Hazara

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Hazara (Hindi: हजारा, Hindko/Urdu: ہزارہ‎, Pashto: هزاره‎) is a region in the North-Eastern part of the Khyber Pakhtunkhwa province of Pakistan.

Location

It is located east of the Indus River and comprises six districts: Abbottabad, Battagram, Haripur, Mansehra, Kohistan, and New District Torghar.

Origin of name

"The origin of the name Hazāra is obscure." This source continues: "It has been identified with Abisāra, the country of Abisares, the chief of the Indian mountaineers at the time of Alexander's invasion.[1]

The name Hazara has also been derived from Urasā, or 'Urasha', an ancient Sanskrit name for this region, according to Aurel Stein. Some Indologists including H. C. Raychaudhury, B. N. Mukerjee, B. C. Law, J. C. Vidyalankar, M. Witzel, M. R. Singh and K. N. Dhar concur with Stein's identification of modern Hazara with ancient Urasa.[2]

It is also possible that the name Hazara comes from the phrase Hazara-i-Karlugh.

Evidence from the seventh-century Chinese traveller Xuanzang,[3] in combination with much earlier evidence from the Indian epic the Mahabharata,[4] attests that Poonch and Hazara District of Kashmir had formed parts of the ancient state of Kamboja, whose rulers followed a republican form of government.[5]

History

Alexander the Great, after conquering parts of the Northern Punjab, established his rule over a large part of Hazara. In 327 B.C., Alexander handed the area over to Abisaras (Αβισαρης), the raja of Poonch state.

Hazara remained a part of the Taxila administration during the rule of the Maurya dynasty. Ashoka the Great was the governor of the area when he was a prince. After the death of his father Bindusara around 272 B.C., Ashoka inherited the throne and ruled this area as well as Gandhara. Today, the Edicts of Ashoka inscribed on three large boulders near Bareri Hill serve as evidence of his rule there. The Mansehra rocks record fourteen of Ashoka's edicts, presenting aspects of the emperor's dharma or righteous law, and represent the earliest irrefutable evidence of writing in South Asia. Dating to middle of the third century BC, they are written from right to left in the Kharosthi script.[6]

Hazara has several places of significance for the Hindus related to the Pandavas.

“ 'There are the five Pandavas, the heroes of the Mahabharata favourite objects of worship in the east and sometimes addressed as the Panj Pir. Many are the legends current about these heroes and they are localised at quite a number of places. The Hill of Mokshpuri, just above Dunga Gali has an elevation of 9232 feet. Its name means 'the hill of salvation' and on its summit is a Panduan da Sthan, or place of the Pandavas, where it is said they were visited and tempted by Apsaras who still frequent the place .[7]

In the 2nd century CE, a mythical king Raja Risalu, son of Raja Salbahan of Sialkot, supposedly brought the area under his control. The local people consider him as a popular folk hero. When a Chinese pilgrim, Hiun-Tsang, visited this area, it was under the control of Raja Durlabhavardhana, the ruler of Kashmir.

The Shahi dynasties ruled Hazara one after another. Among the Hindu Shahi dynasty rulers, Raja Jayapala is the best known. Mahmud of Ghazni defeated Raja Jayapala during his first campaign. However, there is no historical evidence that Mehmood of Ghazni ever visited or passed through Mansehra. After the fall of the Shahi dynasty, in the 11th century, the Kashmiris took control of the area under the leadership of Kalasha (1063 to 1089). From 1112 to 1120, King Susala ruled the area.

In the 12th century, Asalat Khan captured this area but soon after Mohammad of Ghor's death the Kashmiris once again regained control of Hazara.

Amb and its surrounding areas of Hazara have a long history which can be traced to Alexander the Great's invasion of India. Arrian, Alexander's historian, did not indicate the exact location of Embolina, but since it is known that Aoronos was on the right bank of the River Indus, the town chosen to serve as Alexander's base of supplies may with good reason be also looked for there. The mention in Ptolemy's Geography of Embolima as a town of Indo-Scythia situated on the Indus supports this theory.

In 1854 Major James Abbott, the British frontier officer from whom Abbottabad, administrative centre of Hazara, takes its name, discussed his location of Aornos on the Mahaban range south of Buner. He proposed, as M. Court, one of Ranjit Singh's French generals had done before him in 1839, to recognize Embolima in the present village of Amb situated on the right bank of the Indus. It lies about 8 miles to the east of Mahaban and is the place from which the later Nawabs of Amb take their title.[8]

जाटों का विस्तार

डॉ रणजीतसिंह[9] भारत भूमि में जाटों के विस्तार को देखते हुए योगेन्द्रपाल शास्त्री [10] ने लिखा है कि ...."जाट अपने आदि देश भारतवर्ष के कोने-कोने में नहीं वरन उपजाऊ प्रदेशों की ऊंची भूमियों पर बसे हुए हैं। नदियों की अति निकटवर्ती खादर भूमि या पहाड़ों की तलहटी में उनकी सामूहिक विद्यमानता नहीं पाई जाती। डेरा गाजी खां, डेरा इस्माइल खां, डेरा फतेह खाँ, बन्नू, कोहाट, हजारा, नौशेरा, सियालकोट, गुजरात, गुजरान वाला, लायलपुर, मिंटगुमरी, लाहौर की चुनिया तहसील में कुल मिलाकर 25 लाख जाट आज भी बसे हुए हैं। यद्यपि इनका धर्म है इस्लाम है किंतु रक्त की दृष्टि से जाट होने का उन्हें गर्व है। विभाजित भारत में जाटों की संख्या किसी भी प्रकार कम नहीं है। "

हजारा विद्रोह

ठाकुर देशराज ने लिखा है - महारानी जिन्दा के निर्वासन से ही सिख-जाति में विद्रोह की आग धधकने लगी थी। उस समय वह अपमान के कड़वे घूंट पीकर तिलमिला उठी थी। इसके साथ ही हजारा के सरदार चतरसिंह के साथ किए गए विश्वासघातकर्त्ता ने अग्नि में घी का काम किया। सरदार चतरसिंह हजारा-भूमि के शासनकर्त्ता थे। वे पूरे राजभक्त थे। उनके लड़के सिक्ख-सेना के सेनापति थे और विश्वासपात्र होने के कारण ही अंग्रेजी-सेना के साथ मेजर एडवार्डिस के संग मुलतान में विद्रोहदमन के लिये गये थे। इससे जाना जा सकता है कि यह सरदार-परिवार कितना विश्वासी और अंग्रेज-भक्त था?

चतरसिंह की लड़की से महाराज दिलीपसिंह का ब्याह निश्चित हुआ था और चतरसिंह बूढ़ा भी हो चला था, अतः जीते जी कन्यादान के पुण्य का भागी हो जाये इस इच्छा ने जोर मारा और अपने पुत्र शेरसिंह की मार्फत रेजिडेण्ट साहब को लिखा -

“राजा शेरसिंह से कल मेरी गुप्त बातें हुई हैं। उनकी बहन की शादी महाराज दिलीपसिंह से हो यह उनके पिता की वाञ्छा है। उनकी दो काम करने की हार्दिक इच्छा है और वे दोनों ब्रिटिश गवर्नमेण्ट की अनुमति से हो सकते हैं। आपकी इच्छा अगले वर्ष ही विवाह कर देने की न हो तो चतरसिंह यह आज्ञा चाहते हैं कि हजारा का शासन-भार दो वर्ष के लिए छोड़ तीर्थ कर आयें और यदि इसी वर्ष महाराज दिलीपसिंह का विवाह करना हो तो यह प्रार्थना है कि आपके परामर्श से दरबार एक ज्योतिषी नियत कर दे और वह ज्योतिषी कन्या-पक्ष के ज्योतिषी से मिलकर अच्छा महीना, दिन तय कर ले। राजा शेरसिंह के पिता इस विवाह में दहेज देना चाहते हैं, उसके तैयार करने में एक वर्ष लग जायेगा। दस दिन के भीतर इसका उत्तर मिल जाये, यही आपसे विनय है। ”

उपर्युक्त सिफारिश के साथ ही मेजर साहब ने राज्य की हितचिन्तना के साथ बुद्धिमत्ता-पूर्ण एक सुन्दर सलाह भी लिखी थी कि -

“इस समय विद्रोह और सैनिकों की अशान्ति के कारण पंजाब के निवासियों में यह अफवाह फैल रही है कि बालक दिलीप का राज्य अंग्रेज लेना चाहते हैं। यदि इस विचार से देखा जाये तो इस विवाह का दिन ठहर जाने से राज्य-हरण का सन्देह भी दूर हो जायेगा।”

निःसन्देह उस समय पंजाब में जो ऐसी अशान्ति थी, अगर शादी करने की बात तय हो जाती तो बहुत कुछ अंग्रेजों के प्रति सिख-जनता की सहयोग-भावना की वृद्धि होती, परन्तु मेजर साहब की सलाह का कुछ भी ख्याल न कर इस प्रकार


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-358


गोल-माल उत्तर दिया गया कि तत्कालीन अशान्ति के कारणों में एक और वृद्धि हो गई। उत्तर में इस प्रकार राजनीतिक भाषा(!) थी -

“विवाह सम्बन्धी सभी प्रबन्ध होगा। साधारणतः विवाह का दिन कन्या पक्ष की ओर से तय किया जाता है, किन्तु महाराज के सम्बन्ध में कोई भी बात रेजीडेण्ट की सम्मति और स्वीकृति के बिना नहीं होगी। विवाह का दिन रेजीडेण्ट दरबार के सभासदों से गुप्त परामर्श करके स्थिर करेंगे। पीछे वर और कन्या दोनों ओर के सम्मानानुकूल यह कार्य होगा। उस कार्य को ब्रिटिश गवर्नमेंट करेगी। इस विषय में शेरसिंह को निश्चिन्त रहना चाहिये।”

चतरसिंह के छोटे पुत्र गुलाबसिंह ने जो दरबार में रहते थे और रेजीडेण्ट से बिना किसी रुकावट मुलाकात करते थे, रेजीडेण्ट से विवाह के सम्बन्ध में हुई बातें, अपने पिता चतरसिंह और भाई शेरसिंह को लिख भेजीं। गुलाबसिंह के पत्र से समाचार जान कर चतरसिंह और भी जल उठा। फिर भी विद्रोह करने के भाव न उग सके, हां, जमीन अवश्य तैयार हो गई।

हजारा कट्टर मुसलमानों का केन्द्र था और उस समय आर्यसमाजियों की भांति सिक्ख भी मुसलमान बन गए हिन्दुओं को फिर से हिन्दू बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। अतः मुसलमान शासकों की नजरों में खटकते थे। यद्यपि हजारा में एबट साहब के जाने के पूर्व किसी अशान्ति का पता नहीं चलता पर तो भी हजारा के शासन में सहायता करने - सम्मति देने के लिए रेजीडेण्ट ने अपने सहकारी कप्तान एबट को नियुक्त किया। एबट के दोषों के सम्बन्ध में कई प्रमाण हैं। स्वयं पूर्व रेजीडेण्ट सर हेनरी लारेन्स ने लिखा था - “कप्तान एबट हर एक मामले में कुटिल अर्थ लगाकर न्याय को अन्याय सुझाने में सदा उत्सुक रहते हैं। ज्वालासाही की भांति अच्छे सज्जन रईस के साथ अत्याचार करना उनके उसी हठ-धर्म का परिचय है।” कप्तान एबट ने ही झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में कुछ लोगों के विद्रोही होने के सन्देह में, झण्डासिंह को भी दोषी ठहराया था। इस पर नये रेजीडेण्ट फ्रेडरिक ने लिखा था - “झण्डासिंह की घुड़सवार सेना में यद्यपि कुछ लोग विद्रोही हो गये हैं। पर सरदार झण्डासिंह इस विषय में बिल्कुल निर्दोष हैं। किन्तु एबट कहते हैं झण्डासिंह भी शामिल हैं। उनका विश्वास है कि सरदार विद्रोहियों को मूलराज की सहायता के लिए मुलतान भेजना चाहते हैं।” इसी प्रकार रेजीडेण्ट ने एबट को भी लिखा था कि - “सरदार झण्डासिंह के बारे में आपकी राय बेजोड़ है। क्योंकि यह सरदार हमारे कहने के मुताबिक काम करता है।” एबट के गुणों का वर्णन रेजीडेण्ट कैरी ने गवर्नर-जनरल को इस प्रकार लिखा था - “आपने एबट के चरित्र को भली-भांति समझ लिया होगा। किसी षड्यंत्र की अफवाह सुनते ही वे सत्य मान लेने के लिये तत्पर हो जाते हैं। पास के या दूर के, यहां तक कि स्वयं नौकरों पर भी सन्देह बना रहता है और अपनी समझ


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-359


पर उन्हें इतना अटल विश्वास हो जाता है कि बार-बार उनको उनकी भूल बताने पर भी, उन्हें अपनी भूल प्रतीत नहीं होती है।”

राजा चतरसिंह के शासन में सहायतार्थ एबट जैसे शंकालु और चालाक को भेजा गया। भोले स्वभाव के निष्कपट वृद्ध चतरसिंह भी एबट के सन्देह-स्वभाव से बच न सके। चतरसिंह की पल्की की सेना में कुछ सैनिक बदलकर मूलराज विद्रोही की सेना से मिलने के इरादे करने लगे थे। यद्यपि चतरसिंह मय अफसर लोगों के विद्रोहियों को दबाने का प्रयत्न कर रहे थे, पर एबट जैसे बहमी दिमाग के लिए यह बहुत था। उसने सोचा इसका कारण चतरसिंह ही हैं। उसके दिल में समा गई कि चतरसिंह विद्रोही है और शीघ्र ही अंग्रेजों को पंजाब से निकाल बाहर करेगा। लाहौर के अंग्रेजों पर शीघ्र ही हमला होने वाला है। इन सन्देहों से घबड़ा कर राजधानी से निकल 16 मील सिरवां नाम के स्थान पर पड़ाव डाल दिया।

सरल स्वभाव के राजा चतरसिंह अपने सहकारी की चाल को कुछ न समझ पाये। इसके लिये अपने वकील को एबट के पास भेजा। एबट ने टका-सा जवाब दिया - “मैं तुम्हारे राजा (चतरसिंह) का विश्वास करता हूं।” ऐसा ऊंटपटांग उत्तर सुनकर भी चतरसिंह ने अपने शान्त स्वभाव, शीलता एवं धीरता का परिचय दिया और एबट को कहला भेजा कि - “यदि आपको सिरवां में रहना मंजूर हो तो मुझे अथवा मेरे पुत्र अतरसिंह को अपने पास रहने की आज्ञा दीजिए जिससे शासन-कार्य में त्रुटि न रहने पाये।” भ्रम-भूत के शिकार एबट द्वारा यह प्रार्थना भी अस्वीकृत हुई। एबट चतरसिंह को विद्रोही कह कर ही शान्त न हुए, बल्कि उनके विरुद्ध मुसलमानों को भड़काने लगा।

अंग्रेज मुसलमानों में सिखों के प्रति कटुता का भाव पैदा कर रहे थे। अतः सन् 1848 ई० की 6 अगस्त को झुण्ड के झुण्ड मुसलमान चतरसिंह के निवास स्थान हरिपुर में इकट्ठे होने लगे। हरिपुर में पहुंच विद्रोही मुसलमान दलों ने नगर घेर लिया। सरदार चतरसिंह ने इस आकस्मिक हमले के सम्बन्ध में कुछ न समझा और नगर-रक्षक सेना को तोप के साथ सामना करने को भेजा। चूंकि सिख सेना पल्की में थी और एबट के सवनी में जाने से उसका रास्ता रुक गया था, अतः वह सहायतार्थ आने में असमर्थ थी।

विपत्ति काल अकेला नहीं आता। इसी तरह सरदार चतरसिंह के लिए भी एक साथ कठिनाइयों का पहाड़ टूट पड़ा। सिक्ख सेना तो आ ही न सकती थी। नगर-रक्षक सेना में अमेरिका का कनोरा नामक एक आदमी तोपखाने का अध्यक्ष था। युद्ध में जाने के लिए जब उससे कहा गया तो उसने कहा - “मैं कप्तान एबट की आज्ञा बिना नहीं जा सकता।” कनोरा को आजकल के फौजी कानून के अनुसार सरदार की आज्ञा न मानने के अपराध में उसी वक्त गोली से उड़ा दिया


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-360


जाना चाहिये था। परन्तु यदि गुड़ के प्रयोग से ही काम निकल जाये तो जहर की क्या आवश्यकता है। यह सोच सरदार चतरसिंह ने समझाया कि तोप लेकर युद्ध के लिये जाओ नहीं तो सहज ही में शत्रु अधिकार कर लेंगे और इस तरह दुखद अन्त हो जायेगा। परन्तु कनोरा ने तोप भर कर बीच में खड़ा हो, उत्तर दिया - “जो कोई मेरे पास आयेगा उसी को गोली से उड़ा दूंगा।” पैदल सेना के दो दलों को सरकार साहब ने आज्ञा दी कि तोप ले आओ। कनोरा सिपाहियों को आते देख बिगड़ उठा। उसने एक सिक्ख हवलदार को गोला बरसाने की आज्ञा दी। पर हवलदार ने साफ इन्कार कर दिया। कनोरा ने क्रोध में उन्मुक्त होकर सिख सरदार का सिर धड़ से अलग कर दिया। स्वयं तोपों की बत्ती सुलगा दी। दैवात् तोपों का निशाना खाली गया। कनोरा क्रोध में पागल हो गया। शीघ्र ही पिस्तौल से सरदार की सेना के दो सिपाही मौत के घाट उतार दिये। इसी समय पैदल सेना में से किसी ने कनोरा का सर तलवार से काट डाला। यही कनोरा की मृत्यु सरदार के अभियोग का खास कारण हुई।

एबट ने कनोरा की अनुशासनहीनता की उपेक्षा करके, उसके वध का दोषी चतरसिंह को ठहराया और रेजीडेण्ट को लिख भेजा - “कनोरा की हत्या सरदार चतरसिंह ने पिशोरासिंह की हत्या के समान ही की है और इसके सम्बन्ध में पहले ही सोच लिया गया था।” चतरसिंह ने भी सच्ची कैफियत रेजीडेण्ट की सेवा में लिख भेजी। पर रेजीडेण्ट ने अपनी मंगाई हुई दोनों सरदार और एबट की कैफियत देखकर एबट को लिखा कि -

“कनोरा की हत्या के सम्बन्ध में आप तथा चतरसिंह दोनों ने मुझे लिखा है। उसको पढ़कर मैंने यह परिणाम निकाला है कि सरदार की बार-बार आज्ञा का उल्लंघन करने तथा उनके भेजे हुए सैनिकों पर विरुद्धाचरण करने के कारण कनोरा की हत्या हुई है। इस सम्बन्ध में जो कुछ आपने कहा है, उससे मैं सहमत नहीं हूं। सरदार चतरसिंह हजारा के दीवान और सामरिक शासन-कर्त्ता हैं। इसलिए सिख-सेना के अफसर को उनका मान करना चाहिये। इस विषय की अधिक चर्चा न करके मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आपने कनोरा की हत्या, पिशोरासिंह की हत्या के समान कैसे ठहराई है?”

इसी पत्र में आगे एबट की प्रत्येक बात का खण्डन करते हुए सरदार चतरसिंह के कार्य को आत्मरक्षार्थ बतलाया है।

एबट जैसे व्यक्ति पर, जिसे कई बार झूठा कह कर उसकी बातों का खण्डन कर दिया हो, उक्त पत्र का क्या प्रभाव पड़ सकता था? उसने उल्टा चतरसिंह को लिखा - “यदि कनोरा की हत्या करने वाले को मुझे सौंप दिया जाये तो सरदार साहब की सेना और जागीर बनी रह सकती है।” एक दूसरे पत्र में फिर एबट ने लिखा - “कनोरा के हत्यारे को मुझे सौंप दो, क्षण भर में हजारा में शान्ति स्थापित कर दूंगा।” पाठक सोच सकते हैं किसी ऐसे ढ़ांचे का यह विद्रोह था कि


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जिसका रोकना और चलाना एबट के मिनट भर का काम था। इससे साफ हो जाता है कि सिखों के विरुद्ध मुसलमानों के विद्रोह की जड़ में अंग्रेजों की नीति थी।

इस प्रकार सरदार चतरसिंह की गति सांप छछुन्दर की सी हो गई। वह करे तो क्या करे? वह जानता था कि एबट के विरोध का फल अच्छा नहीं भले ही सरकार पत्र-व्यवहार में एबट की बातों पर अविश्वास करती हो। पर कनोरा के मारने वाले को भी वह कैसे सौंप सकता था, जिसने कनोरा को मारकर तत्काल की भारी क्षति को बचाया था। क्योंकि कनोरा तोप के निशानों में सफल हो जाता तो मुसलमानों के पहले वही सरदार को पंगु बना देता। इसकी हत्या के साहसिक कार्य के लिये तो सरदार साहब ने इनाम दिया था। चतरसिंह ने एबट से मिलकर इस सम्बन्ध में समझौता करने एवं भ्रम मिटाने की तजवीज भेजी। परन्तु एबट का दिमाग तो सातवें आसमान पर था और उसमें भीतरी हाथ से गहरी राजनैतिक चाल थी। उसने कहा - “कनोरा की हत्या के पापी से मैं नहीं मिलना चाहता।” एबट इससे भी सन्तुष्ट न हुआ और रेजीडेण्ट को 13वीं अगस्त को एक पत्र लिखा, जिसमें लिखा था - “चतरसिंह सिक्ख-सेना को विद्रोह करने के लिए उत्तेजित कर रहे हैं। उन्होंने जम्मू-नरेश को चिट्ठियां भेजी हैं।” बात यह थी कि सरदार चतरसिंह ने मुसलमानों को दबाने के लिये जम्बू-नरेश को तीन-चार पलटन भेजने के लिये लिखा था। वही पत्र एबट के हाथ लग गया था। पर निकलसन ने दोनों पत्रों को देखकर उनमें किसी तरह के विद्रोह के कारण नहीं पाये। भला उनमें विद्रोह कहां दबा रखा था? सरदार चतरसिंह जिस पर अब तक कितने ही आक्षेप लग चुके थे, इस समय तक पक्का अंग्रेज-भक्त था। जिन पत्रों का सबूत सरदार साहब के बागी होने का किया वे ही निर्दोष होने का प्रमाण हुये।

सरदार चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष हैं, यह वाक्य कहने वाले निकलसन ने ही रंग बदला। कनोरा के हत्यारे के सुपुर्द करने का बहाना मिल गया। कुछ समय बाद ही चतरसिह को लिखा गया - “कनोरा के हत्यारों के साथ अविलम्ब मेरे यहां हाजिर होइये। इस अवस्था में आपके मान और जीवन की रक्षा का भार ले सकता हूं। अब आप अपनी निजामत और जागीर की आशा न रखें।” निकलसन ने इस पत्र की बातें गुप्त रख, उस समय ही रेजीडेण्ट को भी लिखा - “मुझे आशा है कि आप मेरे इस मत से सहमत होंगे कि चतरसिंह को जागीर और निजामत से अलग कर देना ही उचित दण्ड है।” पंजाब के सरकारी कागज-पत्रों से ज्ञात होता है कि रेजीडेण्ट भी दुरंगी चाल चल रहा था। उसने एक ही तारीख में व एक ही दिन के अन्तर से कैसे-कैसे विचार प्रकट किये थे! देखिये -

1858 ई० 23 अगस्त को रेजीडेण्ट ने मेजर एडवार्डिस को लिखा - “चतरसिंह पूर्णतः निर्दोष है। कप्तान एबट इस पूरे अनर्थ की एकमात्र जड़ हैं।”


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त 362


इसी 23वीं तारीख को निकलसन को आज्ञा दी कि “चतरसिंह की जागीर और निजामत छीनकर उसे उचित दंड दीजिये।” और 24 अगस्त अर्थात् चतरसिंह के सर्वनाश के एक दिन पहले ही एबट को डांटते हुये लिखा - “तुम्हारा कार्य अन्यायपूर्ण है। कनोरा की उचित सजा को तुम हत्या नहीं कह सकते।”

उपर्युक्त पत्रों के उद्धरणों से न्याय-अन्याय का अन्दाजा पाठक सरलतापूर्वक कर सकते हैं। पहले तो एबट की नियुक्ति ही 'मान न मान मैं तेरा मेहमान' वाली कहावत के अनुसार थी, परन्तु इस सब में भेद-नीति काम कर रही थी। एक ओर कुछ पत्र-व्यवहार हो रहा है तो एक ओर कुछ ही चाल चली जा रही थी। आखिरकार चतरसिंह को यह दुखदाई समाचार दिया गया। पर सरदार साहब की समझ में न आया कि अपराध क्या है? उन्होंने विनय-पूर्वक प्रार्थना-पत्र भेजा - “मेरे जैसे अंग्रेजों के परम भक्त के साथ क्यों ऐसी सख्ती की जाती है? यदि कोई सन्देह उपस्थित हुआ हो तो कहिये, मैं उसे बिना विलम्ब दूर कर दूं।” पर इसका कुछ भी प्रभाव न पड़ा।

बूढ़ा चतरसिंह भावी दुखद आशंका से कांप उठा। उसने कभी नहीं सोचा था कि एबट को उसके अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए फटकारने वाला इब्ट्सन भी उसको छोड़कर निर्दोषी चतरसिंह को दोषी मान लेगा। उसके मन में तरह-तरह के विचार आने लगे। अपना सब कुछ देकर भी उसे दोषी होना अच्छा न लगा। अपराधी होने का कलंक उसके मन में विद्रोह के भाव जमा बैठा। उसने सोच लिया, इस जीने से तो मरना ही अच्छा है। अपनी मान-रक्षा के लिये, इस तीर्थ-यात्रा की उमर में, उस बूढ़े शेर ने बगावत की तैयारी करनी शुरू कर दी। दल के दल सिख उनके झण्डे के निकट आकर इकट्ठे हो गये। महारानी जिन्दा के निर्वासित हुए क्षुभित युवक प्रतिहिंसा के लिए मर मिटने को तत्पर हो गये। जो चतरसिंह कुछ दिन पहले अंग्रेजों का पूरा भक्त था, वही अनुचित अपमान, अत्याचार के कारण विद्रोहियों का नेता बन गया।

References

  1. Imperial Gazetteer of India in 26 assorted volumes (London: Oxford 1931), v. 13, p. 76.
  2. Kalhana's Rajatarangini: A Chronicle of the Kings of Kaśmīr (1988), p 267, Kalhana, M. A. Stein; The Historical Background of Pakistan and Its People (1973), P 156,
  3. Watters, Yuan Chawang, Vol I, p 284.
  4. MBH 7.4.5; 7/91/39-40.
  5. See refs: Mahabharata 7/91/39-40; Political History of Ancient India, 1996, p 133, 218/220, Dr H. C. Raychaudhury, Dr B. N. Mukerjee; History of India – 1944, P 94; Narendra Krishna Sinha, Anil Chandra Banerjee; Chilas: The City of Nanga Parvat (Dyamar) – 1983, Page 120, Ahmad Hasan Dani; Indological Studies – 1950, P 18, Dr B. C. Law; A Companion to Middle Indo-Aryan Literature – 1977, P 168, Suresh Chandra Banerji; A Companion to Sanskrit Literature: spanning a period of over three thousand years, containing... – 1971, P 486, Sures Chandra Banerji; Asoka - P 31, Dr R. G. Bhandarkar; J.N. Banerjea Volume: A Collection of Articles by His Friends and Pupils, 1960, p 18, University of Calcutta. Dept. of Ancient Indian History and Culture. Alumni Association.
  6. UNESCO World Heritage Centre - Mansehra Rock Edicts
  7. A glossary of the tribes and castes of the Punjab and North-West provinces , compiled by H A Rose , v. I p. 120
  8. On Alexander's Track to the Indus By Aurel Stein, Published by B. Blom, 1972, Original from the University of Michigan, Digitized 2 Sep 2008, 182 pages
  9. Jat Itihas By Dr Ranjit Singh/1.Jaton Ka Vistar,p. 6
  10. योगेद्रपाल, क्षत्रिय जातियों का उत्थान और पतन, पृष्ठ 271-73

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