Bhullan Singh

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Genealogy of the Fridkot rulers

Bhullan Singh (भुल्लनसिंह) was a Barar-Jat Chief of the erstwhile Faridkot State. He was contemporary of Akbar (1542 – 1605).

Sangar and Bhallan

Lepel H. Griffin[1] writes that the Raja of Faridkot was the head of the Burar tribe, and ruled a territory 643 squire miles in extent, with a revenue of about Rs. 80,000. Of the ancestor who gave this name to the tribe mention has already been made and Sangar was the next of the family of whom, tradition takes any notice, the founder of Chakran, now a deserted village in the district of Kot Kapura. The story is told that in the reign of the Emperor Akbar, the Muhammadan Bhattis of Sirsa and the Burars quarreled about their boundaries, and both parties went to Dehli to ask the Emperor to adjudicate between them. Bhallan,


* Agent Governor General to Political Agent, 28th April 1890; Political Agent to Agent Governor General, 31st Augast 1836.
† Ante, p. 4.

[Page-601]

the son of Sangar, represented the Burar clan, and Mansur, who was supposed to have influence at Court, one of his daughters being in the royal harem, was the champion of the Bhattis. The Emperor gave them an audience in open Durbar, and, as was customary, presented them with turbans and a dress of honour. Mansur at once began to wind the muslin round his head, when Sangar snatched it from him. A scuffle ensued in which the turban was torn in two. The Emperor was amused at the quarrel and said that his decision would correspond with the length of the pieces of muslin which each had managed to retain. On being measured the fragments were found exactly equal in length, and the Bhattiana and Burar boundary was accordingly laid down on a principle of equality, half the disputed country being given to either claimant. This tradition is preserved by the Burars in a well known line—

Bhallan chira phari Akbar ka Darbar.*

In the days of Bhallan the Burars held Kot Kapura, Faridkot, Mari, Mudki and Muktsar, and he was appointed by the Dehli Government Chaudhri or headman of the tribe. On his death, without male issue, Kapura, the son of his brother Lala, succeeded him as Chaudhri. Kapura was born in 1628 and succeeded his uncle in 1643. He was a brave and able man and consolidated the Burar possessions, winning many victories over his neighbours the Bhattis and others.


* Balan tore the turban in Akbar's Darbar.

भुल्लनसिंह फरीदकोट के राजा वराड़ वंशी जाट सिख थे। जाट इतिहास:ठाकुर देशराज से इनका इतिहास नीचे दिया जा रहा है।

भुल्लनसिंह

इसमें से अधिकांश हुमायूं के साथ लड़ाई में मारे गये। संगर के बाद इनके लड़के भुल्लनसिंह राज्य के मालिक हुए। उस समय अकबर (1542 – 1605) का जमाना था।

भट्टियों और वराड़ों की लड़ाई - भट्टी लोग धीरे-धीरे इनके राज्य को दबा रहे थे। एक भट्टी राजपूत ने अपनी लड़की अकबर को ब्याह दी थी और यह मुसलमानी हो चुकी थी। इस भट्टी सरदार का नाम मंसूरखां था। यह जब लड़ाई में भुल्लन से फतहयाब न हुए, तो इसने आगरे जाकर बादशाह अकबर से सहायता चाही। इस खबर को सुनकर भी कुछ थोड़ी सी फौज लेकर आगरे पहूंचे। दोनों ने अपने राज्य के सरहदबंदी के दावे अकबर के सामने पेश किये। लेकिन अकबर ने कोई फैसला न करके विश्वास दिलाया कि तुम्हारे राज्यों की फिर सरहद बांध दी जायेंगी। अकबर ने दोनों को खिलअत और खस्ताने अता किये। इस समय मंसूरखां ने भुल्लन को नीचा दिखाने की गरज से, खिलत में पगड़ी उठाकर अपने सिर पर बांधनी शुरू कर दिया। अकबर ने कहा - बस, तुम्हारा राज्य सम्बन्धी फैसला हो गया। तुम दोनों अपने राज्य को उसी तरह बांट लो कि जिस तरह तुम्हारे सिर पर पगड़ी मौजूद है। कहा जाता है कि पगड़ी दोनों के सिर पर बराबर निकली। इस फैसले के बाद दोनों सरदार अपने-अपने देश चले आए। आगे से समय-समय पर शाही सेवाएं करते रहे।

भट्टियों और वराड़ों की लड़ाइयों का कारण यह था कि देहली से चलकर घंघर नदी व बीच का प्रदेश भट्टियों ने दबा रखा था। वराड़ उसे अपनी पैतृक सम्पत्ति समझते थे, यही संघर्ष का कारण था। राजपूत भट्टियों का एक बड़ा हिस्सा मुसलमान हो चुका था, जिनका नायक मंसूर भट्टी जोरों पर था। उसने जाटों के इलाकों पर भी हाथ मारना शुरू कर दिया था। इस पर वराड़ जाटों ने पूरी ताकत के साथ मंसूरखां पर हमला किया। मौजा बलूआना (स्टेट पटियाला), मौजा दयून (स्टेट फरीदकोट) पर लड़ाइयां हुईं। यह लड़ाई बहुत दिन तक हुई। मंसूरखां के लड़के फतहखां, आलमखां इन लड़ाइयों में काम आए। वराड़ों के दो सरदार हेवतसिंह, जल्ला लड़ाई में मारे गये। दोनों ओर से हजारों आदमियों का नुकसान हुआ। विजय वराड़ जाटों के हाथ रही। वराड़ों ने भट्टियों की बस्तियों को उजाड़ डाला और मंसूरखां भाग कर रानिया को चला गया।

मंसूरखां के साले का नाम वाजा था। इसके पास लाखों ऊंट और मवेशी थीं। तीन चीजें और मशहूर थीं - (1) बेम्ब या टमक, (2) नकरा रंग की घोड़ी और (3) सहीनी सांग। एक समय जब कि वाजा नमाज पढ़ रहा था तो वराड़ जाटों ने उसके गांव पर हमला करके इन तीनों चीजों को छीन लिया। मंसूरखां भी चुप


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-442


नहीं बैठा, वह जब मौका पाता वराड़ों के इलाकों पर हमला कर देता और चट भाग जाता। एक समय वह मौजा मदरसे से जो कि फीरोजपुर में है, रानिया जा रहा था तो खतराना के मुकाम पर वराड़ों ने उसे घेर लिया। दोनों ओर से लड़ाई हुई। मंसूरखां मारा गया। मंसूरखां के मारे जाने की खबर अकबर के यहां पहुंची तो उसने कोई ध्यान नहीं दिया, क्योंकि ज्यादती मंसूरखां की ओर से थी। दूसरे, वराड़ लोग अकबरी सेना की सहायता किया करते थे।

राठौर राजपूतों से लड़ाई - लूटमार करने और राज्य बढ़ाने में वराड़ खूब जोरों पर थे। कहा जाता है कि एक बार उनका एक दल जिसमें नौ सौ सिपाही थे, मुहीम से लौटता हुआ मौजा धनौर पहुंचा जो इस वक्त मौजा बीकानेर में है। वहां इस दल को मालूम हुआ कि मौजा पूगल के रकबा से एक खेत के दरम्यान, राठौर राजपूतों की नौजवान लड़की हजारों रुपये का जेवर पहने हुई तन तनहा एक टाण्ड बनाए दिन रात बैठी रहती है। राठौर इनके शत्रु थे, ख्याल हुआ कि रास्ते में इस औरत को लूटते जायें। सब के सब इस खेत की तरफ हुए। जब औरत के पास पहुंचे तो कहा - “तुम लोग तो बहादुर और जवान मर्द कहलाते हो। घोड़े, मवेशी लूटते हो न कि आदमी। मैं औरत जात हूं। बेवजह मुझ पर हमला करना मर्दानिगी नहीं है। तुम मेरे साथ दो बातें कर लो, फिर चाहो जो करना।” सारे बहादुर उसकी तरफ ध्यान देकर सुनने लगे तो उसने कहा कि - तुम नौ सौ बहादुर हो और मेरे गोपिये के ग्यारह सौ गुलीले इस समय मौजूद हैं। मेरी निशानाबाजी की आजमाइश कर लें। यदि इसमें तुम्हें मेरा कमाल दिखाई दे तो मुझे अपनी शरण में ले लो। दल के लोगों ने उसकी बात की जांच के लिए नौ सरदारों को चुनकर उसके सामने खड़ा किया और कहा कि - इनके नेत्रों से ठीक बीच में निशाना लगाओ और उसने निशाने ठीक लगाये। वराड़ सरदारों ने उसके कमाल को मान लिया और उसे शरण में ले लिया। उससे पूछा कि तुम नौजवान सुन्दरी हो फिर इस तरह जंगल में क्यों बैठी रहती हो? उस सुन्दरी ने कहा कि मैं विवाह होते ही विधवा हो गई हूं, जिन्दगी का लुत्फ तनिक भी नहीं मिला। मेरे ससुराल और मायके वाले कौमी रस्म के लिहाज से करेवा नहीं करते और मेरी इच्छा करेवा (पुनर्विवाह) करने की है क्योंकि छिपकर पाप करना मैं बुरा समझती हूं। मैं इस जगह अपने पल्ले का मर्द ढ़ूंढने की इच्छा से बैठी रहती हूं। सरदारों ने उससे कहा कि - हम में से तुझे जो भी मंजूर हो, उसी के साथ करेवा कर ले। सुन्दरी ने स्वीकार करते हुए कहा कि - आप लोग एक-एक करके मेरे आगे से निकलिये, जिसे मैं पसन्द करूंगी अपना पति बना लूंगी। सरदार एक-एक करके उसके आगे से गुजरे। उसने उनमें से रावदल के लड़के रतनपाल को पसन्द किया। साथ ही उससे वचन लिया कि सरदार जी! यदि मेरे वारिश तुम्हारा पीछा करें और तुम कदाचित उन्हें जीत न सको तो मुझे मार डालना, क्योंकि मैं उनका मुंह नहीं देखना


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज, पृष्ठान्त-443


चाहती हूं। सरदार रतनपाल ने स्वीकार करके उसको अपने पीछे घोड़े पर बिठा लिया। राठौरों को खबर लगी तो मुकाबले को आये किन्तु वराड़-वंशी जाट वीरों ने उन्हें मार कर भगा दिया। मौजा अबलू में पहुंचने पर समय पाकर इस सरदारिनी के एक लड़का पैदा हुआ जिसका नाम हरीसिंह रक्खा गया। फिर सरदारिनी मय-बच्चा के पंजगराई में आ रही। हरीसिंह सदैव अपनी कौम के - जाट सरदारों - के साथ युद्ध में शत्रुओं से लड़ने के लिए जाया करता था।1

भुल्लनसिंह की सरदारी के दिनों में इतनी जमीन आ गई थी, जो आज इलाका कोटकपुरा, इलाका फरीदकोट, इलाका माड़ी, इलाका मुदकी और इलाका मुक्तेश्वर के नाम से मशहूर है। इतने बड़े खुदमुख्त्यार सरदार तत्कालीन बादशाह को भेंट स्वरूप कुछ रुपया दिया करते थे। लकब चौधरी के नाम से प्रायः ऐसे सरदार पुकारे जाते थे। सरदार भुल्लन ने अकबर से लेकर शाहजहां के समय तक के जमाने को देखा था। वे शाही इमदाद में अपने सैनिकों समेत जाते थे। आखिर शाहजहां की सहायता में जब कि बुन्देलखण्ड में युद्ध हुआ, अपने भाई लालसिंह समेत मारे गये भुल्लन के कोई संतान न थी।

References


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