Kumbhalgarh

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Location of Kumbhalgarh in Rajsamand District

Kumbhalgarh (कुम्भलगढ़) is a tahsil town in Rajsamand district in Rajasthan. The fort was built during the course of the 15th century by Rana Kumbha, and enlarged through the 19th century, Kumbhalgarh is also famous as birthplace of Maharana Pratap.

Variants

  • Kumbhalgarh (कुंभलगढ़) (जिला राजसमन्द, राज.) (p.198)
  • Kamalmir (कमलमीर) = Kamalmer (कमलमेर) (जिला राजसमन्द, राज.) (AS, p.137)

Villages in Kumbhalgarh tahsil

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History

Kumbalgarh is situated 82 km from Udaipur in northwest. It is the most important fort in Mewar after Chittaurgarh. There are over 360 temples within the fort, 300 ancient Jain and the rest Hindu. Kumbhalgarh in its present form was developed by, and said to be personally designed by Rana Kumbha. Rana Kumbha's kingdom of Mewar stretched from Ranthambore to Gwalior and included large tracts of erstwhile Madhya Pradesh as well as Rajasthan. Out of the 84 forts in his dominion, Rana Kumbha is said to have designed 32 of them, of which Kumbhalgarh is the largest and most elaborate.

Jahajpur and Kumbhalgarh areas were ruled by Mauryas. Samprati Maurya, grandson of Ashoka, was ruler of Rajasthan . Samprati constructed many forts in Rajasthan. Famous fort is that of Kumbhalgarh. On ruins of this fort Maharana Kumbha constructed present historical fort. Samprati constructed a fort in Jahajpur also. Samprati Maurya was a follower of Jainism. There are ruins of ancient Jaina temples in Jahajpur. [1][2]

Many branches of Mauryas ruled in Rajasthan. Mauryas defeated Yaudheyas in Shekhawati region who moved to northern parts of Bikaner such as Sindharani, Maroth etc, where they lived for a long period. The Maurya samantas of Prithviraja were Bhima Maurya, Saran Maurya, Madalrai Maurya and Mukundrai Maurya. (Devi Singh Mandawa, Prithviraja, p.137)

कुम्भलगढ़

विजयेन्द्र कुमार माथुर[3] ने लेख किया है ...कुंभलगढ़ (p.198) जिला राजसमन्द, राजस्थान. प्राचीन नगर के खंडहर कुंभलगढ़ स्टेशन के समीप 3568 फुट ऊँची पहाड़ी पर स्थित हैं. इसे मेवाड़पति राणा कुंभा (1433-1468 ई.) ने बसाया था और उनके नाम से ही यह यह नगर प्रसिद्ध हुआ. बालक उदय सिंह को, जिसके प्राणों की रक्षा पन्ना धाई ने अपने पुत्र का बलिदान देकर की थी, चित्तौड़ से यहां लाया गया था. यहीं से चंडावत सरदारों की सहायता से उदय सिंह ने हत्यारे बनवीर को हराया था और उन्हें चित्तौड़ की गद्दी पुन: प्राप्त हुई थी. जिस समय चित्तौड़ पर अकबर ने आक्रमण किया (1567 ई.) तो उदय सिंह को भागकर पुन: कुंभलमेर में शरण लेनी पड़ी. 1571 ई. तक उन्होंने अपनी राजधानी यही रखी. (देखें ओझा राजपूताने का इतिहास, पृ.733) हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात राणा प्रताप ने भी अपनी राजधानी कुछ समय तक यहीं रखी थी किंतु राजा मान सिंह के कुंभलगढ़ पर आक्रमण करने के पश्चात प्रताप को यहां से भी चला जाना पड़ा था. कुंभलगढ़ को कमलमीर भी कहा जाता है. (दे. कमलमीर)

कमलमीर - कमलमेर

विजयेन्द्र कुमार माथुर[4] ने लेख किया है ...कमलमीर अथवा कमलमेर (AS, p.137) उदयपुर के निकट 3568 फुट ऊँची पहाड़ी पर बसा हुआ एक ऐतिहासिक स्थान है। कमलमीर में मेवाड़पति महाराणा प्रताप ने हल्दीघाटी के युद्ध के पश्चात् अपनी राजधानी बनाई थी। चित्तौड़गढ़ के विध्वंस (1567 ई.) के पश्चात् इनके पिता उदयसिंह ने उदयपुर को अपनी राजधानी बनाया था किंतु प्रताप ने कमलमेर में रहना ही ठीक समझा क्योंकि यह स्थान पहाड़ों से घिरा होने के कारण अधिक सुरक्षित था।

कमलमेर की स्थिति को उन्होंने और भी अधिक सुरक्षित करने के लिए पहाड़ी पर कई दुर्ग बनवाए। अकबर के प्रधान सेनापति आमेर नरेश मानसिंह और प्रताप की प्रसिद्ध भेंट यहीं हुई थी जिसके बाद मानसिंह रुष्ट होकर चला गया था और मुग़ल सेना ने मेवाड़ पर चढ़ाई की थी।

कमलमेर का प्राचीन नाम कुंभलगढ़ था।

कुम्भलगढ़ दुर्ग

कुम्भलगढ़ दुर्ग राजसमन्द ज़िला, उदयपुर की केलवाड़ा तहसील में स्थित है। यह उदयपुर के उत्‍तर-पश्‍चिम में लगभग 80 कि.मी. दूर अरावली पर्वत शृंखला के बीच स्‍थित है। सामरिक महत्त्व के कारण इसे राजस्थान के द्वितीय महत्त्वपूर्ण क़िले का स्‍थान दिया जाता है। इसके निर्माण का श्रेय महाराणा कुम्भा को जाता है, जिन्‍होंने 1443 से 1458 के बीच प्रसिद्ध वास्‍तुकार मंडन के पर्यवेक्षण में इसका निर्माण करवाया। ऐसा विश्‍वास किया जाता है कि इस क़िले का निर्माण प्राचीन महल के स्‍थल पर ही करवाया गया था, जो ईसा पूर्व दूसरी शताब्‍दी के जैन राजकुमार 'सम्प्रति' से संबद्ध था।

निर्माण: कुम्भलगढ़ राजस्थान ही नहीं, अपितु भारत के सभी दुर्गों में विशिष्ट स्थान रखता है। उदयपुर से 70 कि.मी दूर समुद्र तल से 1087 मीटर ऊँचा और 30 कि.मी. व्यास में फैला यह दुर्ग मेवाड़ के महाराणा कुम्भा की सूझबूझ व प्रतिभा का अनुपम स्मारक है। इस दुर्ग का निर्माण सम्राट अशोक के दुसरे पुत्र सम्प्रति के बनाये दुर्ग के अवशेषों पर 1443 से शुरू होकर 15 वर्षों बाद 1458 में पूरा हुआ था। दुर्ग का निर्माण कार्य पूर्ण होने पर महाराणा कुम्भा ने सिक्के भी ढलवाये, जिन पर दुर्ग और उसका नाम अंकित था। वास्तुशास्त्र के नियमानुसार बने इस दुर्ग में प्रवेश द्वार, प्राचीर, जलाशय, बाहर जाने के लिए संकटकालीन द्वार, महल, मन्दिर, आवासीय इमारते, यज्ञ वेदी, स्तम्भ और छत्रियाँ आदि बने हुए है।

संरचना: कुम्भलगढ़ क़िले का 'आरेठ पोल' नामक दरवाज़ा केलवाड़े के कस्बे से पश्चिम में कुछ दूरी पर 700 फुट ऊँची नाल चढ़ने पर बना है। हमेशा यहाँ राज्य की ओर से पहरा हुआ करता था। इस स्थान से क़रीब एक मील (लगभग 1.6 कि.मी.) की दूरी पर 'हल्ला पोल' है, जहाँ से थोड़ा और आगे चलने पर 'हनुमान पोल' पर जाया जा सकता है। हनुमान पोल के पास ही महाराणा कुम्भा द्वारा स्थापित भगवान श्रीराम के भक्त हनुमान की मूर्ति है। इसके बाद 'विजय पोल' नामक दरवाज़ा आता है, जहाँ की कुछ भूमि समतल तथा कुछ नीची है। यहीं से प्रारम्भ होकर पहाड़ी की एक चोटी बहुत ऊँचाई तक चली गई है। उसी पर क़िले का सबसे ऊँचा भाग बना हुआ है। इस स्थान को 'कहारगढ़' कहते हैं। विजय पोल से आगे बढ़ने पर भैरवपोल, नीबू पोल, चौगान पोल, पागड़ा पोल तथा गणेश पोल आते है।

मन्दिर निर्माण शैली: हिन्दुओं तथा जैनों के कई मन्दिर विजय पोल के पास की समतल भूमि पर बने हुए हैं। नीलकंठ महादेव का बना मन्दिर यहाँ पर अपने ऊँचे-ऊँचे सुन्दर स्तम्भों वाले बरामदे के लिए जाना जाता है। इस तरह के बरामदे वाले मन्दिर प्रायः नहीं मिलते। मन्दिर की इस शैली को कर्नल टॉड जैसे इतिहासकार ग्रीक (यूनानी) शैली बतलाते हैं। लेकिन कई विद्वान् इससे सहमत नहीं हैं।

यज्ञ स्थल: वेदी यहाँ का दूसरा उल्लेखनीय स्थान है, महाराणा कुम्भा. जो शिल्पशास्त्र के ज्ञाता थे, उन्होंने यज्ञ आदि के उद्देश्य से शास्त्रोक्त रीति से बनवाया था। राजपूताना में प्राचीन काल के यज्ञ-स्थानों का यही एक स्मारक शेष रह गया है। एक दो मंजिलें भवन के रूप में इसकी इमारत है, जिसके ऊपर एक गुम्बद बनी हुई है। इस गुम्बद के नीचे वाले हिस्से से जो चारों तरफ़ से खुला हुआ है, धुँआ निकलने का प्रावधान है। इसी वेदी पर कुम्भलगढ़ की प्रतिष्ठा का यज्ञ भी हुआ था। क़िले के सबसे ऊँचे भाग पर भव्य महल बने हुए हैं।

कुंड तथा प्रशस्तियाँ: नीचे वाली भूमि में 'भालीवान' (बावड़ी) और 'मामादेव का कुंड' है। महाराणा कुम्भा इसी कुंड पर बैठे अपने ज्येष्ठ पुत्र उदयसिंह (ऊदा) के हाथों 1468 में मारे गये थे। 'कुम्भास्वामी' नामक एक भगवान विष्णु का मन्दिर महाराणा ने इसी कुंड के निकट 'मामावट' नामक स्थान पर बनवाया था, जो अभी भी टूटी-फूटी अवस्था में है। मन्दिर के बाहरी भाग में विष्णु के अवतारों, देवियों, पृथ्वी, पृथ्वीराज आदि की कई मूर्तियाँ स्थापित की गई थीं। पाँच शिलाओं पर राणा ने प्रशस्तियाँ भी खुदवाई थीं, जिसमें उन्होंने मेवाड़ के राजाओं की वंशावली, उनमें से कुछ का संक्षिप्त परिचय तथा अपने भिन्न-भिन्न विजयों का विस्तृत-वर्णन करवाया था। राणा रायमल के प्रसिद्ध पुत्र वीरवर पृथ्वीराज का दाहस्थान मामावट के निकट ही बना हुआ है।

गणेश पोल के सामने वाली समतल भूमि पर गुम्बदाकार महल तथा देवी का स्थान है। महाराणा उदयसिंह की रानी झाली का महल यहाँ से कुछ सीढियाँ और चढ़ने पर था, जिसे 'झाली का मालिया' कहा जाता था। गणेश पोल के सामने बना हुआ महल अत्यन्त ही भव्य है। ऊँचाई पर होने के कारण गर्मी के दिनों में भी यहाँ ठंडक बनी रहती है।

संदर्भ: भारतकोश-कुम्भलगढ़

कुम्भलगढ में कुंवर पृथ्वीराज का स्मारक

कुम्भलगढ में कुंवर पृथ्वीराज का स्मारक - यह स्मारक पृथ्वीराज की स्मारक छतरी[5] के बीच एक स्तम्भ पर लगा हुआ है जिसके चारों ओर पृथ्वीराज के साथ सती होने वाली रानियों के नाम तथा कुंवर पृथ्वीराज के घोड़े ’साहण’ का नाम दिया गया है. जिन रानियों के नाम इससे उपलब्ध होते हैं वे हैं-

1. बाई पना, 2. बाई रणदे, 3. बाई जानी, 4. बाई हीरू, 5. बाई दाना, 6. बाई सेउलदे, 7. बाई मलारदे, 8. बाई सूभो, 9. बाई रायलदे, 10. बाई जेवता, 11. बाई 12. ह...., 13. बाई रोहण, 14. बाई नारु, 15. बाई 16. श्रीतारा, 17. बाई भगवती, 18. बाई ब-ला.

17 वीं रानी का नाम स्तम्भ के पहले पहलू से नष्ट हो गया है. उक्त छत्री के एक स्तम्भ पर ’श्री धणष पना’ नाम भी अंकित है जो छतरी के बनाने वाला सूत्रधार हो सकता है.

Kumbhalgarh Inscription of year V.S. 1517 (1460 AD)

Sanskrit Text
तत: श्री हंस पालश्च वैरिसिंहो नृपाग्रणी ||१४४||
स्थापितोभिनवो येन श्रीमद आघाटपत्तने
प्राकाराश्च चतुर्दिक्षु चतुर्गोपुरभूषित: ||१४५||
हाडावटीदेशपतीन् स जित्वा तन्मंडलं चात्मवशीचकार |
तदत्र चित्रं खलु यत्करांतं तदेव तेषामिह यो बभंज ||१९८||
"आलोडयासु सपादलक्षमखिलं जालान्धरान् कम्पयन्
ढिल्ली शंकितनायकां व्यरचयन्नादाय शाकम्भरी |
पीरोजं समहंमदं शरशतैरापात्य य: प्रोल्लसत्:
कुंतव्रातनिपातदीर्णह्रदयांस्तस्यावधीद्दंतिन: ||२२१||
यों विप्रानमितान् हलं कलयत: कर्श्येन वृतेरलं
वेदं सांगमपाठयत् कलिगलग्रस्ते धरित्रीतले ||२१७||
एतद्दग्धापुराग्निवाडवमसौ यन्मालावांभोनिधिं
क्षोणीश: पिबतिस्म खड्गचुलुकैस्तस्मादगस्त्य: स्फुटम् ||२७०||
Kumbhalgarh Inscription of V.S. 1517 (1460 AD) [6]

कुम्भलगढ़ की प्रशस्ति १४६० ई.

डॉ. गोपीनाथ शर्मा लिखते हैं कि [7]यह शिलालेख पांच शिलाओं पर उत्कीर्ण था जिसमें पहली, तीसरी और चौथी शिलाएं उपलब्ध हैं. दूसरी शिला का एक छोटा स टुकड़ा मिला है और पांचवीं शिला अप्राप्य है. मूलतः ये शिलाएं कुम्भलगढ़ के कुम्भश्याम मंदिर में, जिसे अब माभादेव का मंदिर कहते हैं, लगी थी. अब ये उदयपुर संग्रहालय में हैं. इस लेख के कुछ श्लोक साथ के बाक्स में हैं .

पहली शिला में ६८ श्लोक हैं जिनमें उस युग के भौगोलिक वर्णन, जनजीवन, तीर्थस्थान आदि पर प्रकाश पड़ता है. एकलिंगजी के मंदिर तथा कुटिला नदी के वर्णन में बड़ी स्वाभाविकता है. इसके साथ इन्द्रतीर्थ वर्णन, कामधेनु, तक्षक, धारेश्वर आदि का रोचक वर्णन है. चित्तोड़ के वर्णन में प्राकृतिक स्थिति, समाधिश्वर, कुम्भश्याम, महालक्ष्मी के मंदिरों का वर्णन है. प्रशस्तिकार ने ५८ से ६८ श्लोक तक आनुसंगिक ढंग से मेवाड़ के नगरों, नदियों, पहाड़ों, झीलों, बागों तथा जनसमुदाय का वर्णन है.

दूसरी शिला में ६९ से १११ तक श्लोक हैं. इसमें चित्रांगताल, चित्तोड़दुर्ग, तथा चित्तोड़ का वैष्णव तीर्थ होने का वर्णन है. चित्तोड़ के बाजारों, मंदिरों तथा राजप्रसाद के वर्णन से कुम्भा के समय की समृधि का पता लगता है. इसके अंतिम ६ श्लोकों में रावल शाखा तथा राणा शाखा की विभिन्नता को समझने में सहायता मिलती है. प्रशस्तिकार ने बापा को यहाँ विप्रवंशीय कहा है जो बड़े महत्व का है.

तीसरी शिला में वंश वर्णन चलता रहता है जिसमें बापा को फिर विप्र कहा गया है जिसमें हारीत की अनुकम्पा से मेवाड़ राज्य प्राप्त किया. यहाँ बापा को वंश-प्रवर्तक माना है और गुहिल को उसका पुत्र लिखा है जो भ्रमात्मक है. इसमें गुहा के पुत्र लाटविनोद का नाम दिया है जो अन्यत्र नहीं मिलता है. इसके पश्चात इसमें दिया गया वर्णन एकलिंगजी महात्म्य के राज वर्णन से मिलता जुलता है. वैरीसिंह के सम्बन्ध में यह उल्लिखित है कि उसने आहड़ के चारों ओर परकोट तथा चार गोपुर बनवाए. इसमें केतु के साथ सामंतसिंह के संघर्ष का भी वर्णन मिलता है. इसके बाद वर्णित है कि रत्नसिंह की चित्तोड़ रक्षा के निमित्त मृत्यु हो जाने पर खुमाण के वंशज लक्ष्मणसिंह ने दुर्ग रक्षा करते हुए अपने प्राणों की आहुति दी और उस अवसर पर उसके सात पुत्र दुर्ग रक्षा में काम आये.

इस प्रशस्ति से उस समय के मेवाड़ के चार विभागों का पता चलता है जो चित्तोड़, आघाट, मेवाड़ और बागड़ थे. इसमें दी गयी कुछ सामाजिक संस्थाओं के उल्लेख जैसे दास-प्रथा, आश्रम-व्यवस्था, वैदिक-यज्ञ , तपस्या, धर्मशाला तथा पाठन व्यवस्था बड़े रोचक हैं.

चतुर्थ प्रशस्ति में हम्मीर के वर्णन में उसके चेलावाट जीतने का वर्णन है, और उसे विषमघाटी पंचानन कहा गया है. लाखा के वर्णन में उसके धार्मिक तुलादान, और विजय कार्यों का वर्णन है. मोकल के वर्णन में सपादलक्ष जीतने तथा फीरोज को हराने का वर्णन है. क्षेत्र सिंह द्वारा भी यवन शासक को कैद करने तथा अलीशाह को परास्त करने का उल्लेख है. इस प्रशस्ति में विशेष रूप से कुम्भा का वर्णन तथा उसकी विजयों का सविस्तार उल्लेख है. उसके द्वारा की गयी विजयों में योगिनीपुर, मंडोवर, यज्ञपुर, हमीरपुर, वर्धमान, चम्पावती, सिंहपुरी, रणस्तम्भ, सपादलक्ष, आभीर, बंबावदा , माण्डलगढ़, सारंगपुर, आदि मुख्य हैं.

रतनलाल मिश्र ने लिखा है कि कुम्भलगढ़ प्रशस्ति में नागौर जीतने का वृत्त है उसमें नागौर के शासक को शकाधिपति कहा है नाम नहीं दिया है. नागौर का वर्णन १८ वें पद्य से प्रारंभ होकर २२ वें पद्य तक समाप्त हो जाता है. इसके उपरांत आगे की विजयों का वर्णन है. श्लोक २३ में उल्लिखित समसखां को कायमखानी शमसखां माना जा सकता है. क्योंकि इसके तत्काल बाद कासली की जीत की बात आती है. [8]

रतनलाल मिश्र ने यह भी लिखा है कि कुम्भलगढ़ प्रशस्ति के श्लोकों (कुम्भलगढ़ प्रशस्ति 21, 22) से ज्ञात होता है कि महाराणा कुम्भा जांगलस्थल को युद्ध में रोंदता हुआ आगे बढा और शम्सखान (कायमखानी) भूपति के अनंत रत्नों के संग्रह को छीन लिया. उसने कासली को अचानक जीत लिया. महाराणा के दुन्दुभियों के जयघोष से धुंखराद्रि (धोकर) गूँज उठा. आकर्ण पर्यन्त खेंचे हुए धनुष के बाणों के समूह से अरदिल को नष्ट करते हुए महाराणा ने आगे बढकर खंडेले के दुर्ग को खंड-खंड कर डाला. इस प्रकार इस हमले के क्रम में कुम्भा ने शेखावाटी के अनेक स्थानों को पददलित कर डाला.[9]

कासली सीकर के दक्षिण में 9 किमी दूरी पर है. उस समय इस पर संभवत: चंदेलों का राज्य था. जो पहले चौहानों के सामंत थे पर उनके कमजोर पड़ने पर स्वतंत्र हो गए थे. रेवासा, कसली और संभवत: खाटू के आसपास का प्रदेश इनके अधिकार में था. खंडेले में उस समय निर्वाणों का राज्य था. [10]

इस प्रशस्ति को किसने रचा यह ठीक से ज्ञात नहीं है. संभवत इसके रचयिता कन्ह व्यास हो जो इसके रचना काल में कुम्भलगढ़ में ही रहता था. प्रसस्ती का काल वि.सं. १५१७, मार्ग शीर्ष कृष्ण पंचमी थी.

Notable persons

External Links

References

  1. Rajputana Gazetteer 1880, p.52
  2. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p. 361
  3. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.198
  4. Aitihasik Sthanavali by Vijayendra Kumar Mathur, p.137
  5. डॉ गोपीनाथ शर्मा: 'राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत', 1983, पृ.160
  6. शर्मा डॉ. गोपीनाथ शर्मा: राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत, 1983, पृ. 150
  7. डॉ. गोपीनाथ शर्मा: राजस्थान के इतिहास के स्त्रोत, 1983, पृ. 148-150
  8. रतनलाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 103
  9. रतनलाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 95
  10. रतन लाल मिश्र:शेखावाटी का नवीन इतिहास, कुटीर प्रकाशन मंडावा, 1998, पृ. 96

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