Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu/Gotra

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Jat Samuday ke Pramukh Adhar Bindu, Agra, 2004

Author: Dr Ompal Singh Tugania

Publisher - Jaypal Agencies, Agra-282007


अध्याय 3. गोत्र

अध्याय-3:सारांश

पाणिनि द्वारा प्रदत्त गोत्र की परिभाषा, प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर गोत्र का प्रादुर्भाव, गोत्र की अपरिवर्तनशीलता, वंशों की समाप्ति के बाद गोत्र का प्रचलन, गोत्र विस्तार के कारण, चौहान उपाधि, गोत्र और वंश, गोत्रों के प्रमुख स्रोत, जाटों के प्रमुख गोत्रों का जन्माधार, विभिन्न गोत्रों का विस्तार-विवरण, गोत्रों में समानता, विभिन्नता और भ्रांतियां, ऋषि गोत्र, वंश के रूप में गोत्र, स्त्री का गोत्र, वंश और गोत्र का पारंपरिक संबंध.

पृ.5

पाणिनि द्वारा प्रदत्त गोत्र की परिभाषा: महर्षि पाणिनि ने अपनी कृति अष्टाध्यायी में लिखा है- उपत्यं प्रौत्रं प्रभृति गोत्रम. अर्थात पुत्र को छोड़कर जो पौत्र-प्रपौत्र आदि संतति समूह है उसका नाम गोत्र है.

प्रसिद्ध व्यक्तियों के नाम पर गोत्र का प्रादुर्भाव: प्राचीन ऐतिहासिक ग्रंथों का इस संबंध में अध्ययन करने से निष्कर्ष निकलता है कि जब किसी पीढ़ी में कोई प्रसिद्ध अथवा महान व्यक्ति पैदा हो जाता है तो उसके नाम में पूर्व की चली आ रही सभी उपाधियां समाहित हो जाती हैं. ऐसे में यह नवीन व्यक्तित्व एक नए नाम का श्रीगणेश करता है जो प्राय: उसके नाम से जुड़ा होता है यही पहचान उसका गोत्र कहलाती है.

गोत्र की अपरिवर्तनशीलता: जिस प्रकार जाति जीवन पर्यंत नहीं बदल ली जा सकती, ठीक उसी प्रकार वंश और गोत्र भी अपरिवर्तनीय होते हैं.

वंशों की समाप्ति के बाद गोत्र का प्रचलन: प्राचीन ग्रंथों में यह भी स्पष्ट है कि राजा-महाराजाओं के युग में वंश विशेष महत्व रखता था क्योंकि उस समय गोत्र का प्रचलन नहीं था परंतु राज-पाट समाप्त होते ही एक ही वंश में अनेक परिवर्तन आए, पलायन हुआ और अनेक महान व्यक्तियों ने अपने अपने नाम से अलग-अलग बस्तियों की स्थापना की. इन बस्तियों में रहने वालों ने अपनी अलग-अलग पहचान स्थापित करने के लिए अपने संस्थापकों के नामों से अपने आपको जोड़ लिया. यह नाम ही कालांतर में गोत्र का रूप धारण कर गए. ऐसा करने में उन्होंने अपने प्राचीन राजवंश को नहीं छोड़ा.

गोत्र और वंश: इस प्रकार वंश राजवंश से संबंध रखता है जबकि गोत्र समाज में एक महान परिवर्तन लाने वाले लोगों के नामों की पहचान है. दिल्ली सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने चौहान की जो उपाधि प्राप्त की थी वह इतना स्थायित्व ग्रहण कर गई कि वह वंश का स्थान ले गई और वास्तव में वह राजवंश की दूसरी शर्त भी पूरी करती है. यदि चौहान वंश का गहन अध्ययन करें तो पता चलता है कि चौहान वंश के पतन के बाद अगली पीढ़ियों में प्रभावशाली व्यक्तियों के नाम पर अनेक गोत्रों ने जन्म दिया. इस विश्लेषण से यह स्पष्ट हो जाता है कि जब भी कोई राजवंश समाप्त हुआ तो उसकी अगली पीढ़ियों ने अपने-अपने प्रभावशाली व्यक्तियों के नाम से विभिन्न गोत्रों को जन्म दिया.

गोत्रों के प्रमुख स्रोत: जहां तक गोत्रों के प्रारंभिक स्रोतों का प्रश्न है- यह मुख्यतः किसी पुरुष विशेष, स्थान विशेष तथा किसी घटना विशेष से जुड़े होते थे.

पृ.6

जाटों के प्रमुख गोत्रों का जन्माधार: दिल्ली सम्राट अनंगपाल द्वितीय को जो तोमर की उपाधि दी गई थी, बाद में वह विश्व प्रसिद्ध तोमर वंश में परिवर्तित हो गई. सुलक्षण पाल तोमर से सलखलान गोत्रीय जाट, कलश पाल तोमर से कलसलान गोत्रीय गुज्जर, तथा बलराम से बालान गोत्रीय जाटों की उत्पत्ति सिद्ध होती है. अन्य जाट गोत्रों के पीछे भी गूढ़नाम रहस्य छिपे हुए हैं जो शोध का विषय हो सकते हैं.

लाकड़ा सिंह के नाम पर लाकड़ा जाट, दुहूण सिंह के नाम पर दुहूण जाट, दुहीपाल से दहिया, दिल्लू से दलाल, खोखर राव से खोख़र, सांगू से सांगवान, जसराज से जसराना जाट, खापराव से खापरा, बुद्धराज से बुद्धवार, कुंड राज के नाम पर कुंडू, डामे राव से डबास, होडल राव से हुड्डा, ढाकोजी से ढाका जाट, चंपा सिंह से चोपड़ा, रूप सिंह से रावडिया, सिंध रावत से सिंधु, शिवराज से श्यौराण, खाटे जी से खटकड़, तथा चाहु से चहल आदि हमें गोत्र, विभिन्न वंशजों से प्रचलित हुए हैं.

कुछ गोत्रों का प्रचलन पशु, पक्षियों के नाम पर हुआ जैसे तीतर से तीतरवाल, ख़र से खोत, लोमड़ी से लोमरोड, भैंस से बैंस, नीलगाय से रोज, सांप से पोटलिया और बाज से बाज्या आदि.

कहीं-कहीं गोत्र और वंश एक ही अर्थ में प्रयोग किए जाते हैं जो अज्ञानता का सूचक है. लाकड़ा गोत्र के गांवों यथा रमाला, किरठल, लूम्ब, तुगाना आदि में विवाह संस्कार के अवसर पर अपना गोत्र चौहान ही बताने लगे हैं जबकि गोत्र लाकड़ा और वंश या कुल चौहान बताना चाहिए.

ऋषि गोत्र: इसी प्रकार जिला फरीदाबाद में बसे गांव मीतरोल आदि के लोग अपना गोत्र वत्स (बच्छस) बताते हैं जबकि वत्स तो ऋषि गोत्र है यह अभी तक अपने ऋषि गोत्र से काम चला रहे हैं. इनका भी गोत्र लाकड़ा ही है.

चौहान वंश से 116 गोत्रों की उत्पत्ति हुई है.

इसी प्रकार मलिक एक उपाधि है, गोत्र नहीं. लोहर गोत्रजनों ने पहले अपने को क्षत्रिय लिखा जो बिगड़ कर खत्री हो गया. दहिया बादशाह एक उपाधि है परंतु दहिया वंशी जाट अपना गोत्र दहिया बताते हैं वंश नहीं. कहीं-कहीं गोत्रों के संयुक्त कारण भी प्रतीत होते हैं. जिस प्रकार मनुष्य अपनी जाति नहीं बदल सकता उसी प्रकार मनुष्य जीवन का गोत्र भी एक अपरिवर्तनशील पक्ष है.

स्त्री का गोत्र: भारतीय महिलाओं का विवाह पूर्व गोत्र अपने पिता का और विवाहोपरांत उन्हें स्वत: ही अपने पति का गोत्र प्राप्त हो जाता है.

वंश और गोत्र का पारंपरिक संबंध : हमें यह भी समझ लेना चाहिए कि एक वंश में अनेकों गोत्र तो हो सकते हैं परंतु एक ही गोत्र में अनेक वंश नहीं हो सकते. इनके प्रयोग पर अधिक निर्भरता प्रतीत होती है. गोत्र और वंश में अत्यधिक विविधताओं के कारण इनके लिए कोई एक समान आधारभूत सिद्धांत का निर्माण भी संभव नहीं है.


अध्याय-3.गोत्र, समाप्त

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