिन ने महारानी विक्टोरिया को कोहनूर के सम्बन्ध में हुई बातें सुनाईं।

थोड़ी देर में राजभवन के सदर फाटक से कई पहरे वालों के बीच 'कोहनूर' महल में पहुंचा। दिलीपसिंह को इसकी कोई खबर न थी। महलों में बाहर के रक्षकों को देखकर वह उठने ही लगे थे कि महारानी विक्टोरिया ने कोहनूर को हाथ पर रखकर पूछा कि क्या आप इसे पहचानते हैं? दिलीपसिंह ने उत्तर दिया - हां, यह कोहनूर है। महारानी ने फिर पूछा - क्या आपको यह पहले से अच्छा जान पड़ता है? दिलीपसिंह ने हाथ में लेकर कहा - पहले से इसका तोल घट गया, परन्तु ज्योति कुछ अधिक हो गई है। इसके बाद उन्होंने महारानी विक्टोरिया को उसी प्रकार धैर्य-पूर्वक लौटा दिया। इस वक्त दिलीपसिंह ने बड़ी धीरता का परिचय दिया। जिस कोहनूर को वे भुजा पर धारण करते थे, आज उन्होंने कई दिनों बाद देखकर संयम के साथ कुछ मलीन मन किए बिना लौटा दिया। कालचक्र का प्रभाव जो कुछ न करे थोड़ा है।

इंगलैंड में रहते दिलीपसिंह की वयस 16 साल की हो गई थी और भैरवाल सन्धि तथा सिख-धर्म और भारतवर्ष के नियमानुसार दिलीपसिंह बालिग हो चुके थे, पर इस पर भी वही लार्ड डलहौजी, जिन्होंने भारत से आने के पहले दिलीपसिंह को पुत्र के समान लिखा था, उन्हें इतना भी उदार होना कठिन हो गया कि दिलीपसिंह अपने गृह का भार संभाल लें। सन् 1857 ई० के दिसम्बर महीने में जब दिलीपसिंह 19 वर्ष का हो गया, तब कोर्ट-आफ-बार्ड्स में अत्यन्त वाद-विवाद के बाद यह आज्ञा मिली। इंगलैण्ड में जाकर महाराज ने जर्मन, फ्रैंच, इटैलियन आदि कई भाषायें सीख ली थीं। पंजाब के कुछ स्कूलों और इंगलैण्ड की कई संस्थाओं में वार्षिक दान का भी उन्होंने प्रबन्ध किया था।

इंगलैण्ड में दो वर्ष रहने के पश्चात् दिलीपसिंह की इच्छा भारत आने की हुई। हिन्दुस्तान में रहते ही उनकी इटली सैर की इच्छा थी। अतएव लेडी लेगिन और उसके पति के साथ वे फ्रांस और इटली की सैर को गए। इंगलैण्ड में अखबार पढ़ने का शौक वैसे तो सभी को है पर दिलीपसिंह का इस ओर बहुत ध्यान था। ये भारत सम्बन्धी समाचार खासकर ध्यानपूर्वक पढ़ा करते। उन्होंने यह भी पढ़ा कि अवध-राज अंग्रेजी राज्य में मिल गया है और वहां के नवाब वाजिदअलीशाह को पचास लाख रुपया वार्षिक व्यय के लिए मिलेगा और नवाब के परिवार के अन्य व्यक्तियों का भी गवर्नमेण्ट कुछ प्रबन्ध करेगी। इन समाचारों को पढ़कर दिलीपसिंह के मन में स्वाभाविक प्रतिक्रिया हुई। उन्हें खयाल हुआ ब्रिटिश गवर्नमेण्ट अवध के नवाब के आमोद-प्रमोद के लिए पचास लाख रुपया देती है, तब भला पंजाब-राज्य-अधिपति के परिवार और पुत्र के लिए केवल पांच लाख रुपया!


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 390


सम्भव है ध्यान दिलाने पर कुछ प्रबन्ध हो जाए। इस तरह के भावों से प्रेरित होकर दस दिसम्बर सन् 1856 ई० को उन्होंने कोर्ट ऑफ बार्डस को एक पत्र लिखा, जिसमें निम्नाशय की बातें थीं - “जब मैं दस वर्ष का था उस समय मैंने अपना राज्य अंग्रेज अभिभावक और मन्त्रियों के कहने से गवर्नमेण्ट को सौंप दिया था। मंत्रियों और अभिभावकों ने मुझे सन्धि के नियमों को उत्तम और उदार बतलाकर मुझे स्वीकार करने के लिए कहा था। अब मैं विश्वास करता हूं कि मेरे पूर्व के पद, मान-मर्यादा तथा वर्तमान अवस्था का विचार कर मेरे लिए कोई अच्छा प्रबन्ध किया जायेगा।” डेढ़ मास पीछे उक्त पत्र का उत्तर मिला कि “इंगलैण्ड में रहते हुए महाराज का जो व्यवहार रहा है, उससे कोर्ट ऑफ डाइरेक्टर्स प्रसन्न हैं और निवास-स्थान की कड़ाई से मुक्त करने को तैयार हैं। भारत में महाराज के परिवार में किसको कितनी वृत्ति मिलती है और भविष्य में किसको कितना मिला करेगा, इसका उत्तर भारत से आने पर भेजा जायेगा।” इसी पत्र में निवास स्थान के प्रतिबन्ध के हटा लेने का निश्चय भी लिख दिया था कि इससे वे मुक्त हो गए हैं। महाराज और लिखा-पढ़ी करना ही चाहते थे कि सन् 1857 के गदर के समाचार पहुंच गए। इससे महाराज ने और लिखने का विचार स्थगित कर दिया।

इस वर्ष फ्रांस के तीसरे नेपोलियन और उनकी रानी इऊजन इंगलैण्ड आये तो महारानी विक्टोरिया ने उनसे दिलीपसिंह का परिचय कराया। सम्राज्ञी इऊजिन (नेपोलियन की स्त्री) दिलीपसिंह के व्यवहार से बहुत प्रसन्न हुई। महाराज दिलीपसिंह में मिलनसारी और वार्तालाप का ऐसा ढ़ंग था कि एक बार भेंट होने पर हरेक व्यक्ति मोहित हो जाता। इस गुण के कारण उन्होंने बड़े-बड़े व्यक्तियों को अपनी ओर आकर्षित कर लिया था।

सन् 1859 ई० में महाराज दिलीपसिंह के प्रति एक षड्यंत्र रचा गया। महाराज के नाम का एक ऐसा पत्र बनाया गया, जिससे यह प्रकट होता था कि महाराज दिलीपसिंह अपनी माता को इंगलैण्ड बुलाने का पत्र-व्यवहार कर रहे हैं। जिन छलियों ने यह जाल रचा था, उनकी मंशा थी कि इससे महारानी जिन्दा से कुछ रुपया मिल जायेगा। यह नकली पत्र महाराणा जंगबहादुर के हाथ आ गया और उन्होंने रेजीडेण्ट के जरिये भारत सरकार के पास भेज दिया। भारत सरकार से वह पत्र इंगलैण्ड में कोर्ट-ऑफ-डाइरेक्टर्स में पहुंचा। कोर्ट-ऑफ-डाइरेक्टर्स ने इसकी जांच का भार सर डाक्टर लेगिन को सौंपा। डाक्टर लेगिन की जांच के बाद दिलीपसिंह निर्दोष पाए गए।

महाराज दिलीपसिंह को अपनी माता की कुशल-मंगल जानने की भी तीव्र इच्छा हुई। पं० नेमीगारा जो काशी से कलकत्ता होते हुए महाराज के साथ ही आए थे, इंगलैण्ड से भारत आते समय दिलीपसिंह से जब मिले तो उनसे महाराज


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 391


ने अपनी माता से मिलने का अनुरोध किया और उसके हाथ एक पत्र भी उन्होंने अपनी माता के पास भेजा। हिन्दुस्तान में आने के पीछे लार्ड केनिंग की आज्ञा से नेमीगोरा नैपाल न जाकर नैपाल की राजधानी काठमण्ठू स्थित रेजीडेण्ट के पास दिलीपसिंह का पत्र महारानी जिन्दा के पास पहुंचाने के लिए गए। रेजीडेण्ट ने उक्त पत्र मनीराम नामक व्यक्ति के हाथ महारानी जिन्दा के पास पहुंचा दिया। इस पत्र में महाराज दलीपसिंह ने अपनी माता को नैपाल में ही शान्ति के साथ रहने की सलाह लिखी थी।

महाराज दिलीपसिंह को अब तक खाने-पीने और सैर करने के सिवाय कोई चिन्ता न थी। इसी से महाराज ने अपना धर्म-परिवर्तन भी किया, परन्तु आगे जाकर क्या-क्या होना है, इसका उन्हें स्वप्न में भी खयाल नहीं था। पाठक धैर्यपूर्वक इस दुखद परिवर्तन को पढ़ते जाएं, देखें महाराज दिलीपसिंह के भविष्य का काल कितना करुणामय हुआ जाता है। सन् 1859 ई० 20 मई को महाराज दिलीपसिंह को लार्ड स्टेनली का एक पत्र मिला जिसमें लिखा था - “अंग्रेजी कानून के अनुसार आप बालिग हो गए हैं। अब आपको 25000 पौंड वार्षिक वृत्ति मिला करेगी।” महाराज दिलीपसिंह ने 3 जून को पूछा - “यह वृत्ति जीवन भर मेरे लिए ही रहेगी या मेरे उत्तराधिकारी को भी वंशपरागत मिलेगी?” इसका उत्तर सर चार्लसबुड ने 27 जून को यों दिया - “पच्चीस हजार पौंड में से उनके जीवन-काल के लिए पन्द्रह हजार पौंड दिए जायेंगे। बाकी दस हजार पौंड में से उनकी स्त्री के लिए तीन हजार पौंड वार्षिक की व्यवस्था की जायेगी और इंगलैण्ड के कानून के अनुसार बाकी धन में से उनके उत्तराधिकारियों को बांट दिया जायेगा। यदि महाराज के कोई उत्तराधिकारी न हुआ तो असल मुद्रा और ब्याज मिलकर जो होगा उसमें से दस हजार पौंड वार्षिक महाराज को दिया जायेगा।” इसके बाद महाराज ने पहली नवम्बर को गवर्नमेण्ट को फिर लिखा - “उत्तराधिकारी के अभाव में जो धन इकट्ठा हो, उसको पंजाब में शिक्षा-प्रचार के लिए व्यय किया जाए और उसकी व्यवस्था का भार गवर्नमेण्ट द्वारा निर्वाचित व्यक्तियों पर सौंपा जाए।” कितना ही क्यों न हो पर देश-प्रेम की चाह कितनी होती है, इस पत्र से जाना जा सकता है कि ऐसी विषम दशा में होते हुए भी महाराज ने पंजाब शिक्षा-प्रचार का स्मरण किया। धर्म छोड़ दिया, देश छोड़ दिया, राज्य चला गया, मां-बन्धु सभी बिछुड़ चुके पर हृदय तू भी क्या वस्तु है, देश के लिए तेरे अन्दर कितना स्थान है!

जो सामान सिपाही-विद्रोह में फतहगढ़ के मकान से जा चुका था, उसकी क्षति-पूर्ति के लिए भी गवर्नमेण्ट से महाराज ने लिखा-पढ़ी की। परन्तु सन्तोषजनक उत्तर न मिला। इससे महाराज बहुत दुखी हुए। नवम्बर के महीने में उन्होंने डाक्टर लेगिन से कहा “मैं अब सम्पूर्ण धैर्य खो चुका। कृपा कर उसकी चेष्टा


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कीजिए कि सरकार मेरे लिए कुछ प्रबन्ध करे और मेरा बाकी रुपया दे। मुझे ऐसा ठीक मालूम हो रहा है कि गवर्नमेण्ट को इसे निबटाने में जल्दी करते-करते भी एक वर्ष लग जायेगा। मुझे ऋण-ग्रस्त होने की आशंका है। अतः आप पर ही गवर्नमेण्ट से इसके निर्णय कराने का भार है। दो महीने समाप्त हो गए पर इसका कुछ भी उत्तर नहीं मिला है।” इस वक्त दिलीपसिंह की हालत बड़ी नाजुक हो गई थी। वे आर्थिक कष्ट से ऊब रहे थे और बहुत अंशों में ऋण-ग्रस्त हो चुके थे। उन्होंने इस सम्बन्ध में तय करने के लिए सर चार्ल्सबुड से भेंट की और कोर्ट-ऑफ-डाइरेक्टर्स को सब बातों की जांच कराने के लिए निवेदन किया। सर चार्ल्सबुड ने दिलीपसिंह से एक पत्र यों लिखा लिया कि महाराज अपने खर्च के लिए पच्चीस हजार पौण्ड वार्षिक चाहते हैं और मृत्यु के बाद अपने उत्तराधिकारियों के लिए बीस हजार पौण्ड की प्रार्थना करते हैं। उत्तराधिकारी के अभाव में इस धन को भारत-हित के लिए खर्च करने का अधिकार चाहते हैं। इससे उनका फिर भारत-गवर्नमेंट पर कुछ दावा नहीं है। (जनवरी 20 सन् 1860, दिलीपसिंह)।

30 मार्च को सर चार्ल्स द्वारा लिखित पत्र का उत्तर कोर्ट-ऑफ-डाइरेक्टर्स ने दिया। उसमें लिखा था कि - “1849 ई० में की गई संधि के अनुसार वृत्ति में से महाराज को कितना पावना है, यह जानने का महाराज को कोई अधिकार नहीं है।” इस पत्र में यह भी स्वीकार किया था कि निश्चित वृत्ति में से रुपया प्रतिवर्ष बचा ही है। सम्भव है डेढ़ सौ हजार पौण्ड से दो हजार पौण्ड तक बच रहा हो। जिसके लिए जो वृत्ति नियत की गई है उसको और किसी काम में व्यय करने का उद्देश्य ब्रिटिश सरकार का नहीं है। 3 अप्रैल 1860 को दिलीपसिंह ने इसका प्रत्युत्तर इस प्रकार दिया - “सर चार्ल्स बुड से भेंट करके मैंने जो पत्र लिखा है उसके लिए मुझे अत्यन्त दुख है। सन् 1849 ई० की संधि के अनुसार किस-किस वृत्ति पाने वाले की मृत्यु हो गई है और उसमें से कितनी रकम जमा है, जब तक मुझे इसका पूरा-पूरा वृत्तान्त नहीं मिलेगा, तब तक मैं अपना दावा नहीं छोड़ सकता।” इस पत्र का किसी प्रकार का उत्तर डेढ़ वर्ष तक नहीं आया। आजकल या तब की भी यह राजनीति (!) है।

इंग्लैंण्ड में रहकर महाराज का यह खास गुण था कि वे चरित्र-भ्रष्ट नहीं हुए। भारतवर्ष से इंग्लैण्ड जाने के समय जैसे दिलीपसिंह के विचार थे, उनसे तो अच्छे लक्षण नहीं दीखते थे, परन्तु वहां (इंग्लैण्ड) पहुंच कर एक दम परिवर्तन हो गया।

स्वदेश की ओर

महारानी जिन्दा इस समय नैपाल में महाराज जंगबहादुर के आश्रय में समय काट रही थीं। यद्यपि महाराज के दरबार से बीस हजार रुपया वार्षिक वृत्ति बंधी


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हुई थी, पर तो भी महारानी को इस तरह के रुपये लेना अखरता था। इसमें कारण यह था कि दरबार नैपाल को भी यह बीस हजार रुपया देना न रुचता था और कई कारणों से वे रानी जिन्दा के नैपाल में रहने के पक्ष में न थे।

इंग्लैण्ड पहुंच जाने के बाद, महाराज दिलीपसिंह को अपनी माता के सम्बन्ध की बातें जानने की उत्कण्ठा हुई। वहां पहुंच कर वे भूल नहीं गए। उनके समाचार कोर्ट-ऑफ-वार्डस से जानने की इच्छा करते रहते। सन् 1860 ई० के दिसम्बर में जब दिलीपसिंह की भारत आने की इच्छा हुई, इसमें एक करण यह भी था कि वे अपनी माता के रहने आदि का प्रबन्ध करना चाहते थे। दूसरे, उन्हें शेर का शिकार खेलने की भी बड़ी इच्छा थी। महारानी जिन्दा ने जब एक अपरिचित व्यक्ति द्वारा ब्रिटिश गवर्नमेण्ट से अपने प्रबन्ध के लिए प्रार्थना की और शेरसिंह को यह मालूम हुआ तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। उन्हें यह बहुत बुरा लगा कि एक अपरिचित व्यक्ति द्वारा भारत सरकार से निवेदन किया। इस प्रार्थना-पत्र की बातें जब नैपाल-दरबार ने सुनीं तो उन्होंने यहां तक कह दिया कि महारानी जिन्दा ने यदि ब्रिटिश भारत में पैर भी रख लिया तो वे नैपाल से तो सदा के लिए गई हीं, साथ ही एक पाई भी वृत्ति की उन्हें नहीं दी जाएगी। इन सब बातों को जानकर दिलीपसिंह को और भी अधिक दुख हुआ और उन्होंने डाक्टर लेगिन द्वारा भारतवर्ष लौटने की प्रार्थना की। इसके प्रत्युत्तर में जवाब मिला कि महाराज दिलीपसिंह के हिन्दुस्तान आने से गवर्नर-जनरल को कोई आपत्ति नहीं, परन्तु वे पंजाब में नहीं जा सकते। दिलीपसिंह की माता के ब्रिटिश भारत में रहने में भी गवर्नर-जनरल को कोई आपत्ति नहीं है।

महाराज दिलीपसिंह ने अपनी वृत्ति और गदर में नष्ट हुई सम्पत्ति का भार लेगिन को सौंपा और सन् 1861 के जनवरी मास में वह भारतवर्ष आ गए। कलकत्ते में वे स्पेन्सेस होटल में ठहरे। यहीं पर वह अपने भतीजे सहदेवसिंह से मिले और अपनी माता को नैपाल से बुलाने का इन्तजाम किया। उन्होंने अपना आदमी रानीगंज में ही महारानी जिन्दा के पास भेज दिया। इस समय ही महाराज दिलीपसिंह को मालूम हुआ कि ब्रिटिश गवर्नमेण्ट ने उनकी महारानी जिन्दा के लिए सिर्फ कम-से-कम 2 हजार और अधिक से अधिक 3 हजार रुपया वार्षिक वृत्ति तय की है। यह जानकर उन्हें अत्यन्त क्षोभ और दुख हुआ।

बारह वर्ष के बाद पुत्र और माता की भेंट हुई। इतने दिनों के बाद रानी ने पुत्र से मिल कर अपने भाग्य को धन्य समझा। दिलीपसिंह ने भी माता के चरणों में सिर टेक दिया। अपनी माता की दशा देखकर दिलीपसिंह की आत्मा रोने लगी।

दिलीपसिंह के कलकत्ते में रहते हुए भी बहुत से सिख उनसे मिलने आते। चीन से बहुत से सिक्ख-सैनिक उस समय कलकत्ता आये हुए थे। जब उन्हें यह ज्ञात


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हुआ कि महाराज रणजीतसिंह के पुत्र दिलीपसिंह यहां आए हैं तो वे बड़ी खुशी से होटल को घेर कर अपनी रीति के अनुसार अभिवादन प्रकट करने लगे। हिन्दुस्तान भर में यह खबर बिजली की तरह फैल गई और खास कर सिख-सरदारों में तो बहुत श्रद्धा हुई। वे दूर-दूर से दिलीपसिंह से भेंट करने आने लगे। कलकत्ते में लार्ड केनिंग ने कई बार दिलीपसिंह से भेंट की। उन्हें यह पता न था कि महाराज दिलीपसिंह के ईसाई हो जाने और समुद्र-यात्रा कर लेने पर भी सिख लोगों की इतनी भक्ति होगी। वे इन सबको देखकर सचेत हो गए और दिलीपसिंह से अनुरोध पूर्वक भारत छोड़ देने की सलाह दी। दिलीपसिंह विवश इंग्लैण्ड जाने के लिए तैयार हो गए।

जब दिलीपसिंह के इंग्लैण्ड जाने का निश्चय हो गया और महारानी जिन्दा को इसका पता लगा तो वे अत्यन्त दुखी हुईं। हम पहले ही कह आए हैं कि महारानी की ऐसी अवस्था न थी कि वे इतने दिन बाद मिले पुत्र का बिछोह सह सकें। अतः वे भी इंग्लैण्ड जाने को राजी हो गईं। सरकार भला इसमें क्यों रुकावट डालने लगी? महारानी के भी जाने की आज्ञा दे दी। क्योंकि गवर्नमेंट का तो इरादा ही था कि वे लंका में रखी जाएं। सरकार ने सोचा कि अपने आप क्लेश कटा। चुनार के किले से भागते वक्त महारानी के कुछ गहने आदि वस्तुएं छूट गईं थीं, वे भी महारानी को दे दीं गईं। इस तरह महारानी जिन्दा और दिलीपसिंह जुलाई मास में इंग्लैण्ड पहुंच गए। भारत में पहुंच कर शेर के शिकार का अरमान दिल का दिल में ही रह गया।

विलायत पहुंच कर महारानी को बड़ा आश्चर्य हुआ। उनके लिए अंग्रेजों के रहन-सहन और ढंग सब कौतूहलप्रद थे। दिलीपसिंह ने इंग्लैण्ड पहुंच कर नागरिक अधिकार की प्रार्थना की और वह स्वीकार भी कर ली गई। महारानी जिन्दा के आ जाने से दिलीपसिंह के गिर्जे में जाने आदि ईसाई-धर्म की भावना में कुछ कमी आ गई थी। ईसामसीह के उपासकों में इस बात की विशेष चिन्ता हुई। उन्होंने यह जान लिया कि उनकी माता के आने के कारण ही ऐसा हुआ है। फलस्वरूप महारानी जिन्दा को भारत लौटाने तक की बात सोच ली गई। परन्तु महाराज दिलीपसिंह भी अपनी माता के साथ भारतवर्ष लौटना चाहते थे, इसीलिए बहुत वाद-विवाद के बाद दिलीपसिंह की माता का उनसे दूर रहने का प्रबन्ध किया गया। इन सब बातों से महारानी जिन्दा को हार्दिक वेदना हुई। वे अस्वस्थ तो सदा ही रहती थीं। सन् 1863 ई० के अगस्त महीने में वे स्वर्ग सिधार गईं।

मरते समय महारानी ने दाहसंस्कार (अंत्येष्ठि) भारत में करने की इच्छा प्रकट की थी। किन्तु कई एक कठिनाइयों के कारण उस समय दिलीपसिंह भारत न आ सके। कई एक मसालों के साथ शव सम्हाल कर इंग्लैण्ड में ही रखा गया।


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सन् 1864 ई० में दिलीपसिंह ने बम्बई से नर्मदा नदी के तट पर पहुंचकर अपनी माता के शव का दाह-संस्कार किया और फिर इंग्लैण्ड लौट गये।

इस बीच में डॉक्टर लेगिन की भी मृत्यु हो गई थी। इससे दिलीपसिंह को माता के बिछोह-दुख के साथ ही डॉक्टर साहब के मरने का भी बहुत दुख हुआ था। लेगिन की समाधि पर दिलीपसिंह ने पत्थर का एक स्तंभ भी बनवा दिया था। अपनी माता और डॉक्टर साहब की मृत्यु से उन्हें इतना अधिक कष्ट हुआ था कि उस समय लेडी लेगिन से कहा - “मेरा विचार अब किसी उच्च वंश की रमणी से विवाह न करके किसी अनाथ, सुशील बालिका से करने का है। मैं स्वयं उसे शिक्षा देकर अपनी चिरसंगिनी बना लूंगा। संभव है इससे मुझे शान्ति मिले।”

सन् 1863 ई० में दिलीपसिंह को 'सितारे-हिन्द' की उपाधि मिली थी। पता नहीं इस उपाधि से उन्हें कितनी प्रसन्नता हुई जब कि उनके पत्रों का उत्तर ही डेढ़-डेढ़ बरस तक नहीं मिलता था। भारत से लौटते समय मिश्र की राजधानी काहिरा में दिलीपसिंह एक महिला पर आसक्त हो गए थे। उससे विवाह का प्रस्ताव किया, वह भी राजी हो गई। अतएव दिलीपसिंह ने उससे शादी कर ली। उस स्त्री का नाम बम्बूला था और उस समय उसकी उम्र 16 वर्ष की थी। दिलीपसिंह इस शादी से अत्यन्त प्रसन्न हुए थे। इंग्लैण्ड में महारानी बम्बा के पढ़ाने का प्रबन्ध भी महाराज ने कर दिया था, जिससे उनका पारस्परिक प्रेम भी बढ़ गया था।

विद्रोही दिलीप

ब्रिटिश गवर्नमेण्ट से महाराज दिलीपसिंह के वृत्ति सम्बन्धी पत्र-व्यवहार का हाल पहले ही लिखा जा चुका है। महाराज जब भारतवर्ष गए, तब इसका भार लेगिन पर छोड़ गए थे। परन्तु कोई सन्तोषजनक व्यवस्था नहीं हुई थी। दिलीपसिंह चाहते थे कि सन्धि के अनुसार कम से कम चार हजार और अधिक से अधिक वृत्ति उन्हें मिलनी चाहिए। चूंकि वह बालिग हो गए हैं और महाराज रणजीतसिंह के राज्याधिकारी हैं, इसलिए वह वृत्ति जो महाराज रणजीतसिंह के कुटुम्ब वालों को दी जाती है, उनके द्वारा ही दी जाएं और जो व्यक्ति वृत्ति लेते-लेते मर गया है, उसके बाद का जमा हुआ रुपया भी उन्हें मिले। पर गवर्नमेण्ट इससे सहमत न थी। सर चार्ल्स वुड ने दिलीपसिंह को सूचित किया कि - सन् 1849 ई० की सन्धि के अनुसार कम से कम चार लाख और अधिक से अधिक पांच लाख रुपया दिलीपसिंह एवं उनके कुटुम्बियों के लिए तय हुआ था। उसमें से महाराज के लिए जितना रुपया निश्चित हुआ था, वही उन्हें मिलेगा और यह भी जब तक महाराज जीवित रहेंगे, और अन्य व्यक्तियों के लिए भी जो वृत्ति तय हुई है, उनके जीने तक ही मिलेगी। वृत्ति-भोगियों के मरने पर जो रुपया बचेगा वह महाराज को न दिया जाकर गवर्नमेण्ट के खजाने में जमा रक्खा जाएगा। इस प्रकार जितना रुपया


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अब तक बचा है, उसका कुछ हिसाब नहीं है। वह करीब डेढ़ लाख से दो लाख पौंड होगा। दिलीपसिंह को इस उत्तर से बड़ा कष्ट हुआ। उन्होंने इसके प्रतिवाद करने के लिए बहुत लिखा-पढ़ी की, परन्तु कुछ परिणाम न निकला। सर जान लारैन्स आदि कई अंग्रेजों को इसका निबटारा कराने के लिए कहा पर सफल न हुए।

महाराज दिलीपसिंह ने सन् 1882 के अगस्त मास की 31वीं तारीख के 'टाइम्स' में अपनी एक दुख-भरी कथा छपवाई और इंग्लैण्ड की जनता से अपने दुखों को दूर कराने एवं न्याय कराने की अपील की, परन्तु इसका किसी सज्जन पर कुछ प्रभाव न पड़ा। यहां तक कि किसी ने उनके साथ समवेदना भी प्रकट न की। दिलीपसिंह को स्वप्न में भी आशा न थी कि उनके साथ ऐसा अन्याय किया जाएगा। वे हमेशा के लिए भारतवर्ष आकर रहना चाहते थे, परन्तु लेडी लेगिन ने उन्हें इंग्लैण्ड में ही महारानी विक्टोरिया की कृपा पर अवलम्बित रहने की राय दी। इसके बाद महाराज तीन साल तक इंग्लैण्ड में रहे। उन्हें रूखा जवाब मिल गया कि उनकी सन्तान के लिए कुछ प्रबन्ध नहीं किया जाएगा। तब उनका हृदय इंग्लैण्ड-वास से ऊब गया। उन्होंने अपनी जो जमींदारी थी उसे बेच कर भारतवर्ष आने का इरादा किया। यह देखकर सरकार को भय हुआ कि दिलीपसिंह के पहुंचते ही भारत में क्रान्ति खड़ी हो जाएगी। सर बेलवर्न ने सरकार की ओर से महाराज दिलीपसिंह को सन्देश दिया कि अगर आप इंग्लैण्ड में रहें तो सरकार आपके दावे के लिए पचास हजार पौंड देगी। दिलीपसिंह ने यह बात अस्वीकार कर दी। भारत आने का पासपोर्ट भी प्राप्त हो गया और सरकारी आज्ञा हुई कि वे पंजाब नहीं जा सकेंगे और भारत पहुंचने पर उन्हें नजरबन्दी की हालत में रहना होगा। यह सब होने पर भी दिलीपसिंह ने भारतवर्ष के लिए यात्रा कर दी। रवाना होने के पहले अपनी जन्मभूमि पंजाब के नाम एक पत्र भेजा जिसे 'पंजाब-हरण' के लेखक ने 'भारत-कीर्त्ति' से उद्धृत कर अपनी पुस्तक में प्रकाशित किया है। वह इस प्रकार है -

“लण्डन 25 मार्च सन् 1886 ई०।
“मेरे प्यारे देशवासियो!
“भारत में आकर रहने और बसने की मेरी इच्छा कभी नहीं थी, परन्तु सदगुरु सबके विधाता हैं। वह सबसे अधिक शक्तिमान हैं। मैं उनका भ्रान्त जीव हूं। मेरी इच्छा न होने पर भी मैं उनकी इच्छा से इंग्लैण्ड को छोड़ भारतवर्ष में जाकर साधारण रूप से बसूंगा। मैं सदगुरु की इच्छा के सामने मस्तक नबाता हूं। जो इच्छा है वही होगा।
“खालसाओ! मैं अपने पूर्व पुरुषाओं के धर्म को त्याग कर, पर-धर्म ग्रहण करने

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के लिए आप लोगों से क्षमा मांगता हूं, परन्तु जिस समय मैंने क्रिश्चियन धर्म की दीक्षा ली थी, उस समय मेरी अवस्था छोटी थी।
“मैं बम्बई पहुंच कर फिर सिक्ख-धर्म ग्रहण करूंगा। बाबा नानक की आज्ञानुसार चलूंगा और गुरु गोविन्दसिंह की आज्ञा का पालन करूंगा।
“मेरी अधिक इच्छा होने पर भी मैं पंजाब आकर आप लोगों से नहीं मिल सकूंगा। इस कारण आप लोगों को यह पत्र लिखने में लाचार हुआ हूं।
“भारत-साम्राज्य की अधीश्वरी में जो मेरी परम भक्ति है, उसका उचित पुरस्कार पा लिया है। सदगुरु की इच्छा पूर्ण हो। वाहगुरु जी की फतेह। वाहगुरु जी का खालसा।
“प्रिय देशवासियो, मैं आपका अपना मांस और रक्त - दिलीपसिंह हूं।”

उपर्युक्त पत्र के प्रकाशित होते ही समस्त भारतवर्ष में सनसनी फैल गई। पंजाब में तो इसके कारण सिखों के आनन्द का ठिकाना न रहा। कितने ही वर्षों के बाद उनका महाराज आ रहा है, यह सुनकर प्रफुल्लित हो उठे। दिलीपसिंह को किसी पंजाबी द्वारा एक पत्र भी भेजा गया। सिख-युद्ध-इतिहास से अनुवाद कर उस पत्र को 'पंजाब केसरी' के लेखक ने अपनी पुस्तक में छापा है। हम भी उसे उद्धृत करते हैं। वह पत्र इस प्रकार है -

“प्यारे महाराज!
“यद्यपि मैं आपके देशवासियों में से अज्ञात व्यक्ति हूं, आपके इंग्लैंड परित्याग करने और सिख-धर्म को ग्रहण करने के लिए दृढ़-प्रतिज्ञ देखकर जो आनन्द हुआ है, उसको प्रकट करना असम्भव है। पंजाब ही क्यों समस्त भारत, ब्रिटिश गवर्नमेंट ने जो आपके ऊपर अत्याचार किया है, उसके लिए रो रहा है।
“प्यारे महाराज! इस समय ऐसा कोई आदमी नहीं है, जिसको आपके प्रति सहानुभूति न हो। पर खाली सहानुभूति से हम आपकी क्या भलाई कर सकते हैं? आपको हम अपने बीच में पाकर अत्यन्त प्रसन्न होंगे। जब गवर्नमेंट आपको सब सुखों से वंचित करने को तैयार है, तब आपको अपने देशवासियों की सहानुभूति और प्रीति से शान्ति होगी। आपने हम लोगों को अपना देशवासी और शुभचिन्तक कहकर सम्बोधित किया है, इससे बढ़कर हम लोगों का क्या सौभाग्य हो सकता है? आपके अनेक देशवासी आपका स्वागत करने को उत्सुक हैं। पर जिस गवर्नमेंट ने आपको यहां तक आने के लिए मजबूर किया, वह गवर्नमेंट और किसी तरह की बाधा न कर दे। यह भय हम लोगों को हो रहा है।
“प्यारे महाराज! आपका सुविश्वस्त शुभचिन्तक और स्वदेशी - एक नम्र निवेदक पंजाबी।”

महाराज दिलीपसिंह के इंग्लैण्ड से रवाना हो जाने पर गवर्नमेंट सचेत हो गई


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 398


थी। पंजाब के समाचारों से भारत सरकार जानती थी कि दिलीपसिंह के आने के समाचार से सिख प्रसन्न हो रहे हैं। इन पत्रों के प्रकाशित होते ही और भी भय बढ़ गया कि पता नहीं दिलीपसिंह के आने पर कितना आन्दोलन खड़ा हो जाए। गवर्नमेंट ने दिलीपसिंह को एडिन पर पहुंचते ही भारतवर्ष आने से रोक, बन्दी कर लिया। महाराज गवर्नमेंट के इस बर्ताव से अत्यन्त निराश और दुखी हुए। उन्होंने प्रकाश्य रूप से जांच कराने के लिए महारानी विक्टोरिया को तार दिया और एक तार गवर्नर जनरल भारतवर्ष को दिया कि मैं एडिन से अपना वकील कौन्सिल में भेजूं तो मुझे खर्च मिलेगा या नहीं? पर इन दोनों तारों का ही यथोचित उत्तर नहीं मिला।

वे बलपूर्वक विलायत लौटा दिए गए। इंग्लैण्ड पहुंचने पर वे बहुत खिन्न रहने लगे। जिस दिलीप ने एक दिन शान्तिपूर्वक कोहनूर को हाथ में लेकर भी लौटा दिया था, वही दिलीपसिंह अब एक दिन महारानी विक्टोरिया के हाथ में कोहनूर देखकर दृढ़तापूर्वक बोला कि - “यह हीरा मेरे पिता का है, इस पर महारानी का कोई अधिकार नहीं है।” दिलीपसिंह बहुधा इस समय बड़बड़ाया करते - “मेरी बाल्यावस्था में मेरे अभिभावकों ने जबरदस्ती मेरे से सन्धि पर हस्ताक्षर करवा के पंजाब का राज्य जब्त कर लिया था। अब वह सन्धि मुझे स्वीकार नहीं है।” गवर्नमेंट को इन सब बातों से दिलीपसिंह का विश्वास न रहा और उनकी कड़ी देख-रेख की जाने लगी। इस अवस्था में दिलीपसिंह ने सरकार से जो कुछ वृत्ति मिलती थी, उसे भी अस्वीकृत कर दिया और किसी तरह का प्रबन्ध कर फ्रांस चले गए

फ्रांस पहुंच कर दिलीपसिंह ने वहां के शासक से सेना की सहायता के साथ अपने को पाण्डेचेरी भेजने की प्रार्थना की। पर उनकी प्रार्थना अस्वीकृत हुई। यहां से उन्होंने किसी तरह अपना जाली नाम रख कर रूस का पासपोर्ट भी लिया और अपने एक नौकर के साथ जर्मनी पहुंच गए। पर रास्ते में रूस का पासपोर्ट और सब रुपया चोरी हो गया। इस पर महाराज ने अपना असली नाम और परिचय 'मास्को गजट' के केटकफेक सज्जन के पास भेजा। सम्पादक महोदय ने ऐसा प्रबन्ध कर दिया कि महाराज सन् 1887 ई० के अप्रैल में मास्को पहुंच गए। इस समय महाराज अपने को इंग्लैण्ड का बैरी कहने में नहीं हिचकते थे। जून महीने में मास्को के शासनकर्ता ने महाराज से भेंट की। मास्को के शासक द्वारा उन्होंने एक प्रार्थना-पत्र रूस-सम्राट एलकजेण्ड्रोव के पास भेजा। कुछ समय पीछे महाराज को अपनी रानी के स्वर्गवास का समाचार मिला जिससे महाराज को अत्यन्त दुःख हुआ और वे शोक से विह्वल हो गए।

सन् 1887 ई० के अक्टूबर महीने में महाराज ने हिन्दोस्तान के मुख्य-मुख्य समाचार-पत्रों में एक अपील प्रकाशित करवाई जिसमें 1849 में हुई सन्धि को


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 399


अपने बाल्यावस्था में कराने का कारण बताते हुए सन्धि की घोषणा के साथ यह भी लिखा कि अब मैं रूस के शासक की सहायता से सेना लेकर भारतवर्ष में आने वाला हूं। महाराज ने भारत वालों को आर्थिक सहायता देने की ओर भी आकर्षित किया। पर न तो किसी भारतवासी ने ही सुध ली और न रूस-सम्राट ने ही कुछ ध्यान दिया। दिलीपसिंह किंकर्तव्यविमूढ़ की भांति हताश हो रूस छोड़ फ्रांस चले गये।

फ्रांस की राजधानी पेरिस पहुंच कर कुछ दिन बाद उनको संघातिक रोग हो गया। उनके पुत्र बीमारी का समाचार पाकर इंगलैंड से पेरिस आये। दिलीपसिंह के तीन पुत्र और 3 लड़कियां थीं। बड़े पुत्र विक्टर दिलीप ने पेरिस पहुंच दिलीपसिंह की भली-भांति सेवा की। बीमारी की हालत में ही महाराज दिलीपसिंह का चित्त चंचल हो उठा था। उन्हें किसी ओर भी शान्ति नहीं दिखलाई पड़ती थी। उद्विग्न विचारों से प्रेरित हो दिलीपसिंह ने महारानी विक्टोरिया द्वारा आज्ञा प्राप्त की कि इंगलैंड में आने से उन पर कोई मुकदमा न चलाया जायेगा। स्वस्थ होने पर महाराज इंगलैंड गए भी, पर वहां रहे नहीं। यहां यह बता देना आवश्यक है कि जब महाराज एडिन से लौटाए गए थे, तब उन्होंने ईसाई मत छोड़ कर सिख-धर्म ग्रहण कर लिया था। इस बीच में उन्होंने एक फ्रेंच स्त्री से पाणिग्रहण कर लिया था। पर इससे कोई सन्तान न हुई।

सन् 1893 ई० की 20 अक्टूबर को पेरिस के एक होटल में दिलीपसिंह का स्वर्गवास हो गया। उनको तपेदिक के रोग ने घेर लिया था और इसी के कारण उनकी मृत्यु हुई। 29 अक्टूबर को एल भेडन प्रासाद के समाधिस्थल में उनको दफनाया गया। इस तरह से उस प्रबल प्रतापी रणजीतसिंह के जिसके कि सामने किसी समय अंग्रेज सन्धि-भिक्षा की याचना के लिए दुम हिलाते हुए पीछे-पीछे फिरा करते थे, उसी के लाड़ले पुत्र को इन परिस्थितियों में डाल दिया जिन्हें कि भारतीय हमेशा बेईमानों की चालें समझते रहेंगे, और यह कभी नहीं कहा जायेगा कि ब्रिटिश-सिंह ने वीरतापूर्वक पंजाब का राज्य जीता था।

लेकिन जब तक तेजसिंह और लालसिंह के समान देश तथा जाति-द्रोही किसी देश के अन्दर पैदा होते रहेंगे, तब तक अंग्रेजों से भी अधिक पैंतरेबाज लोगों की पौ-बारह होती रहेंगी और देश की आजादी का समय आगे खिसकता रहेगा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 400


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नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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