Jat History Thakur Deshraj/Chapter V

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जाट इतिहास
लेखक: ठाकुर देशराज
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पंचम अध्याय : जाट शासन प्रणाली
प्रजातन्त्र, एकतन्त्र, द्वैराजतन्त्र, भूस्वामित्व, नागरिक-मंडल, किले, सेना, युद्ध आदि के वर्णन

प्राचीन काल की शासन-प्रणालियां

प्राचीन काल में भारत में अनेक भांति की शासन-प्रणालियां प्रचलित थीं - विराज, द्वैराज, भौज्य, साम्राज्य, स्वराज्य, गणराज्य आदि।

  • विराज या वैराज्य के अर्थ राजा-रहित शासन-प्रणाली के होते हैं। दूसरा अर्थ महत्वशाली राजा वाली शासन-प्रणाली का होता है। काशी प्रसाद जायसवाल ने इसका पहला अर्थ ग्रहण किया है। वे कहते हैं कि शतपथ ब्राह्मण में वैराज्य के साथ जनपद (प्रजातंत्र) का प्रयोग हुआ है, किन्तु हमें दूसरा अर्थ ठीक जंचता है, क्योंकि महाभारत में विराट का अर्थ जनपद नहीं हो सकता । हां, वंशानुगत राजा की प्रणाली न होने के कारण, इन देशों के लोगों ने अपने शासनतंत्र को वैराज्य नाम दिया हो तो महाभारत के विराट भी प्रजातंत्री हो सकते हैं।
  • द्वैराज्य शासन-व्यवस्था महाभारत-काल में अवन्ति राज्य में पाई जाती है। वहां के बिन्दु एवं अनुबिन्दु दो राजे युद्ध में उपस्थित हुए थे। संभव यही हो सकता है कि वहां अन्धक-वृष्णियों की भांति, ज्ञाति-राज्य था और वे दोनों दो कुलों की ओर से चुने हुए अधिपति थे। लिच्छवि और वृजि लोगों ने भी मिलकर संघ स्थापित किया था, जो संवज्जी नाम से प्रसिद्ध हुआ।
  • भौज्य और द्वैराज्य शासन-प्रणाली में कोई अन्तर नहीं होता। भौज्य का सामान्य अर्थ होता है, खाद्य। इससे यह भाव निकलता है कि इन प्रजातंत्रों में भू-कर रूप में केवल अन्न ही लेने की प्रणाली थी। वैसे राजनैतिक परिभाषा में संयुक्त शासनतंत्र के लिए भौज्य नाम दिया गया मालूम होता है।
  • साम्राज्य - वंशानुगत राजा की छत्र-छाया में प्रजातन्त्र के विरुद्ध जो शासन होता है, वह साम्राज्य कहलाता है।
  • स्वराज्य - विदेशी अथवा विजाति लोगों से रहित अपने हित के लिए जो प्रजातंत्र होता है, वह स्वराज्य कहलाता है।

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अपनी जाति के राजा द्वारा शासन को भी स्वराज्य कहा जा सकता है।
  • गणराज्य उस शासनतंत्र को कहते हैं जो पंचों द्वारा चालित हो।

ऐतरेय ब्राह्मण में इन शासनतंत्रों के नाम इस भांति गिनाये हैं -

साम्राज्यं, भौज्यं, स्वराज्यं, वैराज्यं, पारमेष्ठ्यं महाराज्यं आधिपत्यमयं समन्तपर्यायी स्यात् सार्वभौमः सार्वायुषं अन्तादापरार्धात् पृथिव्याः समुद्रपर्यन्ताया राडसि।’’ (8 - 15)

प्रजातंत्र व संयुक्ततन्त्र की प्रथा पुरानी है या एकतन्त्र की, इसका निर्णय करना कठिन है, क्योंकि वेदों में भी दोनों भांति की शासन-व्यवस्था का पता चलता है। कभी एकतंत्र प्रबल हुआ तो कभी प्रजातंत्र। किन्तु ऐसे भी उदहारण मिलते हैं कि कुछ समूह ऐसे भी थे, जो नितान्त अराजकतावादी थे और जन्मेजय के समय तक ऐसे समूहों का पता चलता है।

अथर्वसंहिता, शतपथ और फिर महाभारत में अराजकदावाद सम्बन्धी वर्णन मिलता है। भीष्म ने युधिष्ठिर को बताया है कि -

नैव राज्यम् न राज च न च दंडो न दांडिकः। धर्मेणैव प्रजाः सर्वा रक्षन्ति स्वयं परस्परम्।
अर्थात - पूर्व काल में न राज्य था न राजा और न दण्ड और अपराधी। सर्व लोग धर्मपूर्वक एक दूसरे की रक्षा करते थे।

एकतंत्र शासन किस भांति उदय हुआ, आगे भीष्म ने यह बात बताई है। जैन ग्रन्थों में इन शासन प्रणालियों का वर्णन इस प्रकार आया है - ‘अरायाणि, वा गणरायाणि, जूवरायाणि वा दो रज्जाणि वा वे रज्जाणि.....(आयारांग स्तुतं)1। उन पौराणिक कथाओं को यदि एक ओर रख दिया जाय जिनमें ययाति, पुरूरवा आदि को एकतंत्री शासक कहा गया है, तो मानना पड़ेगा कि प्रायः समस्त चन्द्रवंशी समुदाय प्रजातंत्रवादी था। उनमें कुरू, मद्र, पांचाल, शौरसैनी, अंधक, वृष्णि, माधव, गोप, नव, भोज, कौन्तेय, पौर, यदु, कुकर, दशार्ण, दशाह, वाहीक आदि अनेक कुल प्रजातंत्री दिखाई देते हैं। यह नहीं कहा जा सकता कि सारे सूर्यवंशी भी आरम्भ में एकतंत्रवादी थेविदेह, शाक्य, काश्यप, लिच्छिवि आदि उनमें प्रजातंत्र दिखाई देते हैं। यहां प्रसंग वशात् यह भी बता देना है कि वास्तव में सूर्यवंश और चन्द्रवंश क्या हैं -


1. आरायाणि - अराजक राज्य। गणरायाणि - गणराज्य। जुवरायाणि - युवराज द्वारा शासित देश, दो रज्जाणि ऋ द्वैराज्य। वे रज्जाणि - वैराज्य। विरूद्धरज्जाणि - अपने से विरूद्ध राज्य। श्री काशीप्रसादजी जायसवाल ने विरूद्ध रज्जाणि का अर्थ दलों द्वारा शासित किया है, किन्तु प्रसंग से यह अर्थ नहीं होता। साथ ही विरूद्ध रज्जाणि का उल्लेख अन्य ग्रन्थों में नही मिलता।


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सूर्यवंश - चन्द्रवंश क्या हैं?

सी.वी. वैद्य का यह मत ही सही है कि वर्ष गणना तथा संवत् का चलन जो लोग सौर पद्धति से मानते थे, वे सूर्य-वंशी और जो चान्द्र-पद्धति से मानते थे चन्द्रवंशी कहलाए

हमारे विचार से तो इक्ष्वाकु, अनु, द्रुह्यु, भारत, विदेह, जिनका नाम वैदिक साहित्य में भी आता है व्यक्ति न होकर जातियां थी। पौराणिक काल में उन्हें व्यक्ति विशेष, यही क्यों राजा मानकर वर्णन किया है और पश्चात् के लोगों ने तो उनसे अपनी वंशावलियां तक बना डालीं। यह विषय हमारे प्रंसग से बाहर का है, किन्तु यहां इतना ही बताना है कि सूर्यवंशी और चंद्रवंशी दोनों ही समुदायों में विभिन्न शासन प्रणालियां प्रचलित रही हैं। जाटों में अधिकांश समूह चन्द्रवंशियों का है और कुछ समुदाय सूर्यवंशियों का। जाट शब्द स्वयम् ज्ञाति (संघ) वाची है।1 शासन में व्यक्ति के बजाय जाति का हाथ रहे, इसीलिए भगवान श्रीकृष्ण ने ज्ञातिवाद (फेडरेशन) की नींव डाली थी। अतः जाट प्रारम्भ से ही प्रजातंत्रवादी हैं। अथवा यों कहना चाहिए कि ज्ञातिवादी (प्रजातंत्री) समूह ही जाट हैं। अथवा जितने प्रजातंत्री समूह थे वे शनैः-शनैः अधिकांश में जाट कहलाने लग गए थे।

जाटों में पाए जाने वाले प्रजातंत्री समूह

नीचे हम ऐसे प्रजातंत्री समूहों का नाम देते हैं जिनका निशान इस समय जाटों में पाया जाता है-

महाभारत कालीन प्रजातंत्री समूह

  • (1) गांधार - यह भारत के उत्तर-पश्चिम में राज करते थे । इनकी राजधानी का इस समय कन्दहार नाम पड़ गया है ।2
  • (2) मद्र या मद्रेना (मदेरना) इनके दो दल थे - एक ईरान में आबाद था और एक पंजाब में जिसकी राजधानी मद्रपुर थी । ऐतरेय ब्राह्मण में हिमालय के उत्तर में उतर-मद्रों का स्थान बताया है और आजकल यह युक्तप्रांत में पाये जाते हैं ।
  • पांडु और कैरू (कौरव) अथवा गुरु पंजाब और देहली प्रान्त में आबाद थे । दक्षिण की ओर जाने वाला पांडवों का समूह राज्यवादी और उत्तर की ओर रहने वाला समूह प्रजातंत्रवादी ।
  • तूर्त्र जो कि अब तूर कहलाते हैं, यू०पी० में आबाद हैं ।

1. याज्ञवल्य स्मृति में जाति, श्रेणी, गण, जनपद को समान वाची तथा संगठित संस्था के रूप में वर्णन किया है - ‘व्यवतारान् स्वयम् पश्येत् सम्यैः परिवृतोऽन्यहम् । कुलानि जाति म्रणीश्च् गणजानपदा नपि’ ॥1॥160॥
2. गांधार देश में ही छांदोग्य उपनिषद की रचना हुई थी । महाभारत के समय में इनमें एकतन्त्र शासन जान पड़ता है । पीछे ये प्रजातन्त्री हो गये थे । वैदिक काल में भी ये प्रजातन्त्री थे । ऋग्वेद में इनके देश की अच्छे ऊन वाली भेड़ों का जिक्र है ।


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  • कारपश्व, ताड्य, महा ब्राह्मण 25/1023 में इनका वर्णन है । यमुना के किनारे भूगोल के ‘विश्वांक’ में इनका पता बताया है । यमुना के 6-7 मील के अन्तर पर कारव गांव है, इसी के सन्निकट अथवा यही उसकी राजभूमि रही होगी और इस समय करवारा और खोखिया या खोखर कहलाते हैं । किन्तु खास कारव में आजकल हैगा जाट हैं ।
  • काश्य - यह सूर्यवंशी समुदाय था, जब मगधों द्वारा जीत लिया गया था और उनकी स्वतंत्रता नष्ट कर दी गई थी, इससे काशी को छोड़कर आगे बढ़ आया और अब काशीवत कहलाता है ।
  • कीकट - यह विपाश और शतुद्र (रावी और व्यास) के किनारे रहते थे । इस समय यह कटनी नदी के किनारे पाये जाते हैं और कीकटवा या कटेवा कहलाते हैं । मत्स्य शतपथ ब्रा० 13/5/4/9 में इनका नाम आता है। अब यह मछार कहलाते हैं । कुछ लोग कहते हैं, इनका स्थान जयपुर के पास रहा होगा । तब तो यह कछवाहे कहे जा सकते हैं । साम्राज्यवादी विचार रखने वाले तथा पुनर्विवाह को बंद कर देने वाले राजपूत हो गए और नरवर चले गए । बाकी जो रह गए और पुरानी रिवाजों को न छोड़ा, वे जाट हैं।
  • सिन्धू - यह नाम ही बताता है कि पंजाब के पास के वर्तमान सिंध में मद्रों के पड़ौसी थे और अब पंजाब में हैं । पंजाब में जाटों का यह प्रसिद्ध गोत्र है।
  • जठर - उत्तरी भारत में जठरकूट देव नाम पर्वत के अंचल में रहते थे । बेसवां (अलीगढ़) के अंगद-शास्त्री ने इनको ही सम्पूर्ण जाटों का पुरषा माना है। किन्तु अंगद शास्त्री को इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में बड़ा भ्रम हुआ है। इन्हें दक्षिण की क्षत्राणियों का वंशज मानने की उसने भयंकर भूल की है । आजकल कुछ तो यह मालवा की ओर आ गए हैं और कुछ मुसलमान हो गए हैं और जाटरा कहलाते हैं। अब ये मथुरा और गुड़गांव के बीच में आबाद थे। इनका यह प्रजातंत्र मांट के आस-पास था और नवराष्ट्र कहलाता था । पीछे यह अन्य यादवों की भांति यहां से उत्तर की ओर चले गए और बहुत दिन तक वहां रहे।
  • मि० ग्राउस ने खुतन के पास किसी नव झील का नाम लिया है। हूणों के आक्रमण के समय ये उस स्थान को छोड़कर अपने पुराने स्थान पर आ बसे और वहां एक झील खोदी तथा झील के भीतर दुर्ग बनाया । अब ये नोहवार (नववीर) कहलाते हैं ।
  • महाभारत कालीन जनपदों में ‘भूगोल’ के ‘भुवनांक’ में ‘कुन्द’ लोगों का भी उल्लेख है, जो कि महाभारत के अनुसार ही है। ये उत्तरी भारत में कहीं थे। अपरान्तों के साथ नाम आने से मालूम होता है कि ये उत्तरी-पूर्वी भारत में गंगोत्री के पास ही कहीं थे। इनका निशान अब यू० पी० में पाया जाता है, जो कुन्द और कुन्दू कहलाते हैं। ‘जाट-उत्पत्ति’ के लेखक वेनीप्रसाद जी ने अपनी पुस्तक में जाटों के गोत्रों में इनका उल्लेख दिया है।
  • दशार्ण लोग सूरसैन देश के समीप बसते थे, ऐसा महाभारत मीमांसा के वर्णन से पता चलता है। सूरसेन देश की राजधानी मथुरा थी। किन्तु दशार्ण लोगों का पता दसपुर अथवा मन्दसौर के आस-पास

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चलता है। इस तरह से दशार्ण मालवे के निवासी थे और अब उनके वंशज जाटों में दशपुरिया नाम से प्रसिद्ध हैं, तथा यू० पी० में पाए जाते हैं।
  • शिव लोग व्यास के किनारे पर राज करते थे। इनका वर्णन वेदों में भी है। ऋग्वेद की एक ऋचा के कर्त्ता शिव लोगों को माना गया है। मि० ग्राऊस साहब ने ‘मथुरा मेमायर्स’ में शिव लोगों को नोहवारों का भाई सिद्ध किया है। वे ‘हरिवंश’ के हवाले से लिखते हैं कि उशीनर राजा के पांच रानी थीं - 1 नृगा, 2 कृमि, 3 नवा, 4 दर्व और 5 दृषवती। उनके एक-एक पुत्र हुआ। उनके नाम नृग, कृमि, नव, सुवृत और शिवि थे। इनमें से नव ने नवराष्ट्र पर राज किया। कृमि ने कुमिल्लापुरी और शिवि ने जो कि ऋग्वेद की एक ऋचा का लेखक कहा जाता है, शिव व्यास पर राज किया और नृग ने योधेयाज्ञ पर राज किया। महाभारत में उशीनरों को नीचा क्षत्रिय बताया है) पाणिनि ने उनका वर्णन ऐसा किया है कि वह पंजाब के पास रहते थे। ऐतरेय ब्राह्मण ने उन्हें (उशीनरों को) कुरु, पांचालों में शामिल किया है। उशीनर की पांचवीं रानी दृषद्वती के नाम से लोप हुई नदी दृषद्वती का हमें ध्यान आता है, जो महाभारत में कुरुक्षेत्र की दक्षिणी सीमा बताई गई है। इस सबसे प्रकट होता है कि नवराष्ट्रम् जिस पर कि उशीनर का तीसरा बेटा नव राज करता था, वह गुड़गांव व मथुरा के सन्निकट रहा होगा उसकी राजधानी ठीक यही रही होगी, जो अब नोह कहलाती है (‘मथुरा मेमायर्स’ के पे० 320 से 322)

मि० ग्राऊस साहब के कथन जो कि अंग्रेजी में हैं, हम यहां ज्यों का त्यों देते हैं -

Under the same head comes the apparently Muhammadan name Noh; which, with the addition of the suffix jhil, is the designation of a decayed town on the left bank of the Jamuna to the north of the district. At no very great distance, but on the other side of the river, in Gurgaon, is a second Noh; and a third is in the Jalesar Pargana, which now forms part of the Agra district. So far as I have any certain knowledge, the name is not found in any other part of India; though it occurs in Central Asia; for I learn from Colonel Godwin Austen that there is a Noh in Ladak or rather Rudok at the eastern end of the Pagang Lake, and on its very borders. The Yarkand expedition is also stated in the papers to have reached Leh via Khotan, Kiria, Polu, and Noh, by the easternmost passover the Kuen-lun mountains. Upon this point I may hope to acquire more definite information hereafter, the best maps published up to the present time throw no light on the matter, for though

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they give the towns of Kiria and Khotan, they do not show Noh, and its existence therefore requires confirmation. The three places in this neighbourhood all agree in being evidently of great antiquity, and also in the fact that each is close to a large sheet of water. The lake, or morass, at Noh Jhil spreads in some years over an area measuring as much as six miles in length by one in breadth. It is no doubt to a great extent of artificial formation, having been excavated for the double purpose of supplying earth, with which to build the fort, and also of rendering it inaccessible when built. The inundated appearance of the country combines with the name to suggest a reminiscence of the Biblical Deluge and the Patriarch Noah. But the proper spelling of his name, as Mr. Blochmann informs me, is Nuh, with the vowel u and the Arabic h, Badaoni, who twice 1 mentions the town, spells it with the imperceptible h, but in the ain-i-Akbari, which herein agrees with in modern usage, the final letter is the Arabic h. Again, if a reference to the Deluge were intended, the word Noh would not have been used simply by itself - and standing as it does, it can scarcely be other than the name of the founder. But (again to quote Mr. Blochmann) “Muhammadans use the name Nuh extremely rarely. Adam, Musa, Yusuf, and Ayub are common, but on looking over my lists of saints, companions of Muhammad, and other worthies of Islam, I do not find a single person with the name Nuh, and hence I would look upon a connection of Noh with Noah as very problematical. I would rather connect it with the Persian nuh, 'nine' which when lengthened becomes noh, but not nuh, as the Persian dih, 'a village' becomes deh, not dih.” But if we abandon the Semitic name, it will be better, considering the purely Hindu character of the country, to try and fall back upon some Sanskrit root, and I am inclined to regard the name as a Muhammadan corruption of nava - and the adjective meaning 'new' but a proper name - and with the h added either purposely to make the distinction, or inadvertently in the same way as raja is in Persian characters incorrectly written rajah. In the Harivansa (line 1677) mention is made

1. Once as the scene of a fight between Iqbal Khan and Shams Khan of Bayana (A.H. 802), and again as the place where Mubarak Shah crossed the Jamuna for Jartoli.


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of a king Ushinara, of the family of Kaksheyu, who had five wives, Nriga, Krimi, Nava, Darva, and Drishadvati. They bore him each one son, and the boys were named Nriga, Krimi, Nava, Suvrata and Sivi; of whom Nava reigned over Navarashtram, Krimi, over Kumila-puri; Sivi, who is said to be the author of one of the hymns of the Rig Veda (X.179), over the Sivayas, and Nriga over the Yaudheyas. In the Mahabharat the Usinaras are said to be a lower race of Kshatriyas. They are mentioned by Panini in a connection which seems to imply that they were settled in or near the Punjab; and in the Aitareyas Brahmana, Usinara is collocated with Kurui and Panchala. Again, Drishadvati, the fifth of Usinara's wives, recalls to mind the unknown river of the same name, which is mentioned by Manu as one of the boundaries of Brahmavarta, and in the Mahabharat as the southern boundary of Kurukshetra. From all this it may be inferred that the Navarashtra, over which Usinara's third son Nava reigned, cannot have been far distant from Mathura and Gurganw - and its capital may well have been the very place which still bears his name under the corrupt form of Noh or Nauh.
  • शिव लोगों का प्रजातन्त्र काफी प्रसिद्ध था, और वैदिक काल से लेकर किसी न किसी रूप में उनका अस्तित्व सिकन्दर के समय तक पूर्ण उत्थान पर पाया जाता है। चित्तौड़ के पास से उनके सिक्के मिले हैं, जिन पर ‘मझिमकाय शिव जनपदस’ लिखा रहता है। जाटों में लगभग आधे लोग अपने को शिव गोत्री मानते हैं, शिव लोगों का पूरा विवरण आगे लिखा जाएगा।
  • कृमि आजकल किरम कहलाते हैं और यू० पी० में पाये जाते हैं।
  • दर्व लोगों का भी कृमि लोगों की भांति महाभारत में वर्णन है। आजकल वे दावर और दारावार कहलाते हैं।
  • भद्रक - महाभारत कालीन जनपदों में भद्रक लोगों का वर्णन और आता है। ये अवश्य ही जंगल देश के भादरा नगर के क्षेत्र में रहे होंगे और निश्चय ही भादरा इनकी राजधानी रही होगी। भादरा से जोधपुर और अजमेर की ओर इनका बढ़ना पाया जाता है। ले लोग शान्तिप्रिय पाये जाते हैं और अब भादू और कहीं-कहीं भादा कहलाते हैं।

ऊपर लिखे हुए समूह जो कि अब जट (संघ) में अथवा ज्ञाति में शामिल हो गये हैं उसके गोत्रों में गिने जाते हैं। जट (फेडरेशन) अवश्य ही इस फेडरेशन से कहीं अच्छा रहा होगा, जिसको अंग्रेज सरकार भारत में बनाना चाहती है। क्योंकि उसमें अधिकांश समूह स्वयं गणतंत्री थे। भावी फेडरेशन में शामिल होने पर देशी राज्यों की एकतंत्री प्रणाली इसी रूप में चल सकेगी, इसमें भारी सन्देह है। खैर, यह विषय हमारे प्रसंग से बाहर का है। अब तक जाटों के गोत्रों में पाये जाने


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वाले जिन प्रजातंत्री समुदायों का वर्णन किया है, वे सभी महाभारत कालीन तथा उससे भी प्राचीन हैं।

बौद्ध-कालीन प्रजातंत्री समूह

अब कुछ बौद्ध-कालीन प्रजातंत्री समूहों पर विचार करना है और देखना यह है कि उनमें से कितनों का अस्तित्व जाटों में पाया जाता है।

  • गंगरिदी : यह मैगस्थनीज के समय में जाति थी। किन्तु प्रसाई जाति के साथ नाम आने से किसी ने इसे महानदी के किनारे और किसी ने कलिंग देश में होने की बात कही है। किन्तु यह गढ़मुक्तेश्वर की ओर कहीं पास ही रहती थी, और अब गंगस कहलाती है। आगे हम बतायेंगे कि गढ़मुक्तेश्वर एक जाट नरेश के नाम पर प्रसिद्ध हुआ है। लेकिन कल्पना के विमान पर चढ़कर लोग इधर-उधर भटकते फिरे हैं, यदि उन्हें गंगसों का पता होता तो ठीक नतीजे पर पहुंच जाते। टोलेमी ने उनकी राजधानी गंगा लिखा है, इसलिए यह मानना पड़ता है कि आज जो राम-घाट के पास गंगा-घाट नाम का शहर है, वही उसकी राजधानी रहा होगा। ‘जाट उत्पत्ति’ के लेखक ने गंगस लोगों की आबादी बुलन्दशहर जिले में वर्तमान बताई है।
  • सेही : यह अजमेर मेरवाड़े में जाति थी और अब सेल कहलाती है। यूल साहब ने इस शब्द को संस्कृत का सेका बतलाया है। यह जिस स्थान पर रहती थी, कहते हैं कि वहां चांदी की खान थी और झाजपुर के निकट इनकी कहीं राजधानी थी।
  • सिन्धु नदी और यमुना के बीच में पहाड़ों पर मंगेली या मंगवा गोत के जाट रहते थे। कहा जाता है वे पांच सौ हाथी तक इकट्ठा कर सकते थे।
  • कोरी, मरोही, मोरुनी, ररुंगी इन्हें प्लिनी ने रेगिस्तानों के नीचे उन पहाड़ों पर निवास करते बताया है, जो अछिन्न-श्रेणी में समुद्र के कूल के समतल चले गये हैं। इनके लिए कहा गया है कि ये बिल्कुल स्वतन्त्र हैं और इनके कोई राजा नहीं। पर्वत चोटियों पर इनके कई नगर थे। इन्हें क्रमशः कोरी, मोर्य, मोर, रंगी समझना चाहिए। आजकल यह युक्त-प्रदेश और राजपूताने में पाये जाते हैं। मौर्यों का तो साहसीराय के समय तक सिन्ध और राजपूताने में राज रहा था। मौर्य्यों में से कुछ लोग राजपूत श्रेणी में भी चले गए हैं। कोरी लोग आगरा जिले के जाटों में पाये जाते हैं। मोर और रंगी नितान्त थोड़ी संख्या में हैं। नरेई, जो कि नेहरा के नाम से प्रसिद्ध हैं, कैपटेलिया नाम से घिरी हुई जगह में उनका स्थान बताया गया है।
Bhanwar Lal Bijarnia at Sarnau-Kot, Ladhana Fort is seen behind him
  • वरेतती :जाति के लिए मेगस्थनीज ने लिखा है कि इनक राजा हाथी नहीं रखता, केवल घोड़े और पैदल सेना रखता है। वरेतती यूनानी शब्द का हिन्दी ‘विजय रणियां’ होता है। खंडेलवाटी में, एक पहाड़ (लढाना) के ऊपर, इनके किले तथा घुड़शाल आदि के चिह्न अब तक पाये जाते हैं।

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समय इन नामों से पुकारी जाती है - सारन, असिवाग, अंतल, उरिया, बालयान, सलकलान, दहिया, मोखरी, बूड़िया, मत्स्य, सगरी, अहेरवंशी, सुरियारा, अफरीदी, सुगरिया - ये सब जातियां सिन्ध और पंजाब की नदियों के किनारे अपने जनतन्त्रों के रूप में विद्यमान थीं। यूनानी लेखकों ने इनके नाम इतने बिगाड़ कर लिखे हैं कि आज उनके लिखे नामों की हिन्दी बनाने में विद्वानों को बड़ी कठिनाइयां आ रही हैं। उन्हें कठिनाई इसलिए भी उठानी पड़ती है कि इस बात का बिना ही विचार किये, कल्पना दौड़ाने लगते हैं कि आखिर इन देशों में विशेष रूप से आबादी किन-किन लोगों की थी। सिन्ध और पंजाब, जाट, लुहाना, खत्री लोगों की आबादी के लिये प्रसिद्ध हैं। फिर इन जातियों के सिवाय अन्य जातियों में उन जनपदों के नाम कहां से आते? इसलिए उनके मतों में भारी अन्तर पाया जाता है।1

प्रजा सत्तात्मक राज्यों के बारे में एरियन लिखता है -

डायोनियसस से सन्ड्रकोट्टस (चन्द्रगुप्त) तक भारतवासी 153 राजाओं की गणना करते हैं। और 6042 वर्ष का काल मानते हैं। परन्तु इस बीच में तीन बार प्रजासत्तात्मक राज्य स्थापित हुआ...दूसरी बार तीन सौ वर्ष के लिए और तीसरी बार 120 वर्ष के लिए। वे यह भी कहते हैं कि डायोनियसस हैरोल्कीज (बलदेव अथवा कृष्ण) से 15 पीढ़ी पहले हुआ था।”

निश्चय ही इन राजनैतिक परिवर्तनों का समाज पर असर पड़ता है। पिछली छः सदियों से भारत में प्रजातंत्र का नाम भी नहीं रहा है। इससे साधारण लोग यह नहीं सोच पाते कि मनुष्य (राजा नामधारी) के सिवाय कौमी हुकूमत भी कोई वस्तु है। हां, इस समय प्रजातंत्र के भाव फिर से उदय होने लगे हैं। ज्यों-ज्यों देश में प्रजातंत्र के प्रति श्रद्धा बढ़ेगी, त्यों-ही-त्यों लोगों को उन जातियों से सहानुभूति बढ़ेगी, जिनमें कभी प्रजातंत्र प्रणाली थी। इस तरह ऐसी जातियों का इतिहास भी पूर्ण रूप से संसार के सामने आ जाएगा।

अब कुछेक कुलों का उल्लेख करते हैं, जो ई० सन् के पश्चात् वर्तमान नामों को प्राप्त हुए हैं, और जिनका अस्तित्व जाटों में पाया जाता है। दसवीं सदी के पश्चात् राजपूतों ने राजवंशों की एक सूची तैयार कराई थी, शायद उसी समय से भारत में 36 राजवंशों की प्रसिद्धि हुई। तेरहवीं सदी के प्रसिद्ध कवि चन्द्र ने भी पृथ्वीराजरासो में इन्हीं 36 राजवंशों का वर्णन किया है। राजा रणजोरसिंह राजतरंगिणी तथा कर्नल टॉड की जब इन 36 राजवंशों की सूची देखते हैं तो उनमें भिन्नता पाई ही जाती है, किन्तु प्राचीन राजवंशों में से उस सूची में दो चार ही नाम पाते हैं। इससे स्पष्ट होता है कि प्रजातंत्रों के कमजोर व मृतप्रायः हो


1. इन जनपदों के सम्बन्ध का विवरण ‘मेगस्थनीज का भारत विवरण’ में पढ़िये।


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जाने और बौद्ध-धर्म पराभव के पश्चात् यह सूची तैयार की गई और उस समय के तत्कालीन राजकुलों के ही नाम अंकित किए। किन्तु इन 36 राजवंशों के गिनाये हुए नामों के अधिकांश राजवंश जाटों में भी पाये जाते हैंकर्नल टॉड ने तो पूरी जाट जाति को इन 36 में से एक राजवंश माना है। टॉड का ऐसा मानना ठीक भी है, क्योंकि इस समय तक जाट शब्द इतना व्यापक हो गया था कि उसके अन्दर शामिल हुए राजवंश पूछने पर अपने को (वंश का नाम न बताकर) जाट बताने लग गए थे। (अजमेर-मेरवाड़े के जाट तो अब तक जाति पूछने पर अपने वंश का जो कि अब गोत्र कहे जाते हैं, नाम लेते हैं।) जिस भांति भारत के सभ्य ईसाई, मुसलमान हिन्दू सभी अपने को भारतीय और ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र आर्य (हिन्दू) कहने-कहलाने को वास्तविकता समझते हैं, इसी भांति विभिन्न जाट कुलों को पिछले तीन हजार वर्ष के लम्बे समय ने कुलों की अपेक्षा जाति का रूप दे दिया था। राजपूत शब्द यद्यपि छठी शताब्दी से प्रयोग में आने लग गया है, किन्तु उसे इतनी व्यापकता सोलहवीं सदी से प्राप्त हुई है। आज राजपूतों में जो कुल हैं, वे ही आगे - जैसा कि अब भी है, गोत्र का रूप धारण कर लेंगे।

जाटों में इस समय मुख्यतः तीन प्रकार के गोत्र हैं -

इनमें पिछले दो प्रकार के लोगों के सम्बन्ध में अतिकाल के बाद यह निर्णय करना कठिन हो गया है कि वह किस राजकुल के हैं। भाटों के यहां जो वंशावलियां उनकी हैं, वे भी पिछले समय में बनाई हुई होने के कारण तह तक ले जाने में साथ नहीं देतीं और साथ ही वे संदिग्ध और अवैज्ञानिक हैं। परिशिष्ट भाग में हमने यह बताने की कौशिश की है कि कौन से गोत्र प्राचीन समय से अब तक उसी रूप में चले आते हैं और कौन-कौन से गोत्र किस महान् पुरुष के नाम से विख्यात हुए और किस राज-कुल से सम्बन्ध रखते हैं और यह नया नाम कब से धारण किया है?

  • परिहार : यह राजकुल जाटों के अन्दर आगरा-मथुरा के जिलों में पाया जाता है। परिहार नाम नहीं, किन्तु इस कुल (गोत्र) की उपाधि है। परन्तु वे इसी नाम से मशहूर हैं। इनकी उत्पत्ति के सम्बन्ध में पुराणों तथा अन्य ग्रन्थों में जो विचित्र बातें लिखी हैं, उनसे भी यही बात सिद्ध होती है कि परिहार उपाधि वाची शब्द है। कहा जाता है कि आबू के यज्ञ से सर्वप्रथम जो पुरुष पैदा हुआ, उसे प्रतिहार (द्वारपाल) का काम दिया। द्वारपाल होने के कारण ही वह परिहार कहलाया।

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दूसरे ढंग से यों भी कहा जाता है कि अश्वमेध यज्ञ के समय श्री लक्ष्मणजी द्वारपाल रहे थे, अतः उनके वंशज प्रतिहार अथवा परिहार कहलाये। राजपूतों में जो इस समय परिहार हैं, सी० वी० वैद्य ने उन्हें गूजरों में से बताया है, किन्तु गूजरों में जो परिहार हैं, वह कहां से आये, तथा यह नाम क्यों पड़ा, इसका निर्णय उन्होंने कुछ नहीं किया। डाक्टर भांडारकर तथा स्मिथ उन्हें विदेशी मानते हैं। उनका कहना है कि आबू में इन जातियों को आर्य-धर्म में दीक्षित किया गया । यह कथन उस हालत में मान लिया जाता जब कि परिहारों में जाटों का अस्तित्व न होता। जाट जाति के अन्दर उनका होना साबित करता है कि वे पहले से ही आर्य हैं और भारतीय हैं। क्योंकि आबू के यज्ञ से तो उन्हीं परिहारों का तात्पर्य है जो राजपूत हैं। यह सर्वविदित बात है कि जाट शब्द राजपूत शब्द से पुराना है। आबू-यज्ञ वाली घटना सही है, किन्तु यह सही नहीं कि वे विदेशी हैं। यज्ञ द्वारा दीक्षित होकर गूजरों में से राजपूत बने हों तो भारतीय हैं और गूजरों में जाटों से गए हों तो भी भारतीय हैं। बौद्ध-काल में जितना समूह उनमें से राजपूतों में (आबू महायज्ञ के महोत्सव के समय) चला गया, वह राजपूत-परिहार और जो पुराने नियमों के मानने वाले शेष रह गए, वे जाट-परिहार और गूजर-परिहार हैं।
  • परतंगण और तंगण - महाभारत में परतंगण और तंगण लोगों का वर्णन आता है। ये गणतन्त्री समुदाय हिमालय की गोद में मानसरोवर के निकट शासन करते थे जहां इनका जनपद (राज्य) है वह स्थान चीन और भारत का प्रवेश द्वार (फाटक) है। परतंगण का शाब्दिक अर्थ (परतम्...गण) परवर्ती वहिः गण अर्थात् सीमावर्ती गण होता है। इस भांति भारतीय राष्ट्र के ये प्रतिहार (द्वारपाल) सिद्ध होते हैं। इस शब्दार्थ वाली दलील को छोड़ भी दिया जये तो भी परतंगण से प्रतिहार और परिहार बनना भाषा-शास्त्र के अनुसार कठिन बात नहीं है - बिल्कुल सम्भव बात है। सी० बी० वैद्य ने भी इनका अस्तित्व भारत के उत्तर में बताया है। हर हालत में ये भारत के प्रवेशद्वार पर पाये जाते हैं। इनके पड़ौसी तंगण आजकल तांगर के रूए में भरतपुर राज्य में अपना अस्तित्व रखते हैं। जाट-स्टाक में ये समुदाय हजारों वर्ष पूर्व से है। कहा जाता है कि जाटों में अनगिनती गोत हैं। सौलह सौ से कुछ ऊपर गोत्रों की (गिनती) तो जाट-हितकारी के सम्पादक महोदय श्रीकन्हीसिंहजी ने की थी। इस बात से ही जाट कौम बहुत पुरानी साबित होती है और साथ ही यह भी सिद्ध होता है कि पुराने प्रजातन्त्री अथवा अन्य तंत्री राजवंशों का निशान अगर कहीं जाटों के अलावा दूसरे स्थान पर पाया जाता है तो वह भी जाटों से ही वहां पहुंचा है।
  • पंवारप्रमार : वशिष्ट के यज्ञकुण्ड से पैदा होने की कथा इनके विषय में

1. ‘भूगोल’ का ‘भुवनाक’ जुलाई सन् 1932 देखो।


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भी है। किन्तु इनका अस्तित्व जैसा कि वे अपने को विक्रमादित्य की सन्तान मानकर बताते हैं, यज्ञ से बहुत पहले का है। आबू यज्ञ स्वामी शंकराचार्य के समय 7, 8वीं शताब्दी में हुआ था और गर्दभसेन के बेटे विक्रमादित्य ईसा से भी कम से कम 80 साल पहले पैदा हुए थे, क्योंकि इनका संवत् ही ईसा से 57 वर्ष पहले चल चुका है।
हमारा जहां तक अनुसन्धान है, उस समय मालवा में गणतंत्री प्रणाली थी। विक्रम के पिता निश्चय ही गण के सरदार थे और यह आरम्भ के परान्त ज्ञात होते हैं जो कि सूपारक में रहने वाले अपरान्तों के पड़ौसी थे। कुछ लोगों ने परान्तों को खैवर की घाटी के पास माना है। कालान्तर में परान्त से प्रमार और पंवार की रचना हुई। आगे चलकर के जाट, गूजरों अथवा परिस्थिति-वश राजपूतों और मराठों के समुदायों में बंट गये।
  • सोलंकी : यह आरम्भ से चालुक्य अथवा चौल हैं और दक्षिण भारत में रहते थे। पांचवीं-चौथी सदी के मध्य में ये उत्तर भारत की ओर बढ़े। ब्रह्मा के चुल्लू और हवन कुण्ड से उत्पन्न होने का वर्णन इनका भी है, जो कि नये हिन्दू-धर्म में बौद्ध-धर्म को छोड़कर आने की बात को सिद्ध करता है।
  • चौहान : यज्ञ कुण्ड से उत्पन्न होने वालों में यह श्रेष्ठ बताये गये हैं। चार भुजा होने कारण चाहुमान नाम रक्खा ऐसा वर्णन किया जाता है। गणतन्त्र के समय तोमरों से ऊपर के हिस्से में हमें चाहु वंश का पता बौद्ध साहित्य से मिलता है जो कि आत्रेय लोगों का एक अंश जान पड़ता है। चौहान अपने ऋषि का नाम आत्रेय बतलाते भी हैं इससे भी वे आत्रेय सिद्ध होते हैं। आत्रेय समूह के चाहु लोग ही चाहमान और चौहान हुए। तोमर-हन्यमान्य, आत्रेय और किरात लोगों के पड़ौस में इनका जनपद था। ईसा की छठी सदी में ये दिल्ली पर काबिज जो चुके थे। निकरवार-वंशावलियों वाले इन्हें लव की सन्तान बताते हैं, इससे ये सूर्यवंश के अनुयायी हैं। पंजाब में बसने के कारण अवश्य ही प्रजातंत्र और ज्ञातिवाद ने इन्हें गणवादी बना दिया होगा। वास्तव में किस जनपद के ये लोग हैं, इतना पता अभी नहीं लग पाया, कारण कि राजनैतिक तथा धार्मिक हेर-फेरों ने अनेक गोत्रों के मूल स्टाक को खोज निकालना कठिन कर दिया है। चम्बल के किनारे इन लोगों का बहुत समय तक राज्य रहा। सीकरी बसाने से इनका यह नाम पड़ गया। वीर-गुर्जर या बड़गुजरों के यह बहुत दिन तक पड़ौसी रहे हैं।
  • भाटी : यदुवंशी हैं, भाटी नाम पड़ने की जो कथा है वह बेबुनियाद है। मथुरा के यदुवंशी राजा जयसिंह के युद्ध में काम आने के बाद उनके दूसरे लड़के ने देवी के नाम पर आग की भट्टी में सिर चढ़ा दिया तभी से भट्टी कहलाने लगे, यह कथा इनके सम्बन्ध में कही जाती है। असल में भटंड भूमि में यादवों के बस जाने से बजाय यादव के भाटी नाम प्रसिद्ध हुआ। भटनेर बसाने वाले भाटी लोग

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प्राचीन सामाजिक व राजनैतिक नियमों पर चलने के कारण जाट भाटी कहलाते रहे और जैसलमेर के भाटी नवीन हिन्दू-धर्म की दीक्षा से दीक्षित होकर राजपूत-भाटी बन गए। भटनेर के जाट-भाटियों ने ही भटिंडा की नींव डाली।

  • जोहिया : यह महाभारत कालीन यौधेय हैं। हरिवंश की कथा के अनुसार चन्द्रवंशियों यही वह गणतंत्री समुदाय है जिस पर नृग ने राज किया था। वास्तव में यह वैदिक उशीनरों का एक अंग है । जो अब जोहिया कहे जाते हैं। इनमें से कुछ राजपूतों में भी शामिल हो गये हैं। पन्द्रहवीं सदी के आरम्भ में भूमियाचारे (गणतंत्री) के ढ़ंग का बीकानेर की भूमि पर जाट-जोहियों का राज भी था ।
  • राठोर : जाटों में राठोरों का भी एक समूह है किन्तु यह राठोर वे हैं जिन्हें प्लिनी के इतिहास में ‘ओरेटुरी’ कहा गया है। यह पंजाब में आबाद थे। मि० क्रुक साहब ने “ट्राइब्स एन्ड कास्ट्स आफ दी नार्थ वैस्टर्न प्रविंशेज एण्ड अवध” में जाटों के सम्बन्ध में लिखा भी है -
They were in the time of Justin known as Aratta, i.e., Arashtra or “people without a king,” and are represented by the Adraistae of Arrian, who places them on the banks of the river Ravi.
अर्थात् - “जस्टीन के समय में वे अरट्टा अर्थात् अराष्ट्र या राजा की प्रजा कहलाते थे। ‘अर्रियान’ ला एड्रास्टाई उनको रावी नदी के किनारों पर बसा हुआ बताता है”
किसी समय इस प्रजातंत्री समुदाय के पास 10 हाथी और हजारों पदाति सैनिक थे।1 राजपूतों में जो राठोर हैं अपनी उत्पत्ति दूसरे ही भिन्न-भिन्न ढंगों से मानते हैं। उनका अभी यही प्रश्न हल नहीं हुआ कि वे चन्द्रवंशी हैं अथवा सूर्यवंशी। राजपूत राठोरों के सम्बन्ध में डॉक्टर वर्नल की राय है कि राठोर जो कि संस्कृत के रट्ट से बना है तेलमू रेड्डी का रूपान्तर है जो तैलंगाने के आदिम किसान हैं2। यह भी असंभव नहीं कि “अरट्ट” (जाट-राठोर) का एक बड़ा समूह बौद्ध-काल के पश्चात् राजपूत समुदाय से चला गया हो। राजपूताना के जाटों में गाहडवाल गोत्र के जाट भी आबाद हैं। किन्तु यह नहीं कह सकते कि रावी नदी के ‘अरट्टों’ का गाहडवालों से कोई सम्बन्ध है या नहीं।

1. मेगस्थनीज का भारत विवरण आरा नागरी प्रचारिणी सभा द्वारा प्रकाशित देखो।
2. भारत के प्राचीन राजवंश (राष्ट्रकूट) पे० 3 जा० ई 19


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  • कछवाहा : राजपूत-कछवाहे अपने को लव की सन्तान बताते हैं। इस तरह से वे सूर्यवंशी हैं। कुछ लोग कछवाहा शब्द को कुशवाहा अथवा कच्छपघाति का रूपान्तर मानते हैं, किन्तु हमारा जाट-कछवाहों के लिए मत है कि वे काश्यप हैं और महाभारत-काल में प्रजातंत्री थे। जाटों का एक दल अपने लिए शिव गोत्री और दूसरा काश्यप गोत्री या काश्यप ऋषि की संतान मानता है। इस विषय का एक अंग्रेज विद्वान का मत भी हमने पिछले किसी पृष्ठ में उद्धृत कर दिया है। वैदिक साहित्य में काश्यप का बड़ा ऊंचा स्थान है। काश्यप सूर्यवंश के आदि पुरुष हैं। काश्यप शब्द से कछवाह बनना बिल्कुल संभव बात है। कछवाहे जाटों की युक्त-प्रदेश में अनेक शाखा-प्रशाखायें हैं। मौर्य-बुद्ध के समय में चन्द्रगुप्त मौर्य का नाम आया है। किन्तु पुराणवालों ने उसे मुरा नाम शूद्रा से उत्पन्न हुआ माना है। चन्द्रगुप्त बौद्ध-धर्मावलंबी था, इसीलिए पुराणकार ने उसे बदनाम किया हो तो अचम्भे की बात नहीं। वरना पिप्पलिवन में मौर्यों का एक प्रजातंत्र था। बौद्ध-जातकों में पिप्पलिवन के क्षत्रियों का पर्याप्त परिचय मिलता है1। इस गोत्र के जाट युक्त-प्रान्त और राजपूताना में अनेक स्थानों पर पाये जाते हैं। अब से बहुत पहले झुंझनूं के पास के प्रदेश पर उनका पंचायती राज था।
  • गौर : इस कुल के जाट अब से बहुत पहले दसवीं शताब्दी के आसपास सिरोही राज्य की भूमि पर जनतंत्र के रूप में राज करते थे। इस समय वहां कोई आबादी नहीं है, किन्तु जैपुर स्टेट में यह गोत पाया जाता है। युक्त प्रदेश में भी गौर हैं। राजपूताने के इतिहास में गौरीशंकर ओझा ने इन्हें गौड़ राजपूत मान लेने की भूल की थी, किन्तु नागरी-प्रचारिणी पत्रिका द्वारा उन्होंने अपनी भूल को स्वीकार कर लिया है। इनके प्राचीन नगरों के खंडहर उधर अब तक मिलते हैं।
  • पोनिया : इस कुल के जाट राजस्थान और सूबाहिन्द दोनों ही प्रान्तों में पाए जाते हैं। ये बहुत पुराने जाट हैं। मि० कुक साहब साहब ने लिखा है - पोनियां सर्पों की एक किस्म है तब अवश्य ही यह नागवंशी हैं और संभव है नागौर इन्हीं के किसी सरदार ने बसाया हो। राजनैतिक समानता के कारण इनका दल जट (संघ) में शामिल हो गया होगा। बीकानेर की भूमि पर इनका अन्तिम पंचायती राज्य था। इसमें भी सन्देह नहीं किया जा सकता है कि यह तक्षक शाखा के लोग हों। कर्नल टॉड ने आवा, तक्षक और जाट तीनों के पूर्व-पुरुष महात्मा इन्दु को माना है। हमें ताखू जाटों का भी पता चला है जो कि बिल्कुल तक्षक शब्द का अपभ्रंश है। ब्रज में ताखा एक गांव है, यहां के लोग कहते हैं, महाभारत का तक्षक यहीं रहता था। एक बस्ती नाग लोगों की मथुरा के पास कालीदह में भी थी।

1. महा परिनिष्वान सुत (बौद्ध-ग्रन्थ) 6-31 देखो। अथवा मौर्य साम्राज्य का इतिहास पे० 108

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राजपूताने में हमें नागा, नागिल आदि कुल जाटों में मिलते हैं। यह निश्चय ही नागवंशी हैं जो अराजकता के भावों के मिटने पर अरट्ट प्रथा के बजाय ज्ञातिवादी (जाट) हो गये थे।

  • मोखरी: वही हैं जिन्हें प्लिनी ने मेगरी लिखा है। यह आरम्भ में सिन्ध में थे, फिर राजपूताने में आये, किन्तु सातवीं शताब्दी में हम इनका निशान कान्य-कुब्ज की ओर देखते हैं। वहां इन्हें राजा के रूप में पाते हैं। हर्ष और मोखरियों में वैवाहिक सम्बन्ध था। प्रजातन्त्री समय में ही ये राजपूताने की ओर बढ़ रहे थे।
  • जादू : यादव का अपभ्रंश है। महाभारत काल में हम इनका स्वतन्त्र रूप से अस्तित्व नहीं पाते हैं, किन्तु पुराणों की कथा के अनुसार यदु लोगों को शाप था कि वे राज्य भोक्ता न होंगे। यह तो बनावटी बात है किन्तु वास्तविक तथ्य यह है कि यादवों का एक जत्था यदु के समय से ही अराजकवादी था। अन्धक-वृष्णि संघ के बन जाने के बाद यह समूह नितान्त अराजकतावाद से हटकर जातिवादी (जाट) हो गया।

इन थोड़े से कुलों का हवाला देने से हमारा अभिप्राय यह है कि नये राजवंशों में से जो राज्य-वंश जाटों में शामिल हैं, वास्तव में वे नये नहीं हैं, केवल प्रकारान्तर से उनके नामों में हेर-फेर हो गया है और न यह बात है कि वे कुल, राजपूतों में से जाटों में आये हैं, किन्तु वे पहले से ही जाटों में मौजूद थे और राजनैतिक एवं सामाजिक हेर-फेर के समय में वे जाटों के अलावा अन्य क्षत्रिय समूहों - गूजर, राजपूत, मराठों में पहुंच गये। एक-एक गोत्र का निशान जो कई-कई जातियों में मिलता है उसके सम्बन्ध में भाटों (वंशावली वालों) ने एक ही कथा बना रक्खी है - वह यही कि अमुक राजपूत ने जाटनी या गूजरी से शादी कर ली उससे यह गोत उनमें प्रचलित हुआ। धीरे-धीरे उनकी यह गढन्त कथा सही मानी जाने लगी। यही नहीं, कुछ असमझ जाट भी उन बातों पर विश्वास कर बैठे। प्लिनी के इस वर्णन से कि भारत में तीन बार प्रजातन्त्र स्थापित हुआ, यह बात समझ में आ जाती है कि जब प्रजातंत्र लुप्त हो गये, उस समय भाटों को यही कोशिश करनी पड़ी है कि वे अपने पक्ष (एकतंत्र) के अनुयायी लोगों को उच्च बनाने के लिए अन्य लोगों को अपने पोषकों की संतान बताएं। विजयी समूह विजित समूह की सभ्यता को मिटाने के लिए उनके इतिहास में हेर-फेर करता है और खास तौर से ऐसा कि स्वाभिमान की मात्रा उस समूह में से नष्ट हो जाये और वह स्वयम् अपने लिए जेता समूह से हीन अनुभव करने लगे। इसी आवरण के हटाने के लिए ही हमने ऐसे गोत्रों का हवाला दिया है जो जाट, गूजर, राजपूत, मराठा आदि में ज्यों के त्यों हैं।

अब आगे इस बात का विवेचन करना है कि इन प्रजातन्त्री समुदायों की शासन व्यवस्था कैसी थी।


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गणराज्यों का संगठन

गणराज्य बहुत बड़े नहीं होते थे। कोई-कोई तो केवल अपने ही कुल वालों का होता था, किन्तु ऐसे बहुत थोड़े रूप में होते थे। ये प्रजातंत्री समुदाय अपनी पार्लियामेण्ट के लिए प्रतिनिधियों का निर्वाचन करते थे। निर्वाचन का तरीका आज से भिन्न था। कुलपति ही राजसभा का मेम्बर होता था, इस तरह से कहीं-कहीं तो मेम्बरों की संख्या बढ़ जाती थी। लिच्छिवियों के गणतंत्र में 7007 मेम्बर बैठते थे। पार्लियामेण्ट को संथागार या संघ कहते थे। गण का अर्थ समूह है, किन्तु गणराज्यों में गण मेम्बर का बोध भी कराता है। श्री काशीप्रसाद जायसवाल ने गण का अर्थ संघ या प्रजातंत्र किया है, किन्तु प्रकरणवश गण का अर्थ मेम्बर भी हो जाता है। पुराणों में गणों को व्यक्ति माना गया है। कौंसिल और कौंसिलर जैसा अन्तर हमारे अर्थ और जायसवालजी के अर्थ में है। गण-पूरक जो कि कोरम को बतलाता था, उसके कार्य और नाम दोनों से गण के अर्थ मेम्बर के होते हैं । गणों के ऊपर जो गणपति होते थे वे भी चुने जाते थे। ऐसा मालूम होता है कि वे बदलते भी रहते थे। अन्धक, वृष्णि-संघ के प्रधान कहीं श्रीकृष्ण और उग्रसेन आते हैं, कहीं वासुदेव और अक्रूर और कहीं शिवि और वासुदेव के नाम आते हैं। फेडरेशन के सभापति अर्द्धभोक्ता राज्य कहे जाते थे। श्रीकृष्ण को भी इस नाम से याद किया गया है।

शासन-विधान

गणराज्यों में जो नियम जारी किया जाता था, उसे पहले गण-सभा से पास कराया जाता था। सभा-भवन को संथागार कहते थे। प्रस्ताव पर विचार खुले अधिवेशन में होता था। प्रस्तावक खड़ा होकर अपना वक्तव्य देता थो और उपस्थित लोगों की राय लेकर उसे पास किया जाता था। प्रत्येक अधिवेशन का सभापति वही प्रधान हुआ करता था, जो कि राज्य का प्रधान होता था। वह फौजी और न्याय सम्बन्धी काम भी करता था। ऐसे राज्यों में कम से कम तीन अधिकारी तो होते ही थे - प्रधान, उप्रधान और मंत्रीउपाध्यक्ष ही सेनापति होता था। ये प्रधान अपने लिये राजा भी कहते थे। वास्तव में ये गणपति थे। कहीं-कहीं तो सारे सदस्य ही अपने साथ राजन्य शब्द का प्रयोग करते थे। राजन्य शब्द का प्रयोग गणवादी लोग राजपुरूष के लिए करते थे, न कि एकछत्र राजा के लिए। प्रजातंत्र के अध्यक्ष का चुना जाने पर तिलक होता था। कुलपति अथवा सदस्य उनके तिलक करते थे। जिसे राज्याभिषेक ही कहना चाहिए। योग्य प्रधान को कई-कई बार भी चुन देते थे और यह भी होता था कि एक ही प्रधान जन्म भर तक अध्यक्ष बना रह सकता था, किन्तु उसका इस पद के लिए मोरूसी हक नहीं था


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नियमों के अनुसार वे (गणपति) सदस्यों के सहयोग बिना अकेले कुछ भी नहीं कर सकते थे।

संथागार में जिस समय अधिवेशन होता था तो टामक या घड़ियाल बजाया जाता था। सभा में बोलने का सभी को अधिकार था। सेना, खेती, व्यापार, आपसी झगड़े सभी - पर इन संथागारों में विचार होता था। न्याय बड़ी सावधानी से किया जाता था। यह ख्याल रखा जाता था कि निरपराधी को दंड न मिल जाए। गहरे अपराधों की छान-बीन के लिए कमेटी बना दी जाती थी, जो कुलक कहलाती थी, क्योंकि उसमें नगर के कुछ कुलपतियों को शामिल किया जाता था। निर्णय लिखने की प्रथा भी थी, किसी विषय में राय जानने के लिए उपस्थित सदस्यों के हाथ में शलाकायें दे दी जाती थीं। वे कई भिन्न रंगों की होती थीं। राय लेने से पूर्व बता दिया जाता था कि अमुक रंग की शलाका का अमुक अभिप्राय होगा। कभी-कभी पूरे नगर और राज्य की सलाह ली जाती थी। इस तरह की सलाह लेने का यह ढंग था कि विज्ञप्ति द्वारा वह विषय गामों में भेज दिया जाता था। प्रत्येक गांव के निवासी इकट्ठे होकर उस पर विचार करते थे। विचार के पश्चात् जो निर्णय करते उसे या तो केन्द्रीय पंचायत (परिषद) में लिखकर भेज देते थे या अपना पंच (प्रतिनिधि) भेज देते थे। वृहद अधिवेशन में केन्द्रीय परिषद के सदस्य अपने गांवों से आये हुए प्रतिनिधि उस विषय पर वाद-विवाद के पश्चात् अपना निर्णय देते थे। स्वीडन में अभी तक लगभग ऐसा ही नियम जारी है। हमारे विचार से वहां यह नियम भारत से गये हुए जाटों का ले जाया हुआ ही हैस्कैण्डनेविया जाटों का उपनिवेश है यह पीछे बताया जा चुका है।)

प्रत्येक उत्सव, संस्कार, आदि भी प्रजातंत्रों के समय कोई व्यक्ति स्वेच्छा से नहीं कर सकता था। उसे ग्राम के कुलपतियों से सलाह लेनी पड़ती थी। ऐसे मनोनीत (निर्वाचित) कुलपति आज तक व्रज में थामे कहे जाते हैं, थामें का अर्थ स्थापित किये हुए होता है। विवाह-शादियों नुकते-कारज आदि के बजट इन्हीं लोगों की राय से बनाये जाते थे । (प्रायः अब भी ऐसा ही होता है) किन्तु अब इन नियम में शिथिलता आ रही है, कारण कि सत्ता समूह हाथ से निकलकर एकतंत्र के हाथ में चली गई। वे सामर्थ्य (हैसियत) को देखकर खर्च का बजट बना देते थे। किसी-किसी खर्च के लिए तो गांव के सम्मिलित कोष (पंचायत) में से भी दिया जाता था। ब्रज में खासकर भरतपुर स्टेट में अब भी यह रिवाज है कि जब लड़की की सगाई भेजी जाती है तो एक रूपया गांव के मलवे (गांव खर्च) में दिया जाता है।

विरासत (उत्तराधिकारी) के लिये प्रजातंत्रों में यह नियम था कि शोक समाप्ति के दिन (तेरहवीं के समय) गांव के पंच लोग वास्तविक उत्तराधिकारी के सर पर, पंचायत की ओर से, पगड़ी बांध देते थे। मरने वाले का पुत्र, भतीजा तथा


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छोटा भाई और इन सबके अभाव में परिवारिक लोगों में से उत्तराधिकारी बनाया जाता था। पगड़ी बांधने के उपरांत वह अपने पितृ की सब भांति की चल-अचल संपत्ति का अधिकारी होता था। आज के एकतंत्र शासन में दाखिल-खारिज का जो नियम है, वह भी प्रजातंत्री शासन के नियम की नकल है। विवाह के समय गांव का मुख्य नेता जिसे सरपंच अथवा गणपति कहना चाहिए आरंभ से कुल कार्यवाही की समाप्ति तक उपस्थित रहता था। उसे उच्च आसन दिया जाता था तथा बड़े सम्मान और श्रद्धा से बिठाया जाता था। समयान्तर से आज वह गणपति मिट्टी का हो गया और गण के अध्यक्ष की बजाय पौराणिकों ने उसे महादेव का लड़का बना दिया। आज का गणपति पंडित के पैसों का साधन है, उस समय का गणपति इस बात का साक्षी था कि विवाह उसकी देख-रेख में हुआ है। बिना गणपति की उपस्थिति के विवाह जायज माना जाना संभव न था, अर्थात् गणपति की उपस्थिति आवश्यक थी। तुलसीदास ने इसी नियम के अनुसार महादेव के विवाह में जब गणेश की उपस्थिति (पूजा) लिख दी तो ख्याल हुआ कि (पौराणिक) गणेश जब महादेव का पुत्र है तो वह महादेव के विवाह में कहां से आ गया? गण-राज्यों के सम्बन्ध में जानकारी न होने के कारण बेचारे बाबा को यही लिखना पड़ा कि देवताओं के सम्बन्ध मे शंका करना अनुचित है।

गणराज्यों में गांवों की ओर से सम्मिलित अतिथि-शालायें बनायी जाती थी जिनके बनवाने का खर्च ग्राम्य-कोष में से दिया जाता था। इन अतिथि-शालाओं में साधु-संत, यात्री सभी जा सकते थे। उनके भोजन का प्रबन्ध ग्राम्य-पंचायत ही करती थी।

अनाथ-अपाहिज बच्चों और व्यक्तियों के प्रबन्ध का भार इन स्थानीय संस्थाओं (पंचायतों) के ऊपर ही था। ऐसे अनाथ जब युवा हो जाते थे तो ग्राम्य-कोष या ग्राम के चन्दे से उनके लिये मकान बनवा दिये जाते थे और विवाह-खर्च भी इसी भांति किया जाता था। यह प्रथा कहीं-कहीं अब तक प्रचलित है।

ज्ञात के नियमों को तोड़ देने वाले को ज्ञाति से अलग कर दिया जाता था, किन्तु अलग करने की भी अवधि होती थी, जो अपराध की गुरुता के ऊपर अवलंबित थी। सबसे भयंकर अपराध ज्ञाति के साथ विश्वास घात करना समझा जाता था। प्रतिज्ञा भंग करने वालों की मूंछ मुंडवा लेने का कठोर दंड था। सबसे कठोर सजा जो कि आज कल की फांसी के लिये प्रयोग में लाई जाती थी, (गणराज्यों में फांसी का चलन न था) काला मुंह करके, गधे पर चढ़ाकर, नगर में घुमा देने की थी। युद्ध के समय कैद किये हुए लोगों को वृक्षों से बांध दिया जाता था। गणराज्यों में अपराध बहुत ही कम होते थे, क्योंकि आर्थिक संकट का तो लोग नाम जानते ही न थे और राज्य स्वयम् प्रजा के द्वारा शासित होता था, जिससे


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राज्य पक्षीय लोगों द्वारा रिश्वत, अपमान, अत्याचार आदि के कारण होने वाले अपराधों की कोई कल्पना भी उस समय न थी।

शिक्षा

प्रजातंत्री राज्यों में शिक्षा का प्रबन्ध ग्राम-संस्थाओं के अधीन था जो पौर जनपद भी कहलाती थीं। शिक्षक लोगों को मासिक-वृति के बजाय भूमि दी जाती थी और खान-पान का प्रबन्ध ग्राम की ओर से होता था। केन्द्रीय-शासन की ओर से भी किसी बड़े स्थान में शिक्षा का प्रबन्ध होता था। कभी-कभी कई गणराज्य मिलकर विश्वविद्यालय भी स्थापित कर देते थे। तक्षशिला का विश्वविद्यालय इसी भांति चलाया जाता था। आस-पास के गणराज्यों से उसके संचालन के लिए अन्न-धन दोनों प्राप्त होते थे। आश्रम हरिणी में जो कि किसी हस्तलिखित पुराण के आधार पर बनाई गई, तक्षशिला का स्नातक निकट के बुद्ध-राज्य में सहायता लेने जाता है।

सेना

गण-राज्यों में आरम्भ में कोई स्थायी सेना न रखी जाती थी, किन्तु सारा ही समाज स्वतंत्रता की रक्षा के लिए शत्रु के सामने आ जाता था। सिकन्दर के आक्रमण से पहले ही वे वैतनिक सेना भी रखने लग गए थे, इसका कारण एकतंत्री समुदायों से संघर्षण का था। हाथी, घोड़े और रथों की राजधानी में पूरी संख्या वाली सेना रखते थे, इसके साथ, व्यक्तिगत रूप से प्रजाजन भी हाथी, घोड़े और रथ यात्रा के लिए तैयार रहते थे। प्रत्येक नागरिक सैनिक बनना अपना कर्तव्य समझता था।

कर

अनेक प्रजातंत्रो के जो सिक्के प्राप्त हुए हैं उनसे यह बात तो सिद्ध होती ही है कि खानों से सोना-चांदी निकलवा कर वे आभूषण आदि बनवाने के सिवाय सिक्के भी ढलवाते थे तथा उनके यहां टकसालें भी थीं, किन्तु साथ ही यह भी पता चलता है कि वे कुछ न कुछ रूप में केन्द्रीय-सरकार के लिए कर भी लेते थे। कर कितना लेते थे, इसके सम्बन्ध में मनु के साथ जो पट्टा हुआ है, उससे बहुत कुछ सामग्री मिलती है। मनु को प्रजाजनों ने अन्न का छठा भाग और व्यापार का पचासवां भाग देने का इकरार किया है। इससे ज्ञात होता कि गणराज्य में वे इससे कुछ तो कम देते ही होंगे। गणराज्य में कर व्यक्तियों से नहीं लिया जाता था, किन्तु गांव से लिया जाता था। गांव की भूमि पर सारे गांव का अधिकार होता था। उनमें परस्पर भूमि बटी हुई नहीं थीं। संभवतया सारा गांव सम्मिलित कृषि करता था।


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फसल के तैयार होने पर टैक्स की निश्चित रकम केन्द्रीय-कोष में भेज दी जाती थी और बचा हुआ अन्न परिश्रम के अनुपात से, कुलों व घरों में बांट दिया जाता था। कुछ सर्व सम्मिलित धान्य ग्राम्य-कोष में रहता था, जिसका हिसाब पटेल या चौधरी के जिम्मे होता था। केन्द्रीय शासन-परिषद राजनैतिक मामलों में ग्राम्य-परिषदों पर पूरा प्रभुत्व रखती थी, किन्तु सामाजिक मामलों में ग्राम्य-परिषदें केन्द्रीय परिषद के प्रभुत्व से बाहर थीं। टैक्स द्वारा प्राप्त धन-राशि सैनिकों और शस्त्रों के सिवाय किसी अन्य काम में खर्च की जाती हो, ऐसा विवरण हमें नहीं मिलता। संघों के सदस्यों को कोई वेतन नहीं दिया जाता था, वे सब खेती करके अपना कार्य चलाते थे।

दुर्ग

प्रजातंत्र राज्यों में राजधानी के अतिरिक्त अन्य मुख्य स्थानों पर भी गढ़ बनाए जाते थे। कौटिल्य के अनुसार ये गढ़ कई प्रकार के होते थे।

  • ओदक - दुर्ग जो चारों ओर से पानी से घिरा रहता था ‘ओदक’ कहलाता था। झील खोदकर उसके बीच में अथवा नदियों के मध्य में किले बनाए जाते थे। नव लोगों (नोहवारों) का मथुरा के पास (नोह झील) नवराष्ट्र में ऐसा ही किला था।
  • धान्वन दुर्ग - जिस दुर्ग के चारों और मीलों तक रेगिस्तान होता था उसे धान्वन दुर्ग कहते थे। शुत्रओं को ऐसे दुर्गो तक पहुंचने में ही बड़ी कठिनाई होती थी। रेत के टीलों के बीच में होकर जिस समय शत्रु-सेना गुजरती थी, अनेक रास्तों और टीलों के मध्य से निकलकर स्थानीय दुर्ग के लोग जो कि तिल-तिल भूमि से परिचित होते थे, शत्रु-सेना का ध्वंश कर डालते थे। कभी-कभी तो शत्रु की सेना पर वे चारों ओर से आक्रमण कर देते थे। कारण, कि सम-भूमि न होने से शत्रु लोग उन्हें तब तक नहीं देख पाते थे, जब तक कि उन पर आक्रमण न हो जाता था। ऐसे दुर्ग बड़े ही रक्षित समझे जाते थे।
  • पार्वत्य - पर्वतों की चोटियों पर बनाया हुआ दुर्ग ‘पार्वत्य’ कहलाता था।
  • वन दुर्ग - वनों और दलदलों के बीच में घिरे हुए दुर्ग को ‘वन दुर्ग’ कहते थे।
  • गांवों के बीच में भी छोटे-छोटे दुर्ग बनाने की प्रथा सिकन्दर के समय तक थी।

ग्रामों की दशा

ग्रामों का राजनैतिक सम्बन्ध सीधा केन्द्रीय परिषद से होता था। बीच में प्रान्तिक डिवीजनल सरकारों की कोई भीत न थी और जमींदारी की प्रथा तो नाम निशान को भी न थी। सारे ग्राम का अपने क्षेत्र की भूमि पर समान अधिकार होता था। ग्रामों के चारों ओर खेतों की सीमा पर चरागाह और जंगल होते थे। उन पर समस्त ग्राम का समानाधिकार होता था। खेतों की सिंचाई के लिए


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ग्राम-परिषद की ओर से नालियां या कुएं खुदवाए जाते थे। गांव के नेता की देख-रेख में नियमानुसार खेतों की सिंचाई होती थी। खेती योग्य सारे खेतों का घेरा एक होता था। फसल के समय केन्द्रीय शासन की रकम और ग्राम्य-कोष का धान्य निकालकर गांव के सारे कुटम्ब परिश्रम के अनुपात से बांट लेते थे। स्त्री, बच्चों का भी भाग होता था। सामर्थ्य योग्य सारे स्त्री बच्चे परिश्रम भी करते थे। कुटुम्ब यदि चाहते तो अपने हिस्से के खेत अलग भी करा सकते थे। परन्तु वह बिना ग्राम पंचायत की आज्ञा अपने हिस्से के खेतों को बेच नहीं सकते थे। गृहपति की मृत्यु के बाद उसका बड़ा लड़का गृहपति माना जाता था। ग्राम्य-जीवन सीधा-सादा था। सारी आवश्यक वस्तुएं वे पैदा कर लेते थे। खेती करने वालों के सिवाय जो अन्य पेशे वाले बढ़ई, नाई, शिल्पकार आदि थे उनकी वृति बांधी हुई थी जो फसल के समय प्रति कुटुम्ब की ओर से अन्न के रूप में दी जाती थी। शादी आदि के उत्सवों पर कुछ उन्हें पुरस्कार भी दिया जाता था। गुड़, शकर, मिर्च और नमक प्रायः सभी गांवों में तैयार होते थे।

यदि धान्य इतना उत्पन्न होता कि जिसको अगली फसल तक सारे गांव के खा लेने पर बचने की संभावना दिखाई देती थी तो उसे सम्मिलित रूप से जमीन में गड्ढा खोदकर जिसे खत्ती कहते थे, गाड़ दिया जाता था। प्रत्येक गांव मे अकाल-वबाल के लिए पंचायत की देख-रेख में हजारों मन धान्य एकत्रित रहता था। गांवों के बीच में बाजार भी होता था, जहां गोटे, रेशम, मूंगा और तेल जैसी खेती में पैदा न होने वाली वस्तुओं की दुकान लगा करती थीं। गांव वालों को सिक्के की बहुत कम आवश्यकता पड़ती थी। कौड़ियां उस समय पैसे का काम देती थीं। यात्रा करने के लिए भी उन्हें सिक्के की आवश्यकता न पड़ती थी। सभी गांवों में अतिथि-गृह बने हुए थे जिनमें भोजन के अलावा औढ़ने-बिछाने का सामान भी मिलता था। प्रथम तो प्रत्येक गृहस्थ का घर ही अतिथिशाला होता था फिर भी पंचायतों को नियमानुसार प्रबन्ध करना पड़ता था। प्रजातंत्र के समय ग्राम्यों का जीवन स्वर्ग था, क्योंकि जनता की वैयक्तिक स्वतंत्रता बिल्कुल सुरक्षित थी।

जब कोई विदेश के लिए जाना चाहता था तो ग्राम्य-पंचायत उसके इरादे को केन्द्रीय-परिषद के पास अपने परामर्श के साथ भेजती थी और केन्द्रीय परिषद में निर्णय हो जाने पर उसे विदेश में भेजने का प्रबन्ध केन्द्रीय-कोष से होता था। साथ ही उसे प्रमाण-पत्र भी दिया जाता था, क्योंकि गणराज्यों में बाहरी आदमी पर सन्देह रहता था। एकतंत्री लोगों के गुप्तचरों के कारण, ऐसे प्रमाण-पत्रों की आवश्यकता पड़ती थी। समुद्र के रास्ते जाने वाले यात्री जहाजों से जा सकते थे । बड़े-बड़े प्रजातंत्रों की ओर से जो कि समुद्र और नदियों के किनारे स्थित थे,


1. कौटिल्य अर्थशास्त्र अधि. 9 अध्याय 2


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जहाजी बेड़ा तैयार रहता था। व्यापारी लोग भी संघ बनाकर, जहाजों द्वारा विदेशों से व्यापार करते थे। बौद्ध-ग्रन्थों में जहाजों का वर्णन पर्याप्त रूप से मिलता है।

ग्रामों में जहां रथ, घोड़े, ऊंट, हाथी होते थे, वहां हथियारों का भी पूरा संग्रह रहता था। यूनानी लेखकों ने गण लोगों के बर्छे और तीर-कमान की प्रशंसा की है। लाठियों में गंडासे की भांति फाल वाले हथियार जो कि फरसा कहे जाते हैं, बर्छो की भांति बड़े काम के समझे जाते थे।

नगर की रचना प्रायः ऐसी होती थी जिसमें या तो चार द्वार होते थे, या दो। किसी-किसी गांव का प्रवेश द्वार एक ही होता था। इन द्वारों पर बड़े-बड़े फाटक चढ़े रहते थे। मकान पंक्ति बद्ध बनाए जाते थे। ‘बुद्धिस्ट इंडिया’ में प्रोफेसर डेविस ने इन गांवों की रचना पर काफी लिखा है। वास्तव में ग्राम भी छोटे-मोटे प्रजातंत्र ही तो थे। किसी भी कुटुम्ब का शोक, हर्ष, सारे गांव का शोक, हर्ष होता था। समानता और सहृदयता प्रजातंत्र के समय में गांवों की विशेषता थी।

गणों की विशेषतायें

श्री काशीप्रसादजी जायसवाल ‘हिन्दू-पालिटी’ में गणों के सम्बन्ध में लिखते हैं -

यूनानियों के कथन से यह बात सिद्ध होती है कि ये लोग केवल युद्ध-क्षेत्र में बहुत उच्च कोटि की वीरता और शौर्य दिखलाने वाले अच्छे योद्धा ही नहीं थे किन्तु अच्छे कृषक भी थे । जो हाथ सफलता-पूर्वक तलवार चला सकते थे, वे खेती के औजार भी उतनी ही उत्तमता से उठा सकते थे। अर्थ-शास्त्र और बौद्ध-लेखों से भी प्रकट होता है कि लोग कृषक भी थे और शिल्पी भी।

इससे पहले वे लिखते हैं - भारत के प्रजातंत्र या गण-राज्यों के कानून या धर्म और उसके अनुसार शासन करने की व्यवस्था की प्रायः सभी यूनानी लेखकों ने एक स्वर से प्रंशसा की है। और उनकी इस प्रशंसा का समर्थन महाभारत से होता है। इन राज्यों में कम से कम कुछ तो अवश्य ऐसे थे जो पहले के फैसला किए हुए मुकद्दमों की नजीरें पुस्तकों में लिखकर रखा करते थे। यहां तक कि उनका कट्टर-शत्रु कौटिल्य भी कहता है कि संघ का जो मुख्य या प्रधान होता है, अपने संघ में उसकी प्रवृति न्याय की ओर होती है। उनमें न्याय का यथेष्ट ध्यान रखा जाता था। बिना न्याय के कोई गण या प्रजातंत्र अधिक समय तक चल ही नहीं सकता। उन लोगों का दूसरा गुण उनकी दांति होती थी। कौटिल्य ने इस बात का भी उल्लेख किया है कि संघ का मुख्य या प्रधान दांत हुआ करता था जैसा कि हम पहले बतला चुके हैं। महाभारत में भी यह कहा गया है कि कुछ ऐसे बड़े और उत्तरदायी नेता हुआ करते थे जो छोटे और बड़े सभी प्रकार के सदस्यों को ठीक ढंग से रखते थे - उन्हें उच्छृंखल या उद्दण्ड नहीं होने देते थे। ऐसे नेता लोग अपने आपको तथा


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अपने कृत्यों को सर्व-प्रिय बनाया करते थे। महाभारत में इस बात का उल्लेख है कि श्रीकृष्ण ने अपने मित्र नारद से कहा था कि अपने संघ के कार्यकारी मण्डल का काम चलाने में मुझे कैसी-कैसी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। इस पर नारद ने श्रीकृष्ण की इस बात की निन्दा की थी कि जब सर्व-साधारण के सामने वाद-विवाद का अवसर आता है, तब तुम अपनी जबान को वश में नहीं रख सकते हो। नारद ने वृष्णियों के नेता श्रीकृष्ण को परामर्श दिया था कि यदि वाद-विवाद में तुम पर लोग किसी तरह का आक्षेप या आक्रमण करें तो तुम उसे धैर्य-पूर्वक सहन कर लिया करो और संघ में एकता बनाए रखने के लिए तुम अपने व्यक्तित्व पर होने वाले आक्षेपों का ध्यान न दिया करो।

इसी प्रकार वे लोग सदा युद्ध करने के लिए भी तैयार रहा करते थे। गण के नागरिक लोग सदा वीरता प्रदर्शित करने के आकांशी रहा करते थे और इसी में अपनी बहुत बड़ी प्रतिष्ठा समझते थे।

जैसा कि महाभारत में कहा गया है गणों मे सब लोग समान समझे जाते थे। यह बात प्राकृतिक रूप से आवश्यक भी थी। जिस संख्या में सर्वसाधारण का जितना ही हाथ होगा, उसमे समानता के सिद्धान्त पर उतना ही जोर भी दिया जाएगा।

गणों में ये नैतिक गुण हुआ करते थे, इनके अतिरिक्त उनमें राज्य-संचालन के भी गुण होते थे। महाभारत में इस बात का प्रमाण मिलता है कि विशेषतः आर्थिक बातों में उनका राज्य-संचालन और भी सफलतापूर्वक हुआ करता था। उनके राजकोष सदा भरे हुए रहा करते थे।

गणों के राजनैतिक बल का एक बहुत बड़ा कारण यह था कि गण के सभी लोग सैनिक और योद्धा हुआ करते थे। उनका सारा समाज या समस्त नागरिक, सैनिक होते थे। उनमें नागरिकों की ही सेना हुआ करती थी और इसीलिए वह राजाओं के किराए पर भरती की हुई सेनाओं से कहीं अधिक श्रेष्ठ होती थी और जब कुछ गण किसी पर आक्रमण करने के लिए अथवा किसी के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए, अपनी एक लीग (ज्ञाति) बना लेते थे तो उस दशा में जैसा कि कौटिल्य ने कहा है, वे अजेय हो जाते थे। हिन्दू-प्रजातंत्रों या गणों में संघ (ज्ञाति) बनाने की विशेष प्रवृति हुआ करती थी। इस सम्बन्ध में वैयाकरणों के षष्ठ त्रिगर्त, क्षुद्रक, मालव संघ, विदेहों और लिच्छिवयों का संघ, पाली त्रिपिटिक का वज्जियों का संघ और अन्धक, वृष्णि के संघ उदाहरण स्वरूप हैं। महाभारत के कथनानुसार जो गण अपना संघ बना लेते थे, शत्रु के लिए उन विजय प्राप्त कर लेना प्रायः असम्भव सा हो जाता था। बुद्ध ने भी मगध के अमात्य से यही कहा था कि वज्जियों के संघ पर मगध के राजा विजय प्राप्त नहीं कर सकते।

हिन्दू-गणों के वैभव और सम्पन्नता की प्रशंसा भारतीय और विदेशी दोनों


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प्रकार के लेखों आदि मे पाई पाई जाती है। यूनानियों का ध्यान उनकी संपन्नता पर गया था और महाभारत से भी इसका समर्थन होता है। यदि कोई नागरिक किसी कारण से राजनैतिक क्षेत्र का नेता नहीं हो सकता था, तो वह वणिकों या व्यापारियों की पंचायत या सभा का नेता होने की आकांक्षा किया करता था। उनमें शांति की विद्या और युद्ध की विद्या, सुव्यवस्था और दांति और अध्यवसाय, शासन करने का अभ्यास और शासित होने का अभ्यास, विचार और कार्य, घर और राज्य की सभी बातें बराबर-बराबर और साथ-साथ चलती थीं। इस प्रकार का जीवन निर्वाह करने का परिणाम यही होता था कि सब लोग व्यक्तिशः नागरिक दृष्टि से उच्च-कोटि के कर्मशील और दक्ष हुआ करते होंगे। जिनमें इतने गुण और इतनी विशेषतायें हों, यदि उनके सम्बन्ध में महाभारत में यह कहा गया हो कि लोग उनसे मित्रता करने और उन्हें पक्ष में मिलाने के लिए उत्सुक रहा करते थे, तो इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है और न इसी बात में किसी प्रकार का आश्चर्य है कि वे अपने शत्रुओं की संख्या घटाने में ही आनन्द का अनुभव किया करते थे और अपनी ऐहिक सम्पन्नता का ध्यान रखते थे। इसका स्पष्टीकरण इस बात से होता है कि उनकी शिक्षा और प्रतिभा एकांगी नहीं हुआ करती थी। वे केवल राजनैतिक पटु ही नहीं थे, कौटिल्य ने उन्हें योद्धा भी बताया है और शिल्प-कला में कुशल भी। वे स्वयं अपने यहां के कानूनों के कारण ही शिल्प-कुशल और सैनिक होने के लिए बाध्य होते थे। वे व्यापार और कृषि पर सदा ध्यान रखते थे। जिससे वे स्वयं भी सम्पन्न रहते थे और उनका राज-कोष भी भरा हुआ रहता था। काशीप्रसाद जायसवाल लिखते हैं-

शासन-प्रणाली की सफलता की सबसे अच्छी कसौटी यह है कि उसके द्वारा राज्य चिरस्थायी हो । भारत की प्रजातंत्र या गण-शासन प्रणाली राज्यों को चिरस्थायी बनाने में बहुत अधिक सफल हुई थी जैसा कि हम पहले बता चुके हैं। हमारें यहां इस शासन-प्रणाली का आरम्भ वैदिक युग के ठीक बाद ही हुआ था। यदि हम ऐतरेय ब्राह्मण के काल को अपना आरम्भिक काल मानें, तो हम कह सकते हैं कि सात्वत भोजों का अस्तित्व प्रायः एक हजार वर्ष का था। यदि उत्तर मद्र और पाणिनी के मद्र एक ही हों, तो उनका अस्तित्व लगभग 1300 वर्षो तक था और वे यदि एक न हों, तो उनका अस्तित्व प्रायः 800 वर्षो तक सिद्ध होता है। क्षुद्रकों और मालवों ने ई. पू. 326 में सिकन्दर से कहा था कि हम लोग बहुत दिनों से स्वतंत्र रहते आए हैं। मालव लोग राजपूताने में ई.पू. 300 तक अवस्थित थे। इस प्रकार उन्होंने मानों लगभग 1000 वर्ष स्वतंत्रतापूर्वक बिताए थे। यही बात यौधेयों के सम्बन्ध में भी है। लिच्छिवयों के सम्बन्ध के लेख भी प्रायः एक हजार वर्ष तक के मिलते हैं। इससे सिद्ध होता है कि जिन सिद्धान्तों के अनुसार हिन्दू प्रजातंत्रों और गणों का संचालन होता था, वे सिद्धान्त


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स्थायित्व की कसौटी पर पूरे उतरे थे।1

इतने योग्य और सर्व गुण-सम्पन्न तथा शक्तिशाली होते हुए भी गण-राज्य नष्ट कैसे हो गए, इसके सम्बन्ध में जायसवालजी कहते हैं -

"इतना होने पर भी हिन्दू-गण या प्रजातंत्र साधारणतया बहुत बड़े नहीं होते थे। यद्यपि उनमें से अनेक गण प्राचीन यूरोप के प्रजातंत्रों की अपेक्षा बड़े ही थे। तथापि मालवों, यौधेयों तथा इसी प्रकार के थोड़े से और गणों को छोड़कर आजकल के अमेरिका के संयुक्त-राज्य, फ्रांस और चीन आदि के मुकाबले में बहुत ही छोटे थे।

उनकी यही छोटाई इस राज्यतंत्र की बहुत बड़ी दुर्बलता थी। जो राष्ट्र और राज्य छोटे होते हैं, उनमें चाहे कितने ही अधिक गुण क्यों न हों, उनका अस्तित्व नहीं रहने पाता। बड़े-बड़े राज्यों ने लोभ के वशीभूत होकर छोटे-छोटे राज्यों को खा लिया। जो मालव और यौधेय बड़े-बड़े बलवान साम्राज्यों और विजेताओ के बाद भी बचे रहे थे, उनके राज्य बहुत बड़े-बड़े थे। लिच्छिवयों और मद्रों की भांति यादवों और यौधयों ने भी अपने कानून और अधिकारों का वहां तक प्रचार किया होगा, जहां तक कि उनके राज्य का विस्तार था। उनके विस्तार के कारण ही उनकी वह दशा नहीं हो पाई, जो उनके आरम्भिक समकालीन छोटे-छोटे राज्यों की हुई थी।"

गणराजयों के सम्बन्ध का श्री जायसवालजी का विवेचन तथा उपर्युक्त वर्णन उनके (प्रजातंत्रों) शासन-सम्बन्धी बातों के जानने के लिए पर्याप्त है। यह सब वर्णन उन ग्रन्थों में संग्रह किया गया है, जो एकतंत्र की छाया में रहने वाले लोगों द्वारा लिखे गये थे। हिन्दू-ग्रन्थों में बहुत कम उनका जिक्र है। बौद्ध-ग्रन्थों में अवश्य कुछ अधिक है, किन्तु बौद्ध-ग्रन्थों के अनुशीलन की मर्यादा अभी सीमित है। ये प्रायः सभी गण समयानुसार ज्ञातिवाद की ओर झुकते गये और उनका एक संघ (जट) बन गया। हजारों वर्षों के बाद गणों से संगठित हुए, जट के लिये, सिर्फ इतनी दन्त-कथा शेष रह गई कि जाट गणों से हुए हैं और गण महादेव ने पैदा किये थे क्योंकि गणों के वास्तविक इतिहास से लोग अनभिज्ञ हो चुके थे। इसलिये गणराज्यों से बने हुए जाट को पौराणिक कल्पना के गण-व्यक्तियों के उत्तराधिकारी मान बैठे। अस्तु, हम जट (संघ) के थोड़े से उन गणों का ऐतिहासिक परिचय देते हैं जो कि अब केवल गौत्र या कुल के रूप मे जाटों में पाये जाते हैं -

शिवि

यह गण बहुत पुराना है। वेदों में भी इनका वर्णन आता है। पुराणों ने इन्हें उशीनर के वंशज लिखा है। उशीनर वेद की ऋचा के द्रष्टा भी बताये गये हैं। बौद्ध-ग्रन्थों मे लिखा है कि तथागत ने एक बार इनमें भी जन्म लिया था।


1. हिन्दू राजतन्त्र, अध्याय 20


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ईसा से 326 वर्ष पूर्व जब सिकन्दर का भारत पर आक्रमण हुआ था, उस समय शिवि लोग मालवों के पड़ौस में पाये गये थे। यूनानी लेखकों ने उन्हें शिबोई लिखा है। शिवियों के सम्बन्ध में यूनानी लेखकों ने उन्हें युद्ध के समय में भी जंगली लोगों के से कपड़े पहनने वाला लिखा है। टोप और कोट के सामने उनकी चुस्ती अंगरखी और ऊंची धोती उनको अवश्य ही जंगलियों का सा पहनावा जान पड़ी होंगी। किन्तु ठेठ भारतीयता तो यही थी। सिकन्दर के कुछ ही काल बाद, ये लोग शायद मालवों के साथ ही राजपूताने की ओर बढ़ गये थे। इस तरह पंजाब से मालवा और मालवा से राजस्थान की ओर इनका बढ़ना पाया गया है।

चित्तौर से 11 मील उत्तर की ओर तम्बावति नगरी नामक एक प्राचीन नगर का ध्वंशावशेष है। इस नगर के निकट शिवि लोगो के बहुत प्राचीन सिक्के पाये गये हैं। उस पर ‘मझमिकाय शिवजनपदस’ लिखा है। जिसका अर्थ है मध्यमिका के शिव जनपदों का (सिक्का)| तम्बावति नगरी ही मध्यमिका नगरी कहलाती थी। ये सिक्के इसी सन् से लगभग एक या दो शताब्दी पहले के हैं। जातकों में इस जनपद के कुछ सरदारों का वर्णन आता है, उसका संक्षिप्त रूप यह है -

शिवि देश में संजय नामक एक परम धार्मिक राजा था। उसके घर राजकुमार सुदान या विश्वन्तर का जन्म हुआ था। राजकुमार बड़ा दयालु और दानशील था। बड़े होने पर जब वह युवराज हुआ तो एक दिन उसने किसी ब्राह्मण को गजरथ दान कर दिया। यह गजरथ सोने का बना हुआ और सारे गजरथों में उत्तम था। उसकी यह दानशीलता शिवि जाति को भली न लगी और सब मिलकर राजा के पास गये। राजा ने उस समय कुमार को समझा दिया था। किन्तु बहुत दिन नहीं बीते थे कि कुमार की दानशीलता का यश दिग-दिगान्त में फैल गया। राजा संजय के यहां एक परम सुन्दर गंध-हस्ती था। अन्य राजाओं ने छलपूर्वक उस गंध-हाथी को लेने का विचार किया। एक राजा न कुछ ब्राह्मणों को छलपूर्वक उस गंध-हस्ती की याचना करने के लिए भेजा। युवराज ने पर्व के दिन उपवस्थ व्रत का स्नान किया और वस्त्रालंकार से विभूषित हो उसी गंधहस्ती पर सवार हो अपने सत्रागारों (महकमा सदाव्रत) को देखने के लिए चला। उसी समय उस राजा के भेजे हुए ब्राह्मण उसे सत्र पर मिले और मिलते ही उन्होंने आर्शीवाद से युवराज से गंध-हस्ती की याचना की। राजकुमार ने अपने मन में सोचा कि भला ये ब्राह्मण इस हाथी को लेकर क्या करेंगे, हो न हो किसी राजा ने छल कर इन्हें मुझ से इस हाथी को मांगने के लिए भेजा है। पर युवराज ने फिर सोचा कि ऐसा न हो कि मैं ब्राह्मणों से यदि यह पूछूं कि आप इसे लेकर क्या करेंगे तो कहीं ये ब्राह्मण अपने मन में यह न समझें कि मैं लोभवश देने से जी चुराने के कारण ऐसा कर रहा हूं।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-161


फिर कुमार हाथी पर से चट उतर पड़ा और उसने हाथी को ब्राह्मणों को दे दिया।

ब्राह्मण तो हाथी को लेकर अपनी राह गए, किन्तु जब इस दान का समाचार शिवि लोगों को मिला तो वे सब बिगड़ कर चारों ओर से महाराज संजय के पास पहुंचे और कहने लगे कि महाराज क्या आप अब इसी पर लगे है कि सारी राज्यश्री नष्ट ही हो जाए। आप इस प्रकार राज्य को मिट्टी मे न मिलाइए। राजकुमार ने गंध-हस्ती को दे डाला। यदि उसकी दानशीलता ऐसी है तो आगे चलकर न जाने वह क्या कर डालेगा। वह राज्य-सिंहासन के योग्य कदापि नहीं है। पहले तो राजा उनकी बात सुनकर चुप रहा और अपने मन में यह सोचने लगा कि राजकुमार को क्या दण्ड दूं, पर जब शिवि लोगों ने बहुत आग्रह किया तो उसने कहा कि - कहिये अब तो जो होना था सो हो गया, राजकुमार को दण्ड देने व मारने-पीटने से तथा बांधने आदि से हाथी तो फिर नहीं आता। मैं आगे को विश्वन्तर को डांट-डपट दूंगा। शिवि लोग बिगड़ पड़े और बोले कि महाराज आप इस युवराज को अवश्य निकाल दें, क्योंकि इतना दयालु राजा हमें नहीं चाहिए। ऐसा धर्म-भीरू पुरूष वन में तप करने के योग्य है, राज का भार और प्रजा की रक्षा का काम उठाने योग्य कदापि नहीं। आप कृपा कर युवराज का बंकगिरि पर तप करने भेज दीजिए। निदान राजा ने उनकी बात मान क्षत्ता को बुलाया और सारी बातें कुमार के पास कहला भेजीं।

क्षत्ता कुमार के पास गया और आंखों में आंसू भर कर खड़ा हुआ। कुमार ने उसे देख पूछा, कुशल तो है? क्षत्ता ने रोकर कहा कि महाराज की बात न मान कर भी शिवि लोगों ने आपके निर्वासन की आज्ञा दी है। युवराज न आश्चर्य से कहा - क्या बात है कि शिवि लोगों ने मेरे निर्वासन की आज्ञा दी? कारण तो बतलाओ? क्षत्ता ने कहा - और कोई कारण नहीं, केवल आपकी अति उदारता ही के कारण वे बिगड़े हैं। कुमार ने कहा - शिवि लोग चपल स्वभाव के हैं। वे यह नहीं जानते कि बाह्य-द्रव्य की तो बात ही क्या है, यदि कोई मुझसे मेरी आंख या मेरा शरीर मांगे, तो मुझे उसके देने में भी कोई हिचक नहीं। अस्तु, मैं उनकी आज्ञा मान तपोवन जाता हूं । यह कहकर कुमार अन्तःपुर में गया और अपनी पत्नी माद्री से सारी बात कह सुनाई। माद्री ने कहा कि फिर मुझे आप क्या आज्ञा देते हैं? राजकुमार ने कहा - तुम यहां रहकर अपने सास और ससुर की सेवा करके और अपनी दोनों संतान - कुमारी और कुमार का पालन करो। माद्री ने कहा - मुझे तो यह भला नहीं जान पड़ता कि आप बंकगिरि पर तप को सिधारें और मै आपसे बिलग होकर यहां रह जाऊं। मुझे तो आप से अलग रहना मरने से भी अधिक दुख का कारण होगा। फिर तो राजकुमार ने अपनी पत्नी और बच्चों को साथ ले जाने का निश्चय किया।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-162


राजकुमार अपना सर्वस्व दान कर अपनी पत्नी माद्री और जाली कुमार और कृष्णाजिना कुमारी को साथ ले रथ पर चढ़ बंकगिरि को चला। राजकुल में चारों और हाहाकार मच गया। कुछ दूर चला था कि ब्राह्मणों ने आकर रथ के घोड़ों की याचना की। कुमार ने तुरन्त घोड़ों को उन्हें दे दिया। फिर यह दशा देख चार यक्ष कुमार रोहित मृग का रूप धर के आये और कुमार का रथ खींचने लगे। यह देख बोधिसत्व ने माद्री की ओर देख के कहा -

तपोधनाध्यासनसत्कृतानां, पश्य प्रभावातिशयं वनानाम्।

यत्रेवमभ्यागतवत्सलत्वं, संरूढ़मूलं मृगपुंगवेषु।

अर्थात् - यह तपस्वियों के यहां रहकर तप करने का प्रभाव है कि अतिथि को देख ये मृग आकर हमारा रथ खींचे रहे हैं। रथ कुछ और आगे चला था, कि ब्राह्मणों ने आकर रथ की याचना की और कुमार उन्हें रथ दे कर, जाली को गोद में लिये आगे-आगे आप और पीछे-पीछे कृष्णाजिना को गोद में लिये माद्री के साथ पैदल बंकगिरि को चले। दोनों इस प्रकार पैदल जाकर बंकपर्वत के किनारे पहुंचे। वहां की शोभा अकथनीय थी। वहीं पर वह एक पर्णशाला में अपनी पत्नी और बच्चों के साथ रहकर तप करने लगा।

एक दिन माद्री वन में मूल-फल के लिये गई थीं कि इसी बीच में ब्राह्मण आया और कुमार को आर्शीवाद दे कहने लगा कि महाराज, मेरे घर कोई काम-काज करने वाला नहीं है अतः आप अपने इन दोनों बालकों को मुझे दे दीजिए। कुमार ने कहा - हां, आप इन्हें ले जाइये पर तनिक ठहर जाइये, इनकी माता को आ लेने दो। वह मूलफल लेने गई है और अभी आती होगी। पर ब्राह्मण ने एक न मानी। उसने कहा कि इनकी माता आ जाएगी तो दान में विघ्न पड़ जाएगा। कुमार ने भी अपनी कन्या-पुत्र को उचित शिक्षा दे उसको सौंप दिया। ब्राह्मण उनको घुड़क कर बोला - बस अब चलो। दोनों पिता को प्रणाम कर बोले - माता बाहर गई हैं, आपने हमें इसे क्यों दे दिया? माता आ जाएं तब आप हमें इनको दीजियेगा। फिर ब्राह्मण उन दोनों को लता से बांध खींच ले चला। आंखों में आंसू भरे वे दोनों अपने पिता का मुंह देखते रहे। कृष्णाजिना चिल्लाती थी कि - ब्राह्मण मुझे लता से पीट रहा है। यह ब्राह्मण नहीं है, कोई यक्ष है। हम दोनों को खाने के लिए ले जा रहा है। बेचारा जाली चिल्लाता था - मुझे तो इसके मारने का उतना दुःख नहीं जितना यह दुख है कि मैंने अपनी माता को चलते बार नहीं देखा। इस प्रकार दोनों बिलखते थे और निर्दयी ब्राह्मण दोनों को खींचे लिए जाता था। राजकुमार को उन दोनों की दशा देख करूणा आई पर करे तो क्या करे, मुंह से बात निकल जाने के कारण कुछ नहीं कर सकता था।

माद्री बेचारी को उसी दिन मार्ग में सिंह मिला। इस कारण वह आगे न गई और तुरन्त मूलफल जो उसे मिले लेकर अपने आश्रम को लौटी।


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कहते है कि देवराज इन्द्र सिंह बन कर उसे आगे जाने से रोकने के लिए उसका मार्ग रोककर बैठे थे। जब माद्री आई तो अपने आश्रम पर अपने बालकों को न देख उसने कुमार से पूछा कि - लड़के कहां है? कुमार चुप रहा। फिर माद्री ने समझाया कि कुछ अकुशल की बात है। वह भीतर मूलफल को रख दुःख के मारे कातर हो गिर पड़ी। राजकुमार ने दौड़कर जल ले उसके मुंह पर छींटे दिये और जब उसे चेत हुआ तो सारा सामाचार कह सुनाया। वह आंखे पोंछ दुःखी हो बाली - आश्चर्य की बात है मैं क्या कहूं।

कुमार की दानशीलता देखकर स्वर्ग कांप उठा और देवराज शुक्र उसकी दानशीलता की परीक्षा लेने के लिए दूसरे दिन ब्राह्मण का रूप धरके आये और उन्होंने विश्वंतर से माद्री के लिए याचना की। राजकुमार ने बायें हाथ से माद्री के दाहिने हाथ से कमण्डल लेकर उसका दान कर दिया। माद्री ने न तो क्रोध किया न रोई। वह उसके स्वभाव को जानकर चुप हो गई। देवराज यह देखकर विस्मय कर उनकी प्रशंसा करते हुए प्रकट हुआ और बोला -

तुभ्यमेव प्रयच्छामि, माद्रीं भार्यामिमामहम् ।

व्यतीत्य न हि शीतांशुं, चन्द्रिका स्थातुमर्हसि ॥1॥

तन्मा चिन्तां पुत्रयोर्विप्रयोगाद्राज्यभ्रंशान्मा च संतापमगाः।

सार्धं ताभ्यामुपेतः पिता ते कर्ता राज्यं त्वत्सनाथं सनाथम् ॥

अर्थात् - माद्री को आप ही लीजिये चन्द्रमा को छोड़ चांदनी अन्यत्र नहीं रह सकती। आप अपने लड़कों की चिन्ता न करे और न राज्य के छूटने का कुछ सोच कीजिये। वे आपके पिता के पास पहुंच जायेंगे और आप राज्य करने वाले होंगे।

शुक्र यह कह वहीं अन्तर्ध्यान हो गये। वह ब्राह्मण उन दोनों लड़कों को शिवि के राज्य में ले गया और राजा संजय के हाथ बेच आया। राजा संजय ने कुमार के अद्भुत यश को सुना और विश्वंतर को शिवि लोगों की सम्मति से बुलाया और उसे अपना उत्तराधिकारी किया। बौद्ध-ग्रन्थ अवदान कल्पलता में संजय का नाम विश्वामित्र लिखा है। इनमें एकाधिपत्य नहीं था, अपितु ‘गण’ की प्रथा थी। इनमें सब काम जाति मात्र की सम्मति से होता था।1>

शिवि लोगों में शिवि नाम के महापुरूष का भी वर्णन है किन्तु उनका परिचय हम पिछले पृष्ठों में दे चुके हैं। अतः पुनरावृत्ति की आवश्यकता नहीं समझते।


1. चीनी यात्री ‘सुगयुग का यात्रा विवरण’ परिशिष्ट पृ.49 से 55। (काशी नागरी प्रचारिणी सभा)।

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अराट्ट

संभवतया जाटों में मिलने वाला राठौर गोत इन्हीं का रूपान्तर है। यह भी हो सकता है कि ये ही जाटों के राठी हों। अलवर राज्य में जाटों का एक जिला राठ कहलाता है। सिकन्दर के समय ये उत्तरी भारत में थे और बिल्कुल अराजकतावादी थे। सिकन्दर के साथियों ने चिढ़कर इन्हें डाकू लिख मारा है। कारण कि चन्द्रगुप्त मौर्य की इन्होंने यूनानियों के भगाने में काफी मदद की थी। सिकन्दर का स्थापित भारतीय राज्य इन्होंने ही हटाया था। कुछ लोग शब्द सामंजस्य से इन्हें अरोड़े भी बताते हैं, किन्तु प्रकृति, स्वभाव और भाषा जैसी कि उनकी थी, अरोड़े उससे बहुत कुछ भिन्न हैं। इतने कटु स्वभाव का समुदाय एकतंत्र के बढ़ने पर निश्चय ही राजपूताने के रेगिस्तान की ओर बढ़ा होगा वे राठी या राठौर-जाट ही हो सकते हैं।1

क्षत्रिय

इन्हें यूनानियों ने क्षत्रोई (एक्सट्रोई) लिखा है। साथ ही यह भी लिखा है कि ये लोग बिल्कुल स्वाधीन थे। ये अपने नेता चुनकर शासन का काम उन्हीं को सौंपते थे। जहाज और नाव बनाने में भी ये लोग बड़े कुशल थे। सिकन्दर से विजित होने पर इन लोगों ने उसे बहुत से जहाज भेंट किये थे। संभवतया यह पांचाल देश की पांचों नदियों के संगम स्थान पर रहते थे और पुनः जदु के डूंग की ओर मुल्तान के निकट बढ़ गये थे। सन् 1024 ई. में महमूद गजनवी ने अपने अपमान का बदला लेने के लिए इन पर चढ़ाई की थी। नावों द्वारा झेलम में इन्होंने महमूद से भयंकर युद्ध किया था। यह अब जाटों के अन्दर खत्री गोत से मशहूर हैं। श्री जायसवालजी ने इन्हें पंजाब के खत्री (आज के वैश्य?) माना है। यह भी हो सकता है कि इनका कुछ समूह व्यापारी बन गया हो और कुछ जट (संघ) में शामिल हो गया हो। बौद्ध-काल के बाद यही एक ऐसा समूह था जो अपने लिए क्षत्रिय कहता था। वरना बौद्ध-काल में क्षत्रिय वंशों या समूहों के नाम से अपना परिचय कराते थे।

अगलस्सोई

इस जाति ने सिकन्दर का बड़ा भारी मुकाबला किया था। ये लोग बड़े देश भक्त और स्वाभिमानी थे। इन लोगों ने 40 हजार पैदल और तीस हजार सवार सेना के साथ सिकन्दर का मुकाबला किया था। यूनानी लोग जान पर खेले और


1. जाटों में अरोरा और सहगल भी हैं।


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ये लोग हार गये। दो हजार यूनानी मारे गये। सिकन्दर इनसे इतना चिढ़ा कि इनमें से हजारों को कत्ल करा डाला। हजारों को गुलाम बनाया। स्त्री और बच्चों के साथ भी दया न की। इन्होंने उससे दो स्थानों पर दो बार मुकाबला किया और अन्त तक लड़े। सिकन्दर ने जब इनके नगर को लूटने की इच्छा की तो नगर में आग लगा दी। उसमें इनके भी हजारों आदमी जल गये। अन्त समय में कुल तीन हजार शेष रहे थे। मातृभूमि की रक्षा के लिए इतना खून इन्हीं लोगों ने बहाया था। जातीय अपमान से ये मृत्यु को श्रेष्ठ समझते थे। इस तरह सर्वनाश के बाद राजस्थान और यू.पी. की ओर सरक आये। आज वे अपने जट (संघ) में ओजलान कहलाते हैं। ओजलान को ही यूनानी लेखकों ने अगलस्सोई लिखा है। संभवतः यह झेलम और चिनाब नदियों के बीच में रहते थे।

सामोता

यूनानी इतिहास लेखकों ने इन्हें संवस्तई लिखा है। अपने साथी गादड़ों (जिन्हें यूनानियों ने गेड्रोजिआई लिखा है) के साथ सिन्ध, पंजाब के बीच आबाद थे और अब खंडेलावाटी और झूझांवाटी में जीवन यापन करते हैं। 22 सौ वर्ष के लम्बे समय ने उन्हें इतना भुला दिया है कि इसके सिवा उन्हें कुछ भी पता नहीं कि हम सिन्धु की ओर से आये। प्रजातंत्र के सम्बन्ध में उन्हें कुछ ज्ञान नहीं, किन्तु सामाजिक रिवाज अभी उनके गणतंत्री हैं।

यौधेय

यह प्रजातंत्री समुदाय एकतंत्र हमलों से बहुत समय तक टक्कर लेता रहा। पौराणिक ने इन्हें युधिष्ठिर के वंशजों में माना है। आजकल जोहिया नाम से जाटों के अन्दर इनका निशान पाया जाता है। जांगल देश में राठौर के विरूद्ध भी इन्हें खूब लड़ना पड़ा था। पन्द्रहवीं सदी में इनके हाथ से बीकानेर का राज्य निकल गया। उस समय में शेरसिंह इनमें बड़ा वीर सरदार था। कुछ लोग इनमें से व्यापार भी करने लग गये थे। इन्हें चन्द्रगुप्त मौर्य, कनिष्क और समुद्रगुप्त जैसे साम्राज्यवादियों से भी पाला पड़ा था, किन्तु फिर भी इन्होंने अपने अस्तित्व को स्थिर रखा। इस वीर समुदाय की सैनिक शक्ति की धाक पहली, दूसरी शताब्दियों तक तो सारे भारत में थी। रूद्रदामन ने इनके विषय में लिखाया था -

सर्वक्षत्रा विष्कृत वीरशब्द जातोत्सेकाभिधेयानां यौधेयानाम् ।

अर्थात - सभी क्षत्रियों के सामने यौधेयों ने अपना नाम (युद्धवीर) चरितार्थ करने के कारण जिन्हें अभिमान हो गया था और जो परास्त नहीं किये जा सकते थे। यह थी उनकी वीरता, जिसका उल्लेख उनके शत्रुओं ने भी किया है।

भरतपुर राज्य में उनका एक शिलालेख मिला था।


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इस बात का वर्णन डा. प्लीट ने गुप्तों का वर्णन के वर्णन के साथ किया है। उस शिलालेख में यौधेय-गण के निर्वाचित प्रधान का उल्लेख है। इनका प्रधान महाराज महासेनापति की उपाधि धारण करता था। कुछ अन्य गणों के अध्यक्ष भी राजा और राजन्य की उपाधि धारण करने लग गए थे। मालूम होता है, एकतंत्रियों के मुकाबलों में गण अपने अध्यक्षों का राजा, महाराजा या राजन्य की उपाधि देने लग गए थे। लिच्छिवियों ने तो अपने 7077 मेम्बरों को भी राजा की उपाधि दे डाली थी। यौधेयों का यह शिलालेख गुप्तकाल का बताया जाता है। जोधपुर में भी यौधेयों का एक गण था और उसका सरदार था महीपाल। यह महीपाल अवश्य ही 1200 ई. के लगभग था। उसके वंश के लोग अजीतगढ़ चूड़ी की ओर बढ़ गए। इन यौधेयों की कालान्तर में अनेक शाखाएं भी हो गई। कुलरिया शाखा के लोग अब तक अजीतगढ़ चूड़ी के पास मौजूद हैं।

यौधेयों के कार्तिकेय के साथ सिक्के

दिल्ली और करनाल के मध्य सोनीपत में उनके सिक्के हाथ लगे हैं। पंजाब में सतलुज और जमुना के समस्त प्रदेश में यौधेयों के सिक्के पाये जाते हैं। यौधेयों के सिक्के कुछ भिन्न-भिन्न प्रकार के भी हैं। शुंग-काल के सिक्कों पर चलते हुए हाथी और एक सांड की मूर्ति अंकित मिलती है। उन सिक्कों पर ‘योधेयानाम्’ ऐसा लिखा रहता है। दूसरी तरह के सिक्को पर उन्होंने युद्ध के देवता कार्तिकेय की मूर्ति अंकित की है। तीसरी तरह के सिक्कों पर यौधेय गणस्य जय लिखा रहता है। इस सिक्के में एक योद्धा के हाथ में भाला लिए हुए त्रिभंगी गति से खड़ी हुई, मूर्ति बनाई है। कुछ सिक्कों पर ‘हि’ और ‘त्रि’ भी लिखा हुआ पाया गया है।

यौधेय लोगों में निर्वाचित सभापति या प्रधान हुआ करता था। उपर्युक्त बात उनके शिलालेखों से साबित होती है।

ऐसा मालूम होता है, यह ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी में ही राजपूताने की ओर आ गए थे। पच्छिमी राजपूताने, मारवाड़ और जैसलमेर और बीकानेर की भूमि पर अपना अधिकार जमा लिया था। रुद्रदमन से जो युद्ध हुआ था, वह जोधपुर की भूमि पर हुआ था, क्योंकि रुद्रदमन बराबर पैर फैलाता जा रहा था। हिसार और Delhiदेहली की ओर भी ये लोग बढ़ गऐ थे। कुछ लोग पंजाब में ही अड़ रहे थे। बहावलपुर के जोहिया अपने को राजपूतों की ओर ले जाने की चेष्टा कर रहे हैं। किन्तु राजस्थान में इनका अधिकांश समूह अपने असली स्टाक में है और जाट कहलाते हैं।

गणों के राज्य-विस्तार, कोष, नीति आदि के ज्ञान के लिए यह हमने थोड़े से गणों की शासन-व्यवस्था का वर्णन किया है। जट (संघ) तो ऐसा है जिसके भीतर अनेक गणों का समावेश है। मद्र, कुरू, मालव, नाभ, भुक्ति आदि अनेक गणों के सम्बन्ध में कुछ बताया जा सकता है। किन्तु गणों का अन्त क्यों कर हुआ इस बात पर थोड़ा सा प्रकाश डाल करके, जाट-वैभव के दूसरे पहलू पर नजर डालेंगे।


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प्रजातंत्रों का लुप्त होना

प्रजातंत्रों का अन्त कब और कैसे हुआ इसका उत्तर हिन्दू-राजतंत्र से इस प्रकार मिलता है -

पांचवी शताब्दी के अंत में हिन्दू-भारत से प्रजातंत्र अदृश्य हो गए । पुराने लिच्छवि लोग राजनैतिक क्षेत्र छोड़कर हट गए और उनकी एक शाखा नेपाल में जा बसी। नये पुष्य-मित्र हवा हो गए और उसके बाद की शताब्दी में ही हिन्दू शासन-प्रणाली इतिहास के रंग-मंच पर से अंतिम प्रस्थान कर गई। वैदिक काल के पूर्वजों के समय से जो कुछ अच्छी बातें चली आ रही थीं, पहली ऋचा की रचना से अब तक जो उन्नति की हुई थी और जिन बातों के द्वारा राज-शासन में जीवन का संचार हुआ था, वे सब बातें इस देश को अंतिम अभिवादन करके चली गईं। इसी प्रजातंत्रवाद ने पहले पहल महाप्रस्थान का आरम्भ किया था- केवल एक ही चरण हमारी समझ में आया। उस चरण में सर्वनाश करने वाली उस तलवार की प्रशंसा की जो प्रकृति-बर्बरों के हाथ में पकड़ा दी जाती थी। पर उस गीत के अन्यान्य चरण हमारे लिए अभी पहले के ही रूप में हैं। उस महाप्रस्थान के वास्तविक कारण भी उसी अंतिम गीत से स्पष्ट हो जाने चाहियें थे, पर वे समझ ही में न आये।

ईसवी सन् 550 के बाद से हिन्दू-इतिहास बिगलित होकर उज्जवल और प्रकाशमान जीवनियों के रूप में परिवर्तित हो जाता है। इधर-उधर बिखरे हुए फुटकर रत्न दिखाई पड़ते हैं, जिन्हें एक में गूथने वाला राष्ट्रीय या सामाजिक जीवन का धागा नहीं रह गया है। हमें बड़े-बड़े गुणवान भी मिलते हैं और बड़े-बडे़ अपराधी भी। हमें हर्ष और शशांक मिलते हैं। यशोधर्मन, कनिष्क और शंकराचार्य मिलते हैं, परन्तु ये लोग साधारण और सार्वजनिक बल से इतनी अधिक ऊंचाई पर हैं कि हम केवल इनकी प्रशंसा कर सकते हैं और इन्हें परम पूज्य मान कर इनका आदर सत्कार कर सकते हैं। समाज में स्वतंत्रता का कहीं नाम भी नहीं रह गया। इस पतन के कारण आंतरिक ही होने चाहिएं, जिनका अनुसंधान होना अभी तब बाकी ही है।

प्रजातंत्रों के लुप्त होने और उनके लुप्त होने से समाज को जो हानि है ऊपर का उद्धरण उसका आरम्भिक वक्तव्य है। उन प्रजातंत्रों में जो जन-स्वातंत्र्य था उसे प्राप्त करने में कितनी पीढ़ियां बीत जाएंगी, हिन्दू-समाज कहां पहुंच गया है, यह अब पीछे की ओर देखें तो उससे घबराना पड़े। किन्तु धन्य जाट जाति कि जिसने धार्मिक और राजनैतिक प्रहारों की अधिकता के बाद भी सामाजिक स्वतंत्रता को सुरक्षित ही रखा। समय की गति ने उसके हाथ से सत्ता छीन ली, पर नैतिक नियमों को समानता के सिद्धान्त रूप में आज तक भी जीवित रखा।


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एकतंत्रवाद का प्रभाव

प्रजातंत्र के नष्ट होने पर केन्द्रीय शासन धीरे-धीरे ही जाटों के हाथ से निकल गया। फिर भी लम्बे अरसे तक उन्होंने ग्राम्य-शासन को बहुत दिनों तक संभाला। सैकड़ों वर्ष के संघर्षों के उपरान्त वे थक गए और शिथिल हो गये। किन्तु फिर उनमें से कुछ वीर निकले और उन्होंने प्रतिकूल परिस्थिति होते हुए भी, जाटपने की शान को रख लिया। उन्होंने देखा कि एकतंत्र शासन जाति का अस्तित्व ही खो देगा। इसलिए जाति की रक्षा के लिए उन्होंने एकतंत्र शासन स्थापित करने के लिए कमर कसी और जाति को विद्वेषी एकतंत्रियों के उत्पात से निर्भय बना दिया। इन वीरों में कुछ तो आरम्भिक संघर्ष में ही चेत गए और जाति को संगठन करके जाट-एकतंत्र या जाट-साम्राज्य की नींव डाल दी। सिन्ध में सिन्धुराज, गांधार में सुभागसेन, मालवे में यशोधर्मा, पंजाब में शालेन्द्र और दिल्ली में महावल ऐसे पुरूष थे, जिन्होंने जाट शब्द को बनाये रखने के लिए एकतंत्र को भी अपना लिया। मध्यकाल में जुझारसिंह, चूरामणि, खेमा, कपूरसिंह, आलासिंह और महासिंह भी ऐसे ही नरपुंगव हुए, जिन्होंने भारत के इस छोर से उस छोर तक जाट शब्द गुंजा दिया। जिस समय एकराज-प्रथा यौवन की तरफ जा रही थी, उस समय उन्होंने मुहम्मद और अली के घर तक अपनी वीरता की धाक जमा ली थी। जाट-जाति के अनेक जत्थे यूरोप, चीन और जर्मनी में पहुंचकर अपने लिए जमीन प्राप्त कर रहे थे। हिन्दू धर्म, जबकि विदेश-यात्रा के सम्बन्ध में निषेधात्मक कानून बना रहा था, जाट-समूह रोम और स्केण्डनेविया में पहुंचकर भारत की शान उंची कर रहे थे। प्रजातंत्रों के नष्ट होने से पूरी जाति तो राजनैतिक ज्ञान से गिरती जा रही थी, किन्तु कुछेक नरपुंगव अपनी तलवार-नीति-पथ से बता रहे थे कि जाट प्रत्येक क्षेत्र में बाजी ले सकते हैं। चाहें वे प्रजातंत्री रहें और चाहे एकतंत्री। उनकी आबादी इतनी बढ गई थी कि मन्दसौर से लेकर उत्तर में बज्रपुर साइब्रेरिया तक जा पहुंची थी। पच्छिम में ईरान से आरम्भ करके पूर्व में नेपाल तक वे शहर की मक्खियों की भांति भरे हुए थे। वैसे यूरोप और एशिया कोई प्रदेश ऐसा न था, जिसमें जाट न पहुंच गए हो और उनकी वीरता की चर्चा उस देश में न हुई हो।

युद्ध के तरीके

विदेशी इतिहासों के वर्णन से यह मालूम होता है कि रणकुशलता में जाट संसार में श्रेष्ठ होते हैं। साइरस ने जो कि सिकन्दर के समान प्रसिद्ध हुआ है पर्शियन-साम्राज्य की नींव जाटों की ही सहायता से डाली थी। नारायण शास्त्री के मत से साइरस ने ईसा से 560 वर्ष पहले, मीडिया के लोगों से युद्ध करने के लिए


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सिन्ध के राजा से सहायता मांगी थी, किन्तु सहायता देने से पूर्व सिन्ध के सरदार ने अपना एक प्रतिनिधि-मण्डल इस बात की जांच के लिए भेजा था कि न्याय-पक्ष किसका है। अन्त में साइरस को सहायता दी गई। जाट, मीडों की भांति ही घुड़सवार थे। वे सूती वर्दी पहनते थे। चार अस्त्र सदा रखते थे - तीरकमान, बर्छे, तलवार और छुरकले। कमान सिर की बराबर उंची होती थी जिसका एक सिरा पैर से दबाते थे। सवार सैनिक तो दो बर्छे रखता था। जिस समय तलवार का काम आता था तो दोनों हाथों से चलाने लगते थे। हाथियों पर बैठकर लड़ने की बुरी रिवाज भी उनमें थी। सरदार लोग रथों पर और हाथियों पर ही बैठकर लड़ा करते थे। वह प्रथम दर्जे के घुड़सवार थे। इसकी प्रशंसा तो टाड साहब ने भी की है। किलों में घिर कर लड़ने की अपेक्षा, उन्हें शत्रु पर इधर-उधर से आक्रमण करने में बड़ा आनन्द आता था। लड़ाई से पूर्व ही स्त्री, बच्चों को सुरक्षित स्थान पर भेज देते थे।

पैदल-सैनिक गदा और लकड़ी (लाठी) भी रखते थे। लड़ने में जब तक सिर धड़ से अलग नहीं हो जाता था, तब तक अपने स्थान से न हटते। पदाति सेना के लोग गले में हांस, हाथों और पैरों में कड़े पहनना, रक्षा का काम समझते थे। सिर की पगड़ी को बलदार और लपेट देकर बांधते थे, जिसमें तलवार का गुजर तो हो नही नहीं सकता था। ऊंटों से वह डाक पहुंचाने का काम लेते थे। लड़ाई का नक्कारा भी ऊंट पर ही रखा जाता था।

बसन्ती झण्डा उन्हें प्रिय था जिसे राजा के हाथी पर ही फहराया जाता था। कभी-कभी सेनापतियों के पास भी ऐसे झण्डे रहते थे। मुख्य सेनापति या राजा किसी ऊंचे और सुरक्षित स्थान पर खड़ा होकर युद्ध का संचालन करता था। युद्ध के ढंगों के संकेत होते थे और संचालनकर्ता से सेना को संकेत देता था।

युद्ध के समय हर-हर बोलकर हमला करते थे। कर्नल टाड कहते हैं कि युद्ध के समय जिट लोग समझते थे कि महादेव की योगिनी शत्रुओं का खून खप्पर भर कर पीने को आती है। उनकी धारणा थी कि युद्ध में बहादुरी के साथ मरे हुए लोग शिवलोक को प्राप्त होते हैं और शिवजी के गले के हार में उनका भी सिर पिरा लिया जाता है, क्योंकि शिव मुंडमाल पहनते हैं। इसलिए युद्ध में मरने को पवित्र मानते थे।

उनके यु़द्धों का यह वर्णन आरम्भिक काल से ईसा की छठी शताब्दी तक का है। नये धर्म के भारत में फैलने से उनके युद्धों के तरीकों पर भी असर पड़ा, और सिख के रूप में अथवा हिन्दू-जाट के रूप में उन्होंने जो रण-कौशल दिखाया है, उसके लिए मि. कनिंघम का लिखा सिख युद्ध और मि. चक्रवर्ती का लिखा भरतपुर-युद्ध अथवा सौ पठान, दस जटान, ‘आठ फिरंगी नौ गोरा लड़े जाट के दो छोरा’ उदाहरण काफी हैं।


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विस्तार

56 कोटि जादों की जनश्रुति अति प्रसिद्ध है। किन्तु इतिहास से अनभिज्ञता रखने के कारण लोग इसको झूठ मान लेते हैं और कुछ शब्द-शास्त्री इसका अर्थ 56 करोड़ न करके 56 श्रेणी करते हैं। दलील यह दी जाती है कि भारत में इस समय भी 56 करोड़ तो आदमी नहीं हैं; जिसमें यादवों का 56 करोड़ का दल बताया जाता हैं। फिर राघव (सूर्यवंशी) आदि भी तो थे। भारत में कहां समाते। ऐसे लोगों की दृष्टि में भारत की सीमा आज के भी कम मालूम पडती है? किन्तु उन्हें यह मालूम नहीं कि भारत कृष्णकाल में आज से बहुत उत्तर में बढ़ा हुआ भारत था। पूरब में इक्षुर-सोद (आक्सस) पच्छिम में कभानदी (काबुल नदी) भारत की सीमा बनाती थीं। चीन की ओर मानसरोवर से भी आगे तक भारतीय बसे हुए थे। महाभारत के बाद तो उत्तर में बज्रपुर (साइबेरिया) और पच्छिम मे बैवलोनियां तक फैल गए थे। वैसे भी सारे भारत में चारों ओर यादव ही यादव दिखाई देते थे। कंस, जरांसध, शिशुपाल, दंतवसु आदि के अलावा भारत का ऐसा कोई कोना न था, जो यादवों से खाली हो। सूर्यवंशी थे उनका शतांश। जितने वे बढ़े थे उतने ही विनष्ट भी हुए, गैरों द्वारा नहीं, अपने ही हाथों। दुर्वासा के शाप से नहीं, राजनैतिक विभिन्नता से। साम्राज्य-लिप्सा ने गणवादियों को उत्तर-पश्चिम दिशा में बढ़ने को विवश कर दिया। साम्राज्य-लिप्सा दक्षिण पूर्व में उदय हुई, जिससे उत्तर-पच्छिम वाले और भी उत्तर-पच्छिम को बढ़ने पर विवश हुए। सम्भव था कि साम्राज्यवाद उन्हें और आगे को खदेड़ता, किन्तु इसी समय देश में धार्मिक क्रान्ति हो गई। यज्ञों द्वारा सार्व-भौम की प्रथा ढीली पड़ गई। राजा के स्थान पर साधु-संतों की ओर लोग झुक गये। राजा लोग भी साधु संत होने लगे और गण-राज्यों में जान आने लगी। फिर भी अजातशत्रु जैसे मत्वाकांक्षी अपनी धुन में लगे ही रहे।

ज्ञातिवादी अर्थात् जाट लोग इसी संघर्ष में उत्तर में जगजार्टिस नदी तक और पच्छिम में ईरान की खाड़ी तक फैल गए। यहीं से वे अपने जत्थों द्वारा इधर-उधर भी गए। जदुकाडूंग से शनैःशनैः काश्मीर की ओर फिर दर्दस्तान को पार करके कुछ यादव पूर्वी चीन तक पहुंचे। चीन के प्राचीन इतिहास अपने को भारतीयों के वंशज बताते हैं। हियंगू नदी और हुंगा पर्वत के पास के लोग जो भारत में लौटकर आ गए, आज हग्गा जाट कहलाते हैं।

महाभारत मे पांडवों के महाप्रस्थान का वर्णन है, किन्तु उन्हें धार्मिक रूप देकर हिमालय में गला दिया है। केवल युधिष्ठिर-द्रौपदी को शेष रखा है। कहा गया कि वे सजीव स्वर्ग पहुंच गए। बात यह है कि अनेक यादव और पांडव लोग


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-171


उत्तर कुरू की ओर गए थे। कुछ पंजाब में रह गए, रहने वाले यादवों के नाम से वही स्थान जदु का डूंग कहलाया और कुछ काश्मीर में रह गए, कुछ आगे रहे, कुछ साइबेरिया तक पहुंचे और वहां यदुओं के बज्रपुर को बसाया। ये ही लोग चीनी भाषा में कुषाण और यूची अथवा जिहूटी कहलाए। विदेशों में जाटों ने कहां-कहां अपनी बस्तियां कायम कीं, अब थोड़ा सा प्रकाश इस बारे में अगले अध्याय में डाला जाएगा।


जाट इतिहास:ठाकुर देशराज,पृष्ठान्त-172


पंचम अध्याय समाप्त

नोट - इस पुस्तक में दिए गए चित्र मूल पुस्तक के भाग नहीं हैं. ये चित्र विषय को रुचिकर बनाने के लिए जाटलैंड चित्र-वीथी से लिए गए हैं.


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