Panipat Ke Yuddh Mein Maharaja Surajmal Ki Bhumika

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भारतीय इतिहास का एक रहस्य
पानीपत का युद्ध 1761महाराजा सूरजमल की भूमिका
लेखक - महीपाल आर्य, इतिहासकार
महीपाल आर्य, इतिहासकार

विकी एडिटर द्वारा सार संक्षेप: लेखक महीपाल आर्य ने इस लेख में इतिहास जानने और पढ़ने की आवश्यकता समझाई है. पानीपत के युद्ध में महाराजा सूरजमल की भूमिका को रेखांकित किया गया है. पानीपत युद्ध जीतने के लिए मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ को महाराजा सूरजमल ने रणनीति के बहुत महत्वपूर्ण और उपयोगी सुझाव दिए. यदि पानीपत के युद्ध 1761 के दौरान उसकी दूरदर्शी बातों को मान लिया जाता तो शायद आज के भारतवर्ष का नक्शा ही कुछ और होता तथा देश न जाने कब का स्वतंत्र हो गया होता. पानीपत युद्ध में भाऊ के साथ ही सर्व खाप पंचायत के मल्लों के योगदान को प्रकाश में लाया गया है. मराठा सेना की हार के कारण सूचीबद्ध किये गए हैं. इस रहस्य से पर्दा उठाया गया है कि किस प्रकार पानीपत की युद्ध भूमि से मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ लुप्त हो गया और उसने बहुत वर्षों तक हरियाणा प्रांत में साधु बनकर गुप्त रूप से रहस्य पूर्ण जीवन व्यतीत किया. भाऊ के सांघी गांव जिला रोहतक में आगमन तथा वहां भाऊ द्वारा डेरे की स्थापना का विस्तृत विवरण दिया गया है. भाऊ के निर्देश पर हुड्डा खाप द्वारा होल्कर को टैक्स न देकर युद्ध लड़ा गया जो इतिहास के नए आयाम पेश करता है. सांघी गाँव में सदाशिव राव भाऊ की समाधी स्थित है. कहते है कि भाऊ समाधि लेने से पूर्व महाराजा सूरजमल के द्वारा दिए गए सुझावों को याद करते हुए फफक-फफक कर रोये थे. यह भारतीय इतिहास का एक विलुप्त रहस्य है.

इतिहास का महत्व

इतिहास जानने और पढ़ने की आवश्यकता: संसार में सदा युद्ध हुए हैं और सदा होते रहेंगे. भले ही युद्धों का स्वरूप भिन्न-भिन्न कालों में परिवर्तित हो जाए. युद्धों के फलस्वरूप किसी भी देश का उत्थान और पतन होता है और उन्हीं के कारण स्वाधीनता और पराधीनता प्राप्त होती है. इसलिए प्रत्येक देश का उसके युद्ध के साथ अटूट संबंध है. भारतवर्ष आज गुलामी की जंजीरों को तोड़कर स्वतंत्र हो चुका है अतः उसको यह जानने की आवश्यकता है कि उसका इतिहास क्या है? अस्तु ! वर्तमान भविष्य की रचना करता है और अतीत वर्तमान की रक्षा करता है. इसलिए हमको और हमारे नवयुवकों को अपना इतिहास जानने और पढ़ने की आवश्यकता है. इतिहास का विषय विस्तृत है जो इस लेख में समाहित नहीं हो सकता.

इतिहास से तात्पर्य

इतिहास से तात्पर्य - किसी भी समाज और देश के लिए उसका इतिहास बहुत महत्व रखता है. कोई भी कौम या मुल्क अपने पुरखों की उपेक्षा कर विकास नहीं कर सकता, सम्मान का हकदार भी नहीं बन सकता. प्रसिद्ध इतिहासकार ठाकुर देशराज के अनुसार "वह समाज या जाति अथवा देश कितना कृतघ्न समझा जाना चाहिए जो अपने प्राचीन उद्धारकों, नेताओं तथा उनके सहायकों की स्मृति को जिसे कि इतिहास कहते हैं, सुरक्षित न रख सके. जिस समाज का इतिहास नष्ट हो जाता है, उसके पुनरुद्धार में बड़ी कठिनाइयां पेश आती हैं क्योंकि मनुष्य का प्रकृतिजन्य सवभाव अनुसरण करने का होता है."

मशहूर लेखिका नोबेल पुरस्कार विजेता पर्ल एस. बक के अनुसार यह कथन सत्य है कि "अगर तुम इतिहास नहीं जानते तो तुम कुछ भी नहीं जानते. तुम वह पत्ती हो, जिसको यह भी पता नहीं कि वह किस पेड़ का हिस्सा थी." यदि हम खुद से अपने व्यतीत कल को निकाल दें तो हम आज कुछ भी नहीं रह जाएंगे. कहते हैं कि यदि किसी को खत्म करना हो तो उसका इतिहास मिटा दो, वह कौम स्वत: ही खत्म हो जाएगी. विजेताओं ने अतीत में वही किया, जहां पर भी विजय हासिल करते, सबसे पहले पराजित कौम या राज्य के इतिहास और संस्कृति पर चोट करते ताकि उनके पास गर्व करने लायक कुछ बचा ही नहीं और वे विजेता से बराबरी के स्तर पर आकर मुकाबला करने की, संघर्ष करने की सोच ही नहीं पाएं.

हमारे पुरखों ने हमारे लिए अनेक प्रकार के कष्ट सहे हैं. कौम को सुषुप्त अवस्था से जागृत करने तथा अज्ञान के अंधकार से निकालकर विकास के पथ पर लाने हेतु बहुत संघर्ष किया है. आज हम जो कुछ भी हैं, जिस मुकाम तक पहुंचे हैं, जहां खड़े हैं, वह हमारे पुरखों के त्याग और संघर्ष की बदौलत ही हैं. उन्होंने संघर्ष किया ताकि आने वाली पीढ़ियों को उनका हक मिल सके, वे आगे बढ़ सकें. उन्होंने अंधकार भरे मुश्किल रास्ते तय किए ताकि हमारी जिंदगी रोशन हो सके. कांटो भरे रास्तों पर चले ताकि हमारी राहें निष्कंटक हो जाएं. वे बलिदान हुए और मिट गए ताकि यह कौम जिंदा रहे. इसका इंकलाब बुलंद रहे.

वैसे कुछ कटु सत्य तो यह है कि हमारे देश भारत में ही इतिहास के प्रति वह बोध या चेतना कभी भी नहीं रही जो अरबों, चीनियों व पाश्चात्य जगत में रही है. अतीत में भारतवर्ष मोटे तौर पर एक मौखिक समाज माना जाता रहा है, जहां वाचिक परंपरा रही है. यहां पर इतिहास लेखन को कभी भी विशेष महत्व नहीं मिला.

भारत में जाटों के परिप्रेक्ष्य में तो स्थिति और भी शोचनीय रही है, जिन्होंने इतिहास लिखना तो दूर, उसको संकलित करना, किसी दूसरे से लिखवाना भी आवश्यक नहीं समझा. इतिहास के प्रति उदासीनता की इस प्रवृत्ति से अतीत में जाटों को काफी नुकसान हुआ है और दूसरे लोगों ने इसका अनुचित फायदा भी उठाया है. जाटों ने इतिहास लेखन की आवश्यकता को कभी भी शिद्दत (गंभीरता) से महसूस ही नहीं किया अपितु एक प्रकार से इतिहास के प्रति वे बेखबर (असावधान, लापरवाह) से ही बने रहे. जिन दूसरी जातियों ने इस ओर ध्यान दिया उसका उन्हें लाभ भी मिला. जिन कौमों ने अपना इतिहास लिखा या लिखवाया और सुरक्षित रखा उन कौमों की यह दुनिया आज भी कद्र, आदर करती है. सोचने की बात तो यह है कि सिकंदर से लेकर कारगिल तक हमारे पुरखों का, हमारी कौम का शानदार इतिहास रहा है परंतु इतिहास में उन्हें उचित स्थान नहीं मिला. इन सब बातों के बावजूद हम लोग अपने गौरवशाली इतिहास के संरक्षण, संकलन, लेखन के प्रति अपेक्षित रूप से आज भी गंभीर नहीं हैं.

हम लोग इस आसन्न (पास आया हुआ) संकट के प्रति भी सावचेत (सावधान) नहीं हैं कि आने वाले कुछ वर्षों बाद ही इतिहास संबंधी अधिकांश रिकार्ड (पूर्ण लिखित विवरण, अभिलेख) की उपेक्षा के कारण नष्ट हो जाने की काफी संभावना है और तब वह पीढ़ी भी इस दुनिया में नहीं रहेगी, जिसकी स्मृतियों में इतिहास अभी भी काफी हद तक जिंदा है, बचा हुआ है. नई पीढ़ी से इस दिशा में बहुत अधिक उम्मीद भी नहीं की जा सकती क्योंकि भौतिकवाद के दौर में उसकी प्राथमिकताएं तेजी से बदलती जा रही हैं. आज की पीढ़ी के बहुतेरे लोगों को तो संभवत: उनके परदादा का नाम भी ठीक से मालूम नहीं होगा. पता नहीं हम किधर जा रहे हैं....?, कैसी उपलब्धियां हैं ये हमारी ....? कैसा विकास है यह....? और हमें इस विकास की क्या कीमत चुकानी पड़ रही है....? यह बातें जब तक समझ में आएंगी, तब तक बहुत देर हो चुकी होगी. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि परिंदा दिन भर आसमान में चाहे कितनी भी ऊंची उड़ान भर ले, शाम को उसे लौटना अपने घोसले में ही पड़ता है. बिना जड़ों के पत्ते, शाखाओं व तने का भी कोई अस्तित्व नहीं है. इन सभी का विकास जड़ों पर, उनकी गहराई पर ही टिका है. आइए ! हम सब का यह कर्तव्य है कि हम अपनी विरासत को सहेज लें. हमारे ज्ञात-अज्ञात महापुरुषों की, पुरखों की जानकारी एकत्र कर उसको लिपिबद्ध कर लें. इसी प्राथमिकता के तहत मैं इस लेख के माध्यम से एक ऐसे अपराजेय योद्धा का वर्णन कर रहा हूं. यदि पानीपत के युद्ध 1761 के दौरान उसकी दूरदर्शी बातों को मान लिया जाता तो शायद आज के भारतवर्ष का नक्शा ही कुछ और होता तथा देश न जाने कब का स्वतंत्र हो गया होता. ऐसे पराक्रमी थे महाराजा सूरजमल, जिनमें वीरता, धीरता, गंभीरता , उदारता, सतर्कता, दूरदर्शिता, सूझबूझ, चातुर्य और राजमर्मज्ञता का सुखद संगम सुशोभित था.

भारतवर्ष की शक्ति और सामर्थ्य में किसी को संदेह नहीं हो सकता. लेकिन फूट, ईर्ष्या और आपस के द्वेष के कारण उसकी अवस्था ठीक उस मशीन की-सी हो गई थी जिसके पुर्जे चलने पर आपस में टकराते हैं. एक देश में अनेक राजाओं का होना कभी भी हितकर नहीं होता. यह कटु सत्य है कि उनमें कलह होना स्वाभाविक होता है. भारतवर्ष की इन्हीं परिस्थितियों में विदेशी हमलों की शुरुआत हुई थी.

हमें लज्जा के साथ स्वीकार करना पड़ता है कि हम अपने पतन के स्वयं ही कारण रहे हैं. विदेशी हमलों में विदेशियों की अपेक्षा हम स्वयं अधिक अपराधी हैं. इतिहासकार जे.बी. बरी अपनी पुस्तक 'हिस्ट्री ऑफ ग्रीस' में साफ लिखता है कि "सिकंदर का इरादा भारत के विजय करने का नहीं था. वह काबुल और सिंध नदियों की खाड़ी से आगे भारत की तरफ नहीं बढ़ना चाहता था. लेकिन भारतवर्ष की बढ़ती हुई संपत्ति और फूट की खबरों ने भारत में आक्रमण करने के लिए उसे तैयार किया था और उसके आक्रमण करने पर यहां के राजाओं ने आपस में एक दूसरे का नाश करने के लिए उसका साथ दिया था." अन्य भी अनेक विदेशी इतिहासकारों ने स्वीकार किया है कि विदेशी आक्रमणकारियों को परास्त करने की ताकत भारतीय राजाओं में थी परंतु आपस की फूट, ईर्ष्या व चौधराहट के कारण वे संगठित होकर शत्रु से लड़ न सके और उस दशा में उनका सर्वनाश हुआ.

पानीपत का युद्ध और महाराजा सूरजमल की भूमिका

मैं 14 जनवरी 1761 को पानीपत के प्रसिद्ध युद्ध की ओर पाठक गण का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा जो भारतीय इतिहास में एक रहस्य है. यह युद्ध मराठों और अहमद शाह अब्दाली के मध्य हुआ था. इस युद्ध के विषय में अनेक इतिहासकारों ने अपनी लेखनी चलाई है. पानीपत की युद्ध भूमि से मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ किस प्रकार लुप्त हो गया और उसने बहुत वर्षों तक हरियाणा प्रांत में साधु बनकर गुप्त रूप से रहस्य पूर्ण जीवन व्यतीत किया. जिसके विषय में आज तक इतिहास लेखक अंधकार में हैं. अनेक वर्षों के शोधपूर्ण आधार पर स्वामी ओमानंद सरस्वती, त्र्यंबक शंकर शेजवलकर (Tryambak Shankar Shejwalkar), निहाल सिंह आर्य, प्रताप सिंह शास्त्री आदि इतिहासवेत्ताओं का मानना है कि मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ पानीपत के युद्ध में मारा नहीं गया अपितु वह लड़ता-लड़ता युद्ध के परिणाम को भांपकर इस प्रकार ओझल हो गया मानो वह वीरगति को प्राप्त हो गया. लेकिन वास्तविकता यह है कि वह युद्ध से पलायन कर सांघी गांव (जिला रोहतक) जो भूतपूर्व मुख्यमंत्री चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा का गांव है, में पहुंच गया था और वहां साधु बनकर अनेक वर्षों तक जीवित रहा तथा अनेक गांवों में भ्रमण करता रहा.

इतिहास इस बात का साक्षी है कि जनवरी 1761 ई. में अहमदशाह अब्दाली दिल्ली पर हमला करने के लिए भारत में आया था. मराठा सरदार सदाशिव राव भाऊ अपने बाल-बच्चों, औरतों और मराठा सेना को लेकर अब्दाली का मुकाबला करने के लिए दिल्ली आया तथा दिल्ली पर कब्जा करने का विचार बनाया. अहमद शाह अब्दाली का मुकाबला करने की रणनीति तैयार करने के लिए भाऊ ने भरतपुर के जाट महाराजा सूरजमल को बुला भेजा क्योंकि तत्कालीन भारतीय नरेशों में महाराजा सूरजमल ही अधिक नीतिमान, दूरदर्शी, सफल राजनीतिज्ञ व कूटनीतिज्ञ योद्धा थे. महाराजा सूरजमल ने रणनीति के बहुत अनुभव पूर्ण एवं विजयकारी सुझाव, परामर्श भाऊ को दिए. उनके सुझाव को सदाशिव राव भाऊ के सिपहसालार इंदौर के राजा होलकर, जोकि एक सर्वाधिक अनुभवी सेनापति थे, ने उन सभी समझदारी भरी सलाह व सुझाव का समर्थन किया. वे सुझाव निम्नलिखित थे -

मराठा सेनापति सदाशिवराव भाऊ को महाराजा सूरजमल के सुझाव

1. अहमद शाह अब्दाली की सेना पर अभी आक्रमण मत करो क्योंकि अभी सर्दी का मौसम है. गर्मी को यह लोग सहन नहीं कर सकते. इसलिए हम परस्पर मिलकर रणनीति के तहत गर्मी में ही हमला करेंगे.

2. स्त्रियों और बच्चों को युद्ध में साथ लेकर मत घूमो क्योंकि हमारा ध्यान इनकी सुरक्षा में बंट जाएगा. अतः इन्हें हमारे डीग के किले में सुरक्षित रखो ताकि हम निश्चिंत होकर लड़ सकें.

3. शत्रु की सेना पर सीधा आक्रमण नहीं करना चाहिए क्योंकि उनकी सेना बहुत अधिक है और भारत के बहुसंख्यक मुस्लिम इनके पक्ष में हैं. अतः इनसे झपट्टा मार युद्ध करना उचित रहेगा.

4. लाल किले की संपत्ति मत लूटो, नहीं तो मुस्लिम शासक, सरदार रुष्ट होकर अब्दाली के पक्ष में होकर हमारा विरोध करेंगे. हम भरतपुर कोष से मराठा सेनाओं को वेतन भी दे देंगे.

5. किसी मुगल सरदार की अध्यक्षता में एक दरबार लगाकर स्वदेश रक्षा और युद्ध-योजना निश्चित करो ताकि भारत के मुसलमान भी संतुष्ट होकर हमारे सहयोगी बने रहें

6. जनता को मत लूटो और खड़ी फसलों को मत जलाओ. हम सभी भोजन पदार्थों का प्रबंध कर देंगे.

7. शत्रु सेना की खाद्य-टुकड़ी को काटने की योजना बनाओ.

8. गर्मी शुरू होते ही मिलकर शत्रु सेना पर हमला कर देंगे. शत्रु अब्दाली को भारत के बाहर ही रोकना चाहिए था. यह भारत के शासक राजाओं की नाकामी को दर्शाता है.

सदाशिव राव भाऊ तगड़ा जवान और घमंडी था. उसने महाराजा सूरजमल के उपरोक्त उत्तम सुझावों को उपेक्षा सहित ठुकरा दिया. वह अल्पायु और अनुभवहीन था. उसने महाराज सूरजमल का वाणी से अपमान भी किया. महाराजा सूरजमल इस अपमान को सहन नहीं कर सके. उन्होंने देख लिया कि मराठों का अंत अच्छा नहीं होगा. वह वहां से लौटकर अपने राज्य में आ गए. इंदौर के राजा होल्कर ने भी महाराजा सूरजमल का समर्थन करते हुए भाऊ का साथ छोड़ दिया. महाराजा सूरजमल तटस्थ रहे.

पानीपत युद्ध में भाऊ और सर्व खाप पंचायत के मल्ल

सर्व खाप पंचायत

सदाशिव राव भाऊ ने युद्ध में अब्दाली का मुकाबला करने के लिए सहायतार्थ हरियाणा की सर्व खाप पंचायत सौरम को चैत्र सुदी तीज 1816 विक्रमी (1759 ई.) को एक पत्र भेजा था, जिस पर विचार करने के लिए सिसौली गांव में चौधरी दाना राम की अध्यक्षता में एक सभा ज्येष्ठ सुदी नवमी 1816 विक्रमी संवत (1759 ई.) को हुई थी और उसमें 5 प्रस्ताव पारित करके भाऊ को सहायता के लिए 20000 पैदल सेना और दो हजार घुड़सवार भेजने का निश्चय किया था. उस सेना के सेनापति गांव सौरम के चौधरी श्योलाल और उपसेनापति रामकला बलखंडी शूरवीर तथा पंडित कानाराम शास्त्री बनाए गए थे. इनके अतिरिक्त मीनाराम बढई, मत्तन भंगी, अर्जुन भंगी, लाला गेंदा मल, पूर्ण चंद्र कुम्हार, चौधरी जसराम जाट आदि मल्ल सेना के जाने-माने शूरवीर योद्धा थे. शोरम के पंडित कानाराम का महाराजा सूरजमल से घनिष्ठ संबंध था. उसने महाराजा सूरजमल से संपर्क किया तथा सदाशिव राव भाऊ द्वारा प्रेषित सर्व खाप से सहायता मांगी जाने के पत्र की चर्चा की. महाराजा सूरजमल ने उससे कहा कि सर्व खाप पंचायत किसी को भी नेता मानकर अब्दाली से युद्ध करे मैं वही नेतृत्व स्वीकार कर लूंगा लेकिन मेरी सम्मति से युद्ध का समय अभी उचित नहीं है. उनकी तार्किक बात उस वक्त किसी के समझ में नहीं आई.

पानीपत के युद्ध में मराठा सेना की पराजय और भरतपुर राज्य में शरण लेना

पानीपत के युद्ध का परिणाम वही रहा जिसका डर था. पानीपत के मैदान में मराठा सरदार सदाशिवराव भाऊ लड़ते-लड़ते युद्ध से इस प्रकार ओझल हो गया कि मानो वह युद्ध में मारा गया हो. मराठा सेना बुरी तरह हार गई. मराठों की औरतों, बच्चों और सेना ने भागकर भरतपुर राज्य में शरण ली. भाऊ की रानी पार्वती को किसी तरह बचा कर मल्ल सेना के सैनिक प्रारंभ में गांव एलम तथा बाद में महाराजा सूरजमल के यहां रक्षार्थ छोड़ आये. महाराजा सूरजमल ने पूर्ण आतिथ्य भाव से वैमनस्य भुलाकर शरणागत का सम्मान के साथ सेवा-सत्कार किया. बाद में कुछ समय व्यतीत होने पर उनकी यात्रा का समुचित प्रबंध कर उन्हें सही सलामत सम्मान के साथ ग्वालियर पहुंचा दिया.

इतिहास साक्षी है कि महाराजा सूरजमल की सहायता के बिना उनमें से एक भी मराठा जीवित घर नहीं लौट सकता था. चौथ (कर) वसूल करने वाले सदाशिवराव भाऊ के ऐसे घमंडपूर्ण व्यवहार के बावजूद मराठों के प्रति ऐसा सत्कार व आतिथ्य किया जाना महाराजा सूरजमल को इतिहास का एक अनुपम मानवतावादी महापुरुष बना देता है. विशेषकर ऐसे समय में जब सारा देश अहमद शाह अब्दाली के नाम से थर-थर कांपता था. अब्दाली के मार्ग में जो भी आया वह रौंदा गया लेकिन महाराजा सूरजमल का बाल भी बांका नहीं कर सका. एक विदेशी लेखक लिखता है कि "यदि भाऊ ने महाराजा सूरजमल के सुझावों पर अमल किया होता तो अब्दाली का प्रतिरोध और अधिक सफल रहता तथा हिंदुस्तान का इतिहास ही कुछ और होता, वैसा नहीं जैसा कि उस समय से बन गया." मराठा सेनापति भाऊ यद्यपि बहुत बहादुर था लेकिन उसमें घमंड इतना अधिक था कि वह अपने से बड़ा किसी को नहीं समझता था. दूरदर्शिता के अभाव और घमंड ने ही उसे पराजय का मुख दिखलाया.

पानीपत के युद्ध में मराठा सेना की हार के कारण

पानीपत के युद्ध में पंचायती उप सेनापति पंडित कानाराम ने यमुना नदी के ऊंचे इस्सोपुर के टीले पर अपनी सेना-चौकी स्थापित की थी. जहां से पानीपत का सारा युद्ध-क्षेत्र स्पष्ट दिखाई देता था. 20,000 पंचायती पैदल मल्ल तथा 2000 घुड़सवार मराठा सेना के साथ पानीपत के पास कुंजपुरा के मैदान में लड़े थे. 1000 मल्ल अपनी तथा मराठा सेना को इसी टीले से 3 मार्गों से भोजन सामग्री पहुंचाते थे. यह टीला संस्कृत भाषा, देश-प्रेम, सैनिक शिक्षा का प्राचीन स्थल है. भाऊ ने पंचायत के तीनों सेनापतियों तथा सैनिकों का बहुत आदर किया और यमुना नदी के जल में प्रवेश कर स्वदेश-रक्षा करने हेतु प्रतिज्ञा की. कुंजपुरा के मैदान में शत्रु की सेना पर जनवरी मास में जोरदार धावा बोल दिया. दोनों और की सेनाओं में घमासान युद्ध हुआ. दोपहर तक अफ़गानों के 50 सरदार और 50000 सैनिक मार दिए. दोपहर के बाद भाऊ के तोपखानों तथा घुड़सवारों का सेनापति इब्राहिम गार्दी घायल हुआ पकड़ा गया. फिर भाऊ के भतीजे विश्वासराव के हाथी के हौदे में तोप का गोला गिरा और हौदा खाली रह गया. यह सुनकर भाऊ वहां पहुंचा. इतने में अफ़गानों ने भाऊ के मरने की झूठी खबर फैला दी, जिसे सुनकर मराठों का साहस टूट गया. विश्वास राव के मरने तथा सेना के पैर उखड़ने पर भाऊ घोड़े पर सवार कुछ सैनिकों के संरक्षण में युद्ध से पलायन कर गया. इस युद्ध में 4000 पंचायती मल्ल भी बलिदान हुए.

डीग महल, भरतपुर, राजस्थान

मराठों की बहुत सी स्त्रियाँ मारी गई, कुछ पकड़ी गई, कुछ यहीं रह गई. बहुतेरे सैनिक, स्त्री और बच्चे भरतपुर के डीग के दुर्ग में शरण लेने के लिए बाध्य हुए. जहाँ महाराजा सूरजमल ने उनका भरपूर स्वागत, सम्मान और भोजन वस्त्र का प्रबंध किया. सैंकड़ों स्त्रियों सहित भाऊ की धर्म पत्नी पार्वती को को यमुना के पूर्व में स्थित एलम गांव में सर्वखाप के संरक्षण में एक मास तक सम्मान पूर्वक रखकर बाद में डीग किले में भेज दिया. वहां से महाराजा सूरजमल ने पार्वती की इच्छा अनुसार सैनिकों की देखरेख में पुणे भेज दिया. वहां जाकर पार्वती देवी ने हरियाणा के आतिथ्य-सम्मान और शिष्टाचार की बहुत प्रशंसा की थी. महाराजा सूरजमल का कोटिश: धन्यवाद किया था.

स्मरण रहे भाऊ की सेनाओं के साथ उसके बहुत से घोड़े और खच्चर अशर्फियों और अथाह धन से लदे हुए थे. वे युद्ध के उपरांत सारे इधर उधर भाग गए थे, जो जनता ने लूट लिए. यह घटना भाऊ की लूट के नाम से विख्यात है. पंचायती उप सेनापति पंडित कानाराम ने इस युद्ध का वास्तविक वर्णन तथा पराजय के कारणों पर बहुत सुंदर प्रकाश डाला है, जो निम्नांकित है-

1. महाराष्ट्र मंडल के सरदारों में असंतोष और परस्पर द्वेष था.

2. भाऊ बड़ा वीर होते हुए भी अल्पायु, नीतिहीन तथा घमंडी था.

3. भाऊ ने जवानी के जोश में भरतपुर के महाराजा सूरजमल की नीति-योजना को टाल दिया, जो हानिकर सिद्ध हुई क्योंकि उससे महाराजा सूरजमल सर्व शिरोमणि, नीति निपुण नेता, शूरवीर व दूरदर्शी सेनापति था. राजस्थान तथा हरियाणा के सभी सेनापति उसको राजनीति-विशारद गुरु मानते थे. इसलिए महाराजा सूरजमल को भाऊ से अलग होना पड़ा.

4. राजस्थान के राजाओं ने महाराणा प्रताप का आदर्श छोड़ दिया और मुगलों की पराधीनता का विष पीकर भाऊ का साथ नहीं दिया.

5. 14 जनवरी 1761 को दोपहर पश्चात् भाऊ के मरने की झूठी सूचना से ही मराठों का साहस टूटा था.

6. मुगल शासकों, हैदराबाद और लखनऊ के नवाबों ने अब्दाली से मिलकर मराठों का भोजन-मार्ग रोक लिया तो पंचायती सेना ने ही रातों-रात मराठा सेना को 3 मार्गो से रसद पहुंचाई थी. एक रात को जब अब्दाली ने मराठों पर आक्रमण किया तो 8000 पंचायती वीरों ने 20000 मराठे और 11000 भरतपुर के सैनिकों ने बीच में पहुंचकर, उन्हें रोककर बलपूर्वक आक्रमण विफल कर दिया. इस हमले में 8000 अफगान सैनिक और सरदार मारे गए.

7. भाऊ की जो 4000 मुस्लिम सेना थी, वह अब्दाली सेना से रूठ रही थी लेकिन गार्दी के पकड़े जाने पर वह इस्लाम के नाम पर धोखा देकर अब्दाली से मिल गई. फिर भाऊ भी युद्ध क्षेत्र से हट गया और मराठों की हार हो गयी.

मेरा मानना है कि घमंडी का सिर नीचा होने के साथ-साथ भाऊ के मस्तिष्क में यह बात घर कर गई थी कि पानीपत के युद्ध की जीत का सेहरा महाराजा सूरजमल सर पर न बंध जाये तथा दिल्ली का शासक वह न बन जाये एतदर्थ उसने उसके सुझाव को नहीं माना. दूसरी बात यह है कि उस समय भारत वर्ष के राजा फूट और ईर्ष्या में विलासिता के रोगी बन कर शक्तिहीन और अयोग्य बन गए थे. यदि वे परस्पर मिलकर अब्दाली को भारत आगमन से पूर्व ही सिंध में रोक लेते तो पराजय की नौबत ही नहीं आती.

सदाशिव राव भाऊ के सम्बन्ध में इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत

सदाशिव राव भाऊ पानीपत के युद्ध क्षेत्र में लड़ते-लड़ते मारा गया अथवा बचकर कहीं चला गया, इस विषय में विद्वान इतिहासकारों के भिन्न-भिन्न मत हैं. कुछ विद्वानों के मत उद्धृत करता हूं:

त्र्यंबक शंकर शेजवलकर (Tryambak Shankar Shejwalkar) जिन्होंने पानीपत युद्ध 1761 नाम की पुस्तक बड़े पुरुषार्थ और खोज करके लिखी है. वे लिखते हैं कि... नाना फड़नीस अपनी आत्मकथा में उल्लेख करते हैं कि "भाऊ अंत तक लड़ता रहा जबकि केवल 50 घुड़सवार सैनिक उसके पास में लड़ रहे थे. तत्पश्चात मैं (नाना फडणवीस) उसे छोड़कर पानीपत की ओर चल दिया. युद्ध का अंतिम समय था, उस समय दोपहर बाद 4 बजे थे. भाऊ का क्या बना यथार्थ में कोई नहीं जानता."

आधुनिक इतिहास के लेखक आशीर्वादी लाल तत्कालीन अध्यक्ष इतिहास-विभाग, आगरा कालेज, 'मुगल कालीन भारत' में लिखते हैं कि -"यह पानीपत का युद्ध पूर्ण रूप से निर्णायक सिद्ध हुआ. मराठा सेना तथा उसके नायकों का सर्वनाश हो गया था. मराठा शक्ति का इतना अधिक क्षय हो गया था कि 3 महीने तक तो पेशवा को हताहतों (घायलों) का वास्तविक ब्यौरा तथा भाऊ एवं दूसरे नेताओं की मृत्यु का समाचार मिल ही न सका."

श्री देवता स्वरूप भाई परमानंद 'तारीख महाराष्ट्र' में लिखते हैं कि- "राजकुमार विश्वासराव को एक गोली लगी, जिससे वह बुरी तरह से जख्मी हो गया था. विश्वास राव महाराष्ट्र में सबसे सुंदर माना जाता था. सदाशिवराव भाऊ उससे बहुत ही अधिक स्नेह करता था. उसी ने इसे युद्ध कौशल सिखाया था. विश्वास राव को गिरता हुआ देखकर भाऊ पर विद्युत (बिजली) सी गिर गई. उसका साहस टूट गया. उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी और अपनी स्त्री रानी पार्वती देवी को उसने कहा - "अब वह किस मुंह से पेशवाओं के सम्मुख जाएगा. रोते हुए और सिसकियाँ लेते हुए, उसने एक बार विश्वास! विश्वास ! पुकारा. मरते हुए राज कुमार विश्वास राव ने अपनी ऑंखें खोली और वीरों के समान उत्तर दिया -

"प्रिय चाचा ! अब मेरी अवस्था पर दुखी होने की क्या आवश्यकता है. मुझे भय है, जब आप यहां बैठकर ऐसे करेंगे तो युद्ध का परिणाम हमारे पक्ष में अच्छा नहीं होगा. सदाशिवराव भाऊ अपने सैनिकों को काटो-मारो शब्दों द्वारा उत्साहित करते करते-करते आगे बढ़ रहा था. बोलते-बोलते उसकी आवाज बैठ गई थी. वह विवश होकर अपने संकेतों से ही सैनिकों को उत्साहित करता हुआ मृत्यु के मुख में आगे बढ़ा. मुकुंद शिंदे ने उसके घोड़े की बाग पकड़ ली और कहा- " इस समय पीछे हट जाने में ही बुद्धिमता है." किंतु भाऊ नहीं माना. वह खड़ग (तलवार) हाथ में लिए, शत्रुओं के मध्य में घुस गया. उनके कथन के अनुसार लड़ता हुआ न मालूम किधर चला गया.

युद्ध के बाद की स्थिति का वर्णन करते हुए भाई परमानन्द जी आगे लिखते हैं कि- विश्वास राव का शव अब्दाली के पास लाया गया. कई पठान उसमें भूसा भरकर काबुल भेजना चाहते थे, किंतु शुजाऊद्दोला के एक हिंदू साथी ने ₹ 3 लाख देकर विश्वास राव, तुकाजी शिंदे, संताजी बाघ और जसवंत पुवाड़ के शव ले लिए और वैदिक रीति से जला दिए."

युद्ध के परिणाम से खिन्न पेशवा ने हिंदू राजाओं को पुनः संगठित होने के लिए पत्र लिखा. इस विषय में भाई परमानंद जी लिखते हैं कि पानीपत के युद्ध में पराजय होने पर सभी हिंदू राजाओं को उत्साहवर्धक पत्र लिखे. जिसमें यह लिखा था कि- "ऐसे समय में जबकि हिंदू धर्म और हिंदूओं को, हिंदू जाति के शत्रु इन्हें नष्ट करने के लिए अपनी शक्ति को संगठित कर रहे हैं. हिंदूओं को भी उचित नहीं है कि वह एक दूसरे से पृथक रहकर अपने सर्वनाश की रीति को धारण करें. उन सब को स्वतंत्रता-युद्ध में सम्मिलित होने के लिए आमंत्रित किया और उनको विश्वास दिलाया कि यद्यपि पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय हुई है जिसमें मेरा युवा पुत्र मारा गया और मेरे भाई (सदाशिव राव भाऊ) तथा जनको जी जैसे सेनापतियों का कुछ पता नहीं लगता. इतना होने पर भी मैं अब्दाली की इच्छाओं को पूर्ण न होने दूंगा. वह मुगलिया राज्य के खंडहरों पर अफगानी राज्य की आधारशिला रखने में सफल न हो सकेगा."

पानीपत युद्ध 1761 नामक पुस्तक का लेखक त्र्यंबक शंकर शेजवलकर (Tryambak Shankar Shejwalkar) सन् 1935 में इसी खोज में पानीपत तथा वहां के समीपस्थ गांव में घूमा. भाऊ की लड़ाई के गीत गाने वाले हिंदू और मुस्लिम जोगियों से भी मिला. उनसे भाऊ की लड़ाई की गाथा सुन लिखकर सन 1943 में पुणे दख्खन कालेज से प्रकाशित एक बुलेटिन में इसे प्रकाशित भी कराया. किंतु अपनी थोड़ी खोज के कारण वह इस सत्य पर विश्वास न कर सका कि सदाशिव राव भाऊ पानीपत युद्ध में मारा नहीं गया अपितु वह अनेक वर्षों तक जीवित रहा. ऐसा भी प्रतीत होता है कि उसे उसकी अपनी खोज में सहायतार्थ कोई योग्य सहायक भी नहीं मिला. दूसरी बात हमारे जोगी जो गाते हैं, वह कथा को पौराणिक रूप देकर उपन्यास का ढंग बना देते हैं. अतः उन लोगों द्वारा अतिशयोक्ति पूर्ण कथा को सुनकर आधुनिक इतिहास लेखक उन कथाओं पर विश्वास नहीं करता फिर 174 वर्ष बाद कोई किसी ऐतिहासिक सत्य की खोज के लिए किसी अपरिचित प्रांत में आए तो उसको कितनी कठिनाइयां इस कार्य में आएंगी, यह कोई इस प्रकार की खोज करने वाला व्यक्ति ही अनुमान कर सकता है. कुछ व्यर्थ बातें बनाने वाले गप्पी लोग भी भ्रम में डाल देते हैं. दो सदी पश्चात किसी बीती हुई घटना को बताने वाले व्यक्ति भी दुर्लभ होते हैं. थोड़े ही दिनों में ऐसी घटनाओं की खोज भी नहीं हो सकती. अन्वेषण का कार्य बहुत ही दुसाध्य है.

स्वामी ओमानंद जी सरस्वती (आचार्य भगवान देव गुरुकुल झज्जर) दिन-रात विचरने वाले वीतराग सन्यासी थे. उनकी इतिहास में गहरी रुचि थी. वे ऐसी ऐतिहासिक खोज के लिए यत्नशील रहते थे. अनेक वर्षों की खोज के बाद वे भी इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि सदाशिव राव भाऊ युद्ध में मारा नहीं गया अपितु जीवित रहा तथा उसने हरियाणा प्रांत में साधु बनकर जीवन व्यतीत किया. सांघी गांव के स्थान इसमें प्रमाण हैं.

मैं स्वयं तथा मेरे सहोदर अग्रज भ्राता इतिहासकार स्वर्गीय प्रताप सिंह शास्त्री जिन्होंने कई साहित्यिक व ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी हैं, हम दोनों सांघी गांव में ऐतिहासिक तथ्य जुटाने के लिए कुछ वर्ष पूर्व गए थे. जहां सदाशिव राव भाऊ साधु बनकर भी गुप्त रूप से स्वातंत्र्य गतिविधियों में संलग्न व संलिप्त रहा था. भाऊ का डेरा, बिदासा मेला, महलवाला आदि स्थान सांघी गांव में सदाशिव राव भाऊ के साधु रूप में रहने की पुष्टि कर रहे हैं.

सदाशिव राव भाऊ ब्राह्मण जाति से था. उसने अपनी स्नेहिल गतिविधियों से लोगों के दिलों में जगह बना ली थी. हुड्डा खाप व आसपास के गांव के लोग इसके कथन को तपधारी बाबा समझकर शिरोधार्य करते थे. इस बात का प्रमाण है कि जब मल्हार सैनिक अधिकारी जबरन टैक्स उगाही के लिए यहां आया तो भाऊ साधु के निर्देश पर सांघी गांव से 1 किलोमीटर दूर घोर नामक स्थान पर टैक्स न देकर लोगों ने उससे युद्ध किया था. युद्ध की रणनीति साधु भाऊ के द्वारा ही बनाई गई थी. इससे प्रमाणित होता है कि कोई सेनापति ही युद्ध करने की नीति को अंजाम दे सकता है. निश्चय ही साधु वेष धारी वह सदाशिव राव भाऊ था. इतना ही नहीं उन्होंने साधु के कर्तव्य को निभाते हुए सुख, शांति, समृद्धि तथा बंधुत्व की भावना को चिरस्थाई बनाने के लिए एक मेले की योजना भी बनाई और वार्षिक मेला प्रारंभ किया. मेले का नाम बिदासा मेला था. बिदासा शब्द बादशाह शब्द का अपभ्रंश (बिगड़ा हुआ रूप) है. यह इसलिए बनाया गया ताकि मुसलमान अथवा अंग्रेज, बादशाह सदाशिव राव भाऊ को पहचान न सके. आज भी लोग इस मेले को दादा बिदासा मेला कहकर पुकारते हैं.

जाटों में प्रथा है कि जाट सम्मान के रूप में ब्राह्मण को हमेशा दादा कहकर ही पुकारते हैं. इस मेले में बड़े स्तर पर कुश्तियां, कबड्डी आदि खेलों का आयोजन होता था. कुश्ती देखने के लिए लोग दूर-दूर से आते थे. सदाशिव राव भाऊ साधु (फकीर) के रूप में वहां बैठते थे और लोग उन्हें मराठा शासक न समझकर यही मानते थे कि यह कोई उच्च कोटि का त्यागी, तपस्वी, पहुंचा हुआ महान संत है. लोगों ने समझ रखा था कि ऐसे बाबा जी के आशीर्वाद से मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं. बिदासा मेले की तथा साधु की ख्याति इस क्षेत्र के अतिरिक्त भी दूर-दूर तक फैल चुकी थी. तब से लेकर आज तक हर वर्ष यह मेला उसी प्रकार बड़े हर्षोल्लास के साथ मनाया जाता है. कार्यक्रमों में समय अनुसार परिवर्तन होता जाता है. अब तो इस मेले के साथ सदाशिवराव भाऊ का नाम भी जुड़ गया है और लोग इसे भाऊ का मेला कहते हैं. भाऊ ने साधु रहते यहां के डेरे के विकास के लिए धन दिया था. इस ऐतिहासिक तथ्य को जानकर पंजाब प्रदेश के भूतपूर्व राज्यपाल एन.वी. गाडगिल भी अपने कार्यकाल के दौरान यहां सांघी गांव में पधारे थे. उन्होंने भाऊ के डेरे को सम्यक्तया (अच्छी प्रकार से) देखा तथा प्रसन्नतापूर्वक स्वैच्छिक कोष से डेरे के लिए कुछ आर्थिक अनुदान भी प्रदान किया था. चौधरी भूपेंद्र सिंह हुड्डा भूतपूर्व मुख्यमंत्री ने भी यथाशक्ति डेरे को स्वैच्छिक कोष के अनुदान से खींचा है.

जोगियों की कथा के आधार पर श्री त्र्यंबक शंकर शेजलाल्कर 'पानीपत युद्ध सन् 1761' में इस प्रकार लिखते हैं कि - "पानीपत के आसपास गांवों में घुमक्कड़ हिंदू और मुस्लिम जोगी आज भी भाऊ के विषय में गाथा गाते हैं. यह इसका जीता जागता प्रमाण है कि इस युद्ध का प्रभाव विचित्र रूप से जनमानस पर पड़ा और जो था भी स्वाभाविक. इसी के परिणाम स्वरुप अनेक गाथाएं व किंवदंतियाँ इस युद्ध और भाऊ के विषय में बनी जो पुणे दक्कन कालेज अनुसंधान संस्था की ओर से बुलेटिन में प्रकाशित हुई. उनमें यह नहीं लिखा कि पानीपत युद्ध में भाऊ की मृत्यु हुई, किंतु स्पष्टरूपेण यह लिखा है कि वह भाऊपुर गांव में चला गया, जो पानीपत से दक्षिण पश्चिम में 12 मील की दूरी पर स्थित है. वहां वह बहुत समय तक एक फकीर (साधु) के पास रहा. उसने अपने आप को प्रकट नहीं किया. उसने पूर्णतया अपने आप को छुपाकर रखा तथा अपने नाम, स्थान आदि का परिचय नहीं दिया. तत्पश्चात वह यमुनापार कैराना (जिला मुजफ्फरनगर) में गया. कुछ वर्ष बाद वह कहां गया, कहां रहा इस विषय में पानीपत के निकट निवासियों से कोई पता नहीं चलता. उसके आगे भाऊ के जीवन के बारे में वहां के लोग कोई परिचय नहीं देते."

सदाशिव राव भाऊ पानीपत के युद्ध में नहीं मारा गया था और पीछे बहुत काल तक जीवित रहा, यह विश्वास प्राय सारे ही भारतवर्ष की जनता में फैल गया था. भाऊ के जीवित रहने का प्रचार और प्रसार परंपरागत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक चलता रहा. हमारा विचार है कि भाऊ की कथा करने वालों ने यह प्रचार कर दिया कि भाऊपुर गांव, जिसमें भाऊ बहुत दिन तक रहा, भाऊ के कारण ही इसका नाम भाऊपुर पड़ गया. लेकिन कटु सत्य तो यह है कि यह गाँव भाव सिंह उर्फ़ भाऊ सिंह नामक किसी अन्य व्यक्ति के नाम से बसा है. इसका संबंध मराठा सेनापति भाऊ के नाम के गाने वालों वालों ने प्रसिद्ध कर दिया, जबकि इस गाँव का अस्तित्व तो पहले से ही था. पानीपत के निकट रहना तथा खतरे को आमंत्रण देना जैसी गलती भाऊ जैसा सेनापति नहीं कर सकता.

'पानीपत युद्ध 1761' के लेखक त्र्यम्बक शंकर को जोगियों द्वारा गाए जाने वाली कथा काल्पनिक, पौराणिक कथा के समान दिखाई दी. क्योंकि उसे इसको सत्य मानने के लिए पूर्ण सामग्री नहीं मिली. वह कथा मेरे सम्मुख नहीं जो दक्कन कॉलेज पुणे की संस्था ने प्रकाशित की है. अतः इस विषय में मैं कुछ नहीं कह सकता. मुझे तो केवल यह दिखाना था कि सारे भारतवर्ष में यह समाचार फैल गया था कि सदाशिव राव भाऊ युद्ध में मारा नहीं गया अपितु वह जीवित था. स्वयं पेशवा भी कई मास पश्चात राजाओं को अपने पत्र में लिखते हैं कि "मेरे भाई सदाशिवराव भाऊ का पता नहीं, वह कहां गया.

सांघी गांव में भाऊ का आगमन

सांघी गांव, जिला रोहतक, हरयाणा

पानीपत के युद्ध में विश्वास राव आदि का शव तो मिल गया तथा कई अन्य मराठा सरदारों के शव भी मिल गए किंतु भाऊ का शव नहीं मिला. यद्यपि बात यह है कि जब विश्वास राव मारा गया और सदाशिव राव भाऊ अपने हाथी से उतरकर घोड़े पर चढ़कर पागलों के समान लडने लगा. उसी समय इसी की सेना में से 2000 व 5000 मुस्लिम सैनिकों ने धोखा देकर उल्टा इसी के शिविर में स्त्री, बालकों और भृत्यों (सेवकों) पर जो अनुमानत: डेढ़ लाख से भी अधिक थे, आक्रमण कर दिया. इससे युद्ध का पासा पलट गया. मराठा सेना में भगदड़ मच गई. अपने सभी बालकों को बचाने की भी चिंता सर पर सवार हुई. स्वयं भाऊ और विश्वास राव की धर्मपत्नी भी वहीँ थी. उनकी सुरक्षा का प्रबंध जो भी हो सकता था, उसे करके सर्व खाप मल्लसेना के पहलवानों को सौंपकर भाऊ अंतिम निर्णय के लिए आगे बढ़ा. उस समय जब यह एक प्रकार से अंधा होकर मुसलमानों की सेना में मारकाट करता हुआ अंदर घुस रहा था तो तत्काल मुकुंद शिंदे ने इसके घोड़े की लगाम पकड़कर रोकना चाहा और कहा - "इस समय पीछे हट जाने में ही बुद्धिमता है किंतु वह नहीं माना. जब इसके सभी सरदार मारे गए और केवल 50 सैनिक ही रह गए तब नाना फडणवीस, माधव सिंधिया आदि प्राण बचाने के लिए भाग गए. इब्राहिम गार्दी का तोपखाना भी ठंडा हो गया तथा गार्दी स्वयं घायल होकर बंदी बना लिया गया. भाऊ का शिविर लुट गया तब इसका विचार बदला और इसने बच निकलने में ही भलाई समझी. यह लड़ता-लड़ता 15 कोस दक्षिण-पश्चिम की ओर चला गया. इसके बाद इतिहासकारों को कुछ पता नहीं. वे बिना खोज किए मनमाने ढंग से लिखते रहे. किसी ने लिख दिया वह मारा गया, किसी ने यह लिखा कि वह लुप्त हो गया.

यह कटु सत्य तथा शोध पूर्ण ऐतिहासिक तथ्य है कि सदाशिव राव भाऊ जब लड़ता-लड़ता 15 कोस से भी आगे निकल गया और लड़ने वाले शत्रु भी पीछे रह गए तब वह अपने घोड़े पर शस्त्र आदि से सुसज्जित सांघी (रोहतक) ग्राम में पहुंच गया. वहां एक बुढ़िया जो उस गांव की सीमा पर मिली, से उस गांव के विषय में तथा अपने ठहरने के लिए गांव के प्रभावशाली चौधरियों के नाम पूछ कर व अपने घोड़े को जंगल में ही छोड़कर चौधरी सुखदेव साध जो उस समय अपने गांव सांघी में ही नहीं अपितु आस-पास के गांवों में प्रतिष्ठित और पंचायती चौधरी था, उसके पास चला गया. भाऊ ने उसे एकांत में ही बातचीत कर, किसी को अपने विषय में न बताने की शपथ दिलाकर, अपना सब रहस्य सुखदेव जी साध को बता दिया. चौधरी सुखदेव साध हुड्डा गोत्री जाट थे. उन्हें साध इसलिए कहा जाता था कि वह सिद्ध, सधे हुए, सज्जन महापुरुष थे. साधुओं की तरह ही उनका जीवन यापन था. वह बड़े पंचायती, न्यायप्रिय, चतुर व्यक्ति थे. उन्होंने बहुत समय तक किसी को इसका पता नहीं चलने दिया कि वह कौन व्यक्ति है.

सांघी गांव के प्रसिद्ध शिक्षाविद्, साहित्यकार श्री जगत सिंह हुड्डाश्री भलेराम आर्य के मंतव्य अनुसार प्रारंभ में सदाशिव राव भाऊ पंचायती चौपाल (जो जोधा पाना में स्थित है) में ठहरा था. भिक्षाटन से भाऊ का गुजर-बसर होने लगा. कुछ काल ही व्यतीत हुआ था कि एक औरत, जिसका नाम ज्ञात नहीं, ने ताना दिया कि भगवान ने इतना सुंदर, तगड़ा शरीर दिया है, मांगकर खाने में लज्जा नहीं आती. इस व्यंग से व्यथित, पीड़ित भाऊ ने चौधरी सुखदेव साध की सहमति से पेहवा में स्थित नाथपंथ के श्रावणनाथ डेरे में जाकर अपने काषाय (गेरुआ वस्त्र) रंगकर साधु वेश धारण कर लिया. पुनः गाँव सांघी में आकर साधुवेशधारी भाऊ ने गांव को चौपाल में एकत्रित कर कहा कि- "मुझे गांव से बाहर रहने के लिए स्थान दे दिया जाए. मैं यहां एक डेरा स्थापित करना चाहता हूं. गांव के जाने-माने चौधरियों ने स्वीकृति दे दी.

गांव सांघी में भाऊ द्वारा डेरा की स्थापना

17 फरवरी 1763 ई. की बात है कि भाऊ द्वारा डेरा स्थापित किए जाने वाले इस अभियान में चौधरी सुखदेव साध, चौधरी शोभा चंद जी (डाल्याण पाना), बुड्ढण जी वैद्य (बोड्याण पाना), बल्ला जी सोनी, चौधरी पीरु सिंह जी व लाधिया चौधरी के वंशज अग्रणी थे. डेरा स्थापित करने के लिए चौधरी सुखदेव जी साध ने शुरू में पहल करते हुए 3 बीघा जमीन तथा 10 बीघा जमीन बाद में दान स्वरूप दी थी. लाधिया चौधरी के वंशजों ने 60 बीघा जमीन तथा चौधरी पीरु सिंह ने 22 बीघा जमीन डेरे के निर्माण हेतु दान कर भाऊ को आश्वस्त कर दिया. गांव के विख्यात साहित्यकार जगत सिंह हुड्डा भी हमारे इस कथन से पूर्णतया सहमत हैं.

साधुवेशधारी भाऊ का अच्छा आदर सत्कार होने लगा. भोजन-छादन की सब सुविधाएं साधुवेश होने से मिलने लगी. उसकी देख-रेख, खान-पान, वस्त्र प्रक्षालन आदि की व्यवस्था के लिए चलती देवी तेलन (डाल्याण पाना) की ड्यूटी (कर्तव्य परायणता) लगा दी गई. गांव से बाहर दक्षिण दिशा में साढ़े 18 एकड़ भूमि में डेरे का भू-भाग निश्चित कर दिया गया, जो आज भव्य रूप में तथा विशाल आकार में शोभायमान है. यह सब भूमि राजस्व रिकार्ड पर आधारित है.

चौधरी सुखदेव साध की प्रेरणा से साधु भाऊ को भोजन के लिए विशेष निमंत्रण भी मिलने लगे. जनता में अच्छा आदर-मान बढ़ चला. भाऊ आस-पास के गांवों में भी भ्रमण के लिए जाने लगे. लेकिन मुख्य निवास स्थान गांव सांघी में ही रखा. चौधरी सुखदेव साध को अपने गुरु के समान मानकर आदर करते थे. उनके रहने के स्थान पर गांव वालों ने यथासामर्थ्य दान देकर डेरे का निर्माण करा दिया. डेरे को लाधी वाला भी बोलते हैं. समय के चलते डेरे की इतनी मान्यता व महत्ता बढ़ गई कि दूरदराज के क्षेत्र से भी जनता जनार्दन आने लगी. भाऊ का प्रभाव जनता पर इस कदर पड़ने लगा कि उसका आदेश एक आदर्श बन गया.

किंवदंती है कि उधर जो अपना घोड़ा सदाशिवराव भाऊ ने जंगल में छोड़ा था, वह घोड़ा मनसा नामक व्यक्ति गांव सांघी वाले को जसियासांघी गाँव की सटती सीमा पर बीरबल वाले तालाब के पास मिला. मनसा पिता द्वारा नालायक समझकर बेदखल किया गया था. मनसा को घोड़े पर लदी अशर्फियां व मोहरें आदि बहुतसा धन प्राप्त हो गया. जिस दिन से उसने दस हजार बीघे जमीन (मारुसी जमीन) ग्राम ब्राह्मणवास, जसिया, घिलोड़ खुर्द, घिलोड़ कलांं की खरीद ली थी. जिसके क्रियाफल स्वरुप गांव सांघी में मनसा के नाम पर मनसा टोला नाम चल पड़ा. पिता के द्वारा ठुकराए व बेदखल किए गए पुत्र ने "सर्वेगुणा कांचनमास्रयन्ति" अर्थात सभी गुण सोने (धन) के अधीन होते हैं, चरितार्थ कर दिखाया. यह किंवदंती इतिहास का सुदृढ़ आधार है. उस वक्त इतनी जमीन खरीदा जाना एक साधारण व्यक्ति के बलबूते की बात नहीं हो सकती. उस धन से ही जमीन खरीदी गई थी. यह हर गांव-वासी तथा आसपास के क्षेत्रीय लोगों की जुबान पर है.

हुड्डा खाप का होल्कर के साथ युद्ध

हुड्डा खाप द्वारा किया गया युद्ध तथा टैक्स न दिया जाना: ऐतिहासिक चर्चा को आगे बढ़ाते हुए लिखा जाता है कि कुछ काल के पश्चात मल्हार राव होल्कर हरियाणा से चौथ (टैक्स) लेने के लिए सेना सहित आया. स्मरण रहे कि पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के कारण मराठों का प्रभाव इस प्रांत में समाप्त हो गया था, अतः किसी भी गांव में सहर्ष बिना युद्ध किए चौथ का धन नहीं दिया. बड़ी कठिनाई सामने आई. होल्कर ने लोगों से पूछा कि चौथ का धन कैसे इकट्ठा किया जाए? सभी स्थानों से यही उत्तर मिला कि यदि गांव सांघी, हुड्डा खाप चौथ दे देवे तो सारा प्रांत दे देगा. होल्कर अपनी सेना सहित सांघी गांव में पहुंच गया. वहां के दश नम्बरदारों को टैक्स देने के लिए बुलाया. किंतु सभी ने विचार विनिमय करके स्पष्ट निषेध कर दिया. होल्कर को चौथ की प्राप्ति नहीं हुई. अंत में उसने जबर्दस्ती टैक्स की वसूली करनी चाही. युद्ध का ऐलान हो गया. सारे प्रांत के योद्धा हुड्डा खाप की अगुवाई में वहीं सांघी गांव में एकत्रित हो गए. 6 मास तक होल्कर के साथ युद्ध होता रहा. अंत में किसी गुप्तचर ने होलकर को यह सूचना दी कि सदाशिव राव भाऊ जीवित है और इसी गांव में रहता है. उसी के दिशा निर्देश पर रणनीति के तहत युद्ध का संचालन हो रहा है तथा वही चौथ नहीं देने देता है. होल्कर अकेला ही सदाशिव राव भाऊ (जो साधु वेश में डेरे पर था) से मिलने गया. दोनों ने एक दूसरे को पहचान भी लिया किंतु परस्पर इस भेद को छुपाए रहे.

भाऊनाथ की समाधि, सांघी, रोहतक, हरयाणा

उपरोक्त तथ्य के बारे में साक्षात्कार स्वरूप साहित्यकार श्री जगत सिंह जी हुड्डा (जो हरियाणा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत हैं एवं अन्य सामाजिक संस्थाओं से राष्ट्रीय अवार्ड प्राप्त हैं) ने मुझे बताया कि होल्कर के साथ यह युद्ध सन् 1792 ई. में हुआ था तथा इस युद्ध में हुड्डा खाप की विजय हुई थी. युद्ध समाप्ति पर होल्कर को पकड़कर भाऊ के समक्ष ले जाया गया था. जहां परस्पर मिलने पर दोनों ने एक दूसरे को पहचान लिया था. होल्कर ने ही भाऊ का सारा भेद लोगों को बता दिया था. भेद खुल जाने से व्यथित अपने शासकीय जीवन की पूर्व घटनाओं के अदूरदर्शितापूर्ण उठाए गए कदमों पर पश्चाताप के आंसू बहाते हुए सन् 1792 ई. में 31 वर्ष बाद भाऊ ने अपनी इहलीला समाप्त कर ली थी अर्थात समाधि ले ली थी. आज भी गांव में भाऊनाथ की समाधि बनी हुई है. जिस पर लोग श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं.

स्मरण रहे कि 3 अगस्त 1730 को चितपावन ब्राह्मण वंश में भाऊ का जन्म हुआ था. इनकी माता का नाम रखमबाई तथा पिता का नाम जिम्माजी अप्पा व गांव सासवाट था. यह 14 जनवरी 1761 ई. को पानीपत के युद्ध से पलायन करके, सफर करते हुए 22 जनवरी 1761 को पहले गांव मोई हुड्डा होते हुए वीरवार के दिन गांव सांघी में आए थे. उन्होंने लोगों के सहयोग से 17 फरवरी 1763 में सांघी गांव में डेरा स्थापित किया था. इनकी रानी धर्मपत्नी पार्वतीबाई को मालूम हुआ कि उसका पति सदाशिवराव भाऊ साधु बन गया है तो दुखी मन से उसने 23 सितंबर 1763 ई. को अपनी जीवन लीला समाप्त कर ली. किंवदंती यह भी है कि उसने भी समाधि ले ली अथवा वह सती हो गई. आज भी शोध का विषय है.

भाऊ के निर्देश पर हुड्डा खाप ने युद्ध लड़ा

यह कटु सत्य है की सदाशिव राव भाऊ ने (जो साधुवेश में था) होल्कर के साथ हुए युद्ध में सर्व खाप पंचायती सेना का डेरे में बैठे-बैठे निर्देश देते हुए नेतृत्व किया था. इतना ही नहीं उसने सर्व खाप को अनुशासन में रखते हुए 6 महीने तक युद्ध को चालू रखा था. जब भाऊ ने हरियाणा की सेना को अनुशासन में रखकर लड़ाया, तब लोग समझ गए थे कि यह तो साधु वेश में कोई राजा अथवा सेनापति हो सकता है. गुप्तचरों से भेद खुला कि यह तो साधुवेश में प्रसिद्ध मराठा वीर सदाशिव राव भाऊ पानीपत युद्ध का सेनापति है. होल्कर ने अंत में संधि करके बिना कुछ लिए मुस्लिम गांव कलानौर और इस्माइला जो उस समय रांघड़ों और बलोचों की बस्ती थी, इन दोनों गांवों को आक्रमण कर तोड़ डाला. अच्छी लूट-खसोट कर इस प्रांत से लौट गया. मुस्लिम गावों को तोड़ने में हरियाणा के लोगों ने विशेषता जाटों ने भी होल्कर की सहायता की थी. होल्कर तो चला गया लेकिन भाऊ साधु वेश में यहीं सांघी गाँव में ही रहा.

अब प्रश्न उठता है कि यह होल्कर, भाऊ का सिपहसालार वही इंदौर का राजा था अथवा अन्य जॉर्ज टॉमस का कोई सैनिक अधिकारी था? यदि सांघी गांव में गठित युद्ध सन 1763 ई. में हुआ मानें तो वही इंदौर का राजा हो सकता है लेकिन सन 1763 में तो भाऊ ने डेरा स्थापित किया था. वह यत्र-तत्र घुमा फिरा भी है और वह सन 1792 ई. में स्वर्गवासी हुआ है. इंदौर का राजा होल्कर तो सन 1766 में भाऊ से पूर्व ही मृत्यु को प्राप्त हो गया था. नाम दोनों का एक ही है अतः होल्कर के बारे में भ्रम की स्थिति उत्पन्न हुई है. हमारे मतानुसार यह होल्कर जार्ज का भेजा हुआ अन्य है तथा गांव का यह युद्ध सन 1792 ई. में हुआ प्रतीत होता है. रही बात भाऊ को पहचाने जाने की, संभव है किसी सेनानी ने लोगों से सुनी धारणा को ही सत्य मान होल्कर को बता दिया हो. हमारा मत जगत सिंह हुड्डा से मेल खाता है.

प्रसिद्ध आर्य समाजी नेता व इतिहासकार स्वामी ओमानंद जी सरस्वती का कथन है कि सदाशिव राव भाऊ नाथ संप्रदाय में सम्मिलित हो गया. बाबा मस्तनाथ, जो बोहर के नाथों के मठ के संस्थापक थे. उन दिनों घूमते हुए कथूरा गांव से अपनी मंडली सहित सांघी गांव में पहुंचे थे. भाऊ उनसे प्रभावित हुआ और उनका शिष्य बन गया. वे उसे साथ ले गए और उसे दर्शन अर्थात कान फाड़कर मुद्रा में पहना दी तथा उसे अपना शिष्य बना कर नाथ संप्रदाय में सम्मिलित कर लिया और भौमनाथ नाम रख दिया. इसी नाम से वह हरियाणा प्रांत में प्रसिद्ध हो गए और उन्होंने अच्छा यश प्राप्त किया.

स्वामी ओमानंद जी के उपरोक्त मत से मैं सहमत नहीं हूं क्योंकि नाथ संप्रदाय में 12 पंथ होते हैं. गुरु नरमाईनाथ के शिष्य बाबा मस्तनाथ आई पंथ से संबंध रखते हैं, जबकि भाऊ सत्यनाथ पंथी थे. भाऊ किसी महिला के व्यंग से व्यथित होकर पेहवा गए और श्रमणनाथ धाम के बाबा गरीबनाथ से दीक्षा ली थी. वह वहां अनुमानत: डेढ वर्ष रहकर पुन: गांव सांघी में आकर भाऊनाथ के नाम से विख्यात साधु हुए थे. हां, यह कथन स्वामी जी का सत्य है कि बाबा मस्तनाथ जी गांव सांघी में पधारे थे. भाऊ उनके विचार सुनकर प्रभावित हुए थे लेकिन तब तक वे दीक्षित हो चले थे. नाम रखा जाना काल के झरोखों में अपभ्रंश हो सकता है. भाऊनाथ कहे, भौमनाथ कहें, अथवा भवानाथ कहें. सत्यनाथ पंथ सामाजिक दृष्टि से नाथों की दुनिया में ऊंचा दर्जा रखता है. आज जब भी बोहर मठ में कोई प्रोग्राम होता है अथवा किसी बाबा के चोला छोड़ने पर नाथ संप्रदाय के बाबा एकत्रित होते हैं तो सत्यनाथ पंथी सांघी के बाबा को उच्च आसन पर बैठाते हैं तथा बड़ा समझकर दक्षिणा देते हैं. बाबा मस्तनाथ जी यद्यपि भाऊ से अधिक त्यागी, तपस्वी, पहुंचे हुए संत थे लेकिन उनके गुरु नहीं थे. यदि ऐसा होता तो अस्थल बोहर के इतिहास में कहीं न कहीं जिक्र अवश्य होता. स्वामी ओमानंद जी ने किंवदंती आधार पर ही ऐसा लिखा है. भाऊ के चोला छोड़ने पर पेहवा से सत्यनाथ बाबाओं की उस समय गांव सांघी में उपस्थिति भी इसका प्रमाण है.

"सर्वखाप पंचायत का राष्ट्रीय पराक्रम " पुस्तक में पृष्ठ 297 पर निहाल सिंह आर्य लिखते हैं कि पानीपत के युद्ध में हारकर भाऊ ने साधु बनकर भवानीराम नाम रखा और पहले 11 वर्ष तक तो रोहतक के पास गाँव सांघी में चौधरी सभाचंद के पास रहे. फिर हरिद्वार में अपने हवेली बनाई जो अब भी है और उनके 2 नाम श्रवणनाथ और भवानंद पुकारे गए थे. वे तीर्थ स्थानों तथा मेलों, उत्सवों में प्रसिद्ध क्षत्रिय कुलों, वीर पुरुषों तथा नेताओं से मिलते रहे. इस्सोपुर के टीले पर आकर संत देवानंद (पंडित कानाराम का सन्यस्त नाम) से भी मिलते रहते थे. हरियाणा के कई वृद्ध पुरुषों ने उन्हें देखा था. भाऊ ने 32 वर्ष तक शेष सारा जीवन इस्सोपुर के टीले पर ईश्वर भक्ति, उपदेश तथा यज्ञ में ही लगाया. इन्होंने 119 वर्ष की आयु में शरीर छोड़ा था. दाह संस्कार में 4500 पुरुष स्त्रियों ने शामिल होकर कई मण घी सामग्री लगाई थी. भाऊ की विचारहीनता एवं अहंकार के कारण ही महाराजा सूरजमल को इस युद्ध में तटस्थ रहना पड़ा. यदि ऐसे अप्रतिम योद्धा की नीति मानकर इनके नेतृत्व में संगठित होकर देश के सारे राजा सरदार लड़ते तो अब्दाली बचकर नहीं जा सकता था और भारत माता को यह दुर्दिन नहीं देखने पड़ते.

सन् 1792 में सांघी गांव में हुए इस युद्ध में विजय वैजयंती का श्रेय जहां हुड्डा खाप व सर्वखाप पंचायती योद्धाओं को जाता है वहीं रणनीति वीर भाऊ को भी जाता है. साधु भाऊ के निर्देश पर गांव के चारों तरफ खाई खोदी गई थी. खाद्य सामग्री पर्याप्त मात्रा में जुटाई गयी थी. चार प्रकार की रंग-बिरंगी वेशभूषा लड़ाकू योद्धाओं के लिए सिलवाई गई थी. गांव की चारों दिशाओं में चार द्वार बनाए गए थे, जिन पर सर्वखाप योद्धाओं को तैनात किया गया था. जिस भी द्वार से शत्रु पक्ष ने आक्रमण किया तो मुंह की खानी पड़ी. योद्धाओं की अलग-अलग वेशभूषा से शत्रु को ऐसा प्रतीत हुआ कि यहां तो बहुसंख्यक योद्धा है, जिन्हें जीत पाना असंभव है. हुआ भी यही, होल्कर को संधि करनी पड़ी तथा बिना टैक्स लिए ही वापस लौटना पड़ा.

उपरोक्त रणनीति सदाशिव राव भाऊ के दिमाग की उपज थी. अतः भाऊ का यहां साधु बनकर रहना भारतीय इतिहास का एक अद्भुत रहस्य है. 14 फरवरी सन 1962 में पंजाब के भूतपूर्व राज्यपाल श्री नरहरि विष्णु गाडगिल (जो महाराष्ट्र से थे तथा भाऊ के वंशज थे) का गांव सांघी में आगमन भी भाऊ के प्रति अपनत्व को दर्शाता है. उनका भी यही मानना था कि भाऊ की समाधि गांव सांघी में है, जो साधु बन कर रहे. उन्होंने अपने बच्चों का मुंडन भी भाऊ के डेरे में आकर करवाया था. वहां से आज तक भाऊ के वंशज भी उनकी समाधि पर शीश नवाने आते हैं. सदाशिव राव भाऊ द्वारा लिखित पत्र और और उनके जूतों की प्रतिकृति गुरुकुल झज्जर के संग्रहालय में आज भी देखी जा सकती हैं. समाधि लेने से पूर्व भाऊ महाराजा सूरजमल के द्वारा दिए गए सुझाव को याद करते हुए फफक-फफक कर रोये थे. यह भारतीय इतिहास का एक विलुप्त रहस्य है जो हमें जाट होने का गौरव प्रदान करता है.

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सांघी गाँव में सदाशिव राव भाऊ की समाधी

Photos snapped and uploaded by - Dayanand Deswal (talk) 15:57, 8 November 2021 (UTC)

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