Gana

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Author:Laxman Burdak, IFS (R)

Gana (गण) means "flock, troop, multitude, number, tribe, series, class" (Monier Williams's dictionary).

Definition

It can also be used to refer to a "body of attendants" and can refer to "a company, any assemblage or association of men formed for the attainment of the same aims"

Pāṇini in his Sanskrit grammar used gana as: संघोद्घौ गण प्रशंसयो Sanghoddhau gaṇa praśansayo (III.3.86)

Narada smriti in Sanskrit mentions as: It shows that the ganatantra (republic) system of rule was prevalent in India since ancient period.

Variants of name

Mention by Panini

Gana (गण) (sangha) (संघ), is mentioned by Panini in Ashtadhyayi. [1]

History

V. S. Agrawala[2] writes that there is the sutra Saṅgha-odghau gaṇa-praśaṁsayoḥ (III.3.86), which speaks of the political Saṅgha technically known as Gaṇa. Sangha and Gana were used as synonymous for a republic. Panini speaks of the Yaudheyas as a Saṅgha, where as they refer to themselves as a Gana on their coins, albeit in the post Paninian period.


Vasudeva Saran Agrawala[3] writes about Rajanya as a Ruling caste in a Gana – [p.428]: The term Rājanya denoted Kshatriya descendant of a Raja, where as the others were called Rājana (IV.1.137). For example in the Andhaka-Vrishni Sangha, only some members bore the title Rajanya, as the descendant of Shvaphalaka, Chitraka, Sini, and Vasudeva, where as others like the Dvaipyas (inhabitants of the islands near sea cost) and Haimāyanas did not have that status although they too belonged to the Sangha (VI.2.34) . The Kashika defines Rajanya as abhishikta-vaṁshya Kshatriyas, i.e. leaders of families consecrated to ruler-ship. It appears from this that not all the members of a Sangha were entitled to exercise political power, which was the privilege of only the Governing class. It appears that the descendants of pioneer Kshatriyas who had settled on land and founded the Janapada State, treated political sovereignty as their privilege which was transmitted in their families from generation to generation. In spite of grown of population in a Janapda, the centre of power was not altered and the main authority continued to vest in Kshatriya hands. These Kshatriyas in a Sangha bore the title of Raja which was applied to the head of each family who represented his Kula in the Sangha assembly. The constitutional practice in the Sabhaparva (gṛihele gṛihe Rājānaḥ, 14.2) had reference to this feature of Sangha polity, the opposite of which was a Samrat Government. ....

The Lichchhavis are said to have comprised 7707 rajans living in Vesali, and it is stated in Lilita-vistara that each one of them thought: I am King, I am King. Panini mentions that Vrijis, of whose confederation


[p.429]: the Lichchhavis formed part. There is reference in the Jatakas to the Lichchhavi rulers consecrated to rulership by sprinkling sacred water on them (Jat. IV.148). A similar custom prevailed among the Andhaka-Vrishnis and other Sanghas.


V. S. Agrawala[4] mentions Ayudhajivi Sanghas – [p.443]: Panini mentions Ayudhajivi Sanghas by name in sutra V.3.115-117 and in the three Ganas of these sutras, Dāmanayādi, Parśvādi, and Yaudheyādi. The chapter opens with a reference to such Sanghas in the Vāhīka country, the cradle land of martial tribes who cultivated military art as a way of life. Mostly they were Kshatriyas, But Sutra V.3.114 shows that some of them were Brahmans also, e.g. the Gopālavas, and others called Rājanyas, which most likely correspond to those Hill States whose ruling classes designate themselves as Ranas. The Śālaṅkayanas are stated by Kashika to have belonged to the Rajanya class, and they seem to be an ancient community, as even Patanjali mentions them by the name Trika (V.1.58; II.352), probably on account of their League of three states (on the analogy of Shashtha as applied to League of six Trigartas, V.3.116).

Ganas in Shanti Parva

A detailed analysis has been done about ganas in Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter 108 in which Yudhisthira asks Bhisma about the ganas that

how ganas increase ?
how they defend themselves from the dividing-policy of enemies ?
what are the techniques to conquer enemies and making the ganas friends ?
how they hide their secret mantras being in majority?

The Bhisma's answers to these questions have been recorded in the form of shlokas (verses) from 16 – 32 in Shanti Parva Mahabharata Book XII Chapter 108

Ganas in Vedas

Ganas have been narrated in Vedas in the form of assemblies of warriors as is clear from the following sutras of Rigveda (RV 3-26-6): Vrātam Vrātam gaṇam gaṇam (व्रातं व्रातं गणम् गणम् ).

Gana in brief means an assembly. Ganatantra (republic) means a state run by assemblies.

The representative members of clans were known as ganas and their assembly as sanghas, there chief as ganadhipati or Ganesha and Ganapati.

Ganas in Buddhist literature

The Buddhist literature Mahabagga mentions that: Gaṇa pūrkovā bhavissāmīti (गण पूरकोवा भविस्सामीति)

It indicates that there was an officer who used to see the number of ganas and their koram in the Rajasabha (state assembly).

During Buddhist period, the Buddhist books like ‘Pali-pitaka’, Majjhamnikaya, mahabagga]], [[Avadana shataka have mentioned ganas and sanghas many times. During Buddhas period there were 116 republics or ganasanghas in India.

In Buddhist times, Gaṇas were assemblies of the Sanghas, early democratic republics known as Gaṇa-rājyas, literally "rule of the assembly".

गणराज्यों का संगठन

ठाकुर देशराज[5] ने लिखा है कि....गणराज्य बहुत बड़े नहीं होते थे। कोई-कोई तो केवल अपने ही कुल वालों का होता था, किन्तु ऐसे बहुत थोड़े रूप में होते थे। ये प्रजातंत्री समुदाय अपनी पार्लियामेण्ट के लिए प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते थे। निर्वाचन का तरीका आज से भिन्न था। कुलपति ही राजसभा का मेम्बर होता था, इस तरह से कहीं-कहीं तो मेम्बरों की संख्या बढ़ जाती थी। लिच्छिवियों के गणतंत्र में 7007 मेम्बर बैठते थे। पार्लियामेण्ट को संथागार या संघ कहते थे। गण का अर्थ समूह है, किन्तु गणराज्यों में गण मेम्बर का बोध भी कराता है। श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने गण का अर्थ संघ या प्रजातंत्र किया है, किन्तु प्रकरणवश गण का अर्थ मेम्बर भी हो जाता है। पुराणों में गणों को व्यक्ति माना गया है। कौंसिल और कौंसिलर जैसा अन्तर हमारे अर्थ और जायसवालजी के अर्थ में है। गण-पूरक जो कि कोरम को बतलाता था, उसके कार्य और नाम दोनों से गण के अर्थ मेम्बर के होते हैं । गणों के ऊपर जो गणपति होते थे वे भी चुने जाते थे। ऐसा मालूम होता है कि वे बदलते भी रहते थे। अन्धक, वृष्णि-संघ के प्रधान कहीं श्रीकृष्ण और उग्रसेन आते हैं, कहीं वासुदेव और अक्रूर और कहीं शिवि और वासुदेव के नाम आते हैं। फेडरेशन के सभापति अर्द्धभोक्ता राज्य कहे जाते थे। श्रीकृष्ण को भी इस नाम से याद किया गया है।

शासन-विधान - गणराज्यों में जो नियम जारी किया जाता था, उसे पहले गण-सभा से पास कराया जाता था। सभा-भवन को संथागार कहते थे। प्रस्ताव पर विचार खुले अधिवेशन में होता था। प्रस्तावक खड़ा होकर अपना वक्तव्य देता थो और उपस्थित लोगों की राय लेकर उसे पास किया जाता था। प्रत्येक अधिवेशन का सभापति वही प्रधान हुआ करता था, जो कि राज्य का प्रधान होता था। वह फौजी और न्याय सम्बन्धी काम भी करता था। ऐसे राज्यों में कम से कम तीन अधिकारी तो होते ही थे - प्रधान, उप्रधान और मंत्रीउपाध्यक्ष ही सेनापति होता था। ये प्रधान अपने लिये राजा भी कहते थे। वास्तव में ये गणपति थे। कहीं-कहीं तो सारे सदस्य ही अपने साथ राजन्य शब्द का प्रयोग करते थे। राजन्य शब्द का प्रयोग गणवादी लोग राजपुरूष के लिए करते थे, न कि एकछत्र राजा के लिए। प्रजातंत्र के अध्यक्ष का चुना जाने पर तिलक होता था। कुलपति अथवा सदस्य उनके तिलक करते थे। जिसे राज्याभिषेक ही कहना चाहिए। योग्य प्रधान को कई-कई बार भी चुन देते थे और यह भी होता था कि एक ही प्रधान जन्म भर तक अध्यक्ष बना रह सकता था, किन्तु उसका इस पद के लिए मोरूसी हक नहीं था

गणों की विशेषतायें

ठाकुर देशराज[6] ने लिखा है कि.... श्री काशीप्रसादजी जायसवाल ‘हिन्दू-पालिटी’ में गणों के सम्बन्ध में लिखते हैं -

यूनानियों के कथन से यह बात सिद्ध होती है कि ये लोग केवल युद्ध-क्षेत्र में बहुत उच्च कोटि की वीरता और शौर्य दिखलाने वाले अच्छे योद्धा ही नहीं थे किन्तु अच्छे कृषक भी थे । जो हाथ सफलता-पूर्वक तलवार चला सकते थे, वे खेती के औजार भी उतनी ही उत्तमता से उठा सकते थे। अर्थ-शास्त्र और बौद्ध-लेखों से भी प्रकट होता है कि लोग कृषक भी थे और शिल्पी भी।

इससे पहले वे लिखते हैं - भारत के प्रजातंत्र या गण-राज्यों के कानून या धर्म और उसके अनुसार शासन करने की व्यवस्था की प्रायः सभी यूनानी लेखकों ने एक स्वर से प्रंशसा की है। और उनकी इस प्रशंसा का समर्थन महाभारत से होता है। इन राज्यों में कम से कम कुछ तो अवश्य ऐसे थे जो पहले के फैसला किए हुए मुकद्दमों की नजीरें पुस्तकों में लिखकर रखा करते थे। यहां तक कि उनका कट्टर-शत्रु कौटिल्य भी कहता है कि संघ का जो मुख्य या प्रधान होता है, अपने संघ में उसकी प्रवृति न्याय की ओर होती है। उनमें न्याय का यथेष्ट ध्यान रखा जाता था। बिना न्याय के कोई गण या प्रजातंत्र अधिक समय तक चल ही नहीं सकता। उन लोगों का दूसरा गुण उनकी दांति होती थी। कौटिल्य ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि संघ का मुख्य या प्रधान दांत हुआ करता था जैसा कि हम पहले बतला चुके हैं। महाभारत में भी यह कहा गया है कि कुछ ऐसे बड़े और उत्तरदायी नेता हुआ करते थे जो छोटे और बड़े सभी प्रकार के सदस्यों को ठीक ढंग से रखते थे - उन्हें उच्छृंखल या उद्दण्ड नहीं होने देते थे। ऐसे नेता लोग अपने आपको तथा


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-157


अपने कृत्यों को सर्व-प्रिय बनाया करते थे। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि श्रीकृष्ण ने अपने मित्र नारद से कहा था कि अपने संघ के कार्यकारी मण्डल का काम चलाने में मुझे कैसी-कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस पर नारद ने श्रीकृष्ण की इस बात की निन्दा की थी कि जब सर्व-साधारण के सामने वाद-विवाद का अवसर आता है, तब तुम अपनी जबान को वश में नहीं रख सकते हो। नारद ने वृष्णियों के नेता श्रीकृष्ण को परामर्श दिया था कि यदि वाद-विवाद में तुम पर लोग किसी तरह का आक्षेप या आक्रमण करें तो तुम उसे धैर्य-पूर्वक सहन कर लिया करो और संघ में एकता बनाए रखने के लिए तुम अपने व्यक्तित्व पर होने वाले आक्षेपों का ध्यान न दिया करो।

इसी प्रकार वे लोग सदा युद्ध करने के लिए भी तैयार रहा करते थे। गण के नागरिक लोग सदा वीरता प्रदर्शित करने के आकांशी रहा करते थे और इसी में अपनी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा समझते थे।

जैसा कि महाभारत में कहा गया है गणों मे सब लोग समान समझे जाते थे। यह बात प्राकृतिक रूप से आवश्यक भी थी। जिस संख्या में सर्वसाधारण का जितना ही हाथ होगा, उसमे समानता के सिद्धान्त पर उतना ही जोर भी दिया जाएगा।

गणों में ये नैतिक गुण हुआ करते थे, इनके अतिरिक्त उनमें राज्य-संचालन के भी गुण होते थे। महाभारत में इस बात का प्रमाण मिलता है कि विशेषतः आर्थिक बातों में उनका राज्य-संचालन और भी सफलतापूर्वक हुआ करता था। उनके राजकोष सदा भरे हुए रहा करते थे।

गणों के राजनैतिक बल का एक बहुत बड़ा कारण यह था कि गण के सभी लोग सैनिक और योद्धा हुआ करते थे। उनका सारा समाज या समस्त नागरिक, सैनिक होते थे। उनमें नागरिकों की ही सेना हुआ करती थी और इसीलिए वह राजाओं के किराए पर भरती की हुई सेनाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती थी और जब कुछ गण किसी पर आक्रमण करने के लिए अथवा किसी के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए, अपनी एक लीग (ज्ञाति) बना लेते थे तो उस दशा में जैसा कि कौटिल्य ने कहा है, वे अजेय हो जाते थे। हिन्दू-प्रजातंत्रों या गणों में संघ (ज्ञाति) बनाने की विशेष प्रवृति हुआ करती थी। इस सम्बन्ध में वैयाकरणों के षष्ठ त्रिगर्त, क्षुद्रक, मालव संघ, विदेहों और लिच्छिवयों का संघ, पाली त्रिपिटिक का वज्जियों का संघ और अन्धक, वृष्णि के संघ उदाहरण स्वरूप हैं। महाभारत के कथनानुसार जो गण अपना संघ बना लेते थे, शत्रु के लिए उन विजय प्राप्त कर लेना प्रायः असम्भव सा हो जाता था। बुद्ध ने भी मगध के अमात्य से यही कहा था कि वज्जियों के संघ पर मगध के राजा विजय प्राप्त नहीं कर सकते।

हिन्दू-गणों के वैभव और सम्पन्नता की प्रशंसा भारतीय और विदेशी दोनों


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-158


प्रकार के लेखों आदि मे पाई पाई जाती है। यूनानियों का ध्यान उनकी संपन्नता पर गया था और महाभारत से भी इसका समर्थन होता है। यदि कोई नागरिक किसी कारण से राजनैतिक क्षेत्र का नेता नहीं हो सकता था, तो वह वणिकों या व्यापारियों की पंचायत या सभा का नेता होने की आकांक्षा किया करता था। उनमें शांति की विद्या और युद्ध की विद्या, सुव्यवस्था और दांति और अध्यवसाय, शासन करने का अभ्यास और शासित होने का अभ्यास, विचार और कार्य, घर और राज्य की सभी बातें बराबर-बराबर और साथ-साथ चलती थीं। इस प्रकार का जीवन निर्वाह करने का परिणाम यही होता था कि सब लोग व्यक्तिशः नागरिक दृष्टि से उच्च-कोटि के कर्मशील और दक्ष हुआ करते होंगे। जिनमें इतने गुण और इतनी विशेषतायें हों, यदि उनके सम्बन्ध में महाभारत में यह कहा गया हो कि लोग उनसे मित्रता करने और उन्हें पक्ष में मिलाने के लिए उत्सुक रहा करते थे, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है और न इसी बात में किसी प्रकार का आश्चर्य है कि वे अपने शत्रुओं की संख्या घटाने में ही आनन्द का अनुभव किया करते थे और अपनी ऐहिक सम्पन्नता का ध्यान रखते थे। इसका स्पष्टीकरण इस बात से होता है कि उनकी शिक्षा और प्रतिभा एकांगी नहीं हुआ करती थी। वे केवल राजनैतिक पटु ही नहीं थे, कौटिल्य ने उन्हें योद्धा भी बताया है और शिल्प-कला में कुशल भी। वे स्वयं अपने यहां के कानूनों के कारण ही शिल्प-कुशल और सैनिक होने के लिए बाध्य होते थे। वे व्यापार और कृषि पर सदा ध्यान रखते थे। जिससे वे स्वयं भी सम्पन्न रहते थे और उनका राज-कोष भी भरा हुआ रहता था। काशीप्रसाद जायसवाल लिखते हैं-

शासन-प्रणाली की सफलता की सबसे अच्छी कसौटी यह है कि उसके द्वारा राज्य चिरस्थायी हो । भारत की प्रजातंत्र या गण-शासन प्रणाली राज्यों को चिरस्थायी बनाने में बहुत अधिक सफल हुई थी जैसा कि हम पहले बता चुके हैं। हमारें यहां इस शासन-प्रणाली का आरम्भ वैदिक युग के ठीक बाद ही हुआ था। यदि हम ऐतरेय ब्राह्मण के काल को अपना आरम्भिक काल मानें, तो हम कह सकते हैं कि सात्वत भोजों का अस्तित्व प्रायः एक हजार वर्ष का था। यदि उत्तर मद्र और पाणिनी के मद्र एक ही हों, तो उनका अस्तित्व लगभग 1300 वर्षो तक था और वे यदि एक न हों, तो उनका अस्तित्व प्रायः 800 वर्षो तक सिद्ध होता है। क्षुद्रकों और मालवों ने ई. पू. 326 में सिकन्दर से कहा था कि हम लोग बहुत दिनों से स्वतंत्र रहते आए हैं। मालव लोग राजपूताने में ई.पू. 300 तक अवस्थित थे। इस प्रकार उन्होंने मानों लगभग 1000 वर्ष स्वतंत्रतापूर्वक बिताए थे। यही बात यौधेयों के सम्बन्ध में भी है। लिच्छिवयों के सम्बन्ध के लेख भी प्रायः एक हजार वर्ष तक के मिलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जिन सिद्धान्तों के अनुसार हिन्दू प्रजातंत्रों और गणों का संचालन होता था, वे सिद्धान्त


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-159


स्थायित्व की कसौटी पर पूरे उतरे थे।1

इतने योग्य और सर्व गुण-सम्पन्न तथा शक्तिशाली होते हुए भी गण-राज्य नष्ट कैसे हो गए, इसके सम्बन्ध में जायसवालजी कहते हैं -

"इतना होने पर भी हिन्दू-गण या प्रजातंत्र साधारणतया बहुत बड़े नहीं होते थे। यद्यपि उनमें से अनेक गण प्राचीन यूरोप के प्रजातंत्रों की अपेक्षा बड़े ही थे। तथापि मालवों, यौधेयों तथा इसी प्रकार के थोड़े से और गणों को छोड़कर आजकल के अमेरिका के संयुक्त-राज्य, फ्रांस और चीन आदि के मुकाबले में बहुत ही छोटे थे।

उनकी यही छोटाई इस राज्यतंत्र की बहुत बड़ी दुर्बलता थी। जो राष्ट्र और राज्य छोटे होते हैं, उनमें चाहे कितने ही अधिक गुण क्यों न हों, उनका अस्तित्व नहीं रहने पाता। बड़े-बड़े राज्यों ने लोभ के वशीभूत होकर छोटे-छोटे राज्यों को खा लिया। जो मालव और यौधेय बड़े-बड़े बलवान साम्राज्यों और विजेताओ के बाद भी बचे रहे थे, उनके राज्य बहुत बड़े-बड़े थे। लिच्छिवयों और मद्रों की भांति यादवों और यौधयों ने भी अपने कानून और अधिकारों का वहां तक प्रचार किया होगा, जहां तक कि उनके राज्य का विस्तार था। उनके विस्तार के कारण ही उनकी वह दशा नहीं हो पाई, जो उनके आरम्भिक समकालीन छोटे-छोटे राज्यों की हुई थी।"

गणराजयों के सम्बन्ध का श्री जायसवालजी का विवेचन तथा उपर्युक्त वर्णन उनके (प्रजातंत्रों) शासन-सम्बन्धी बातों के जानने के लिए पर्याप्त है। यह सब वर्णन उन ग्रन्थों में संग्रह किया गया है, जो एकतंत्र की छाया में रहने वाले लोगों द्वारा लिखे गये थे। हिन्दू-ग्रन्थों में बहुत कम उनका जिक्र है। बौद्ध-ग्रन्थों में अवश्य कुछ अधिक है, किन्तु बौद्ध-ग्रन्थों के अनुशीलन की मर्यादा अभी सीमित है। ये प्रायः सभी गण समयानुसार ज्ञातिवाद की ओर झुकते गये और उनका एक संघ (जट) बन गया। हजारों वर्षों के बाद गणों से संगठित हुए, जट के लिये, सिर्फ इतनी दन्त-कथा शेष रह गई कि जाट गणों से हुए हैं और गण महादेव ने पैदा किये थे क्योंकि गणों के वास्तविक इतिहास से लोग अनभिज्ञ हो चुके थे। इसलिये गणराज्यों से बने हुए जाट को पौराणिक कल्पना के गण-व्यक्तियों के उत्तराधिकारी मान बैठे। अस्तु, हम जट (संघ) के थोड़े से उन गणों का ऐतिहासिक परिचय देते हैं जो कि अब केवल गौत्र या कुल के रूप मे जाटों में पाये जाते हैं।


1. हिन्दू राजतन्त्र, अध्याय 20

See also

References


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