Bhagwan Dasji Maharaj

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Bhagwandas Ji Maharaj

Bhagwan Dasji Maharaj (1740 ?-1826) was a reputed saint of Kuwapanthi Sampradaya at Banswara in Rajasthan. He was born in Sinsinwar Jat Royal family of Deeg Bharatpur, Rajasthan. He worked in Banswara area of Rajasthan. His Samadhi and Chhatri are located at Rajtalab Banswara.

भगवानदास जी का जीवन परिचय

भगवानदास जी भरतपुर राजघराने से संबंधित रहे हैं. आप जाति के सिनसिनवार जाट थे तथा बांसवाड़ा आकर प्रसिद्धि प्राप्त की. आपको साधना का पूर्ण ज्ञान था. आपके व्यक्तित्व में अपूर्व तेज झलकता था. आप बचपन से ही होनहार थे. महारावल भवानीसिंह (1819-1838)[1] जी के समय में भगवानदास जी का कार्य-क्षेत्र बांसवाड़ा था.

भगवानदास जी डीग के राजकुमार थे. उन दिनों भरतपुर की राजधानी डीग थी. वहां के महाराज कुमार का नाम रणजीत सिंह था. महाराजा सूरजमल के 14 रानियां थीं. इनमें से रानी खेत कुमारी पुत्री भागमल जाट गोत्र नोहवार निवासी बाजना (मथुरा) की कोख से महाराज कुमार रणजीत सिंह का जन्म हुआ. [2]

कुँवर रणजीतसिंह, जो बादमें भगवानदासजी नाम से विख्यात हुये, के जन्म का ठीक-ठीक प्रमाण उपलब्ध नहीं है परंतु अनुमान है कि उनका जन्म लगभग 1740 ई. (?) के आस-पास हुआ. भगवानदासजी की माता शायद परवर (?) के पास जेठाणा गांव (?) की थी जो आजकल हरियाणा में है. इस विषय में खोज की आवश्यकता है.

महाराजा ने रणजीत सिंह को युवराज पद देकर राज्य शासन चलाने की आज्ञा दी. बालक के मन में धन-संपत्ति सत्ता या वैभव की तनिक भी कामना नहीं थी. बचपन से ही उनके मन में वैराग्य उत्पन्न हो गया था. उन्होने कहा कि मेरी वृत्ति राज्य शासन के अनुकूल नहीं है. इसलिये मैं राज-गद्दी पर नहीं बैठुंगा. उन्हें तो परमसुख की तलाश थी. अतः उन्होंने अपने छोटे भाई को राज्य दिलवा दिया.

भगवानदास जी का बांसवाड़ा आगमन: साधु का वेश धारण करके रणजीत सिंह तीर्थ यात्रा के लिए निकल पड़े. अब उनका नाम भगवान दास था. वहां से घूमते-घूमते वे बांसवाड़ा आए. राजसुख त्याग कर इस भूमि के भाग्य से बांसवाड़ा आकर सिद्धि प्राप्त की. सर्वप्रथम भूरा ब्राह्मण था उसका घंटाघर के पास भट्टी थी वहां रहे. कुछ समय तक नागर वार्ड में उस समय के वकील मंजूलाल जी के पूर्वजों के मकान में भी रहे. वे सुथारवाड़ा से पृथ्वीगंज उतरने के रास्ते पर जो हनुमान जी का स्थान है वहां रहते थे. इसके बाद वे राजतालाब के किनारे रहने लगे.

वे भगवान राम के परम उपासक थे. महारावल भवानी सिंह (1819-1838) के राज्य काल में वे बांसवाड़ा में आए. वे कुछ दिनों भूरा लोहार और शंकरलाल पोस्टमैन के घर पर रहे.उसके बाद चोरा चौक की गली में मंगूजी का एक मकान था वहां पर वह काफी लंबे समय तक रहे. मंगुलाल जी और ठाकरलाल जी की गुरुदेव पर अनन्य श्रुद्धा थी.

संत शिरोमणि भगवानदास जी

आप संतों में शिरोमणि थे. भगवानदासजी बांसवाड़ा क्षेत्र में बहुत बड़े सिद्ध एवं चमत्कारिक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने अपने समय में कठोर तपस्या से ईश्वरीय शक्ति हांसिल की और इसका उपयोग जन कल्याण के कार्यों में किया। यह इस शताब्दी के आरंभिक दिनों की बात है। उन दिनों भगवानदासजी महाराज के धार्मिक उपदेशों की बदौलत यह स्थल आध्यात्मिक जागृति का तीर्थ बन गया। भगवानदास जी की ईश्वरीय और चमत्कारिक शक्ति के कुछ उदाहरण जनमानस में सुनने को मिलते हैं:-

ताराचंद को पुत्र प्राप्ति: आपके एक ताराचंद नाम के भक्त को पुत्र नहीं हुआ तो आपके आशीर्वाद से उसे पुत्र प्राप्ति हुई. तारचंद आपकी सेवा में हमेशा तत्पर रहते थे.

धीरजराम को पुत्र प्राप्ति: धीरजराम की पत्नी अजबकौर की पीठ पर आपने चार अंगुली से ठप्पा देकर कहा था कि तेरे चार पुत्र होंगे सो गुरु-कृपा से वैसा ही हुआ. धीरजरामजी का जन्म वर्ष 1851 में हुआ था. आपके अनुसार अघोरी पंथ के सद्गुरु भैरवानन्द की कृपा इस वंश पर हुई थी.

साधुओं की जमात को भोजन कराया: दैनिक अमर में ‘बांसवाड़ा परिक्रमा’ शीर्षक के अंतर्गत डॉ शंकर लाल त्रिवेदी ने 3 दिसंबर 1981 को लिखा है कि.... श्री भगवान दास जी की समाधि की छतरी के पास ही जनार्दन राय जी साधु की छतरी है. इनके बारे में अधिक जानकारी तो नहीं मिली लेकिन जितनी बातें मालूम हुई है वह यहां दी गई है. वे सुथारवाड़ा से पृथ्वीगंज उतरने के रास्ते पर जो हनुमान जी का स्थान है वहां रहते थे. इसके बाद वे राजतालाब के किनारे रहने लगे. उनके संबंध में ऐसी किंवदंती है कि एक बार साधुओं की एक जमात आई. वे सभी उनके गुरु भाई थे. उन्होंने वहीं प्रसाद लेने की इच्छा व्यक्त की. श्री जनार्दन राय जी के पास उस समय कुछ नहीं था. उनके शिष्यों में एक जवानसिंह थे. उनको उन्होंने जो कुछ भी भोजन बन सके बनाने को कहा. श्री जवान सिंह जी चिंता में पड़ गए. वह सिर्फ पांच व्यक्ति भोजन करें उतनी खीर और पूड़ियां बना सके. श्री जनार्दन राय जी ने कहा कि चिंता न करें आपतो उसमें से प्रसाद वितरण करें. वैसा ही जवान सिंह जी ने किया. साधु जमात पूरी भोजन कर गई. इसके बाद उनके सभी शिष्यों ने भी प्रसाद लिया लेकिन भोजन कम नहीं हुआ.


रतनबाई को चार पौतों की प्राप्ति: उस समय एक रतनबाई नाम की वृद्धा नागर स्त्री की पोती का देहांत हो गया. वह अपनी पुत्री को लेकर भगवान दास जी के पास गई. उसका वंश आगे कैसे चलेगा इस चिंता के साथ व शरण में आई थी. उन्होंने उसकी सारी करुण कहानी सुनी. गुरु महाराज ने उसे पल्ला फैलाने को कहा. जब उसने पल्ला फैलाया तब गुरु महाराज ने अंजलि से उस पर पानी छिड़का जिसे आंचल पर चार छींटे पड़े. वे बोले जा बेटी तेरे 4 पुत्र होंगे. उसकी चिंता और बढ़ गई महाराज मैं तो गरीब हूं अपने चार-चार बेटों का पालन पोषण कैसे करूंगी. गुरु भगवानदास बोले भगवान सबके दिन बदलता है. तुम्हें उनको पालने में कोई कठिनाई नहीं होगी. अवसर पाकर उनके चार पुत्र हुए- 1. करणाराम जी, 2. गोविंदलाल जी, 3. ओच्छवलाल जी और 4. क्रियालाल जी.

ऐसे चमत्कार को देखकर उनके शिष्यों की संख्या को बढ़ने लगी. महारावल भवानीसिंह (1819-1838)[3] की महारानी गर्भवती थी. किसी अघोरी साधू ने उसे पुत्र होगा कहकर अच्छी भेंट प्राप्त कर ली. जब यही प्रश्न शिष्यों ने भगवानदास जी से पूछा तो उन्होंने कहा- पुत्री होगी. समय पर जब पुत्री हुई और महारावल ने यह बात सुनी तो वे बहुत नाराज हुए. राजा की गोरखा पलटन राजतालाब पर ही रहती थी. महारावल ने भगवानदास जी को मार डालने की गोरखा पलटन को आज्ञा दी. सिपाहियों ने भगवानदास जी पर गोलियां दाग दी. सबको लगा कि भगवान दास जी के प्राण पखेरू उड़ गए. परंतु लोग यह चमत्कार देखकर अभिभूत हो गए कि वह फूलों के ढेर पर बैठकर संध्यावदन कर रहे हैं. इस घटना के पश्चात महारावल स्वयं आए और गुरु महाराज के चरणों में गिरकर क्षमा मांगी. उसके पश्चात उन्होंने समाधि ले ली पर उसी दिन काशी में करणशंकर नागर और तरुणशंकर नागर के घर पर जाकर भिक्षा प्राप्त की थी.

श्री सेवालाल याज्ञिक ने दक्षिण दिशा वाला पूरा घाट राजतालाब पर बनवाया. उसके साथ ही दो कमरे और बड़ी-बड़ी दो परसाल बनवाई ताकि वर्षा के दिनों में ऋषि तर्पण करने में कोई कठिनाई न आवे.

आप कुवा पंथी साधू थे. आपको साधना का पूर्ण ज्ञान था तथा आपके व्यक्तित्व में अपूर्व तेज झलकता था.

भगवानदासजी का मंदिर और छतरी

भगवानदासजी का मंदिर
भगवानदासजी की छत्री

बांसवाड़ा में राजतालाब के दक्षिणी पाश्र्व में बने विस्तृत घाट और परिसर पर भगवानदासजी महाराज की छतरी नामक स्थल है, जो जन-जन की आस्था का केन्द्र है। भगवानदासजी इस क्षेत्र में बहुत बड़े सिद्ध एवं चमत्कारिक महात्मा हुए हैं, जिन्होंने अपने समय में कठोर तपस्या से ईश्वरीय शक्ति हांसिल की और इसका उपयोग जन कल्याण के कार्यों में किया। यह इस शताब्दी के आरंभिक दिनों की बात है। उन दिनों भगवानदासजी महाराज के धार्मिक उपदेशों की बदौलत यह स्थल आध्यात्मिक जागृति का तीर्थ बन गया। भगवानदासजी महाराज ने चैत्र शुक्ल 3 संवत 1883 (1826 ई.) को जीवित समाधि ली थी.

श्रद्धालुओं का विश्वास है कि अलौकिक संत समाधिस्थ होने बाद भी यहां विचरते हैं। कई बार लोगों ने धवल वस्त्रों में महाराज की मूर्ति को इस परिक्षेत्र में विचरण करते भी देखा है। विशेषकर पूर्णिमा की रात को यह नज़ारा दिखाई देता है।

उनकी स्मृति में भक्तजनों ने इस स्थल पर समाधि, छतरी व देवालय निर्मित कराये हैं। यहां कुछ अन्य संतों की छतरियां भी हैं। बांसवाड़ा शहर के काफी संख्या में भक्तगण वहां जाकर पूजा-अर्चना करते हैं। ख़ासकर नागर जाति के ब्राह्मणों की इस स्थल के प्रति अगाध आस्था और आदर है।

वर्ष में एक बार देव-दीवाली पर भगवानदासजी की छतरी वाले क्षेत्र में मेला लगता है। मेलार्थी भक्तजन सांझ ढलते ही जब असंख्य दीप जलाकर उनका जल में विसर्जन करते हैं तब समूचा राजतालाब दीपों की जगमगाहट और उनके बिम्ब-प्रतिबिम्बों से बड़ा ही मनोहारी हो उठता है। देव-दिवाली पर 8 दिवसीय कार्यक्रम मनाया जाता है जो अक्षय नवमी से प्रारंभ होकर देव दिवाली तक आयोजित होता है. जिसमें अखंड रामायण सुंदरकांड नृत्य गरबा और भजन संध्या तथा तरह तरह के कार्यक्रम और सत्संग का आयोजन किया जाता है. देव दिवाली पर महा आरती की जाती है और लगभग 10,000 लोग सतगुरु के दर्शन करने के लिए आते हैं.

इस छतरी के पाश्र्व में स्थित पुराने कुएं को लेकर जन-विश्वास है कि इसका पानी अत्यंत पाचक है। तत्कालीन महारावल लक्ष्मणसिंह (1844-1905) और अन्य शासकों द्वारा इस कुएं का पानी मंगवाकर पीने के उदाहरण हैं। यहां एक धर्मशाला भी है। जन श्रद्धा है कि भगवानदास जी महाराज की छतरी पर आकर जो भी मनोकामना की जाती है वह अवश्य पूरी होती है। यह छतरी आशाओं का वह द्वार है जहां से व्यथा लेकर आने वाला मुस्कान लेकर लौटता है।

भगवानदासजी गुरु महाराज की समाधि

भगवानदासजी की समाधि: आपके उपास्य हनुमानजी थे जो कस्तूरचंद जी के घर में विद्यमान हैं. भगवानदासजी की समाधि राज तालाब के किनारे भगवानदास नामक स्थान पर है. श्री ठाकुरलाल जी के वंशज सेवा-पूजा-प्रसाद आदि का काम करते हैं. कस्तूरचंद जी नागर जब तक रहे समाधि की देखरेख करते थे. अब उनके वंशज भी नित्य सेवा-पूजा करते हैं. नीमा समाज के कुछ लोग गुरु के दर्शन-पूजन करते हैं.

महत्वपूर्ण साधुओं का पवित्र स्थान राज तालाब के किनारे है जहां तीन साधुओं का समाधी स्थान है. इन्हें छतरियां कहते हैं. उनमें एक स्थान गुरु भगवानदास जी का है. इसी छतरी के पास हरिवंश संप्रदाय के साधु की बड़ी छतरी है. यह छतरी समूह है राज-तालाब के किनारे पर ही है. अब तो वहां घाट भी बना हुआ है. काफी लोग यहां आते हैं. प्रवेश के साथ एक बड़ी सी छतरी आती है जो हितहरिवंश संप्रदाय के परम संत परम दयाल की छतरी है. उसके कुछ दूरी पर काली कल्याण धाम पर उदासी महाराज बुद्धदास की छतरी है. वे संवत 1964 की कार्तिक बदी तीज को ब्रह्मलीन हुए थे. उसी काली कल्याण धाम पर बद्रीदास सेवक है जो भगवान दास जी के अनन्य शिष्य हैं. वे कहते हैं कि उन्हें भगवान दास जी का भार आता है. बद्री दास जी राजस्थान, पंजाब और हरियाणा के क्षेत्र में विशेष छात्र रहे हैं. ऐसी ही एक समाधि स्वामी भैरवानंद जी की है. यह समाधि भी जवाहर पुल के पास नदी के किनारे पर है. यह तांत्रिक साधु थे और तांत्रिक उपासना करते थे. इनका प्रभाव भी यहां की तत्कालीन जनता पर काफी रहा. आज भी कार्तिक पूर्णिमा को यहां दर्शनार्थ भीड़ होती है.

श्री सद्गुरु भगवान दास जी गुरु महाराज की वर्ष भर में चार बार वैदिक विधि से महा-पूजा की जाती है. जिसमें पहली चैत्र शुक्ल तीज को उनकी स्थापना की तिथि पर पूजा होती है. दूसरी वैशाख शुक्ल अष्टमी को महापूजा तथा महाप्रसाद का आयोजन किया जाता है तथा तीसरी बार महापूजा मार्गशीर्ष कृष्ण पक्ष एकादशी पर उनकी समाधि तिथि पर होती है. चौथी कृष्ण जन्माष्टमी को गुरु महाराज के जन्म दिवस पर्व मनाया जाता है.

वैशाख शुक्ल अष्टमी को वैदिक विधि से महापूजा और ध्वजारोहण किया जाता है और उस दिन ध्वजारोहण का महा उत्सव मनाया जाता है जो लगभग डेढ़ सौ वर्षो से मनाया जाता है.


गुरु महाराज के इस मंदिर में हनुमान जी और शिव परिवार की भी पूजा होती है. इस प्रकार वर्ष भर में पूरे ठाट बाट और आनंद के साथ गुरु महाराज की सेवा अर्चना की जाती है.

पिक्चर गैलरी

सन्दर्भ

  1. Banswara Princely State
  2. मानसिंह: गुणागार महाराजा सूरजमल, 2012, प्रकाशक: हरिप्रसाद प्रकाशन, बाजना, ISBN:978-93-81122-98-3, p. 21, Mob:9675773888
  3. Banswara Princely State

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